Monday, December 1, 2014

यथार्थवादी हो भारत की पड़ौस नीति

बराक ओबामा गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि बनने आ रहे हैं | इसी से भारत में काफी उत्साह है | भावुक लोग यह मान बैठे हैं कि अमरीका ने अपनी विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन करके पाकिस्तान की तरफ से मुंह मोड़ लिया है | अब वो केवल भारत का हित साधेगा | लेकिन ऐसा सोचना भयंकर भूल है | अमरीका की विदेश नीति भावना से नहीं ज़मीनी हकीकत से तय होती है | वह अपनी पाकिस्तान और अफगनिस्तान नीति में जल्दबाजी में कोई परिवर्तन नहीं करने जा रहा |

यही बात जापान पर भी लागू होती है | भारत मान बैठा था कि जापान चीन के मुकाबले भारत का साथ देकर भारत को मजबूत करेगा | पर अचानक जापान ने अपना रवैया बदल दिया | जापान ने आजतक भारत के पूर्वोतर राज्यों, जिनमे अरुणाचल शामिल है, को विवादित क्षेत्र नहीं माना | इसीलिए उसने पूर्वोतर राज्यों में आधारभूत ढांचा जैसे सीमा के निकट सड़क, रेल, पाईप लाइन डालने जैसे काम करने का वायदा किया था | भारत खुश था कि इस तरह जापान भारत की मदद करके अपने दुश्मन चीन से परोक्ष रूप में युद्ध करेगा | पर ऐसा नहीं हुआ | जापान ने अचानक अरुणाचल को विवादित क्षेत्र मान लिया है और यह कह कर पल्ला झाड लिया कि विवादित क्षेत्र में वह कोई विकास कार्य नहीं करेगा | दरअसल जापान को समझ में आया कि वह दूसरों की लड़ाई में खुद के संसाधन क्यों झोंके | जबकि उसके पास टापुओं के स्वामित्व को लेकर पहले ही चीन से निपटने के कई विवादित मुद्दे हैं | इस तरह हमारी उम्मीदों पर पानी फिर गया |

जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपनी सीमाओं पर आधारभूत ढांचा खुद ही विकसित करते | जिससे हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता | उधर चीन ने यही किया | 1986-89 की अरुणाचल की घटना के बाद, जब हमारी फौजों ने 1962 में मैकमोहन लाइन के पास वाले छोड़ दिए गये क्षेत्रों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया तो चीन को एक झटका लगा | यह कब्ज़ा अधिकतर वायु सेना की भारी मदद से हुआ और आर्थिक दृष्टि से देश को काफी महंगा पड़ा | जिसका प्रभाव हमारी अर्थवयवस्था पर पड़ा और हमारी विदेशी मुद्रा के कोष कम हो गए | चीन नहीं चाहता था कि भारत ऐसी क्षमता का पुनः प्रदर्शन करे | इसलिए उसने तिब्बत में सीमा के किनारे आधारभूत ढाँचा तेज़ी से विकसित किया | पठारी क्षेत्र होने के कारण उसके लिए यह करना आसान था | जबकि अरुणाचल का पहाड़ कमज़ोर होने के कारण वहां लगातार भूस्खलन होते रहते हैं जिससे सड़क मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और वहां की भौगोलिक दशा भी हमारे जवानों के लिए बहुत आक्रामक हैं | जहां अरुणाचल की सीमा की दूसरी तरफ आधारभूत ढांचे के कारण चीनी सेना पूरे साल डटी रहते है वहीं हमारे जवानों को इस सीमा पर जाकर अपने को मौसम के अनुकूल ढालने की कवायत करनी होती है | जिससे हमारी प्रतिक्रिया धीमी पड़ जाती है | 

दरअसल हमारे राजनेता विदेश नीति को घरेलू राजनीति और मतदाता की भावनाओं से जोड़कर तय करते हैं, ज़मीनी हकीकत से नहीं | इसलिए हम बार-बार मात खा जाते हैं | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि वे जो भी कहें उसमे ज़मीनी सच्चाई और कूटनीति का संतुलित सम्मिश्रण हो |
अब सीमा पर आधारभूत ढांचे के विकास की ही बात को लें तो हमारे नेताओं के हाल में आये बयान इस बात को और स्पष्ट कर देंगे | जहां चीन ने यही काम करते समय दुनिया के किसी मंच पर कभी यह नहीं कहा कि वह ऐसा भारत के खिलाफ अपनी सीमा को सशक्त करने के लिए कर रहा है| उसने तो यही कहा कि वह अपने सीमान्त क्षेत्रों का आर्थिक विकास कर रहा है | जबकि भारत सरकार के हालिया बयानों में यही कहा गया कि सीमा पर रेल या सड़कों का जाल चीन से निपटने के लिए किया जा रहा है | यह भड़काऊ शैली है जिससे लाभ कम घाटा ज्यादा होता है | 

हकीकत यह है कि हमारी सेनाओं के पास लगभग 2 लाख करोड़ रूपए के संसाधनों की कमी है | जिसकी ख़बरें अख्बारों में छपती रहती हैं | अपनी इस कमजोरी के कारण हम अपने पड़ौसीयों पर दबाव नहीं रख पाते | जिसका फायदा उठा कर वे हमारे यहां अराजकता फैलाते रहते हैं | जरूरत इस बात की है कि हमारी विदेश नीति केवल नारों में ही आक्रामक न दिखाई दे बल्कि उसके पीछे सेनाओं की पूरी ताकत हो | तभी पड़ौसी कुछ करने से पहले दस बार सोचेंगे | विदेश नीति का पूरा मामला गहरी समझ और दूरदृष्टि का है, केवल उत्तेजक बयान देने का नहीं |

Monday, November 24, 2014

ज़रूरत नई रोजगार नीति की


बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती दिख रही है। अपने देश के लिए वैसे तो यह समस्या शाश्वत प्रकार की है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनसनीखेज तथ्य यह है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की समस्या ज्यादा गंभीर है। अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

    जैसा पहले कहा गया है कि बेरोजगारी का नया रूप पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी का है और ज्यादा भयावह है। इसके साथ यह बात बड़ी तीव्रता से जुड़ी है कि जिन युवकों या उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनके निवेश की बात पर गौर जरूरी है। 

    देश के औसत जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में अनुमानित हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

    पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

    यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है? 

Monday, November 10, 2014

ऐसे नाटक ज्यादा घातक



दिल्ली भाजपा के अधयक्ष सतीश उपाध्याय और उनके साथ शाजिया इल्मी के स्वच्छता अभियान वाले नाटक से नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को बड़ी चोट पहुंची है | यह मामला वैसे तो कोई बड़े महत्त्व का नहीं है लेकिन नई सरकार के आने के बाद जिन कार्यक्रमों की जोर-शोर से शुरुवात करने की कोशिश हुई है उसकी कमज़ोर कड़ियाँ दिखने लगी हैं |
दिल्ली के चमचमाते इलाके में ऐसे आयोजन की आखिर ज़रूरत क्या आन पड़ी थी ? इस सिलसिले में कोई अगर यह कहे कि उपाध्याय को यह इलाका किसी ने अपने हिसाब सुझा दिया होगा और उपाध्याय ने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत आने वाले किसी भी आयोजन के लिए बिना सोचे समझे हामी भर दी होगी तो यह बात गले नहीं उतरती | टीवी चैनलों पर जिस तरह से व्यंग और उपहास करते हुए पहले सूखे पत्ते और फूल बिखेरते हुए दिखाया गया और बाद में उपाध्याय के साथ इल्मी को झाड़ू लगाने के समारोह में भाग लेते हुए दिखाया गया उससे तो पूरे अभियान पर सवाल उठाना स्वाभाविक है | इतने महत्वपूर्ण और सार्थक अभियान के मकसद पर उठ रहे सवाल सभी को सोचने को मजबूर कर रहे हैं |
कोई ऐसा भी कह सकता है कि नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता वाले इस अभियान का यह प्राथमिक चरण है | यानी यह सिर्फ योजना बनाने वाला चरण है | लिहाज़ा योजना बनाने में ऐसे अंदेशों का भी निराकरण कर लिया जायेगा | लेकिन यहाँ इस बात पर गौर ज़रूरी है कि दिल्ली अब विधान सभा चुनाव की तैयारियों के दौर में पहुँच चुकी है | ऐसे में दिल्ली भाजपा अधयक्ष की छीछालेदर होना छोटी बात नहीं है | अनुमान कर सकते हैं कि भाजपा के केन्द्रीय स्तर पर इसे ज़रूर ही लेखे में ले लिया गया होगा |
इस प्रकरण के बहाने हमारे पास स्वच्छता अभियान के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं पर कहने का मौका है | वैसे महीने भर पहले 6 अक्टूबर को इसी कॉलम में इसी मुद्दे पर लिखा गया था | वह 2 अक्टूबर के 4 दिन बाद का समय था | यानी तब स्वच्छता के प्रति नई सरकार की गंभीरता के रुझान बताने की शुरुआत थी | तब इस कॉलम में लिखा गया था कि सडकों और गलियों में फैले कूड़े कचरे को समेट कर एक जगह ढेर बना देने से काम पूरा नहीं हो सकता | समस्या इलाके से निकले कूड़े को शहर या गाव से बाहर फेंकने की है और उससे भी बड़ी समस्या यह कि गाव या शहर के बाहर कहाँ फेंके ? पिछले तीस साल में हर तरह से सोच के देख लिया गया और पाया गया कि कूड़े के अंतिम निस्तारण के लिए कोई भी विश्वसनीय उपाय उपलब्ध नहीं हो पाया है | जितने भी निरापद उपाय सोचे गए वे इतने खर्चीले हैं कि बेरोज़गारी और महंगाई सी जूझता देश वह खर्चा उठा नहीं सकता | अब यदि स्वच्छता को नई सरकार की प्राथमिकता में रखा ही गया है तो सबसे पहले योजनाकारों को यह हिसाब लगाना होगा कि इतने महत्वपूर्ण अभियान के लिए हम कितने धन का प्रबंध कर सकते हैं ? हो सकता है कि पांच महीने पुरानी हो गयी नई सरकार के बड़े अफसरों ने बड़ी तेज़ी से काम करके यह हिसाब लगा लिया हो | लेकिन नई सरकार की पहल या उसके क़दमों का पल-प्रतिपल हिसाब रखने वाले मीडिया में इस बारे में कोई सूचना दिखाए नहीं दी |
लोगों के बीच होने वाली बातों को देखें तो नरेंद्र मोदी के इरादों पर लोग अभी भी यकीन कर रहे हैं | बहुमत के साथ बनी सरकार का अर्थ ही ये है कि ज्यादातर लोग मन से चाहते हैं कि नई सरकार की योजनाएं परीयोजनाएं सफल हों | और अगर वे ऐसा चाहते हैं तो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाने में लोग पीछे क्यों रहेंगे ? और इस बात से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अभिनेता या बड़े नेता या दूसरे सेलिब्रिटी सड़कों पर झाड़ू लगाते दिख रहे हैं या नहीं दिख रहे | वैसे ये मनोविज्ञान का मामला है | प्रचार में अभिनेताओं – नेताओं के इस्तेमाल की बात ठीक भी हो सकती है | फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि जागरूकता का लक्ष्य हासिल करने के बाद हमें कूड़े कचरे के जो बड़े बड़े ढेर उपलब्ध होंगे उनका निस्तारण हम कैसे करेंगे ?
अभियान का औपचारिक एलान हुए महीना भर हुआ है | अगर अभियान वाकई जोर पकड़ गया तो हमें फ़ौरन ही ठोस कचरा प्रबंधन का कोई नवोनवेशी उपाय ढूंढना पड़ेगा | बेहतर हो कि कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में शोध परियोजनाएं अभी से शुरू कर ली जाएँ और कचरा प्रबंधन के लिए संसाधनों के इंतज़ाम पर सोचना शुरू कर दिया जाए | अभी से हिसाब लगा लिया जाए कि स्वच्छता अभियान को प्राथमिकता सूची में कहाँ रखा जाए | इन सुझावों को अभियान के पूर्व की सतर्कता की श्रेणी में रखा जा सकता है वरना उपाध्याय और इल्मी जैसे और भी प्रकरण सामने आते रह सकते हैं | कूड़े कचरे के बड़े बड़े ढेरों के पास कोई भी नहीं फटकना चाहेगा |

Monday, November 3, 2014

विकास का निरापद मॉडल

मथुरा में किसानों के हिंसक आंदोलन की तीव्रता पर सोच विचार करना ही पड़ेगा, वैसे जल प्रबंधन की परियोजनाओं के साथ जुड़ी विस्थापन की समस्या कोई नई बात नहीं है। इस लिहाज से यह घटना या कांड भी कोई बड़ी हैरत की बात नहीं है। चाहे बड़े बांध या बैराज से होने वाले विस्थापन हो या औद्योगिक विकास से होने वाले विस्थापन हों, देश ने पिछले 30 साल से इस समस्या के कई रूप देखें हैं।
आजादी के बाद से अब तक हम विकास के निरापद  माॅडल की तलाश में ही लगे हैं। मथुरा के गोकुल बैराज का मामला भी कोई ऐसा अनोखा मामला नहीं है, जिसकी तीव्रता या उसके साथ जुड़ी समस्याओं के बारे में पहले से पता न हो यानी इस मामले में समस्या के रूप या उसके समाधान के लिए बहुत ज्यादा सोच विचार की जरूरत नहीं दिखती। क्या हुआ ? क्यों हुआ ? कौन जिम्मेदार है ? इसकी जांच पड़ताल के मलए सरकारी, गैर सरकारी, मीडिया और विशेषज्ञों के स्तर पर कवायद होती रहेगी। और हर समस्या के समाधान की तरह इसका भी समाधान निकलेगा ही। लेकिन इस कांड के बहाने हम जल प्रबंधन से संबंधित परियोजनाओं की निरापद व्यवहार्यता की बात कर सकते हैं। कुछ तथ्य हैं। खासतौर पर मथुरा-वृंदावन से जुड़ी समस्या से जुड़े वे तथ्य जो हमें अपनी जल नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करते हैं।
अगर हम गोकुल बैराज से जुड़ी समस्या के इस पहल को देखें कि ऐसे बैराज हमारे लिए कितने अपरिहार्य हैं, तो लगे हाथ हमें हथिनीकुंड बैराज की याद आती है। इस बैराज से यमुना को मुक्त कराने का आंदोलन भी पनप रहा है। समाज के एक तबके की नदी के निरंतरता की मांग है। जब इस मांग का आगा पीछा सोचा जाएगा, तो बड़े हैरतअंगेज तथ्य सामने आएंगे।
दूसरा ऐतिहासिक तथ्य तुगलक सल्तनत में बने दिल्ली के सतपुला बैराज का है। कोई छह सौ साल पहले मुहम्मद तुगलक का बनाया यह बैराज आज भी भव्य दर्शनीय स्थल है, लेकिन उसकी उस समय की उपयोगिता और आज उसके पूरे जलग्रहण क्षेत्र में बनी कालोनियां बनने के बाद की स्थिति चैकाने वाले तथ्य मुहैया करवा रही है। पिछले दिनों पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणाली के अध्ययन में लगी संस्थाओं और उनके विशेषज्ञों ने शुरुआती तौर पर यह समझा है कि मुहम्मद तुगलक की दूरदर्शिता के इस नमूने ने कम से कम पांच सौ साल तक अपनी उपयोगिता को बनाए रखा होगा। लेकिन यहां इसका जिक्र इसलिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि राजधानी के बीच में एक बड़े नाले पर इतना विशाल निर्माण करवाने में उसके सामने कितनी चुनौतियां आई होंगी। हालांकि वह सल्तनत का समय था। शासक या प्रशासक की इच्छा या आदेश का कोई विकल्प नहीं हो सकता था। लेकिन कई इतिहासकार बता रहे हैं कि अपने समय में प्रजा का असंतोष झेलते रहे शासक के प्रति धारणाएं बदलनी पड़ रही है।
चैथा तथ्य यह है कि विज्ञान के पथ पर तेजी से जा रहे देश में बारिश के पानी को रोककर रखने की जगह नहीं बची। चालीस करोड़ हैक्टेयर मीटर बारिश के पानी में से सिर्फ दस फीसद पानी को रोकने की क्षमता ही हम हासिल कर पाए हैं और तमाम जल संचयन संरचनाएं मिट्टी/गाद से पटती जा रही हैं और उनको पुनर्जीवित करने के लिए भारी भरकम खर्च का इंतजाम हम नहीं कर पा रहे हैं। विकल्प सिर्फ यही सुझाया जाता है कि हमें नए बांध या बैराज या तालाब या झीलें चाहिए। इसके लिए जगह यानी जमीन मुहैया नहीं है। अब तक का और बिल्कुल आज तक का अनुभव यह है कि नदियों के चैडे़-चैड़े पाट दिखते हैं। जिन्हें जगह-जगह दीवार खड़ी करते हुए पानी रोक लें, इन्हें वियर कहते हैं और जब इस दीवार में खुलने बंद होने वाले दरवाजे लगा लेते हैं, उसे बैराज कहते हैं।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ इसी उधेड़बुन में लगे हैं कि नदियों में ही जगह-जगह बैराज बनाकर हम बारिश का कितना पानी रोक सकते हैं ? लेकिन मथुरा में गोकुल बैराज और उसके कारण विस्थापन या प्रभावित जमीन की समस्या विशेषज्ञों और जल प्रबंधकों को डरा रही है। यानी जलनीति के निर्धारकों को अब नए सिरे से नवोन्वेषी विचार विमर्श में लगना पड़ेगा कि पानी की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कौन-सा उपाय निरापद हो सकता है।

Monday, October 20, 2014

मनरेगा की सार्थकता पर सवाल

जब से यूपीए सरकार ने मनरेगा योजना चालू की, तब से ही यह कार्यक्रम विवादों में रहा है। यूपीए सरकार का मानना यह था कि आजादी के बाद से गरीबों के विकास के लिए जितनी योजनाएं बनीं, उनका फल आम आदमी तक नहीं पहुंचा। इसलिए गरीब और गरीब होता गया। खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सन् 1984 में कहा था कि दिल्ली से गया विकास का 1 रूपया गांव तक पहुंचते-पहुंचते 14 पैसे रह जाता है, यानि 86 फीसदी पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। इसलिए यह नई योजना बनायी गयी, जिसमें भूमिहीन मजदूरों को साल में न्यूनतम 200 दिन रोजगार देने की व्यवस्था की गई। अगर कहीं रोजगार उपलब्ध नहीं है, तो उसे उपलब्ध कराने के लिए कुंड खोदना, कुएं खोदना या सड़क बनाना जैसे कार्य शुरू करने की ग्राम प्रधान को छूट दी गई। उम्मीरद यह की गई थी कि अगर एक गरीब आदमी को 200 दिन अपने ही गांव में रोजगार मिल जाता है, तो उसे पेट पालने के लिए शहरों में नहीं भटकना पड़ेगा। गांव के अपेक्षाकृत सस्ते जीवन उसके परिवार का भरण-पोषण हो जायेगा। हर योजना का उद्देश्य दिखाई तो बहुत अच्छा देता है, पर परिणाम हमेशा वैसे नहीं आते, जैसे बताए जाते हैं।
मनरेगा के साथ भी यही हुआ। बहुत गरीब इलाकों के मजदूर, जो पेट पालने के लिए पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बड़ी तादाद में जाते थे, वे जब दिवाली की छुट्टी पर घर गए, तो लौटकर नहीं आए। सूरत की कपड़ा मिलों में, महाराष्ट्र के कारखानों में और पंजाब के खेतों में काम करने वाले मजदूरों का टोटा पड़ गया। हालत इतनी बिगड़ गई कि जो थोड़े बहुत मजदूर इन इलाकों में पहुंच जाते, उन्हें रेलवे स्टेशन से ही धर दबोचने को उद्योगपति और किसान स्टेशन के बाहर खड़े रहते। कभी-कभी तो उनके बीच मारपीट भी हो जाती थी। मतलब ये कि इन इलाकों में इतनी ज्यादा गरीबी थी कि थोड़ा सा रोजगार मिलते ही लोगों ने पलायन करना छोड़ दिया। पर शेष भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी।
ज्यादातर राज्यों में मनरेगा निचले स्तर पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं और सरकारी कर्मचारियों की कमाई का धंधा बन गया। ऐसी बंदरबाट मची कि मजदूरों के नाम पर इन साधन संपन्न लोगों की चांदी हो गई। मजदूरों से 200 दिन की मजदूरी प्राप्त होने की रसीद पर अंगूठे लगवाए जाते और उन्हें 10 दिन की मजदूरी देकर भगा दिया जाता। वे बेचारे यह सोचकर कि बिना कुछ करे, घर बैठे आमदनी आ रही है, तो किसी के शिकायत क्यों करे, चुप रह जाते। अंधेर इतनी मच रही है कि मनरेगा के नाम पर जो विकास कार्य चलाए जा रहे हैं, वे केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। धरातल पर कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिर भी देश-विदेश के कुछ जाने-माने अर्थशास्त्री इस बात पर आमदा है कि इतने बड़े भ्रष्टाचार का कारण बना यह कार्यक्रम जारी रखा जाए। वे चेतावनी देते हैं कि अगर मनरेगा को बंद कर दिया, तो गरीब बर्बाद हो जाएंगे, भुखमरी फैलेगी, धनी और धनी होगा। इसलिए इस कार्यक्रम को जारी रखना चाहिए। इन अर्थशास्त्रियों में ज्यादातर वामपंथी विचारधारा के हैं। जिनका मानना है कि गरीब को हर हालत में मदद की जानी चाहिए। चाहे उस मदद का अंश ही क्यों न सही जगह पहुंचे। पर सोचने वाली बात यह है कि अगर ऐसी खैरात बांटकर आर्थिक तरक्की हो पाती, तो दो दशक तक पश्चिमी बंगाल पर हावी रहे वामपंथी दलों क्यों बंगाल के गरीबों की गरीबी दूर नहीं कर पाए ?

वैसे भी यह मान्य सिद्धांत है कि भूखे को रोटी देने से बेहतर है, उसे रोटी बनाने के लायक बनाना। मनरेगा यह नहीं करता। यह तो बिना कुछ करे भी रोजी कमाने की गारंटी देता है, इसलिए यह समाज के हित में नहीं। ठीक जिस तरह अंग्रेज भारत को अंग्रेजीयत का गुलाम बनाकर चले गए और आज तक हमारा उल्लू बना रहे हैं। उसी तरह यूपीए सरकार के थिंक टैंक ने मनरेगा को पार्टी कार्यकर्ताओं की सुविधा विस्तार का उपक्रम बना लिया। इसलिए धरातल पर इसके ठोस परिणाम नहीं आ रहे हैं।
आज से 30 बरस पहले सन् 1984 में लंदन के एक विश्वविद्यालय में रोजगार विषय पर बोलते हुए मैंने भारत की खोखा संस्कृति पर प्रकाश डाला था। मैंने वहां युवाओं को बताया कि भारत के ग्रामीण बेरोजगार युवा बिना किसी कालेज या पाॅलीटैक्निक में जाए केवल अपनी जिज्ञासा से हुनर सीख लेते हैं। किसी कारीगर के चेले बन जाते हैं। कुछ महीने बेगार करते हैं। पर जब सीख जाते हैं, तो उसी हुनर की दुकान शहर के बाहर, सड़क के किनारे एक लकड़ी के खोखे में खोल देते हैं। फिर चाहे चाय की दुकान हो, स्कूटर कार मरम्मत करने की हो या फिर किसी और मशीन को मरम्मत करने की। पुलिस वाले इनसे हफ्ता वसूलते हैं। बाजार के निरीक्षक इन्हें धमकाते हैं। स्थानीय प्रशासनिक संस्था इनकी दुकान गिरवाती रहती हैं। फिर भी ये हिम्मत नहीं हारते और अपने परिवार के पालन के लिए समुचित आय अर्जित कर लेते हैं। दुर्भाग्य से इनकी समस्याओं का हल ढूढ़ने का कोई प्रयास आज तक सरकारों ने नहीं किया।
जरूरत इस बात की है कि सरकार हो या बड़े औद्योगिक घराने, इन उद्यमी युवाओं की छोटी-छोटी समस्याओं के हल ढूढ़ें। जिससे देश में रोजगार भी बढ़े और आर्थिक तरक्की भी हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाल ही में इस मुद्दे में विशेष ध्यान देना शुभ संकेत है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मनरेगा से बंटने वाली खैरात की जगह आम लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की कवायद की जाएगी। जिससे गरीबी भी दूर होगी और बेरोजगारी भी।

Monday, October 13, 2014

कैसे सुधरे धर्मस्थलों का स्वरूप

आर्थिक मंदी और तेजी के दौर आते जाते रहते हैं। पर धर्म एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कभी आर्थिक मंदी नहीं आती। कड़वी भाषा में बोंले तो धर्म का कारोबार हमेशा बढ़ता ही रहता है। धर्म कोई भी हो, उसकी संस्थाओं को चलाने वालों के पास पैसे की कमी नहीं रहती। भारत की जनता संस्कार से धर्मपारायण है। गरीब भी होगा, तो मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे में अपनी हैसियत से ज्यादा चढ़ावा चढ़ाएगा। फिर तिरूपति बालाजी में 5 से 10 करोड़ रूपये के मुकुट चढ़ाने वालों की तो एक लंबी कतार है ही। फिर भी क्या कारण है कि भारतीय धर्मनगरियों का बुरा हाल है ?
 
कूड़े के अंबार, तंग गलियां, ट्रैफिक की भीड़, प्रदूषण, लूटपाट, सूचनाओं का अभाव और तमाम दूसरी विसंगतियां। बयान बहुत लोग देते हैं, सुधरना चाहिए ये भी कहते हैं। दर्शन या परिक्रमा को बड़े-बड़े वीआईपी आते हैं और स्थानीय जनता और मीडिया के सामने लंबे-चैड़े वायदे करके चले जाते हैं। न तो कोई प्रयास करते हैं और न पलटकर पूछते हैं कि क्या हुआ? जो कुछ होता है, वो कुछ व्यक्तियों के या संस्थाओं के निजी प्रयासों से होता है। सरकारी तंत्र की रोड़ेबाजी के बावजूद होता है। स्थानीय नागरिकों की भी भूमिका कोई बहुत रचनात्मक नहीं रहती। छोटे-छोटे निहित स्वार्थों के कारण वे सुधार के हर प्रयास का विरोध करते हैं, उसमें अडंगेबाजी करते हैं और सुधार करने वालों को उखाड़ने में कसर नहीं छोड़ते।
जहां तक सरकारी तंत्र की बात है, उसके पास न तो इन धर्मनगरियों के प्रति कोई संवेदनशीलता है और न ही इन्हें सुधारने का कोई भाव। अन्य नगरों की तरह धर्मनगरियों को भी उसी झाडू से बुहारा जाता है। जिससे सुधार की बजाय विनाश ज्यादा हो जाता है। पर कौन किसे समझाए ? कोई समझना चाहे, तब न ? मुख्यमंत्री बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाकर योजनाओं की घोषणा कर देते हैं। पर क्या कभी उन योजनाओं के क्रियान्वयन की सार्थकता, गुणवत्ता और सततता पर कोई जांच की जाती है ? नहीं। की जाती, तो बनते ही कुछ महीनों में इन स्थलों का पुनः इतनी तेजी से विनाश न होता। एक नहीं दर्जनों उदाहरण है। जब केंद्र सरकार, अंतर्राष्ट्रीयों संगठनों या निजी क्षेत्र से करोड़ों-अरबों रूपया वसूल कर स्थानीय प्रशासन धर्मनगरी के सुधार के लंबे-चैड़े दावे करता है, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। यह क्रम जारी है। किसी राज्य में ज्यादा, किसी में कम। इसे पलटने की जरूरत है। प्रधानमंत्री अकेले कोई धर्मनगरी साफ नहीं कर सकते। इसके लिए तो एक समर्पित टीम चाहिए। जिसे स्थानीय मुद्दों और इतिहास की जानकारी हो। यह टीम कार्यक्रम बनाए और वही उसके क्रियान्वयन का मूल्यांकन करे और फिर कोई समर्पित स्वयंसेवी संस्था उस स्थान की दीर्घकाल तक देखरेख का जिम्मा ले। तभी धरोहरों की रक्षा हो पाएगी, तभी धर्मस्थान सुरक्षित रह पाएंगे। वरना, सैकड़ों-करोड़ों रूपया खर्च करके भी कुछ हासिल नहीं होगा।
मथुरा जिले के बरसाना कस्बे में गहवर वन के पास एक दोहिनी कुण्ड है। जहां राधारानी की गायों का खिरक था। वहां राधारानी अपनी गायों का दूध दोहती थीं। एक दिन वहां कौतुकी कृष्ण आ गए और राधारानी को दूध दोहने की विधि समझाने लगे। उन्होंने ऐसा दूध दोहा कि दोहिनी कुण्ड दूध से भर गया। फिर ये सैकड़ों साल उपेक्षित और खण्डर पड़ा रहा। तब ब्रज फाउण्डेशन ने इसकी गहरी खुदाई करवायी। इसके घाटों का पत्थर से निर्माण करवाया और फिर इसके चहू ओर विकास की योजना बनाकर भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को भेज दी। वहां से सवा करोड़ रूपया स्वीकृत हुआ। टेण्डर मांगे गए और एक नकली फर्म चलाने वाले धोखेबाज आदमी को एल-वन बताकर उसके क्रियान्वयन का ठेका दे दिया गया। जब इसकी शिकायत की गई, तो भारतीय पर्यटन विकास निगम के कई अधिकारी इस भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए। ठेका निरस्त हो गया। अब यही ठेका उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने निकाला और जयपुर के एक ठेकेदार को ठेका मिला। उसने आधे-अधूरे मन से जो काम किया, वह हृदयविदारक था। सवा करोड़ लगने के बाद दोहिनी कुण्ड आज लावारिस और उजड़ा पड़ा है। जो कुछ ढांचे बनाए गए थे, वो सब भी ढहने लगे हैं। जबकि इस कुण्ड का लोकार्पण अभी डेढ़-दो साल पहले ही हुआ है। इसी तरह अन्य धर्मनगरियों के भी उदाहरण मिल जाएंगे।
 
ऐसे में पर्यटन और तीर्थांटन की योजनाओं में अमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। जो संस्था या व्यक्ति पूरी समझ, निष्ठा और समर्पण के साथ इन धर्मनगरियों को समझता हो और जिसने कोई ठोस काम करके दिखाया हो। ऐसे लोगों को योजना बनाने की, उसके क्रियान्वयन की और उन स्थलों की दीर्घकाल तक देखरेख की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। जिसके लिए प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी कुछ क्रान्तिकारी निर्णय लेने होंगे। जिससे नए विचारों को खाद, पानी मिल सके और जो नौकरशाही 60 बरस से सत्ता चला रही है, उसे यह पता चले कि उनसे कम संसाधनों में भी कितना बढ़िया, ठोस और स्थाई काम किया जा सकता है।
 

Monday, October 6, 2014

सफाई की समस्या का व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा

देश में नई सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी शुरू हो गयी हैं | पिछले हफ्ते स्वच्छता की बात उठी | जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भोचक हैं | खास तौर पर इस बात पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया | जबकि अबतक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए हम हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं|

देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई ? 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखे चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई ही है | और उधर 7 लाख गावों को इस अभियान से जुड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं | यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी | महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सर्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाय |

गांधी जयन्ती पर नई सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखे उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गयी है | यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जबतक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तबतक कुछ नहीं होगा | इस खुद ख्याल रखने की बात पर गौर ज़रूरी है |

शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सर्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों / गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’ यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाय ?

निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ रहा है | ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जलसंसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं | इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं| आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए ? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें ?

गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का धनत्व बढ़ गया है | गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था | अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए | इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं |

यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं | चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयमसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए तो दिखते हैं लेकिन सफाई जैसी बहुत छोटी ? या बहुत बड़ी ? समस्या पर ‘चिंताशील’ कोई नहीं दिखता | अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन ज़रूर दिखाई देते हैं | विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मलेन होते ज़रूर हैं लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता | ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो | और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते | जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है | विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रोद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दुसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा पायेगा |