Monday, March 30, 2020

सड़कों पे दौड़ते बदहवास लोग

1918 में स्पैनिश फ़्लू से भारत में लगभग 2 करोड़ लोग मारे थे जबकि उस वक्त भारत की आबादी 20 करोड़ थी। कोरोना का असर कब तक, कितना घातक और किस किस इलाक़े में होगा उसका अभी कोई आँकलन नहीं है। कारण यह है कि जब से चीन में कोरोना फैला है तब से दुनिया भर से लगभग 15 लाख लोग भारत आ चुके हैं और ये पूरे भारत में फैल गए हैं। इनमें से कितने लोग कोरोना के पॉज़िटिव हैं कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता। क्योंकि कोरोना के परीक्षण करने की बहुत सीमित सुविधाएँ देश में उपलब्ध हैं। ऐसे में विभिन्न देशों के अलग अलग विशेषज्ञों द्वारा भारत में कोरोना के सम्भावित असर पर अनेकों तरह की भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। जो झकझोरने और आतंकित करने वाली हैं।

इन सब विशेषज्ञों का मानना है कि भारत बहुसंख्यक गरीब आबादी जिसके लिए  सामाजिक दूरी बना कर रहना असम्भव है, अगर वो इस बीमारी की चपेट में आ गई तो इस भयावक स्तिथि पर क़ाबू पाना दुष्कर हो जाएगा। जब मेडिकल सुविधाओं में दुनिया का अग्रणी देश इटली कोरोना के क़हर के आगे लाचार हो गया तो भारत जैसे देश की क्या बिसात है?

वहीं ज्योतिषों का नक्षत्रों के अध्ययन  के आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि 14 अप्रेल के बाद कोरोना के क़हर से स्वतः ही मुक्ति मिल जाएगी। यहाँ यह दर्ज करना उल्लेखनीय है कि ऐसा कोई दावा वैज्ञानिकों द्वारा नहीं किया जा रहा, जब तक कि कोरोना को भगाने का वैक्सिन सहजता से सब के लिए उपलब्ध न हो। 

ऐसे में ‘लाक्डाउन’ ही सबसे कारगर तरीक़ा हो सकता था और वही प्रधान मंत्री मोदी जी ने देश भर में लागू किया। जहां ‘लाक्डाउन’ के फ़ायदे हैं वहाँ इसका जो दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है उससे उबरने में लम्बा समय लगेगा। इस ‘लाक्डाउन’ में उन लोगों को पर तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव है जिनके पास घर बैठ कर परिवार के पालन पोषण के लिए समुचित संसाधन हैं। उनकी समस्या तो फ़िलहाल केवल समय काटने की है या फिर उन्हें भविष्य की चिंता है। 

पर ‘लाक्डाउन’ का सबसे ज़्यादा असर आम आदमी पर पड़ा है। जो रोज़गार की तलाश में अपने गाँव और जंगल छोड़ कर करोड़ों की तादाद में शहरों की गंदी बस्तियों में दिहाड़ी मज़दूर की तरह रह रहा है। इनके पास न तो पेट भरने को पैसे हैं और न तो घर लौटने को साधन। मजबूरी में ऐसे हज़ारों लोग कई दिन भूखे रह कर, अपनी पोटली सिर पर लाद कर, अपने गाँवों के लिए सपरिवार पैदल ही निकल पड़े हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को कुछ ऐसा करना चाहिए जैसा कि कांवड यात्रा के दौरान जगह जगह पड़ाव बनाए जाते हैं। इन पड़ावों में यात्रियों के लिए भोजन, आराम और कोरोना के जाँच की सुविधा भी होनी चाहिए जिससे कि संक्रमित व्यक्तियों को आगे जाने से रोका जाए और बचे हुए लोगों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित भेजा जा सके। इसके लिए प्रशासन को सेवानिवृत स्वास्थ्य अधिकारी, जैसे कि नर्स, डाक्टर इत्यादि की मदद लेनी चाहिए। 

पर महानगरों से कई सौ मील दूर बसे अपने गाँव पहुँचने के लिए इनके पास न तो शरीर में ताक़त है न ऊर्जा। इस भीड़ में बदहवास महिलाएँ और बच्चे भी हैं। इस महापलायन के हृदयविदारक चित्रों को देख कर कलेजा मुँह को आ जाता है। ज़्यादा सम्भावना इस बात की है कि ये बेचारे कहीं रास्ते में ही दम न तोड़ दें। इनके लिए सरकार को व्यापक प्रबंध करने चाहिए। फ़ौज के ट्रक इन्हें इनके गंतव्य तक पहुँचा सकते हैं। 

केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे लोगों की मदद के लिए अनेक कदम उठा रही हैं। पर हम जानते हैं जब कहीं प्राकृतिक विपदा जैसे बाढ़ या भूचाल आती है, तो राहत का ज़्यादातर पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। गरीब तक तो पहुँचता ही नहीं। 

दरअसल इन लोगों की ये समस्या आज नई पैदा नहीं हुई है। इसकी जड़ में है भारत के आर्थिक विकास का वो मॉडल जिसे आज़ादी के बाद लागू किया गया। यह सही है कि इस मॉडल ने भारत में आधारभूत ढाँचा खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई। परंतु इस दौड़ में गांधी जी का ग्राम स्वराज का मॉडल बहुत पीछे छूट गया। 

जबकि उस  मॉडल के अनुसार भारत के 5.5 लाख गाँवों को हर मामले में आत्मनिर्भर बनाना था। जैसे वे 200 साल की अंग्रेज़ी हुकूमत के पहले हुआ करते थे। पर यह नहीं हुआ। सारा ज़ोर उद्योगिकरण पर और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर दिया गया। जिसके कारण गाँवों में बेरोज़गारी की समस्या तेज़ी से बढ़ती गई। रोज़गार की तलाश में मजबूरन करोड़ों लोगों को अपने गाँवों से निकल कर शहर की गंदी बस्तियों में आ कर बसना पड़ा। जहां का जीवन तब भी नारकीय था और आज भी है। 

अगर गाँवो में रोज़गार मिल जाते तो बहुत कम संसाधनों में  लोग बिना सरकार पर बोझ बने रहते। गाँवों में शुद्ध हवा पानी व भोजन पा कर ये स्वस्थ और सुखी होते। तब न तो इन्हें नोटबंदी की मार पड़ती, न नारकीय बस्तियों में रहने की मजबूरी होती और न ही कोरोना के क़हर में बदहवास होकर पैदल गाँवों की ओर लौटना पड़ता। 

चिंता और दुःख की बात तो यह है कि हमारे नीति निर्माता आज भी चमक दमक वाले उसी विकास की ओर दौड़ रहे हैं जो आज बहुसंख्यक भारतीयों की बदहाली का कारण है।

हर देश का समझदार आदमी अपने घर में बंद बैठ कर आज ये महसूस कर रहा है कि हमारी जीवनशैली पृथ्वी के लिए ख़तरा बन चुकी है। इसमें अब पूरे बदलाव की ज़रूरत है। ऐसे में भारत के नीति निर्माताओं को गांधी जी की पुस्तक ‘ग्राम स्वराज्य’ को ध्यान से पढ़ कर, मनन करके, उस मॉडल की ओर सक्रिय हो जाना चाहिए। अन्यथा भविष्य में प्रकृति की मार फिर से बहुत भयावह हो सकती है। क्या हमारे हुक्मरान इस विषय पर गम्भीरता से चिंतन करेंगे? 


Monday, March 23, 2020

वैदिक जीवन पद्धति की ओर ढकेलेगा ‘करोना’

जब प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को थाली या ताली बजाने का आवाह्न किया, तो मैंने सोशल मीडिया पर अपील जारी की कि ‘‘जिन घरों, मंदिरों, आश्रमों और संस्थाओं के पास शंख है वे 22 मार्च की शाम 5 बजे से, 5 मिनट तक, घर के बाहर आकर लगातार जोर से शंख ध्वनि करें। ऐसा वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि शंख ध्वनि करने से वातावरण में उपस्थित नकरात्मक ऊर्जा और बैक्टीरिया का नाश होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर घर में सुबह शाम, पवित्रता के साथ, शंख ध्वनि करने की व्यवस्था हजारों वर्षों से चली आ रही है। जिसका हम, अपने घर में, आज भी पालन करते हैं। अगर देश की कुछ मेडिकल रीसर्च यूनिट्स चाहें तो तय्यारी कर लें। इस प्रस्तावित शंख ध्वनि के पहले और बाद में ये संस्थान अपने क्षेत्र में ‘करोना’ वाइरस पर इस ध्वनि के प्रभाव का अध्ययन भी कर सकते हैं। जिस तरह विश्व समुदाय ने मोदी जी की अपील पर योग दिवस और नमस्ते को अपनाया है वैसे ही इस प्रयोग के सफल होने पर शायद विश्व समुदाय सनातन धर्म की इस दिव्य प्रथा को भी अपना ले। तब हर घर से हर दिन सुबह शाम शंख ध्वनि सुनायी देने लगेगी’’।

आज पूरी दुनिया में हर वक्त हाथ धोने पर जोर दिया जा रहा है। जबकि वैदिक संस्कृति में ये नियम पहले से है कि जब कभी बाहर से घर पर आऐं, तो हाथ, मुँह और पैर अच्छी तरह धोऐं और अपने कपड़े धुलने डाल दें और घर के दूसरे वस्त्र पहनें। इसी तरह जन्म और मृत्यु के समय सूतक लगने की परंपरा है। जिस परिवार में ऐसा होता है, उसे अपवित्र माना जाता है और अगर बधाई देने या संवेदना प्रकट करने ऐसे घर में जाते हैं, तो उनके घर का पानी तक नहीं पीते और अपने घर आकर स्नान करके कपड़े धुलने डाल देते हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है, कि बाहर के वातावरण और ऐसे घरों में बीमारी के कीटाणुओं की बहुतायत रहती है। जिससे अपने बचाव के लिए यह व्यवस्था बनाई गई।

पश्चिमी देशों में हाथ धोने का कतई रिवाज नहीं है। चाहे वे जूते का फीता खोले या झाड़ू लगायें या बाहर से खरीदकर सामान घर पर लाऐं। वे लोग प्रायः हाथ नहीं धोते। उनके प्रभाव में हमारे देश में भी पढ़े-लिखे लोग इन बातों को दकियानुसी मानते हैं और इनका मजाक उड़ाते हैं। इतना ही नहीं अपनी संस्कृति में किसी का भी झूठा खाना वर्जित माना जाता है। प्रायः घरों में माता-पिता अपने अबोध बालकों का झूठा भले ही खाले लेकिन एक-दूसरे का झूठा कोई नहीं खाता। ठाकुरजी को भोग लगाने के पीछे भी यही विज्ञान है। जब आप ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तो स्वच्छ शरीर से ताजा भोजन पकाते हैं और उसमें औषधीय गुण वाला तुलसी का पत्ता डालकर भोग लगाते हैं। क्योंकि ठाकुरजी दोनों समय भोग लगता है, इसलिए घर में ताजा भोजन बनता है। जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता में झूठे और बासी का कोई विचार नहीं है। जोकि स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह बाहर के जूते-चप्पल पहनकर घर में घुसना हमारी संस्कृति में वर्जित है और हम इसका पालन करते हैं। जबकि आधुनिक लोग इसका मजाक उड़ाते हैं।  बिना ये समझे कि सड़क पर फैले कीटाणुओं और बीमारियों का संग्रह करके लाते हैं, हमारे जूते-चप्पल।

1978 में जब मैं जेएनयू में पढ़ने आया, तो मेरे संस्कार ब्रजवासी संस्कृति के थे। क्योंकि उपरोक्त सभी बातों का हमारे परिवार में तब भी पालन होता था और आज भी हम उसी तरह पालन करते हैं। मुझे यूनिवर्सिटी में ये देखकर बहुत झटका लगा कि कोई भी साथी किसी भी मित्र का झूठा खाना, पानी, कोल्ड्रिंक या चाय बड़े आराम से चख लेते हैं। हमसे आज भी यह नहीं होता।

पिछले हफ्ते खबर छपी कि ‘करोना’ के भय से सुनसान पड़ी इटली के मशहूर शहर ‘वेनिस’ की लहरों में अचानक हजारों मछलियाँ यहाँ तक कि डॉल्फ़िन मस्ती से घूम रही है। नहरों के किनारे बसे इस ऐतिहासिक शहर में सारे साल दुनियाभर के पर्यटक आते हैं। जिनके कारण इन नहरों का पानी गंदला रहता था। आज वेनिसवासी नीला साफ पानी और रंग-बिरंगी मछलियाँ देखकर आल्हादित् हैं।

हजारों की तादात में उड़ने वाले हवाई जहाजों के कारण हर बड़े शहर के आकाश पर काली धुंध छाई रहती थी। मात्र दो हफ्ते में ये धुंध काफी छट गई है और नीला आकाश साफ दिखाई दे रहा है। अचानक सैंकड़ों किस्म के पक्षी शहरों की ओर लौट रहे है। जिनका कलरव सुना जा सकता है। 

कुछ लोग सोशल मीडिया पर मजाक में लिख रहे हैं कि ‘करोना’ वाइरस नहीं है, बल्कि वैक्सीन (टीका) है। वायरस तो मानव जाति है, जिसने पृथ्वी के स्वास्थ्य को बीमार कर दिया है। हम जरा अपने गिरेबां में झांके, अंधाधुंध तेल-पैट्रोल का प्रयोग, कारखानों से उगलता धुंआ, नदियों में गिरते नाले, कभी न नष्ट होने वाले पैकेजिंग मैटीरियल के भंडार जो पृथ्वी की सांस घोंट रहे हैं। निर्माण के लिए पहाड़ों की बेर्दद तुड़ाई अैर वृक्षों का अंधाधुंध काटा जाना, खेती में रासायनिक उरर्वकों का अधिक प्रयोग और प्रकृति व मौसम के प्रतिकूल हमारी दिनचर्या इस सबने इस खूबसूरत धरती को बीमार कर दिया है। आज तो केवल ‘करोना’ ने अपना भयावह रूप दिखाया है। अभी ‘ग्लोबल वाॅर्मिंग’ के परिणाम जब सामने आऐंगे, तो दुनिया के हर समुद्र तटीय शहर में हाहाकार मच जाऐगा। भगवान श्रीकृष्ण की द्वारिका की तरह मालद्वीप जैसे देश कहां डूब जाऐंगे, पता भी नहीं चलेगा। साढ़े चार करोड़ वन्य जन्तु औस्ट्रेलिया के जंगलों की आग में जल गऐ। जापान का सुनामी और केदारनाथ की जल प्रलय को हम भूले नहीं है।


इसलिए ‘करोना’ ‘करूणावतार’ बनकर आया है। भगवान कृपा करें और इससे फैलने वाली महामारी पर नियंत्रण पाया जा सके। पर ये समय एकबार फिर अपनी जीवन दृष्टि पर चिंतन करने का है। जितना हम प्रकृति से दूर रहेंगे, उतना ही हमारा जीवन अप्रत्याशित खतरों से घिरा रहेगा। इसलिए ‘जब जागों तभी सवेरा’।

Monday, March 16, 2020

करोनाः मांसाहार खाने वालों सावधान!

जब से प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने योग, भगवत्गीता और वैदिक संस्कृति का प्रचार पूरे दमखम के साथ अंतर्राष्ट्रीय पटल पर किया है, तब से दुनिया के तमाम राष्ट्राध्यक्ष और नागरिक भारत की सनातन संस्कृति के प्रति पहले से अधिक उत्सुकता और सम्मान व्यक्त करने लगे हैं। मोदी जी न केवल नवरात्रि का व्रत रखते हैं, बल्कि किसी सरकारी भोज में मांस नहीं परोसने देते। आज विश्वभर में ‘करोना वायरस’ का आतंक है। अभी इसकी भयावहता का पूरा अनुमान नहीं है। भगवान करें कि ये आपात स्थिति नियंत्रण में आ जाऐ। अगर नहीं आई तो ये विश्व में लाखों लोगों को लील जाऐगी। इस संदर्भ में दो महत्वपूर्णं बाते सामने आई हैं एक तो ये कि अभिवादन के लिए हाथ मिलाना आज खतरे से खाली नहीं माना जा रहा। दूसरा इस वायरस का स्रोत मांसाहार है। इसलिए दुनियाभर में बहुत बड़ी तादाद नें फिलहाल मांसाहार का परित्याग कर दिया है। मोदी जी ने विश्व जनसमुदाय से अपील की है कि वे अभिवादन में अब भारतीय परंपरा के अनुसार ‘नमस्ते’ को अपना ले, जो एक सुरक्षित और विनम्र तरीका है। इजराइल के राष्ट्रपति और इंग्लैंड के प्रिंस चॉर्ल्ज ने ‘नमस्ते’ को सार्वजनिकरूप से स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही मोदी जी को चाहिए कि दुनियाभर से मांसाहार छोड़ने की अपील भी करें।

किसी शादी की दावत या नए साल की दावत में अगर माँस न हो तो यार दोस्त कहते हैं क्या घास-कूड़ा खिला दिया।

एक ओर जहां भारत के सभी महानगरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों में यह देखकर आश्चर्य होता है कि किस ललचाई नजरों से लोग मांसाहार के लिए आतुर रहते हैं। वहीं दूसरी ओर अगर आप देश के बहुत ही संपन्न लोगों की संगति में बैठे हों तो आप पाएंगे कि बहुत से बड़े लोग मांसाहार छोड़ते जा रहे हैं। और तो और अमरीका और यूरोप के देश जहां बीस वर्ष पहले तक शाकाहार का नाम तक नहीं जानते थे। वहीं आज काफी तादाद में लोग मांसाहार पूरी तरह छोड़ चुके हैं। जानते हैं क्यों ? पहली बात तो यह कि मानव शरीर शाकाहार के लिए बना है मांसाहार के लिए नहीं। यह बात हम अपनी तुलना शाकाहारी और मांसाहारी पशुओं से करने पर समझ सकते हैं। शेर, कुत्ता, घड़ियाल व भेड़िया मांसाहारी हैं। गाय, बकरी, बंदर व खरगोश शाकाहारी हैं। मांसाहारी पशुओं को कुदरत ने दोनों जबड़ों में तेज नुकीले कीलनुमा दांत और खतरनाक पंजे दिए हैं। जिनसे ये शिकार करके उसमें से मांस नोच कर खा सकें। पर गाय और बंदर की ही तरह मानव को कुदरत ने ऐसे दांतों और पंजों से वंचित रखा है, क्यों ? 

मांसाहारी पशु जैसे कुत्ता जीभ से पसीना टपकाता है। इसलिए हाॅफता रहता है। शाकाहारी पशुओं और मानव के बदन से पसीना टपकता है। मांसाहारी पशुओं की आंते काफी छोटी होती है ताकि मांस जल्दी ही पाखाने के रास्ते बाहर निकल जाए जबकि शाकाहारी जानवरों और मानव की आंते अनुपात में तीन गुनी बड़ी और ज्यादा घुमावदार होती है ताकि अन्न, फल, सब्जियों का रसा अच्छी तरह सोख ले। यदि आप मांसाहारी है तो आपने नोट किया होगा कि रेफ्रिजरेटर के निचले खाने में इतनी ठंडक होने के बावजूद मांस कुछ ही घंटों में सड़ने लगता है। फिर मानव शरीर की गर्मी में मांस के आंत में अटक-अटक चलने में इसकी क्या गति होती होगी, कभी सोचा आपने? वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि मांसाहारी पशुओं के आमाशय में जो तेजाब रिसता है वह शाकाहारी पशुओं और मानव के आमाशय में रिसने वाले तेजाब से बीस गुना ज्यादा तीखा होता है, ताकि मांस जल्दी गला सके। ऐसे तेजाब के अभाव में हमारे आमाशय में पड़े मांस की क्या हालत होती होेगी ?

भारत जैसे देश में, बहुसंख्यक आबादी किसी न किसी रोग से ग्रस्त है। हमारे शरीर में तरह-तरह की बीमारियां पल रही हैं, तो जो जानवर काटे जा रहे हैं उनके वातावरण, भोजन और रख-रखाव में जो नर्क से बदतर जिंदगी होती है, उससे कैसा मांस आप तक पहुंचता है? फिर आप तो जानते हैं कि भारत में कितना भ्रष्टाचार है। जिन भी इंस्पेक्टरों की ड्यूटी कसाईखानों में लगी होती है उनसे क्या आप राजा हरिशचन्द्र होने की उम्मीद कर सकते हैं? या वक्त के साथ-साथ चलने वाला होशियार आदमी। मतलब ये हुआ जो हाकिम यह देखने के लिए तैनात किए जाते हैं कि भयानक बीमारियों से घिरे हुए घायल या गंदे पशु मांस के लिए न काटे जाएं वो निरीक्षक ही अगर आंख बंद किए हुए हों तो आपकी क्या हालत हो रही है, आपको क्या पता ?

अक्सर तर्क दिया जाता है कि लोग मांसाहार नहीं करेंगे तो दुनिया में खाने की कमी पड़ जाएगी। पर क्या कभी सोचा आपने कि व्हेल मछली, हाथी, ऊॅट व जिराफ से बड़े कोई जानवर हैं? ये कभी भूखे पेट नहीं सोते। 

अमरीका के अर्थशास्त्रियों ने आंकड़ों से सिद्ध कर दिया है कि एक बकरा कटने से पहले जितना अन्न व सब्जी खाता है उससे एक परिवार का महीने भर का भोजन पूरा हो सकता है। जबकि काटने के बाद एक बकरे को एक परिवार दो-तीन वक्त में खा-पीकर निपटा लेता है। दुनिया भर में मांसाहारियों के लिए जानवरों को खिला-पिला कर मोटा किया जाता है और फिर काट दिया जाता है। यह तो आपको पता ही होगा कि विकसित देशों में गेंहू, सब्जियां, मक्खन, पनीर, पानी के जहाजों में भर कर दूर समुद्र में फेंका जाता है ताकि दुनिया में इनके दाम नीचे न गिरें। कहावत है कि दुनिया में सबके लिए काफी अन्न है पर लालचियों के लिए फिर भी कम है।

अमेरिकन मैडिकल एसोसिएशन के जर्नल ने यह छापा था कि अमरीका में दिल के दौरों से ग्रस्त होने वालों में 97 फीसदी मांसाहारी हैं। यानी शाकाहारी लोगों को दिल की बीमारी काफी कम होने की संभावना है। एक और मशहूर वैज्ञानिक शेलों रसेल ने 25 देशों के अध्ययन के बाद बताया कि इनमें से 19 देशों में कैंसर की मात्रा बहुत ज्यादा थी। यह सभी देश वो हैं जिनमें मांसाहार का प्रतिशत काफी ऊंचा है। एक भ्रांति है कि मांसाहार से ज्यादा ताकत मिलती है। हकीकत यह है कि मांस आधारित भोजन को पचाने में शरीर की बहुत ऊर्जा बेकार चली जाती है।

अब आते हैं शुद्ध विज्ञान पर। विज्ञान में एक सिद्धांत है कि हर क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। ‘एवेरी एक्शन हैज इक्वल एंड अपोजित रिएक्शन‘। याद रखिए ‘एक्शन’ यानी हर क्रिया की, तो पशु वद्ध करने की भी समान और विपरीत प्रतिक्रिया होगी। सनातन धर्म के शास्त्रों में लिखा है कि जीव हत्या करने वाले को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। शिकागो दुनियां की सबसे बड़ी मांस की कटाई और बिक्री वाला शहर है और दुनिया में सबसे ज्यादा मानव हत्याएं, चाकूबाजी और बलात्कार की वारदातें भी वहीं होते हैं। 

भगवान् श्रीकृष्ण गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहते हैं-

पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मंे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहम भक्त्युपह्तमश्रामि प्रयतातमनः।।

9वें अध्याय के इस 26वें श्लोक में भगवान् अपने शुद्ध भक्त और सखा अर्जुन से ये कहते हैं कि यदि कोई प्रेम तथा भक्ति से मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूं। याद रखिए भगवान् अन्न, फल ही स्वीकार करते हैं। पर आपको ऐसे तमाम लोग मिलेंगे जो कृष्ण, महावीर की अराधना का दावा करेंगे और जम कर मांसाहार करेंगे। यह जानते हुए भी कि हिंदु शास्त्रों में इसके भयंकर परिणाम बताए गए हैं।

ईसाई-धर्म की पवित्र-पुस्तक बाईबिल में ईसामसीह जीवों पर करूणा करने का आदेश देते हैं और मांसाहार को मना करते हैं। हर धर्म में दूसरे को कष्ट पहुंचाना पाप कर्म बताया गया है। तो जिस जीव को भोजन के लिए काटा जाए उसे क्या चाकू की धार गर्दन पर चलवाने में आनंद आता होगा ? फिर मांस का उत्पादन कितना महंगा है उसका एक उदाहरण है कि एक किलो मांस बनकर तैयार होने में कुदरत का पचास हजार लीटर पानी खर्च होता है और एक किलो गेंहू कुल आठ लीटर पानी में ही उपज जाता है।


गुरू ग्रंथ साहिब में गुरू श्री नानक देव कहते हैं कि यदि किसी घायल लाश के खून का छींटा तुम्हारे कपड़ों पर पड़ जाता है तो तुम कपड़ा बदल लेते हो। पर जब लाश को अपने शरीर के अंदर ले जाते हो तो तुम्हारा शरीर कितना गंदा हो जाता है, कभी सोचा सिंह साहब?

Monday, March 9, 2020

क्या केवल यस बैंक पर ही आ सकता है ऐसा संकट ?

यस बैंक से धन निकासी की सीमा तय करने के बाद खाताधारकों में दहशत का माहौल है। देशभर में इस बैंक की हर शाखा पर खाताधारकों की लंबी-लंबी कतारें लगी हैं। लोग हड़बड़ाहट में हंै। किसी को बीमार बेटे के इलाज के लिए पैसे की जरूरत पड़ी, लेकिन उसे पैसा नहीं मिल सका। किसी का बैंक में करोड़ों रुपया है, ऐसे में उन्हें पैसों के सुरक्षित रहने की चिंता सता रही है। घबराए ग्राहकों गुस्से में हैं, बैंक में हंगामा होने लगा है। इसको लेकर पुलिस बुलानी पड़ रही है। देश के अलग-अलग हिस्सों से ब्रांचों में हंगामे की खबरें आ रही हैं।

14 नवंबर 2016 को हमने बैंकों की असलियत पर एक लेख लिखा था। जो आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ के गहन शोध के बाद प्रकाशित एक सरल हिंदी पुस्तक ‘बैंकों का मायाजाल’ पर आधारित था। उस समय जो प्रश्न हमने उठाये थे, उन पर फिर से गौर करने की जरूरत है। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को दो हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगातार गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना-चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जाॅन. एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति, ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।



Monday, March 2, 2020

‘कॉंक्लेव’ से नहीं कर्मठ लोगों से हल होंगी समस्या

अक्सर देश के बडे़ मीडिया समूह, दिल्ली में राष्ट्रीय समस्याओं पर सम्मेलनों का आयोजन करते हैं। जिनमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेता और मशहूर विचारक भाग लेते हैं। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाऐ जाते है और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझे कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेकों को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्यायें इनके सामने तब भी वेसे ही खड़ी थी जैसे आज खड़ी हैं। इन नेताओं ने अपने शासन काल में ऐसे कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं उठाये जिनसे देशवासियों को लगता कि वो ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते है। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों कोे बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यों पर ये नेतागण आज घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं, उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मजे कि बात यह कि इन गिने चुने लोगों की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास ये कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते है कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे है वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह ये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते।            

यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रिकारिता से हटकर जनसम्पर्क की पत्रिकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रिकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्यायें है उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे है। ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती है और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न हीं उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुँचे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिपेक्ष में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहराई भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लोग मीडिया के कारोबार में आ गए है जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आये हैं। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेंलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हक में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

मिसाल के तौर पर ऐसे सम्मेलनों में अगर कोई भी मंत्री या सत्तापक्ष का नेता अगर कहता है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने के लिए प्रतिबद्ध है तो क्या वे अपनी इस कथनी को वास्तविकता का रूप दे रहे हैं? ताजा उदाहरण भारत सरकार के एक सार्वजनिक प्रतिष्ठान ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री अभय कुमार सिंह से सम्बंधित है। श्री सिंह के खिलाफ तमाम पुख्ता सुबूत और शिकायतों के बावजूद उन्हें मौजूदा सरकार के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से बिना किसी जाँच के न सिर्फ दोषमुक्त किया गया बल्कि उन्हें ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ के प्रबंध निदेशक पर नियुक्त किया गया है। श्री सिंह पर ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ में कई अनियमित्ताओं के आरोप हैं जिनके चलते  जहां एक ओर एनएचपीसी लिमिटेड को भारी नुकसान उठाना पड़ा और वहीं दूसरी ओर श्री सिंह की निजी जायदाद में काफी बढ़ोतरी हुई। सोचने वाली बात ये है कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए बनी सीबीआई और सीवीसी भी आँखें मूँद कर बैठी रही, और बिना किसी ठोस जाँच के ऐसे भ्रष्ट अधिकारी को ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ के सर्वोच्च पद पर जाने दिया गया। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 2014 में सत्ता में आए थे, तो उन्होंने ये साफ कह दिया था कि ‘न खाऊँगा न खाने दूँगा’ लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारी तंत्र में कुछ भ्रष्ट अधिकारी ऐसे हैं, जो प्रधानमंत्री जी के इस नारे को झूठा साबित करने में तुले हुए हैं और श्री अभय कुमार सिंह जैसे भ्रष्टाचारियों के हौसलों को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी! वो दिन दूर नहीं है कि जब किसी ईमानदार अधिकारी को इन भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में पता चलेगा और वे इसे प्रधानमंत्री के संज्ञान में लाएँगे।

दरअसल देश की समस्याओं के हल के लिए विदेशी विचारको की नहीं बल्कि स्वयं सिद्ध व मौलिक विचारों के धनी ऐसे देशी लोगों की आवश्यक्ता है जो वास्तव में इन समस्याओं के हल प्रस्तुत कर सकें। चिंता की बात यह कि ऐसे ठोस लोगों की बात सुनने के लिए बहुत कम लोग अपना मंच उपलब्ध कराते हैं। 

मोदी जी ने कई क्रंातिकारी और कड़े निर्णंय लेकर, अपने लौहपुरूष होने का प्रमाण दिया है। जिनमें से कुछ निर्णंयों के लाभ आज नहीं तो कल जनता के सामने आऐंगे। पर मुझे यह कहते हुए दुखः भी है और चिंता भी कि जहाँ उनकी सोच वैश्विक है और वे योग्यता और ‘प्रोफेशनल्ज़िम’ को वरियता देते हैं और स्वयं सिद्ध लोगों का सम्मान करते हैं, वहीं आज भी अनेक सतही और दलालनुमा लोगों का धंधा सरकारी परियोजनाओं में पुराने ढर्रे के अनुसार फल-फूल रहा है। जिन्हें नौकरशाही के भ्रष्ट सदस्यों और राजनीतिज्ञों का पूरा समर्थन प्राप्त है। सत्ता के अहंकारवश यह वर्ग कोई भी सही बात सुनने या सलाह मानने को तैयार नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि जनता सब देख-समझ नहीं रही। प्रमाण समाने है कि गत कई चुनावों में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी मतदाता भाजपा के प्रति उस तरह आकर्षित नहीं हुए, जैसा मोदी जी के नेतृत्व में आस्था होने के कारण, उसे होना चाहिए था। ये उनकेे लिए चिंता की बात होनी चाहिए।

एक बात जो मैं गत 30 वर्षों से हर नए प्रधानमंत्री को अपने लेखों के माध्यम से संबोधित करते हुए, लिखता आ रहा हूँ, वो एकबार फिर मोदी जी को सीधे संबोधित करते हुए कहना चाहता हूँ, ‘माननीय प्रधानमंत्रीजी! हर वो सम्राट महान कहलाया है, जिसके सलाहकार योग्य, ईमानदार और संवेदनशील रहे हैं। कोई भी राजा या शासक अकेले अपने बूते बहुत लंबे समय तक न तो राज कर सकता है और न लोकप्रिय बना रह सकता है। इसलिए उसे सही लोगों की जरूरत होती है। अगर इच्छा हो तो ऐसे लोगों को हर क्षेत्र में ढूढ़कर आपका मिशन पूरा करने के काम पर लगाया जा सकता है। पर ये पहल आपको ही करनी होगी। आपकी ‘रिफ्लैक्टेड ग्लोरी’ से दमकने वाले कभी ऐसे लोगों को आगे नहीं आने देंगे। जिससे उन्हें तो लाभ होगा पर आपको भारी हानि होगी। ये मेरा पिछले तीन वर्षों का मथुरा के विकास को लेकर चल रहे माहौल में अनुभव रहा है। निर्णंय आपको करना है।’

Monday, February 17, 2020

बेरोजगारी की बढ़ती समस्या

अभी हाल ही में प्रधान मंत्री ने संसद में काफी गम्भीरता से राहुल गांधी के ‘डंडे मार कर भगाने’ वाले बयान का जवाब दिया। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से लगातार इस सवाल को उठा रहे हैं। राहुल गांधी ने संसद में कहा कि हाल ही में पेश हुए आम बजट में भी सरकार ने बेरोजगारी पर कोई बात नहीं की। 

भारत सरकार के सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि भारत में पिछले पैतालीस वर्षों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी गत 4 वर्षों में हुई है। 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंता वाली बात ये है कि देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैसे अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई भी सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी ज्यादा भयावह है। इसके साथ ही यह समस्या भी गंभीर है कि इस बेरोजगारी ने करोड़ों परिवारों को आर्थिक संकट में डाल दिया है। जिन युवकों पर उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया था कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनकी हालत बहुत बुरी है। जिस पर गौर करना जरूरी है। 

अनुमान है कि देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है?

काले धन पर लगाम लगाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो साहसिक फैसले लिए। जिसका लाभ क्रमशः सामने आऐगा। फिलहाल इससे अर्थव्यस्था को झटका लगा है, उससे शहर का मध्यम और निम्न वर्ग काफी प्रभावित हुआ है। देश के अलग-अलग हिस्सों में उन व्यापारियों का कारोबार ठप्प हो गया या दस फीसदी रह गया, जो सारा लेनदेन नगद में करते थे। इतनी बड़ी तादाद में इन व्यापारियों का कारोबार ठप्प होने का मतलब लाखों करोड़ों लोगों का रोजगार अचानक छिन जाना है। इसी तरह ‘रियल इस्टेट’ की कीमतों में कालेधन के कारण जो आग लगी हुई थी, वो ठंडी हुई। सम्पत्तियों के दाम गिरे। पर बाजार में खरीदार नदारद हैं। नतीजतन पूरे देश में भवन निर्माण उद्योग ठंडा पड़ गया। ये अकेला एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें मजदूर, राजमिस्त्री, कारीगर, सुपरवाईजर, इलैक्ट्रशियन, प्लम्बर, बढ़ई, आर्किटैक्ट, इंजीनियर, भवन सामग्री विक्रेता और उसका सेल्स स्टाफ समेत एक लंबी फौज हर शहर और कस्बे में जुटी थी। सम्पत्ति की मांग तेजी से गिर जाने के कारण शहर शहर में भवन निर्माण का काम लगभग ठप्प हो गया है। इससे भी बहुत बड़ी संख्या मंे बेरोजगारी बड़ी है। इतना ही नहीं इन सबके ऊपर आश्रित परिवार भी दयनीय हालत में फिसलते जा रहे हैं। आए दिन कर्जे में डूबे युवा उद्यमी सपरिवार आत्महत्या जैसे दुखद कदम उठा रहे हैं। 

उधर बैंकों से लाखों करोड़ लूटकर विदेश भाग गऐ बड़े आर्थिक अपराधियों के कारण बैंकों ने अपना लेनदेन काफी सीमित और नियंत्रित कर दिया है। जिसके कारण बाजार में वित्तिय संकट पैदा हो गया है। इस माहौल में भविष्य की अनिश्चितता और पारस्परिक विश्वास की कमी के कारण निजी स्तर पर भी पैसा जुटाना व्यापारियों और उद्यमियों के लिए नामुमकिन हो गया है। जिसका सीधा प्रभाव बेरोजगारी बढ़ाने में हो रहा है। इस माहौल में मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाने के लिए कई उपाय कर रही है। पर अभी तक उसके सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। जो चिंता की बात है। अगर इसी तरह बेरोजगारी बढ़ती गई तो समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ने की सम्भावना और भी बढ़ जाऐगी। जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।

Monday, February 10, 2020

शिकारा: कश्मीरी प्रेम कथा

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये । 
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। 
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। 
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है । 
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं  ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। 
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर  कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है  गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। 
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। 
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग  करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।