Monday, December 13, 2021

क्या हेलिकॉप्टर हादसे रोके जा सकते हैं?

देश के प्रथम सीडीएस जनरल बिपिन रावत व अन्य सैनिकों की शहादत से पूरा देश सदमे में है। कुन्नुर में हुआ यह दर्दनाक हादसा पहला नहीं है। भारत के इतिहास में ऐसे दर्जनों हादसे हुए हैं जिनमें देश के सैनिक, नेता व अन्य अति विशिष्ट व्यक्तियों ने अपनी जान गवाई है। सवाल यह है कि क्या हम इन हादसों से कुछ सबक़ ले पाए हैं? जिस एमआई सीरिज़ के रूसी हेलिकॉप्टर में जनरल रावत सवार थे वो एक बेहद भरोसेमंद हेलिकॉप्टर माना जाता है। दुर्घटना का कारण क्या था यह तो जाँच के बाद ही सामने आएगा। परंतु जिस तरह हम अन्य विषयों में तकनीक की मदद से तरक़्क़ी कर रहे हैं उसी तरह वीआईपी हेलिकॉप्टर यात्रा में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे ?


इस हादसे के कारण पर तमाम तरह के क़यास लगाए जा रहे हैं। पिछले कुछ हादसों की सूची को देखें तो ऐसा भी माना जा रहा है कि वीआईपी उड़ानों में, ख़राब मौसम के चलते, पाइलट के मना करने पर भी वीआईपी द्वारा उड़ान भरने का दबाव डाला जाता रहा है। फिर वो चाहे 2001 का कानपुर का हादसा हो, जिसमें माधवराव सिंधिया ने अपनी जान गवाईं थी या फिर 2011 में अरुणाचल प्रदेश के तवांग में हुआ हादसा जिसमें मुख्य मंत्री खंडू की मौत हुई थी। जानकारों की मानें तो रूस में बने इस अत्याधुनिक हेलिकॉप्टर को यदि ख़तरा हो सकता था तो वो केवल ख़राब मौसम का ही। ग़ौरतलब है कि वीआईपी उड़ानों में इस हेलिकॉप्टर को केवल अनुभवी पाइलट ही उड़ाते हैं और ऐसा ही इस उड़ान के लिए भी किया गया। 


वीआईपी यात्राओं के लिए विभिन्न हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल वायुसेना व नागरिक उड्डयन दोनों में होता है। परंतु भारत में अभी तक इन उड़ानों के लिए ‘विज़ूअल फ़्लाइट रूल्ज़’ (वीएफ़आर) ही लागू किए जाते हैं। वीएफ़आर नियम और क़ानून के तहत विमान उड़ाने वाले पाइलट को कॉक्पिट से बाहर के मौसम की स्थिति साफ़-साफ़ दिखाई देनी चाहिए जिससे कि वह विमान के बीच आने वाले अवरोध, विमान की ऊँचाई आदि का पता चलता है। इन नियम को लागू करने वाले नियंत्रक नियम लागू करते समय इन बातों को सुनिश्चित करते हैं कि विमान की उड़ान के लिए मौसम की स्थिति, विज़िबिलिटी, विमान की बादलों से दूरी आदि उड़ान के लिए अनुरूप हैं। मौसम के मुताबिक़ इन सभी परिस्थितियों के अनुसार विमान की उड़ान जिस इलाक़े में होनी है वह उस इलाक़े के अधिकार क्षेत्र के मुताबिक़ बदलती रहती है। कुछ देशों में तो वीएफ़आर की अनुमति रात के समय में भी दी जाती है। परंतु ऐसा केवल प्रतिबंधात्मक शर्तों के साथ ही होता है। 


वीएफ़आर पाइलट को इस बात का विशेष ध्यान देना होता है कि उसका विमान न तो किसी अन्य विमान के रास्ते में आ रहा है और न ही उसके विमान के सामने कोई अवरोध हैं। यदि उसे ऐसा कुछ दिखाई देता है तो अपने विमान को इन सबसे बचा कर उड़ाना केवल पाइलट की ज़िम्मेदारी होती है। ज़्यादातर वीएफ़आर पाइलट ‘एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल’ या एटीसी से निर्धारित रूट पर नहीं उड़ते। लेकिन एटीसी को वीएफ़आर विमान को अन्य विमानों के मार्ग से अलग करने के लिए वायुसीमा अनुसार, विमान में एक ट्रान्सपोंडर का होना अनिवार्य होता है। ट्रान्सपोंडर की मदद से रेडार पर इस विमान को एटीसी द्वारा देखा जा सकता है। यदि वीएफ़आर विमान की लिए मौसम व अन्य परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं होती हैं तो वह विमान 'इंस्ट्रुमेंट फ़्लाइट रूल्ज़' (आईएफ़आर) के तहत उड़ान भरेगा। आईएफ़आर की उड़ान ज़्यादा सुरक्षित मानी जाती है।


जिन इलाक़ों में मौसम अचानक बिगड़ जाता है वहाँ पर उड़ान भरने के लिए पाइलट को विशेष ट्रेनिंग दी जाती है। अन्य देशों में जिन पाइलट्स के पास केवल वीएफ़आर की उड़ानों की योग्यता होती है उन्हें बदलते मौसम वाले क्षेत्र में उड़ान भरने की अनुमति नहीं दी जाती। 


जनरल रावत के हेलिकॉप्टर को वायुसेना के विंग कमांडर पृथ्वी सिंह चौहान उड़ा रहे थे। वे सुलुर में 109 हेलिकॉप्टर यूनिट के कमांडिंग ऑफ़िसर भी थे। उन्हें इस तरह की उड़ानों का अच्छा-ख़ासा  अनुभव था। विषम परिस्थितियों में उन्होंने इस तरह के हेलिकॉप्टर को कई बार सुरक्षित उड़ाया। हेलिकॉप्टर को ख़राब मौसम का सामना करना पड़ा या उसमें कुछ तकनीकी ख़राबी हुई इसका पता तो जाँच के बाद ही लगेगा। लेकिन आमतौर पर ऐसे में जाँच आयोग पाइलट की गलती बता देते हैं। लेकिन जानकारों की माने तो इस हादसे में पाइलट की गलती नहीं लगती। 


ऐसे हादसों में जाँच को कई पहलुओं से गुजरना पड़ता है। इनमें तकनीकी ख़राबी, पाइलट की गलती, मौसम और हादसे की जगह की स्थिति महत्वपूर्ण होती हैं। इन सभी विषयों की गहराई से जाँच होती है तभी किसी निर्णय पर पहुँचा जा सकता है। जाँच का केवल एक ही मक़सद होता है, आगे से ऐसे हादसे फिर न हों। 


जब भी कोई हादसा होता है तो तमाम टीवी चैनलों पर स्वघोषित विशेषज्ञों की भरमार हो जाती है जो इस पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। परंतु कोई भी इस बात पर ध्यान नहीं देता कि भारत में अन्य देशों की तरह वीआईपी हेलिकॉप्टर उड़ानों के लिए वीएफ़आर को लागू क्यों किया जा रहा? भारत के नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) और वायुसेना को इस बात पर भी गौर करना चाहिए। कब तक हम ऐसे और हादसों के साक्षी बनेंगे?


यह हादसा पिछले हादसों से अलग नहीं है। बल्कि उन्हीं हादसों की सूची में एक बड़ता हुआ अंक है। बरसों से वीएफ़आर के नियम, जिन्हें केवल हवाई अड्डों के नियंत्रण वाली सीमा में ही प्रयोग में लाया जाता है, के द्वारा ही हवाई अड्डों के बाहर व अन्य स्थानों में प्रयोग में लाया जा रहा है। जबकी होना यह चाहिए कि डीजीसीए और वायुसेना के साझे प्रयास से वीएफ़आर की समीक्षा होनी चाहिए और ऐसे हादसों को रोकने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।  

Monday, December 6, 2021

क्या पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कम हुआ अपराध?


देश में पुलिस प्रणाली, पुलिस अधिनियम, 1861 पर आधारित है। आज भी ज्यादातर शहरों की पुलिस प्रणाली इसी अधिनियम से चलती है। लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में टाइगर सरकार ने लखनऊ और नॉएडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी। दावा यह किया गया था कि इससे अपराध को रोकने और क़ानून व्यवस्था सुधारने में लाभ होगा। पर असल में
हुआ क्या ? 

कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर सर्वोच्च पद होता है।वैसे ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है। जो तब कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में ही हुआ करता थी। जिसे धीरे-धीरे और राज्यों में भी लाया गया।  

भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के भाग (4) के तहत हर जिला अधिकारी के पास पुलिस पर नियंत्रण रखने के कुछ अधिकार होते हैं। साथ ही, दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को कानून और व्यवस्था को विनियमित करने के लिए कुछ शक्तियाँ भी प्रदान करता है। साधारण शब्दों में कहा जाये तो पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नही हैं, वे आकस्मिक परिस्थितियों में डीएम या मंडल कमिश्नर या फिर शासन के आदेश तहत ही कार्य करते हैं। परन्तु पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो जाने से जिला अधिकारी और एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के ये अधिकार पुलिस आयुक्त को ही मिल जाते हैं। जिससे वे किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहता है । 

बड़े शहरों में अक्सर अपराधिक गतिविधियों की दर भी उच्च होती है। ज्यादातर आपातकालीन परिस्थितियों में लोग इसलिए उग्र हो जाते हैं क्योंकि पुलिस के पास तत्काल निर्णय लेने के अधिकार नहीं होते। कमिश्नर प्रणाली में पुलिस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के लिए खुद ही मजिस्ट्रेट की भूमिका निभाती है। पुलिसवालों की मानें तो प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का अधिकार पुलिस को मिलेगा तो आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर जल्दी कार्रवाई हो सकेगी। इस सिस्टम से पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के पास सीआरपीसी के तहत कई अधिकार आ जाते हैं और वे कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होते है। साथ ही साथ कमिश्नर सिस्टम लागू होने से पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही भी बढ़ जाती है। हर दिन के अंत में पुलिस कमिश्नर, जिला पुलिस अधीक्षक, पुलिस महानिदेशक को अपने कार्यों की रिपोर्ट अपर मुख्य सचिव (गृह मंत्रालय) को देनी होती है, इसके बाद यह रिपोर्ट मुख्य सचिव को दी जाती है।

पुलिस आयुक्त शहर में उपलब्ध स्टाफ का उपयोग अपराधों को सुलझाने, कानून और व्यवस्था को बनाये रखने, अपराधियों और असामाजिक लोगों की गिरफ्तारी, ट्रैफिक सुरक्षा आदि के लिये करता है। इसका नेतृत्व डीसीपी और उससे ऊपर के रैंक के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किया जाता है। साथ ही साथ पुलिस कमिश्नर सिस्टम से त्वरित पुलिस प्रतिक्रिया, पुलिस जांच की उच्च गुणवत्ता, सार्वजनिक शिकायतों के निवारण में उच्च संवेदनशीलता, प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग आदि भी बढ़ जाता है। 

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन और उससे भड़की हिंसा के समय यह देखा गया था कि कई ज़िलों में एसएसपी व डीएम के बीच तालमेल नहीं था। इसलिए भीड़ पर क़ाबू पाने में वहाँ की पुलिस नाकामयाब रही। इसके बाद ही सुश्री मायावती के शासन के दौरान 2009 से लम्बित पड़े इस प्रस्ताव को गम्भीरता से लेते हुए योगी सरकार ने पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को लागू करने का विचार बनाया। 

सवाल यह आता है की इस व्यवस्था से क्या वास्तव में अपराध कम हुआ? जानकारों की माने तो कुछ हद तक अपराध रोकने में यह व्यवस्था ठीक है जैसे दंगे के समय लाठी चार्ज करना हो तो मौक़े पे मौजूद पुलिस अधिकारी को डीएम से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ अन्य धाराओं के तहत जैसे धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार भी सीधे पुलिस को मिल जाते हैं। प्रायः देखा जाता है की यदि किसी मुजरिम को गिरफ़्तार किया जाता है तो साधारण पुलिस व्यवस्था में उसे 24 घंटो के भीतर डीएम के समक्ष पेश करना अनिवार्य होता है। दोनो पक्षों को सुनने के बाद डीएम के निर्णय पर ही मुजरिम दोषी है या नहीं यह तय होता है। लेकिन कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के आला अधिकारी ही यह तय कर लेते हैं कि मुजरिम को जेल भेजा जाए या नहीं। 

चौंकाने वाली बात ये है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार जिन-जिन शहरों में ये व्यवस्था लागू हुई है वहाँ प्रति लाख व्यक्ति अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। मिसाल के तौर पर, जयपुर में 2011 में जब यह व्यवस्था लागू हुई उसके बाद से अपराध की दर में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। 2009 के बाद से लुधियाना में यही आँकड़ा 30 प्रतिशत है। फ़रीदाबाद में 2010 के बाद से यह आँकड़ा 40 प्रतिशत से अधिक है। गोहाटी में 2015 में जब कमिश्नर व्यवस्था लागू हुई तो वहाँ भी 50 प्रतिशत तक अपराध दर में वृद्धि हुई। इन आँकड़ों से एक गम्भीर सवाल ज़रूर उठता है कि इस व्यवस्था को लागू करने से पहले क्या इस विषय में गहन चिंतन हुआ था या नहीं? 

ब्यूरो के आँकड़ों के एक अन्य टेबल से यह भी पता चलता है कि कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए गए लोगों में से दोषसिद्धि दर में भी भारी गिरावट आई है। पुणे में 14.14 प्रतिशत, चेन्नई में 7.97, मुंबई में 16.36, दिल्ली में 17.20, बेंगलुरु में 17.32, वहीं इंदौर जहां सामान्य पुलिस व्यवस्था है वहाँ इसका दर 40.13 प्रतिशत है। यानी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा नाहक गिरफ़्तार किए गए लोगों की संख्या दोषियों से काफ़ी अधिक है।

जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने बिना गम्भीर विचार किए कृषि क़ानूनों को लागू करने के बाद वापिस लिया। उसी तरह देश के अन्य शहरों में पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने से पहले सरकार को इस विषय में जानकारों के सहयोग से इस मुद्दे पर गम्भीर चर्चा कर ही निर्णय लेना चाहिए, रातों-रात बदलाव नहीं करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को विशेषज्ञों की एक टीम गठित कर इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि आँकड़ों के अनुसार पुलिस कमिश्नर व्यवस्था से अपराध घटे नहीं बल्कि बढ़े हैं और निर्दोष नागरिकों को नाहक प्रताड़ित किया गया है।

Monday, November 29, 2021

कोरोना: ख़तरा अभी थमा नहीं


यूरोप में कोरोना फिर क़हर ढाह रहा है। जैसे-जैसे कोरोना के संक्रमण के दोबारा फैलने की खबरें आ रही हैं वैसे-वैसे ही आम जनता में इसके प्रति चिंता बढ़ती जा रही है। ये बात सही है कि भारत में कोरोना महामारी की स्थित पहले से बेहतर तो हुई है। लेकिन जब तक यह बीमारी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाती हम सबको सावधानी ही बरतनी पड़ेगी। हमें इस बीमारी के साथ अभी और रहने की आदत डाल लेनी चाहिए ।


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है।  कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाति, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता। ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो घर के बाहर जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। कोरोना के चलते दुनिया भर में हुए लॉकडाउन ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 



लेकिन पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से लोग बेपरवाह हो कर खुलेआम घूम रहे हैं और सामाजिक दूरी भी नहीं बना रहे उससे संक्रमण के फिर से फैलने की खबरें आने लग गई हैं।विशेषज्ञों की मानें तो संक्रमण के मामलों में गिरावट का श्रेय टीकाकरण अभियान है। साथ ही इस साल आई कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वायरस से संक्रमित होने वाले लोगों में पनपी हाइब्रिड इम्युनिटी को भी दिया जा सकता है।


परंतु जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो हर एक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जो लोग मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही कोविड पॉज़िटिव से कोविड नेगेटिव हो गए, वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन ऐसा सही नहीं है। 


पिछले हफ़्ते दक्षिण भारत के अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ में एक लेख छपा जिसके अनुसार यूरोप के अनुभव को देखते हुए ऐसा लगता है कि केवल वैक्सीन से ही कोरोना संक्रमण की श्रंखला को नहीं तोड़ा जा सकता और न ही इस महामारी का अन्त किया जा सकता है। यूरोप में पिछले वर्ष मार्च के पश्चात् दूसरी बार कोरोना संक्रमण के नये मामलों और मौतों में तेज गति से वृद्धि हो रही है। आज यूरोप पुनः कोरोना महामारी का मुख्य केन्द्र बन गया है।


इस वर्ष अक्टूबर के प्रारम्भ से ही संक्रमण के मामलों में रोजाना वृद्धि होनी शुरू हुई थी। यह वृद्धि प्रारम्भ में तीन देशों तक ही सीमित थी किन्तु बाद में यूरोप के सभी देशों में फैल गई जिसकी मुख्य वजह डेल्टा वेरियंट है।


पिछले सप्ताह यूरोप में 20 लाख नये मामले सामने आए जो महामारी की शुरूआत होने के बाद से सर्वाधिक है। कोरोना से पूरे विश्व में जितनी मौतें हुई है उनमें से आधे से ज्यादा इस महीने यूरोप में हुई है।


ऑस्ट्रिया, नीदरलैण्ड, जर्मनी, डेनमार्क तथा नोर्वे में प्रतिदिन संक्रमण के सर्वाधिक मामले हो रहे हैं। रोमानिया तथा यूक्रेन में भी कुछ दिनों पहले सर्वाधिक मामले हुए। पूरे यूरोप में हॉस्पीटल बेड्स तेज गति से भर रहे हैं।


विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान हैं कि वर्तमान से लगाकर अगले वर्ष मार्च तक यूरोप के अनेक देशों में हॉस्पीटल, हॉस्पीट्ल्स बेड्स और आई. सी. यू. पर भारी दबाव बना रहेगा। इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया भर के देशों को कोविड के खतरे के खिलाफ अलर्ट रहने को कहा और जल्द से जल्द जरूरी कदम उठाने के निर्देश भी दिए हैं।


अधिकांश पश्चिमी यूरोप के देशों में टीकाकरण की दर बहुत ऊँची है। आयरलैण्ड में 90 प्रतिशत से अधिक लोगों को इस वर्ष सितम्बर तक दोनों टीके लग चुके है। फ्रांस में बिना टीका लगे लोगों की उन्मुक्त आवाजाही तथा कार्यालय जाने को मुश्किल बना दिया गया है। अगले वर्ष फरवरी से आस्ट्रिया में टीकाकरण अनिवार्य कर दिया जायेगा। आस्ट्रिया में इस वर्ष 22 नवम्बर से 3 सप्ताह का राष्ट्रव्यापी लॉक-डाउन भी लगाया गया है। इस देश में 65 प्रतिशत लोगों को दोनों टीके लगे हुए हैं फिर भी संक्रमण तेज गति से फैल रहा है।


ग़ौरतलब है कि यूरोप में संक्रमण के अधिकांश नये मामले उन लोगों के है जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है, जिन्हे ब्रेकथू्र इन्फेक्शन हैं तथा दोनों टीका लगे हुए लोग भी भारी संख्या में अस्पतालों में भर्ती हो रहे हैं।


इस सबको देखते हुए भारत जैसे देश में भी कुछ कठोर कदम उठाने की ज़रूरत है वरना कोरोना की तीसरी ही नहीं चौथी-पाँचवी लहर भी आ सकती है। सरकार को कुछ ऐसे कदम उठाने की ज़रूरत है जिससे कि जनता खुद से ही आगे आकर टीका लगवाए। इससे कोरोना महामारी से कुछ तो राहत मिलेगी। साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम जितनी सावधानी बरतेंगे उतना ही जल्दी इस बीमारी से बचे रहेंगे और छुटकारा पा सकेंगे। 


दुनिया भर के कई ऐसे देश हैं जहां लोगों को टीके की दोनो डोज़ लगने के बाद भी कोरोना हुआ है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि यह बीमारी हमारा पीछा इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाली है। किसी ने शायद ये ठीक ही कहा है ‘सावधानी हटी - दुर्घटना घटी’। इसलिए जितना हो सके अपने आप को इस बीमारी से बचाने की ज़रूरत है।


हाल ही में मशहूर फ़िल्म अभिनेता कमल हसन को भी कोविड संक्रमित पाया गया। उधर जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Monday, November 22, 2021

सीबीआई और ईडी निदेशकों का सेवा विस्तार


ताज़ा अध्यादेश के ज़रिए भारत सरकार ने सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों के कार्यकाल को 5 वर्ष तक बढ़ाने की व्यवस्था की है। अब तक यह कार्यकाल दो वर्ष का निर्धारित था। अब इन निदेशकों को एक-एक साल करके तीन साल तक और अपने पद पर रखा जा सकता है। पहले से ही विवादों में घिरी ये दोनों जाँच एजेंसियाँ विपक्ष के निशाने पर रही हैं। इस नए अध्यादेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है, जो अगले संसदीय सत्र में इस मामले को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी कर रहा है।
 

इन दो निदेशकों के दो वर्ष के कार्यकाल का निर्धारण दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत किया गया था। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी जब हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। क्योंकि तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने। 



ताज़ा अध्यादेश में सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर दी गई है। जिससे यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। इस तरह यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन सकती हैं। क्योंकि केंद्र में जो भी सरकार रही है उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


बेहतर होता कि सरकार इस अध्यादेश को लाने से पहले लोक सभा के आगामी सत्र में इस पर बहस करवा लेती या सर्वोच्च न्यायालय से इसकी अनुमति ले लेती। इतनी हड़बड़ी में इस अध्यादेश को लाने की क्या आवश्यकता थी? सरकार इस फ़ैसले को अपना विशेषाधिकार बता कर पल्ला झाड़ सकती है। पर सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया है। 


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 7 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 7 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


इसलिए इस अध्यादेश के मामले सर्वोच्च न्यायालय को तुरंत दख़ल देकर इसकी विवेचना करनी चाहिए। इन महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियों के निदेशकों के कार्यकाल का विस्तार 5 वर्ष करना मोदी जी की ग़लत सोच नहीं है, पर यहाँ दो बातों का ध्यान रखना होगा। पहला; ये नियुक्ति एकमुश्त की जाए, यानी जिस प्रक्रिया से इनका चयन होता है, उसी प्रक्रिया से उन्हें 5 वर्ष का नियुक्ति पत्र या सेवा विस्तार दिया जाए। दूसरा; अधिकारियों में सरकार की चाटुकारिता की प्रवृत्ति विकसित न हो और वे जनहित में निष्पक्षता से कार्य कर सकें इसके लिए उन्हें 60 वर्ष की आयु के बाद सेवा विस्तार न दिया जाए बल्कि इन महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं अधिकारियों के नामों पर विचार किया जाए जिनका सेवा काल अभी 5 वर्ष शेष हो। अगर सरकार ऐसा करती है तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और नहीं करती है तो ये जाँच एजेंसियाँ हमेशा संदेह के घेरे में ही रहेंगी और नौकरशाही में भी हताशा बढ़ेगी।


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी जैसे बहुत सारे महत्वाकांक्षी फ़ैसले लेते आए हैं। जिससे उनकी उत्साही प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। हर फ़ैसला जितने गाजे-बाजे और महंगे प्रचार के साथ देश भर में प्रसारित होता है वैसे परिणाम देखने को प्रायः नहीं मिलते। क्योंकि उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली है और समाज का एक वर्ग उन्हें बहुत चाहता है इसलिए शायद वे संसदीय परम्पराओं व अनुभवी और योग्य सलाहकारों से सलाह लेने की ज़रूरत नहीं समझते। अगर वे अपने व्यक्तित्व में ये बदलाव ले आएँ कि हर बड़े और महत्वपूर्ण फ़ैसले को लागू करने से पहले उसके गुण-दोषों पर आम जनता से न सही कम से कम अनुभवी लोगों से सलाह ज़रूर ले लें तो उनके फ़ैसले अधिक सकारात्मक हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार कोई भी नया क़ानून बनाने से पहले जनमत संग्रह ज़रूर कराती है। भारत अभी इतना परिपक्व लोकतंत्र नहीं है पर 135 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले फ़ैसले सामूहिक मंथन से लिए जाएं तो यह जनहित में होगा।

Monday, November 15, 2021

हिमालय पर ये आत्मघाती हमला बंद हो !


हाल के वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में पर्वतों का स्खलन एक भयावह स्तर तक पहुँच चुका है। पहले ऐसी दुर्घटनाएँ केवल भारी वर्षा के बाद ही होती थीं। पर आश्चर्यजनक रूप से अब वे गर्मी में भी होने लग गई हैं। अभी पिछले हफ़्ते ही दक्षिण की ओर जा रही एक रेल गाड़ी के पाँच डिब्बे भूस्खलन के कारण पटरी से उतर गए। प्रभु कृपा से इस अप्रत्याशित दुर्घटना में कोई हताहत नहीं हुआ। पर हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में तो भूस्खलन से भीषण तबाही लगातार होती आ रही है। जून 2013 की केदारनाथ की महाप्रलय कोई आज तक भूला नहीं है। पर्वतों पर हुए भारी मात्रा में पेड़ों के कटान और बारूद लगाकर लगातार पहाड़ तोड़ने के कारण ये सब हो रहा है। फिर भी न तो हम जाग रहे हैं न हमारी सरकारें। महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व की सभी पर्वत शृंखलाओं में हिमालय सबसे युवा पर्वत माला है। इसलिए सके प्रति और भी संवेदनशील रहने की ज़रूरत है।
    

बावजूद इन सब अनुभवों के उत्तराखंड में 899 किलोमीटर का प्रस्तावित चारधाम सड़क परियोजना का काम सरकार आगे बढ़ाना चाहती है। जबकि यह परियोजना काफ़ी समय से विवादों में है। पर्यावरण और विकास के बीच टकराव नया नहीं है। आज़ादी के बाद से सभी सरकारें हमेशा ‘विकास’ का हवाला देकर पर्यावरण के नुक़सान को अनदेखा करती आई है। इस परियोजना को लेकर देश की रक्षा ज़रूरतों और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच एक गम्भीर बहस पैदा हो गई है। सरकार का कहना है कि देश की सेना हर वक्त बॉर्डर पर तैनात रहती है। कठिन परिस्थितियों के चलते सेना द्वारा सीमाओं की सुरक्षा करना काफ़ी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी के चलते उत्तराखंड में केंद्र सरकार द्वारा ‘ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट’ को 2016 में शुरू किया गया। बाद में इसका नाम बदल कर ‘चारधाम परियोजना’ किया गया। इस प्रोजेक्ट में सड़कें चौड़ी करने के लिए अनेक पहाड़ों और हज़ारों पेड़ों को काटना पड़ेगा। इसीलिए देश के पर्यावरणविद् इस प्रोजेक्ट का कड़ा विरोध कर रहे हैं। फिलहाल ये मामला 2018 से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। इस फैसले से यह साफ हो जाएगा कि सीमा सुरक्षा के लिए उत्तराखंड में सड़कों को चौड़ा करने की इजाज़त मिलेगी या नहीं। 


कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार की तरफ़ से अटॉर्नी जनरल ने यह भी बताया कि इस प्रोजेक्ट से युद्ध की स्थिति में, जरूरत पड़ने पर 42 फ़ीट लंबी ब्रह्मोस जैसी मिसाइल को भी सीमा तक ले जाया जा सकता है। सरकार की मानें तो चीन के साथ बढ़ते तनाव के बीच यह सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण परियोजना है। ऐसे में इस सड़क का 5 मीटर से 10 मीटर चौड़ा होना अनिवार्य है और यदि भूस्खलन होता भी है तो सेना उससे निपट सकती है। वहीं पर्यावरण के लिए काम करने वाले एक एनजीओ ‘सिटिजंस ऑफ़ ग्रीन दून’ ने कहा है कि इस प्रोजेक्ट की वजह से उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थियों को जबरदस्त नुकसान पहुंचेगा। जिससे भूस्खलन व बाढ़ का ख़तरा बढ़ जाएगा और वन्य व जलीय जीवों को भी नुक़सान पहुंचेगा।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2018 में पर्यावरणविद रवि चोपड़ा के नेतृत्व में एक हाई पॉवर कमेटी बनाई थी। समिति के कुछ सदस्यों के बीच इस बात को लेकर मतभेद थे कि सड़कों को कितना मीटर चौड़ा किया जाए। जाँच के बाद जुलाई 2020 में इस कमेटी ने दो रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी थी। एक में कहा गया कि सड़कों को 5.5 मीटर तक चौड़ा किया जा सकता है। जबकि दूसरी रिपोर्ट में 7 मीटर तक सड़कें चौड़ी करने की सलाह दी गई। पर्यावरणविदों की मानें तो सड़क जितनी भी चौड़ी होगी उसके लिए उतने ही पेड़ काटने, रास्ते खोदने, पहाड़ों में ब्लास्ट करने और मलबा फेंकने की ज़रूरत पड़ेगी। अब सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता से इस विषय में और सुझाव माँगे हैं जिसके बाद कोर्ट को ये तय करना है कि इस प्रोजेक्ट में सड़क की चौड़ाई बढ़ाई जा सकती है या नहीं। यदि बढ़ाई जा सकती है तो कितनी। दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं।


अब देश की राजधानी को ही लें। पिछले हफ़्ते दिल्ली में प्रदूषण ख़तरनाक सीमा तक बढ़ गया। आपात काल जैसी स्थित हो गई। दूसरे देशों में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 100 पहुँचते ही आपात काल की घोषणा कर दी जाती है। जबकि दिल्ली में पिछले शुक्रवार को ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 471 पहुँच गया। अस्पतालों में साँस के मरीज़ों की संख्या अचानक बढ़ने लगी। बच्चों और बुजुर्गों के लिए ख़तरा ज़्यादा हो गया। पिछले साल लॉकडाउन के 15 दिन बाद ही पूरी दुनिया में इस बात पर हर्ष, उत्सुकता और आश्चर्य व्यक्त किया गया था कि, अचानक महानगरों के आसमान साफ़ नीले दिखने लगे। दशकों बाद रात को तारे टिमटिमाते हुए दिखाई दिए। यमुना निर्मल जल से कल-कल बहने लगी। जालंधर से ही हिमालय की पर्वत शृंखला दिखने लगी। वायुमंडल इतना साफ़ हो गया कि साँस लेने में भी मज़ा आने लगा। अचानक शहरों में सैंकड़ों तरह के परिंदे मंडराने लगे। तब लगा कि हम पर्यावरण की तरफ़ से कितने लापरवाह हो गए थे जो कोविड ने हमें बताया। उम्मीद जगी थी कि अब भविष्य में दुनिया संभल कर चलेगी। पर जिस तरह चार धाम को जोड़ने वाली सड़क को लेकर सरकार का दुराग्रह है और जिस तरह हम सब अपने परिवेश के प्रति फिर से लापरवाह हो गए हैं, उससे तो नहीं लगता कि हमने कोविड के अनुभव से कोई सबक़ सीखा। 

  


Monday, November 8, 2021

हिंदू त्योहार और आतिशबाज़ी


इस साल दीपावली पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों पर लगे पूर्ण प्रतिबंध मिला-जुला असर दिखाई दिया। एक ओर जहां इस आदेश को लेकर पटाखा व्यवसाय से जुड़े हुए सभी व्यापारी परेशान रहे। वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का खुलेआम मज़ाक़ उड़ाते दिखाई दिए। वहीं ऐसे दृश्य भी सामने आए जहां प्रशासन द्वारा इस आदेश का पालन करते हुए लोगों के ख़िलाफ़ कार्यवाही भी हुई। आवश्यक्ता इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताज़ा आदेश के बाद भारत में पटाखों पर पूरी तरह से लगे प्रतिबंध का न सिर्फ़ सख़्ती से पालन किया हो बल्कि जनता में जागरूकता भी आए। देश में पहले से ही पर्यावरण प्रदूषण की वजह से बुरा हाल हो रहा है और पटाखों से निकलने वाली प्रदूषित गैस पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचाएगी।

हर साल की तरह दीपावली पर दिल्ली की ज़हरीली वायु से छुटकारा पाने के लिए हम अपने पूरे परिवार के साथ अपने वृंदावन के घर पर आए थे कि यहाँ पटाखों से कुछ निजात मिलेगी। परंतु हुआ इसके विपरीत। वृंदावन में रात दो बजे तक पटाखों के शोर ने जहां हमारी गायों को परेशान किया वहीं छोटे बच्चे भी परेशान रहे। कोई सो नहीं सका। वहीं दिल्ली के कई इलाक़ों में जागरूकता व पुलिस की सख़्ती की वजह से बहुत कम पटाखे चले। हम अपने बच्चों को कई दिन से समझा रहे थे कि पटाखों से निकलने वाले धुएँ से पर्यावरण का कितना नुक़सान होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर रोक लगा दी है। इसलिए केवल दियों से ही दीपावली मनाएँगे। परंतु सर्वोच्च न्यायालय की रोक का असर उत्तर प्रदेश के मथुरा ज़िले में तो दिखाई नहीं दिया।  


वैसे सनातन धर्म के शब्दकोश में ‘आतिशबाजी’ जैसा कोई शब्द ही नहीं है। यह शब्द पश्चिम एशिया से आयातित है, क्योंकि ‘मध्ययुग’ में गोला-बारूद भी भारत में वहीं से आया था। इसलिए दीपावली पर पटाखों को प्रतिबंधित करके, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णंय लिया। हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण, स्वास्थ, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में जहर घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है। इसी कॉलम में मैंने भी यह बात कई बार लिखी है। 

हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव व त्यौहार, आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता आया है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना, द्वार पर आम के पत्तों के तोरण बांधना, केले के स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते आऐ हैं। जिनसे परिवार और समाज में नई ऊर्जा का संचार होता आया है।

गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा शहरों पर पड़ा है। अन्यथा सब चौपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दीखता है। वैसे यह स्थिति बदल रही है। जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना चाहिए।

बाजार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना, अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम-सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो, उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

मिट्टी के बने दिये, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की बनी गूजरी व हटरी आदि आज भी हमारे घरों में दीवाली की पूजा का अभिन्न अंग होते हैं, पर शहरीकरण की मार से बड़े शहरों में इनका उपयोग समाप्त होता जा रहा है। अगर हम अपनी इस रीति को जीवित रखें, तो हमारे कुम्हार भाईयों के पेट पर लात नहीं पड़ेगी।

हम अपने बच्चों का जन्मदिन (हैपी बर्थ डे) केक काटकर मनाते हैं। जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है। जबकि हमें उनका तिलक कर, आरती उतार कर व आर्शीवाद या मंगलाचरण गायन कर उनका जन्मदिन मनाना चाहिए। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें, तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। वो जीवन मूल्य, जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा, चाहे कितने ही तूफान आये। 

पश्चिमी देशों में जाकर बस गए, भारतीय परिवारों से पूछिए, जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया, उनके परिवारों का क्या हाल है। और जिन्होंने वहां रहकर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया, वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित है। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ है। इनसे बचना और अपनी जड़ों से जुड़ना, यह भारत के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आऐ दिन तीखी झड़पें होती रहती है। जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है। जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका यदि अनुपालन किया जाए, तो समाज में सुख, शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टीवी एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाऐं, तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को यह स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया।इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी, जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। पटाखों की निरर्थकता को समझकर आने वाले वर्षों में दीपावली जैसे हिंदू त्योहारों को आतिशबाज़ी किए बिना सनातनी तरीक़ों से ही मनाएँ। इसमें ही सबका भला है।


Monday, November 1, 2021

केरल में जीने का ये नायाब तरीक़ा


केरल के वायनाड का नाम चर्चा में तब आया था जब राहुल गांधी वहाँ से लोक सभा चुनाव लड़ने गए। इससे पहले मुझे वायनाड के बारे में कुछ पता नहीं था। इत्तेफ़ाक देखिए कि पिछला हफ़्ता हम दोनों ने वायनाड की पहाड़ियों पर बिताया। यूँ तो दुनिया के तमाम देशों में यात्रा करने या छुट्टियाँ बिताने का मौक़ा मिला है। पर वायनाड का यह अनुभव बिल्कुल अनूठा था। ख़ासकर इसलिए कि इस यात्रा ने ज़िंदगी जीने का एक नया तरीक़ा दिखाया। वायनाड की अलौकिक खबसूरती की चर्चा बाद में करूँगा, पहले इस नए अनुभव को साझा कर लूँ।

   

दिल्ली के प्रतिष्ठित मॉडर्न स्कूल में मेरी जीवन साथी मीता नारायण की एक सहपाठी रहीं सुजाता गुप्ता और उनके कुछ साथियों ने वायनाड के एक पहाड़ पर अपने आशियाने बनाए हैं। इसका नाम ‘इलामाला इस्टेट’ है। समुद्र तल से 3000 फूट ऊँचे पहाड़ पर सघन वन में रहने का यह अनूठा अन्दाज़ हर किसी को आह्लादित करता है। सात मित्रों की सात कौटेज बहुत कलात्मक रुचि से बनाई और सजाई गई है जिनके हर ओर सुंदर फूल और घने वृक्ष दिखाई देते हैं। किसी भी घर में भोजन नहीं पकता केवल चाय - कॉफ़ी बनाने की व्यवस्था है। सातों मित्रों ने पहाड़ की चोटी पर एक ‘लोंग हाउस’ बनाया है। जिसकी रसोई में पारम्परिक से लेकर आधुनिक तरीक़े तक से खाना पकाने की अनेक व्यवस्थाएँ हैं।

 


इस रसोई में 10-12 जने एक साथ भोजन पका सकते हैं। वहाँ का नियम यह है कि हर दिन भोजन पकवाने और खिलवाने का ज़िम्मा एक साथी का होता है। जिसके निर्देशन में रोज़ तीनों वक्त नाश्ता और खाना बनाया जाता है। चूँकि ये सातों सदस्य अलग-अलग प्रांतों से हैं इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के भोजन कक्ष में हर दिन विविध व्यंजनों का स्वाद मिलता है। जहां सातों कौटेज के लोग दिन में तीन बार जमा होते हैं और भोजन के साथ विविध विषयों पर गम्भीर चर्चा या ‘इंडोर गेम्स’ का आनंद लेते हैं। इस ‘लोंग हाउस’ की बाल्कनी से चारों तरफ़ जहां भी निगाह जाती है 50-50 मील दूर तक घना जंगल और सुंदर पहाड़ हैं, जिनमें दिन भर बादल, बारिश, इंद्रधनुष अटखेलियाँ करते रहते हैं।

 

यहाँ चंदन, रोज़वुड, सुपारी, नारियल जैसे अनेक बहुमूल्य उत्पादों के हज़ारों वृक्ष हैं। यहाँ का वन्य जीवन भी कम रोमांचक नहीं। अक्सर हिरन आपके वरांडे में आकर खड़े हो जाते हैं। हिंसक पशु, कोबरा और जंगली हाथी भी यदा-कदा चक्कर लगा लेते हैं, जिनसे सावधानी बरतनी होती है। ‘लोंग हाउस’ में परिवार के मित्रों के ठहरने के लिए चार आधुनिक कक्ष भी हैं, जिनकी साज-सज्जा ‘ताज रिज़ॉर्टस’ से कम नहीं। पर यह व्यवस्था व्यावसायिक नहीं है, जहां किराया देकर ठहरा जा सके। सात दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा। प्रकृति के इतना निकट इस अलौकिक वातावरण में शेष दुनिया से सम्पर्क रखने की इच्छा ही नहीं होती। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए जीवन जीने का ये तरीक़ा बहुत सुखद और अदभुत है। जब आप एक दूसरे के साथ अपना जीवन इस तरह साझा कर लेते हैं कि फिर किसी और की ज़रूरत ही नहीं होती।

 

अनजाने प्रदेश में जहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा कोई न जानता हो और स्थानीय लोग अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी बोलते हों, वहाँ उत्तर भारतीय लोगों का रहना कितना मुश्किल होगा? पर ऐसा नहीं है। ‘इलामाला इस्टेट’ के सभी कर्मचारी बेहद शालीन और काम के प्रति समर्पित हैं। हां केरल में व्याप्त कर्मचारी यूनियनों की संस्कृति के कारण कर्मचारियों से काम करवाने की शर्तें बिल्कुल साफ़ हैं। उनमें कोई ढील बर्दाश्त नहीं की जाती। पर जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वो ये, कि पूरा केरल बेहद अनुशासित राज्य है। जहां के लोग नियम और क़ानूनों का पूरी ज़िम्मेदारी से पालन करते हैं। जैसे शेष भारत में आपको शायद ही कोई दुकान ऐसी मिले जिसका सामान दुकान के बाहर फुटपाथ या सड़क पर फैला न हो। जबकी केरल में कैसी भी दुकान क्यों न हो, सड़क पर आपको कुछ भी रखा नहीं मिलेगा। सब कुछ दुकान के शटर के अंदर तक ही सीमित रहता है।

 

इसी तरह सड़क पर आप यह देख कर हैरान रह जाएँगे कि लोगों के घर के बाहर सड़क के किनारे एलपीजी के लाल सिलेंडर 24 घंटे पड़े रहते हैं और कोई उनकी चोरी नहीं करता। गैस की आपूर्ति वाली गाड़ी भरा सिलेंडर रख जाती है और ख़ाली सिलेंडर उठा कर ले जाती है। इसी तरह दूध के बड़े-बड़े कैन सड़क के किनारे रखे रहते हैं और दूधिया उन्हें उठा कर घर-घर दूध बाँट कर फिर सड़क पर रख देता है और दूध की गाड़ी ख़ाली कैन उठा लेती है और भरे छोड़ देती है। अड़ोस-पड़ोस के बीच विश्वास का रिश्ता इस कदर है कि दो घरों के बीच कोई बाउंड्री वॉल नहीं बनती। हर घर के चारों तरफ़ सुपारी या नारियल आदि के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं। केरल में ज़्यादातर सड़कें घुमावदार हैं और केवल दो लेन की ही होती हैं। एक जाने की और एक आने की। पर उत्तर भारत की तरह कभी ट्रैफ़िक जाम की समस्या नहीं होती। क्योंकि सभी वाहन चालक एक सीधी क़तार में चलते हैं। कोई भी जल्दीबाज़ी में ओवरटेक करके सामने से आ रहे वाहनों का रास्ता नहीं रोकता। वायनाड में हिंदूओँ की आबादी आधी है, शेष मुसलमान और ईसाई हैं और सभी एक दूसरे के साथ हिल-मिल कर रहते हैं। इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के हमारे इन मित्रों को अपने इलाक़े से 2000 मील दूर रहकर भी कोई दिक्कत नहीं होती।

 

वायनाड में बाणासुर बांध, प्राग ऐतिहासिक गुफाएँ, पहाड़ों पर सुंदर जल प्रपात, प्राचीन मंदिर और वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी जैसे अनेक पर्यटक स्थल भी हैं। पर यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ होने वाली चाय, कॉफ़ी और मसालों की खेती। जहां तक आपकी निगाह जाती है वहाँ तक आपको यही हरा-भरा दृश्य दिखाई देता है। पर इन बाग़ानों में काम करने के लिए श्रमिक बिहार, बंगाल और आसाम से बड़ी तादाद में यहाँ आते हैं। दक्षिणी केरल की तरह यहाँ गर्मी और मच्छरों का प्रकोप नहीं होता। बल्कि एक पहाड़ी ज़िला होने के कारण अप्रैल-मई छोड़ कर यहाँ का मौसम सुहावना ही रहता है। पर अभी तक वायनाड में पर्यटकों का आना सीमित मात्रा में ही होता है। क्योंकि इस ज़िले का विकास पर्यटन की दृष्टि से नहीं किया गया है। ऐसी जगह में जाकर वरिष्ठ नागरिकों का रहना और सामूहिक जीवन जीने के प्रयोग करना रोमांचक ही नहीं सुखद है। शेष भारत में भी जहां वरिष्ठ नागरिकों को अकेलापन लगता हो या उनके बच्चे उनका ध्यान रखने के लिए हर समय उपलब्ध न हों वहाँ भी इस तरह मिलजुलकर साथ रहने के प्रयोग किए जाने चाहिए, जिससे बुढ़ापा आनन्द से कट सके।