गली-मोहल्ले के नुक्कड़ के नल पर पानी के लिए लड़ने वाली दो महिलाओं के बीच जैसी तकरार होती है और जिस भाषा का एक-दूसरे के लिए प्रयोग होता है आज उत्तर प्रदेश की राजनीति उसी स्तर पर पहुंच गई है। एक तरफ सुश्री मायावती करोड़ों रूपया खर्च करके बसपा की पर्दाफाश रैली करती हैं तो दूसरी तरफ सपा उनके खिलाफ वीसीडी जारी करके उनका पर्दाफाश करती है। बहनजी कहती हैं कि, ‘मुलायम सिंह यादव की बाकी जिंदगी जेल में गुजरेगी।’ जबकि श्री मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि, ‘हिम्मत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ।‘
जहां तक एक-दूसरे के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का सवाल है तो इसमें कुछ नया नहीं। उत्तर प्रदेश की जनता पिछले एक दशक से लगातार उत्तर प्रदेश की राजनीति के निरंतर पतन की साक्षी है। अब उत्तर प्रदेश में राजनीति नहीं होती खुलेआम गुंडागर्दी होती है। जातिवाद का नंगा नाच होता है और जनता के पैसे की बेहयायी से बर्बादी होती है। एक अच्छे विकल्प के अभाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति उस स्तर पर जा पहुंची है जिस पर चल कर बिहार की आज यह दशा बनी है। यही हाल रहा तो उत्तर प्रदेश को बिहार बनने में लंबा समय नहीं लगेगा।
उत्तर प्रदेश की जनता बेहाल है। बिजली आपूर्ति की हालत खस्ता है। वह बेहाल है, सड़कों के खस्ता हाल से। उत्तर प्रदेश के कस्बों और गांवों के लाखों नौजवान बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। बसपा या सपा के नेताओं को उनके लिए रोजगार मुहैया कराने की कोई चिंता नहीं है।
प्रदेश का आर्थिक विकास ठप्प पड़ा है। न तो नए उद्योग लग रहे हैं और न ही प्रदेश का आधारभूत ढांचा विकसित ही हो रहा है। एक तरफ उत्तर प्रदेश की सरकार कर्जें लेकर वेतन बांट रही है और दूसरी ओर बहनजी सैकड़ों करोड़ रूपया खर्च करके अम्बेडकर पार्क बनवा रही हैं। अब तो उन्होंने श्री कांशीराम के जीतेजी उनकी आदमकद प्रतिमा लगा कर उनका भी स्मारक बनवाने की घोषणा भी कर दी है। शायद बहनजी ने पिछले हफ्ते बगदाद में सद्दाम हुसैन की आदमकद प्रतीमाओं की बेकद्री और दुर्दशा की टीवी रिपोर्ट नहीं देखी। कल तक जो प्रतिमाएं शान से सीना तान कर खड़ीं थीं वह देखते ही देखते धराशाही हो गईं। लोगों ने उन्हें जूतांे से पीटा और लघु-शंका से उनका अभिषेक किया। रूस में लेनिन की प्रतिमाओं के साथ भी यही हुआ था। आजादी मिलने से पहले भारत के तमाम बड़े शहरों में अंग्रेज हुक्मरानों की प्रतिमाएं लगी थीं और उनके चारों ओर खूबसूरत पार्क बनाए गए थे। पर अंग्रेजों के सत्ता से हटते ही इन प्रतिमाओं को बड़ी बेकद्री के साथ हटा दिया गया। चाहे वह इंडिया गेट के सामने वाली छोटी छतरी में लगी इंग्लैंड के महाराजा की मूर्ति हो या लखनऊ में लगी मलिका विक्टोरिया की। रानी विक्टोरियों की यह भव्य मूर्ति वर्षों बनारसी बाग के अजायब घर में बने संग्रहालय के पिछवाड़े कूड़े के ढेर के बीच में पड़ी रही थी।
आज से 40 वर्ष पहले हम जब छोटे बच्चे थे, बड़ी उत्सुकता से इस मूर्ति को देखते और आश्चर्य करते थे कि महारानी की मूर्ति कूड़े के ढेर में कैसे पहुंच गई ? आज तो हर बच्चा जानता है कि ज्यादातर राजनेता अपने लिए जी रहे हैं, न समाज के लिए और न राष्ट्र के लिए। ऐसे माहौल में जब राजनेताओं को जनता का विश्वास और प्रेम जीतना जरूरी हो तो अपनी मूर्तियां लगवा कर कोई भी राजनेता केवल अपनी मूर्खता का ही परिचय देगा। जिस प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता की तलवार हमेशा लटकी रहती हो वहां क्या यह संभव नहीं कि विरोधी दल सत्ता में आते ही ऐसी मूर्ति को मलिका विक्टोरिया की मूर्ति के साथ ही किसी कूड़ेदान में फिंकवा दें ? फिर जनता के पैसे की ऐसी बर्बादी क्यों?
जहां तक श्री मोतीलाल वोरा व श्री मुलायम सिंह यादव पर विवेकाधीन कोटे के धन के दुरूपयोग का मामला है तो यह एक अहम सवाल है और मायावती जी का खुलासा करना कोई गलत बात नहीं है। आखिर इस कोटे से धन किन्हें और किस मकसद से दिया गया यह साफ होना चाहिए। पर क्या ये कोई नई बात है ? पेट्रोल पंपों का आवंटन हो या सरकारी भूमि और संपत्ति का लीज पर दिया जाना, राजनेताओं के विवेकाधीन कोटे के नाम पर प्रायः खुलेआम अनैतिक रूप से होता है। सुपात्रों को छोड़ कर चारणों, भाटों और दलालों को रेवडि़यां बांटी जाती हैं। अगर बहन जी भी इस बात से सहमत हैं तो श्री यादव के पीछे पड़ने से बेहतर होगा कि वे अपने सहयोगी दल और केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शिखर नेतृत्व से कहें कि विवेकाधीन कोटे को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए और जनता के पैसे के प्रयोग की व्यवस्था को पूरी पारदर्शिता के साथ चलाया जाए ताकि शक और भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही न रहे। पर बहनजी ऐसा नहीं करेंगी। क्योंकि उनके दल सहित सभी दलों के सांसदों ने ऐसे सभी कानूनों का लगातार विरोध किया है जिनसे ऐसी पारदर्शिता स्थापित हो सके। चाहे वह राजनीति के अपराधिकरण का मामला हो या सीवीसी या सीबीआई को उच्च पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को जांचने की स्वायत्तता देने की बात हो। जब श्री अमरसिंह ने मायावती के विरूद्ध वीसीडी जारी की थी और उन पर विधायक और सांसद निधि से कमीशन मांगने का सीधा आरोप लगाया था तब भी हमने यही लिखा था कि इसमें नई बात क्या है ? इस निधि का इस्तेमाल कैसे होता है इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। जहां यह खर्च की जाती है वहां जाकर देखा जाए कि कितना धन लगा और उससे क्या बन कर तैयार हुआ, तो सब साफ हो जाएगा।
दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति बुनियादी सवालों से हट कर कीचड़ उछालने तक सीमित रह गई है। ये दूसरी बात है कि इस कीचड़ उछालने का मकसद प्रदेश की राजनीति से भ्रष्टाचार दूर करना नहीं बल्कि कुर्सी हथियाना या कुर्सी से चिपके रहना ही है। इसलिए जनता निर्लिप्त भाव से सब कुछ देखती रहती है। उस पर इस नौटंकी का कोई असर नहीं पड़ता। दरअसल आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की साधारण जनता इसलिए किसी दल का साथ देती है कि मिलना तो हमें कुछ है नहीं क्यों न अपनी जाति के नेता का ही साथ दिया जाए। इस मानसिकता के पीछे जातिगत अहंकार की तुष्टि होती है। यही वजह है कि सब कुछ जानने के बावजूद जनता अक्सर भ्रष्ट राजनेताओं को भी चुनकर भेज देती है। जिन दिनों बिहार में चारा घोटाले का शोर मचता था उन दिनों बिहार के यादव कहा करते थे कि क्या हुआ जो लालू ने चारे का पैसा खा लिया। इससे पहले ठाकुर और ब्राह्मण मुख्यमंत्री पैसा खाते रहे तब तो कोई नहीं बोला, अब हमारा यादव भाई अगर पैसा खा रहा है तो ये लोग शोर क्यों मचाते हैं? ऐसी मूर्ख मानसिकता के व जाति अभिमान से ग्रस्त अल्पदृष्टि वाले लोग ही मायावती या श्री मुलायम सिंह की बयानबाजियों से प्रभावित हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश की शेष जनता नहीं।
हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ये है कि विपक्ष अपनी भूमिका से विमुख हो चुका है। विपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि सत्तारूढ़ दल की जनविरोधी गतिविधियों का पर्दाफाश करे और सत्तारूढ़ दल पर हमेशा नैतिक दबाव बनाए रखे। पर दुर्भाग्य से आज हमारे लोकतंत्र की यह स्थिति हो गई है कि विपक्ष में रहने वाले दल अपनी सार्थक भूमिका से हट गए हैं। वे बुनियादी सवाल इसलिए नहीं उठाना चाहते कि जो काम आज सत्तारूढ़ दल कर रहा है वही काम कल तक वे करते थे और फिर सत्ता मे आएंगे तो वही करेंगे। इसलिए सभी दल अपने विरोधियों के विरूद्ध शोर मचाने का नाटक करते हैं पर ऐसा कुछ भी नहीं करते जिससे राजनैतिक पतन को रोका जा सके और व्यवस्था में बुनियादी बदलाव आ सके। बसपा और सपा के महाभारत को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है।