दिल्ली की मुख्य चुनाव आयुक्त सुश्री सतबीर सिलस बेदी ने कहा है कि दिल्ली में 53 प्रतिशत मतदान का श्रेय उनके सहकर्मियों और कर्मचारियों को भी जाता है। खबर के मुताबिक 80 अधिकारियों की एक टीम अक्तबूर 2007 से लगातार इस काम में लगी थी। इनलोगों ने मतदाता सूची को संशोधित व अद्यतन करने का काम किया। इसका असर हुआ। सवाल उठता है कि क्या ऐसा प्रयास सारे देश में किया जाता है घ् उत्तर होगा नहीं। सुश्री बेदी ने यह भी कहा है जनता को वोट देने के लिए जागरूक करने वाले प्रचार का ऐसा असर हुआ कि उनके कार्यालय के फोन काफी व्यस्त रहे और दिन भर वोटिंग से संबंधित जानकारियों के लिए लोगों के फोन आते रहे।
दिल्ली के पास ही गुड़गांव और गाजियाबाद में लोगों को अपने राज्यों के चुनाव कार्यालय के नंबर नहीं मालूम थे। ऐन मतदान के दिन अखबारों में खबर छपी थी कि गुड़गांव के कई अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब हो गए हैं। गाजियाबाद के वैशाली इलाके में भी यही हुआ। वर्ष 2002 से वहां रह रहे पत्रकार संजय कुमार सिंह ने बताया कि इस बार उनका नाम मतदाता सूची में नहीं था। जबकि उनके पास 05 जनवरी 2005 को जारी मतदाता पहचान पत्र है तथा पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उन्होंने मतदान किया भी था। इस बार वैशाली में ग्यारह मंजिल की जिस बिल्डिंग में वे पिछले सात साल से लगातार रह रहे हैं उसमें रहने वाले तमाम लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब थे। यही हाल आस.पास की ऐसी कई बिल्डिंग में रहने वालों का था। जाहिर है कि वैशाली की मतदाता सूची बहुत ही लापरवाही से बनाई गई है और उसमें कोई क्रमए सिस्टमए व्यवस्था नजर नहीं आती है। इसलिए जिनका नाम है वे वोट नहीं डाल पाते और जो वोट डालना चाहते हैं उनके नाम ही नहीं हैं।
भविष्य में यह स्थिति न रहे इसके लिए इसमें सोच.समझ कर काम करने की जरूरत है। देश के अलग.अलग हिस्सों में मतदाताओं को शिकायत है कि उनका मतदान केंद्र अक्सर बदल जाता है जिसकी सूचना सरकारी स्तर पर देने का रिवाज ही नहीं है। ऐसे में अगर किसी मतदाता को यह पता ही न चले कि उसका नाम मतदाता सूची में कहां है और उसे वोट डालने किस मतदान केंद्र पर जाना है तो वह वोट कैसे डालेगा। वैशाली के मतदाताओं के नाम एक बार मतदान सूची में शामिल होने और फिर गायब हो जाने के बारे में पता चला है कि पुनरीक्षण के समय अगर किसी बीएलओ को नाम नहीं मिलते तो वह उन्हें विलोपित या डिलीट करने की सिफारिश कर देता है। अब अगर किसी सरकारी अधिकारी को बड़ी संख्या में मतदाताओं वाली कोई बिल्डिंग ही न मिले तो उसमें रहने वाले मामूली वोटर को मतदाता सूची में अपना नाम कैसे मिलेगा घ्
इसपर मतदान से पहले भिन्न राजनैतिक दलों द्वारा बंटवाई जाने वाली पर्ची का ख्याल आया जिसमें मतदान केंद्रए भाग संख्या आदि की जानकारी दी जाती है। मतदान के समय भी अधिकारी इस पर्ची की मांग करते हैं। वैसे तो इस पर्ची पर ऐसा कुछ नहीं होता जिससे जारी करने वाली पार्टी की पहचान हो पर किस पार्टी ने कितने सफेदए भूरे या पीले कागज वाली पर्ची जारी की है यह तो संबंधित क्षेत्र में सक्रिय लोगों को मालूम ही रहता है और मेरा मानना है कि जो लोग जिस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं उसी पार्टी की पर्ची लेकर मतदान करने जाते हैं। या मतदान केंद्र के बाहर उसी पार्टी के लोगों के पास जाते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इससे मत की गोपनीयता भंग होती है और यह काम सरकार को करना चाहिए। सरकार लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के लिए जो प्रयास कर रही है उसके साथ लोगों को यह बताना भी जरूरी है कि उनका नाम मतदाता सूची में कहां है और उन्हें वोट डालने कहां जाना है।
इसके अलावा मतदाता सूची को आसानी से उपलब्ध कराना भी जरूरी है। मतदान से काफी पहले इसे इंटरनेट समेत जनता के लिए सार्वजनिक और सुविधाजनक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए और उसके बाद लोगों को समय व मौका दिया जाना चाहिए कि वे अपना नाम शामिल कराने के लिए आवेदन और आवश्यक प्रयास करें। हर बार मतदान केंद्र बदलने का कारण भी समझ से परे है। वैशाली नई बस रही कालोनी है। इसलिए अगर ऐसा हो रहा है तो भी एक बात है पर कोशिश होनी चाहिए कि ऐसा न हो। देश के कई शहरों में लोग बाग सालों से एक ही मतदान केंद्र पर मत डालते आ रहे हैं।
एक तरफ तो सरकार मतदाता सूची और परिचय पत्र बनाने पर भारी भरकम राशि खर्च कर रही है। यह काम ठीक से न होने के नुकसान की भरपाई करने के लिए मतदाताओं को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के नाम पर भी भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है। वोट डालने के लिए जरूरी है कि वोट डालने वालों के नाम मतदाता सूची में होंए उन्हें मिल जाएं और जहां एक बार दर्ज होए वहीं रहे . अगर वोटर वहीं है। मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की प्रक्रिया भी आसान होनी चाहिए। लोगों को पता होना चाहिए कि इसके लिए उन्हें कब कहां जाना है और यह काम लोगों के घर के आस.पास ही हो तो अच्छा है। मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिए ठोस कार्रवाई की जरूरत है। अगर यह प्रतिशत मात्र विज्ञापनों से बढ़ना होता तो मुंबई में भी बढ़ता। दिल्ली और मुंबई में मतदान के प्रतिशत और सुश्री सतबीर सिलस बेदी के बयान ने इसे साबित कर दिया है।