Monday, May 16, 2022

हिंसा नहीं आध्यात्म के बल पर बने हिंदू राष्ट्र


पिछले दिनों हरिद्वार में जो विवादास्पद और बहुचर्चित हिंदू धर्म संसद हुई थी उसके आयोजक स्वामी प्रबोधानंद गिरी जी से पिछले हफ़्ते वृंदावन में लम्बी चर्चा हुई। चर्चा का विषय था भारत हिंदू राष्ट्र कैसे बने? इस चर्चा में अन्य कई संत भी उपस्थित थे। चर्चा के बिंदु वही थे जो पिछले हफ़्ते इसी कॉलम में मैंने लिखे थे और जो प्रातः स्मरणीय विरक्त संत श्री वामदेव जी महाराज के लेख पर आधारित थे। लगभग ऐसे ही विचार गत 35 वर्षों में मैं अपने लेखों में भी प्रकाशित करता रहा हूँ। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत की सनातन वैदिक संस्कृति कम से कम दस हज़ार वर्ष पुरानी है। जिसमें मानव समाज को शेष प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करके जीवन जीने की कला बताई गई है। बाक़ी हर सम्प्रदाय गत ढाई हज़ार वर्षों में पनपा है। इसलिए उसके ज्ञान और चेतना का स्रोत वैदिक धर्म ही है। आज समाज में जो वैमनस्य या कुरीतियाँ पैदा हुई हैं वो इन संप्रदायों के मानने वालों की संकुचित मानसिकता के कारण उत्पन्न हुई हैं। आज का हिंदू धर्म भी इसका अपवाद नहीं रहा। यही कारण है जिस हिंदू धर्म की आज बात की जा रही है वह हमारी सनातन वैदिक संस्कृति के अनुरूप नहीं है।
   



पाठकों को याद होगा कि हरिद्वार की धर्म संसद में मुसलमानों के विषय में बहुत आक्रामक और हिंसक भाषा का प्रयोग किया गया था। जिसका संज्ञान न्यायालय और पुलिस ने भी लिया। इस संदर्भ में चर्चा चलने पर मैंने स्वामी प्रबोधानंद गिरी जी से कहा कि इस तेवर से तो हिंदू धर्म का भला नहीं होने वाला। जर्मनी और हाल ही में श्री लंका इसका प्रमाण है जहां समाज के एक बड़े वर्ग के प्रति घृणा उकसा कर पूरा देश को आग में झोंक दिया जाता है। 


यह सही है कि मुसलमानों के धर्मांध नेता उन्हें हमेशा भड़काते हैं और शेष समाज के साथ सौहार्द से नहीं रहने देते। जिसकी प्रतिक्रिया में भारत का हिंदू ही नहीं अनेक देशों के नागरिक उन देशों में रह रहे मुसलमानों के विरोध में खड़े हो रहे हैं। पर हमारा धर्म इन संप्रदायों से कहीं ज़्यादा गहरा और तार्किक है। इसका प्रमाण है कि यूक्रेन में 55 कृष्ण मंदिर हैं रूस में 50 मंदिर हैं। ईरान, इराक़ और पाकिस्तान तक के तमाम मुसलमान श्रीकृष्ण भक्त बन चुके हैं। यह कमाल किया है इस्कॉन के संस्थापक आचार्य ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने। जिन्होंने बिना तलवार या बिना सत्ता की मदद के दुनिया भर के करोड़ों विधर्मियों को भगवत गीता का ज्ञान देकर कृष्ण भक्त बना दिया।

 

ऐसा ही एक कृष्ण भक्त ईरानी मुसलमान 30 बरस पहले मेरे दिल्ली घर पर दो दिन ठहरा था। वो ईरान के एक धनी उद्योगपति मुसलमान का बेटा था। जो मुझे वृंदावन मंदिर में मिला। जिसका परिवार कट्टर मुसलमान था। तेहरान विश्वविद्यालय में उसके मुसलमान प्रोफ़ेसर ने उसे गीता का ज्ञान देकर भक्त बनाया था। जब इसने अपने प्रोफ़ेसर से इस गुप्त ज्ञान को प्राप्त करने का स्रोत पूछा तो प्रोफ़ेसर ने बताया कि अमरीका के एक विश्वविद्यालय में पीएचडी की पढ़ाई के दौरान उन्होंने स्वामी प्रभुपाद का प्रवचन सुना, उनसे कई बार मिले और फिर कंठीधारी कृष्ण भक्त बन गए। जबकि बाहरी लिबास में ये दोनों गुरु शिष्य मुसलमान ही दिखते थे। 


ये भक्त जब मेरे घर रहा तो सुबह 3 बजे हम दोनों हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने बैठे। मैंने तो डेढ़ घंटे बाद अपना जप समाप्त कर भजन करना शुरू कर दिया पर यह ईरानी भक्त 6 घंटे तक लगातार जप करता  रहा और तब चरणामृत पी कर उठा। उसकी साधना से मैं इतना प्रभावित हुआ कि उसे आरएसएस की शाखा में ले गया। जहां उससे मिलकर सभी को बहुत हर्ष हुआ। 


इसी तरह पाकिस्तान का एक लम्बा चौड़ा मुसलमान आईटी इंजीनियर मुझे लंदन के इस्कॉन मंदिर में मिला। पूछने पर पता चला कि उसने अपने एक अंग्रेज मित्र के घर प्रभुपाद की लिखी पुस्तक ‘आत्म साक्षात्कार का विज्ञान’ पढ़ी तो इतना प्रभावित हुआ कि अगले ही दिन वो इस्कॉन मंदिर पहुँच गया और फिर क्रमशः श्रीकृष्ण भक्त बन गया। अब। उसका दीक्षा नाम हरिदास है। 


ये उदाहरण पर्याप्त है यह सिद्ध करने के लिए कि हमारी सनातन संस्कृति में इतना दम है कि अगर मस्जिदों के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने और भीड़ में जय श्री राम का ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाने की बजाय देश भर के उत्साही हिंदू, विशेषकर युवा, योग्य गुरुओं से श्रीमद् भगवद गीता का ज्ञान प्राप्त कर लें और उसके अनुसार आचरण करें, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे भी अर्जुन की तरह जीवन में हर महाभारत जीत सकते हैं। ये ज्ञान ऐसा है कि सबका दिल जीत लेता है-विधर्मी का भी। 


बहुत कम लोगों को पता है कि मुग़लिया सल्तनत के ज़्यादातर बादशाह, शहज़ादे और शहज़ादियाँ वृंदावन के स्वामी हरिदास परम्परा के शिष्य रहे हैं। 1897 में विलायत में जन्मे रिचर्ड निक्सन प्रथम विश्वयुद्ध में विलायती वायुसेना के पायलेट थे। जो जवानी में भारत आ गये। संस्कृत व शास्त्रों का अध्ययन किया और बाद में स्वामी कृष्ण प्रेम नाम से भारत में विख्यात हुए। स्वामी प्रभुपाद ही नहीं भारत के अनेक वैष्णव आचार्यों के भी सैंकड़ों मुसलमान शिष्य पिछली शताब्दियों में सारे भारत में हुए हैं और उन्होंने उच्च कोटि के भक्ति साहित्य की रचना भी की है। 


उत्तर प्रदेश में आईएएस से निवृत्त हुए मेरे मित्र श्री नूर मौहम्मद का कहना है कि पश्चिमी एशिया से तो दो फ़ीसदी मुसलमान भी भारत नहीं आए थे। बाक़ी सब तो भारतीय तो ही थे जो या तो सत्ता के लालच में या हुकूमत के डर से या सवर्णों के अत्याचार से त्रस्त हो कर मुसलमान बन गये थे। वो तब भी पिटे और आज भी पिट रहे हैं। नूर मौहम्मद कहते हैं कि धर्मांध मौलवी हो या हिंदू धर्म गुरु दोनो ही शेष समाज के लिए घातक हैं जो लगातार समाज में विष घोलते हैं।


इस सब चर्चा के बाद स्वामी प्रबोधनंद गिरी जी से यह तय हुआ कि हम निश्चय ही इस तपोभूमि भारत को सनातन मूल्यों पर आधारित हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं और उसके लिए अपनी शक्ति अनुसार योगदान भी करेंगे।पर इस विषय पर देश के संत समाज में व्यापक विमर्श होना चाहिए कि हमारा हिंदू राष्ट्र स्वामी वामदेव जी के सपनों के अनुकूल होगा, जिनका सम्मान सभी धर्मों के लोग करते थे या केवल निहित राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए होगा। ऐसा हिंदू राष्ट्र बनें जिसमें मुसलमान या अन्य धर्मावलम्भी भी स्वयं को हिंदू कहने में गर्व अनुभव करें। जहां प्रकृति  से सामंजस्य रखते हुए हर भारतीय अपने जीवन को वैदिक नियमों से संचालित करे और पश्चिम की आत्मघाती उपभोक्तावादी चकाचौंध से बचे। जिसका आह्वान आज पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद महाराज जी भी कर रहे हैं । हरि हमें सदबुद्धि दें और हम सब पर कृपा करें।

Monday, May 9, 2022

क्यों बने भारत हिन्दू राष्ट्र ?


जब भारत का कोई संत श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में जुड़ने को तैयार नहीं था तब देशभर के संतों को जोड़कर अकेले अपने बूते पर इस आंदोलन को खड़ा करने वाले विरक्त संत स्वामी वामदेव जी महाराज की प्रबल इच्छा थी कि भारत हिंदू राष्ट्र बने। इस विषय पर दशकों पुराना उनका लेख वृंदावन के विरक्त संत और स्वामी वामदेव महाराज के दाहिने हाथ रहे त्यागी बाबा से प्राप्त हुआ है। उसे यहाँ ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ,
वह राष्ट्र जिसका नाम इण्डिया के स्थान में हिन्दुस्थान होगा, क्योंकि संविधान में ‘इण्डिया दैट इज भारत’ इण्डिया देश का नाम है और ‘भारत’ द्वितीय श्रेणी का नाम है। इसलिये इण्डिया के स्थान में हिन्दुस्थान होना आवश्यक है, जिससे ऐसा भान हो, कि यह देश हिन्दू संस्कृति का है। ऐसा सांस्कृतिक वातावरण बनाया जायेगा, जहाँ हर व्यक्ति सर्वसुखी हों, सर्वनिरोगी हो, सर्व अपनी इन्द्रियों से सुखदायी वस्तु का अनुभव करें। कोई दुःखी न हो, इस संकल्प के साथ अपने दैनिक कार्यों का प्रारम्भ करेगा। स्वामी जी लिखते हैं। 


स्वामी जी कहते हैं कि, हिन्दू-राष्ट्र शब्द उस भूभाग का बोध कराता है, जहाँ पवित्र हिमालय पर्वत है, जहाँ गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी, ब्रह्मपुत्रादिक अनेकानेक नदी-नद बह रहे हैं। जो अनेक अवतारों की जन्मभूमि है। जिसे अनेक धर्मगुरुओं ने जन्म पवित्र किया है। जहाँ अनेक वीर तथा वीरांगनाओं की गाथा गूँज रहीं हैं। जहाँ युग परिवर्तन के समय अपना दिशा दर्शन देने वाले महापुरुष जन्मे हैं। जहाँ अध्यात्म चर्चा व्यक्ति के जीवन में नया उल्लास फूँक रही है। जहाँ की संस्कृति अनेक मत पंथों तथा भाषाओं आदि को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं देती, अपितु उनका पोषण तथा सामंजस्य भी स्थापित करती है। ऐसा बोध इण्डिया शब्द से नहीं होता।



इसलिए वे चाहते थे कि देश का नाम हिन्दुस्थान होना चाहिये। यह देश हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हुआ है। कन्याकुमारी में ही इन्दू सरोवर है। हिमालय से कन्याकुमारी (इन्दू सरोवर) तक फैले इस देश का परिचय थोड़े शब्दों में देने की प्रक्रिया के अनुसार हिमालय का प्रथम अक्षर 'हि' ग्रहण कर तथा इन्दू सरोवर के नाम से 'न्दू' अक्षर को ग्रहण करके अर्थात् हि + न्दू = हिन्दू नाम इस विस्तृत देश का मनीषियों ने ही रखा है। इसे हिन्दुस्थान कहते आये हैं। गालिब आदि अनेक मुसलमान विद्वानों ने भी इस देश को हिन्दुस्थान नाम देकर ही गौरव प्रदान किया है। इसमें रहने वाले लोग इस देश के नाम के अनुसार अपने को हिन्दू मानते चले आये हैं। अंग्रेजों के आने से पहले यहाँ के मुसलमानों ने भी इस देश का नाम हिन्दुस्थान ही तो माना था। अंग्रेजों के आने पर इसका नाम इण्डिया रखा था। जब इस देश से अंग्रेजी शासन चला गया तो उनकी गुलामी का बोध कराने वाले विक्टोरिया आदि की पाषाणादि की प्रतिमायें हटा दी गई। उसी समय से इण्डिया नाम भी अंग्रेजों की गुलामी का बोध कराने वाला है, अतः हटा देना चाहिए था। इण्डिया नाम संविधान में संशोधन कर निकाल दिया जायेगा तथा हिन्दुस्थान नाम को संविधान में लाकर सम्मान देंगे।


वे लिखते हैं कि विदेशों में जब कभी कई देशों की बैठकें होती है तथा उस बैठक में भारत भी शामिल होता है। वहाँ अन्य देशों के प्रतिनिधियों के बैठने का स्थान नियत होता है। उस स्थान पर हर देश का नाम लिखा रहता है। जैसे जो स्थान पाकिस्तान के प्रतिनिधि के लिए होगा, उस पर पाकिस्तान लिखा रहता है। लंका के प्रतिनिधि के स्थान पर श्रीलंका ऐसा लिखा रहता है, परन्तु भारत के प्रतिनिधि के स्थान पर इण्डिया लिखा रहता है। हर स्वाभिमानी देश का नागरिक इण्डिया नाम से इस देश में गुलामी का स्मरण करता है। अतः गुलामी का स्मरण कराने वाला इण्डिया नाम देश के लिये अपमान का जनक है। इस देश का आम व्यक्ति यह समझता है, कि इस देश का नाम भारत है, परन्तु सन् 1992 तदनुसार संवत् 2048 के उज्जैन कुम्भ में सरकार की ओर से लगे मार्ग-दर्शक पट्टिका की ओर ध्यान गया तो देखा, उनके ऊपर इण्डिया नाम में लिखा था तथा उसके नीचे भारत नाम लिखा था अर्थात् भारत नाम दूसरी श्रेणी का है, उत्तम श्रेणी का नाम तो इण्डिया है। स्वतन्त्रता से पूर्व लंका का नाम सीलोन था। जब लंका स्वतंत्र हुआ तो अंग्रेजों की पराधीनता का नाम त्याग दिया। देश का नाम उन्होंने लंका ही नहीं किन्तु 'श्रीलंका' रखकर अपने देश को गौरवान्वित किया है, परन्तु हमारे नेताओं ने ऐसा नहीं किया। ऐसा न करना देश के गौरव के अत्यन्त विरुद्ध है। ऐसा यदि जानकर किया है तो अपराध है और यदि अनजाने में किया है तो भूल है। यदि अंग्रेजों से दबकर किया है तो यह गुलामी है।


स्वामी जी आगे कहते हैं कि विश्व में मुख्य रूप से रहने वाली जनता ईसाई, मुसलमान और हिन्दू नाम से जानी जाती है। उनमें से यीशु के द्वारा प्रचारित रिलिजन को मानने वाले ईसाई और मोहम्मद साहब द्वारा प्रचारित मजहब को मानने वाले मुसलमान कहलाते हैं। किसी कल्चर, मजहब या पंथ को मानने के कारण हिन्दू का नाम नहीं रखा गया है, किन्तु भारत-भूमि में जन्मी सभी विचार पद्धतियों का एक मात्र केन्द्र हिन्दू है। अतएव वह असाम्प्रदायिक तथा पंथ-निरपेक्ष है। उसने किसी की पूजा-पद्धति से द्वेष नहीं किया है। उदाहरण के लिये इस देश में पारसी आये, उनके रहन-सहन से हिन्दू को कोई द्वेष नहीं है। संसार में अपमानित और प्रताड़ित होकर भारत में यहूदी आये। हिन्दुओं में सम्मानपूर्वक रहे, इसका इतिहास साक्षी है। परन्तु आज इन विशिष्ट गुणों से युक्त हिन्दू को साम्प्रदायिक आदि शब्दों से अपमानित किया जा रहा है तथा साम्प्रदायिक, राष्ट्र-द्रोही लोगों को प्रोत्साहन देकर देश में खूनी संघर्ष किये जा रहे हैं। इन कारणों से देश में आर्थिक संकट तथा नैतिकता का पतन हो रहा है।


वे दृढ़ता कहते हैं कि यद्यपि यह देश हिन्दू-राष्ट्र ही है तथापि जिस दिन हिन्दू राष्ट्र के नाम से इस देश की घोषणा होगी, उस दिन हिंदुओं में अपने विशिष्ट गुणों को लेकर एक ऐसी जागृति में आयेगा कि फिर इस देश में साम्प्रदायिकता और राष्ट्रद्रोह को अवकाश प्राप्त नहीं होगा। इसके आधार पर होने वाले खूनी संघर्ष भी समाप्त हो जाएँगे।


अपने अनुभव के आधार पर वामदेव महाराज कहते हैं कि यद्यपि वेदान्त का अध्ययन और साधना, जिन वृद्ध संतो के संरक्षण में मैं करता था, उस काल में मेरा अखबारी दुनियाँ से कोई सम्बन्ध नहीं था तथापि जिस समय भारत को धर्म-निरपेक्ष देश घोषित किया गया, उसके विषय में वे संतगण कहा करते थे, कि देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित करने वाले नेताओं के पास उनके अजीज ईसाई और मुसलमान गये और कहा हम तो धर्म-निरपेक्ष नहीं हो सकते, तब उनसे नेताओं ने कहा, भले ही आप धर्म-निरपेक्ष न रहें, परन्तु आपसे अतिरिक्त भी तो जनता है, वह धर्म निरपेक्ष रहेगी। जिसका सीधा अर्थ था कि धर्म-निरपेक्षता हिन्दुओं के लिए ही थी। किन्तु धर्म-निरपेक्षता का अर्थ सर्व-धर्म-समभाव है ऐसा प्रचार करके हिन्दुओं को गुमराह किया गया। अब तो यह बात मुस्लिम लीग के साथ गठबन्धन करने, मिजोरम आदि में बाइबिल के अनुसार शासन चलाने के आश्वासन देने आदि से स्पष्ट है कि ये उसी भावना की देन है। अतः अपराध के प्रायश्चित स्वरूप, भूल के सुधार स्वरूप, गुलामी की भावना के परित्याग रूप में, इण्डिया नाम देश के संविधान से निकाल देना होगा। देश के हिन्दुस्थान नाम की जगह इण्डिया नाम रहने से ऐसा भी लगता है, मानो हिन्दू नाम की विरोधी भावनाओं की ही यह देन है। इस भावना की निवृत्ति के लिये भी इसका परिवर्तन आवश्यक है। इस नाम के रहते संविधान हिन्दू विरोधी है, यह भाव भी अभिव्यक्त होता है। तब संविधान को यदि कोई हिन्दू विरोधी कहता है तो वे लोग उलटा-सीधा बोलते हैं, जो इण्डिया नाम के रखने के अपराध, भूल, गुलामी तथा हिन्दू विरोध की पुष्टि करते चले आ रहे हैं। इस हिन्दू विरोध के कारण ही, इस देश की धरती, संस्कृति तथा गौरव की भावनाओं में उत्पन्न हिन्दू से एक वर्ग (मुसलमान) घृणा करने लगा है। अतएव कट्टरपंथी मुसलमान तथा उनके कट्टरपने को पुष्ट करने वाले राजनैतिक नेता लोग, हिन्दू राष्ट्र का नाम सुनते ही चिल्लाने लगते हैं कि यह देश को तोड़ने का षड्यंत्र है। मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा हो रही है। इस विषय में हम विशेष तर्क न देकर कहना चाहते हैं कि नेपाल हिन्दू राष्ट्र है (तब था) वहाँ कौन ईसाई या मुसलमान असुरक्षित है? कौन देश तोड़ने की रट लगा रहा है? यह बात अवश्य है कि हिन्दू नाम से घृणा करने वाले राजनैतिक दलों द्वारा घृणा फैलाकर वोटों का स्वार्थ पूरा किया जा रहा है, उनका वह स्वार्थ अवश्य संकटग्रस्त हो जायेगा।


साम्प्रदायिक सद्भाव के संदर्भ में वे लिखते हैं सर्व वर्गों, सर्व मत-पंथों में समरसता लाने के लिये हिन्दू राष्ट्र भारत का नाम हिन्दुस्थान रखना ही उचित है। जैसा कि अंग्रेजों से पहले भी था। हिन्दुस्थान का प्रत्येक नागरिक हिन्दू, मुसलमान भी हिन्दू, ईसाई भी हिन्दू, जैन भी हिन्दू, सनातनी आर्य भी हिन्दू, कबीरपंथी भी हिन्दू, सिख भी हिन्दू, पारसी भी हिन्दू। हम सब एक हैं। हमारा हिन्दू राष्ट्र एक है। मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे पूजा के स्थान हैं। पूजा हम अपनी पद्धति से करें, परन्तु सर्व स्थान सबके लिये सम्मान्य होंगे। इनमें से किसी का भी अपमान सर्व का अपमान है। इस भावना की अभिव्यक्ति का कारण बनेगा हिन्दू राष्ट्र अगर इसका हिन्दुस्थान नाम हो गया तो। आज तो धर्म-निरपेक्षता बनाम हिन्दू धर्म-निरपेक्षता है। 


वे कहते हैं कि परिणामतः देश के राजनेता, विदेशों में भी कहीं हिन्दू सम्मेलन होते हैं तो भारत सरकार के राजदूत को आमन्त्रित करने पर भी उनमें भाग न लेकर हिन्दू धर्म की उपेक्षा करते हैं। साथ ही विदेशों में भी कहीं हिन्दुओं पर अत्याचार हो तो भारत सरकार उन देशों को यह कहकर नहीं ललकार सकती, कि आपके यहाँ हिन्दुओं पर क्यों अत्याचार हो रहे हैं, क्योंकि यहाँ की सरकार अपने को हिन्दू-निरपेक्ष मानती है। फिजी में हिन्दुओं पर अत्याचार हुआ तो उसकी अनुभूति भारत सरकार को नहीं हुई, परन्तु मालद्वीप में मुसलमान सरकार पर संकट आया तो उसकी बहुत भारी अनुभूति हुई। साथ ही सेना भेजकर उसके संकट को दूर कर दिया। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि धर्म-निरपेक्षता के नाम पर बनी सरकार हिन्दू के साथ अन्याय पूर्वक पक्षपात करती है। सरकार हिन्दुओं के ईसाईकरण तथा इस्लामीकरण को भी प्रोत्साहन देती है, जिससे हिन्दुओं की जनसंख्या निरन्तर कम होती चली जा रही है।


वे लिखते हैं कि भारत वर्ष में साम्प्रदायिकता, राष्ट्रद्रोहः व इस आधार पर होने वाले खूनी संघर्ष, धर्म-निरपेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्मनिरपेक्षता, हिन्दुओं के साथ अन्यायपूर्ण पक्षपात तथा हिन्दुओं की जनसंख्या कम करने के उपायों की समाप्ति पूर्वक राष्ट्र में आर्थिक और नैतिक उत्थान के लिये देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित करना आवश्यक है।

Monday, May 2, 2022

मुख्य मंत्री योगी जी की भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांतिकारी पहल


उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी जी ने एक क्रांतिकारी घोषणा की है कि सभी अफ़सर, मंत्री व विधायक तीन महीने के अंदर अपनी चल-अचल सभी सम्पत्तियों की घोषणा सार्वजनिक करें। ज़ाहिर है कि इस घोषणा से अफ़सरशाही और मंत्रियों में हड़कम्प मचेगा। भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। योगी जी को भी इस घोषणा से ये लाभ मिल सकता है। बशर्ते वे इसे अपने बुलडोज़र वाले तेवर से लागू करें।
 


बोफ़ोर्स का मुद्दा उठाकर ही विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे। इसी मुद्दे को उठाकर अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए। ये बात दूसरी है कि दोनों के मुद्दे फुस्स रहे और जिनके ख़िलाफ़ इन्होंने अपना अभियान चलाया था और ढेरों सबूत सामने लाने का जन सभाओं में बार-बार आश्वासन दिया था, वो कभी सामने ही नहीं आए। 


दरअसल कोई भी नेता भ्रष्टाचार से ईमानदारी से लड़ना नहीं चाहता। सब इस पर शोर मचा कर कुर्सी हथियाते हैं और फ़िर मौन हो जाते हैं। पर योगी जी कुर्सी पाने के बाद भी अगर इस अभियान को शुरू कर रहे हैं तो उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए। बाबा इरादे के पक्के हैं और जानते हैं कि प्रदेश के विकास का धन हुक्मरानों की तिजोरियों में चला जा रहा है। इसलिए वे इस मुहीम को कैसे आगे बढ़ाते हैं ये बात प्रदेश की ही नहीं देश भर की जनता देखेगी।


पर योगी जी को ये ध्यान रखना होगा कि उनके इर्द गिर्द के अफ़सरान ही उनके इस महत्वपूर्ण अभियान को पलीता न लगा दें। जैसा वे अभी तक लगाते आए हैं। इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को हमने योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि दो साल में भी इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? 


रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की महामहिम राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 


इस बीच यूपी के कई बड़े अफ़सरों व नेताओं ने रजनीश कपूर पर दबाव डालने की नाकाम कोशिश की जिससे वे इस जाँच को करवाने की अपनी ज़िद छोड़ दें। जाहिरन उन सबके सैकड़ों करोड़ रुपए कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की कम्पनियों में लगे होंगे, तभी उन सब में आज तक इस मामले को लेकर इतनी बेचैनी है। 


रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की इन ‘शैल कम्पनियों’ की कई सूचियाँ भी योगी जी के कार्यालय को भेजी हैं। मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया और योगी जी को लगातार धोखे में रखा। अब योगी जी को इस जाँच का बुलडोज़र तेज़ी से चलाना चाहिए। इस से उनकी छवि तो बनेगी ही, भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके इस अभियान की ईमानदारी भी सिद्ध होगी। क्योंकि किसी मुख्यमंत्री के एक साधारण से पाइलट को कुछ लाख रुपए का ही वेतन मिलता है। उस पर इतनी अकूत दौलत कहाँ से आ गयी, ये योगी जी के लिए गहरी चिंता का कारण होना चाहिए। 


इस पाइलट पर यह भी आरोप था कि इसने अपने आपराधिक इतिहास की जानकारी छुपा कर अपने लिए ‘एयरपोर्ट एंट्री पास’ हासिल किया था। इसकी शिकायत भी रजनीश ने नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) के महानिदेशक  राकेश अस्थाना से की और जाँच के बाद सभी आरोपों को सही पाए जाने पर इसका ‘एयरपोर्ट एंट्री पास’ भी रद्द किया गया। 


उत्तर प्रदेश सरकार में सूत्रों की मानें तो जब योगी जी को इस पाइलट की असलियत का पता चला तो कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा, जो कि उस समय उत्तर प्रदेश नागरिक उड्डयन विभाग का ऑपरेशन मैनेजर था, उसका प्रदेश के किसी भी हवाई अड्डे पर प्रवेश वर्जित कर दिया गया। रजनीश कपूर की शिकायत पर ही कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा का हवाई जहाज उड़ाने का लाईसेंस भी डीजीसीए से सस्पेंड कर दिया गया था। योगी जी के निर्देश पर मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर भी उसका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था। पर उसके महाघोटालों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्यवाही है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताक़तवर मंत्री और अफ़सर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जुटे रहे हैं, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के विरुद्ध ईमानदारी से जाँच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में बीस वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के क़िले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जाँच होने देंगे? 


इसी के साथ एक काम करना और ज़रूरी है जो योगी जी के इस अभियान को सफल बनाएगा। आज प्रदेश में विकास का काम करने के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपए के बजट से खेलने वाले कुछ ऐसे अफ़सर हैं जो एक ही शहर में बीस बीस बरस से कुंडली मारे बैठे हैं। कोई भी सरकार आ जाए ये विभाग बदल बदल कर वहीं तैनात रहते हैं। इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण तो मथुरा के ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ में ही देखा जा सकता है। किसी अफ़सर का एक शहर में तीन बरस से ज़्यादा रहना उसकी ईमानदारी पर सवाल खड़े करता है। इसलिए शुरू से ये प्रथा रही है कि अफ़सरों के तबादले हर तीन साल में कर दिए जाते हैं। योगी जी को पूरे प्रदेश में ये फेरबदल भी तुरंत करनी होगी वरना वे भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं कस पाएँगे। अब देखना यह है कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हिम्मत से छेड़ी इस मुहीम को योगी जी कितनी तेज़ी से आगे बढ़ाते हैं ?

Monday, April 25, 2022

पर्यटक सूचना केंद्रों की निरर्थकता


कोविड के समय को छोड़ दे तो पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में पर्यटन उद्योग में काफ़ी उछाल आया है। पहले केवल उच्च वर्ग अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करता था। मध्य वर्ग अपने ही देश में पर्यटन या तीर्थाटन करता था। निम्न आय वर्ग कभी-कभी तीर्थ यात्रा करता था। लेकिन अब मध्य वर्ग के लोग भी भारी संख्या में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करने लगे हैं। जिसके पास भी चार पहिए का वाहन है वो साल में कई बार अपने परिवार के साथ दूर या पास का पर्यटन करता है।
 


सूचना क्रांति के बाद से पर्यटन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। पहले पर्यटन स्थल या तीर्थ स्थल पर पहुँच कर ये पता लगाना पड़ता था कि ठहरने की व्यवस्था कहाँ-कहाँ और कितने पैसे में उपलब्ध है। फिर यह पता लगाना पड़ता था कि दर्शनीय स्थल कौनसे हैं। उनकी दूरी बेस कैम्प से कितनी है और वहाँ तक जाने के क्या-क्या साधन हैं? ऐसी तमाम जानकारियाँ लेने के लिए अनेक देशों में पर्यटन सूचना केंद्र बनाए जाते थे। भारत में भी बनाये गये। 


1984 की बात है मैं अपनी पत्नी की बहन और उनके पति , जो दोनों ही भारतीय विदेश सेवा में बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में तैनात थे, उनके साथ कार में यूरोप की यात्रा के लिए निकला। चूँकि वे भारतीय दूतावास के अधिकारी थे इसलिए स्विट्ज़रलैंड, फ़्रान्स, जर्मनी और इटली आदि में हम भारत के राजदूतों या दूतावास के अधिकारियों के घर पर भी ठहरे। पर एक दिन अपने गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते रात के एक बज गए। शहर में पूरा सन्नाटा था, कहीं कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया, जिसकी मदद ली जा सके। किसी तरह पर्यटन सूचना केंद्र पहुँचे और तब जा कर आगे की व्यवस्था हुई।

 

लेकिन आज सूचना क्रांति ने सब कुछ घर बैठे ही सुलभ कर दिया है। आज आप दुनिया ही नहीं बल्कि भारत के भी किसी भी शहर या छोटे से छोटे पर्यटन स्थल पर जाना चाहें तो आपको सारी सूचनाएँ घर बैठे उपलब्ध हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर वहाँ कौन-कौन से दर्शनीय स्थल हैं? उनका ‘वरचुअल टूर’ सोशल मीडिया पर किया जा सकता है। कहाँ ठहरना है, इसके सैंकड़ों विकल्प, कमरे की दर के अनुसार आप गूगल पर देख सकते हैं। देख ही नहीं सकते बल्कि कन्फ़र्म बुकिंग भी कर सकते हैं। इसके साथ ही आप घर बैठे उस शहर में अपने लिए लोकल टैक्सी और टूरिस्ट गाइड भी बुक कर सकते हैं। ज़ूम कॉल पर उस गाइड से वार्ता करके उसका चेहरा भी देख सकते हैं। 


1984 के बाद 2010 में जब हमारा पूरा परिवार यूरोप यात्रा पर गया तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि हम जिस शहर में भी पहुँचते थे वहाँ हमारे लिए वाहन और गाइड पहले से ही तैयार खड़े मिलते थे। होटल भी बुक होता था। तकनीकी में कम रुचि होने के कारण तब मुझे इस सब की इतनी जानकारी नहीं थी। पर यह अनुभव बहुत अच्छा हुआ कि बच्चों ने हर शहर में सारी व्यवस्थाएँ पहले से ही ऑनलाइन बुक कर रखी थीं। यहाँ तक की किस शहर में शाम को कितने बजे कौन सा नाटक या बैले देखना है, उसकी भी टिकट एडवांस में आ चुकी थी। कुल मिला कर बात यह हुई कि किसी भी शहर में हमें यूरोप के पर्यटन सूचना केंद्र नहीं जाना पड़ा। 


ये सब उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त और आधुनिक व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ नौकरशाही आज भी भारत में सैंकड़ों करोड़ के पर्यटन सूचना केंद्रों के निर्माण में जुटी है। जिनका रख रखाव कैसा होता है इसका आपने भी खूब अनुभव किया होगा। इनके स्वागत कक्ष में या तो कोई होता ही नहीं। और यदि होता है तो वो बेरुख़ी से बात करता है। सूचना केंद्र के शौचालय प्रायः दुर्गंधयुक्त और गंदे रहते हैं। पर्यटन क्षेत्र के बारे में सूचना प्रपत्र (ब्रोशर) नदारद रहते हैं। सब जगह ऐसा नहीं होता। जहां अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आते हैं, जैसे आगरा, गोवा, महाबलीपुरम, त्रिवेंद्रम या देश की राजधानी दिल्ली में आपको ये सब देखने को शायद नहीं मिलता। पर उत्तर प्रदेश में आमतौर पर यही स्थित पाई जाती है। आज जब हर गाँव और क़स्बे में स्मार्ट फ़ोन पहुँच चुका है। स्कूली बच्चों की पढ़ाई तक ऑनलाइन चल रही है, तब पर्यटन सूचना के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपय के भवन बनवाने व जन धन बर्बाद करने का क्या लाभ? क्योंकि अब हर परिवार पर्यटन या तीर्थाटन पर जाने से पहले ही सारी सूचनाएँ गूगल या यूट्यूब से प्राप्त कर लेता है। मथुरा में ही जो पर्यटन सूचना केंद्र हाल में बने हैं उनका हाल देख लीजिए। 


उत्तर प्रदेश पर्यटन का एक उदाहरण काफ़ी होगा। 80 के दशक में पूरे प्रदेश में जगह-जगह पर्यटकों के ठहरने के लिए ‘राही होटल’ बनाए गए जो कभी भी कारगर नहीं रहे। आज सभी ख़स्ता हाल में हैं। कोई व्यवसाई उन्हें किराए पर लेकर भी चलाने को तैयार नहीं। दरअसल सरकार की पर्यटन योजनाओं में सबसे बड़ी कमी रख-रखाव की होती है। बड़ी-बड़ी घोषणाओं और विज्ञापनों के सहारे पर्यटन की जिन महत्वाकांक्षी योजनाओं को चालू किया जाता है, वो योजनाएँ सैंकड़ों रुपया खपा कर भी चंद महीनों में ख़स्ता हाल हो जाती हैं।


तीर्थाटन के विकास में भगवान श्री राधा कृष्ण की लीला भूमि में पिछले 20 वर्षों में मैंने पूरे तन, मन, धन और मनोयोग से कृष्णक़ालीन धरोहरों के संरक्षण का बड़े स्तर पर कार्य किया है। इसलिए हमारा अनुभव ज़मीनी हक़ीक़त को देख कर विकसित हुआ है। बड़ी निराशा की बात यह है कि कोई भी सरकार क्यों न आ जाए वो हमारी बात सुन तो लेती है, लेकिन हमारे सुझावों पर अमल नहीं करती। यह अनुभव डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। यही अनुभव मोदी जी की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद भी हुआ। इतना ही नहीं प्रदेश स्तर पर भी अखिलेश यादव जी की और योगी जी की सरकार में भी, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। क्योंकि अधिकतर नौकरशाही की सार्थक बदलाव में कोई रुचि नहीं होती। इसलिए हम सबके बुरे बन जाते हैं। क्योंकि हम सच बताते हैं और ग़लत को सह नहीं पाते। 


बहुत आशा थी कि हिंदुवादी सरकारों में हमारे धर्मक्षेत्रों का विकास संवेदनशीलता, पारदर्शिता और कलात्मक अभिरुचि से होगा। पर जो हो रहा है वो इसके बिलकुल विपरीत है। जब हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली सरकार में अनुभव सिद्ध सनातन धर्मियों की बात नहीं सुनी जा रही तो धर्म निरपेक्ष सरकार में कौन सुनेगा? यही देश के हर जागरूक हिंदू की पीड़ा है। 

Monday, April 18, 2022

आस्था के कवच में कानफोड़ू शोर


पर्यावरण में प्रदूषण पर चिंता कुछ कम हो गयी दिखती है। पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जतायी जा रही थी। अब ऐसा नहीं दीखता या तो हमने ठीक-ठाक कर लिया है या आँखें फेर ली हैं। नज़र डालने से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए। यानी कि हमने आँखे मूँद ली हैं। ऐसा
  क्यों करना पड़ा इसकी चर्चा आगे करेंगे लेकिन फिलहाल यह मुद्दा तात्कालिक तौर पर भले ही ज्यादा परेशान न करे लेकिन इसके असर प्राण घातक समस्याओं से कम नहीं हैं।


हाल ही मैं ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ सक्रियता दिखी है। खास तौर पर धार्मिक स्थानों पर। लाउडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता बढ़ती जा रही है। मनोवैज्ञानिक और स्नायुतन्त्रिका विज्ञान के विशेषज्ञ प्रायोगिक तौर पर अध्ययन ज़रूर कर रहे हैं। लेकिन उनके शोध अध्ययन सामाजिक स्तर पर जागरूकता या राजनैतिक स्तर पर दबाव पैदा करने में बिलकुल ही बेअसर हैं। कुछ स्वयमसेवी संस्थाएं ज़रूर हैं जो गाहेबगाहे आवाज़ उठाती हैं । लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता। हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती और शायद इसलिए नहीं समझी जाती क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं।


80 और 90 के दशक में जब अंधाधुंध विकास के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई थी तब उद्योगीकरण, बड़े बाँध, रासायनिक खाद और मिलावट जैसे मुद्दों पर बड़ी तीव्रता के साथ विरोध के स्वर उठे थे। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि प्रदूषण पर चिंता हलकी पड़ गयी। तब इस मुद्दे पर बहसों के बीच प्रदूषण विरोधियों को यह समझाया गया कि विकास के लिए प्रदूषण अपरिहार्य है। यानी निरापत विकास की कल्पना फिजूल की बात है। साथ ही जीवन की सुरक्षा के लिए विकास के अलावा और कोई विकल्प सूझता नहीं है। विकास के तर्क के सहारे आज भी हम नदियों के प्रदूषण और वायु प्रदूषण को सहने के लिए अभिशप्त हैं।


जब तक हमें कोई दूसरा उपाय ना सूझे तब तक आर्थिक विकास के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है। लेकिन धार्मिक स्थानों से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि प्रदूषण तक ही नहीं बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे – यह स्वीकारना मुश्किल है।


क़ानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है लेकिन इस क़ानून का पालन कराने में सरकारी एजंसियां या पुलिस बिलकुल असहाय नज़र आती हैं। धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिलकुल बेखौफ बैठी हुई है और इसके बेख़ौफ़ हो पाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के लिए कुछ भी करने की छूट देती है।


जहाँ तक सवाल आस्था या धार्मिक विश्वास का है तो समाज के जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या द्रढता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दिन रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही नहीं है। ये विद्वान क्या मजबूती के साथ यह नहीं कह सकते कि इसका आस्था या धर्म से कोई लेना देना नहीं है। आस्था बिलकुल निजी मामला है। धार्मिक विश्वास नितांत व्यक्तिगत बात है। उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिलकुल ही नाजायज़ है।


चलिए जागरूक समाज हो विद्वत समाज हो या क़ानून पालन करने वाली संस्थाएं हों या फिर राजनितिक दल ये सब अपनी सीमाओं और दबावों का हवाला देकर मूक दर्शक बनीं रह सकती हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है। आस्था और धार्मिक विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखरी उपाय दीखता है। यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि अदालतों को भी साक्ष के तौर पर समाज के जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए। आस्था और धार्मिक क्षेत्र की जटिल समस्याओं के निवारण के लिए न्यायपालिका को दार्शनिकों की भी ज़रूरत पड़ सकती है।


ग़ौरतलब है कि दुनिया में कई देशों में लाउडस्पीकर द्वारा अजान की ध्वनि सीमाएं तय की गई हैं। इनमें यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रिया, निदरलैंड, स्वित्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और बेल्जियम जैसे देश शामिल हैं। लाओस और नाइजीरिया जैसे देशों ने स्वघोषित रूप से भी लाउडस्पीकर द्वारा अजान की या तो सीमाएं तय की हैं या फिर मस्जिदों में लाउडस्पीकर को प्रतिबंधित किया है।


इसी परिप्रेक्ष्य में अगस्त 2014 में मैंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। जिसमें देश के सभी धर्म स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की माँग की थी। मेरे वकील विवेक नारायण शर्मा ने याचिका में साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास की सूची भी जोड़ दी थी जो इन लाउडस्पीकर्स के कारण देश में हुए थे। इस याचिका से सभी धर्मों के मानने वाले बहुत प्रसन्न हुए थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री एच एल दत्तु ने याचिका को कुछ सुनवाई के बाद ये कह कर लौटा दिया कि अदालत पहले ही ध्वनि प्रदूषण के स्तर की सीमा निर्धारित कर चुकी है। इसलिये शासन व पुलिसकर्मी से कहो कि वो उस आदेश को लागू करवाएँ। पर क्या धरातल पर ऐसा कभी होता है? नहीं होता। 


आज मस्जिदों में अजान के लाउडस्पीकर पर शोर को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है उसका जवाब पाँच बार हनुमान चालीसा पढ़ना या लाउडस्पीकर मंदिरों को बाँटना नहीं है। इससे तो शोर और बढ़ेगा, शांति भंग होगी और दंगे भी भड़केंगे। 


टीवी 18 के सवाँददाता सौरभ शर्मा, उनकी पत्नी अंकिता शर्मा और छह वर्षीय बच्चे को ‘माता के जागरण’ के नाम पर, अदालती आदेश के विरुद्ध, देर रात तक शोर मचाने वाले हुडदंगाइयों ने बुरी तरह अपमानित किया, उनकी पत्नी के कपड़े फाड़ने की धमकी देते हुए दूर तक दौड़ा दिया। 


उधर वृंदावन जो कि एक वैष्णव भक्ति का शहर है, जहां मुसलमान गिनती के रहते हैं, वहाँ भी ब्रह्ममुहूर्त में पूजा, ध्यान के समय लाउडस्पीकर द्वारा अजान के शोर से ख़लल पड़ता है। इसलिये लगता है मुझे अब दुबारा अपनी इस याचिका को सर्वोच्च अदालत में दाखिल करना पड़ेगा।

Monday, April 11, 2022

पाक अधिकृत कश्मीर का ख़ौफ़नाक सच


‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है वो उस ख़ौफ़नाक सच के सामने कुछ भी नहीं है जो अब अमजद अय्यूब मिर्ज़ा ने पाक अधिकृत कश्मीर में हुए हिंदुओं के वीभत्स नरसंहार के बारे में केलिफ़ोरनिया के अख़बार में प्रकाशित किया है। अय्यूब मिर्ज़ा ने पिछले महीने 21 मार्च को प्रकाशित अपने लेख में ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ को एक दमदार फ़िल्म बताते हुए इस बात की तारीफ़ की है कि कैसे इस फ़िल्म ने पाकिस्तान समर्थित जिहादियों और श्रीनगर के स्थानीय कट्टरपंथियों के आतंक को रेखांकित किया गया है। इस लेख में मिर्ज़ा लिखते हैं कि ये तो प्याज़ की पहली परत उखाड़ने जैसा है। उनके अनुसार जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदुओं व सिखों को मारने और भगाने का सिलसिला 1990 से ही नहीं शुरू हुआ। इसकी जड़ें तो 1947 के भारत-पाक बँटवारे के अप्रकाशित इतिहास में दबी पड़ी हैं।
 

अमजद अय्यूब मिर्ज़ा पाक अधिकृत कश्मीर के मीरपुर ज़िले के निवासी हैं । जो अपने स्वतंत्र विचारों व मानव अधिकारों की वकालत करने के कारण आजकल इंगलेंड में निष्कासित जीवन जी रहे हैं। इसलिए इनकी सूचनाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 


मिर्ज़ा बताते हैं कि जम्मू कश्मीर के हिंदुओं पर मौत का तांडव 22 अक्तूबर 1947 से शुरू हुआ, जिस दिन पाकिस्तानी फ़ौज ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया। उस वक्त आज के पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों की बड़ी आबादी रहती थी और वे सब सुखी व सम्पन्न थे। जबकि स्निडन द्वारा 2012 में प्रकाशित जनसंख्या सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस क्षेत्र में अब हिंदुओं और सिक्खों की आबादी का कोई आँकड़ा नहीं मिला है। या तो उन सब को भगा दिया या मार डाला गया। इस रिपोर्ट को पूरी दुनिया के शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि पाक अधिकृत कश्मीर में अब एक भी हिंदू या सिख नहीं है। इससे ये अनुमान लगाया है कि 1947 के पाकिस्तानी हमले के बाद वहाँ रह रहे 1,22,500 हिंदू और सिख उस इलाक़े से ग़ायब हो गए।

मिर्ज़ा लिखते हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि बँटवारे के समय दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में हो रहे भारी सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए बड़ी संख्या में सिख और हिंदुओं ने पंजाब की सीमा से सटे पाक अधिकृत कश्मीर में शरण ली थी। यहाँ के भिम्बर शहर में कम से कम 2000, मीरपुर में 15,000, राजौरी में 5,000 और कोटली में अनगिनित हिंदू और सिखों ने शरण ली थी। 

भिम्बर तहसील में 35 फ़ीसद आबादी हिंदुओं की थी। पर 1947 के पाकिस्तानी हमले में एक भी नहीं बचा। मिर्ज़ा लिखते हैं कि सबसे बड़ा नरसिंहार तो मेरे गृह नगर मीरपूर में हुआ जहां 25,000 हिंदू और सिखों को एक जगह एकत्र करके मारा-काटा गया। उनकी बहू-बेटियों को पाकिस्तानी  फ़ौज और धर्मांद लशकरियों ने ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का नारा लगा कर अपनी वहशियाना  हवस का शिकार बनाया। उस नरसिंहार से बच कर उन लोगों के परिवारजन जो किसी तरह जम्मू पहुँच गए, वे आजतक 25 नवम्बर को ‘मीरपुर नरसिंहार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस मनहूस दिन 1947 में पाकिस्तानी फ़ौज और लश्कर ने मीरपुर में जगह-जगह आगजनी, लूट और नरसंहार किया था और ‘काफिरों’ के घरों और दुकानों को जला दिया था।

मिर्ज़ा बताते हैं कि, सौभाग्य से इस मनहूस दिन से केवल दो दिन पहले ही 2,500 हिंदू और सिख जम्मू कश्मीर की सेना के संरक्षण में जम्मू तक सुरक्षित पहुँचने में कामयाब हो गए थे। जो पीछे रह गए उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज अली बेग इलाक़े में ये कह कर ले गयी कि वहाँ एक गुरुद्वारे में शरणार्थियों के लिए कैम्प लगाया गया है। पर जिस पैदल मार्च को हिंदू और सिक्खों ने इस उम्मीद में शुरू किया कि अब उनकी जान बच जाएगी वो मौत का कुआँ सिद्ध हुआ। इस पैदल मार्च के रास्ते में ही 10,00 हिंदू और सिक्खों को क़त्ल कर दिया गया। इनकी 5,000 बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद रावलपिंडी, झेलम और पेशावर के बाज़ारों में बेच दिया गया। इस तरह कुल 5000 हिंदू और सिख ही अली बेग तक पहुँच पाए। जहां पहुँच कर भी वे सुरक्षित नहीं रहे और उनके पहरेदारों ने ही उनका क़त्ल करना जारी रखा। इस तरह मीरपुर के 25,000 हिंदू और सिक्खों में से केवल 1600 बचे, जिन्हें ‘इंटरनैशनल कमेटी ओफ़ रेड क्रॉस’ वाले सुरक्षित रावलपिंडी ले गए जहां से फिर उन्हें जम्मू भेज दिया गया।

मिर्ज़ा बताते हैं कि 1951 में पाक अधिकृत कश्मीर में केवल 790 ग़ैर मुसलमान बचे थे। पर आज एक भी नहीं है। मीरपुर के इस नरसंहार  से भयभीत बहुत सी औरतों और आदमियों ने तो पहाड़ से कूद कर या ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली थी। हिंदू और सिखों का ऐसा ही नरसंहार  राजौरी, बारामूला, व मुज़फ़्फ़राबाद में भी हुआ। इसलिए मिर्ज़ा का कहना है कि ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है उससे कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक नरसंहार 1947 के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों को झेलना पड़ा था। 

जहां यह रिपोर्ट हर हिंदू का ही नहीं बल्कि हर इंसान का दिल दहला देती है, वहीं ये बात भी महत्वपूर्ण है अमजद अय्यूब मिर्ज़ा जैसे मुसलमान भी हैं, जो अपने धर्म के कट्टरवादियों की धमकियों के बावजूद एक सच्चे इंसान की तरह सच को सच कहने से नहीं डरते।ऐसे मुसलमान भारत में भी बहुत बड़ी तादाद में हैं और पाकिस्तान में भी इनकी संख्या कम नहीं है। दिक्कत इस बात की है कि इस्लाम धर्म और उसको बताने वाले कट्टरपंथी मुल्ला इन बातों को कभी अहमियत नहीं देते बल्कि लगातार ज़हर घोलते रहते हैं। जिससे कभी साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो ही नहीं पाता। ज़रूरत इस बात की थी कि जज़्बाती और समझदार मुसलमान इन मुल्लाओं की ख़िलाफ़त करने की हिम्मत दिखाते। जिसके प्रभावी न होने के कारण बहुसंख्यक हिंदू समाज उनके प्रति हमेशा सशंकित रहता है। इसलिये ये ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे और प्रगतिशील वर्ग की है कि वे अपने सुरक्षित घरों से बाहर निकलें और भारत में इंडोनेशिया, मलेशिया और तुर्की जैसे प्रगतिशील मुस्लिम समाज की स्थापना करें, जिससे हर हिंदुस्तानी अमन और चैन के साथ जी सके। तभी भारत में शांति स्थापित हो पाएगी। इसी में सभी का हित है। 

Monday, April 4, 2022

डॉ अर्चना शर्मा की शहादत से सबक


दौसा (राजस्थान) की युवा डाक्टर अर्चना शर्मा की ख़ुदकुशी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? महिला रोग विशेषज्ञ, स्वर्ण पदक विजेता, मेधावी और अपने कार्य में कुशल डॉ अर्चना शर्मा इतना क्यों डर गई कि उन्होंने मासूम बच्चों और डाक्टर पति के भविष्य का भी विचार नहीं किया और एक अख़बार की खबर पढ़ कर आत्महत्या कर ली। पत्रकार होने के नाते डॉ शर्मा की इस दुखद मृत्यु के लिए मैं उस संवाददाता को सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ जिसने पुलिस की एफ़आईआर को ही आधार बनाकर अपनी खबर इस तरह छापी कि उसके कुछ घण्टों के भीतर ही डॉ अर्चना शर्मा फाँसी के फंदे पर लटक गई। लगता है कि इस संवाददाता ने खबर लिखने से पहले डॉ अर्चना से उनका पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की। आज मीडिया में ये प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है जब संवाददाता एकतरफ़ा खबर छाप कर सनसनी पैदा करते हैं, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की छवि धूमिल करते हैं। प्रायः ऐसा ब्लैकमेलिंग के इरादे से करते हैं जिससे सामने वाले को डराकर मोटी रक़म वसूली जा सके। ये बात दूसरी है कि ऐसी ज़्यादातर खबरें जाँच पढ़ताल के बाद निराधार पाई जाती हैं। पर तब तक उस व्यक्ति की तो ज़िंदगी बर्बाद हो ही
  जाती है। ये बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। 



प्रेस काउन्सिल औफ़ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय व पत्रकारों के संगठनों को इस विषय में गम्भीरता से विचार करके कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। पिछले चार दशक की खोजी पत्रकारिता में मैंने देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरण का निडरता से खुलासा किया, जिससे उनकी नौकरियाँ भी गई। पर ऐसी कोई भी खबर लिखने या दिखने से पहले ये भरसक कोशिश रही कि उस व्यक्ति का स्पष्टीकरण ज़रूर लिया जाए और उसे अपनी खबर में समुचित स्थान दिया जाए। इस एक सावधानी का फ़ायदा यह भी होता है कि आपको कभी मानहानि का मुक़द्दमा नहीं झेलना पड़ता। 


डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए वो पुलिस अधिकारी पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने एफ़आईआर में बिना किसी पड़ताल के डॉ शर्मा पर धारा 302 लगा दी। यानी उन्हें साज़िशन हत्या करने का दोषी करार कर दिया। पूरे देश की पुलिस में यह दुषप्रवृत्ति फैलती जा रही है। जब पुलिस बिना किसी तहक़ीक़ात के केवल शिकायतकर्ता के बयान पर एफ़आईआर में तमाम बेसर-पैर की धाराएँ लगा देती है। जिन्हें बाद में अदालत में सिद्ध नहीं कर पाती और उसके लिए न्यायाधीशों द्वारा फटकारी जाती है। पुलिस ऐसा तीन परिस्थितियों में करती है। पहला, जब उसे आरोपी को आतंकित करके मोटी रक़म वसूलनी होती है। दूसरा, जब उसे राजनैतिक आकाओं के इशारे पर सत्ताधीशों के विरोधियों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं का मुह बंद करने के लिए इन बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करने को कहा जाता है। तीसरा कारण होता है जब बड़े और शातिर अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस ग़रीबों, दलितों और आदिवासियों को झूठे मुक़द्दमें में फँसा कर गुनाहगार सिद्ध कर देती है। जैसा हाल ही में आई एक फ़िल्म ‘जय भीम’ में दिखाया गया है। 


ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1977 में जब जनता सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया तो उसके अध्यक्ष और कई सदस्य मेरे परिचित थे। इसलिए दिल्ली के लोकनायक भवन में इस आयोग के साथ अपने अनुभव साझा करने का मुझे खूब अवसर मिला। तब से आजतक भारत की मौजूदा पुलिस व्यवस्था में सुधार की तमाम सिफ़ारिशें सरकार को दी जा चुकी हैं। पर केंद्र और राज्य की कोई भी सरकार इन सुधारों को लागू नहीं करना चाहती। चाहे वो किसी भी दल की क्यों न हो। 1860 में अंग्रेजों की हुकूमत के बनाए क़ानूनों के तहत हमारी पुलिस आजतक काम कर रही है। जिसका ख़ामियाज़ा भारत का आम आदमी हर रोज़ भुगत रहा है। देशभर के जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों व वकीलों आदि को पुलिस व्यवस्था में सुधारों के लिए एक देश व्यापी अभियान लगातार चलाना चाहिए। जिससे सभी राजनैतिक दल मजबूर होकर पुलिस सुधारों को लागू करवाएँ। 


दरअसल आज़ादी के बाद राजनेताओं ने भी पुलिस को अंग्रेजों की ही तरह आम जनता को डराकर व धमकाकर नियंत्रित करने का शस्त्र बना रखा है। इसलिए वे अपनी इस नकारात्मक सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं होते। जिन दिनों मुझे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से प्रदत्त ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई थी उन दिनों मेरा अपने अंगरक्षकों से अक्सर पुलिस व्यवस्था को लेकर मुक्त संवाद होता था। चूँकि मेरी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल के जवान भी तैनात रहते थे और देश में भ्रमण के दौरान उन प्रांतों की पुलिस फ़ोर्स भी मेरी सुरक्षा में तैनात होती थी, इसलिए सारे देश की पुलिस व्यवस्था की असलियत को बहुत निकटता से जानने का उन वर्षों में मौक़ा मिला। तब यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पुलिस के हालात, बिना किसी अपवाद के सब जगह एक जैसी है और उसमें सुधार के बिना आम जनता को न्याय नहीं मिल सकता। 


इस मामले में डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए जिन राजनेताओं का नाम सामने आया है उन्होंने जान बूझ कर इस मामले अकारण तूल दिया। जिसका उद्देश केवल डॉ अर्चना शर्मा को ब्लैकमेल करना था। स्वयं को जनसेवक बताने वाले राजनेताओं और उनके कार्यकर्ताओं में इस तरह विवादों को अनावश्यक तूल देकर स्थित को बिगाड़ना और उससे मोटी उगाही करना आम बात हो गयी है। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है। मैं यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि डॉ अर्चना शर्मा के मामले प्रथमदृष्टया कोई कोताही या अनैतिक आचरण का प्रमाण सामने नहीं आया है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि मानव सेवा के लिए बना यह सम्मानित व्यवसाय भी आज लालची अस्पताल मालिकों और लालची डाक्टरों की लूट और अनैतिक आचरण के कारण क्रमशः अपनी आदर्श स्थित से नीचे गिरता जा रहा है। जहां कुछ मामलों में तो इनका व्यवहार बूचड़खाने के कसाइयों से भी निकृष्ट होता है, जिसमें भी सुधार की बहुत ज़रूरत है। हालाँकि डॉ अर्चना शर्मा का मामला बिल्कुल अलग है और इसलिए राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत को स्वयं रुचि लेकर उस पत्रकार, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।