Monday, February 17, 2020

बेरोजगारी की बढ़ती समस्या

अभी हाल ही में प्रधान मंत्री ने संसद में काफी गम्भीरता से राहुल गांधी के ‘डंडे मार कर भगाने’ वाले बयान का जवाब दिया। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से लगातार इस सवाल को उठा रहे हैं। राहुल गांधी ने संसद में कहा कि हाल ही में पेश हुए आम बजट में भी सरकार ने बेरोजगारी पर कोई बात नहीं की। 

भारत सरकार के सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि भारत में पिछले पैतालीस वर्षों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी गत 4 वर्षों में हुई है। 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंता वाली बात ये है कि देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैसे अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई भी सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी ज्यादा भयावह है। इसके साथ ही यह समस्या भी गंभीर है कि इस बेरोजगारी ने करोड़ों परिवारों को आर्थिक संकट में डाल दिया है। जिन युवकों पर उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया था कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनकी हालत बहुत बुरी है। जिस पर गौर करना जरूरी है। 

अनुमान है कि देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है?

काले धन पर लगाम लगाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो साहसिक फैसले लिए। जिसका लाभ क्रमशः सामने आऐगा। फिलहाल इससे अर्थव्यस्था को झटका लगा है, उससे शहर का मध्यम और निम्न वर्ग काफी प्रभावित हुआ है। देश के अलग-अलग हिस्सों में उन व्यापारियों का कारोबार ठप्प हो गया या दस फीसदी रह गया, जो सारा लेनदेन नगद में करते थे। इतनी बड़ी तादाद में इन व्यापारियों का कारोबार ठप्प होने का मतलब लाखों करोड़ों लोगों का रोजगार अचानक छिन जाना है। इसी तरह ‘रियल इस्टेट’ की कीमतों में कालेधन के कारण जो आग लगी हुई थी, वो ठंडी हुई। सम्पत्तियों के दाम गिरे। पर बाजार में खरीदार नदारद हैं। नतीजतन पूरे देश में भवन निर्माण उद्योग ठंडा पड़ गया। ये अकेला एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें मजदूर, राजमिस्त्री, कारीगर, सुपरवाईजर, इलैक्ट्रशियन, प्लम्बर, बढ़ई, आर्किटैक्ट, इंजीनियर, भवन सामग्री विक्रेता और उसका सेल्स स्टाफ समेत एक लंबी फौज हर शहर और कस्बे में जुटी थी। सम्पत्ति की मांग तेजी से गिर जाने के कारण शहर शहर में भवन निर्माण का काम लगभग ठप्प हो गया है। इससे भी बहुत बड़ी संख्या मंे बेरोजगारी बड़ी है। इतना ही नहीं इन सबके ऊपर आश्रित परिवार भी दयनीय हालत में फिसलते जा रहे हैं। आए दिन कर्जे में डूबे युवा उद्यमी सपरिवार आत्महत्या जैसे दुखद कदम उठा रहे हैं। 

उधर बैंकों से लाखों करोड़ लूटकर विदेश भाग गऐ बड़े आर्थिक अपराधियों के कारण बैंकों ने अपना लेनदेन काफी सीमित और नियंत्रित कर दिया है। जिसके कारण बाजार में वित्तिय संकट पैदा हो गया है। इस माहौल में भविष्य की अनिश्चितता और पारस्परिक विश्वास की कमी के कारण निजी स्तर पर भी पैसा जुटाना व्यापारियों और उद्यमियों के लिए नामुमकिन हो गया है। जिसका सीधा प्रभाव बेरोजगारी बढ़ाने में हो रहा है। इस माहौल में मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाने के लिए कई उपाय कर रही है। पर अभी तक उसके सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। जो चिंता की बात है। अगर इसी तरह बेरोजगारी बढ़ती गई तो समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ने की सम्भावना और भी बढ़ जाऐगी। जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।

Monday, February 10, 2020

शिकारा: कश्मीरी प्रेम कथा

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये । 
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। 
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। 
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है । 
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं  ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। 
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर  कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है  गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। 
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। 
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग  करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।

Monday, February 3, 2020

कुण्डों के जीर्णोंद्धार ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ कब तक ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भारत के पेयजल संकट की गंभीरता को समझा और इसीलिए पिछले वर्ष ‘जलशक्ति अभियान‘ प्रारंभ किया। इसके लिए काफी मोटी रकम आवंटित की और अपने अतिविश्वासपात्र अधिकारियों को इस मुहिम पर तैनात किया है। पर सोचने वाली बात ये है कि जल संकट जैसी गंभीर समस्या को दूर करने के लिए हम स्वयं कितने तत्पर हैं?

दरअसल पर्यावरण के विनाश का सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ता है। जिसके कारण ही पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछले दो दशकों में भारत सरकार ने तीन बार यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। तीनों बार यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आ गऐ।

सरकार ने पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की थी। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित रही। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व था कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँ। यह आसान काम नहीं है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए इसलिए तत्कालीन भारत सरकार की यह योजना विफल रही।

तब सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। हालत ये हो गई है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनमें कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। फिर ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी। पर इसमें भी राज्य सरकारें विफल रही। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ और उनमें जल संचय हुआ। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर जहाँ नौकरी ही जीवन का लक्ष्य है, वहाँ बेगार टाली जाती है। 

पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर सवा लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। सरकार और लोग, दोनों बराबर जिम्मेदार हैं। सरकार की नियत साफ नहीं होती और लोग समस्या का कारण बनते हैं, समाधान नहीं। हम विषम चक्र में फंस चुके हैं। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी।

पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बढ़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा। अन्यथा जापान के सुनामी, आस्ट्रेलिया के जंगलों में भीषण आग, केदारनाथ में बादलों का फटना इस बात के उदाहरण हैं कि हम कभी भी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

उ. प्र. के मथुरा जिले में विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा ‘द ब्रज फाउंडेशन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था में 2002 से मथुरा जिले के पौराणिक कुण्डों के जीर्णोंद्धार का एक व्यापक अभियान चलाया। जिसके कारण न केवल भूजल स्तर बढ़ा बल्कि यहां विकसित की गई जनसुविधाओं से स्थानीय समुदाय को एक बेहतर जीवन मिला, जो उन्हें आजादी के बाद आज तक नहीं मिल पाया था। इसका प्रमाण गोवर्धन परिक्रमा पर स्थित गाॅव जतीपुरा, आन्योर व मथुरा के जैंत, चैमुंहा, अकबरपुर, चिकसौली, बाद, सुनरख व कोईले अलीपुर आदि हैं। जहां द ब्रज फाउंडेशन ने फलदार बड़े-बडे हजारों वृक्ष लगाये और यह सब कार्य सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी आदेश’ के अनुरूप हुआ। जिसमें मथुरा प्रशासन और अन्य ब्रजवासियों ने सक्रिय सकारात्मक भूमिका निभाई। कुण्डों के जीर्णोंद्धार के मामले में प्रशासन की उपर्लिब्धयां उल्लेखनीय नहीं रही है, ऐसा स्वयं अधिकारी मानते हैं। इस दिशा में ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ को दूर करने के लिए 2009 से द ब्रज फाउंडेशन उ. प्र. सरकार से लिखित अनुरोध करती रही, कि कुण्डों के जीर्णोंद्धार की और इनके रखरखाव की स्पष्ट नीति निधार्रित करे, जिससे जल संचय के अभियान में स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी और योगदान बढ़ सके। पर आज तक यह नीति नहीं बनी। ग्रामीण जल संचय के मामले में द ब्रज फाउंडेशन ‘यूनेस्को’ समर्थित 6 राष्ट्रीय अवाॅर्ड जीत चुकी है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, नीति आयोग के सीईओ श्री अभिताभ कांत, अनेक केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री व भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी द ब्रज फाउंडेशन के द्वारा विकसित की गई इन परियोजना को देखने के बाद उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। बावजूद इसके कुछ स्वार्थीतत्वों ने द ब्रज फाउंडेशन पर मनगढं़त आरोप लगाकर ‘एनजीटी’ से उस पर दो वर्ष से हमला बोल रखा है। चिंता की बात ये है कि तमाम प्रमाण मौजूद होने के बावजूद एनजीटी तथ्यों से मुंह मोड़कर ऐसे आदेश पारित कर रही है, जिससे पर्यावरण और संस्कृति का तो विनाश हो ही रहा है, आम ब्रजवासी, संतगण और द ब्रज फाउंडेशन की समर्पित स्वयंसेवी टीम भी हतोत्साहित हो रही है और ये सब हो रहा है, तब जबकि मोदी जी ने जल संचयन के अभियान में हर नागरिक और स्वयंसेवी संस्था से आगे आकर सक्रिय योगदान देने का आवाह्न किया है। 

Monday, January 20, 2020

अमित शाह का बढ़ता ग्राफ

सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में है। जो हिंदू इन आन्दोलन से जुड़े हैं, वो या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले है। बहुसंख्यक हिंदू समाज चाहे शहरों में रहता है या गाँवों में, गृहमंत्री अमित शाह के निर्णयओं से अभिभूत है क्योंकि उसे लगता कि सरदार पटेल के बाद देश में पहली बार एक ऐसा गृहमंत्री आया है जो अपने निर्णय दमदारी के साथ लेता और उन्हें लागू करता है ।जिस पर उसके विरोध का कोई फर्क नहीं पड़ता। 

पिछले कुछ महीनों में जिस तरह के निर्णंय अमित भाई शाह ने लिये है, उनसे एक संदेश साफ़ गया है कि मौजूदा सरकार, हिंदूओं के मन में पिछले 70 सालों से जो सवाल उठ रहे थे, उनके जबाव देने को तैयार है। फिर चाहे वो कश्मीर में धारा 370 हटाने का सवाल हो या नागरिकता का मामला हो या तीन तलाक का मामला हो या समान नागरिक कानून बनाने का मामला हो। हर मामले में अमित शाह के नेतृत्व में जो निर्णंय लिये जा रहे है और जिन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति की मोहर लगी है, वो वही  हैं जो अब तक आम हिंदू के मन में घुटे रहते थे। उनका सवाल था कि जब हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों ? अल्पसंख्यकों के लिए अलग मान्यता क्यों? कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां विशेष राज्य का दर्जा क्यों? वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाऐं क्यों? 

इसी तरह के सवाल थे कि जब पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदूओं की आबादी लगातार घट रही है, तो हिंदूओं के लिए भारत सरकार कुछ क्यों नहीं करती ? इन सारे सवालों का ग़ुबार हर हिंदु के मन में भरा था, उसको बड़ी तेजी से निकालने का काम अब अमित शाह कर रहे हैं। ये सही है कि अमित शाह के काम करने का तरीका कुछ लोगों  को कुछ हद तक अधिनायकवादी लग सकता है। लेकिन जिस तरह वो अपने तर्को को लोकसभा की बहसों में पेश करते हैं और जिस तरह कानूनी जानकारों को भी अपने तर्कों से निरूत्तर कर देते हैं, उससे ये लगता है कि वे जल्दीबाजी में या बिना कुछ सोचे-समझे ये कदम नहीं उठा रहे हैं । बल्कि उन्होंने अपने हर कदम के पहले पूरा चिंतन किया है और उसको संविधान के दायरे में लाकर लागू करने की रणनीति बनाई है, ताकि उसके रास्ते में कोई रुकावट आए। 

अगर हम आजाद भारत के इतिहास पर नजर डालें तो जैसा मैंने कई बार सोशल मीडिया पर भी लिखा है कि नक्सलवाद जैसी आतिवादी विचारधारा का जन्म बंगाल की वामपंथी दमनकारी नीतियों के विरूद्ध हुआ था। जो भी सरकार केंद्र या प्रांत में होती है, जब तक उसका विरोध प्रखर नहीं होता तब तक वो उसे बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन देखने में आया है कि जब-जब विरोध प्रखर होता है और सत्ता में बैठा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री या जो दल है वो मजबूत होता है तो उसकी प्रतिक्रिया प्रायः हिसंक होती है। इसके अपवाद बहुत कम मिलते हैं। जो लोग आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर आतिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, उनको इस बात पर भी विचार करना चाहिए क्या पिछली सरकारों में ऐसी घटनाऐं नहीं हुई थी? मसलन जब बोफोर्स विवाद चल रहा था तब 1987 में इण्डियन एक्सप्रेसके पत्रकारों पर तेजाब किसने और क्यों फिकवाया था? ये बहुत ही गंभीर मामला था। लेकिन उसे आज हम भूल जाते हैं। 

इसी के साथ एक दूसरा विषय ये भी है कि जो योग्यता के सवाल को लेकर जैसे जवाहरलाल नेहरू विवि. में ही प्रश्न उठाये गये कि कुलपति के द्वारा अयोग्य लोगों की भर्तियां की जा रही है। क्या वामपंथी ये कह सकते हैं कि जब उनका प्रभाव था तब क्या सारी भर्तियां योग्यता के आधार पर ही हुई थी? तब क्या वामपंथियों ने अयोग्य लोगों की भर्तियां नहीं करी? 

इसी तरह एक प्रश्न और सामान्य भारतीय के मन में आता है वो ये कि आज बहुत बड़ी तादाद में मुसलमान सड़कों पर तिरंगा झण्डा लहरा रहे हैं और
जनगणमन गा रहे हैं और उन्हें इस बात की भी खुशी है कि बहुत सारे हिंदू भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये लड़ाई लड़ रहे हैं। पर क्या ये एकजुटता है वो हमेशा रहने वाली है? अगर हमेशा रहने वाली है, तो इसका अतीत क्या है ? कश्मीर में जब हिंदूओं को, खासकर जब कश्मीरी पण्डितों को आतंकित करके रातो-रात निकाला गया, पूरी कश्मीरी घाटी को हिंदूओं से खाली करवा लिया गया, उस वक्त इस तरह की एकजुटता क्यों नहीं दिखी? हिंदू और मुस्लिम एक साथ कश्मीरी पण्डितों के लिए सड़कों पर पिछले 30 सालों में कितनी बार निकले ? जिस वक्त श्रीनगर के लाल चौक  पर रोज़ तिरंगे झण्डे जलाऐ जा रहे थे, उस वक्त कितने मुसलमानों ने शेष भारत में सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया कि ये हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, इसे न जलाया जाऐ? कितनी बार ऐसा हुआ है कि मोहर्रम के ताजिए या रामलीला की शोभायात्रा में बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। ये सही कि दंगे भड़काने का काम राजनैतिक दल और स्वार्थीतत्व करते आऐ हैं। लेकिन समाज के स्तर पर अगर दोनों में इतनी सहानुभूति और समझ है तो फिर उसका प्रदर्शन सामान्य समय पर देखने को क्यों नहीं मिलता? इसलिए ऐसा लगता है क्योंकि इस समय मुसलमान असुरक्षित हैं महसूस कर रहे हैं इसलिए उनका देशप्रेम झलक रहा है।

भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में बसे हुए हिंदुओं का ये कहना है कि जब दुनिया में मुसलमानों के 58 देश हैं तो एक अकेला भारत हिंदू राष्ट्र क्यों न बने ? दुनिया के सबसे पुराने धर्म का एक भी देश दुनिया में नहीं है। क्योंकि हिंदू धर्म स्वभाव से ही उदारवादी होता है, इसलिए भारत में इतने सारे धर्म पनपते चले गये। वे ये प्रश्न भी करते हैं कि भारत में गैर हिंदूओं को जो छूट मिली है, वो क्या किसी मुसलमान देश में हिंदूओं को मिल सकती है ? 

इसके साथ ही एक भावना जो विश्व में फैल रही है, वो ये कि मुसलमान जिस देश में भी जाते हैं, वहां अपने धर्म का प्रभाव बढ़ाने मे ंजुट जाते हैं। जिससे समाज में अशान्ति पैदा होती है। इसलिए पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि साम्यवादी चीन तक में मुसलमानों पर सरकार की पाबंदियाँ बढ़ाई जा रही हैं। इसलिए मुसलमानों के समझदार और उदारवादी वर्ग को आत्मचिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसे कैसे रोका जाऐ। तुर्की और इंडोनेशिया उदारवादी इस्लाम के बेहतरीन नमूने हैं। 

जहाँ तक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बल प्रदर्शन का आरोप है तो यह बात इसाई धर्म पर भी लागू होती है। जिसने मध्य युग में तलवार के जोर पर बाईबल का प्रचार किया और अपने उपनिवेशों पर तमाम अत्याचार किये। केवल हिंदू, बौद्ध, सिक्ख और जैन धर्म ही ऐसे है, जो भारत में जन्में और जिनका प्रचार-प्रसार अहिंसक तरीके से अपने दर्शन की गुणवत्ता के कारण हुआ। बावजूद इसके गत कुछ शताब्दियों में हिंदू धर्म का विधर्मियों ने जमकर मजाक उड़ाया और उसकी मान्यताओं को बिना परखे नकार दिया। हिंदू मन तो आहत हुआ ही समाज पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा। अमित शाह की नीतियाँ इसीलिए दुनियाभर के हिंदूओं को प्रभावित कर रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अंततः अब भारत हिंदू राष्ट्र बनेगा।

Monday, January 13, 2020

क्या भारतवासियों को जल्दी ही पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित शारदापीठ के दर्शन होंगे ?

आज हमारे कार्यालय में शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ  पधारे। उन्होंने इस विषय में निम्न जानकारी दी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल था 2,22,236 वर्ग किलोमीटर जिसमें से चीन और पाकिस्तान ने मिलकर लगभग आधे जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा किया हुआ है और भारत वर्ष के पास केवल 1,02,387 वर्ग किलोमीटर कश्मीर भूमि शेष है। जम्मू-कश्मीर के जो भाग आज हमारे पास नहीं हैं उनमें से गिलगिट, बाल्टिस्तान, बजारत, चिल्लास, हाजीपीर आदि हिस्से पर पाकिस्तान का सीधा शासन है और मुज़फ्फराबाद, मीरपुर, कोटली और छंब आदि इलाके हालांकि स्वायत्त शासन में हैं परंतु ये इलाके भी पाक के नियंत्रण में हैं।

पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।

जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 

चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।

माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे।

शास्त्रों में एक बड़ी रोचक कथा मिलती है कि कथित निम्न जाति के एक व्यक्ति को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उस दम्पति ने शांडलि रखा। शांडलि बड़े प्रतिभावान था। उनसे जलन भाव रखने के कारण ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवित संस्कार करने से मना कर दिया। निराश शांडलि को ऋषि वशिष्ठ ने माँ शारदा के दर्शन करने की सलाह दी और उनके सलाह पर जब वो वहां पहुँचे तो माँ ने उन्हें दर्शन दिया उन्हें नाम दिया ऋषि शांडिल्य। आज हिन्दुओं के अंदर हरेक जाति में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है।

हिन्दू धर्म का मंडन करने निकले शंकराचार्य जब शारदापीठ पहुँचे थे तो वहां उन्हें माँ ने दर्शन दिया था और हिन्दू जाति को बचाने का आशीर्वाद भी। उन्हीं माँ शारदा की कृपा से कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया था जब वो उनके दर्शनों के लिये वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने बाप सिकंदर द्वारा किये हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की किताबों में आता है कि माँ शारदा की उपासना में वो इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी।

भारत के कई हिस्सों में जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तो बटु को कहा जाता है कि तू शारदा पीठ जाकर ज्ञानार्जन कर और सांकेतिक रूप से वो बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे बढ़ता है और फिर कुछ समय पश्चात् इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वो विद्वान् बनकर वहां से लौट आ रहा है।

एक समय था जब ये सांकेतिक संस्कार एक दिन वास्तविकता में बदलता था क्योंकि वो बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था मगर आज दुर्भाग्य से हमारी "माँ शारदा" हमारे पास नहीं है और हम उनके पास जायें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है तो शायद अब यज्ञोपवीत की ये रस्म सांकेतिक ही रह जायेगी सदा के लिये । संतों, भक्तों  कशमीरी पंडितों की भारत सरकार माँग है कि हमको शारदापीठ की मुक्ति चाहिये, हमको शारदा पीठ तक जाना है, हमें दुनिया को बताना है कि "केवल शारदा संस्कृति ही कश्मीरियत" है और इसलिये शारदापीठ पर भारत का पूर्ण नियंत्रण हो ऐसी मांग उठाई जा रही है।  

जब तक ये नहीं होता कम से कम तब तक करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तर्ज़ पर "शारदादेवी कॉरिडोर" अविलम्ब आरंभ हो इसकी मांग की जा रही है।

शारदा पीठ मंदिर एक स्थानीय लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसे मंदिर की वास्तुकला की शास्त्रीय कश्मीरी शैली में बनाया गया है। यह एक पहाड़ी पर है और पत्थर की सीढ़ी के माध्यम से एक मोटी पत्थर की दीवार और खंडहर गेटवे के अवशेषों से यहाँ प्रवेश किया जाता है ।

खंडहर एक आयताकार क्षेत्र को घेरते हुए दिखाई देते हैं, जिसके एक बिंदु पर इसके कोनों को कम्पास के कार्डिनल बिंदुओं के साथ जोड़ दिया गया होगा। मंदिर योजना में वर्गाकार है, और एक चौकोर चबूतरा है, जिसका द्वार पश्चिम की ओर है। मैदान और प्रवेश द्वार के बीच पाँच चरण हैं, जो एक बिंदु पर एक अर्ध-छत वाली छत होती, जिसके पीछे एक ट्रेओफिल आर्क लगा होता था, जो आंतरिक गर्भगृह तक ले जाता था। आज, यह क्षेत्र आकाश के संपर्क में है। संभवत: इसलिए कि आर्किटेक्ट दीवारों के बाहर मैदान को नापसंद करते हैं या इसलिए कि अगर स्‍पायर ढह गया, तो भी एक आगंतुक यह बता सकेगा कि मंदिर मूल रूप से कैसा दिखता था। इसका डिजाइन सरल है । डिजाइन की सादगी का मतलब है कि स्थानीय उपासकों के लिए मार्तंड सूर्य मंदिर के लिए एक सादे वास्तुशिल्प के रूप में मंदिर को डिजाइन किया गया था (या अधिक संभावना है, बाद में पुनर्निर्माण किया गया)। मार्तंड सूर्य मंदिर और मालोट किले दोनों को समान रूप से डिजाइन किया गया है । जनरल परवेज़ मुशारफ़ ने इसके विकास के लिए धन स्वीकृत किया था । जिससे इसके आस पास का क्षेत्र विकसित किया गया । पर मूल मंदिर अभी भी ध्वस्त है । स्थानीय मुसलमान भी इसे शारदा माई का मंदिर कहते हैं और चाहते हैं कि ये पुनः आबाद हो और यहाँ साल भर हिंदू दर्शनार्थी आएँ और अपना सालाना उत्सव भी करें ।

Monday, January 6, 2020

बजट के पहले की दुविधा

2020 का बजट असाधरण परिस्थितियों में आ रहा है। सरकार पर चारों तरफ से दबाव हैं। अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती के दौर में चैतरफा दबाव होते ही हैं। वैसे सरकार ने अपने तईं हर उपाय करके देख लिए। हालात अभी भले ही न बिगड़े हों लेकिन अर्थव्यवस्था के मौजूदा लक्षण सरकार को जरूर चिंता में डाले होंगे। 

यह पहली बार हुआ है कि सरकार ने संजीदा होकर बजट के पहले हर तबके से सुझाव मांगे। हालांकि ज्यादातर सुझाव आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाले तबके यानी उद्योग व्यापार की तरफ से आए। अब देखना यह है कि इस बार के बजट में सरकार किस तरफ ज्यादा घ्यान देती है।

अर्थशास्त्र की भाषा में समझें तो अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्र हैं। एक विनिर्माण, दूसरा सेवा और तीसरा कृषि। उद्योग व्यापार का नाता सिर्फ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से ही ज्यादा होता है। जाहिर है कृषि को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाती। क्योंकि कृषि को असंगठित क्षेत्र ही समझा जाता है। इसीलिए उस पर ध्यान देने की जिम्मेदारी सरकार की ही समझी जाती है। अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती के मौजूदा दौर में कृषि पर कुछ ज्यादा ध्यान देने की बात उठाई जा सकती है।

माना जाता रहा है कि कृषि की भूमिका आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने में ज्यादा नहीं होती है। उद्योग व्यापार की हिस्सेदारी जीडीपी में तीन चैथाई से ज्यादा है जबकि कृषि की एक चैथाई से कम है। मोटा अनुमान है कि जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ सोलह से अटठारह फीसद ही बचा है। अब सवाल यह है कि जीडीपी में अपने योगदान की मात्रा के आधार पर ही क्या कृषि की अनदेखी की जा सकती है?

हम कृषि प्रधान देश इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि देश की आधी से ज्यादा आबादी इसी में लगी है। जीडीपी में अपने योगदान के आधार पर न सही लेकिन लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में अपने आकार के आधार पर उसे अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण न मानना समझदारी नहीं है। उस हालत में जब उद्योग व्यापार को ताबड़तोड़ राहत  पैकेज देकर देख लिए गए हों फिर भी मनमुताविक असर अर्थव्यवस्था पर न पड़ा हो तब कृषि को महत्वपूर्ण मानकर देख लेने में हर्ज नहीं होना चाहिए।

एक बहस हो सकती है कि कृषि की उपेक्षा कभी भी नहीं हुई। सरकार कृषि क्षेत्र पर होने वाले खर्च का हवाला दे सकती है । प्रश्न है कि कृषि पर जो खर्च किया जाता है वह क्या सीधे सीधे कृषि और कृषि उत्पादकों के तन को लगता है। महंगे उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्रों के विनिर्माण और कृषि उत्पादों के व्यापार जैसी मदों पर खर्च को कृषि के खाते में जोड़कर कुल रकम बड़ी दिख सकती है। सिंचाई के पहले से बने आधारभूत ढांचे के रखरखाव या गांव की सड़कों पर खर्च को कृषि पर खर्च दिखाना भी इसमें शामिल है। जबकि इस समय की  जरूरत किसानों की जेब तक सीधे सीधे राहत पहुंचाने की है। अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखें तो किसान अपनी बड़ी आबादी के कारण देश का सबसे बड़ा उपभोक्ता माना जा सकता है। अगर यह मान लिया गया है कि भारतीय बाजार मांग की कमी का शिकार हो गया है तो किसान को उपभोक्ता मानने से बचना समझदारी नहीं है।

तो क्या किसान को एक बड़ा उपभोक्ता मानकर बजट में कोई प्रावधान किया जा सकता है? बहस करने वाले यह तर्क भी दे सकते हैं कि किसानों को बड़ा राहत पैकेज देने से उनमें मुफतखोरी व राजकोषीय घाटा बढ़ेगा ।जवाब में किसान पक्ष के विशेषज्ञ सवाल पूछ सकते हैं कि चुनिंदा उद्योग व्यापार तबके को बड़े राहत पैकेज देने से क्या वह घाटा नहीं होता ? रही बात उद्योग व्यापार बढ़ाने के जरिए अर्थव्यवस्था को तेज भगाने की , तो पिछले तीन चार महीनों में ऐसा करके देखा चुका है। पता चल रहा है कि उत्पादन बढ़ाने में दिक्कत नहीं है बल्कि दिक्कत यह है कि बाजार में ग्राहक ही नहीं है। यानी इस रहस्य को समझा जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती का मुख्य कारण देश के उपभोक्ताओं की जेबें ख़ाली हो जाना है। 

उपभोक्ताओं का सबसे बड़ा तबका अगर गांव को मान लिया जाए तो अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद लगाई जा सकती है। आखिर किसानों, गांव के मजदूरों और गरीबों की जेब में अगर पैसा पहुंचा दिया जाए तो वह पैसा घूमफिर कर उद्योग व्यापार और शहरी बाजार में ही तो पहुंचता है। देश दुनिया के तमाम अर्थशास्त्री अपने अपने अंदाज में यही सुझाव दे रहे हैं।

खासतौर पर ग्रामीण बेराजगारी पर ध्यान टिकाकर चमत्कारी असर पैदा किया जा सकता है। वैसे इस सिलसिले में पहले से ही मनरेगा कानून बना रखा है। इस मद में ज्यादा सरकारी खर्च बढ़ाने पर किसी तरह का राजनीतिक एतराज भी नहीं किया जा सकता।सरकार के पक्ष के लोग कह सकते हैं कि किसान और गांव तक सीधे सीधे धन पहुंचाने का काम तो उसने किया तो है। वे जनधन खातों  के जरिए 500 रूप्ए महीना उनके खाते में पहुंचाने का हवाला दे सकते हैं। मौजूदा सरकार की इस योजना को साल भर हो चुका है। लेकिन इस भारीभरकम योजना के क्रियान्वयन में अब तक जितनी अड़चने आती रही हैं उससे ग्रामीण उपभोक्ताओं तक पर्याप्त धन पहुंचने पर सवाल उठ रहे हैं। सुपात्र किसानों की पहचान का कागजी काम परेशान कर रहा है।फिर लगता है इस योजना का एलान व उसके लिए प्रावधान सालभर के लिए ही हुआ था। अब जब अगले साल का बजट पेश होने को है तो इस बारे सरकार अगर कुछ नया सोच रही होगी तो उसे बहुत अच्छी बात कही जाएगी। 

दशकों बाद यह स्थिति बनी है जिसमें यह पता नहीं चल रहा है कि देश के मध्यवर्ग की क्या स्थिति है। महंगाई काबू में रहने की बात बार बार दोहराई जा रही है। सरकार का दावा सही भी हो सकता है कि इस समय महंगाई काबू में है। लेकिन इस बात का पता नही ं चल रहा है देश के मध्यवर्ग की आमदनी की क्या स्थिति है। मध्यवर्ग राजनीतिक तौर पर भी संवेदनशील होता है। लिहाज़ा इस बार के बजट में भी मध्यवर्ग पर ज्यादा गौर किए जाने की संभावनाएं तो बहुत ही ज्यादा हैं। लेकिन इस चक्कर में अंदेशा यही है कि  कहीं देश का बहुतायत उपभोक्ता यानी किसान और खेतिहर मजदूर न छूट जाएं।

Monday, December 30, 2019

जरा मुसलमान भी सोचें !

आज पूरे देश में उथल पुथल मची है। इसके केंद्र में है मुसलमानो को लेकर भाजपा की सोच। जो हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं।

दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। 

चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। 

किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ  होती है। यातायात अवरुद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडियां अटक जाती हैं, जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनीतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। 

जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबियों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक-आध बार किसी पर्व पर हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढना, दूसरे धर्मावलंबियों को स्वीकार नहीं है। बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुम्बई में शिवसेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुम्बई एक सीधी लाइन वाला शहर है, जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुम्बई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुम्बई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रुकावट न हो। 

लगभग दो दशक पहले की बात है, मुंबई के मुसलमान भाइयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरुद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहेब ठाकरे के पास गए। बाला साहेब ने हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब यह आरती तो दिन में 2 बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुम्बई पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। नतीजतन मुम्बई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ यह सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढ़ेंगे और न ही हिन्दू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं। 

अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकत्र्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आस-पास के राज्यों में भी हुआ। पिछले साल 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली। एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिन्दू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी एजैंडा तय हो गया। 

मैंने पूछा, ‘‘कैसे’’? तो उनका उत्तर था-भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिन्दू और मुसलमानों का राजनीतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिन्दू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमानों के मोहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिन्दू मत एकजुट होते जाएं। 

उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नए-नए मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है, इसमें कुछ गलत नहीं। अब यह तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनीतिक दल का आकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर। चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि धर्म का इस तरह राजनीतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वह कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनीतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। 

चाहे फिर वह समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक ही तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? 

अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, के इशारों पर नाचकर हम अविवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं., तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए सामाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है, जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जाएगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा तथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

अनुभव बताता है कि जो राजनीतिक दल धर्म की राजनीति करते हैं उनकी भी उस धर्म के मूल सिद्धांतों में कोई आस्था नहीं होती। वो भी धर्म के प्रतीकों का दुरुपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही करते हैं। अगर उनसे तर्क वितर्क किया जाय तो वो जल्दी ही मान लेते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और है । यही हाल अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का ढिंढोरा पीटेने वालों का भी होता है। फिर वो चाहें गांधीवादी विचारधारा हो, साम्यवादी हो या समाजवादी हो। ये सब एक सब ढकोसला है और मतदाताओं को लुभाने की युक्ति मात्र है। 

समस्या तब उत्पन्न होती है जब विचारधारा का झंडा लेकर चलने वाले दल समाज के एक वर्ग को इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि लोग अपना विवेक खोकर अंध भक्त बन जाते हैं । उन्हें होश तब आता है जब  वे लुटपिट चुके होते हैं । तब तक राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर चुके होते हैं। 

ये भारत की ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति करने वालों की कहानी है। इसलिए आम जनता को अपने विवेक, समझ व अनुभव पर निर्भर रहकर निर्णयकरने  चाहिये। इसी में उसकी भलाई है।