Monday, July 25, 2022

अम्मा ने बनाया भारत का सबसे बड़ा अस्पताल


 

आम तौर पर ज़्यादातर मशहूर धर्माचार्य कोरपोरेट ज़िंदगी जीते हैं। महलनुमा आश्रमों में रहते हैं। महंगी गाड़ियों में घूमते हैं। हीरे जवाहरात से लदे रहते हैं। सैंकड़ों करोड़ रुपए के निवेश करते हैं। अमीरों के पीछे भागते हैं और ग़रीबों को हिक़ारत की नज़र से देखते हैं। पर दक्षिण भारत के केरल राज्य में मछुआरों की बस्ती में एक दरिद्र परिवार में जन्मीं माता अमृतानंदमयी मां ‘अम्मा’ एक अपवाद हैं। जिनका पूरा जीवन ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की सेवा के लिए ही समर्पित है। पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों के जीवन में सुख देने वाली ‘अम्मा’ जनसेवा के क्षेत्र में एक और ऐतिहासिक कदम रखने जा रही हैं। आगामी 24 अगस्त को फ़रीदाबाद में अम्मा के नए अस्पताल का उद्घाटन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। 


133 एकड़ भूमि में फैला ये अस्पताल भारत का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र का अस्पताल है। कोच्चि,(केरल) में प्रतिष्ठित 1,200 बिस्तरों वाले अमृता अस्पताल के बाद यह देश में अम्मा का दूसरा बड़ा अस्पताल होगा। केरल के इस अस्पताल को 25 साल पहले माता अमृतानंदमयी मठ द्वारा स्थापित किया गया था। फरीदाबाद के सेक्टर-88 में फैला यह अस्पताल 1 करोड़ वर्ग फुट का होगा। जिसमें एक 14 मंजिल ऊंची टॉवर है, जहां प्रमुख चिकित्सा सुविधाओं की मदद से विभिन्न बीमारियों के रोगियों का इलाज होगा।



अम्मा के इस अस्पताल की 81 विशिष्टताओं में न्यूरोसाइंसेस, गैस्ट्रो-साइंसेस, ऑन्कोलॉजी, रीनल साइंस, हड्डी रोग, कार्डियक साइंस और स्ट्रोक और मां व बच्चे जैसे उत्कृष्टता के आठ केंद्र शामिल होंगे। 2400 बिस्तरों के लक्ष्य वाले इस अस्पताल में इस साल 500 बिस्तरों के साथ मरीज़ों का इलाज चरणबद्ध तरीक़े से चालू किया जाएगा। आने वाले दो वर्षों में, यह संख्या बढ़कर 750 बिस्तरों और पांच वर्षों में 1,000 बिस्तरों तक हो जाएगी। ग़ौरतलब है कि पूरी तरह से चालू होने पर अस्पताल में 800 से अधिक डॉक्टरों सहित 10,000 लोगों का स्टाफ तैनात होगा। अस्पताल में कुल 2,400 बेड होंगे, जिसमें 534 क्रिटिकल केयर बेड शामिल हैं, जो भारत में सबसे अधिक होंगे।


64 मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटर, सबसे उन्नत इमेजिंग सेवाएं, पूरी तरह से स्वचालित रोबोट प्रयोगशाला, उच्च-सटीक विकिरण ऑन्कोलॉजी, सबसे आधुनिक परमाणु चिकित्सा और नैदानिक सेवाओं के लिए अत्याधुनिक 9 कार्डियक और इंटरवेंशनल कैथ लैब भी होंगे।


फरीदाबाद में अल्ट्रा-आधुनिक अमृता अस्पताल कम कार्बन पदचिह्न के साथ भारत की सबसे बड़ी ग्रीन-बिल्डिंग हेल्थकेयर परियोजनाओं में से एक होगा। यह एक एंड-टू-एंड पेपरलेस सुविधा है, जिसमें शून्य अपशिष्ट निर्वहन होता है। मरीजों के तेजी से परिवहन के लिए परिसर में एक हेलीपैड और एक 498 कमरों वाला गेस्ट हाउस भी है, जहां मरीजों के साथ आने वाले परिचारक रह सकते हैं।

      

अम्मा की संस्था द्वारा चलाई जा रही सेवाओं का मुख्य उद्देश्य दीनहीन लोगों की निःस्वार्थ मदद करना है। मसलन, उनके सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में गरीब और अमीर दोनों का एक जैसा इलाज होता है। पर गरीब से फीस उसकी हैसियत अनुसार नाम मात्र की ली जाती है। आज जब राम रहीम, आसाराम, राधे मां, रामलाल, जैसे वैभव में आंकठ डूबे ढोंगी धर्मगुरूओं का जाल बिछ चुका है, तब गरीबों के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली ये अम्मा कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं हो सकतीं। 


आज टी.वी. चैनलों पर स्वयं को परम पूज्य बताकर या बाइबल की शिक्षा के नाम पर जादू-टोने दिखाकर या इस्लाम पर मंडरा रहे खतरे बताकर, धर्म की दुकानें चलाने वालों की एक लंबी कतार है। ये ऐसे ‘धर्मगुरू’ हैं, जिनके सानिध्य में आपकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत नहीं होती, बल्कि भौतिक इच्छाएं बढ़ जाती हैं। जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था। पर, प्रचार का जमाना है। चार आने की लागत वाले स्वास्थ्य विरोधी शीतल पेयों की बोतल 20 रूपए की बेची जा रही है। इसी तरह धर्मगुरू विज्ञापन एजेंसियों का सहारा लेकर टीवी, चैनलों के माध्यम से, अपनी दुकान अच्छी चला रहे हैं और हजारों करोड़ के साम्राज्य को भोग रहे हैं। 


जबकि दूसरी ओर केरल की ये अम्मा गरीबों का दुख निवारण करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। इसका ही परिणाम है कि केरल में जहां गरीबी व्याप्त थी और उसका फायदा उठाकर भारी मात्रा में धर्मांतरण किए जा रहे थे, वहीं आज अम्मा की सेवाओं के कारण धर्मांतरण बहुत तेजी से रूका है। हिंदू धर्मावलंबी अब अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मिशनरियों के प्रलोभनों में फंसकर अपना धर्म नहीं बदलते। पर, इस स्थिति को पाने के लिए अम्मा ने वर्षों कठिन तपस्या की है। 


कृष्ण भाव में तो वे जन्म से ही डूबी रहती थीं। पर उनके रूप, रंग और इस असामान्य व्यवहार के कारण उन्हें अपने परिवार से भारी यातनाएं झेलनी पड़ीं। वयस्क होने तक अपने घर में नौकरानी से ज्यादा उनकी हैसियत नहीं थी। जिसकी दिनचर्या सूर्योदय से पहले शुरू होती और देर रात तक खाना बनाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, गाय चराना, नाव खेकर दूर से मीठा पानी लाना, क्योंकि गांव में खारा पानी ही था, गायों की सेवा करना, बीमारों की सेवा करना, यह सब कार्य अम्मा को दिन-रात करने पड़ते थे। ऊपर से उनके साथ हर वक्त मारपीट की जाती थी। उनके बाकी भाई-बहिनों को खूब पढ़ाया लिखाया गया। पर, अम्मा केवल चौथी पास रह गईं। इन विपरीत परिस्थितियों में भी अम्मा ने कृष्ण भक्ति और मां काली की भक्ति नहीं त्यागी। इतनी तीव्रता से दिन-रात भजन किया कि उनकी साधना सिद्ध हो गई। कलियुग के लोग चमत्कार देखना चाहते हैं, पर अम्मा स्वयं को सेविका बताकर चमत्कार दिखाने से बचती रहीं। पर ये चमत्कार क्या कम है कि वे आज तक दुनिया भर में जाकर 5 करोड़ से अधिक लोगों को गले लगा चुकी हैं। उनको सांत्वना दे चुकी हैं, उनके दुख हर चुकी हैं और उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रही हैं। 


इस चमत्कार के बावजूद हमारी ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था ने एक महान आत्मा को मछुआरिन मानकर वो सम्मान नहीं दिया, जो संत समाज में उन्हें दिया जाना चाहिए था। ये बात दूसरी है कि ढोंगी गुरूओं के मायाजाल के बावजूद दुनिया भर के तमाम पढ़े-लिखे लोग, वैज्ञानिक, सफल व्यवसायी, सिने कलाकार, नेता और पत्रकार भारी मात्रा में उनके शिष्य बन चुके हैं और उनके आगे बालकों की तरह बिलख-बिलख कर अपने दुख बताते हैं। मां सबको अपने ममतामयी आलिंगन से राहत प्रदान करती हैं। उनके आचरण में न तो वैभव का प्रदर्शन है और न ही अपनी विश्वव्यापी लोकप्रियता का अहंकार। जबकि वे संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व की सबसे बड़ी सम्मानित संत हैं। उनके द्वार पर कोई भी, कभी भी, अपनी फरियाद लेकर जा सकता है।

Monday, July 18, 2022

सौ शब्दों की 87 कहानियाँ


आज की युवा पीढ़ी किताबें पढ़ना नहीं चाहती। हर वक्त स्मार्ट फ़ोन या कम्प्यूटर के सामने गर्दन झुकाए जुटी रहती है। जिसका काफ़ी बुरा असर आँखों, कंधों, गर्दन और दिमाग़ पर पड़ता है। वैसे तो हम सब भी इसी बुरी आदत के ग़ुलाम बन चुके हैं।


इस समस्या का एक सरल सा हल खोजा है, तीन पीढ़ी के तीन लेखकों ने। नाना, माँ और बेटी ने मिलकर ‘ड्रैबल्स’ को भारत में साकार किया। आप पूछेंगे ये ‘ड्रैबल्स’ क्या बला है? यह 100 शब्दों में लिखी जाने वाली कहानी है जिसमें न एक शब्द ज़्यादा हो सकता है न कम। ‘ड्रैबल्स’ लिखना चुनौती के साथ-साथ मज़ेदार भी होता है। ‘ड्रैबल्स’ पढ़ना ख़ुशी देता है। कोई व्यक्ति जो कुछ हलका-फुलका और जल्दी ख़त्म होने वाला पढ़ना चाहता है, उसके लिए यह ‘ड्रैबल्स’ लेखन उत्तम विधा है। साहित्यिक दुनिया में यह एक नये प्रकार के लेखन की प्रणाली है जो अभी भारत देश में ज़्यादा प्रचलित नहीं हुई है। वर्ष 1980 में यूनाइटेड किंगडम में इसकी शुरुआत हुई थी। यह ‘माइक्रो- फ़िक्शन’ कहानियाँ हैं जो केवल सौ शब्दों में लिखी जाती हैं। सौ शब्दों में ही कहानी के आदि, मध्य और अंत को रोचक बनाए रखना होता है। 



2020-21 में कोरोना काल में जब हम सब अपने घरों में क़ैद थे और बाहर जाने को छटपटा रहे थे तब दुनिया में बहुत से लोगों ने कई अनूठे काम किए। ऐसे ही ये तीन लोग हैं, नाना बिशन सहाए, माँ रुचि रंजन और बेटी इशिका रंजन, जिन्होंने ‘हमारी दुनिया ड्रैबल्स की’ नाम की एक पुस्तक लिखी जो आज भारत में लोकप्रियता के कारण खूब बिक रही है। इस संग्रह में जीवन के हर रंग और रस की 87 कहानियाँ हैं। कुछ हँसी की मज़ेदार हैं, कुछ विलक्षण और अव्यावहारिक और चंद साई-फ़ाई के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कुछ यादें कुरेदती हैं तो कुछ सहानभूति जगाती हम को इंसानियत की याद दिलाती हैं।कभी-कभी उन में जीवन की तरह से, उनका अंत नायाब और अप्रत्याशित होता है। सुंदर आकर्षित चित्रों से सँवारी गई यह पुस्तक हिंदी के पाठकों के लिए एक नया व उत्तम तोहफ़ा है।



सौ शब्दों की इन कहानियों के चार नमूने देखिए। ‘लुका-छिपी’ शीर्षक की यह कहानी यूँ लिखी गई है- पलंग के नीचे, मेज़ के नीचे दरवाज़े के पीछे... मेरा परिवार आज लुका-छिपी खेल रहा था। सामाजिक दूरी और लॉकडाउन के कारण हमारा घूमना-फिरना कम हो गया था। वह कहीं तो होगा! दो मंज़िलें घर में उसे ढूँढना मुश्किल था और वह हमारे कॉल करने पर भी जवाब नहीं दे रहा था। उसकी चुप्पी परेशानी को ज्यादा उलझा रही थी। पारे गरम थे। उसके बिना ‘वर्क फ्रॉम होम’ असंभव था। कोविड-19 में सब वर्चुअल होना था... क्लास हो या वेबिनार। थक कर मैं कद्दू मसाला लाते बनाने चली। जैसे ही प्याला प्लेट उठाने लगी। पीछे चुपचाप छिपा छिपाया पड़ा था... मेरा स्मार्ट फोन!


इसी तरह एक और कहानी का लुत्फ़ उठाइए। इसका शीर्षक है ‘ची-ची।’ यह घटना चीनी क्रांति से पहले की है जब चीनी पश्चिमी रंग में रंग रहे थे और अंग्रेज़ कृपालु मगर नकचढ़े थे। लंदन के सरकारी रात्रिभोज में कुओमिंतांग के विदेश मंत्री डॉ. सूँग, अंग्रेज़ लॉर्ड के बगल में बैठे थे। लॉर्ड अनभिज्ञ थे कि वह अंग्रेज़ी के ज्ञाता हैं। अतः बात-चीत नहीं हुई। सूप के बाद अंग्रेज़ ने विनम्रता वश पूछाः 'लाइकी सूपी?’ सूँग ने मुस्कुरा कर सिर हिला दिया। खाने के बाद, भाषणों के दौरान, डॉ. सँग से बोलने का अनुरोध किया गया। भाषण उत्तम, फर्राटेदार अंग्रेज़ी में था। अंग्रेज़ सटपटा गया। बैठते ही सँग ने उससे पूछा, 'लाइकी स्पीची? 


मानवीय संवेदनाओं को छूती इस कहानी ‘चाहत’ को पढ़िए - पानी भरने के लिए लम्बी कतार, सार्वजनिक टॉयलेट के सामने झगडा, सब्जियाँ काटती महिलाएँ, इस दृश्य ने परिसर में कदम रखते ही मेरा अभिवादन किया। आश्रम में रहने वाली शांताबाई मेरे पास आई और फुसफुसाई, 'किसी को याद नहीं... आज मेरा जन्मदिन है।' मैंने उसे गले लगाया और उसने मेरे हाथ कसकर पकड़ लिए। उसका झुर्रीदार चेहरा और आँखें चाहत से भरी थीं, जैसे किसी को खोज रही हों। मेरे मन को भाँप कर बोली, 'मुझे अपने बेटे के फोन का इंतजार नहीं है, अब यही मेरा घर है।' आँसू उसके गालों तक बहते रहे और वह मुझसे लिपट गई।


आपमें से जो लोग कम्पनियों में नौकरी करते हैं, उन्हें कोरपोरेट कल्चर की ये कहानी पढ़कर मज़ा आ जाएगा। वैसे भी एक पुरानी कहावत है, ‘घोड़े की पिछाड़ी और बॉस की अगाड़ी से हमेशा बच कर चलना चाहिए।’ इस कहानी का शीर्षक है ‘हुज़ूर ज़िंदाबाद!’ - हमारी सीलोन की कम्पनी के अध्यक्ष सर सिरिल डि जोयसा से सभी सहयोगी डरते थे। एक सुबह मैंने देखा कि उनकी कंपनियों के सभी डायरेक्टरों की हँसी रुक नहीं रही थी। हुआ यूँ कि सर सिरिल अपने बंगले से दनदनाते हुए निकले और चिल्लाये, 'मेरी चीजें क्यों छुई जाती हैं? मेरा चश्मा कहाँ गया?' सब लोग उसे ढूँढने में लग गए, जब तक कि चश्मा उनकी तनी हुई भौंहों से लुढ़क कर नाक पर नहीं आ गया। ऐसा संभव नहीं था कि सबको वह लगा हुआ न दिखा हो, परंतु सर की बात काटने का साहस कौन करता? हुज़ूर ज़िंदाबाद! इसी बात को हमारे ब्रज में यूँ कहते हैं, ‘बग़ल में छोरा - नगर में ढिंडोरा।’ क्यों यही होता है न आपकी भी कम्पनी में रोज़ाना?


ऐसी ही 83 रोचक कहानियाँ रूपा पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में और हैं जिसकी तारीफ़ करने वालों में सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्ज़ा और शशि थरूर सहित तमाम अख़बार भी शामिल हैं। बच्चों के लिए अंग्रेज़ी में रोचक उपन्यास लिखने वाले विश्व विख्यात लेखक रस्किन बॉंड का कहना है कि यह लघु- कथाओं का मनमोहक संग्रह कोविड-19 से परेशान हुए लोगों के लिए है। हर मर्ज़ को दूर रखेगी, हर दिन एक ड्रैबल की खुराक।   


इस पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि, समुद्र के पानी का एक छोटा-सा चम्मच ही उसका डीएनए बता देता है। इसी प्रकार इंसान के शरीर का छोटा-सा बाल अथवा नाखून का टुकड़ा एवं किसी भी अंग का अंश मात्र पूरे शरीर के डीएनए का अनुक्रम हो जाता है। संक्षेप में यही सत्य कि हमारे शरीर का सार तत्व लगभग अदृश्य अणु पर निर्भर करता है, जो कि विकसित होने पर जीवन की बड़ी से बड़ी कहानी बन जाता है। हिन्दुस्तान के वेदों, शास्त्रों और ग्रंथों में भरी सामग्री को आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। हज़ारों साल पहले सुश्रुत ने प्लास्टिक सर्जरी में जिस सामग्री का प्रयोग किया था, उसका विवरण दिया था। केवल एक पंक्ति पढ़कर मुझमें पूरा ग्रंथ पढ़ने की इच्छा जागी। मुझे विश्वास है कि इस लेख को पढ़कर आपके भी मन में इस अनूठी किताब को खोजने और पढ़ने की इच्छा जागेगी। क्योंकि  तभी हम अपने बच्चों को कम्प्यूटर और स्मार्ट फ़ोन से हटा कर एक बार फ़िर किताबों की दुनिया में लौटा पाएँगे। जो उनके बौद्धिक विकास के लिए बहुत ज़रूरी है।

Monday, July 11, 2022

अवसादों भरा हफ़्ता



पिछला हफ़्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवसादों से भरा रहा। जो घटनाएँ घटीं उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर भारत पर भी पड़ेगा। इस क्रम में सबसे ज़्यादा दुखद घटना जापान के पूर्व प्रधान मंत्री शिंजो आबे की नृशंस हत्या है। वे न केवल जापान के सशक्त और लोकप्रिय नेता थे बल्कि विश्व राजनीति में भी उनका सर्वमान्य प्रभावशाली व्यक्तित्व था। इस तरह की हिंसा जापान की संस्कृति में अनहोनी घटना है। कुछ लोगों को अंदेशा है कि इसके पीछे चीन का हाथ हो सकता है। जिसने हत्यारे को मनोवैज्ञानिक रूप से इस हाराकिरी के लिए उकसाया होगा। ऐसे षड्यंत्रों का प्रमाण आसानी से जग-ज़ाहिर नहीं होता, इसलिए दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा अंदेशा लगाने वालों का तार्किक आधार यह है कि ‘साउथ एशिया सी’ में चीन की बढ़ती दादागिरी को रोकने की जो पहल शिंजो आबे ने की उससे चीन जाहिरन बहुत विचलित था। 



दुनिया के राजनैतिक पटल पर चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं और परोक्ष दादागिरी पर लगाम कसने का साहस अगर किसी में था तो वह शिंजो आबे थे। आबे की आकस्मिक मृत्यु भारत के लिए भी चिंता का विषय है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि शिंजो आबे की मृत्यु ने भारत का एक सशक्त शुभचिंतक खो दिया। चीन को घेरने की शिंजो आबे की नीति में सक्रिय रह कर श्री मोदी ने भी सहयोग किया था। क्योंकि यह भारत के भी हित में है, वरना चीन का आर्थिक नव-साम्राज्यवाद दक्षिण एशिया को निगलने को तैयार बैठा है। 


उधर श्रीलंका में पिछले कुछ महीनों से जो चल रहा है और विशेषकर पिछले हफ़्ते जो हुआ, वो भी काफ़ी चिंताजनक है। समाज के एक बड़े हिस्से की ओर हिक़ारत से देखना और उसके प्रति घृणा, द्वेष व हिंसा को प्रोत्साहित करके चुनाव जीतने की जो रणनीति श्रीलंका की श्रीलंका पीपुल्स पार्टी और इसके नेताओं महिंदा राजपक्षे और गोटबाया राजपक्षे ने अपनाई थी, उससे वे सत्ता पर तो क़ाबिज़ हो गए, पर विकास के किए वायदे पूरे न कर पाने के कारण  जल्दी ही जनता की नज़र में गिर गए। उस पर भी राजपक्षे परिवार के भारी भ्रष्टाचार ने आग में घी का काम किया। लाखों की तादाद में श्रीलंका की जनता का, फ़ौज की मौजूदगी में, राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास पर हमला करना और राष्ट्रपति का छिप कर भाग निकलना, किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए बड़ी चेतावनी है। बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और दैनिक वस्तुओं की भारी कमी जैसी समस्याओं से जूझती श्रीलंका की आम जनता ने अबसे कुछ हफ़्तों पहले इसी तरह प्रधान मंत्री के आवास पर हमला करके उसे जला दिया था। ये वही जनता है जो कल तक इन्हीं नेताओं की दीवानी थी और इनके एक इशारे पर समाज के एक ख़ास हिस्से को समुद्र तक में फेंकने को तैयार थी। 


दुनिया भर के राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि भावनात्मक मुद्दों का जीवनकाल बहुत लम्बा नहीं होता। ये तभी तक सफल होते हैं जब तक आम लोगों को बुनियादी सुविधाएँ, संसाधन और रोज़मर्रा की वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध होती रहें। पुरानी कहावत है, ‘भूखे भजन न होय गोपाला। ले लो अपनी कंठी माला।।’, यानी भजन भी भरे पेट के बाद ही हो पाता है। 



भारत के लिए यह एक अच्छी बात है कि हमारा देश कृषि प्रधान है। इसलिए श्रीलंका की तरह भारतवासियों को भूखे सड़कों पर उतरने की नौबत नहीं आएगी। 1994 की बात है मेरे सहपाठी और केंद्र में मंत्री रहे दिवंगत दिग्विजय सिंह से मैंने कहा कि ‘राजनेता इतना भ्रष्टाचार क्यों करते हैं? क्या उन्हें जनक्रांति की संभावना के बारे में सोच कर डर नहीं लगता?’ इस पर दिग्विजय सिंह का उत्तर था, तुम किस दुनिया में रहते हो? भारत के आम लोगों को दो वक्त भरपेट अनाज मिलने में कमी नहीं रहेगी और वे भाग्यवादी हैं, इसलिए अपनी हालत के लिए हमें नहीं, अपने भाग्य को दोष देते हैं। इसलिए यहाँ कभी क्रांति नहीं होगी। उस समय दिग्विजय की ये बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था। पर सब समय एक सा नहीं रहता। हालात बदलने से सोच बदल जाती है। पहले देश के नौजवान भारी मात्रा में अशिक्षित थे। इसलिए परिवार के पास खेती योग्य भूमि सीमित मात्रा में होने पर भी सारा परिवार उसी में जुटा रहता था। जिसे अर्थशास्त्रियों ने ‘प्रच्छन्न बेरोज़गारी’ कहा था। यानी वो बेरोज़गार जो सरकार के रोज़गार कार्यालय में पंजीकरण नहीं कराते। जबकि सही मायने में उनके पास उनकी क्षमता के अनुरूप रोज़गार नहीं होता। 


लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। भारत की 40 फ़ीसद आबादी युवाओं की है। उनमें शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। सूचना क्रांति के चलते गाँव-गाँव तक जागृति फैली है। अब भारत का युवा कुएँ का मेंढक नहीं है। उसकी महत्वाकांक्षाओं को पर लग गए हैं। वो भी आर्थिक प्रगति के आसमान में उड़ना चाहता है। पिछले दिनों ‘अग्निवीर’ योजना को लेकर बरसों से सैन्य और अर्धसैन्य बलों में नौकरी के लिए तैयारी कर रहे करोड़ों युवाओं ने जिस तरह का आक्रोश व्यक्त किया उससे यही संकेत मिलता है कि अब भारत का युवा सपनों की दुनिया में जीना नहीं चाहता। वह अपने सपनों को धरातल पर उतरते देखना चाहता है। 


राष्ट्र का जो नेता युवाओं के और आम लोगों के सपनों को साकार करने की क्षमता का ठोस प्रदर्शन करेगा, वही उनके दिल पर राज करेगा। कोरे आश्वासनों की घुट्टी पिलाने वाला नहीं। भारत के हर राजनैतिक दल के नेताओं को श्रीलंका के घटनाक्रम से सबक़ लेना चाहिए। उन्हें भारी भ्रष्टाचार के मोह जाल से निकल कर, कोरे वायदे और सपने दिखाना बंद करना चाहिए। दुर्भाग्य से आज हम सबके दिमाग़ और मीडिया का सारा समय उन मुद्दों पर बहस में नाहक बर्बाद हो रहा है, जिनसे इन समस्याओं का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। जबकि हमारा क़ीमती समय यह सोचने में लगना चाहिए कि भारत कैसे स्विट्ज़रलैंड जैसा सुंदर बने। कैसे हम तकनीकी शोध में पिद्दी से देश इज़राइल से आगे बढ़ें। कैसे हमारी अर्थव्यवस्था जापान जैसी मज़बूत बने और कैसे हमारे युवा ओलम्पिक खेलों में अमरीका से ज़्यादा मेडल लेकर आएँ। अगर हमने नकारात्मक और विघटनकारी मुद्दों से ध्यान हटा कर विकास के मुद्दों पर केंद्रित नहीं किया तो ‘सोने की चिड़िया’ रहा भारत ‘विश्वगुरु’ नहीं बन पाएगा।      

Monday, July 4, 2022

महाराष्ट्र: भाजपा की पाँचों ऊँगली घी में



एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बना कर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे। जिसका उसे बहुत लाभ मिलने वाला है। एकनाथ शिंदे के गले में देवेंद्र फडणवीस की घंटी टांग दी गई है। शिंदे तो हाथी के दांत की तरह सजावटी मुख्य मंत्री रहेंगे। असली सत्ता तो उप-मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस की मार्फ़त भाजपा के हाथ में रहेगी। महाराष्ट्र देश की अर्थव्यवस्था का केंद्र है और आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है। इसलिए महाराष्ट्र की सरकार पर क़ाबिज़ हो कर पिछले आठ वर्षों में दुनिया की सबसे धनी पार्टी बन चुकी भाजपा अपनी आर्थिक स्थित को और भी मज़बूत कर लेगी। 


पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए उप-मुख्य मंत्री का पद स्वीकारना आसान नहीं था। महाराष्ट्र के सर्वमान्य भाजपा नेता के लिए यह परिस्थिति बहुत विचित्र बन गई। उन्हें आलाकमान के आदेश से अपमान का घूँट पीना पड़ा। हालांकि उन्हें समझाया यही गया होगा कि इस व्यवस्था में भी सत्ता के केंद्र वही रहेंगे। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिसे मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया जाता है उसके पर निकालने में देर नहीं लगती। अनेक प्रांतों के उदाहरण हैं जहां कठपुतली मान कर मुख्य मंत्री की कुर्सी पर जिसे बिठाया गया, वही कुछ दिनों में अपने कड़े तेवर दिखाना शुरू कर देता  हैं। कभी-कभी तो वो नेता गद्दी पर बिठाने वाले पार्टी के बड़े नेताओं को ही आँख दिखाने लगते हैं। 



भाजपा के हाथ में एक ही चाबुक है जिससे वो एकनाथ शिंदे और उनके साथी विधायकों को अपनी मुट्ठी में रख सकती है। वो है भाजपा के तरकश में ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियाँ। चूँकि पाला पलटने वाले शिव सेना के बाग़ी विधायकों में ज़्यादातर विधायक पहले से ही ईडी के शिकंजे में हैं। इसलिए ज़रा सी चूँ-चपड़ करने पर उनकी कलाई मरोड़ी जा सकती है। महाराष्ट्र की राजनीति को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि इन विधायकों की छवि पहले से ही विवादास्पद है। इसलिए इन्हें नियंत्रित करना भाजपा आलाकमान के लिए बहुत आसान होगा। 


इस पूरी डील में भाजपा का लक्ष्य शिव सेना का आधार ख़त्म करना है। इसीलिए उसने एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बनाया है। अब भाजपा शिव सेना की पकड़ वाले मतदाताओं के बीच अपनी पैंठ बढ़ाने का हर सम्भव प्रयास करेगी। ये बात दूसरी है कि बाला साहेब ठाकरे की विरासत के प्रति समर्पित मराठी जनमानस अब भी उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा हो और अगले चुनावों में उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को सहानुभूति लहर का लाभ मिल जाए और भाजपा व शिव सेना के बाग़ी विधायकों को मराठी जनता के कोप का भाजन बनना पड़े। 


ये तभी सम्भव होगा जब उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे आराम त्याग कर जनता के बीच अभी से निकल पड़ें और आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी या तेलंगाना के केसी राव की तरह गाँव-गाँव नगर-नगर जा कर महाराष्ट्र की जनता को अपने समर्थन में खड़ा कर दें। इस प्रक्रिया में अगर उद्धव ठाकरे को शरद पवार की सलाह और सहयोग मिलता है तो उनकी स्थित और भी मज़बूत हो सकती है। हालाँकि भाजपा अपने धन बल, बाहु बल व सत्ता के बल का उपयोग करके उद्धव को आसानी से सफल नहीं होने देगी। पर ये भी सच है कि पश्चिम बंगाल की जनता की तरह महाराष्ट्र की जनता भी अपनी संस्कृति, जाति और भाषा के प्रति भरपूर आग्रह रखती है। इसलिए उद्धव ठाकरे को हाशिए पर धकेलना आसान नहीं होगा। 


जो भी हो कुल मिलाकर ये सारा प्रकरण लोकतंत्र में आई भारी गिरावट का प्रमाण है। ये गिरावट भाजपा के कारण ही नहीं आई जैसा विपक्ष आरोप लगा रहा है। आयाराम-गयाराम की राजनीति और विपक्षी दलों की प्रांतीय सत्ताओं को पलटने की साज़िश कांग्रेस के ज़माने में ही शुरू हो गई थी। जो भाजपा के मौजूदा दौर में परवान चढ़ गयी है। अंतर यह है कि कांग्रेस ने ना तो कभी अपने दल को नैतिक और दूसरों से बेहतर बताने का दावा किया और न ही विपक्ष के प्रति इतना द्वेष, घृणा और विषवमन किया जैसा भाजपा का मौजूदा नेतृत्व हर समय करता आ रहा है। इससे लोकतंत्र में राजनैतिक कटुता व असहजता बढ़ी है। 


चूँकि भाजपा का हर नेता पिछली सरकारों और वर्तमान विपक्षी दलों को डंके की चोट पर भ्रष्ट और खुद को ईमानदार बताता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि एक सामान्य व्यक्ति भाजपा से नैतिक आचरण की अपेक्षा करे। पर अनुभव में ऐसा नहीं आ रहा। सत्ता में बैठे लोग बदल ज़रूर गए हैं पर ठेकों और तबादलों में भ्रष्टाचार की मात्रा एक अंश भी घटी नहीं है, बल्कि कई जगह तो पहले के मुक़ाबले बढ़ गई है। ऐसे में इस तरह के सत्ता परिवर्तनों को आम मतदाता बहुत अरुचि और शक से देखता है। दल के कार्यकर्ताओं की बात दूसरी है। उनका दल जब जा-बेज़ा हथकंडे अपना कर सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है तो स्वाभाविक है कि कार्यकर्ताओं में उत्साह की लहर दौड़ जाती है। पर महाराष्ट्र की ताज़ा घटनाओं ने भाजपा के कार्यकर्ताओं को भी निराश किया है। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि मुख्य मंत्री के पद पर उनके नेता देवेंद्र फडणवीस को ही बिठाया जाएगा, नितिन गड़करी तक को नहीं, जो लम्बे समय से इस पद के दावेदार हैं और जिन्हें नागपुर का वरदहस्त प्राप्त है। कार्यकर्ताओं को भी अब यही सोच कर संतोष करना पड़ेगा कि इस प्रयोग से शायद भविष्य में उनके दल की स्थिति महाराष्ट्र में वर्तमान स्थिति से बेहतर हो जाए।


इस पूरे प्रकरण में जो सबसे रोचक पक्ष है वो ये की देश के सबसे बड़े क़द्दावर नेता और महाराष्ट्र की राजनीति के कुशल खिलाड़ी शरद पवार भी फ़िलहाल भाजपा के चाणक्य अमित शाह से मात खा गए। जो कि शरद पवार की फ़ितरत और मराठा खून के विपरीत है। ऐसे में ये मान लेना कि आज अपनी हारी हुई बाज़ी से हताश हो कर शरद पवार चुप बैठ जाएँगे, नसमझी होगी। अपने कार्यकर्ताओं और सांसद बेटी सुप्रिया सुले के राजनैतिक भविष्य पर लगे इस ग्रहण से निजात पाने की पवार साहब भरसक कोशिश ज़रूर करेंगे। उधर कांग्रेस भी इस विषम परिस्थिति उद्धव ठाकरे का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। इसलिए महाराष्ट्र विकास आघाडी और भाजपा के बीच रस्साकशी जारी रहेगी जिससे महाराष्ट्र की जनता को कोई लाभ नहीं होगा।      

Monday, June 27, 2022

तेलंगाना ने बनाया तिरुपति जैसा भव्य मंदिर



क्या आपको पता है कि हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर यदाद्रीगिरीगुट्टा क्षेत्र में भगवान लक्ष्मी-नृसिंह देव का एक अत्यंत भव्य मंदिर पिछले वर्षों में बना है। पिछले हफ़्ते जब मैं इसके दर्शन करने गया तो इसकी भव्यता और पवित्रता देख कर दंग रह गया। दरअसल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना में ये एक कमी थी। प्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मंदिर आंध्र प्रदेश के हिस्से में चला गया था। तेलंगाना सरकार ने इस कमी को पूरा करने के लिए पौराणिक महत्व के यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह मंदिर का 1800 करोड़ रुपए की लागत से तिरुपति की तर्ज पर भव्य निर्माण करवाया है। आज यहाँ लाखों दर्शनार्थियों का मेला लगा रहता है। 


यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह गुफा का उल्लेख 18 पुराणों में से एक स्कंद पुराण में मिलता है। शास्त्रों के अनुसार त्रेता युग में महर्षि ऋष्यश्रृंग के पुत्र यद ऋषि ने यहां भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। उनके तप से प्रसन्न विष्णु ने उन्हें नृसिंह रूप में दर्शन दिए थे। महर्षि यद की प्रार्थना पर भगवान नृसिंह तीन रूपों ज्वाला नृसिंह, गंधभिरंदा नृसिंह और योगानंदा नृसिंह में यहीं विराजित हो गए। दुनिया में एकमात्र ध्यानस्थ पौराणिक नृंसिंह प्रतिमा इसी मंदिर में है। भगवान नृसिंह की ये तीन और माता लक्ष्मी की एक प्रतिमाएं, करीब 12 फीट ऊंची और 30 फीट लंबी एक गुफा में आज भी मौजूद हैं। इस गुफा में एक साथ 500 लोग दर्शन कर सकते हैं। इसके साथ ही आसपास हनुमान जी और अन्य देवताओं के भी स्थान हैं। इसी गुफा के ऊपर व चारों ओर ये विशाल मंदिर परिसर बनाया गया है। 



मंदिर के निर्माण में कहीं भी ईंट, सीमेंट या कंक्रीट का प्रयोग नहीं हुआ है। सारा मंदिर ग्रेनाइट की भारी-भारी श्री कृष्ण शिलाओंसे बना है जिन्हें पुराने  तरीक़े के चूने के मसाले से जोड़ा गया है। मंदिर के निर्माण में 80 हज़ार टन पत्थर लगा है। जो ये सुनिश्चित करेगा कि ये मंदिर सदियों तक रहेगा। नवनिर्मित मंदिर का सारा निर्माण कार्य आगम, वास्तु और पंचरथ शास्त्रों के सिद्धांतों पर किया गया है। जिनकी दक्षिण भारत के खासी मान्यता है। पारम्परिक नक्काशी से सुसज्जित यह मंदिर कुल साढ़े चार साल में बन कर तैयार हुआ है जो अपने आप में एक आश्चर्य है। इसके लिए इंजीनियरों और आर्किटेक्ट्स ने करीब 1500 नक्शों और योजनाओं पर काम किया। मंदिर का सात मंज़िला ग्रेनाइट का बना मुख्य द्वार, जिसे राजगोपुरम कहा जाता है, करीब 84 फीट ऊंचा है। इसके अलावा मंदिर के 6 और गोपुरम हैं। राजगोपुरम के आर्किटेक्चर में 5 सभ्यताओं द्रविड़, पल्लव, चौल, चालुक्य और काकातिय की झलक मिलती है।    


हजारों साल पुराने इस तीर्थ का क्षेत्रफल करीब 9 एकड़ था। मंदिर के विस्तार के लिए 1900 एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई। इसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर में 39 किलो सोने और करीब 1753 टन चांदी से सारे गोपुरम (द्वार) और दीवारों को मढ़ा गया है। नवस्थापित भगवान के विशाल विग्रह व गरुड़स्तंभ भी सोने के बने हैं। मंदिर की पूरी परिकल्पना हैदराबाद के प्रसिद्ध आर्किटेक्ट आनंद साईं की है। यदाद्री मंदिर ऊँचे पहाड़ पर मौजूद है। मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की सनातन धर्म में गहरी आस्था है, ये इस बात से सिद्ध होता है कि उन्होंने मंदिर परिसर के आस-पास कोई भी दुकान या खान-पान की व्यवस्था नहीं होने दी। क्योंकि उससे मंदिर की पवित्रता भंग होती। इन सब गतिविधियों के लिए उन्होंने पहाड़ के नीचे तलहटी में पूरा व्यावसायिक परिसर बनाया है। जबकि उत्तर भारत में हो रहे धार्मिक नव निर्माणों में मंदिर परिसर या उसके आस-पास भोजनालय, दुकानें और अतिथि निवास बना कर अफ़सरों और इंजिनीयरों ने अनेकों सुप्रसिद्ध मंदिरों की पवित्रता और शांति को भंग कर दिया है।   


मंदिर तक पहुंचने के लिए हैदराबाद सहित सभी बड़े शहरों से जोड़ने के लिए फोरलेन सड़कें तैयार की गई हैं। मंदिर के लिए अलग से बस-डिपो भी बनाए गए हैं। इस इलाक़े में यात्रियों से लेकर वीआईपी तक सारे लोगों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए कई तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं। यात्रियों के लिए मंदिर की पहाड़ से दूर अन्य पहाड़ों पर अलग-अलग तरह के गेस्ट हाउस और टेम्पल सिटी का निर्माण भी किया गया है। पूरे परिक्षेत्र में जो हरियाली और फुलवारी लगाई गई है वो अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। जैसी आपको सिंगापुर, शंघाई, वीयना जैसे शहरों में देखने को मिलती है। सफ़ाई और रख-रखाव भी पाँच सितारा स्तर का है। जिससे उत्तर भारत के मंदिरों के प्रशासकों व तीर्थ विकास में लगे अफ़सरों को प्रेरणा लेनी चाहिए। अच्छा होगा कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जी इस भव्य मंदिर और इसके परिसर का दर्शन व भ्रमण करके आएँ। तब वे तुलना कर सकेंगे कि पिछले सात सालों में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने तेलंगाना के अधिकारियों की तुलना में गुणवत्ता व कलात्मकता की दृष्टि से कैसा काम किया है। ज्ञान जहां से भी मिले बटोरना चाहिए, ये हमारा वेद-वाक्य है।   


आश्चर्य की बात यह है कि यदाद्रीगिरीगुट्टा के इस इलाक़े में जहां दूर-दूर तक एक बूंद पानी नहीं था। भूमि सूखी और पथरीली थी। जल का कोई स्रोत न था। वहाँ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की विश्व भर में चर्चित ‘मिशन भागीरथ’ योजना से दस लाख लीटर शुद्ध जल प्रतिदिन पहुँचाया जा रहा है। यहाँ बने कल्याणकट्टा मंडप में प्रतिदिन 15 हज़ार भक्त मुंडन करवाने के बाद सामने लक्ष्मी सरोवर में दर्शनार्थी स्नान करते हैं। प्रसाद हॉल में एक बार में 750 और दिन भर में 15 हज़ार लोग प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। इसके अलावा तिरुपति की तरह ही यदाद्री मंदिर में भी लड्डू प्रसादम् मिलता है। इसके लिए अलग से एक कॉम्प्लेक्स तैयार किया गया है, जहां लड्डू प्रसादम् के निर्माण से लेकर पैकिंग की व्यवस्था है। मंदिर में दर्शन के लिए क्यू कॉम्पलेक्स बनाया गया है। इसकी ऊंचाई करीब 12 मीटर है। इसमें रेस्टरूम सहित कैफेटेरिया की सुविधाएं भी हैं। अब आप जब चाहें तिरुपति के साथ ही स्कंद पुराण में वर्णित इस दिव्य तीर्थ स्थल का भी दर्शन करने हैदराबाद से यदाद्रीगिरीगुट्टा मंदिर जा सकते हैं। आपको दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी।

Monday, June 20, 2022

बुलडोज़र बनाम क़ानून

प्रयागराज में मोहम्मद जावेद की पत्नी की मिल्कियत वाला मकान प्रशासन ने बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया। जावेद पर प्रयागराज में पत्थरबाज़ी करवाने व दंगे भड़काने का आरोप है। आरोप सिद्ध होने तक वो फ़िलहाल हिरासत में है। प्रशासन की इस कार्यवाही से कई क़ानूनी सवाल पैदा हो गए हैं। इस विषय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोविंद माथुर ने एक अख़बार से हुई बातचीत में बताया कि, 'ये पूरी तरह से गैरकानूनी है। भले ही आप एक पल के लिए भी मान लें कि निर्माण अवैध था, लेकिन करोड़ों भारतीय भी ऐसे ही रहते हैं, यह अनुमति नहीं है कि आप रविवार को एक घर को ध्वस्त कर दें जब उस घर का निवासी हिरासत में हों। यह कोई तकनीकी मुद्दा नहीं है बल्कि कानून के शासन का सवाल है।' 


जस्टिस माथुर ने समझाया कि प्रशासन द्वारा बुलडोज़र से केवल किसी संपत्ति का अवैध रूप से निर्मित हिस्सा या तो गिराया जा सकता है या उस पर जुर्माना लगा कर उसे कंपाउंड कर दिया जाता है। अगर मकान का कोई हिस्सा या अधिकतर भाग वैध रूप से निर्मित है तो उसे कभी भी ध्वस्त नहीं किया जा सकता। दंगे भड़काने के आरोपी को सज़ा देने के कई प्रावधान भारतीय दंड संहिता में हैं। लेकिन उसकी निज संपत्ति गिराने का कोई प्रावधान क़ानून में नहीं है। किसी भी आरोपी के मकान या संपत्ति को केवल कुर्क किया जा सकता है, वो भी तब जब वो फ़रार हो और भगोड़ा घोषित हो। जो आरोपी हिरासत में है उसकी संपत्ति इस तरह नहीं गिराई जा सकती। इसलिए इस विषय पर देश के न्यायविदों में बहस छिड़ गई है। सरकार के विरोधी उस पर प्रशासन, पुलिस व न्यायपालिका तीनों की भूमिका एक साथ निभाने का आरोप लगा रहे हैं। उनका आरोप है कि इस तरह हमारे लोकतंत्र में स्थापित चारों खंबों का संतुलन बिगड़ जाएगा जिससे फिर क़ानून का नहीं केवल डंडे का शासन चलेगा। जिससे लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा। 


दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ के चाहने वाले उनके इस अवतार से बेहद खुश और प्रभावित हैं। पिछले कुछ महीनों से योगी जी एक नया नाम ‘बुलडोज़र बाबा’ भी दे दिया गया है। जो शायद उन्हें भी सुहाता है तभी पिछले चुनावों में इस नाम का भरपूर प्रचार किया गया। दरअसल पुलिस और क़ानून की जटिल व बेहद लम्बी प्रक्रिया से आम आदमी त्रस्त है। इसलिए वो तुरंत समाधान को क़ानून की प्रक्रिया से बेहतर मानने को विवश है। भारत जैसे सामंतवादी देश में राजा का कड़ा या अधिनायकवादी होना उसके प्रशंसकों को अच्छा लगता है। पर इसके बहुत सारे ख़तरे भी हैं। 



जिस तरह तेलंगाना में पुलिस ने चार बलात्कारियों को अपनी हिरासत में फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार गिराया और आम जनता की वाह-वाही लूटी थी, उससे भी यह संदेश गया कि इस तरह सीधी सज़ा देना जनता को ज़्यादा पसंद है। पर बाद में जब यह सिद्ध हो गया कि इन आरोपियों को पुलिसवालों ने अवैध तरीक़े से मारा तो अब वे पुलिस वाले ही हत्या के आरोप का मुक़दमा झेल रहे हैं। क़ानून की प्रक्रिया लम्बी व जटिल ज़रूर है पर इसके पीछे एक पवित्र लक्ष्य है कि भले ही सौ अपराधी क्यों न छूट जाएं पर किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। दूसरी तरफ़ पंजाब के आतंकवाद का उदाहरण है जो किसी भी तरह क़ाबू में नहीं आ रहा था तो वहाँ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने भी यही रास्ता अपनाया। आरोप है कि उन्होंने कुछ ही हफ़्तों में सैंकड़ों आतंकवादियों फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार गिराया। जिसका प्रभाव यह हुआ कि आतंकवाद क़ाबू में आ गया। अब यह दुधारी तलवार है। मनवाधिकारों का संज्ञान लेकर अगर क़ानूनी प्रक्रिया से चला जाए तो दुर्दांत अपराधी को भी दशकों तक सज़ा नहीं होती। अगर फ़र्ज़ी एनकाउंटर वाला रास्ता अपनाया जाता है तो समस्या का तात्कालिक समाधान मिल जाता है, भले ही वो समस्या फिर से सिर उठा ले। 


अवैध निर्माण गिराने के मामले में तो एक और पेच है, वो ये कि अवैध निर्माण इकतरफ़ा नहीं होते। उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में जिस व्यापक स्तर पर अवैध निर्माण हो चुके हैं वो विकास प्राधिकरणों, पुलिस व प्रशासन की मिलीभगत से ही हुए हैं। जिसके लिए बहुत मोटा पैसा रिश्वत में अफ़सरों को मिलता है। वरना अवैध निर्माण कोई चींटी का घर तो नहीं जो रातों रात हो जाए। महीनों लगते हैं। तब ये अफ़सर क्या भांग पीकर सोए रहते हैं? पर संपत्ति ध्वस्त होती है केवल बनाने वाले की। तो इन अफ़सरों को क्या सज़ा मिलती है? कुछ नहीं। इसलिए अवैध निर्माण बेरोकटोक सालों साल चलते रहते हैं। सरकार चाहे किसी की भी हो। क्योंकि ऐसे अफ़सरों को अपने राजनैतिक आकाओं का संरक्षण प्राप्त होता है। जिनकी इस लूट में हिस्सेदारी होती है। इसलिए अवैध निर्माण की समस्या घटने के बजाए बढ़ती जा रही है। बुलडोज़र बाबा को चाहिए कि एक सार्वजनिक अपील जारी करें जिसमें अवैध भवनों  के निर्माताओं को प्रोत्साहित किया जाए ये बताने के लिए की उन्होंने ये अवैध निर्माण किन-किन अफ़सरों के कार्यकाल में, किस को कितना रुपया देकर किए थे। ऐसे नामों के सामने आने पर उनकी संपत्ति आदि की जाँच की जाए और उन्हें कठोरतम सज़ा दी जाए। वरना मतदाता तो हर हाल में बर्बाद होगा ही पर भ्रष्टाचारी अफ़सरों और नेताओं को कोई सबक नहीं मिलेगा। 


अगर जनता ये बताने में डरती है या संकोच करती है तो भी इन अफ़सरों को कड़ी सजा सिर्फ़ इस आधार पर भी दी जा सकती है कि इस अवैध निर्माण के दौरान वे उस शहर में संबंधित पदों पर तैनात थे और इन्होंने जानबूझ कर ऐसे अवैध निर्माणों के होते हुए उन पर से आँखें फेर ली। अगर बुलडोज़र बाबा पूरे प्रदेश में से 100-200 भ्रष्ट अफ़सरों को ऐसी सज़ा दे पाते हैं तो उनका डंका बजेगा। अगर नहीं कर पाते तो उनके बुलडोज़र बाबा होने पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। आशा की जानी चाहिए कि अपनी दबंग छवि के अनुरूप योगी जी का बुलडोज़र उन सैंकड़ों भ्रष्ट अधिकारियों की संपत्ति पर भी उसी तीव्रता से चलेगा जिस तीव्रता से वे अपराधियों की संपत्ति को ध्वस्त करते आए हैं।

Monday, June 13, 2022

देश में आग किसने लगाई ?


जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐन्कर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐन्कर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।



भारत के कुछ टीवी, न्यूज चैनलों के ऐन्कर तो विषय के अनुसार परिधान भी बदल देते है। अगर चन्द्रयान चांद पर उतरने वाला था तो ये कार्टून एस्ट्रोनेट की ड्रेस पहनकर चांद की सतह के ब्लोअप फोटो के सामने ऐसी कलाकारी दिखाते हैं, मानो कुछ ही क्षणों में ये खुद चांद पर उतरने वाले है। जब चन्द्रयान उतरने में नाकाम रहता है तो ये मर्सिया गाने लगते है। जैसे मुर्दनी छा गई हो। जबकि पत्रकार को संत कबीर दास जी की ये वाणी याद रखनी चाहिये, ‘‘दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।’’ बिना राग-द्वेष के हर विषय को निष्पक्षता से प्रस्तुत करना, पैनल पर बैठे मेहमानों को अपनी बात कहने देना, नाहक विवाद को उठने से पहले रोक देना और कार्यक्रम का समापन, यदि सम्भव हो तो, समाधान के साथ करना। पर दुख की बात है कि आज भारत के अधिकतर टीवी चैनल इस आचार संहिता का पालन नहीं कर रहे। जिसके लिए काफी हदतक मौजूदा केन्द्र सरकार भी जिम्मेदार है। जो अपनी कमियां या आलोचना बर्दाश्त नहीं करती। नतीजन टीवी चैनलों के पास दो ही रास्ते बचते हैंः या तो सरकार का झूठा यशगान करें या इस तरह की उत्तेजक, बिना सिर पैर की बहस करवा कर टीआरपी बढ़ाएँ।


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी। 


रही बात धर्म चर्चा की तो इस बात का श्रेय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिये कि उन्होंने हजारों साल पुराने वैदिक सनातन धर्म को देश की मुख्य धारा के बीच चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि पिछली सरकारें ऐसा करने से बचती रही। जिसका परिणाम ये हुआ कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर  बहुसंख्यक हिन्दु समाज अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा। इसलिए आज वो अवसर मिलने पर इतना मुखर हो गया है कि धर्म के हर प्रश्न पर आक्रमकता के साथ सक्रिय हो जाता है। 


हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि नूपुर शर्मा ने जो कहा वो सही था या गलत। हम इस विवाद में भी नहीं पड़ेंगे  कि भारत के विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म को लेकर क्या गलत और क्या सही कहते है। पर ये तो साफ है कि धर्म के सवाल पर टीवी चैनलों में और आम जनता के बीच भी जिस स्तरहीनता की बहस आजकल हो रही है उससे न तो सनातन धर्म का लाभ हो रहा है और न ही भारत हिन्दु राष्ट्र बनने की तरफ बढ़ रहा है। इन बहसों से हिन्दु समाज का ही नही हर धर्म के मानने वालों का अहित हो रहा है। जो एक डरावने भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। दुनिया के अनेक विशेषज्ञों ने तो भारत में भविष्य में गृहयुद्व की सम्भावनाओं की भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है। यह हम जैसे सभी गम्भीर नागरिकों और सनातन धर्मियों के लिए बहुत चिन्ता का विषय है। इसलिए सभी राजनैतिक दलों व संगठनों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे टीवी चैनलों पर विषयों के जानकार और गम्भीर प्रवक्ताओं को ही भेजे। स्तरहीन डिबेट में अपने प्रतिनिधी भेजे ही नहीं, जो असंसदीय भाषा का प्रयोग करें। टीवी चैनलों को भी धर्म चर्चा में पोंगे पण्डितों, फर्जी धर्माचार्यों और कठमुल्लों को न बुलाएं।


धर्म के विषय पर अगर ये टीवी चैनल गम्भीरता से बहस करवाये तो समाज का बहुत लाभ हो सकता है। सदियों की उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती है। भारत अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक विरासत की पुनः स्थापना कर सकता है। बशर्ते इन बहसों में धर्म के धुरंधर और विद्वान शामिल हो। उन्हें अपनी बात कहने दी जाये। ऐन्कर भी पढ़े लिखे हो, मूर्ख नहीं हो, आत्ममुग्ध नहीं हो और विषय पर शोध करके आयें। इस तरह की बहसों से सरकार को भी कोई अपत्ति नहीं होगी। टीआरपी भी धीरे-धीरे बढ़ेगी और स्वास्थ्य समाज व राष्ट्र का निर्माण होगा। राष्ट्र निर्माण का दावा करने वाले संगठनों की सत्ता में भी अगर धर्म के विषयों पर ऐसी गम्भीर बहसें नहीं होंगी, तो फिर कब होंगी ? इसलिए इन संगठनों को भी सोचना होगा कि क्या वे वाकई राष्ट्र का निर्माण करना चाहते है या आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करके, केवल अपना राजनैतिक हित साधना चाहते है?