Friday, April 18, 2003

बसपा और सपा में महाभारत


गली-मोहल्ले के नुक्कड़ के नल पर पानी के लिए लड़ने वाली दो महिलाओं के बीच जैसी तकरार होती है और जिस भाषा का एक-दूसरे के लिए प्रयोग होता है आज उत्तर प्रदेश की राजनीति उसी स्तर पर पहुंच गई है। एक तरफ सुश्री मायावती करोड़ों रूपया खर्च करके बसपा की पर्दाफाश रैली करती हैं तो दूसरी तरफ सपा उनके खिलाफ वीसीडी जारी करके उनका पर्दाफाश करती है। बहनजी कहती हैं कि, ‘मुलायम सिंह यादव की बाकी जिंदगी  जेल में गुजरेगी।जबकि श्री मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि, ‘हिम्मत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ।‘ 

जहां तक एक-दूसरे के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का सवाल है तो इसमें कुछ नया नहीं। उत्तर प्रदेश की जनता पिछले एक दशक से लगातार उत्तर प्रदेश की राजनीति के निरंतर पतन की साक्षी है। अब उत्तर प्रदेश में राजनीति नहीं होती खुलेआम गुंडागर्दी होती है। जातिवाद का नंगा नाच होता है और जनता के पैसे की बेहयायी से बर्बादी होती है। एक अच्छे विकल्प के अभाव में उत्तर प्रदेश  की राजनीति उस स्तर पर जा पहुंची है जिस पर चल कर बिहार की आज यह दशा बनी है। यही हाल रहा तो उत्तर प्रदेश को बिहार बनने में लंबा समय नहीं लगेगा। 

उत्तर प्रदेश की जनता बेहाल है। बिजली आपूर्ति की हालत खस्ता है। वह बेहाल है, सड़कों के खस्ता हाल से। उत्तर प्रदेश के कस्बों और गांवों के लाखों नौजवान बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। बसपा या सपा के नेताओं को उनके लिए रोजगार मुहैया कराने की कोई चिंता नहीं है।
प्रदेश का आर्थिक विकास ठप्प पड़ा है। न तो नए उद्योग लग रहे हैं और न ही प्रदेश का आधारभूत ढांचा विकसित ही हो रहा है। एक तरफ उत्तर प्रदेश की सरकार कर्जें लेकर वेतन बांट रही है और दूसरी ओर बहनजी सैकड़ों करोड़ रूपया खर्च करके अम्बेडकर पार्क बनवा रही हैं। अब तो उन्होंने श्री कांशीराम के जीतेजी उनकी आदमकद प्रतिमा लगा कर उनका भी स्मारक बनवाने की घोषणा भी कर दी है। शायद बहनजी ने पिछले हफ्ते बगदाद में सद्दाम हुसैन की आदमकद प्रतीमाओं की बेकद्री और दुर्दशा की टीवी रिपोर्ट नहीं देखी। कल तक जो प्रतिमाएं शान से सीना तान कर खड़ीं थीं वह देखते ही देखते धराशाही हो गईं। लोगों ने उन्हें जूतांे से पीटा और लघु-शंका से उनका अभिषेक किया। रूस में लेनिन की प्रतिमाओं के साथ भी यही हुआ था। आजादी मिलने से पहले भारत के तमाम बड़े शहरों में अंग्रेज हुक्मरानों की प्रतिमाएं लगी थीं और उनके चारों ओर खूबसूरत पार्क बनाए गए थे। पर अंग्रेजों के सत्ता से हटते ही इन प्रतिमाओं को बड़ी बेकद्री के साथ हटा दिया गया। चाहे वह इंडिया गेट के सामने वाली छोटी छतरी में लगी इंग्लैंड के महाराजा की मूर्ति हो या लखनऊ में लगी मलिका विक्टोरिया की। रानी विक्टोरियों की यह भव्य मूर्ति वर्षों बनारसी बाग के अजायब घर में बने संग्रहालय के पिछवाड़े कूड़े के ढेर के बीच में पड़ी रही थी।  

आज से 40 वर्ष पहले हम जब छोटे बच्चे थे, बड़ी उत्सुकता से इस मूर्ति को देखते और आश्चर्य करते थे कि महारानी की मूर्ति कूड़े के ढेर में कैसे पहुंच गई ? आज तो हर बच्चा जानता है कि ज्यादातर राजनेता अपने लिए जी रहे हैं, न समाज के लिए और न राष्ट्र के लिए। ऐसे माहौल में जब राजनेताओं को जनता का विश्वास और प्रेम जीतना जरूरी हो तो अपनी मूर्तियां लगवा कर कोई भी राजनेता केवल अपनी मूर्खता का ही परिचय देगा। जिस प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता की तलवार हमेशा लटकी रहती हो वहां क्या यह संभव नहीं कि विरोधी दल सत्ता में आते ही ऐसी मूर्ति को मलिका विक्टोरिया की मूर्ति के साथ ही किसी कूड़ेदान में फिंकवा दें ? फिर जनता के पैसे की ऐसी बर्बादी क्यों?

जहां तक श्री मोतीलाल वोरा व श्री मुलायम सिंह यादव पर विवेकाधीन कोटे के धन के दुरूपयोग का मामला है तो यह एक अहम सवाल है और मायावती जी का खुलासा करना कोई गलत बात नहीं है। आखिर इस कोटे से धन किन्हें और किस मकसद से दिया गया यह साफ होना चाहिए। पर क्या ये कोई नई बात है ? पेट्रोल पंपों का आवंटन हो या सरकारी भूमि और संपत्ति का लीज पर दिया जाना, राजनेताओं के विवेकाधीन कोटे के नाम पर प्रायः खुलेआम अनैतिक रूप से होता है। सुपात्रों को छोड़ कर चारणों, भाटों और दलालों को रेवडि़यां बांटी जाती हैं। अगर बहन जी भी इस बात से सहमत हैं तो श्री यादव के पीछे पड़ने से बेहतर होगा कि वे अपने सहयोगी दल और केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शिखर नेतृत्व से कहें कि विवेकाधीन कोटे को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए और जनता के पैसे के प्रयोग की व्यवस्था को  पूरी पारदर्शिता के साथ चलाया जाए ताकि शक और भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही न रहे। पर बहनजी ऐसा नहीं करेंगी। क्योंकि उनके दल सहित सभी दलों के सांसदों ने ऐसे सभी कानूनों का लगातार विरोध किया है जिनसे ऐसी पारदर्शिता स्थापित हो सके। चाहे वह राजनीति के अपराधिकरण का मामला हो या सीवीसी या सीबीआई को उच्च पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को जांचने की स्वायत्तता देने की बात हो। जब श्री अमरसिंह ने मायावती के विरूद्ध वीसीडी जारी की थी और उन पर विधायक और सांसद निधि से कमीशन मांगने का सीधा आरोप लगाया था तब भी हमने यही लिखा था कि इसमें नई बात क्या है ? इस निधि का इस्तेमाल कैसे होता है इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। जहां यह खर्च की जाती है वहां जाकर देखा जाए कि कितना धन लगा और उससे क्या बन कर तैयार हुआ, तो सब साफ हो जाएगा।

दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति बुनियादी सवालों से हट कर कीचड़ उछालने तक सीमित रह गई है। ये दूसरी बात है कि इस कीचड़ उछालने का मकसद प्रदेश की राजनीति से भ्रष्टाचार दूर करना नहीं बल्कि कुर्सी हथियाना या कुर्सी से चिपके रहना ही है। इसलिए जनता निर्लिप्त भाव से सब कुछ देखती रहती है। उस पर इस नौटंकी का कोई असर नहीं पड़ता। दरअसल आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की साधारण जनता इसलिए किसी दल का साथ देती है कि मिलना तो हमें कुछ है नहीं क्यों न अपनी जाति के नेता का ही साथ दिया जाए। इस मानसिकता के पीछे जातिगत अहंकार की तुष्टि होती है। यही वजह है कि सब कुछ जानने के बावजूद जनता अक्सर भ्रष्ट राजनेताओं को भी चुनकर भेज देती है। जिन दिनों  बिहार में चारा घोटाले का शोर मचता था उन दिनों बिहार के यादव कहा करते थे कि क्या हुआ जो लालू ने चारे का पैसा खा लिया। इससे पहले ठाकुर और ब्राह्मण मुख्यमंत्री  पैसा खाते रहे तब तो कोई नहीं बोला, अब हमारा यादव भाई अगर पैसा खा रहा है तो ये लोग शोर क्यों मचाते हैं? ऐसी मूर्ख मानसिकता के व जाति अभिमान से ग्रस्त अल्पदृष्टि वाले लोग ही मायावती या श्री मुलायम सिंह की बयानबाजियों से प्रभावित हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश की शेष जनता नहीं।

हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ये है कि विपक्ष अपनी भूमिका से विमुख हो चुका है। विपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि सत्तारूढ़ दल की जनविरोधी गतिविधियों का पर्दाफाश करे और सत्तारूढ़ दल पर हमेशा नैतिक दबाव बनाए रखे। पर दुर्भाग्य से आज हमारे लोकतंत्र की यह स्थिति हो गई है कि विपक्ष में रहने वाले दल अपनी सार्थक भूमिका से हट गए हैं। वे बुनियादी सवाल इसलिए नहीं उठाना चाहते कि जो काम आज सत्तारूढ़ दल कर रहा है वही काम कल तक वे करते थे और फिर सत्ता मे आएंगे तो वही करेंगे। इसलिए सभी दल अपने विरोधियों के विरूद्ध शोर मचाने का नाटक करते हैं पर ऐसा कुछ भी नहीं करते जिससे राजनैतिक पतन को रोका जा सके और व्यवस्था में बुनियादी बदलाव आ सके। बसपा और सपा के महाभारत को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है।

Friday, April 11, 2003

लाचार मानवता


आखिर अमरीका और इंग्लैंड की संयुक्त सेनाए बगदाद में पहुंच ही गई। इराक पर कब्जे के बाद अमरीका की प्राथमिकता होगी इराक में कठपुतली सरकार का गठन। इराक के तेल कुंओं पर कब्जा। इराक के पुनर्निर्माण के लिए निजी कंपनियों को ठेके देना और अमरीकी फौजों का जो गोला-बारूद इस युद्ध में नष्ट हुआ है उसे दुबारा खरीद कर अपनी सेना के भंडार भरना।
मजे कि बात ये है कि इराक पर फतह से पहले ही अमरीका ने कुवैत में इराक की नई सरकार का गठन कर लिया था और अमरीका की भवन निर्माण कंपनियों को इराक के पुनर्निर्माण के ठेके देना भी तय कर लिया था। साफ जाहिर है कि रासायनिक हथियारों का बहाना लेकर अमरीका इराक के तेल कुंओं पर कब्जा करना चाहता था इसीलिए उसने न तो संयुक्त राष्ट्र की परवाह की न दुनिया की विशाल जनमत की जो उसके विरूद्ध था और न ही अपने देश में उठे विरोध के स्वरों की। पर जिन लोगों ने टीवी चैनलों पर इराक का युद्ध देखा है वे हैरान हैं कि बगदाद तक मित्र सेनाए पहुंच गई और उन पर कहीं भी रासायनिक सशत्रों का हमला नहीं मिला। जबकि इसका काफी ढिंढोरा पीटा गया था कि इराक के पास भारी मात्रा में रासायनिक अस्त्र जमा हैं और हताशा की स्थिति में उसकी सेनाएं इनका प्रयोग करेंगी। दुश्मन घर में घुस आए इससे ज्यादा हताशा का क्षण और क्या हो सकता है ?इतना ही नहीं इस पूरे युद्ध में अमरीकी सेनाओं को कहीं भी पारंपरिक  या रासायनिक शस्तों का जखीरा नहीं मिला। है न आश्चर्य की बात ? इराक जैसा देश जो अमरीका से युद्ध के आतंक के साए में लगातार इतने वर्षों से जी रहा था क्या उसने इतने बड़े युद्ध के लिए हथियार तक नहीं जमा किए ? करता कैसे, 12 वर्ष से इराक की नाकाबंदी करके अमरीका ने उसकी आपूर्ति के सब रास्ते बंद कर दिए थे। सच तो यह है कि अगर भारत जैसे देश में भी तलाशी ली जाए तो हर शहर में हथियारों का भारी जखीरा बरामद होगा। तो फिर इराक में क्यों नहीं हुआ? साफ जाहिर है कि इराक पर युद्ध थोपने के लिए ही अमरीका ने उस पर तमाम तरह के झूठे-सच्चे आरोप मढे। इस प्रकरण में कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आई हैं। सबसे पहली बात तो ये है कि अब अमरीका के चेहरे से मानवीय स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार और लोकतंत्र का नकाब पूरी तरह से उतर गया है। पिछले 50 वर्षों से अमरीका ने इन शब्द जालों का आडंबर रच रखा था। लेकिन जिस तरह दुनिया के हर हिस्से पर  क्रमशः अमरीका अपना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण जमाता जा रहा है उससे उसके असली इरादे अब साफ होते जा रहे हैं।

अमरीका दुनिया का एकछत्र मालिक बनना चाहता है। वो चाहता है कि पूरी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था पर उसका नियंत्रण हो। सारी दुनिया में एक ही मुद्रा चले। दुनिया भर में शांति स्थापना के नाम पर हर देश को अमरीका अपने शिकंजे में रखना चाहता है। वो चाहता है कि दुनियाभर के लोग अपनी मेहनत से और अपने संसाधनों से जो भी वस्तु या सेवाएं दे सकते हैं, अमरीकी समाज को दें। मतलब साफ है कि सारी दुनिया अमरीकी समाज की खुशहाली के लिए अपना तन, मन व धन समर्पित कर दे।  इस तरह अमरीका नव-साम्राज्यवाद को पुख्ता कर लेना चाहता है। इन देशों को वह नाममात्र के लिए आजाद छोड़ देना चाहता है। देश यूं तो आजाद दिखाई देंगे पर इनकी सरकारें हर फैसला अमरीका से पूछ कर लेंगी। इससे अमरीका को कई लाभ हैं। एक तो इन देशों का आर्थिक दोहन करने में ये कठपुलती सरकारें बहुत मददगार साबित होंगी। दूसरा इन देशों की जनता की आकांक्षाओं को ये सरकारें पूरा नहीं कर पाएंगी। क्योंकि इन पर डब्ल्यूटीओ और विश्व बैंक जैसे दबाव होंगे, जिनके चलते ये अपने राष्ट्रहित में अपनी राष्ट्रीय नीतियां निर्धारित नहीं कर पाएंगे। अमरीका के हित साधने वाली इन नीतियों से व इन सरकारों के निकम्मेपन या भ्रष्टाचार से इन देशों में आर्थिक संकट और हताशा बढ़ेगी। जिसकी सीधी मार इन देशों की सरकारों पर पड़ेगी। क्योंकि जनता तो उन्हीं देशों की सरकारों को जवाबदेह मानेगी। ऐसे में अमरीका इन देशों पर दोहरा शासन करेगा। फायदे अमरीका के हिस्से में, भ्रष्टाचार, घाटे और जनविरोध उनकी सरकारों के हिस्से में। 

दुनिया भर के विशेषज्ञ ये कहते आए हैं और इस स्तंभ में भी हम लिखते रहे हैं कि इराक पर यह युद्ध अमरीका के हथियार निर्माताओं के दबाव और तेल कुंओं के कब्जे की मंशा से थोपा गया।  आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में हथियारों की बिक्री काफी गिर गई थी।  इस युद्ध के बाद उसमें भारी उछाल आएगा। मुनाफा होगा हथियार निर्माताओं का और करभार पड़ेगा अमरीका की जनता पर। दुनिया में जहां भी अमरीका शांति स्थापना के नाम पर दखलंदाजी करता हैं वहां उसका तरीका उसी बंदर जैसा होता है जो दो बिल्लियों का झगड़ा निपटाने में उनकी रोटी गटक गया। अमरीका का अब यही खेल भारत और पाकिस्तान के बीच जारी है। एक तरफ वह आतंकवाद के विरूद्ध विश्वव्यापी जंग छेड़ने का दावा करता है और दूसरी तरफ पाकिस्तान को हर तरह की मदद और संरक्षण देता है। पर अब दुनिया के हालात ऐसे हैं कि किसी भी देश की सरकार अमरीका से उलझने की कुव्वत नहीं रखती। सबने उसके आगे घुटने टेक दिए हैं।

इराक युद्ध का दूसरा परिणाम यह होगा कि मुस्लिम देशों की जनता अपने शासकों से, खासकर अरब देशों के उन शासकों से, खफा हो जाएगी जो अमरीका के पिट्ठू बन कर रहते हैं। बहुत से फिदायिन दुनिया भर में अब अमरीकियों को अपने गुस्से का शिकार बनाएंगे और अशांती पैदा करेंगे। इस युद्ध का तीसरा परिणाम यह होगा कि फ्रांस, जर्मनी और चीन जैसे देश अब अमरीका के खिलाफ गुप-चुप तरीके से लामबंद होना शुरू करेंगे और उसकी दादागिरी को चुनौती देने के रास्ते खोजे जाएंगे। एक परिणाम और होगा। लगता है कि इस युद्ध के बाद अमरीका शिखर से गिरना शुरू होगा । हालांकि दुनिया में उसकी दादागिरी अभी कम से कम 10 वर्ष और चलेगी पर अब उसकी निरंकुश सत्ता में कमी आएगी। बाकी वक्त बताएगा। 

पर इसमें नया कुछ नहीं है। पुरानी कहावत है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। जो ताकतवर होता हैं वह अपनी जिद दूसरों पर थोपता है। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में जो काम अमरीका कर रहा है, देश के स्तर पर वही काम सद्दाम हुसैन कर रहे थे। कुर्दों की लोकतांत्रिक भावनाओं को दबाना और उन पर अत्याचार करना। अपने और अपने कुनबे के ऐशो-आराम के लिए दुनिया के साजो सामान इकट्ठा करना और बड़े-बड़े महल बनवाना क्या सद्दाम हुसैन का महत्वाकांक्षी होना सिद्ध नहीं करता ? जहां भी सत्ता का केन्द्रीयकरण होता है वहीं आम जनता का शोषण होता है। भारत में भी तो यही स्थिति है। हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं ? जनता तबाह होती जा रही है और इन्हें अपनी कमाई और ऐशों आराम के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। फिर भी बढ़-चढ़ कर दावे किए जाते हैं। जनहित की दुहाई दी जाती है। पिछले दिनों राजग सरकार के पांच वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ताल ठोक कर कहा कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार विहीन सरकार है। पर हकीकत क्या है ? जनता जानती है। भ्रष्टाचार विहीन सरकार की पहली पहचान है कि उसके किसी भी विभाग में रिश्तबाजी न हो। आज केन्द्र सरकार का कौन सा विभाग और मंत्रालय है जिसमें बिना रिश्वत दिए एक कागज भी आगे सरकता है ? क्या वजह है कि वाजपेयी सरकार ने उच्च पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार जांचने की केन्द्रीय सतर्कता आयोग को खुली छूट नहीं दी। जबकि 18 दिसंबर 1997 को सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को ऐसा करने के स्पष्ट आदेश दिए थे। क्या वजह है कि वाजपेयी सरकार के नेताओं ने आज तक अपनी संपत्ति की सही और सार्वजनिक घोषणा नहीं की ? हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। पर जनता को तो यही कह कर गुमराह किया जाता है कि हम जो भी कर रहे हैं तुम्हारी भलाई के लिए ही है। फिर वो चाहे अमरीका का इराक पर हमला हो या भारत-पाक युद्ध। जनता की भलाई के असली काम करने से सभी हुक्मरान बचते हैं। इसीलिए मानवता असहाय थी और आज भी है।

Friday, April 4, 2003

पांव नहीं जमा पा रही वसुन्धरा राजे

राजस्थान की भाजपा अध्यक्षा श्रीमती वसुन्धरा राजे सिंधिया ने प्रदेश कार्यकारिणी का गठन करके बर्र के छत्ते में हाथ दे दिया। एक तो पहले ही 9 दिन चले अढ़ाई कोस। अध्यक्ष बनने के 7 महीने बाद तो कहीं जाकर वे अपनी कार्यकारिणी का गठन कर पाई। इसी से पता चलता है कि भाजपा की राजस्थान इकाई में किस कदर गुटबाजी चल रही है। इसी हफ्ते घोषित हुई कार्यकारिणी की सीधी प्रतिक्रिया तो यह हुई कि भाजपा के राजस्थान प्रभारी श्री रामदास अग्रवाल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उनका कहना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया है कि उनके भाई को कार्यकारिणी में लिया गया है और वे नहीं चाहते कि दोनों भाई प्रदेश कार्यकारिणी में एक साथ रहें। पर जानकार बताते हैं कि यह तो मात्र बयानबाजी है। दरअसल, श्री अग्रवाल कार्यकारिणी के स्वरूप को लेकर बेहद खफा है। वैसे भी जिस देश की राजनीति में हर दल में बेटे, बेटी, भाई भतीजे और बहुरानियां साथ-साथ सत्ता सुख भोग रहे हों उस माहौल में ऐसी बयानबाजी का कोई औचित्य नहीं है। असलियत तो यह है कि इस कार्यकारिणी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े ज्यादातर नेताओं को दरकिनार कर दिया गया है जिससे राजस्थान भाजपा के कार्यकर्ताओं में भारी रोश है।
रोचक तथ्य यह है कि भाजपा की राजस्थान अध्यक्षा श्री वसुन्धरा राजे सिंधिया पिछले 7 महीनों में भी अपनी पहचान नहीं बना पाई हैं। इन 7 महीनों में उनका राजस्थान प्रवास 15-20 दिन से ज्यादा नहीं रहा और जब वे आईं भी तो घोड़े पर सवार होकर। महीनों भाजपा प्रदेश कार्यालय की तरफ मुंह भी नहीं किया और जब किया तो सामंती ठाट-बाट के साथ। पार्टी के वरिष्ठ नेताआंे को भी अपनी अध्यक्षा से मिलने के लिए उनके कार्यालय में पर्ची भेजनी पड़ी। लंबा इंतजार करना पड़ा और फिर शाही अंदाज में चिक के चपरासी ने आवाज लगाई। ललित किशोर चतुर्वेदी जी मिलने आएं। श्रीमती राजे के ऐसे बर्ताव से भाजपा के वरिष्ठ नेता अपमान का घूंट पीकर रह गए। अब लोगों को आश्चर्य है कि इस नई बनी कार्यकारिणी में बिना जनाधार के नेताओं को ही तरजीह दी गई है। राजस्थान के प्रभावी राजपूत नेता श्री देवी सिंह भाटी के पुत्र श्री महेन्द्र सिंह भाटी को कार्यकारिणी का मामूली सदस्य बनाया गया तो उन्होंने इससे इस्तीफा दे दिया। भाजपा राजस्थान इकाई के पूर्व अध्यक्ष व पूर्व उप मुख्यमंत्री रहे श्री हरिशंकर भावड़ा जैसे वरिष्ठ नेता को प्रदेश कार्यकारिणी में जगह नहीं दी गई है। अनुभवी नेता श्री घनश्याम तिवारी जो पिछले 20 सालों से दल के महासचिव व   उपाधयक्ष रहे हैं और श्री शेखावत मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे हैं, वे भी प्रदेश कार्यकारिणी में अपना नाम न देख कर काफी मर्माहत हैं। इसी तरह कोटा से सांसद पूर्व मंत्री व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष श्री रघुवीर कौशल को भी दरवाजा दिखा दिया गया है। सब जानते हैं कि श्री कौशल, श्री शेखावत के      विरोधी खेमें में रहे हैं। दूसरी तरफ एक ऐसे व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्षा ने अपना राजनैतिक सचिव नियुक्त किया है जिसकी छवि राजनेता की कम और राजनेताओं से काम करवाने वाले की ज्यादा रही है। उल्लेखनीय है कि अध्यक्षा के राजनैतिक सचिव का यह पद पहली बार बनाया गया है और इस पर बिठाए गए श्री चन्द्र राज सिंघवी इससे पहले इंका नेता श्री नाथूराम मिर्धा व श्री हरदेव जोशी के साथ रहे और कहते है कि उनकी लुटिया डूबोने में इनकी अहम् भूमिका रही। श्री सिंघवी एक बार कांग्रेस के टिकट पर पाली से विधानसभा चुनाव लड़े थे और मात्र पांच हजार मत इन्हें मिले। ये आज तक कोई चुनाव नहीं जीते। ऐसे सुयोग्य व्यक्ति आगामी विधानसभाई चुनाव में अब श्रीमती वसुन्धरा राजे सिंधिया की नाव पार लगाएंगे। श्रीमती वसुन्धरा राजे सिंधिया जिस तड़क-भड़क के साथ प्रदेश अध्यक्षा बन कर आईं उससे राजस्थान के मीडिया को लगा कि वे कड़े मुकाबले के लिए तैयार होकर आईं हैं। इसलिए मीडिया ने शुरू में उनका खासा साथ दिया। पर मीडिया के प्रति उनका रूखा व्यवहार, जमीनी हकीकत की उन्हें कोई जानकारी न होना व राजस्थान भाजपा के लिए समय न निकाल पाना अब अब उनके विरूद्ध चला गया है। मीडिया में आये दिन श्रीमती वसुन्धरा राजे सिंधिया का मजाक उड़ता रहता है। मसलन, भाजपा की प्रदेश अध्यक्षा हिन्दी कम और अंग्रेजी ज्यादा बोलती हैं। राजस्थान की जनता अंग्रेजी सुनना नहीं चाहती पर श्रीमती सिंधिया अकाल राहत की मुख्यमंत्री की बैठक में भी अंग्रेजी में ही भाषण करती रहती जबकि उनसे बार-बार हिन्दी बोलने का अनुरोध किया गया। वैसे तो वे सन् 1989 से झालावाड़ से लगातार सांसद हैं और उससे पहले 1985 से अपनी श्वसुराल धौलपुर से विधायक थीं। पर सच्चाई ये है कि झालावाड़ मध्य प्रदेश से जुड़ा हुआ इलाका है। जहां की प्रजा अभी भी सामंतशाही की मानसिकता से ग्रस्त है। पर शेष राजस्थान में श्रीमती सिंधिया अपना जनाधार नहीं बना पाई हैं। यूं कहने को तो वे यहीं कहती हैं कि वे जन्म से राजपूत हैं। पति जाट हैं। बेटे की शादी उन्होंने गुर्जर परिवार में की है।  इस तरह वे राजस्थान की कई जातियों को लुभाना चाहती हैं, पर लोग उनके इस वक्तव्य को गंभीरता से नहीं लेते, बल्कि उसका मजाक ही उड़ाते हैं। हां, श्रीमती सिंधिया की एक उपलब्धि जरूर मानी जा सकती है और वह ये कि वे शेखावत जी के  विरोधी खेमे के वरिष्ठ नेता ललित किशोर चतुर्वेदी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाने में सफल हो गई हैं। जबकि संघ से जुड़ा कार्यकर्ता श्री चतुर्वेदी के इस बदले रूप को उनकी हार मान रहा है। इन कार्यकर्ताओं को लगता है कि श्री चतुर्वेदी ने पद के लालच में अपने सिद्धांतों को त्याग कर दिया है। इससे संघ और विहिप से जुड़े भाजपाई खेमों में भारी निराशा है। आमतौर पर भाजपा में यही माना जा रहा है कि श्रीमती सिंधिया तो शेडों    अध्यक्षा हैं असली बागडोर तो श्री भौंरोसिंह शेखावत के हाथ में हैं और अगला चुनाव उन्हीं के निर्देशन में लड़ा जाएगा। पर शेखावत जी के लंबे अनुभव और व्यक्तित्व का सम्मान करने वाले इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि श्री शेखावत, उप-राष्ट्रपति पद की गरिमा की परवाह न करके चुनावी राजनीति में दखल देंगे। इससे संवैधानिक पद की मर्यादा पर आंच आ सकती है। बाकी समय बताएगा।
दूसरी तरफ तमाम आशंकाओं को निर्मूल करते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत हर दिन मजबूत होते जा रहे हैं। इंका के जमीनी कार्यकर्ता अब उत्साह से उनके साथ सक्रिय हो रहे हैं। उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ उमड़ती हैं। यूं तो विपक्ष ने चालू विधानसभा सत्र में सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दों पर घेरने की काफी कोशिश की। पर अपनी साफ छवि के लिए जाने जाने वाले मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत इन हमलों से बेदाग रहे। दरअसल, हर मुद्दा विपक्ष को ही पलट कर झेलना पड़ा चाहे वह जसकौर मीणा का मामला हो या वक्फ बोर्ड का या उदरपुर में सरकारी जमीन के अलाटमेंट का। इन मुद्दांे पर भाजपा के नेताओं ने जब शोर मचाया तो पता चला कि ये भ्रष्टाचार भाजपा के शासनकाल में ही हुए थे। उदयपुर में सरकारी जमीन को 25 फीसदी दाम पर एक एनजीओ को अलाट करने का मामला बड़े जोर-शोर से उछाला गया। पर जांच के बाद मालूम चला कि एनजीओ को दिए गए इस प्लाट के बराबर वाली जमीन भाजपा शासनकाल में भाजपा के नेता गुलाबचन्द कटारिया को मुफ्त में दे दी गई थी। इस तरह पिछले 4 वर्षों में भाजपा गहलोत सरकार को घेर पाने में नाकामयाब रही है। जबकि अपने विनम्र स्वभाव, जनता से सीधा जुड़ाव, विकास कार्यक्रमों की नियमित समीक्षा और प्रांत के निरंतर दौरों से श्री गहलोत ने राजस्थान की जनता के मन में अपनी जगह बना ली है। जिससे निपटना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।

Friday, March 28, 2003

बेकार का युद्ध


इराक पर जबरन थोपा गया युद्ध अमरीका द्वारा अपनी दादागीरी विश्व पर कायम रखने का ही एक प्रयास है। इराक पर हजारों बम गिराकर उसने जता दिया है कि वह जो चाहेगा, करेगा। चाहे विश्व समुदाय उसे सही माने या गलत, इससे उसे कोई मतलब नहीं। वैसे इसमें नई बात कुछ भी नहीं है। सत्ता के मद में शासक ऐसा बार-बार करते आए हैं। मानवता का इतिहास जर, जोरू और जमीन के लिए हुई सैकड़ों लड़ाइयों की दास्तानों से भरा पड़ा है। सिंकदर-ए-आजम ने छोटी सी उम्र में दुनिया के एक बड़े हिस्से को रौंद डाला था। पर, भारत की सीमा तक पहंुचते-पहंुचते उसे बोध हुआ ऐसे युद्धों की निरर्थकता का। जब एक फकीर ने उससे प्रश्न किया कि तुम अपने वतन से इतनी दूर तक लड़ते हुए क्यों चले आए ? तो सिकंदर का जवाब था कि वो पूरी दुनिया पर नियंत्रण करना चाहता है। फकीर हंसा और सिकंदर से कहा  कि तुम दुनिया पर क्या नियंत्रण करोगे, तुम तो जिस चमड़े पर खड़े हो वो भी तुम्हारी सत्ता को नहीं मानता। तुम जिधर पैर रखते हो दब जाता है। पर जहां से तुम्हारा पैर उठता है वहां चमड़ा भी फिर उठ खड़ा होता है। सिंकदर ने अपने पैरों के नीचे दबे सूखे चमड़े को देखा और उसे बोध हुआ। वो बिना आगे बढ़े लौट गया। कहते हैं कि जब सिकंदर का अंत समय आया तो उसने इच्छा जाहिर की कि उसके जनाजे के साथ उसकी दौलत का भी जनाजा निकाला जाए ताकि दुनिया को पता चले कि पूरी दुनिया का बादशाह जब दुनिया से गया तो उसके दोनों हाथ खाली थे। सदियों से सुनी जा रही यह कहानियां बेमानी नहीं हैं। इनके पीछे इक संदेश छिपा है। राष्ट्रपति बुश जैसे हुक्मरानों के लिए। सत्ता के मद में इतना अहंकार मत करो कि दुनिया  तबाह हो जाए। एक बार मैंने अमरीका के शहर विस्कोन्सिन में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान अमरीका के सबसे ज्यादा ताकतवर रक्षा सचिव रहे मैक नमारा से पूछा कि उन्होंने वियतनाम के विरुद्ध जो लंबी लड़ाई लड़ी उससे उन्हें क्या हासिल हुआ ? शायद श्री नमारा ऐसे सवाल पहले भी कई बार झेल चुके थे। उन्होंने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, कि वो हमारी एक बड़ी भूल थी। पर, कुछ इंसानों की भूल केवल उनकी निजी जिंदगी को प्रभावित करती है और जब सत्ताधीश ऐसी बड़ी भूल करते हैं तो लाखों-करोड़ों जिंदगियां तबाह हो जाती हैं। बच्चे अनाथ हो जाते हैं। महिलाएं विधवा हो जाती हैं। बूढ़े मां-बाप अपने बुढ़ापे की लाठी खो देते हैं। शहर के शहर खंडहरों में तब्दील हो जाते हैं। इन युद्धों से केवल नफरत पैदा होती है। जो इन अनाथ बच्चों को अपराधी बना देती है। वे हिंसक हो जाते हैं। दशाब्दियां लगती हैं इन जख्मों के भरने में। वियतनाम ने अमरीकी सैनिकों की स्थानीय महिलाओं के साथ की गई जबरदस्ती के परिणामस्वरूप पैदा हुई हजारों अवैध संतानें आज तक सामान्य जीवन नहीं जी पा रही हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु हमले के बाद जो मौत का तांडव हुआ उसने पूरी दुनिया का दिल दहला दिया था। वहां आज भी मांएं पूरी तरह स्वस्थ बच्चों को जन्म नहीं देतीं। मानवता के विरुद्ध ऐसा जघन्य अपराध करने के बाद अगर श्री मैक नमारा जैसे जिम्मेदार लोग केवल इतना ही कहते हैं कि वह हमारी बड़ी भूल थी, तो इससे अगर जख्म न भरें, पर कम से कम यह तो मानना चाहिए कि समझदार आदमी दुबारा ऐसी भूल नहीं करेगा। दुख की बात है कि अमरीका यूं तो अपने को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश बताता है और आम अमरीकी एक गर्व और अहंकार की भावना के साथ जीता है, पर अमरीकी राष्ट्रपति और सत्ताधारी वर्ग को इतनी भी सामान्य समझ नहीं कि अपने जिस कदम को वो पहले अपनी भूल मान चुके हों वैसे कदम फिर न उठाएं। 

पूरे भारत पर अपनी विजय पताका फहराने के बाद मौर्यवंशी सम्राट अशोक को कलिंग के युद्ध के बाद जो ग्लानि हुई, उसने उसे बौद्ध धर्म अपनाने को प्रेरित किया। देवानाम प्रियदस्सी अशोक ने उसके बाद बहुजन हिताय जीवन जिया। मानव ही नहीं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए शेष जीवन जुटा रहा। राजा होते हुए भी एक बौद्ध भिक्षुक जैसा जीवन अपना लिया। गलती करना इतनी बुरी बात नहीं, जितना गलती से सबक न लेना है। आज अमरीका ईराक में जो कुछ कर रहा है वह केवल उसके अहंकार का प्रदर्शन है। पूरी दुनिया इस वक्त अमरीका के इस अमानवीय कृत्य का विरोध कर रही है। दूसरे देशों के लोगों की उसे परवाह न भी हो तो भी ये कम महत्वपूर्ण नहीं कि बहुसंख्यक अमरीकी समाज जार्ज बुश के इस कृत्य से बेहद दुखी है। लाखों अमरीकी स्त्री-पुरुष-नौजवान अमरीका के हर शहर की सड़कों पर अपने ही राष्ट्रपति की ईराक नीति का विरोध कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में पहले ही बुश का विरोध हो चुका है। बावजूद इसके अगर अमरीका ईराक में तबाही मचाने पर आमादा है और उसके लड़ाकू विमान ईराक के सामान्य नागरिकों को निशाना बना रहे हैं। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि लोकतंत्र और मानवीय स्वतंत्रता का सबसे बड़ा रक्षक और दावेदार अमरीका इस किस्म का वहशियाना कृत्य करे और लोकतांत्रिक तरीके से उसके विरुद्ध  दुनिया भर में हो रहे जन प्रदर्शनों की उपेक्षा कर दे ? साफ जाहिर है कि समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र का अमरीका केवल ढकोसला करता है। उसका इन मूल्यों में कोई विश्वास नहीं है। होता तो जन भावनाओं की ऐसी उपेक्षा करने का नैतिक बल उसमें न होता। 

इस युद्ध का प्रभाव केवल ईराक के लोगों पर ही पड़ेगा, ऐसी बात नहीं है। युद्ध के बादल दुनिया भर के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करेंगे। पर्यावरणविद् अनेक आशंकाओं से भयभीत हैं। दुनिया भर के अखबार उनके वैज्ञानिक आंकलन से भरे पड़े हैं। इस युद्ध का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। खुद अमरीका की अर्थव्यवस्था भी काफी हद तक हिल जाएगी। इतनी भारी कीमत चुकाकर आखिर अमरीका को हासिल क्या होगा ? ईराक के तेल के कुओं पर नियंत्रण ही तो। एक धु्रवीय विश्व व्यवस्था कायम हो जाने के बाद अमरीका पहले से ही दुनिया का ठेकेदार बना हुआ है। किसी की मजाल नहीं जो उससे निगाह मिलाकर बात कर ले। सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि खानपान और संस्कृति पर भी अब अमरीकी दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसे में दुनिया का आर्थिक दोहन करने की असीम संभावनाएं अमरीका के पास हैं। अगर एक सद्दाम कब्जे में नहीं आ रहा तो कौन सा आसमान फटा पड़ रहा है ? पर इन बातों से क्या फायदा ? जिसने अपने मन की ही करने की ठान ली हो उसे भगवान भी नहीं समझा सकता। यह बात दूसरी है कि 11 सितंबर के हमले के बाद से आम अमरीकी बेहद डरा हुआ है तथा भय और आतंक के बीच जी रहा है। ईराक पर हमला करके अमरीका ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। कहीं ऐसा न हो कि ईराक के बागी जवान दुनिया में जगह जगह अमरीका के लोगों को अपने आक्रोश का निशाना बनाएं। हो सकता है कि जार्ज बुश, सद्दाम को नेस्तनाबूद कर दें और यह भी हो सकता है कि वियतनाम की तरह अमरीका को इस युद्ध में भी मुंह की खानी पड़े। तब फिर सेवानिवृत्त जार्ज बुश भी मैक नमारा की तरह किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में किसी पत्रकार के प्रश्न पर यही कहेंगे कि ईराक का युद्ध मेरे जीवन की बहुत बड़ी भूल थी। उनकी इस भूल की भारी कीमत दुनिया को आज चुकानी पड़ रही है। कितनी अजीब बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ, सशक्त मीडिया और राष्ट्रों के अनेक संगठनों के बावजूद पूरी दुनिया आज कितनी असहाय है कि एक अडि़यल जार्ज बुश को सद्बुद्धि नहीं दे सकती। फिर इन संस्थाओं और संगठनों का क्या औचित्य ? क्यों इन पर गरीब देशों का अरबों रुपया खर्च किया जाता है ? अगर दुनिया की राजनीति में जिसकी लाठी उसकी भैंस ही चलनी है तो इस सब नाटक की क्या जरूरत ? विश्व समुदाय के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण सवाल है। फिर कोई अडि़यल राष्ट्रपति ऐसा न कर पाए इसलिए दुनिया भर के संवेदनशील लोगों को कोई रास्ता निकालना होगा।