Monday, September 28, 2020

व्यापार और उद्योग जगत में भारी हताशा क्यों है?

कोविड में चीन की संदिग्ध भूमिका के बाद उम्मीद जताई जा रही थी विदेशी निवेशक चीन से अपना कारोबार समेट कर भारत में भारी मात्रा में विनियोग करेंगे। क्योंकि यहाँ श्रम सस्ता है और एक सशक्त प्रधान मंत्री देश चला रहे हैं। पर अभी तक इसके कोई संकेत नहीं हैं। दुनिया की मशहूर अमरीकी मोटरसाइकिल निर्माता कम्पनी ‘हार्ले-डेविडसन’ जो 10-15 लाख क़ीमत की मोटरसाइकिलें बनाती है भारत से अपना कारोबार समेट कर जाने की तैयारी में हैं। पिछले दशक में भारत में तेज़ी से हुई आर्थिक प्रगति ने दुनिया के तमाम ऐसे निर्माताओं को भारत की ओर आकर्षित किया था। जिन्हें उम्मीद थी कि उनके महँगे उत्पादनों का भारत में एक बड़ा बाज़ार तैयार हो गया है। पर आज ऐसा नहीं है। व्यापार और उद्योग जगत के लोगों का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी व लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है। 


लॉकडाउन हटने के बाद से देश के छोटे बड़े हर नगर में बाज़ारों को पूरी तरह खुले दो महीने हो चुके हैं फिर भी बाज़ार से ग्राहक नदारद है। रोज़मर्रा की घरेलू ज़रूरतों जैसे राशन और दवा आदि को छोड़ कर दूसरी सब दुकानों में सन्नाटा पसरा है। सुबह से शाम तक दुकानदार ग्राहक का इंतेज़ार करते हैं पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। जबकि बिजली बिल, दुकान का किराया, व कर्मचारियों का वेतन पहले की तरह ही है। यानी खर्चे पहले जैसे और आमदनी ग़ायब। इससे व्यापारियों और छोटे कारख़ानेदारों में भारी निराशा व्याप्त है। एक सूचना के अनुसार अकेले बेंगलुरु शहर में हज़ारों छोटे दुकानदार दुकानों पर ताला डाल कर भाग गए हैं क्योंकि उनके पास किराया और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। होटल, पर्यटन, वायुसेवा, परिवहन आदि क्षेत्रों में तो भारी मंदी व्याप्त है ही। हर वर्ष पितृपक्ष के बाद शदियों और त्योहारों का भारी सीज़न शुरू हो जाता था, माँग में तेज़ी से उछाल आता था, जहां आज पूरी तरह अनिश्चिता छाई है। 


भवन निर्माण क्षेत्र का तो और भी बुरा हाल है। पहले जब भवन निर्माताओं ने लूट मचा रखी थी तब भी ग्राहक लाईन लगा कर खड़े रहते थे। वहीं आज ग्राहक मिलना तो दूर भवन निर्माताओं को अपनी डूबती कम्पनीयां बचाना भारी पड़ रहा है। सरकार का यह दावा सही है कि भवन निर्माण के क्षेत्र में काला धन और रिश्वत के पैसे का बोल बाला था। जो मौजूदा सरकार की कड़ी नीतियों के कारण ख़त्म हो गया है। मगर चिंता की बात यह है कि सरकार की योजनाओं के क्रियाँवन में कमीशन और रिश्वत कई गुना बढ़ गई है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के आँकलन के अनुसार भी भारत में भ्रष्टाचार घटा नहीं, बढ़ा है। जिस पर मोदी जी को ध्यान देना चाहिए। 


सरकार के आर्थिक पैकेज का देश की अर्थव्यवस्था पर उत्तप्रेरक जैसा असर दिखाई नहीं दिया। कारोबारियों का कहना है कि सरकार बैंकों से क़र्ज़ लेने की बात करती है पर क़र्ज़ लेकर हम क्या करेंगे जब बाज़ार में ग्राहक ही नहीं है। लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई है। उनको आज परिवार पालना भारी पड़ रहा है। ऐसे में बाज़ार में माँग कैसे बढ़ेगी? माँग ही नहीं होगी तो क़र्ज़ लेकर व्यापारी या कारख़ानेदार और भी गड्ढे में गिर जाएँगे। क्योंकि आमदनी होगी नहीं और ब्याज सिर पर चढ़ने लगेगा। 


व्यापारी और उद्योगपति वर्ग कहना ये है कि वे न केवल उत्पादन करते हैं, बल्कि सैकड़ों परिवारों का भी भरण-पोषण भी करते हैं, उन्हें रोजगार देते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों और कोविड ने उनकी हालत इतनी पतली कर दी है कि वे अब अपने कर्मचरियों की छटनी कर रहे हैं। इससे गांवों में बेरोजगारी और पढ़े लिखे युवाओं में हताशा फैल रही है। लोग नहीं सोच पा रहे हैं कि ये दुर्दिन कब तक चलेंगे और उनका भविष्य कैसा होगा?


मीडिया के दायरों में अक्सर ये बात चल रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने से देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। हमने इस कॉलम में पहले भी संकेत किया था कि आज से 2500 वर्ष पहले मगध सम्राट अशोक और उसके जासूस भेष बदल-बदलकर जनता से अपने बारे में राय जानने का प्रयास करते थे। जिस इलाके में विरोध के स्वर प्रबल होते थे, वहीं राहत पहुंचाने की कोशिश करते थे। मैं समझता हूं कि मोदी जी को मीडिया को यह साफ संदेश देना चाहिए कि अगर वे निष्पक्ष और संतुलित होकर ज़मीनी हक़ीक़त बताते हैं, तो मोदी सरकार अपने खिलाफ टिप्पणियों का भी स्वागत करेगी। इससे लोगों का गुबार बाहर निकलेगा और समाधान की तरफ़ सामूहिक प्रयास से कोई रास्ता निकलेगा। एक बात और महत्वपूर्ण है, इस सारे माहौल में नौकरशाही को छोड़ कर शेष सभी वर्ग ख़ामोश बैठा लिए गए हैं। जिससे नौकरशाही का अहंकार, निरंकुशता और भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। ये ख़तरनाक स्थिति है, जिसे नियंत्रित करना चाहिए। हर क्षेत्र में बहुत सारे योग्य व्यक्ति हैं जो चुपचाप अपने काम में जुटे रहे हैं, उन्हें ढूँढकर बाहर निकालने की जरूरत है और उन्हें विकास के कार्यों की प्रक्रिया से जोड़ने की जरूरत है। तब कुछ रास्ता निकलेगा। केवल नौकरशाही पर निर्भर रहने से नहीं।

Monday, September 21, 2020

पहले चौकीदार और अब बेरोज़गार

मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया है जिसे आम पाठकों के लाभ के लिए सरल भाषा में यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। उनका कहना है 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। वे कब वापस शहर लौटेंगे या नहीं लौटेंगे, अभी कहा नहीं जा सकता। जिस तरह पूर्व चेतावनी के बिना लॉकडाउन की घोषणा की गई उससे निचले स्तर के अनौपचारिक रोज़गार क्षेत्र में करोड़ों मज़दूरों पर गाज गिर गई। उनके मालिकों ने उन्हें बेदर्दी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बेचारे अपने परिवारों को लेकर सड़क पर आ गए। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 6 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है कि उन्होंने अब अपने नाम के पहले ‘चौकीदार’ की जगह ‘बेरोज़गार’ जोड़ लिया है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर इन नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते। कोरोना लॉकडाउन तो मार्च 2020 से हुआ है, जिसने स्थित और बिगाड़ दी।      

    

Monday, September 14, 2020

राज्यों के उड्डयन विभागों में हो रही कोताही को क्यों अनदेखा कर रहा है डीजीसीए?


जब से उत्तर प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन के घोटाले सामने आएँ हैं तब से भारत सरकार का  नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) भी सवालों के घेरे में आ गया है। कई राज्यों के नागरिक उड्डयन विभागों में हो रही ख़ामियों को जिस तरह डीजीसीए के अधिकारी अनदेखा कर रहे हैं  उससे वे न सिर्फ़ उस राज्य के अतिविशिष्ट व्यक्तियों की जान जोखिम में डाल रहे हैं। बल्कि राज्य की सम्पत्ति और वहाँ के नागरिकों की जान से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। हाल ही में उत्तराखंड सरकार का नागरिक उड्डयन विकास प्राधिकरण (उकाडा) एक नियुक्ति को लेकर विवाद में आया। वहाँ हो रही पाइलट भर्ती प्रक्रिया में यूँ तो उकाडा ने भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के सेवा निवृत उपमहानिदेशक को विशेषज्ञ के रूप में बुलाया गया था। लेकिन विशेषज्ञ की सलाह को दर किनार करते हुए चयन समिति ने एक संदिग्ध पाइलट को इस पद पर नियुक्त करना लगभग तय कर ही लिया था। 

ग़नीमत है कि समय रहते दिल्ली के कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन सचिव को इस विषय में एक पत्र लिख कर इस चयन में हुई अनियमित्ताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया। कपूर के अनुसार जिस कैप्टन चंद्रपाल सिंह का चयन इस पद के लिए किया जा रहा था उनके ख़िलाफ़ डीजीसीए में पहले से ही कई अनियमित्ताओं की जाँच चल रही है, जिसे अनदेखा कर उकाडा के चयनकर्ता उसकी भर्ती पर मुहर लगाने पर अड़े हुए थे। कपूर ने अपने पत्र में नागरिक उड्डयन सचिव को इस चयन में हो रहे भ्रष्टाचार की जाँच की माँग भी की थी।  



विगत कुछ महीनों में राज्य सरकारों के उड्डयन विभागों के और विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा से जुड़े ऐसे कई मामले कालचक्र ब्यूरो द्वारा डीजीसीए में उठाए गए हैं। इसकी सीधी वजह यह रही कि यदि मामले नियम और सुरक्षा का आदर करने वाले उन राज्यों के पाइलट या कर्मचारी उठाते हैं, तो बौखलाहट में उन पर डीजीसीए झूठे आरोप ठोक कर और अकारण दंडात्मक कार्यवाही कर के उल्टे शिकायतकर्ता के ही पीछे पड़ जाता है। 


ग़ौरतलब है कि वीवीआईपी व्यक्तियों के विमानों को उड़ाने के लिए पाइलट के पास एक निश्चित अनुभव के साथ-साथ साफ़ सुथरी छवि का होना ज़रूरी होता है। उन पर किसी भी तरह की आपराधिक मामले की जाँच से मुक्त होना भी अनिवार्य होता है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में मौसम के मिज़ाज और भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहाँ विशेष अनुभव वाले पाइलट ही उड़ान भर सकते हैं। 


संतोष की बात है कि इस भर्ती में हो रही अनियमित्ताओं की शिकायत को जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाया गया, उन्होंने इस गम्भीरता से लेते हुए उस संदिग्ध पाइलट की नियुक्ति पर रोक लगा दी। 


यहाँ सवाल उठता है कि भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के अधिकारी राज्य सरकारों के नागरिक उड्डयन विभाग में हो रही ख़ामियों की ओर ध्यान क्यों नहीं देते? क्या वो तब जागेंगे जब फिर कोई बड़ा हादसा होगा? या फिर राज्यों के उड्डयन विभाग में हो रहे घोटालों में डीजीसीए के अधिकारी भी शामिल हैं?



उत्तराखंड के बाद अब बात हरियाणा की करें यहाँ के नागरिक उड्डयन विभाग में एक वरिष्ठ पाइलट द्वारा नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मार्च 2019 में एक नहीं दो बार ऐसी अनियमित्ताएं की जिसकी सज़ा केवल निलम्बन ही है। लेकिन क्योंकि इस पाइलट के बड़े भाई डीजीसीए में एक उच्च पद पर तैनात थे इसलिए उनपर किसी भी तरह की कार्यवाही नहीं की गई। ग़ौरतलब है कि हरियाणा राज्य सरकार के पाइलट कैप्टन डी एस नेहरा ने सरकारी हेलीकॉप्टर पर अवैध ढंग से टेस्ट फ्लाइट भरी। ऐसा उन्होंने सिंगल (अकेले) पायलट के रूप में किया और उड़ान से पहले के दो नियामक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट (शराब पीए होने का पता लगाने के लिए सांस की जांच) भी खुद ही कर डाली। एक अपने लिए और दूसरी, राज्य सरकार के एक पाइलट कैप्टन दिद्दी के लिए, जो कि उस दिन उनके साथ पिंजौर में मौजूद नहीं थे। आरोप है कि कैप्टन नेहरा ने कैप्टन दिद्दी के फर्जी दस्तखत भी किए। इस घटना के दो दिन बाद ही कैप्टन नेहरा ने एक बार फिर ग्राउंड रन किया और फिर से सिंगल पायलट के रूप में राज्य सरकार के हेलीकॉप्टर की मेनटेनेंस फ्लाइट भी की। इस बार उन्होंने उड़ान से पहले होने वाले नियामक और आवश्यक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट नहीं किया, बल्कि उस टेस्ट को उड़ान के बाद किया। जोकि नागरिक उड्डयन की निर्धारित आवश्यकताओं (सीएआर) का सीधा उल्लंघन है। इस बार भी उन्होंने फर्जीवाड़ा करते हुए, कैप्टन पी के दिद्दी के नाम पर प्री फ्लाइट ब्रेथ एनालाइजर एक्जामिनेशन किया और रजिस्टर पर उनके फर्जी हस्ताक्षर भी किए, क्योंकि उस दिन भी कैप्टन दिद्दी पिंजौर में नहीं थे। वे मोहाली में डीजीसीए के परीक्षा केंद्र में एटीपीएल की परीक्षा दे रहे थे।


इस गम्भीर उल्लंघन के प्रमाण को एक शिकायत के रूप में डीजीसीए को भेजा गया, लेकिन मार्च 2019 से इस मामले को डीजीसीए आज तक दबाए बैठी है। इसके पीछे का कारण केवल भाई भतीजावाद ही है। 



सवाल यह है की चाहे वो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की सुरक्षा में सेंध लगाने वाले और 203 शेल कम्पनियाँ चलाने वाले कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा हों या हरियाणा सरकार के कैप्टन नेहरा हों, भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय में तैनात उच्च अधिकारी, इनके द्वारा की गई अनियमत्ताओं को गम्भीरता से क्यों नहीं लेते? कहीं तो छोटी-छोटी अनियिमत्ताओं पर डीजीसीए तुरंत कार्यवाही करते हुए बेक़सूर पाइलटों या अन्य कर्मचारियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता है और कहीं कैप्टन नेहरा और कैप्टन मिश्रा जैसे ‘सम्पर्क’ वाले पाइलटों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में महीनों गुज़ार देता है। ऐसा दोहरा मापदंड अपनाने के पीछे डीजीसीए के अधिकारी भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितना कि एयरलाइन या राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग पर नियंत्रण रखने वाले आला अफ़सर। मोदी सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्री हों या राज्यों के मुख्यमंत्री उन्हें इस ओर ध्यान देते हुए इन दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। जिससे यह संदेश जा सके कि गलती करने और दोषी पाये जाने पर किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो व्यक्ति कितना भी रसूखदार हो। क़ानून सबसे ऊपर है क़ानून से ऊपर कोई नहीं।

Monday, September 7, 2020

संसद सत्र में ‘शून्य काल’ क्यों नहीं?


श्री नरेंद्र मोदी भारत के अकेले ऐसे प्रधान मंत्री हैं जिन्होंने जब पहली बार प्रधान मंत्री के रूप में संसद में प्रवेश किया तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर प्रणाम किया। यह भावुक दृश्य देख कर देश विदेश में बैठा हर भारतीय गद गद हो गया था। श्री मोदी ने दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र के संसद को मंदिर मानते हुए यह भाव प्रस्तुत किया। स्पष्ट है कि संसदीय परम्पराओं के लिए उनके माँ में पूर्ण सम्मान है। वैसे भारत में लोकतंत्र की परम्परा केवल अंग्रेजों की देन नहीं है। ईसा से छह सदी पूर्व सारे भारत में सैंकड़ों गणराज्य थे जहां समाज के प्रतिनिधि इसी तरह खुली सार्वजनिक चर्चा के द्वारा अपने गणराज्यों का संचालन करते थे। मध्य युग के राजतंत्र में भी जो राजा चरित्रवान थे और जिनके हृदय में जनता के लिए स्नेह था और जनता को अपनी संतान समझते थे, वे आम आदमी की भी बात को बड़ी गम्भीरता से सुनते और उसका निदान करते थे।
 


भारत की मौजूदा संसद की प्रक्रिया में कई देशों के लोकतांत्रिक शिष्टाचार का सम्मिश्रण है। जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सार्थक संवाद से क़ानून बनते हैं और समस्याओं के हल भी निकलते हैं। 


हर संसदीय क्षेत्र के लाखों मत्तदाता टीवी पर ये देखने को उत्सुक रहते हैं कि उनके सांसद ने संसद में क्या बोला। संवाद की इस प्रक्रिया में शालीन नौक-झौंक और टीका-टिप्पणी का आनंद भी दोनो पक्ष लेते हैं। विपक्ष, जो सत्तापक्ष को कटघरे में खड़ा करता है और सत्तापक्ष, जो मुस्कुरा कर इन हमलों को झेलता है और अपनी बारी आने पर हर प्रश्न का जवाब देश के सामने रखता है। कोई किसी का बुरा नहीं मानता।



लोकसभा के सत्रों में ऐसी अनेक रोचक घटनाएँ हुई हैं, जैसे समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर तीखे हमले करते थे तो लगता था कि दोनों में भारी दुश्मनी है। पर भोजन अवकाश में जब नेहरू जी सदन के बाहर निकलते तो लोहिया जी के कंधे पर हाथ रख कर कहते, लोहिया तुमने गाली तो बहुत दे दी अब मेरे घर चलो दोनों लंच साथ करेंगे। जब-जब देश पर संकट आया तो जो भी विपक्ष में था उसने सरकार का खुल कर साथ दिया। सरकारों की भी कोशिश रहती है कि संसद के हर सत्र से पहले विपक्षी दलों के नेताओं के साथ विचार विमर्श करके ख़ास मुद्दों पर सहमति बना लें।


शून्य काल सदन के सत्र का वह समय होता है जब सांसदों को सरकार से सीधे प्रश्न करने की छूट होती है। यही सदन का सबसे रोचक समय होता है। क्योंकि जो बात अन्य माध्यमों से सरकार तक नहीं पहुँच पाती, वह शून्य काल में पहुँच जाती है। फिर उन कमियों को सुधारना सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। इसलिए संसद के सत्र में शून्य काल का स्थगन नहीं होना चाहिए। जैसा इस बार किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि कोरोना के कारण इस तरह के संवाद की परिस्थिति न हो। अगर सत्र चल रहा है तो शून्य काल भी चल ही सकता है। 

 

आज के दौर में जिस तरह मीडिया ने अपनी भूमिका का पतन किया है उससे आम जनता की बात सत्ता तक पहुँचना मुश्किल हो गया है। ऐसे में जनता में घुटन और आक्रोश बढ़ता है। जिससे हानि सत्तापक्ष की ही होती है। सुशांत सिंह राजपूत एक होनहार युवक था। उसकी हत्या या आत्महत्या की जाँच ईमानदारी से होनी चाहिए और जो कोई भी दोषी हो उसे सजा मिलनी चाहिए। पर क्या 135 करोड़ भारतवासियों के लिए आज यही सबसे बड़ा सवाल है? करोड़ों की बेरोजगारी, 40 साल में सबसे नीचे गिरती हुई जीडीपी और जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि के शाश्वत प्रश्न क्या इतने गौड़ हो गए हैं कि उन पर कोई चर्चा की आवश्यकता ही नहीं है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की गुत्थी सुलझते ही क्या इन सारी समस्याओं का हल एक रात में हो जाएगा?



लोकतंत्र में बस संसद ही तो है जहां जनता के वैध प्रतिनिधि सवाल पूछते है। सवालों के जरिए ही जनता का दुख-दर्द कहा जाता है। जवाबों से पता चलता है कि जनता की समस्याओं से सरकार का सरोकार कितना है। सरकार की जवाबदेही दिखाने के लिए संसद के अलावा और कोई जगह हो भी क्या सकती है? हालांकि कहने को तो कोई कह सकता है कि किसी को कुछ जानना हो तो वह सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांग सकता है। लेकिन प्रशासकों की जवाबदेही की हालत सबके सामने उजागर है। सूचना देने में हीलाहवाली और आनाकानी इतनी ज्यादा बढ़ती जा रही है कि आम जनता को यह तरीका थकाउ लगने लगा है। यानी संसद में प्रश्नकाल ही इकलौती कारगर व्यवस्था है। एकदम पारदर्शी भी है। 


बेशक देश इस समय चौतरफा संकटों की चपेट में है। अर्थव्यवस्था हो या महामारी से निपटने के इंतजाम हों या सीमा पर बढ़ते संकट हों, इतने सारे सवाल खड़े हो गए हैं कि जनता में बेचैनी और दुविधाएं बढ़ रही है। देश के कारोबारी माहौल पर ये दुविधाएं खासा असर डालती हैं। जबकि संसद में उठे सवालों का जवाब देकर बहुतेरी दुविधाएं खुद ब खुद खत्म हो जाती हैं। 



इतना ही नहीं, संसद में प्रश्नकाल सरकार के लिए भी एक अच्छा मौका होता है। खासतौर पर जनता के भीतर विश्वास पैदा करने में जिस तरह मंत्रालयों के बड़े अफसर और प्रवक्ता नाकाम हो रहे हैं वैसे में संसद में सत्तारूढ दल ही मोर्चा संभाल पाता है। संसद की कार्यवाही को मीडिया में अच्छी खासी जगह मिलती है। सरकार अपने जवाबों के जरिए जैसा प्रचार चाहे मीडिया में प्रचार भी करवा सकती है। सरकार को सवालों से डरना नहीं चाहिए यानी उसे आपदा नहीं मानना चाहिए बल्कि प्रश्नकाल को वह अवसर में बदल सकती है। 

Monday, August 31, 2020

कोरोना महामारी: आगे का सफ़र


पिछले कुछ हफ़्तों में सरकार ने कोरोना से सम्बंधित कई दिशा निर्देश दिए हैं। ख़ासतौर पे भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से दिए गए ‘अनलॉक’ के दिशा निर्देश जिनका पालन सभी राज्य सरकारों को करना अनिवार्य है। लेकिन इन दिशा निर्देशों में प्रत्येक राज्य को अपने राज्य की मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार इनमें संशोधन करने का भी प्रावधान है। अगर किसी राज्य में संक्रमण तेज़ी से बढ़ रहा है तो वहाँ सख़्ती की ज़रूरत है। इसी प्रकार अगर संक्रमण नियंत्रण में है तो छूट भी दी जा रही है। दिल्ली में तो अब मेट्रो रेल को भी सशर्त खोलने की तैयारी है। कारण स्पष्ट है जनता को हो रही असुविधा और मेट्रो को हो रहे करोड़ों के नुक़सान से बचना अनिवार्य हो चुका है। लेकिन सावधानी तो हम सबको ही बरतनी पड़ेगी।
 

पिछले दिनों मई 2020 की एक खबर पढ़ने में आई जिसका आधार अमरीका के मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डा फाहिम यूनुस का शोध है। डा यूनुस मेरीलैंड विश्वविद्यालय के संक्रमण रोग विभाग के मुखिया हैं। उनके अनुसार कोरोना के वाइरस से जल्द छुटकारा पाना आसान नहीं है। हां रूस ने इसके इंजेक्शन के ईजाद का दावा ज़रूर किया है लेकिन चीन में जो लोग कोरोना से ठीक हुए थे उनमें से कुछ को कोरोना दोबारा होने की भी खबर है। डा फाहिम के अनुसार हमें इस बीमारी के साथ हंसी ख़ुशी रहने की आदत डाल लेनी चाहिए और नाहक परेशान या घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। 


उनके अनुसार अगर कोरोना का वाइरस हमारे शरीर में प्रवेश कर चुका है तो अत्यधिक पानी पीने से वो बाहर नहीं निकलेगा। हम बस बाथरूम ज़्यादा जाने लगेंगे। 


इस वाइरस पे किसी भी तरह के मौसम का भी असर नहीं होगा। उनकी इस बात पर यक़ीन इसलिए होता है क्योंकि गर्मियों के मौसम में भी कोरोना के मरीज़ों की संख्या विश्वभर में तेज़ी से बढ़ी ही है। 


लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है। यदि हमारे घर में कोई भी संक्रमित नहीं है तो हमें बार बार घर की वस्तुओं को डिसइन्फ़ेक्ट करने की भी आवश्यकता नहीं है। 


कोरोना के वाइरस आम फ़्लू की तरह ही होते हैं जो खाने कि वस्तुओं को मंगाने से नहीं फैलते। ठीक उसी तरह जैसे पेट्रोल पम्प और एटीएम आदि पे जाने से संक्रमण नहीं फैलता। बस हाथ धोना और दूरी बनाए रखना अहम है। 


डा यूनुस के अनुसार यदि कोई इससे संक्रमित है और वो स्टीम या सौना लेने के लिए जाता है तो उसके शरीर से वाइरस नहीं निकल सकता। ऐसी कई और एलेर्जी होती हैं जिनके कारण भी इंसान की सूंघने और स्वाद की शक्ति खो जाती है। अभी तक इस लक्षण को इसका एकमात्र कारण नहीं कहा जा सकता। 


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। 


इन दिनों देखा गया है कि जो लोग घर में खाना नहीं बना पाते थे, जैसे कि विद्यार्थी आदि, वो भी मजबूरन खाना बनाने लग गए हैं। लेकिन अगर आप बाज़ार से खाना मँगवाते हैं तो उसे एक बार दोबारा गर्म कर लेना बेहतर रहेगा। 


कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाती, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है लेकिन वही जूते जो आपने दिन भर पहने हैं और उनसे आपको संक्रमण नहीं हुआ तो जूतों से संक्रमण का कोई लेना देना नहीं है। 


कुछ लोग जो अधिक सावधानी बरतने के लिए दस्ताने पहनते हैं उन्हें भी इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि दस्तानों पे यदि वाइरस आ भी जाता है तो आसानी से जाता नहीं। उन दस्तानों को फेंका ही जाता है। हाथ धोना ही एकमात्र उपाय है जो वाइरस को बहा देता है। इसलिए अपने मुह या आँख को छूने से पहले हाथ अवश्य धोएँ। हाथों को धोने के लिए आम साबुन का प्रयोग ही करें एंटी-बेक्टीरिया साबुन का नहीं क्योंकि कोरोना एक वाइरस है बेक्टीरिया नहीं। 


अपने 20 वर्षों से अधिक अनुभव के चलते डा फाहिम यूनुस ने ये सब हिदायतें दी हैं और कहा है कि हमें सतर्क रहने की ज़रूरत है परेशान रहने की नहीं। 


ये तो डा फाहिम यूनुस के विचार हैं पर जिस तरह अभी हाल में चंडीगढ़ में हरियाणा के मुख्य मंत्री और स्पीकर व अन्य लोगों को कोरोना हुआ है, जिस तरह भारत में कोरोना संक्रमण की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है, जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इसलिए जो सावधानियाँ सुझाई गई हैं उन्हें गम्भीरता से लेना चाहिए। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Friday, August 21, 2020

प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का मामला, मेरी नज़र में : विनीत नारायण

सर्वोच्च अदालत में पिछले हफ़्ते जो कुछ हुआ उस पर मीडिया ने मेरी प्रतिक्रिया चाही है। मीडिया और राजनीतिक क्षेत्रों में यह जानी हुई बात है कि 1997 से 2000 तक मैंने उस समय के कुछ मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई थी। अवमानना के मामले में मुझे भी लपेटा गया था पर फिर छोड़ दिया गया। बाद में मैंने हिन्दी में एक किताब लिखी थी, ‘
अदालत की अवमानना कानून का दुरुयपोग’ (पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)। इस मामले में मेरी राय यें है; 

1. न्यायपालिका अगर अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर नाचने लगे तो देश का बुरा हाल हो जाएगा। 135 करोड़ लोग बर्बाद हो जाएंगे। लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ ढह जाएगा। बड़े पैमाने पर अन्याय होगा, कमजोरों का शोषण किया जाएगा और देश को लूटा जाएगा। हम तानाशाही और फिर उसके बाद की अराजकता, हिंसा तथा देश बड़े पैमाने पर बर्बादी की ओर बढ़ेंगे। जैसा दुनिया भर के इतिहास में हुआ है। किसी भी तानाशाह ने कभी आसानी से सत्ता नहीं छोड़ी बल्कि सबका हिंसक अंत हुआ है। दुर्भाग्य से हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका के कुछ सदस्य भी गलत कारणों से खबरों में रहे हैं।    


2. सवाल है कि न्यायपालिका के सदस्यों को गलत काम या भ्रष्टाचार क्यों करना चाहिए अथवा सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक इच्छा के आगे समर्पण क्यों करना चाहिए? खासकर तब जब इस देश के लोगों ने उन्हें एक सम्मानित जीवन जीने के लिए आवश्यक सब कुछ दिया है। क्या वे यह भूल गए हैं कि बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों  के हाथों कितनी यातना झेली है और अपना जीवन बलिदान किया है। क्या वे अपने परिवारों के लिए अच्छा जीवन सुनिश्चित नहीं कर सकते थे  ? पर इस गरीब देश के लाखों सामान्य लोगों का  अच्छा जीवन सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया ।


3. इसके बावजूद अगर न्यायपालिका के कुछ सदस्य अनैतिक कार्रवाई के दोषी पाए जाते हैं तो ‘उन्हें नौकरी से निकाल देना चाहिए’। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसपी भरुचा ने कोवलम में सन 2002 में एक सेमिनार को संबोधित करते हुए ये कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मौजूदा कानून नाकाफ़ी हैं’।


4. दुर्भाग्य से हमारे सांसद इस कानून को बदलने के इच्छुक नहीं है और भ्रष्ट जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का नैतिक साहस भी नहीं दिखाते हैं। क्योंकि उनमें से अनेकों का अपना चाल चलन भी दागदार है। इसलिए देश एक मुश्किल स्थिति में फंसा हुआ है।


5. इस विषम स्थिति को मैंने भी झेला था। 1997 में जब मैंने यह खुलासा किया कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा ‘जैन हवाला कांड’ के आरोपी जैन बंधुओं से मिले थे, तो देश में हंगामा मच गया था। भारत के किसी भी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इससे पहले किसी ने ऐसा खुलासा कभी नहीं किया था। इस खुलासे से घबराए न्यायमूर्ति वर्मा ने खुली अदालत में वो सब स्वीकार कर लिया जो आरोप मैंने उन्हें संबोधित अपने खुले पत्र में (12 जुलाई 1997) लगाए थे। उन्होंने माना कि एक जेंटलमैन लगातार उनपर और उनके साथी न्यायमूर्ति एस.सी. सेन पर हवाला केस को रफ़ा दफ़ा करने के लिए लगातार दबाव डाल रहा है।  उनकी इस स्वीकारोक्ति पर अदालतों, संसद व मीडिया में हंगामा मच गया। तथाकथित जेंटलमैन का नाम बताने की देशव्यापी मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने ना तो उसकी पहचान बताई ,ना ही उसे अदालत की अवमानना की सजा दी। जबकि इस व्यक्ति ने सर्वोच्च अदालत की अब तक की सबसे बड़ी अवमानना की थी। उन्होंने क्यों ऐसा किया, क्या कोई जवाब दे सकता है ?


6.  दुर्भाग्य से मेरे सह-याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और उनके पिता श्री शांति भूषण ने रहस्यमयी कारणों से न्यायमूर्ति वर्मा का बचाव किया और ये शोर मचाने के लिए उल्टे मुझ पर हमला किया। तब मैं बहुत आहत हुआ था और ठगा हुआ महसूस किया। पर मैंने और शोर मचाया तब एस.सी.बी.ए. (सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) ने मुझे अवमानना के लिए सुप्रीम कोर्ट में घसीट लिया। आश्चर्यजनक रूप से तीन जजों की पीठ ने मेरे खिलाफ मामला स्वीकार करने से मना कर दिया और कहा कि, हम सूर्य की तरह है, अगर कोई सूर्य पर मिट्टी फेंके तो वह गंदा नहीं होता है। अगर हम विनीत नारायण को नोटिस जारी करते हैं तो वे अपनी पूरी ताकत से यहाँ अदालत में चिल्लाएंगे। हम उन्हें यहाँ मंच देना नहीं चाहते हैं।  


7. अपनी इस बात को साबित करने के लिए कि ‘जैन हवाला मामले’ में आरोपी राजनेताओं को इसलिए नहीं छोड़ा गया कि सीबीआई के पास उनके खिलाफ सबूत नहीं थे। बल्कि इसलिए छोड़ा गया कि ये राजनेता न्यायपालिका को नियंत्रित करने में कामयाब रहे थे। मैंने भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए. एस. आनंद के छह भूमि घोटालों का अपने अख़बार ‘कालचक्र’ में (1999-2000) पर्दाफाश किया। 


8. इस बार तो देश में और ज्यादा बड़ा हंगामा खड़ा हुआ। जिससे तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी की नौकरी चली गई। श्री अरुण जेटली नए कानून मंत्री बने जो डॉ. आनंद के करीबी थे। इसलिए उन्होंने डॉ. आनंद को एक सुरक्षा कवच मुहैया कराया और मेरे खिलाफ अवमानना का मामला दायर हुआ। आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च अदालत में नहीं, बल्कि जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट में।


9. इस लंबे अकेले अभियान में फिर प्रशांत भूषण ने डॉ. आनंद का पक्ष लिया और इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में यह कह कर मुझ पर हमला किया कि मैं डॉ. आनंद के खिलाफ झूठे आरोप लगा रहा हूँ, बगैर किसी सबूत के। यह पूरी तरह चौंकाने वाला बयान था। क्योंकि मैं अपने अखबार, ‘कालचक्र’ में सारे दस्तावेज प्रकाशित कर चुका था। अंग्रेजी की पाक्षिक पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि मेरे पास सारे सबूत थे। हालांकि, जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने मुझे दोषी माना, पर सजा नहीं दी। मैंने इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी।


10. अब जाने कि प्रशांत भूषण के खिलाफ मौजूदा मामले पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है? पिछले इन अप्रिय अनुभवों के बावजूद आज मैं प्रशांत भूषण के साथ खड़ा हूं। क्योंकि मेरी राय में उनकी टिप्पणियां अदालत की अवमानना नहीं हैं। जैसा ऊपर कहा गया है कि अदालत की अवमानना का मामला सही अर्थों में मौजूदा कानून के तहत होना चाहिए। यानी केवल वही व्यक्ति इस क़ानून के तहत अपराधी माना जाए जो न्यायिक प्रक्रिया में व्यवधान डाले या उसे अवैध रूप से प्रभावित करने की कोशिश करे (जैसा जैन हवाला कांड में हुआ)।  


11. किसी भी जज के भ्रष्ट आचरण से संबंधित किसी भी खुलासे को, अगर वह सबूत के साथ हो, या अदालत का फ़ैसला जिस पर विश्लेषणात्मक टिप्पणियां की जाएं उसे ‘अदालत की अवमानना’ नहीं मानना चाहिए। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में हरेक स्तंभ बाकी के तीन के प्रति उत्तरदायी है। जज कोई स्वर्ग से उतरे तमाम दैविक विशेषताओं वाले देवदूत नहीं हैं। उनमें भी दूसरों की तरह कमजोरियां हो सकती हैं। इसलिए वे इतना संवेदनशील क्यों होते हैं? वह भी तब जब उनमें से कुछ रिटायरमेंट के बाद शासकों से उपकृत होना स्वीकार करते हैं। ऐसा करने वाले निश्चित रूप से अपनी स्वतंत्रता और साख खोएंगे और देश इसकी भारी कीमत चुकाएगा। इसलिए, वर्तमान मामले में मेरा दृढ़ मत है कि प्रशांत दोषी नहीं हैं। 


12. अंत में मैं कानून के क्षेत्र से जुड़े लोगों का ध्यान एक अप्रिय स्थिति की ओर खींचना चाहता हूं जिससे मैं चुपचाप पिछले तीन वर्षों से जूझ रहा हूं। हवाला कांड व दो मुख्य न्यायाधीशों के घोटालों का खुलासा करने के बाद, हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार से निराश होकर, सन 2002 में मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा जी की शरण ली।  


13. उनके निर्देश पर मैंने खोजी पत्रकारिता का अपना पेशा छोड़ दिया, जो उस समय शीर्ष पर था। 46 साल की उम्र से मैंने पिछले 18 साल ब्रज क्षेत्र की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत को बचाने और सजाने में लगाए हैं। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में आता है। मैं ये काम ‘द ब्रज फाउंडेशन’ के जरिए करता हूं।


14. मैं पूरी विनम्रता से मैं कहना चाहता हूं कि गत दो दशकों में, मथुरा में (ब्रज) हम लोगों ने जो जीर्णोद्धार किए हैं उन्हें  हर क्षेत्र के लोगों से प्रशंसा मिली है। इनमें संत, ब्रजवासी, तीर्थयात्री, मीडिया, दानदाता उद्योगपति, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भारत सरकार के सचिव, नीति आयोग के सीईओ, प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, आदि सब शामिल हैं और सबने कहा है कि भारत में किसी एनजीओ ने आजतक ऐतिहासिक धरोहरों के जीर्णोद्धार व संरक्षण का ऐसा काम देश में कहीं नहीं किया। हमने यह सब बिना सरकारी अनुदान के किया है। 


15.  2017 में योगी सरकार के आते ही पवित्र गोवर्धन पर्वत को बर्बाद करने की एक साजिशाना ‘मेगा योजना’ के खिलाफ हमने जिन आपराधिक लोगों का खुलासा किया था, उनके निहित स्वार्थों के कारण ही आज हमें एनजीटी द्वारा परेशान किया जा रहा है। इसके सदस्य न्यायमूर्ति रघुवेन्द्र राठौड़ (अब रिटायर) ने हम पर कई फर्जी और अपुष्ट आरोप लगाए हैं। खुली अदालत में उन्होंने हमें अपमानित किया। श्री अजय पिरामल तथा श्री राहुल बजाज जैसे उद्यमियों द्वारा दिए गए सी.एस.आर. के पैसों से किए गए करोड़ों रुपय के सौंदरीयकरण के काम को नष्ट करने का मौखिक आदेश दिया। श्री राठौड़ ने इन दानदाताओं के योगदान बताने वाले शिलापट्टों को भी पोत देने का आदेश दिया। यह सब कुछ ठीक ऐसा ही है, जो मंदिरों को नष्ट करने वाला औरंजेब जैसा कोई शासक ही कर सकता है।


16. इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की बार के सदस्यों और माननीय जजों को इस साल के शुरू में बांटे गए टैबलॉयड जैसे एक सूचना संकलन प्रपत्र की याद होगी। गोवर्धन के पर्यावरण कार्यकर्ता मुकेश शर्मा ने इसे बांटा था। इस पर्चे में लिखा हरेक शब्द सबूतों से समर्थित है। इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे न्यायमूर्ति राठौड़ ने अपने कुछ लोगों का पक्ष लेने और दूसरों को बर्बाद करने के लिए राजस्व रिकार्ड में हेराफेरी की थी। वे अब रिटायर हो चुके हैं। पर हमें अपनी विरासत की रक्षा करने से रोक दिया गया है। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने हमें 1 जून 2018 को स्टे दे दिया। इस तरह न्यायमूर्ति राठौड़ के आदेश से सिर्फ दो साइटें (श्री कृष्ण लीलास्थलियाँ) ही नष्ट हुईं (जिन्हें हमने गोवर्धन की परिक्रमा पर करोड़ों रुपए खर्च करके बहुत सुंदर बनाया था। इनके नाम हैं संकर्षण कुंड और रुद्र कुंड)। सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण जीर्णोद्धार की गयीं बाकी लीलास्थलीयों को फ़िलहाल बचाया जा सका।


17. पर अभी भी हमारे ऊपर तलवार टंगी है और हम नहीं जानते कि इस असामान्य स्थिति से कैसे निपटा जाए ? जब हमारे मामले की सुनवाई करने वाले एन.जी.टी. के सदस्य हमारी केस फ़ाइल में मौजूद सभी तथ्यों को नजरअंदाज कर सिर्फ याचिकाकर्ता से निर्देशित होते हैं, जो स्वयं उसी घोटाले में शामिल थे जिनके ख़िलाफ़ हमने 2017 में शोर मचाया था, ताकि ब्रज की विरासत और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।


इन परिस्थितियों में एक जागरूक नागरिक, भ्रष्टाचार से हमेशा जूझने वाले खोजी पत्रकार और हिन्दू विरासत के संरक्षक के रूप में मेरे पास क्या विकल्प हो सकता है, क्या आप कुछ बताएँगे ?


निवेदक

विनीत नारायण

Prashant Bhushan’s Contempt Case: what do I feel about it ?

Media has approached me for my reaction on this development in the Apex Court. As it is a known fact in judicial, media & political circles  that I had raised strong voice from 1997 to 2000, against the immoral conduct of some of the CJIs of that time. I was hauled up for contempt but  was let off. Subsequently I wrote a Hindi book on the ‘Misuse of Contempt of Courts Act.’

My take on this matter is as follows ; 

1. If judiciary starts dancing to the tune of its political masters then the country will go to dogs. 135 crore people will be doomed. This important pillar of democracy will collapse. There will be mass injustice, exploitation of the weak and plundering of the nation. We will head towards dictatorship and subsequent anarchy, violence and mass destruction in the country. As has happened throughout the history of world. No dictator has ever had a graceful exit, rather very violent end. Unfortunately, some members of our top judiciary have also been in news for wrong reasons. 

2. Question is why should members of the Judiciary indulge in malpractices, corruption or surrender to the political will of the ruling party ? When people of this country have given them everything needed to lead a dignified life. Have they forgotten  that so many freedom fighters suffered and sacrificed their lives not to ensure good life for their families but for the millions of ordinary people of this poor country ? 

3. Even then if some members of the judiciary  are found guilty of immoral actions, then ‘they must be removed from services’ said Justice S P Bharucha, the then CJI in a seminar in Kovalam in 2002. He also said that ‘the existing laws are insufficient to deal with such a situation’. 

4. Our parliamentarians are not keen on changing the laws and do not show moral courage to initiate impeachment motions against such corrupt judges, because many of them also have several skeltons in their cupboards. So the nation is caught in catch 22 situation. 

5. I faced this situation in 1997 when I exposed how the CJI Justice J S Verma was indulging with the infamous Jain Brothers, accused in Jain Hawala Case. An uproar was made in the country on first ever such bold expose of a sitting CJI. Nervous Justice Verma confessed in the open court exactly what I had alleged against him in my open letter addressed to him. He accepted that he and his brother judge Justice S C Sen were being constantly approached by a “Gentleman” to hush up this case. They had met Jains aswell. Despite nationwide demand to reveal the name of this so called “Gentleman”, who had committed biggest ever Contempt of the Apex Court, Justice Verma neither revealed his identity nor punished him, why ? Can anybody answer ? 

6.  Unfortunately, my co-petitioner Prashant Bhushan and his father Mr. Shanti Bhushan defended Jistice Verma for mysterious reasons and in turn attacked me for making such noise. I was very hurt and felt cheated. I made more noise and was dragged in Supreme Court for Contempt by SCBA. But surprisingly three judge bench refused to admit the case against me, stating that “We are like sun, if someone throws dust on sun, it does not get dirty. If we issue notice to Vineet Narain he will roar on top of his voice in this court. We do not want to provide him the platform”.  

7. To prove my point that accused politicians and others in Jain Hawala Case were let off not because CBI had no evidences against them but because these politicians were able to manage the judiciary, I went ahead to expose six land scams of the next CJI Justice Dr A S Anand. 

8. This time a huge controversy rocked the nation. The then Union Law Minister Mr Ram Jethmalani lost his job. Mr Arun Jailtley became the new Law Minister, who was closely related to Dr Anand. Hence he provided Dr Anand a security cover. I was hauled up for contempt, surprisingly not in the Hon'ble Apex Court but in Hon'ble J&K High Court. 

9. Again in this long lone crusade, Prashant Bhushan sided with Dr Anand and attacked me in an Indian Express interview by alleging that I was making false allegations against Dr Anand, without having any evidence. This was absolutely a shocking statement because I had published all the documents in my tabloid Kalchakra. Frontline had also endorsed that I had all the evidences. However, Hon'ble J&K High Court held me guilty but did not punish. I challenged that judgement in the Hon'ble Apex Court. 

10. Now the question about my reaction on present case against Prashant Bhushan. Despite this unpleasant experience today I stand by him because his remarks are in my view not contempt of court. As stated above Contempt of Court should strictly apply in letter and spirit of the existing law. 

11. Any exposure of corrupt practices of a judge, done with evidence or analytical comments with law points made on his judgement should not be considered as contempt. My view is that in a democracy each of the four pillar is accountable to the rest of the three. Judges are not celestial bodies descended from heaven with all virtues. They can also have human weaknesses like all others, hence why be so touchy ? More so when they accept post retirement favours from the rulers they are bound to loose their independence & credibility at a huge cost to the nation. Hence in the present case I strongly feel that Prashant Bhushan is not guilty. 

12. Finally, I want to draw the attention of the legal fraternity on a similar unpleasant situation with which I am silently dealing for the past three years. After exposing scams of two CJI’s, disillusioned with corruption in every sphere, I took shelter of a saint in Barsana (Mathura) Shri Ramesh Baba ji in 2002. 

13. On his instruction I renounced my journalistic career at its pinnacle, at the age of 46 and dedicated past 18 years to restore Cultural & Environmental heritage of Braj region, falling within UP, Raj & Haryana, through our The Braj Foundation

14. With all humility I submit that what we did in two decades has attracted generous praise from every quarter ; including saints, Brajwasi, pilgrims, CMs, Union Cabinet Ministers, Secys GoI, PM Mr Modi and CEO Neeti Ayog, as unprecedented restoration work ever done  by a NGO. We did so without any govt. funds. 

15. Yet due to the conspiracy of vested interests, who were exposed by us in 2017, for their scandalous maga plan to ruin sacred Goverdhan Hill, we are being harassed at NGT. It’s member Justice Raghuvendra Rathod (now retd) slapped on us several fake and unsubstantiated charges. He humiliated us in the open court and gave verbal orders to destroy the beautiful restorations we had done by spending crores of CSR funds donated by industrialists like Mr. Ajay Piramal & Mr. Rahul Bajaj. Mr. Rathod ordered to paint stone plaques highlighting their contribution. Something only an Aurangzeb kind of ruler can do against Hindu Temples. 

16. Hon’ble Judges and members of the Bar of Supreme Court & Delhi High Court, may recall a tabloid shape compilation distributed early this year by one Environment activist Mukesh Sharma of Goverdhan, on this entire saga. Every word written in this paper is backed with evidences. It also highlights how Justice Rathod had manipulated revenue records to favour some and destroy others. He is retired now but we have been debarred from serving our crumbling heritage. Thankfully Hon’ble Supreme Court granted us stay on June 1st, 2018 hence only two sites (beautifully restored by us namely Sankarshan Kund & Rudra Kund at Goverdhan) have been ruined due to Justice Rathod’s orders but rest could be saved. 

17. The sword is still hanging upon us and we do not know how to deal with this unusual situation, when the judge hearing our case, ignores all facts on the file and is guided only by the petitioners, who are party to that scam, against whom we had made the noise to protect our heritage and Environment. 

In such circumstances what option do I have as a concerned citizen, anti corruption crusader, investigative journalist & conservator of Hindu heritage ? 


Vineet Narain