Monday, April 25, 2022

पर्यटक सूचना केंद्रों की निरर्थकता


कोविड के समय को छोड़ दे तो पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में पर्यटन उद्योग में काफ़ी उछाल आया है। पहले केवल उच्च वर्ग अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करता था। मध्य वर्ग अपने ही देश में पर्यटन या तीर्थाटन करता था। निम्न आय वर्ग कभी-कभी तीर्थ यात्रा करता था। लेकिन अब मध्य वर्ग के लोग भी भारी संख्या में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करने लगे हैं। जिसके पास भी चार पहिए का वाहन है वो साल में कई बार अपने परिवार के साथ दूर या पास का पर्यटन करता है।
 


सूचना क्रांति के बाद से पर्यटन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। पहले पर्यटन स्थल या तीर्थ स्थल पर पहुँच कर ये पता लगाना पड़ता था कि ठहरने की व्यवस्था कहाँ-कहाँ और कितने पैसे में उपलब्ध है। फिर यह पता लगाना पड़ता था कि दर्शनीय स्थल कौनसे हैं। उनकी दूरी बेस कैम्प से कितनी है और वहाँ तक जाने के क्या-क्या साधन हैं? ऐसी तमाम जानकारियाँ लेने के लिए अनेक देशों में पर्यटन सूचना केंद्र बनाए जाते थे। भारत में भी बनाये गये। 


1984 की बात है मैं अपनी पत्नी की बहन और उनके पति , जो दोनों ही भारतीय विदेश सेवा में बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में तैनात थे, उनके साथ कार में यूरोप की यात्रा के लिए निकला। चूँकि वे भारतीय दूतावास के अधिकारी थे इसलिए स्विट्ज़रलैंड, फ़्रान्स, जर्मनी और इटली आदि में हम भारत के राजदूतों या दूतावास के अधिकारियों के घर पर भी ठहरे। पर एक दिन अपने गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते रात के एक बज गए। शहर में पूरा सन्नाटा था, कहीं कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया, जिसकी मदद ली जा सके। किसी तरह पर्यटन सूचना केंद्र पहुँचे और तब जा कर आगे की व्यवस्था हुई।

 

लेकिन आज सूचना क्रांति ने सब कुछ घर बैठे ही सुलभ कर दिया है। आज आप दुनिया ही नहीं बल्कि भारत के भी किसी भी शहर या छोटे से छोटे पर्यटन स्थल पर जाना चाहें तो आपको सारी सूचनाएँ घर बैठे उपलब्ध हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर वहाँ कौन-कौन से दर्शनीय स्थल हैं? उनका ‘वरचुअल टूर’ सोशल मीडिया पर किया जा सकता है। कहाँ ठहरना है, इसके सैंकड़ों विकल्प, कमरे की दर के अनुसार आप गूगल पर देख सकते हैं। देख ही नहीं सकते बल्कि कन्फ़र्म बुकिंग भी कर सकते हैं। इसके साथ ही आप घर बैठे उस शहर में अपने लिए लोकल टैक्सी और टूरिस्ट गाइड भी बुक कर सकते हैं। ज़ूम कॉल पर उस गाइड से वार्ता करके उसका चेहरा भी देख सकते हैं। 


1984 के बाद 2010 में जब हमारा पूरा परिवार यूरोप यात्रा पर गया तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि हम जिस शहर में भी पहुँचते थे वहाँ हमारे लिए वाहन और गाइड पहले से ही तैयार खड़े मिलते थे। होटल भी बुक होता था। तकनीकी में कम रुचि होने के कारण तब मुझे इस सब की इतनी जानकारी नहीं थी। पर यह अनुभव बहुत अच्छा हुआ कि बच्चों ने हर शहर में सारी व्यवस्थाएँ पहले से ही ऑनलाइन बुक कर रखी थीं। यहाँ तक की किस शहर में शाम को कितने बजे कौन सा नाटक या बैले देखना है, उसकी भी टिकट एडवांस में आ चुकी थी। कुल मिला कर बात यह हुई कि किसी भी शहर में हमें यूरोप के पर्यटन सूचना केंद्र नहीं जाना पड़ा। 


ये सब उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त और आधुनिक व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ नौकरशाही आज भी भारत में सैंकड़ों करोड़ के पर्यटन सूचना केंद्रों के निर्माण में जुटी है। जिनका रख रखाव कैसा होता है इसका आपने भी खूब अनुभव किया होगा। इनके स्वागत कक्ष में या तो कोई होता ही नहीं। और यदि होता है तो वो बेरुख़ी से बात करता है। सूचना केंद्र के शौचालय प्रायः दुर्गंधयुक्त और गंदे रहते हैं। पर्यटन क्षेत्र के बारे में सूचना प्रपत्र (ब्रोशर) नदारद रहते हैं। सब जगह ऐसा नहीं होता। जहां अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आते हैं, जैसे आगरा, गोवा, महाबलीपुरम, त्रिवेंद्रम या देश की राजधानी दिल्ली में आपको ये सब देखने को शायद नहीं मिलता। पर उत्तर प्रदेश में आमतौर पर यही स्थित पाई जाती है। आज जब हर गाँव और क़स्बे में स्मार्ट फ़ोन पहुँच चुका है। स्कूली बच्चों की पढ़ाई तक ऑनलाइन चल रही है, तब पर्यटन सूचना के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपय के भवन बनवाने व जन धन बर्बाद करने का क्या लाभ? क्योंकि अब हर परिवार पर्यटन या तीर्थाटन पर जाने से पहले ही सारी सूचनाएँ गूगल या यूट्यूब से प्राप्त कर लेता है। मथुरा में ही जो पर्यटन सूचना केंद्र हाल में बने हैं उनका हाल देख लीजिए। 


उत्तर प्रदेश पर्यटन का एक उदाहरण काफ़ी होगा। 80 के दशक में पूरे प्रदेश में जगह-जगह पर्यटकों के ठहरने के लिए ‘राही होटल’ बनाए गए जो कभी भी कारगर नहीं रहे। आज सभी ख़स्ता हाल में हैं। कोई व्यवसाई उन्हें किराए पर लेकर भी चलाने को तैयार नहीं। दरअसल सरकार की पर्यटन योजनाओं में सबसे बड़ी कमी रख-रखाव की होती है। बड़ी-बड़ी घोषणाओं और विज्ञापनों के सहारे पर्यटन की जिन महत्वाकांक्षी योजनाओं को चालू किया जाता है, वो योजनाएँ सैंकड़ों रुपया खपा कर भी चंद महीनों में ख़स्ता हाल हो जाती हैं।


तीर्थाटन के विकास में भगवान श्री राधा कृष्ण की लीला भूमि में पिछले 20 वर्षों में मैंने पूरे तन, मन, धन और मनोयोग से कृष्णक़ालीन धरोहरों के संरक्षण का बड़े स्तर पर कार्य किया है। इसलिए हमारा अनुभव ज़मीनी हक़ीक़त को देख कर विकसित हुआ है। बड़ी निराशा की बात यह है कि कोई भी सरकार क्यों न आ जाए वो हमारी बात सुन तो लेती है, लेकिन हमारे सुझावों पर अमल नहीं करती। यह अनुभव डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। यही अनुभव मोदी जी की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद भी हुआ। इतना ही नहीं प्रदेश स्तर पर भी अखिलेश यादव जी की और योगी जी की सरकार में भी, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। क्योंकि अधिकतर नौकरशाही की सार्थक बदलाव में कोई रुचि नहीं होती। इसलिए हम सबके बुरे बन जाते हैं। क्योंकि हम सच बताते हैं और ग़लत को सह नहीं पाते। 


बहुत आशा थी कि हिंदुवादी सरकारों में हमारे धर्मक्षेत्रों का विकास संवेदनशीलता, पारदर्शिता और कलात्मक अभिरुचि से होगा। पर जो हो रहा है वो इसके बिलकुल विपरीत है। जब हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली सरकार में अनुभव सिद्ध सनातन धर्मियों की बात नहीं सुनी जा रही तो धर्म निरपेक्ष सरकार में कौन सुनेगा? यही देश के हर जागरूक हिंदू की पीड़ा है। 

Monday, April 18, 2022

आस्था के कवच में कानफोड़ू शोर


पर्यावरण में प्रदूषण पर चिंता कुछ कम हो गयी दिखती है। पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जतायी जा रही थी। अब ऐसा नहीं दीखता या तो हमने ठीक-ठाक कर लिया है या आँखें फेर ली हैं। नज़र डालने से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए। यानी कि हमने आँखे मूँद ली हैं। ऐसा
  क्यों करना पड़ा इसकी चर्चा आगे करेंगे लेकिन फिलहाल यह मुद्दा तात्कालिक तौर पर भले ही ज्यादा परेशान न करे लेकिन इसके असर प्राण घातक समस्याओं से कम नहीं हैं।


हाल ही मैं ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ सक्रियता दिखी है। खास तौर पर धार्मिक स्थानों पर। लाउडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता बढ़ती जा रही है। मनोवैज्ञानिक और स्नायुतन्त्रिका विज्ञान के विशेषज्ञ प्रायोगिक तौर पर अध्ययन ज़रूर कर रहे हैं। लेकिन उनके शोध अध्ययन सामाजिक स्तर पर जागरूकता या राजनैतिक स्तर पर दबाव पैदा करने में बिलकुल ही बेअसर हैं। कुछ स्वयमसेवी संस्थाएं ज़रूर हैं जो गाहेबगाहे आवाज़ उठाती हैं । लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता। हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती और शायद इसलिए नहीं समझी जाती क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं।


80 और 90 के दशक में जब अंधाधुंध विकास के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई थी तब उद्योगीकरण, बड़े बाँध, रासायनिक खाद और मिलावट जैसे मुद्दों पर बड़ी तीव्रता के साथ विरोध के स्वर उठे थे। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि प्रदूषण पर चिंता हलकी पड़ गयी। तब इस मुद्दे पर बहसों के बीच प्रदूषण विरोधियों को यह समझाया गया कि विकास के लिए प्रदूषण अपरिहार्य है। यानी निरापत विकास की कल्पना फिजूल की बात है। साथ ही जीवन की सुरक्षा के लिए विकास के अलावा और कोई विकल्प सूझता नहीं है। विकास के तर्क के सहारे आज भी हम नदियों के प्रदूषण और वायु प्रदूषण को सहने के लिए अभिशप्त हैं।


जब तक हमें कोई दूसरा उपाय ना सूझे तब तक आर्थिक विकास के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है। लेकिन धार्मिक स्थानों से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि प्रदूषण तक ही नहीं बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे – यह स्वीकारना मुश्किल है।


क़ानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है लेकिन इस क़ानून का पालन कराने में सरकारी एजंसियां या पुलिस बिलकुल असहाय नज़र आती हैं। धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिलकुल बेखौफ बैठी हुई है और इसके बेख़ौफ़ हो पाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के लिए कुछ भी करने की छूट देती है।


जहाँ तक सवाल आस्था या धार्मिक विश्वास का है तो समाज के जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या द्रढता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दिन रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही नहीं है। ये विद्वान क्या मजबूती के साथ यह नहीं कह सकते कि इसका आस्था या धर्म से कोई लेना देना नहीं है। आस्था बिलकुल निजी मामला है। धार्मिक विश्वास नितांत व्यक्तिगत बात है। उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिलकुल ही नाजायज़ है।


चलिए जागरूक समाज हो विद्वत समाज हो या क़ानून पालन करने वाली संस्थाएं हों या फिर राजनितिक दल ये सब अपनी सीमाओं और दबावों का हवाला देकर मूक दर्शक बनीं रह सकती हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है। आस्था और धार्मिक विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखरी उपाय दीखता है। यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि अदालतों को भी साक्ष के तौर पर समाज के जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए। आस्था और धार्मिक क्षेत्र की जटिल समस्याओं के निवारण के लिए न्यायपालिका को दार्शनिकों की भी ज़रूरत पड़ सकती है।


ग़ौरतलब है कि दुनिया में कई देशों में लाउडस्पीकर द्वारा अजान की ध्वनि सीमाएं तय की गई हैं। इनमें यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रिया, निदरलैंड, स्वित्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और बेल्जियम जैसे देश शामिल हैं। लाओस और नाइजीरिया जैसे देशों ने स्वघोषित रूप से भी लाउडस्पीकर द्वारा अजान की या तो सीमाएं तय की हैं या फिर मस्जिदों में लाउडस्पीकर को प्रतिबंधित किया है।


इसी परिप्रेक्ष्य में अगस्त 2014 में मैंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। जिसमें देश के सभी धर्म स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की माँग की थी। मेरे वकील विवेक नारायण शर्मा ने याचिका में साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास की सूची भी जोड़ दी थी जो इन लाउडस्पीकर्स के कारण देश में हुए थे। इस याचिका से सभी धर्मों के मानने वाले बहुत प्रसन्न हुए थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री एच एल दत्तु ने याचिका को कुछ सुनवाई के बाद ये कह कर लौटा दिया कि अदालत पहले ही ध्वनि प्रदूषण के स्तर की सीमा निर्धारित कर चुकी है। इसलिये शासन व पुलिसकर्मी से कहो कि वो उस आदेश को लागू करवाएँ। पर क्या धरातल पर ऐसा कभी होता है? नहीं होता। 


आज मस्जिदों में अजान के लाउडस्पीकर पर शोर को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है उसका जवाब पाँच बार हनुमान चालीसा पढ़ना या लाउडस्पीकर मंदिरों को बाँटना नहीं है। इससे तो शोर और बढ़ेगा, शांति भंग होगी और दंगे भी भड़केंगे। 


टीवी 18 के सवाँददाता सौरभ शर्मा, उनकी पत्नी अंकिता शर्मा और छह वर्षीय बच्चे को ‘माता के जागरण’ के नाम पर, अदालती आदेश के विरुद्ध, देर रात तक शोर मचाने वाले हुडदंगाइयों ने बुरी तरह अपमानित किया, उनकी पत्नी के कपड़े फाड़ने की धमकी देते हुए दूर तक दौड़ा दिया। 


उधर वृंदावन जो कि एक वैष्णव भक्ति का शहर है, जहां मुसलमान गिनती के रहते हैं, वहाँ भी ब्रह्ममुहूर्त में पूजा, ध्यान के समय लाउडस्पीकर द्वारा अजान के शोर से ख़लल पड़ता है। इसलिये लगता है मुझे अब दुबारा अपनी इस याचिका को सर्वोच्च अदालत में दाखिल करना पड़ेगा।

Monday, April 11, 2022

पाक अधिकृत कश्मीर का ख़ौफ़नाक सच


‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है वो उस ख़ौफ़नाक सच के सामने कुछ भी नहीं है जो अब अमजद अय्यूब मिर्ज़ा ने पाक अधिकृत कश्मीर में हुए हिंदुओं के वीभत्स नरसंहार के बारे में केलिफ़ोरनिया के अख़बार में प्रकाशित किया है। अय्यूब मिर्ज़ा ने पिछले महीने 21 मार्च को प्रकाशित अपने लेख में ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ को एक दमदार फ़िल्म बताते हुए इस बात की तारीफ़ की है कि कैसे इस फ़िल्म ने पाकिस्तान समर्थित जिहादियों और श्रीनगर के स्थानीय कट्टरपंथियों के आतंक को रेखांकित किया गया है। इस लेख में मिर्ज़ा लिखते हैं कि ये तो प्याज़ की पहली परत उखाड़ने जैसा है। उनके अनुसार जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदुओं व सिखों को मारने और भगाने का सिलसिला 1990 से ही नहीं शुरू हुआ। इसकी जड़ें तो 1947 के भारत-पाक बँटवारे के अप्रकाशित इतिहास में दबी पड़ी हैं।
 

अमजद अय्यूब मिर्ज़ा पाक अधिकृत कश्मीर के मीरपुर ज़िले के निवासी हैं । जो अपने स्वतंत्र विचारों व मानव अधिकारों की वकालत करने के कारण आजकल इंगलेंड में निष्कासित जीवन जी रहे हैं। इसलिए इनकी सूचनाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 


मिर्ज़ा बताते हैं कि जम्मू कश्मीर के हिंदुओं पर मौत का तांडव 22 अक्तूबर 1947 से शुरू हुआ, जिस दिन पाकिस्तानी फ़ौज ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया। उस वक्त आज के पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों की बड़ी आबादी रहती थी और वे सब सुखी व सम्पन्न थे। जबकि स्निडन द्वारा 2012 में प्रकाशित जनसंख्या सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस क्षेत्र में अब हिंदुओं और सिक्खों की आबादी का कोई आँकड़ा नहीं मिला है। या तो उन सब को भगा दिया या मार डाला गया। इस रिपोर्ट को पूरी दुनिया के शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि पाक अधिकृत कश्मीर में अब एक भी हिंदू या सिख नहीं है। इससे ये अनुमान लगाया है कि 1947 के पाकिस्तानी हमले के बाद वहाँ रह रहे 1,22,500 हिंदू और सिख उस इलाक़े से ग़ायब हो गए।

मिर्ज़ा लिखते हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि बँटवारे के समय दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में हो रहे भारी सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए बड़ी संख्या में सिख और हिंदुओं ने पंजाब की सीमा से सटे पाक अधिकृत कश्मीर में शरण ली थी। यहाँ के भिम्बर शहर में कम से कम 2000, मीरपुर में 15,000, राजौरी में 5,000 और कोटली में अनगिनित हिंदू और सिखों ने शरण ली थी। 

भिम्बर तहसील में 35 फ़ीसद आबादी हिंदुओं की थी। पर 1947 के पाकिस्तानी हमले में एक भी नहीं बचा। मिर्ज़ा लिखते हैं कि सबसे बड़ा नरसिंहार तो मेरे गृह नगर मीरपूर में हुआ जहां 25,000 हिंदू और सिखों को एक जगह एकत्र करके मारा-काटा गया। उनकी बहू-बेटियों को पाकिस्तानी  फ़ौज और धर्मांद लशकरियों ने ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का नारा लगा कर अपनी वहशियाना  हवस का शिकार बनाया। उस नरसिंहार से बच कर उन लोगों के परिवारजन जो किसी तरह जम्मू पहुँच गए, वे आजतक 25 नवम्बर को ‘मीरपुर नरसिंहार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस मनहूस दिन 1947 में पाकिस्तानी फ़ौज और लश्कर ने मीरपुर में जगह-जगह आगजनी, लूट और नरसंहार किया था और ‘काफिरों’ के घरों और दुकानों को जला दिया था।

मिर्ज़ा बताते हैं कि, सौभाग्य से इस मनहूस दिन से केवल दो दिन पहले ही 2,500 हिंदू और सिख जम्मू कश्मीर की सेना के संरक्षण में जम्मू तक सुरक्षित पहुँचने में कामयाब हो गए थे। जो पीछे रह गए उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज अली बेग इलाक़े में ये कह कर ले गयी कि वहाँ एक गुरुद्वारे में शरणार्थियों के लिए कैम्प लगाया गया है। पर जिस पैदल मार्च को हिंदू और सिक्खों ने इस उम्मीद में शुरू किया कि अब उनकी जान बच जाएगी वो मौत का कुआँ सिद्ध हुआ। इस पैदल मार्च के रास्ते में ही 10,00 हिंदू और सिक्खों को क़त्ल कर दिया गया। इनकी 5,000 बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद रावलपिंडी, झेलम और पेशावर के बाज़ारों में बेच दिया गया। इस तरह कुल 5000 हिंदू और सिख ही अली बेग तक पहुँच पाए। जहां पहुँच कर भी वे सुरक्षित नहीं रहे और उनके पहरेदारों ने ही उनका क़त्ल करना जारी रखा। इस तरह मीरपुर के 25,000 हिंदू और सिक्खों में से केवल 1600 बचे, जिन्हें ‘इंटरनैशनल कमेटी ओफ़ रेड क्रॉस’ वाले सुरक्षित रावलपिंडी ले गए जहां से फिर उन्हें जम्मू भेज दिया गया।

मिर्ज़ा बताते हैं कि 1951 में पाक अधिकृत कश्मीर में केवल 790 ग़ैर मुसलमान बचे थे। पर आज एक भी नहीं है। मीरपुर के इस नरसंहार  से भयभीत बहुत सी औरतों और आदमियों ने तो पहाड़ से कूद कर या ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली थी। हिंदू और सिखों का ऐसा ही नरसंहार  राजौरी, बारामूला, व मुज़फ़्फ़राबाद में भी हुआ। इसलिए मिर्ज़ा का कहना है कि ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है उससे कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक नरसंहार 1947 के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों को झेलना पड़ा था। 

जहां यह रिपोर्ट हर हिंदू का ही नहीं बल्कि हर इंसान का दिल दहला देती है, वहीं ये बात भी महत्वपूर्ण है अमजद अय्यूब मिर्ज़ा जैसे मुसलमान भी हैं, जो अपने धर्म के कट्टरवादियों की धमकियों के बावजूद एक सच्चे इंसान की तरह सच को सच कहने से नहीं डरते।ऐसे मुसलमान भारत में भी बहुत बड़ी तादाद में हैं और पाकिस्तान में भी इनकी संख्या कम नहीं है। दिक्कत इस बात की है कि इस्लाम धर्म और उसको बताने वाले कट्टरपंथी मुल्ला इन बातों को कभी अहमियत नहीं देते बल्कि लगातार ज़हर घोलते रहते हैं। जिससे कभी साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो ही नहीं पाता। ज़रूरत इस बात की थी कि जज़्बाती और समझदार मुसलमान इन मुल्लाओं की ख़िलाफ़त करने की हिम्मत दिखाते। जिसके प्रभावी न होने के कारण बहुसंख्यक हिंदू समाज उनके प्रति हमेशा सशंकित रहता है। इसलिये ये ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे और प्रगतिशील वर्ग की है कि वे अपने सुरक्षित घरों से बाहर निकलें और भारत में इंडोनेशिया, मलेशिया और तुर्की जैसे प्रगतिशील मुस्लिम समाज की स्थापना करें, जिससे हर हिंदुस्तानी अमन और चैन के साथ जी सके। तभी भारत में शांति स्थापित हो पाएगी। इसी में सभी का हित है। 

Monday, April 4, 2022

डॉ अर्चना शर्मा की शहादत से सबक


दौसा (राजस्थान) की युवा डाक्टर अर्चना शर्मा की ख़ुदकुशी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? महिला रोग विशेषज्ञ, स्वर्ण पदक विजेता, मेधावी और अपने कार्य में कुशल डॉ अर्चना शर्मा इतना क्यों डर गई कि उन्होंने मासूम बच्चों और डाक्टर पति के भविष्य का भी विचार नहीं किया और एक अख़बार की खबर पढ़ कर आत्महत्या कर ली। पत्रकार होने के नाते डॉ शर्मा की इस दुखद मृत्यु के लिए मैं उस संवाददाता को सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ जिसने पुलिस की एफ़आईआर को ही आधार बनाकर अपनी खबर इस तरह छापी कि उसके कुछ घण्टों के भीतर ही डॉ अर्चना शर्मा फाँसी के फंदे पर लटक गई। लगता है कि इस संवाददाता ने खबर लिखने से पहले डॉ अर्चना से उनका पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की। आज मीडिया में ये प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है जब संवाददाता एकतरफ़ा खबर छाप कर सनसनी पैदा करते हैं, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की छवि धूमिल करते हैं। प्रायः ऐसा ब्लैकमेलिंग के इरादे से करते हैं जिससे सामने वाले को डराकर मोटी रक़म वसूली जा सके। ये बात दूसरी है कि ऐसी ज़्यादातर खबरें जाँच पढ़ताल के बाद निराधार पाई जाती हैं। पर तब तक उस व्यक्ति की तो ज़िंदगी बर्बाद हो ही
  जाती है। ये बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। 



प्रेस काउन्सिल औफ़ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय व पत्रकारों के संगठनों को इस विषय में गम्भीरता से विचार करके कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। पिछले चार दशक की खोजी पत्रकारिता में मैंने देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरण का निडरता से खुलासा किया, जिससे उनकी नौकरियाँ भी गई। पर ऐसी कोई भी खबर लिखने या दिखने से पहले ये भरसक कोशिश रही कि उस व्यक्ति का स्पष्टीकरण ज़रूर लिया जाए और उसे अपनी खबर में समुचित स्थान दिया जाए। इस एक सावधानी का फ़ायदा यह भी होता है कि आपको कभी मानहानि का मुक़द्दमा नहीं झेलना पड़ता। 


डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए वो पुलिस अधिकारी पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने एफ़आईआर में बिना किसी पड़ताल के डॉ शर्मा पर धारा 302 लगा दी। यानी उन्हें साज़िशन हत्या करने का दोषी करार कर दिया। पूरे देश की पुलिस में यह दुषप्रवृत्ति फैलती जा रही है। जब पुलिस बिना किसी तहक़ीक़ात के केवल शिकायतकर्ता के बयान पर एफ़आईआर में तमाम बेसर-पैर की धाराएँ लगा देती है। जिन्हें बाद में अदालत में सिद्ध नहीं कर पाती और उसके लिए न्यायाधीशों द्वारा फटकारी जाती है। पुलिस ऐसा तीन परिस्थितियों में करती है। पहला, जब उसे आरोपी को आतंकित करके मोटी रक़म वसूलनी होती है। दूसरा, जब उसे राजनैतिक आकाओं के इशारे पर सत्ताधीशों के विरोधियों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं का मुह बंद करने के लिए इन बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करने को कहा जाता है। तीसरा कारण होता है जब बड़े और शातिर अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस ग़रीबों, दलितों और आदिवासियों को झूठे मुक़द्दमें में फँसा कर गुनाहगार सिद्ध कर देती है। जैसा हाल ही में आई एक फ़िल्म ‘जय भीम’ में दिखाया गया है। 


ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1977 में जब जनता सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया तो उसके अध्यक्ष और कई सदस्य मेरे परिचित थे। इसलिए दिल्ली के लोकनायक भवन में इस आयोग के साथ अपने अनुभव साझा करने का मुझे खूब अवसर मिला। तब से आजतक भारत की मौजूदा पुलिस व्यवस्था में सुधार की तमाम सिफ़ारिशें सरकार को दी जा चुकी हैं। पर केंद्र और राज्य की कोई भी सरकार इन सुधारों को लागू नहीं करना चाहती। चाहे वो किसी भी दल की क्यों न हो। 1860 में अंग्रेजों की हुकूमत के बनाए क़ानूनों के तहत हमारी पुलिस आजतक काम कर रही है। जिसका ख़ामियाज़ा भारत का आम आदमी हर रोज़ भुगत रहा है। देशभर के जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों व वकीलों आदि को पुलिस व्यवस्था में सुधारों के लिए एक देश व्यापी अभियान लगातार चलाना चाहिए। जिससे सभी राजनैतिक दल मजबूर होकर पुलिस सुधारों को लागू करवाएँ। 


दरअसल आज़ादी के बाद राजनेताओं ने भी पुलिस को अंग्रेजों की ही तरह आम जनता को डराकर व धमकाकर नियंत्रित करने का शस्त्र बना रखा है। इसलिए वे अपनी इस नकारात्मक सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं होते। जिन दिनों मुझे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से प्रदत्त ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई थी उन दिनों मेरा अपने अंगरक्षकों से अक्सर पुलिस व्यवस्था को लेकर मुक्त संवाद होता था। चूँकि मेरी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल के जवान भी तैनात रहते थे और देश में भ्रमण के दौरान उन प्रांतों की पुलिस फ़ोर्स भी मेरी सुरक्षा में तैनात होती थी, इसलिए सारे देश की पुलिस व्यवस्था की असलियत को बहुत निकटता से जानने का उन वर्षों में मौक़ा मिला। तब यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पुलिस के हालात, बिना किसी अपवाद के सब जगह एक जैसी है और उसमें सुधार के बिना आम जनता को न्याय नहीं मिल सकता। 


इस मामले में डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए जिन राजनेताओं का नाम सामने आया है उन्होंने जान बूझ कर इस मामले अकारण तूल दिया। जिसका उद्देश केवल डॉ अर्चना शर्मा को ब्लैकमेल करना था। स्वयं को जनसेवक बताने वाले राजनेताओं और उनके कार्यकर्ताओं में इस तरह विवादों को अनावश्यक तूल देकर स्थित को बिगाड़ना और उससे मोटी उगाही करना आम बात हो गयी है। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है। मैं यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि डॉ अर्चना शर्मा के मामले प्रथमदृष्टया कोई कोताही या अनैतिक आचरण का प्रमाण सामने नहीं आया है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि मानव सेवा के लिए बना यह सम्मानित व्यवसाय भी आज लालची अस्पताल मालिकों और लालची डाक्टरों की लूट और अनैतिक आचरण के कारण क्रमशः अपनी आदर्श स्थित से नीचे गिरता जा रहा है। जहां कुछ मामलों में तो इनका व्यवहार बूचड़खाने के कसाइयों से भी निकृष्ट होता है, जिसमें भी सुधार की बहुत ज़रूरत है। हालाँकि डॉ अर्चना शर्मा का मामला बिल्कुल अलग है और इसलिए राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत को स्वयं रुचि लेकर उस पत्रकार, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।    

Monday, March 28, 2022

योगी जी! ऐसे सुधरेंगी धर्मनगरियाँ

योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।  


धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं। 


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 


माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।


पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।


चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।  

Monday, March 21, 2022

मुसलमानों का क्या करें?

सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम, शस्य श्यामलाम, भारत माता इतनी उदार हैं कि हर भारतवासी सुखी, स्वस्थ व सम्पन्न हो सकता है। पर स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी अधिकतर आबादी पेट पालने के लिए भी दान के अनाज पर निर्भर है। कई दशकों तक ‘ग़रीबी हटाओ’ के नाम पर उसे झुनझुना थमाया गया। पर उसकी ग़रीबी दूर नहीं हुई। आज ग़रीबी के साथ युवा बेरोज़गारी एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है । जिसका निदान अगर जल्दी नहीं हुआ तो करोड़ों युवाओं की ये फ़ौज देश भर में हिंसा, अपराध और लूट में शामिल हो जाएगी। हर राजनैतिक दल अपने वोटों का ध्रुवीकरण के लिए जनता को किसी न किसी नारे में उलझाए रखता है और चुनाव जीतने  के लिए उसे बड़े-बड़े लुभावने सपने भी दिखाता है।



पिछले कुछ वर्षों से अल्पसंख्यक मुसलमानों का डर बहुसंख्यक हिंदुओं को दिखाया जा रहा है। आधुनिक सूचना तकनीकी की मदद से ‘इस्लमोफोबिया’ को घर-घर तक पहुँचा दिया गया है। लगभग 30 फ़ीसदी हिंदू आबादी ये मान चुकी है कि भारत की हर समस्या का कारण मुसलमान है, जो सही नहीं है। आर्थिक समस्याओं के कारण दूसरे हैं और सामाजिक समस्याओं के कारण दूसरे।


जहां तक भारत में मुस्लिम आबादी का प्रश्न है वे आज 17 करोड़ हैं और हम हिंदू 96 करोड़ हैं। अपनी आबादी के इतने बड़े हिस्से को अगर हम अपनी हर समस्या का कारण मानते हैं तो इसका निदान क्या है? क्या उन्हें मार डाला जाए? क्या उन्हें एक और पाकिस्तान बना कर भारत से अलग कर दिया जाए? या उनके और हमारे बीच चले आ रहे विवाद के विषयों का समाधान खोजा जाए? 


उल्लेखनीय है कि सरसंघ चालक डॉक्टर मोहन भागवत जी मुसलमानों के विषय में कई बार कह चुके हैं कि उनके और हमारे पुरखे एक ही थे, कि उनका और हमारा डीएनए एक है, कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। 80 बनाम 20 फ़ीसदी का नारा देकर चुनाव लड़ने वाले योगी आदित्यनाथ जी ने अपनी एक सभा में  कहा, वह मुझसे प्यार करते हैं, मैं उनसे प्यार करता हूँ। 


संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए इस सब से बड़े असमंजस की स्थितियाँ पैदा होती रहती हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करें ? अगर भागवत जी की यही बात सही है तो फिर मॉबलिंचिंग, लव जिहाद, टोपी-दाढ़ी का विरोध, रेह्ड़ी वालों को पीट कर उनसे जय श्री राम कहलवाना या मुसलमानों के साथ हर तरह का व्यावसायिक व सामाजिक व्यवहार ख़त्म करने जैसे अभियानों का रात दिन सोशल मीडिया पर इतना प्रचार क्यों किया जाता है ? 


अगर भागवत जी या योगी जी या फिर मोदी जी भी यही मानते हैं कि मुसलमान ही हर समस्या की जड़ हैं तो इस अभियान को लम्बा खींचने के बजाय एक बार में इसका समाधान ढूँढ कर उसे कड़ाई से लागू क्यों नहीं करते? अगर वे ऐसा कर देते हैं तो समाज में नित्य नए उठने वाले विप्लव शांत हो जाएँगे। जो समाज और राष्ट्र के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक हैं। क्योंकि अशांत समाज में आर्थिक गतिविधियाँ ठहर जाती हैं। अगर इन राष्ट्रीय नेताओं को ये लगता है कि ऐसा करना सम्भव नहीं है तो जो अभियान अभी चल रहे हैं उनको रोकने और उनकी दिशा मोड़ने का कार्य उन्हें करना चाहिये। जो उनके लिए असम्भव नहीं है। हां इससे अपेक्षित राजनैतिक लाभ नहीं प्राप्त होगा किंतु समाज में शांति ज़रूर स्थापित हो जाएगी। 


इस सबसे अलग एक प्रश्न हम सब सनातन धर्मियों के मन में सैंकड़ों वर्षों से घुट रहा है। भारत की सनातन संस्कृति को गत हज़ार वर्षों में राजाश्रय नहीं मिला। कई सदियों में तो उसका दमन किया गया। जिसका विरोध सिख गुरुओं व शिवाजी महाराज जैसे अनेक महापुरुषों ने किया। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि इनका विरोध उस राज सत्ता से था जो हिंदुओं का दमन करती थीं। सामाजिक स्तर पर इन्हें मुसलमानों से कोई बैर नहीं था। क्योंकि इनकी सेना और साम्राज्य में मुसलमानों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया था। 


बँटवारे से पहले जो लोग भारत और पाकिस्तान के भोगौलिक क्षेत्रों में सदियों से रहते आए थे, उनके बीच भी पारस्परिक सौहार्द और प्रेम अनुकरणीय था। बँटवारे के बाद इधर से उधर या उधर से इधर गए ऐसे तमाम लोगों के इंटरव्यू यूट्यूब पर भरे पड़े हैं। ये बुजुर्ग बताते हैं कि बँटवारे की आग फैलने से पहले तक इनके इलाक़ों में साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी कोई बात ही नहीं थी। 


एक तरफ़ सनातन धर्म के मानने वाले वे संत और हम जैसे साधारण लोग हैं जिनका यह विश्वास है कि सनातन धर्म ही मानव और प्रकृति के कल्याण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इसीलिए हम इसका पालन राष्ट्रीय स्तर पर होते देखना चाहते हैं। वैसे भी दुनिया के सभी सम्प्रदाय वैदिक संस्कृति के बाद पनपे हैं। पर ऐसा होता दीख नहीं रहा। चिंता का विषय यह है कि हिंदुत्व का नारा देने वाले भी वैदिक सनातन संस्कृति की मूल भावना व शास्त्रोचित सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए अति उत्साह में अपने मनोधर्म को वृहद् हिंदू समाज पर जबरन थोपने का प्रयास करते हैं। जबकि हमारे सनातन धर्म की विशेषता ही यह है कि इसका प्रचार-प्रसार मनुष्यों की भावना से होता है तलवार के ज़ोर से नहीं। 


रही बात मुसलमानों की तो इसमें संदेह नहीं कि मुसलमानों के एक भाग ने भारतीय संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में काफ़ी हद तक आत्मसात किया है। ऐसे मुसलमान भारत के हर हिस्से में हिंदुओं के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में जीवन यापन करते हैं। किंतु उनके धर्मांध नेता अपने राजनैतिक लाभ के लिए उन्हें गुमराह करके ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे बहुसंख्यक हिंदू समाज न सिर्फ़ असहज हो जाता है बल्कि उनकी ओर से आशंकित भी हो जाता है। हिंदू समाज की ये आशंका निर्मूल नहीं है। मध्य युग से आजतक इसके सैंकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं। ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानों का है जिन्होंने सदियों से वहाँ रह रहे हिंदुओं और  सिक्खों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे में अब समय आ गया है कि शिक्षा, क़ानून और प्रशासन के मामले में देश के हर नागरिक पर एक सा नियम लागू हो। धार्मिक मामलों को समाज के निर्णयों पर छोड़ दिया जाए। उनमें दख़ल न दिया जाए। ऐसे में मुसलमानों के पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को भी हिम्मत जुटा कर अपने समाज में सुधार लाने का काम करना चाहिए। जिससे उनकी व्यापक स्वीकार्यता बन सके । वैसे ही जैसे हिंदुत्व का झंडा उठाने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को गम्भीरता से सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, न कि उसमें घालमेल। तभी भारत अपनी 135 करोड़ जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खड़ा हो सकेगा। 

Monday, March 7, 2022

रूस-यूक्रेन युद्ध के भारत पर परिणाम

पूरी दुनिया यूक्रेन रूस के युद्ध को लेकर बेचैन है। भारत की बड़ी चिंता उन विद्यार्थियों को लेकर है जो यूक्रेन में अभी फँसे हुए हैं। जो विद्यार्थी जोखिम उठा कर, तकलीफ़ सहकर, भूखे प्यासे रह कर यूक्रेन की सीमाओं को पार कर पा रहे हैं, उन्हें ही भारत लाने का काम भारत सरकार कर रही है। पर जो युद्धग्रस्त यूक्रेन के शहरों में फँसे हैं, ख़ासकर वो जो सीमा से कई सौ किलोमीटर दूर हैं, उनकी हालात बहुत नाज़ुक है। वे बार-बार सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि उन्हें जल्दी से जल्दी वहाँ से सुरक्षित निकाला जाए अन्यथा वे ज़िंदा नहीं बचेंगे। चूँकि इस युद्ध में भारत रूस के साथ खड़ा है, इसलिए यूक्रेन की सेना और नागरिक भारतीयों से नाराज़ है और मदद करना तो दूर छात्रों को यातनाएँ दे रहे हैं। ऐसा उन विद्यार्थियों के वायरल होते विडीयो में देखा जा रहा है। इसके साथ ही इस युद्ध से जो दूसरी बड़ी चुनौती है उसके भी दीर्घगामी परिणाम हम भारतवासियों को भुगतने पड़ सकते हैं। 



सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो॰ अरुण कुमार ने भारत की अर्थव्यवस्था पर इस युद्ध के परिणामों को लेकर अध्ययन किया है। प्रो॰ कुमार के अनुसार वैश्वीकरण के कारण किसी भी जंग का दुनिया के हर हिस्से पर असर पड़ता है। फिर वह युद्ध चाहे खाड़ी के देशों में हो या अफ्रीका में। परंतु रूस और यूक्रेन की जंग इन सबसे अलग है। यह युद्ध नहीं बल्कि विश्व की दो महाशक्तियों के बीच टकराव है। इस युद्ध में एक ओर रूस की सेना है, जबकि दूसरी ओर अमेरिका व नाटो द्वारा परोक्ष रूप से समर्थित यूक्रेन की सेना। दो ख़ेमे बन चुके हैं, जिनकी तनातनी भारत पर भी असर छोड़ सकती है।


यूक्रेन और रूस के बीच होने वाला यह युद्ध तात्कालिक तौर पर वैश्विक कारोबार, पूंजी प्रवाह, वित्तीय बाजार और तकनीकी पहुंच को भी प्रभावित करेगा। इस युद्ध में भले ही रूस ने हमला बोला है, लेकिन उस पर प्रतिबंध भी लागू हो गया है। आमतौर पर जिस देश पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उसके साथ होने वाले व्यापार को रोकने की कोशिश भी होती है। फिलहाल, दुनिया भर में रूस गैस और तेल का बहुत बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अभी इन उत्पादों के कारोबार भले ही प्रतिबंधित नहीं किए गए हैं, लेकिन मुमकिन है कि जल्द ही इनके व्यापार पर भी रोक लगाई जा सकती है। जाहिर है, इसके बाद इनके दाम बढ़ सकते हैं। 


दूसरी ओर, यूक्रेन गेहूं और खाद्य तेलों के बड़े निर्यातकों में से एक है। भारत भी वहां से लगभग 1.5 बिलियन डॉलर का सूरजमुखी तेल हर साल मंगाता है। ऐसे में, भारत में इन वस्तुओं के आयात प्रभावित होने से खाद्य उत्पादों पर भी असर पड़ेगा। यानी, यह युद्ध ऊर्जा, धातु और खाद्य उत्पादों के वैश्विक कारोबार को काफ़ी हद तक प्रभावित कर सकता है।



प्रो॰ कुमार के अनुसार, रूस पर प्रतिबंध लगने से वहाँ की पूंजी का प्रवाह भी बाधित होगा। यह वित्तीय बाजारों को प्रभावित करेगा। जब बाजार में अनिश्चितता का दौर आता है, तो बिक्री शुरू हो जाती है। विदेशी निवेशक अपनी पूंजी वापस निकालने लगते हैं। इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई और विदेशी संस्थागत निवेश यानी एफआईआई का आना भी कम हो जाता है। जंग के हालात में सभी देश अपने-अपने निवेशकों को अपने-अपने मुल्क में ही निवेश करने की सलाह देते हैं। ऐसा इसलिए होता है जिससे उनकी अर्थव्यवस्था मजबूत बनी रहे। इस बार भी ऐसा हो सकता है। तकनीक भी इन सबसे अछूती नहीं रह जाती है। चूंकि युद्ध में आधुनिक तकनीक की जरूरत बढ़ जाती है, इसलिए बाकी क्षेत्रों के लिए उसकी उपलब्धता कम हो जाती है। एक क्षेत्र ऐसा है जहां युद्ध फ़ायदा कराता है और वो है  सैन्य साजो-सामान से जुड़े उद्योग। युद्ध के समय उनकी खरीद-बिक्री व उत्पादन में बढ़ोतरी तो होती ही है।


सोचने वाली बात यह है कि यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि यूक्रेन और रूस का युद्ध कितने समय तक चलता है। विशेषज्ञों का अनुमान यही है कि यह जंग लंबी नहीं चलने वाली। रूस 1979-89 में हुई अफगानिस्तान वाली गलती को शायद ही दोहराना पसंद करेगा। इसलिए दोनों देशों के बीच बातचीत की मेज सजने की भी खबर भी आ रही है। मगर इतना तो तय है कि हाल-फिलहाल में जंग भले ही खत्म हो जाए परंतु युद्ध उपरांत शीतयुद्ध थमने वाला नहीं। इस बार 1950 के दशक जैसा दृश्य नहीं होगा। उस समय सोवियत संघ (वामपंथ) और पश्चिम (पूंजीवाद) की वैचारिक लड़ाई थी। अब तो रूस और चीन जैसे देश भी पूंजीवादी व्यवस्था अपना चुके हैं। इसलिए यह वैचारिक लड़ाई नहीं, वर्चस्व की लड़ाई है। इससे दुनिया दो हिस्सों में बंट सकती है, जिनमें आपस में ही कारोबार करने की परंपरा जोर पकड़ सकती है।


अगर ऐसा होता है तो आपस में पूंजी प्रवाह बढ़ेगा और वैश्विक आपूर्ति शृंखला भी प्रभावित होगी। इसी कारण हमें भारत में महंगाई का सामना भी करना पड़ सकता है। इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि इस युद्ध से दुनिया भर में मंदी और महंगाई बढ़ सकती है। रूस की कंपनियों पर प्रतिबंध लग जाने से वैश्विक कारोबार प्रभावित होगा। हालांकि, पश्चिमी देश इस कोशिश में हैं कि वे पेट्रो उत्पादों का अपना उत्पादन बढ़ा दें और ओपेक देशों से भी ऐसा करने की गुजारिश की जा सकती है। फिर भी, पेट्रो उत्पादों की घरेलू कीमतें बढ़ना तय है। इनकी क़ीमत बढ़ते ही अन्य चीजों के दामों में भी तेज़ी आएगी।


अभी चूंकि बाजार में बहुत ज्यादा पूंजी नहीं है, इसलिए माना जा रहा है कि पहले की तुलना में महंगाई ज्यादा असर डाल सकती है। आयात बढ़ने और निर्यात कम होने से भी भुगतान-संतुलन बिगड़ जाएगा। इस अनिश्चितता के दौर में सोने की मांग भी बढ़ सकती है, जिससे इसका आयात भी बढ़ सकता है। इन सबसे रुपया कमजोर होगा और स्थानीय बाजार में इसकी कीमत बढ़ सकती है। यानी, दो-तीन रास्तों से महंगाई हमारे सामने आने वाली है।


प्रो॰ कुमार का मानना है कि यूक्रेन-रूस युद्ध दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर कुछ अन्य असर भी हो सकते है। जैसे, दुनिया भर के देशों का बजट बिगड़ सकता है। सभी देश अपनी सेना पर ज्यादा खर्च करने लगेंगे। इससे वास्तविक विकास तुलनात्मक रूप से कम हो जाएगा और राजस्व में भी भारी कमी आएगी। महंगाई से कर वसूली बढ़ती जरूर है, लेकिन इनसे राजस्व घाटा बढ़ता जाता है, जिसके बाद सरकारें सामाजिक क्षेत्रों से अपने हाथ खींचने लगती हैं। इससे स्वाभाविक तौर पर देश की गरीब जनता प्रभावित होती है। भारत शायद ही इसका अपवाद होगा। मुमकिन है कि वैश्वीकरण की अवधारणा से भी अब सरकारें पीछे हटने लगें, जिसका नुकसान विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों को होगा।