Monday, July 26, 2021

पंजाब : बँटवारे के ज़ख़्म आज भी हरे हैं


हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे को 74 वर्ष हो गए। पर इसके ज़ख़्म आज भी हरे हैं। इस बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार सीमा के दोनो तरफ़ रहने वालों ने झेली। दोनो तरफ़ के सिख, हिंदू व मुसलमान बँटवारे की आग में झुलसे। उनके परिजनों की नृशंस हत्याएँ हुई। उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त लुटी या उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन करा कर अनचाहे विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। भई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी भगदड़ में बिछुड़ गए। उनके घर-बार, खेत-खलियान व दुकान-कारोबार पीछे छूट गए। उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।
 


दोनों देशों की सरकारें और सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी इनका दुःख दूर नहीं कर पाए हैं। यह काम किया है दोनो देशों के टीवी मीडिया में काम करने वाले कुछ उत्साही नौजवानों ने। इनमें ख़ासतौर पर हिंदुस्तान से 47नामा, केशु मुलतानी की केशु फ़िल्मस, धरती देश पंजाब दियाँ और पाकिस्तान से संताली दी लहर, पंजाबी लहर, एक पिंड पंजाब दा, मौहम्मद सरफ़राज़ व मौहम्मद आलमगीर के नाम उल्लेखनीय है। इसके लिए उन्हें किसी टीवी चैनल या सरकार से कोई मदद नहीं मिली। ये प्रयास उन्होंने अपनी पहल, पर थोड़े बहुत साधन जुटा कर किया और इतनी सफलता पाई कि आज हमारे दो देशों के बीच ही नहीं बल्कि कनाडा, इंगलेंड, जर्मनी, औस्ट्रेलिया या अमरीका तक में इनके काम की भरपूर प्रशंसा हो रही है। यूट्यूब पर इनकी रिपोर्टस के लाखों दर्शक हैं। जबकि ये रिपोर्ट ऊँची लागत, तकनीकी कारीगरी और महंगे उपकरणों के बिना, प्रायः साधाहरण कैमरों या स्मार्टफ़ोन की मदद से बनाई गई हैं। बावजूद इसके इनकी विषय वस्तु इतनी गहरी है कि देखने वाला देखता ही रह जाता है। 20-25 मिनट की ये रिपोर्ट जब अपने क्लाइमैक्स तक पहुँचती हैं, देखने वाला बरबस आंसू बहाने लगता है। इनकी भाषा पंजाबी, हिंदी, झाँगी, हरियाणवी व मुलतानी है। 


इन नौजवानों ने पिछले कुछ सालों में भारत, पाकिस्तान सहित उन सभी देशों में अनौपचारिक रूप से अपना जाल बिछा लिया है, जिन देशों में बँटवारे के विस्थापित रहते हैं। ये लड़के सिख, हिंदू या मुसलमान हैं पर इनके दिल में इंसान बसता है। साम्प्रदायिकता या फ़िरक़ापरस्ती की घिनौनी दीवारों की लांघ कर ये नौजवान उन लोगों तक पहुँचे हैं, जिन्होंने बँटवारे का दंश झेला था और वो आज भी ज़िंदा हैं। ज़ाहिर है 74 साल पहले की उस त्रासदी के चश्मदीदों में वही अपनी यादें साझा कर सकते हैं, जिनकी उम्र 1947 में कम से कम दस वर्ष की रही होगी। यानी आज उनकी उम्र 84 के पार है। ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं पर फिर भी इनकी संख्या बहुत है। अकेले केशु ने 600 ऐसे लोगों के साक्षात्कार रिकॉर्ड किए हैं जो आज अपने नाती पोतों के साथ सुख से रह रहे हैं। 


ऐसे लोगों को ये लड़के पहले सोशल मीडिया की मदद से ढूँढते थे। पर आज इनके पास अलग अलग देशों से फ़ोन या ईमेल आते हैं कि हमारे बुजुर्ग का इंटरव्यू भी कर लें। फिर अपने खर्चे पर, तकलीफ़ उठा कर उन तक पहुँचते हैं और उनके इंटरव्यू रिकॉर्ड करते हैं। इस कवायद का सबसे सुखद क्षण वो होता है जब यूट्यूब पर इन साक्षात्कारों को देख कर और उनसे उनके मूल परिवारों का विवरण सुनकर उनके बिछड़े परिवारजन, किसी दूसरे देश में बैठे, इन्हें पहचान लेते हैं। फिर ‘यादों की बारात’ आगे बढ़ती है और दोनों ओर के परिवार एक दूसरे से मिलने को बेचैन हो जाते हैं। फिर उनकी रोज़ाना घंटों चलने वाली विडीओ कॉल्ज़ का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस कहानी का क्लाइमैक्स तो तब होता है जब ये दो परिवार आपस में मिलते हैं। उस क्षण की कल्पना कीजिए जब दो बहनें 1947 में अलग हुईं और 72 साल बाद मिलीं। उनमें से कनाडा वाली बहन सिख है और पाकिस्तान वाली बहन मुसलमान। अब दोनों के बच्चे अपने मौसेरे भाई-बहनों से मिलने को बेताब हैं। 


कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, July 19, 2021

कांग्रेस मुक्त भारत क्यों?

2014 के बाद से भाजपा के नेतृत्व ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया था। कांग्रेस मुक्त यानी विपक्ष मुक्त। पर ऐसा हो क्यों नहीं पाया? भाजपा ने इस लक्ष्य को पाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सबका खूब सहारा लिया। हर चुनाव पूरी ताक़त और आक्रामक मुद्रा में लड़े। प्रचार तंत्र बनाम मीडिया उसके पक्ष में ही रहा है। हर चुनाव में पैसा भी पानी की तरह बहाया गया है। जिसका एक लाभ तो हुआ कि ‘मोदी ब्रांड’ स्थापित हो गया। पर भारत कांग्रेस या फिर विपक्ष मुक्त नहीं हुआ। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाड, तेलंगना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल जैसे ज़्यादातर राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। गोवा, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा ने तोड़-फोड़ कर कैसे सरकार बनाई, वो भी सबके सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में से जब नेतृत्व नहीं मिल पाया तो विपक्षी दलों के स्थापित नेताओं को धन और पद के लालच देकर भाजपा में लिया गया। तो उसकी ये नीति भी कांग्रेस या विपक्ष मुक्त भारत के दावे को कमजोर करती है। क्योंकि इस तरह जो लोग भाजपा में आकर विधायक, सांसद या मंत्री बने, वे संघी मानसिकता के तो न थे, न बन पाएँगे। इस बात का गहरा अफ़सोस संघ परिवार को भी है।


यहाँ हमारा उद्देश्य इस बात को रेखांकित करना है कि लोकतंत्र में ऐसी अधिनायकवादी मानसिकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। लोकतंत्र का उद्देश्य ही है, वैचारिक विविधताओं का पारस्परिक सामंजस्य के साथ शासन चलाना। जब एक परिवार में दो सदस्य ही एक मत नहीं हो सकते, तो पूरे राष्ट्र को एक मत, एक रंग, एक धर्म में कैसे रंगा जा सकता है? जिन देशों ने ऐसा करने का प्रयास किया, उन देशों में तानाशाही की स्थापना हुई और आम जनता का जम कर शोषण हुआ और विरोध करने वालों पर निर्लज्जता से अत्याचार किए गए। जबकि भारत तो भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से विभिन्नताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से नागालैंड तक, अपनी इस विविधता के कारण भारत की दुनिया में अनूठी पहचान है। 



समाज के विभिन्न आर्थिक व सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कोई एक विचारधारा नहीं कर सकती। क्योंकि हर वर्ग की समस्याएँ, परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। जिनका प्रतिनिधित्व उनका स्थानीय नेतृत्व करता है। भारत की संसद ऐसे विभिन्न क्षेत्रों के चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से समाज के हर वर्ग के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है। इसलिए कांग्रेस या विपक्ष मुक्त नारा अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे रहा था। जिसे भारत की आम जनता ने बार-बार नकार कर ये सिद्ध कर दिया है कि उसे अनपढ़ या गंवार समझ कर हल्के में नहीं लिया जा सकता। सत्तारूढ़ दल पर मज़बूत विपक्ष का दबाव ही यह सुनिश्चित करता है कि आम जनता के प्रति सरकार अपने कर्तव्य के निर्वाह करे। लोकतंत्र में जब भी विपक्ष कमजोर होगा सरकार निरंकुश हो जाएगी। 


लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए न्यायपालिका और मीडिया की भी स्वतंत्रता होना अतिआवश्यक होता है। इनके कमजोर पड़ते ही आम आदमी की प्रताड़ना बढ़ जाती है। उसका शोषण बढ़ जाता है। उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। जिसका पूरे देश की मानसिकता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ सालों से भारत की न्यायपालिका का आचरण चिंताजनक रहा है। राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों को भी न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ न्यायधीशों ने स्वार्थवश जिस तरह दबा दिया, उससे जनता का विश्वास न्यायपालिका पर  घटने लगा था। ग़नीमत है कि इस प्रवृत्ति में पिछले कुछ दिनों से सकारात्मक बदलाव देखा जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रवृत्ति का विस्तार सर्वोच्च न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालयों तक होगा, जिससे लोकतंत्र का ये एक पाया टूटने से बच जाए। 


इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले कुछ हफ़्तों में मीडिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह के आदेश पारित किए हैं या निर्देश दिए हैं उनका देश में अच्छा संदेश गया है। राष्ट्रद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून का जितना दुरुपयोग गत सात वर्षों में, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में हुआ है, वैसा पहले नहीं हुआ। इससे देश में भय और आतंक का वातावरण बनाया गया और विरोध या आलोचना के हर स्वर को पुलिस के डंडे से दबाने का बहुत ही घृणित कार्य किया गया। ऐसा नहीं है की पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा नहीं किया, पर उसका प्रतिशत बहुत काम था। सोचने वाली बात यह है कि जब योगी आदित्यनाथ बहैसियत लोकसभा सांसद अपने ऊपर लगाए गए आपराधिक मामलों से इतने विचलित हो गए थे कि सबके सामने फूट-फूट कर रोए थे। तब लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने योगी जी को ढाढ़स बँधाया था। यह दृश्य टीवी के पर्दे पर पूरी दुनिया ने देखा था। प्रश्न है कि जब ठाकुर कुल में जन्म लेकर, कम उम्र में सन्यास लेकर, एक बड़े मठ के मठाधीश हो कर और एक चुने हुए सांसद हो कर योगी जी इतने भावुक हो सकते हैं, तो क्या उन्हें इसका अनुमान है कि जिन लोगों पर वे रोज़ ऐसे फ़र्ज़ी मुक़दमे थोप रहे हैं, उनकी या उनके परिवार की क्या मनोदशा होती होगी? क्योंकि उनकी आर्थिक व राजनैतिक पृष्ठभूमि तो योगी जी की तुलना में नगण्य भी नहीं होती। 


कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोकतंत्र में बोलने की और अपना प्रतिनिधि चुनने की आज़ादी सबको होती है। ऐसे में विपक्ष को पूरी तरह समाप्त करने या विरोध के हर स्वर को दबाने से लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। जबकि इक्कीसवीं सदी में शासन चलाने की यही व्यवस्था सर्वमान्य है। इस में अनेक कमियाँ हो सकती हैं, पर इससे हट कर जो भी व्यवस्था बनेगी वो तानाशाही के समकक्ष होगी या उसकी ओर ले जाने वाली होगी। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को यह समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करना, हमेशा ही राष्ट्र और समाज के हित के विपरीत होता है। वैसे इतिहास गवाह है कि कोई भी अधिनायक कितना ही ताकतवर क्यों न रहा हो, जब उसके अर्जित पुण्यों की समाप्ति होती है, तो उसका अंत बहुत हिंसक और वीभत्स होता है। इसलिए हर नेता, दल व नागरिक को पूरी ईमानदारी से भारत के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का प्रयास करना चाहिए, कमजोर करने का नहीं। 

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है। 

Monday, July 5, 2021

न्यायपालिका को नियंत्रित नहीं किया जा सकता : सीजेआई


भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन वी रमना ने ज़ूम के माध्यम से सारे देश को संबोधित करते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही कि,
न्यायपालिका को पूर्णतः स्वतंत्र होना चाहिए। इसे विधायिका या कार्यपालिका के ज़रिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। ऐसा किया गया तो ‘क़ानून का शासन’ छलावा बन कर रह जाएगा। उनके ये विचार सूखी ज़मीन पर वर्षा की फुहार जैसे हैं।


न्यायमूर्ति रमना का ये प्रहार सीधे-सीधे देश की कार्यपालिका और विधायिका पर है, जिसके आचरण ने हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को जितना धूमिल किया है उतना पहले कभी नहीं हुआ था। सेवानिवृत हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री सथाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया जाना और इसी तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे श्री गोगोई को राज्य सभा का सदस्य बनाना सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में एक बदनुमा दाग की तरह याद किया जाएगा। 



पहले की सरकारों ने भी न्यायाधीशों को अपने पक्ष में करने के लिए परोक्ष रूप से और कभी-कभी प्रगट रूप से भी प्रलोभन दिए हैं। पर वे इतनी निर्लजता से नहीं दिए गए कि आम जनता के मन में देश के सबसे बड़े न्यायधीशों के आचरण के प्रति ही संदेह पैदा हो जाए। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा एक अनैतिक कार्य और हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने भारत के मुख्य न्यायधीश रहे श्री रंगनाथ मिश्रा को अपनी पार्टी की टिकट पर चुन कर राज्य सभा का सदस्य बनाया था। हालाँकि तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं थी। इसलिए मिश्रा का चुनाव सथाशिवम और गोगोई की तरह सत्तारूढ़ दल की तरफ़ से उनकी ‘सरकार के प्रति सेवाओं का पुरस्कार’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में जो कारण था जो वैसा ही था जिसके कारण अब प्रधान मंत्री मोदी ने इन दो पूर्व मुख्य न्यायधीशों को पुरस्कृत किया है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में दिल्ली में हुए दंगों की जाँच के लिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने एक सदस्यीय ‘रंगनाथ मिश्रा आयोग’ बनाया था। जिसने उन दंगों में सरकार की भूमिका को ‘क्लीन चिट’ दे दी थी। उसका ही पुरस्कार उन्हें 1998 में मिला। 


तो 75 साल के इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय के 220 रहे न्यायधीशों में ये कुल तीन अपवाद हुए हैं। इससे संदेश क्या जाता है, कि इन तीन न्यायधीशों ने कुछ ऐसे निर्णय दिए होंगे जो न्याय की कसौटी पर खरे नहीं रहे होंगे। उन निर्णयों को देने का मात्र उद्देश्य उस समय के प्रधान मंत्री को खुश करना रहा होगा। इसीलिए इन्हें यह इनाम मिला। इससे इन तीनों पूर्व न्यायधीशों की व्यक्तिगत छवि भी धूमिल हुई और सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता पर भी संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। 


तो क्या यह माना जाए कि न्यायमूर्ति रमना का यह सम्बोधन देश की कार्यपालिका और विधायिका को एक चेतावनी है, जो क्रमशः न्यायपालिका पर भी अपना शिकंजा कसने की जुगत में रही है। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए उसके चारों स्तम्भों का सशक्त होना, स्वतंत्र होना और बाक़ी तीन स्तम्भों के प्रति जवाबदेह होना आवश्यक होता है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भरपूर वकालत तो करते हैं पर उनके कार्यकाल में इस स्वतंत्रता का जितना हनन हुआ है उतना मैंने गत 35 वर्षों के अपने पत्रकारिता जीवन में, 18 महीने के आपातकाल को छोड़ कर, कभी नहीं देखा। यह बहुत ख़तरनाक रवैया है, क्योंकि इससे लोकतंत्र लगातार कमजोर हो रहा है और राज्यों तक में अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं। सवाल आप पूछने नहीं देंगे, प्रेसवार्ता आप करेंगे नहीं, केवल बार-बार देश को इकतरफ़ा संबोधन करते जाएँगे, तो स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो लोकतंत्र और जनता के लिए बहुत घातक स्थिति होगी।  


न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण रखने से सरकार देश की करोड़ों जनता का विश्वास अर्जित करती हैं। इससे आम आदमी को न्याय मिलने की आशा बनी रहती है। इससे सरकार में भी न्यायपालिका का परोक्ष डर बना रहता है। यही स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है। जब सरकार ऐसे काम करती है जिसमें देश के संसाधनों का या राष्ट्रहित का स्वार्थवश या अन्य अनैतिक कारणों से बलिदान होता है, तभी सरकारें अपनी कमजोरी या भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए न्यायपालिका का सहारा लेती है। 


दूसरी तरफ़ यह भी महत्वपूर्ण है कि न्यायधीशों को अपनी गरिमा की खुद चिंता करनी चाहिए। जिस तरह समाज के अन्य क्षेत्रों में नैतिक पतन हुआ है उससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं रही है। यह बात अनेक उदाहरणों से सिद्ध की जा सकती है। आम भारतीय जिसका न्याय व्यवस्था से कभी भी पाला पड़ा है उसने इस पीड़ा को अनुभव किया होगा। हाँ अपवाद हर जगह होते हैं। 1997 और 2000 में मैंने भारत के दो पदासीन मुख्य न्यायधीशों व अन्य के अनैतिक और भ्रष्ट आचरण को सप्रमाण उजागर किया था तो हफ़्तों देश की संसद, मीडिया और अधिवक्ताओं के बीच एक तूफ़ान खड़ा हो गया था। सबको हैरानी हुई कि अगर इतने ऊँचे संवैधानिक पद पर बैठ कर भी अगर कोई ऐसा आचरण करता है तो उससे न्याय मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? 


इस दिशा में भी न्यायपालिका में गम्भीर चिंतन और ठोस प्रयास होने चाहिए। सन 2000 में भारत के मुख्य न्यायधीश एस पी भारूचा ने केरल के एक सेमिनार में बोलते हुए कहा था कि ‘सर्वोच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है, लेकिन मौजूदा क़ानून उससे निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। भ्रष्ट न्यायधीशों को सेवा में रहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।’ उनकी इस बात को आज 21 साल हो गए, लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया। क्या उम्मीद की जाए, कि न्यायमूर्ति रमना व उनके सहयोगी जज इस विषय में भी ठोस कदम उठाएँगे? 


भारत की बहुसंख्यक जनता आज भारी कष्ट और अभावों में जी रही है। उसका आर्थिक स्तर तेज़ी से गिर रहा है। जबकि मुट्ठी भर औद्योगिक घरानों की सम्पत्ति दिन दूनी और रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रही है। इससे समाज में बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है जिसका परिणाम भयावह हो सकता है। इन हालातों में अगर गरीब को न्याय भी न मिले और वो हताशा में क़ानून अपने हाथ में ले, तो दोष किसका होगा? न्यायपालिका में सुधार के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग, बड़े-बड़े न्यायविद और क़ानून पढ़ाने वाले समय-समय पर अपने सुझाव देते रहे हैं, पर उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। सरकारें न्यायपालिका को मज़बूत नहीं होने देना चाहती और दुर्भाग्य से न्यायपालिका भी अपने आचरण में बुनियादी बदलाव लाने को इच्छुक नहीं रही है। क्या माना जाए कि आज़ादी के 75वे साल में न्यायमूर्ति रमना इस दिशा में कुछ पहल करेंगे?  

Monday, June 28, 2021

आईपीएस अपना कर्तव्य समझें


मार्च 2010 में भोपाल में मध्य प्रदेश शासन की ‘आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी’ ने आईपीएस अधिकारियों के बड़े समूह को संबोधित करने के लिए मुझे आमंत्रित किया। वहाँ शायद पाँच दर्जन आईपीएस अधिकारी देश के विभिन्न राज्यों से आकर कोर्स कर रहे थे। मुझे याद पड़ता है कि वे सन 2000 से 2008 के बैच के अधिकारी थे। मैं एक घंटा बोला और फिर तीन घंटे तक उनके अनेक जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देता रहा। बाद में मुझे अकादमी के निदेशक व आईएएस अधिकारी संदीप खन्ना ने फ़ोन पर बताया कि इन युवा आईपीएस अधिकारियों ने अपनी कोर्स बुक में जो टिप्पणी दर्ज की वो इस प्रकार थी,
इस कोर्स के दौरान हमने विशेषज्ञों के जितने भी व्याख्यान सुने उनमें श्री विनीत नारायण का व्याख्यान सर्वश्रेष्ठ था।



आप सोचें कि ऐसा मैंने क्या अनूठा बोला होगा, जो उन्हें इतना अच्छा लगा? दरअसल, मैं शुरू से आजतक अपने को ज़मीन से जुड़ा जागरूक पत्रकार मानता हूँ। इसलिए चाहे मैं आईपीएस या आईएएस अधिकारियों के समूहों को सम्बोधित करूँ या वकीलों व न्यायाधीशों के समूहों को या फिर आईआईटी, आईआईएम या नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों को, जो भी बोलता हूँ, अपने व्यावहारिक अनुभव और दिल से बोलता हूँ। कभी-कभी वो इतना तीखा भी होता है कि श्रोताओं को डर लगने लगता है कि कोई इस निडरता से संवैधानिक पदों पर बैठे देश के बड़े-बड़े लोगों के बारे में इतना स्पष्ट और बेख़ौफ़ कैसे बोल सकता है। कारण है कि मैं किताबी ज्ञान नहीं बाँटता, जो प्रायः ऐसे विशेष समूहों को विशेषज्ञों व उच्च पदासीन व्यक्तियों द्वारा दिया जाता है। चूँकि मैंने गत चालीस वर्षों में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरणों को, युवा अवस्था से ही, निडर होकर उजागर करने की हिम्मत दिखाई है, इसलिए मैंने जो देखा और भोगा है वही माँ सरस्वती की कृपा से वाणी में झलकता है। हर वक्ता को यह पता होता है कि जो बात ईमानदारी और मन से बोली जाती है, वह श्रोताओं के दिल में उतर जाती है। वही शायद उन युवा आईपीएस अधिकारियों के साथ भी हुआ होगा। 


उनके लिए उस दिन मैंने एक असमान्य विषय चुना था: ‘अगर आपके राजनैतिक आका आपसे जनता के प्रति अन्याय करने को कहें, तो आप कैसे न्याय करेंगे?’ उदाहरण के तौर पर राजनैतिक द्वेष के कारण या अपने अनैतिक व भ्रष्ट कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए, किसी राज्य का मुख्य मंत्री किसी आईपीएस अधिकारी पर इस बात के लिए दबाव डाले कि वह किसी व्यक्ति पर क़ानून की तमाम वो कठोर धाराएँ लगा दे, जिस से उस व्यक्ति को दर्जनों मुक़दमों में फँसा कर डराया या प्रताड़ित किया जा सके। ऐसा प्रायः सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं व राजनैतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ करवाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों पर भी इस तरह के आपराधिक मुक़दमें क़ायम करने की कुछ प्रांतों में अचानक बाढ़ सी आ गई है। हालाँकि हाल ही में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर हिमाचल प्रदेश में की गई ऐसी ही एक ग़ैर ज़िम्मेदाराना एफ़आईआर को रद्द करते हुए 117 पन्नों का जो निर्णय दिया है, उसमें आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर रहे मराठी अख़बार ‘केसरी’ के संपादक लोकमान्य तिलक से लेकर आजतक दिए गए विभिन्न अदालतों के निर्णयों का हवाला देते हुए पत्रकारों की स्वतंत्रता की हिमायत की है और कहा है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। 


सवाल है कि जब मुख्य मंत्री कार्यालय से ही ग़लत काम करने को दबाव आए तो एक आईपीएस अधिकारी क्या करे? जिसमें ईमानदारी और नैतिक बल होगा, वह अधिकारी ऐसे दबाव को मानने से निडरता से मना कर देगा। चार दशकों से मेरी मित्र, पुलिस महानिदेशक रही, महाराष्ट्र की दबंग पुलिस अधिकारी, मीरा बोरवांकर, मुंबई के 150 साल के इतिहास में पहले महिला थी, जिसे मुंबई की क्राइम ब्रांच का संयुक्त पुलिस आयुक्त बनाया गया। फ़िल्मों में देख कर आपको पता ही होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड के अपराधों के कारण कुविख्यात है। ऐसे में एक महिला को ये ज़िम्मेदारी दिया जाना मीरा के लिए गौरव की बात थी। अपने कैरीयर के किसी मोड़ पर जब उसे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के निजी सचिव का फ़ोन आया, जिसमें उससे इसी तरह का अनैतिक काम करने का निर्देश दिया गया तो उसने साफ़ मना कर दिया, यह कह कर, कि मैं ऐसे आदेश मौखिक रूप से नहीं लेती। मुख्य मंत्री जी मुझे लिख कर आदेश दें तो मैं कर दूँगी। मीरा के इस एक स्पष्ट और मज़बूत कदम ने उसका शेष कार्यकाल सुविधाजनक कर दिया। कैरियर के अंत तक फिर कभी किसी मुख्य मंत्री या गृह मंत्री ने उससे ग़लत काम करने को नहीं कहा। 


कोई आईपीएस अधिकारी जानते हुए भी अगर ऐसे अनैतिक आदेश मानता है, तो स्पष्ट है कि उसकी आत्मा मर चुकी है। उसे या तो डर है या लालच। डर तबादला किए जाने का और लालच अपने राजनैतिक आका से नौकरी में पदोन्नति मिलने का या फिर अवैध धन कमाने का। पर जो एक बार फिसला फिर वो रुकता नहीं। फिसलता ही जाता है। अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। हो सकता है इस पतन के कारण उसके परिवार में सुख शांति न रहे, अचानक कोई व्याधि आ जाए या उसके बच्चे संस्कारहीन हो जाएं। ये भी हो सकता है कि वो इस तरह कमाई अवैध दौलत को भोग ही न पाए। सीबीआई के एक अति भ्रष्ट माने जाने वाले चर्चित निदेशक की हाल ही में कोरोना से मृत्यु हो गई। जबकि उन्हें सेवानिवृत हुए कुछ ही समय हुआ था। उस अकूत दौलत का उन्हें क्या सुख मिला? दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी राजीव माथुर, जो आईपीएस के सर्वोच्च पद, निदेशक आईबी और भारत के मुख्य सूचना आयुक्त रहे, वे सेवानिवृत हो कर आज डीडीए के साधारण फ़्लैट में रहते हैं। देश में आईबी के किसी भी अधिकारी से आप श्री माथुर के बारे में पूछेंगे तो वह बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं। एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने तो उन्हें भगवान तक की उपाधि दी। 


आम जनता के कर के पैसे से वेतन और सुविधाएँ लेने वाले आईपीएस अधिकारी, अगर उस जनता के प्रति ही अन्याय करेंगे और केवल अपना घर भरने पर दृष्टि रखेंगे, तो वे न तो इस लोक में सम्मान के अधिकारी होंगे और न ही परलोक में। दुविधा के समय ये निर्णय हर अधिकारी को अपने जीवन में स्वयं ही लेना पड़ता है। भोपाल में जो व्यावहारिक नुस्ख़े उन आईपीएस अधिकारियों को मैंने बताए थे, वो तो यहाँ सार्वजनिक नहीं करूँगा, क्योंकि वो उनके लिए ही थे। पर जिन्होंने उन्हें अपनाया होगा उनका आचरण आप अपने ज़िले अनुभव कर रहे होंगे।

Monday, June 21, 2021

देश में एक धर्म नीति हो


जब देश में विदेश, रक्षा, उद्योग, शिक्षा, पर्यावरण आदि की नीतियाँ बनती हैं तो धर्म नीति क्यों नहीं बनती? सम्राट अशोक से बादशाह अकबर तक की धर्म नीति हुआ करती थी। प॰ नेहरू से श्री मोदी तक आज तक किसी भी प्रधान मंत्री ने सुविचारित व सुस्पष्ट धर्म नीति बनाने की नहीं सोची। जबकि भारत धार्मिक विविधता का देश है। हर राजनैतिक दल ने धर्म का उपयोग केवल वोटों के लिए किया है। समाज को बाँटा है, लड़वाया है और हर धर्म के मानने वालों को अंधविश्वासों के जाल में पड़े रहने दिया है। उनका सुधार करने की बात कभी नहीं सोची।
 

 

भारत में सगुण से लेकर निर्गुण उपासक तक रहते हैं। यहाँ की बहुसंख्यक आबादी सनातन धर्म को मानती है। किंतु सिख, जैन, ईसाई और मुसलमान भी संविधान से मिली सुरक्षा के तहत अपने अपने धर्मों का अनुपालन करते हैं। मंदिर, गुरुद्वारे, अन्य पूजा स्थल, गिरजे और मस्जिद भारतीय समाज की प्रेरणा का स्रोत होते हैं। पर इनका भी निहित स्वार्थों द्वारा भारी दुरुपयोग होता है। जिससे समाज को सही दिशा नहीं मिलती और धर्म भी एक व्यापार या राजनीति का हथियार बन कर रह जाता है। जबकि धर्म नीति के तहत इनका प्रबंधन एक लिखित नियमावली के अनुसार, पूरी पारदर्शिता के साथ, उसी समाज के सम्पन्न, प्रतिष्ठित, समर्पित लोगों द्वारा होना चाहिए, किसी सरकार के द्वारा नहीं। इसके साथ ही उन धर्म स्थलों के चढ़ावे और भेंट को खर्च करने की भी नियमावली होनी चाहिए। इस आमदनी का एक हिस्सा उस धर्म स्थल के रख रखाव पर खर्च हो। दूसरा हिस्सा उसके सेवकों और कर्मचारियों के वेतन आदि पर। तीसरा हिस्सा भविष्य निधि के रूप में बैंक में आरक्षित रहे और चौथा हिस्सा समाज के निर्बल लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर खर्च हो। 



आजकल हर धर्म में बड़े-बड़े आर्थिक साम्राज्य खड़े करने वाले धर्म गुरुओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। जबकि सच्चे धर्म गुरु वे होते हैं जो भोग विलास का नहीं बल्कि त्याग तपस्या का जीवन जीते हों। जिनके पास बैठने से मन में सात्विक विचार उत्पन्न होते हों - नाम, पद या पैसा प्राप्त करने के नहीं। जो स्वयं को भगवान नहीं बल्कि भगवान का दास मानते हों। जैसा गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है, मै हूं परम पुरख को दासा देखन आयो जगत तमाशा।, जो अपने अनुयायियों को पाप कर्मों में गिरने से रोकें। जो व्यक्तियों से उनके पद प्रतिष्ठा या धन के आधार पर नहीं बल्कि उनके हृदय में व्याप्त ईश्वर प्रेम के अनुसार व्यवहार करे। जिसके हृदय में हर जीव जंतु के प्रति करुणा हो। जिसे किसे से कोई अपेक्षा न हो। इसके विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति चाहे कितना ही प्रसिद्ध या किसी भी धर्म का क्यों न हो, धर्म गुरु नहीं हो सकता। वो तो धर्म का व्यापारी होता है। जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता? पर इनका स्मरण करते ही स्वतः श्रद्धा व भक्ति जागृत होने लगती है।


सभी धर्मों के तीर्थ स्थानों में तीर्थ यात्रियों का भारी शोषण होता है। इस समस्या का भी हल धर्म नीति में होना चाहिए। जिसके अंतर्गत, स्वयंसेवी संस्थाएँ और सेवनिवृत अनुभवी प्रशासक निस्स्वार्थ भाव से अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार, अलग-अलग समूह बना कर अलग-अलग समस्याओं का समाधान करें। उल्लेखनीय है कि तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल बनाने की जो प्रवृत्ति सामने आ रही है वो भारत की सनातन संस्कृति को क्रमश: नष्ट कर देगी। मनोरंजन और पर्यटन के लिए हमारे देश में सैंकड़ों विकल्प हैं। जहां ये सब आधुनिक सुविधाएँ और मनोरंजन के साधन विकसित किए जा सकते हैं। तीर्थ स्थल का विकास और संरक्षण तो इस समझ और भावना के साथ हो कि वहाँ आने वाले के मन में स्वतः ही त्याग, साधना और विरक्ति का भाव उदय हो। तीर्थ स्थलों में स्विमिंग पूल, शराब खाने और गोल्फ़ कोर्स बना कर हम उनका भला नहीं करते बल्कि उनकी पवित्रता को नष्ट कर देते हैं। इन सबके बनने से जो अपसंस्कृति प्रवेश करती है वो संतों और भक्तों का दिल तोड़ देती है। इस बात का अनुमान शहरीकरण को ही विकास मानने वाले मंत्रियों और अधिकारियों को कभी नहीं होगा। 


दुनिया भर के जिज्ञासु भारत के तीर्थस्थलों में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में आते हैं। पर भौंडे शहरीकरण ने, ज़ोर-ज़ोर से बजते कर्कश संगीत ने, कूड़े के ढेरों और उफनती नालों ने, ट्रैफ़िक की अव्यवस्था ने व बिजली आपूर्ति में बार-बार रुकावट के कारण चलते सैंकड़ों जनरेटरों के प्रदूषण ने इन तीर्थस्थलों का स्वरूप काफ़ी विकृत कर दिया है। मैं ये बात कब से कह रहा हूँ कि धार्मिक नगरों को सजाने और संवारने का काम नौकरशाही और ठेकेदारों पर छोड़ देने से कभी नहीं हो सकता। हो पाता तो पिछले 75 सालों में जो हज़ारों करोड़ रुपया इन पर खर्च किया गया, उससे इनका स्वरूप निखार गया होता।


करोड़ों रुपयों की घोषणा करने से कुछ नहीं बदलेगा। धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए आवश्यकता है, आध्यात्मिक सोच और समझ की। जिसका कोई अंश भी किसी सरकार की नीतियों में कहीं दिखाई नहीं देता। सरकार का काम उत्प्रेरक का होना चाहिए, सहयोगी का होना चाहिए, अपने राजनैतिक लाभ के उद्देश्य से अपने अपरिपक्व विचारों को थोपने का नहीं। उद्योग, कला, प्रशासन, पर्यावरण, क़ानून और मीडिया से जुड़े आध्यात्मिक रुचि वाले लोगों की औपचारिक सलाह से इन क्षेत्रों के विकास का नक़्शा तैयार होना चाहिए। धर्म के मामले में कोरी भावना दिखाने या उत्तेजना फैलाने से तीर्थस्थलों का विकास नहीं होगा। इसके लिए सामूहिक सोच और निर्णय वाली नीति ही अपनानी होगी। जिसका समावेश देश की धर्म नीति में होना चाहिए।  

Monday, June 14, 2021

योगी ही क्यों रहेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री ?


पिछले दिनों भाजपा के अंदर और लखनऊ में जो ड्रामा चला उससे लगा कि मोदी और योगी में तलवारें खिंच गईं हैं। मीडिया में अटकलों का बाज़ार गर्म था। पर जो अपेक्षित था वही हुआ। ये सारी नूरा कुश्ती थी, जिसमें न तो कोई जीता, न ही कोई हारा। योगी और मोदी एक थे और एक ही रहेंगे। इस बात का
  मुझे पहले से ही आभास था। 


इस आभास की ऐतिहासिक वजह है। 1990 के दशक में जब आडवाणी जी की राम रथ यात्रा के बाद भाजपा ऊपर उठना शुरू हुई तो भी ऐसी रणनीति बनाई गई थी। जनता की निगाह में आडवाणी जी और वाजपई जी के बीच टकराहट के खूब समाचार प्रकाशित हुए। हद्द तो तब हो गई जब भाजपा के महासचिव रहे गोविंदाचार्य ने सार्वजनिक बयान में अटल बिहारी वाजपई को भाजपा का ‘मुखौटा’ कह डाला। चूँकि गोविंदाचार्य को आडवाणी जी का ख़ास आदमी माना जाता था इसलिए ये मान लिया गया कि ये सब आडवाणी की शह पर हो रहा है। इस विवाद ने काफ़ी तूल पकड़ा। लेकिन योगी मोदी विवाद की तरह ये विवाद भी तब ठंडा पड़ गया और रहे वही ढाक के तीन पात। 



दरअसल उस माहौल में भाजपा का अपने बूते पर केंद्र में सरकार बनाना सम्भव न था। क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 115 के नीचे थी। इसलिए इस लड़ाई का नाटक किया गया। जिससे आडवाणी जी तो हिंदू वोटों का ध्रुविकरण करें और अटल जी धर्मनिरपेक्ष वोटरों और राजनैतिक दलों को साधे रखें। जिससे मौक़े पर सरकार बनाने में कोई रुकावट न आए। यही हुआ भी। जैन हवाला कांड के विस्फोट के कारण राजनीति में आए तूफ़ान के बाद जब 1996 में केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी तो उसे दो दर्जन दूसरे दलों का समर्थन हासिल था। ये तभी सम्भव हो सका जब संघ ने वाजपई की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत की। 


अब उत्तर प्रदेश पर आ जाइए। पिछले चार साल में संघ और भाजपा ने लगातार योगी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्य मंत्री और प्रशासक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश के कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों का शासन उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर रहा है। ये सही है कि योगी महाराज पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे किंतु उनके राज में पिछली सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचार हुआ है। कितने ही बड़े घोटाले तो सप्रमाण हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही उजागर किए। पर उन पर आज तक कोई जाँच या कार्यवाही नहीं हुई। 


गोरखपुर में आक्सीजन की कमीं से सैंकड़ों बच्चों की मौत योगी शासन के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश शासन की नाकामी को हर ज़िले, हर गाँव और लगभग हर परिवार ने झेला और सरकार की उदासीनता और लापरवाही को जम कर कोसा। अपनी पीड़ा प्रकट करने वालों में आम आदमी से लेकर भाजपा के विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व न्यायाधीश भी शामिल हैं। जिन्होंने कोविड की दूसरी लहर में आक्सीजन, इंजेक्शन और अस्पताल के अभाव में बड़ी संख्या में अपने परिजनों को खोया है।

 

उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर जो लूट और पैसे की बर्बादी हो रही है, उसकी ओर तो कोई देखने वाला ही नहीं है। हम तो लिख लिख कर थक गये। मथुरा, काशी अयोध्या जैसी धर्म नगरियों तक को भी बख्शा नहीं गया है। यहाँ भी धाम सेवा के नाम पर निरर्थक परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। प्रदेश में ना तो नए उद्योग लगे और न ही युवाओं को रोज़गार मिला। जिनके रोज़गार 2014 से पहले सलामत थे वे नोटबंदी और कोविड के चलते रातों रात बर्बाद हो गए।  


बावजूद इस सबके, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह ही, आम जनता से वसूला कर का पैसा, सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। इतना ही नहीं सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले उच्च अधिकारियों और पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। उन्हें बात बात पर शासन की ओर से धमकी दी गई या मुक़द्दमें दायर किए गए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने हाल ही में ये आदेश दिया कि सरकार की कमियाँ उजागर करना कोई अपराध नहीं है। हमारे संविधान और लोकतंत्र में पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं को इसका अधिकार मिला हुआ है और यह लोकतंत्र कि सफलता के लिए आवश्यक भी है। बावजूद इसके जिस तरह मोदी जी का एक समर्पित भक्त समुदाय है, वैसे ही योगी जी का भी एक छोटा वर्ग समर्थक है। ये वो वर्ग है जो योगी जी की मुसलमान विरोधी नीतियों और कुछ कड़े कदमों का मुरीद है। इस वर्ग को विकास, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते जितना की मुसलमानों को सबक सिखाना। मुख्य मंत्री योगी जी इस वर्ग के लोगों के हीरो हैं। संघ को उनकी यह छवि बहुत भाती है। क्योंकि इसमें चुनाव जीतने के बाद भी जनता को कुछ भी देने की ज़िम्मेदारी नहीं है। केवल एक माहौल बना कर रखने का काम है जिसे चुनाव के समय वोटों के रूप में भुनाया जा सके। 


यह सही है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में मुसलमानों ने अपने व्यवहार से ग़ैर मुसलमानों को आशंकित और उद्वेलित किया। चाहे ऐसा करके उन्हें कुछ ठोस न मिला हो, पर भाजपा को अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए एक मुद्दा ज़रूर ऐसा मिल गया जिसमें ‘हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखे का चोखा’। इसलिए उत्तर प्रदेश में 2022 का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी आएँ।