Monday, April 30, 2012

सचिन बने सांसद! हंगामा क्यों है बरपा?

सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में लाकर कांग्रेस आलाकमान ने राजनैतिक हलकों में हड़कम्प मचा दिया। किसी को उम्मीद न थी कि क्रिकेट के अपने कैरियर के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोत्तम दौर में सचिन इस तरह रातों-रात सांसद बन जाऐंगे। वो भी तब जब उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। जहाँ कांग्रेस के लोगों के बीच में इस बात को लेकर उत्साह है कि सचिन कांग्रेस के लिए युवाओं के मन में जगह बनाएंगें, वहीं कांग्रेस के आलोचक मानते हैं कि इन शगूफों से कांग्रेस की छवि बदलने वाली नहीं। अगर ऐसा है तो क्यों आलोचक सचिन के सांसद बनने पर इतने बौखलाऐं हुए हैं? एक टी.वी. चर्चा में तो सचिन को ‘डेमोगोग’ तक बता दिया गया। जबकि ‘डेमोगोग’ वो होता है जो समाज के एक असंतुष्ट वर्ग की भावनाऐं भड़काकर व्यवस्था ध्वस्त करने की अवैध कोशिश करता है। ‘डेमोगोग’ की इससे भी तीखी परिभाषा मशहूर दार्शनिक अरस्तू ने दी थी। जिसने समाज में ऐसी तथाकथित क्रांति करने वाले को अवैध नेता करार दिया था। इस परिभाषा से सचिन तेंदुल्कर ‘डेमोगोग’ दूर-दूर तक नजर नहीं आते। एक सीधा-साधा क्रिकेट खिलाड़ी अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर अन्तर्राष्ट्रीय खेल जगत का सितारा बन गया, उससे जनता को भड़काने या व्यवस्था के खिलाफ क्रांति करवाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पर आलोचकों का सचिन तेंदुलकर पर इस तरह हमला करना यह जरूर दर्शाता है कि उन्हें डर है कि कहीं कांग्रेस 2014 के चुनाव में सचिन से फायदा न उठा ले। इधर कांग्रेस में इस बात की पूरी तैयारी की जा रही है कि धीरे-धीरे ऐसे कई कदम उठाए जाऐं, जिनसे कांग्रेस की छवि चुनाव तक सुधरती चली जाए।
पर सवाल उठता है कि राज्यसभा में किसी को मनोनीत कर भेजे जाने का क्या उद्देश्य होता है? संविधान निर्माताओं ने यह प्रावधान समाज के उन विशिष्ट लोगों के लिए रखा था, जो अपने कार्यकलापों से राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा योगदान करते हैं, किंतु किसी राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पाते। ऐसे लोगों के अनुभव और ज्ञान का उपयोग कानून के निर्माण की प्रक्रिया में किया जा सके। इसलिए उनके मनोनयन की व्यवस्थ की गई है। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो सचिन का व्यक्तित्व और रूचि दूर-दूर तक कानून की प्रक्रिया में नहीं है। ऐसी भी संभावना है कि पूर्ववर्ती सितारे सांसदों की तरह सचिन भी या तो संसद में आयें ही न और या उनका योगदान शून्य रहे। ऐसा होता है तो यह मनोनयन निरर्थक रहेगा।
दरअसल आजादी के बाद से हर सत्तारूढ़ दल ने मनोनयन के इस प्रावधान का ठीक उपयोग नहीं किया। अपने चाटुकारों या अपने अनुग्रह पात्रों को राज्यसभा में भेजकर इस प्रावधान का मखौल उड़ाया है। कोई दल इसमें अपवाद नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र को ही लें तो कभी ऐसे पत्रकार का राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन नहीं हुआ जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी और समाज के प्रति योगदान की राष्ट्रीय ख्याति हो। ऐसे पत्रकार और संपादक जो अपनी नौकरी के दौरान दलविशेष की छवि बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें ही वह राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद राज्यसभा में भेजता है। एक लम्बी सूची है ऐसे नामों की, जो चाहे फिल्म क्षेत्र से हों, साहित्य से हों, संस्कृति से हों, कला से हों, शिक्षा से हों या किसी अन्य कार्यक्षेत्र से हों, उन्हें जब राज्यसभा में भेजा गया, तो उनका योगदान नगण्य रहा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि या तो इस प्रावधान को समाप्त किया जाए और या मनोनयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए। कहने को तो हमारे देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पर दल के कार्यकर्ताओं को चुनाव में टिकट देने से लेकर किसी भी स्तर पर भेजना हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निर्वाहन कभी भी नहीं किया जाता। ऐसे फैसले दल के नेता द्वारा अपने रागद्वेष और राजनैतिक लाभ के मकसद से लिए जाते हैं। यही कारण है कि हमारी संसद में बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। बहस का स्तर ही नहीं गिर रहा, सांसदों का आचरण भी कई बार देश की जनता को उद्वेलित कर देता है। 
सारे विवाद को एकतरफ रखकर अगर कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले का भावना के स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो यह कहना गलत न होगा कि टैस्ट और वनडे में मिलकर सौ शतक बनाने वाले सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में भेजकर कांगे्रेस आलाकमान ने देश के करोड़ों क्रिकेटप्रेमी युवाओं के हृदय को जीत लिया है। इतना ही नहीं इससे देश के श्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान भी हुआ है। जिसके वे सर्वथा सुपात्र हैं। बहुत दिनों बाद ऐसा लगा कि राजनैतिक हानि-लाभ से हटकर कांग्रेस आलाकमान ने एक पारदर्शी फैसला लिया है। जिसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है।

Sunday, April 22, 2012

सियाचिन में अमरीकी कूटनीति

अरूणाचल से लेकर कश्मीर तक की सीमाओं पर भारत को पाकिस्तान और चीन के मार्फत घेरने की अमरीका की कूटनीति का परिणाम है, पाकिस्तान के सेना प्रमुख अशफाक परवेज कयानी का ताजा बयान। देखने में यह बड़ा मनभावन लगता है। भारत के रक्षा राज्य मंत्री ने भी कूटनीतिक भाषा में इसका समर्थन किया है। 7 अप्रेल को सियाचीन में आए बर्फीले तूफान में पाकिस्तानी सेना ने अनेक सिपाही मारे गए। वहीं राहत कार्य देखने गए जनरल कयानी ने कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों को सियाचिन ग्लेशियर से फौजी जमावाड़ा हटा देना चाहिए। जिससे दुनिया के इस सबसे ऊँचे और जोखिम भरे रणक्षेत्र पर हो रहा खर्चा विकास कार्यों पर लग सके। दिल्ली ने भी इस बयान का स्वागत किया है। जबकि पाकिस्तान के अखबारों ने इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। सवाल है कि भारत और पाक के सम्बन्धों में मधुरता लाने के जो भी प्रयास अब तक दोनों देशों के चुने हुए नेताओं ने किए हैं, उनमें पलीता लगाने का काम पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व करता आया है। पाठकों को याद होगा कि जब भारत के गृहमंत्री पी0 चिदांबरम पाकिस्तान गए थे, तो हमने इसी कॉलम में लिखा था, ‘कयानी बिना वार्ता बेमानी’। कारण राजनैतिक निर्णयों को पाकिस्तान में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक उन्हें वहाँ की फौज और आई0एस0आई0 की स्वीकृति न मिले। फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि पाकिस्तान के जनरल की भाषा बदल गयी और वे मधुर सम्बन्धों और विकास की बात करने लगे?
दरअसल सियाचीन पर पाकिस्तान का कोई हक नहीं है। वहाँ घुसने की जबरदस्ती में पाकिस्तान लगातार मुँह की खाता रहा है। 20 हजार फुट ऊँचे बर्फ से ढके इन पर्वतों पर 1984, 1990, 95, 96, 99 में बार-बार पाकिस्तान की फौज ने कब्जा करने की कोशिश की और हर बार भारत की सेनाओं से मुँह की खाई। आज सियाचीन के ऊपरी हिस्सों पर भारत का आधिपत्य है। जबकि निचले हिस्सों पर पाकिस्तान की सेना तैनात है। सियाचीन में इस फौजी जमावड़े के कारण अब तक दोनों ओर के 2 हजार सैनिक खराब मौसम और छुटपुट युद्धों में मारे जा चुके हैं। उल्लेखनीय है कि दोनों देश अपनी-अपनी तरफ से इन संवेदनशील पहाड़ों पर देश और विदेशों के पर्वतारोही दलों को पर्वतारोहण की अनुमति देकर अपने आधिपत्य को प्रमाणित करने का अप्रत्यक्ष प्रयास करते रहे हैं। पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम अपनी-अपनी तरफ से इन पहाड़ों का दौरा कर चुके हैं। जिसे विपरीत मौसम की परिस्थितियों के कारण उनका बहुत साहसभरा कदम माना गया।
भारत की पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी सीमाऐं पाकिस्तान, चीन, नेपाल, वर्मा व बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं। सामरिक दृष्टि से यह सीमाऐं काफी महत्व की हैं। खासकर अमरीका के लिए। क्योंकि यहाँ उसकी दखल से उसे दोहरा लाभ है। एक तरफ तो वह चीन की सीमाओं पर अपना दबाव बनाये रख सकता है और दूसरी तरफ यहीं से रूस के खिलाफ अपनी पकड़ बनाए रख सकता है। इसलिए अमरीकी कूटनीतिज्ञ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन सीमा विवादों में भारी रूचि रखते हैं और इन विवादों का फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं। अगर यह कहा जाए कि इन विवादों के पीछे अमरीका के अन्तर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थ हैं, तो अतिश्योक्ति न होगी। इसलिए कयानी के ताजा बयान को बहुत महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। अगर वास्तव में पाकिस्तान के सेना प्रमुख का हृदय परिवर्तन हो गया है, तो उन्हें भारत की पश्चिमी सीमाओं पर चले आ रहे अनावश्यक तनाव को कम करने की भी पहल करनी चाहिए। जिससे दोनों देशों के बीच नागरिक और व्यापारिक आदान-प्रदान सुगम हो सके। इसके साथ ही आई0एस0आई0 को नियन्त्रित करते हुए पाकिस्तान की भूमि पर पनप रहे आतंकवाद के अड्डों का सफाया करने की भी जोरदार पहल करनी चाहिए। पर ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा। इसलिए कयानी के बयान का कोई गहरा मतलब निकालने की जरूरत नहीं है।
भारतीय उपमहाद्वीप के नागरिकों के लिए यह भारी दुख का विषय रहा है कि ब्रिटानी हुकूमत यहाँ से जाते-जाते मुल्क के दो टुकड़े करा गई। आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले हिन्दू और मुसलमानों के बीच हमेशा के लिए नफरत का जहर बो गई। जिसका खामियाजा दोनों देशों के आवाम और अर्थव्यवस्था को आज तक भुगतना पड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव और सैनिक प्रतिस्पर्धा को बनाये रखना और बढ़ाते रहना विकसित देशों के हथियारों के सौदागरों के लिए भारी मुनाफे का सौदा है। सब जानते हैं कि अमरीका जैसे लोकतांत्रिक देश की भी विदेश नीति ऐसे ही निहित स्वार्थ नियन्त्रित करते हैं। इसीलिए लोकतंत्र की आड़ में अमरीकी सरकार और उसकी सी0आई0ए0 जैसी एजेंसी पूरे वैश्विक पटल पर शतरंज के खेल खेला करती है और दुनिया के देशों को मोहरों की तरह भिड़ाया करती है। कयानी के बयान को इसी परिपेक्ष्य में देखने की जरूरत है। 

Sunday, April 15, 2012

तिरूपति में धरोहरों का विध्वंस

दुनिया का सबसे लोकप्रिय और धनी हिन्दू मन्दिर तिरूपति बालाजी गंभीर विवादों में घिरा है। सारी दुनिया से करोड़ों भक्त आन्ध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति बालाजी के दर्शन करने पूरे वर्ष आते हैं। लगभग 6 सौ करोड़ रूपये का यहाँ वर्षभर में चढ़ावा चढ़ता है। मन्दिर की कुल सम्पदा लगभग एक  लाख करोड़ रूपये है। दुनिया के इस सबसे धनी मन्दिर का प्रबन्धन आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित एक न्यास ‘तिरूपति तिरूमला देवस्थानम्’ (टी.टी.डी.) द्वारा किया जाता है। ट्रस्ट द्वारा यात्रियों की सुविधा के लिए और मन्दिर के रख-रखाव के लिए जो व्यवस्थाऐं की गयीं हैं, उनकी प्रशंसा यहाँ आने वाला हर व्यक्ति करता रहा है। खासकर जब वे इन व्यवस्थाओं की तुलना देश के बाकी हिन्दू मन्दिरों से करते हैं, तो निश्चय ही इस मन्दिर की श्रेष्ठता सिद्ध होती है।
आज कल लगभग सवा लाख यात्री औसतन यहाँ प्रतिदिन आते हैं। यानि सालभर में तीन चार करोड़। अगले कुछ वर्षों में यह संख्या तेजी से दोगुनी हो जाऐगी। पर इस बढ़ते जनसैलाब को संभालने की टी.टी.डी. की कोई तैयारी दिखाई नहीं देती। आज भी बाहर से आने वाले आम यात्रियों को सिर मुंडवाने से लेकर दर्शन की टिकट, ठहरने के कमरे की बुकिंग आदि के लिए टी.टी.डी. के कर्मचारियों को दोगुनी रिश्वत देनी पड़ती है। इसके बाद भी गारण्टी इस बात की नहीं कि आधा सैकण्ड का भी दर्शन मिल सके। आश्चर्य की बात यह है कि ऊपर से नीचे तक व्याप्त इस भ्रष्टाचार को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जा रही। भ्रष्टाचार में पकड़े गए कर्मचारी और अधिकारी कुछ दिन बाद उसी जगह फिर तैनात हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस मन्दिर के बोर्ड का अध्यक्ष एक शराब माफिया बना दिया गया था। भ्रष्टाचार के इस युग में भगवान का दरबार उससे अछूता नहीं है, यह बात तो मान भी ली जाए, पर पैसा कमाने की हवस में टी.टी.डी. के अधिकारी लगातार इस मन्दिर की परपंराओं, मान्यताओं, व्यवस्थाओं व भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। जिससे भक्त और संत बहुत दुखी हैं। सबसे ताजा उदाहरण यह है कि मन्दिर के सामने बने एक हजार खम्बों के ऐतिहासिक मण्डप को ध्वस्त करके पहाड़ के पीछे नाले में फैंक दिया गया। विजय नगर साम्राज्य के राजा द्वारा सन् 1454 ई0 में बनाए गए इस मण्डप में वैकुण्ठ एकादशी के दस दिन पहले और दस दिन बाद भारी उत्सव मनता था। इस मण्डप के टूट जाने से यह सुन्दर परंपरा नष्ट हो गयी।
यह बात दूसरी है कि इस विध्वंस के लिए जिम्मेदार रहे पी0वी0आर0के0 प्रसाद आज अपना अपराध कबूल करते हैं। पर यह तो एक उदाहरण है। मन्दिर के पास स्थित पौराणिक पुष्कर्णी भी नष्ट कर दी गई। इसी तरह तिरूमला पर्वत पर चढ़कर आने वाले यात्री जिस पौराणिक द्वार से प्रवेश करते थे और जिसका गहरा आध्यात्मिक महत्व था, उस द्वार को भी नष्ट कर दिया गया। तिरूमला पर्वत पर पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार हजारों तीर्थस्थल हैं। पर आधुनिकीकरण की आड़ में टी.टी.डी. के बुद्धिहीन अधिकारी धीरे-धीरे इन सभी धरोहरों को नष्ट करते जा रहे हैं। उनका हर काम भगवान बालाजी को नोट छापने की मशीन मानकर होता है
सब जानते हैं कि सगुण उपासना में मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पत्थर की साधारण मूर्ति नहीं माना जा सकता। उन्हें साक्षात जीवधारी की तरह जागृत भगवान माना जाता है। इसलिए उनके प्रातः उठने से लेकर रात्रि शयन तक की व्यवस्था एक महाराजाधिराज की तरह की जाती है। जिसमें अभिषेक, श्रृंगार, आरती और अनेक बार अनेक तरह के भोग, दोपहर का विश्राम और रात्रि का शयन तक शामिल होता है। देशभर के मन्दिरों में यही व्यवस्था है। पर संत समाज और भक्त समाज को इस बात की बहुत पीड़ा है कि धनलोलुप टी.टी.डी. ने वैंक्टेश्वर बालाजी के शयन का समय भी समाप्त कर दिया है। उन्हें रात्रि में ढेड़-दो बजे तक जगाए रखा जाता है और सुबह ढाई-तीन बजे से फिर जगा दिया जाता है। जबकि इसकी बेहतर और वैकल्पिक व्यवस्थाऐं की जा सकती हैं।
चूंकि टी.टी.डी. विशिष्ट व्यक्तियों जिनमें राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपति ही नहीं, फिल्म, मीडिया और खेल के सितारे भी शामिल हैं, उनको वी.आई.पी. व्यवस्था में दर्शन करवाता है। इसलिए कोई इसके खिलाफ आवाज उठाना नहीं चाहता। पर सच्चे संत अपनी परंपराओं और भक्तों की भावनाओं से हो रहे इस खिलवाड़ से मूक दृष्टा बने नहीं रह सकते। आन्ध्र प्रदेश के ऐसे ही एक उच्च कोटि के विद्वान, समाजसेवी किन्तु क्रंातिकारी युवा संत श्री श्री श्री त्रिदण्डी चिन्ना श्रीमन्नारायण रामानुज जीयार स्वामी जी ने टी.टी.डी. की विध्वंसकारी नीतियों के विरूद्ध आवाज बुलन्द करने का संकल्प लिया। सबसे पहले तो उन्होंने अधिकारियों से वार्ता कर उन्हें सद्बुद्धि देने का प्रयास किया। जब उनकी नहीं सुनी गई, तो अपने प्रिय शिष्य डा. रामेश्वर राव जैसे अन्य सहायकों की मदद से स्वामी जी ने नाले में पड़े उन ऐतिहासिक एक हजार खम्बों को बाहर निकलवाया और उन्हें उचित स्थान पर पहुँचाया ताकि भविष्य में इस मण्डप का पुर्ननिर्माण हो सके।
पूरे आन्ध्र प्रदेश के लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे जीयार स्वामी जी ने एक लाख आन्दोलनकारी भक्तों के साथ तिरूमला पहाड़ पर चढ़ने की चेतावनी दे दी, तो प्रशासन में हड़कम्प मच गया। उन्हें समझा-बुझाकर रोका गया। पर स्वामी जी चुप बैठने वाले नहीं है। वे आन्ध्र प्रदेश के गांव-गांव मे जाकर अलख जगा रहे हैं ताकि तिरूपति मन्दिर में हो रही लूट को रोका जा सके और विध्वंसक नीतियों को बन्द किया जा सके। इस आन्दोलन को आन्ध्र प्रदेश में भारी समर्थन मिलने लगा है। पर भारत का कोई तीर्थ ऐसा नहीं, जिसके उपासक उसी प्रांत में रहने वाले हों। सारे भारत से भक्त तिरूपति जाते हैं। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि जब इन अव्यवस्थाओं और बेईमानियों का समाचार देश के अन्य हिस्सों में पहुँचेगा तो पूरे देश का भक्त समाज टी.टी.डी. की नीतियों के विरोध में उठ खड़ा होगा।

Monday, April 9, 2012

बाबा रामदेव हर कदम सोच - विचार कर उठाएं

ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव को मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने में मजा आता है। अभी कांग्रेस से उनकी पंगेबाजी चल ही रही है कि उन्होंने आयुर्वेद की दवाओं के निर्माताओं से भी पंगा ले लिया। जिससे देश की नामी आयुर्वेद कम्पनियों के निर्माता उनसे खासे नाराज हैं। योग सिखाते-सिखाते बाबा ने आयुर्वेद का कारोबार खड़ा कर डाला। अब तक वे इसे अपने केन्द्रों और अनुयायियों तक सीमित रखे हुए थे। पर अब वे उतर पड़े हैं खुले बाजार में और ताल ठोककर आयुर्वेद की दवाओं और प्रसाधनों के देशी और विदेशी निर्माताओं को चुनौती दे रहे हैं। बाबा अपने टी0वी0 पर सीधे प्रसारण में खुलेआम इन कम्पनियों के उत्पादनों की मूल्य सूची पर सवाल खड़े कर रहे हैं और जनता को बता रहे हैं कि ये कम्पनियां किस तरह से आयुर्वेद के नाम पर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रही हैं। साथ ही वे अपने उत्पादनों की सूची जारी करके मूल्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन कर रहे हैं।
क्या बाबा के इस नये शगूफे को विशुद्ध मार्केटिंग की रणनीति माना जाए? लगता तो ऐसे ही है कि आचार्य बालकृष्ण और बाबा रामदेव दोनों ने मिलकर आयुर्वेद के बाजार पर कब्जा करने का इरादा कर लिया है। वर्ना इस तरह योग गुरू को अपने उत्पादनों के लिए देश के विभिन्न नगरों में जाकर प्रचार करने की क्या जरूरत थी? पर आश्चर्य की बात यह है कि उनके दर्शक और श्रोता ऐसा नहीं मानते। बाबा के दूसरे अभियानों की तरह वे इसे भी जनचेतना का एक अभियान ही मान रहे हैं। उनका कहना है कि बाबा के रहस्योद्घाटन ने उनकी आँखे खोल दी हैं। वे अब तक लुटते रहे और उन्हें पता ही नहीं चला। उदाहरण के तौर पर जब दुनियाभर में ऐलोवेरा जैल बाजार में लाया गया तो विदेशी कम्पनियों ने इसे सेहत का रामबाण बताकर खूब महंगा बेचा। 1200 रूपये लीटर तक बिका। मुझे याद है कि सन् 2000 में अपने अमरीकी प्रवास के दौरान मैंने ऐलोवेरा का खूब शोर सुना। जिसे देखो इसकी बात करता था। मैं भी स्टोर में उत्सुकतावश ऐलोवेरा देखने पहुँचा। तब पता चला कि बचपन से घर के बगीचे में जिस ग्वारपाठा को देखा था, जिसके गूदे से माँ हलुवा और रोटी बनवाती थी, उसकी एक पत्ती चार डॉलर की बिक रही थी।
पिछले दिनों बाबा रामदेव के संस्थान ने ऐलोवेरा जैल को चैथाई कीमत पर जब बाजार में उतारा तो बड़ी-बड़ी कम्पनियों को अपने दाम घटाने पड़े। बाबा के सहयोगी आचार्य बालकृष्णन इसे अपनी नैतिक जीत बताते हैं। उनका दावा है कि हम आयुर्वेद का बाजार कब्जा करने नहीं जा रहे। इतना बड़ा देश है, हम ऐसा कर ही नहीं सकते। पर गुणवत्ता के उत्पादनों को ‘वाजिब दाम’ में बाजार में लाकर हम देशी और विदेशी कम्पनियों को चुनौती दे रहे हैं। उन्हें दाम कम करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसलिए वे मानते हैं कि बाबा रामदेव का इन उत्पादनों के समर्थन में जनता को सम्बोधित करना एक आम मार्केटिंग का शगूफा नहीं है, बल्कि उनके राष्ट्र निर्माण अभियान का एक और कदम है। वे यह भी दावा करते हैं कि अगर देशभर में फैले छोटे निर्माता उनसे तकनीकि सीखकर इन औषधियों और प्रसाधनों का उत्पादन करना चाहें, तो वे इसे सहर्ष बांटने के लिए तैयार हैं।
यह बात दूसरी है कि बाबा के आलोचक बाबा के इस पूरे कार्यक्रम को धर्म की आड़ में चल रहे व्यापार की संज्ञा देते हैं। सीपीएम नेता वृंदा करात और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के बाबा पर होने वाले हमलों को छोड़ भी दें तो भी देश के अनेक धर्माचार्य रामदेव बाबा को धंधेबाज बताते हैं। जबकि रामदेव बाबा का कहना है कि वे भारत के सनातन ज्ञान को मार्केटिंग का पैकेज बनाकर इस लिए चल रहे हैं ताकि राष्ट्र निर्माण के उनके अभियान में उन्हें साधनों के लिए पूंजीपतियों या राजनैतिक दलों के आगे हाथ न फैलाना पड़े। उनका मानना है कि इन लोगों पर अपनी आर्थिक निर्भरता सौंपने के कारण ही हमारी राजनीति इतनी कलुषित हो गई है। जिनके मतों से राजनेता चुने जाते हैं, उनसे ज्यादा उन्हें उन लोगों की चिंता होती है, जिनकी आर्थिक मदद से वे चुनाव लड़ते हैं। इसलिए वे आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ राष्ट्रनिर्माण का आन्दोलन चलाना चाहते हैं। वे उदाहरण देते हैं महात्मा गांधी के स्वराज कोष का, जो गांधी जी ने राष्ट्रीय राजनीति में कूदते ही स्थापित किया था। पर बाबा के आलोचक इससे सहमत नहीं हैं। वे आरोप लगाते हैं कि गांधी जी की तरह बाबा इस कारोबार के संचालन से अनासक्त नहीं हैं। इसलिए उन्होंने अपने मुठ्ठीभर चहेतों के हाथ में सारा कारोबार सौंप रखा है। यह रवैया गैर लोकतांत्रिक है और अधिनायकवादी है। अपनी सफाई में बाबा इस आरोप से भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उनका कहना है कि दूसरों के अनुभव से सीखकर वे नहीं चाहते कि उनकी योजनाओं को भी निहित स्वार्थ घुसपैठिया बनकर धराशायी कर दें। जिसके हाथ में तिजोरी की चाबी होती है, ताकत भी उसी के पास होती है। इसलिए बाबा अपने आर्थिक और योग के साम्राज्य को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखना चाहते हैं।
जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि बाबा रामदेव ने गत् चार-पांच वर्षों से हिन्दुस्तान की राजनीति में तूफान मचा दिया है। उन पर जितना सरकारी हमला तेज होता है, उतना ही वे और भड़कते हैं और बार-बार अपने अनुयायियों से एक बड़े आन्दोलन के लिए तैयार रहने को कहते हैं। जो उनकी घोषणा के अनुसार जल्द ही देश में शुरू होने वाला है। सोचने वाली बात यह है कि तमाम विरोधाभासों के बावजूद क्या बाबा रामदेव को सिर्फ इसलिए दरकिनार किया जा सकता है कि वे केसरिया कपड़े पहनते हैं? या वे योग और आयुर्वेद को एक कॉरपोरशन की तरह चलाते हैं? या फिर उनके उत्साह और ऊर्जा का भी मूल्यांकन किया जाए, जो वे अपने अभियान के लिए लगातार जनता के बीच में झोंके हुए हैं? बाबा रामदेव के जीवन का लक्ष्य सत्ता हासिल करना हो या राष्ट्र का निर्माण, वो पूरे जीवट से जुटे हैं और यही उनके व्यक्तित्व के आकर्षक या विवादास्पद होने का कारण है। बाबा रामदेव जैसे व्यक्तित्वों का सही मूल्यांकन शायद राजनीतिक जमात या मीडिया नहीं कर सकता। यह काम तो शायद जनता करेगी। जिनपर उनका प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए बाबा को भी हर कदम खूब सोच-विचार कर उठाना चाहिए।

Monday, April 2, 2012

उत्तर प्रदेश में नई बयार

पाँच साल से एक किस्म के अघोषित आतंक में जी रही उत्तर प्रदेश की नौकरशाही बदले परिवेश में ज्यादा काम करने को उत्साहित है। विवादों में फंसने से बचने के लिए नाम न छापने की शर्त के साथ उत्तर प्रदेश के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राग-द्वेष से मुक्त होकर, अधिकारियों की क्षमता और गुणों के अनुसार, जिम्मेदारियाँ सौंप रहे हैं। बहिन जी के शासनकाल में जिन अधिकारियों ने भी अच्छा काम किया था, उन्हें अपने पदों पर रहने दिया गया है या ज्यादा जिम्मेदारी देकर उनका कद बढ़ाया है। मतलब यह कि अगर आप काम से कार्य रखते हैं तो आप मौजूदा मुख्यमंत्री के पसन्दीदा व्यक्ति हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप उनकी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के चहेते थे या नहीं। हाल ही में प्रदेश के पुलिस अधिकारियों की सूची जारी हुई। उत्तर प्रदेश में प्रायः जिलों के स्तर पर कुछ ऐसे पुलिस अधिकारियों को तैनात किया जाता रहा है, जो मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र हों और उनके राजनैतिक एजेण्डा को आगे बढ़ाऐं। जबकि इस बार अखिलेश यादव का प्रयास शायद उस माहौल को बनाने का है, जिसमें आम जनता का विश्वास पुलिस पर व अपने थानों पर फिर से कायम हो।
लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास कालीदास मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग पर गत् 5 वर्षों से सामान्यजन और यातायात की आवाजाही प्रतिबन्धित थी। अखिलेश ने उसे सर्वसाधारण के लिए खोल दिया है। 4-5 चहेते अधिकारियों के अलावा बहिन जी किसी को भी अपने आवास में आने नहीं देती थीं। मीडिया और जनता की तो और भी हालत खराब थी। पर अब मुख्यमंत्री के घर मिलने वाले आम लोगों की लम्बी कतारें लगी हैं। जिससे प्रदेश की जनता में एक नई आशा जगी है। उल्लेखनीय है कि बसपा की हार के लिए एक कारण बहिन जी का एकांतवास भी बताया जा रहा है। वे किसी से मिलना पसन्द नहीं करती थीं।
अखिलेश यादव के सहज व मिलनसार स्वभाव को राजनैतिक विश्लेषक उनके व्यक्तित्व की कमजोरी या अनुभवहीनता बता रहे हैं। जबकि अखिलेश का यही गुण उनकी विजय का कारण बना। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर भी अखिलेश हर आने वाले से गर्मजोशी से मिल रहे हैं। जिसका बहुत अच्छा सन्देश प्रदेश में जा रहा है। दूसरी तरफ अखिलेश यादव के कुछ राजनैतिक निर्णयों की एक वर्ग द्वारा आलोचना भी की गई है। पर साथ ही ऐसा मानने वालांे की कमी नहीं कि बहुमत में होने के बावजूद अखिलेश सारे निर्णय स्वंय लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। राजनैतिक दबाव के कारण उन्हें कई निर्णय अपने मन के विरूद्ध भी लेने पड़े हैं।
देश-विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अखिलेश यादव की समझ काफी विकसित हुई है। वे हर प्रस्ताव और मुद्दे को वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कों के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। 
बेरोजगारी भत्ता देने की अखिलेश की योजना को उनके आलोचक एक जल्दी में लिया गया अव्यवहारिक कदम बता रहे हैं। जबकि देश में फैली भारी बेरोजगारी का हल ढूंढे बिना युवाओं को अपने हाल पर छोड़ देने से अराजकता बढ़ रही है। बेरोजगारी भत्ता उन्हें उम्र के इस नाजुक मोड़ पर टॉनिक का काम करेगा। देश की अर्थव्यवस्था को देखते हुए, इन विपरीत परिस्थितियों में, अखिलेश यादव का यह कदम साहसी माना जाऐगा। केवल यह ध्यान रखना होगा कि इस योजना का दुरूपयोग करने की मंशा रखने वाले सफल न हों।
प्रदेश की कमजोर माली हालत को उबारने के लिए भी कुछ साहसिक कदम उठाने पड़ेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि विकास प्राधिकरणों से लेकर ऐसे 26 विभाग हैं, जो प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भार बने हुए हैं। इन विभागों से जनता को लाभ कम और तकलीफ ज्यादा है। विकास के नाम पर इन्होंने नगरों का विनाश करने का काम किया है। अगर इन विभागों को बन्द कर दिया जाए तो उत्तर प्रदेश सरकार को कई हजार करोड़ का सालाना फायदा होगा। वैसे भी ये विभाग लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि जहाँ एक तरफ युवा मुख्यमंत्री के मन में कुछ कर गुजरने का अदम्य उत्साह है, वहीं प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, और प्रशासनिक व्यवस्था उन्हें नाकाम करने में तब तक जुटी रहेगी, जब तक मुख्यमंत्री इन लोगों को इनकी सही जगह नहीं दिखा देते। उत्तर प्रदेश ने लम्बे समय से कोई विकास नहीं देखा। प्रदेश की जनता अब प्रदेश का विकास तेजी से होते हुए देखना चाहती है। अखिलेश यादव को नीतिश कुमार, शीला दीक्षित व नरेन्द्र मोदी के कुछ सफल प्रयोगों को अपनाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। क्योंकि इनकी कार्यशैली ने इन्हें दो-तीन बार लगातार मुख्यमंत्री बनाया है। इसके लिए सबसे बड़ी बात यह है कि विचारों और सलाह लेने का काम नौकरशाही के साथ ही विशेषज्ञों और अनुभवी लोगों से लिया जाए। 

Sunday, March 25, 2012

ये कैसा रामराज्य ?

पिछले पूरे वर्ष तारसप्तक में सरकार के खिलाफ अलाप लेने वाली भाजपा का सुर बिगड़ गया है। गुजरात और कर्नाटक में उसके विधायक विधानसभा सत्र के बीच पोर्नोग्राफी (अश्लील फिल्में) देखते पाए गये। लोगों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह विधायक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता रहे हैं या नहीं?
तमाम विवादों के बावजूद बमुश्किल मुख्यमंत्री के पद से हटाए गए येदुरप्पा लगातार अपने दल के राष्ट्रीय नेतृत्व को धमका रहे हैं कि उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाऐ वर्ना भाजपा का दक्षिण भारत में एक मात्र किला भी ढहा देंगे। कर्नाटक के उपचुनाव में भाजपा का लोकसभा उम्मीदवार हार गया है और जीत हुई है कांगे्रस के प्रत्याशी की। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के गढ़ में भी कांग्रेस के उम्मीदवार का विधानसभा चुनाव में जीतना भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा रहा है। उधर अप्रवासी भारतीय अंशुमान मिश्रा की झारखण्ड से राज्यसभा की उम्मीदवारी रद्द होना भाजपा को भारी पड़ गया है। एक तरफ तो यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का भारी विरोध और दूसरी तरफ अंशुमान मिश्रा का भाजपा नेताओं पर सीधा हमला, इस स्वघोषित राष्ट्रवादी दल की पूरी दुनिया में किरकिरी कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी उम्मीद थी कि उसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या में प्रभावशाली वृद्धि होगी और वे बहिन मायावती के साथ सरकार बनाने में सफल होंगे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव में भाजपा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। उमा भारती जैसी तेज-तर्रार नेता को भी मैदान में उतारा। बाबा रामदेव का भी दामन पकड़ा। अन्ना हजारे के आन्दोलन को भी भुनाने की कोशिश की। पर इन दोनों ही राज्यों में उसे भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मतलब यह कि मतदाता टीम अन्ना या भाजपा से प्रभावित नहीं हुए।
उधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी के बीच तनातनी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी के उत्तर भारत में लॉन्च होने पर रोक लगा दी। मोदी अपने दल के स्टार कैम्पेनर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचार करने नहीं आए।
लोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार के मामले में भी भाजपा का रवैया दोहरा रहा। टीम अन्ना और बाबा रामदेव को भाजपा लगातार यह संकेत देती रही कि वह उनके साथ है। पर संसद के पटल पर उसकी भूमिका उलझाऊ ज्यादा, समाधान की तरफ कम थी।
पिछले हफ्ते भी भाजपा के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई। डा. राम मनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर आयोजित विषाल रैली में सपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब मध्यावधि चुनाव की सम्भावना व्यक्त की तो भाजपा ने अपना पारम्परिक उत्साह बिल्कुल नहीं दिखाया। पिछले दिनों के हालात अगर इतने विपरीत न होते तो अब तक भाजपा ने एन.डी.ए. का तानाबाना बुनने का काम शुरू कर दिया होता।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रभावशाली परिणाम न मिलने के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एन.डी.ए. के घटकों की बैठक शुरू कर दी थी। पर उनके ही सहयोगी दलों ने मध्यावधि चुनाव की मांग का विरोध कर इस विषय को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया। अब इन हालातों में भाजपा कैसे मध्यावधि चुनावों की सोच सकती है जबकि उसे पता है कि दिल्ली की गद्दी मिलना उसके लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है? ऐसे में मध्यावधि चुनाव का जोखिम उठाकर वह अपनी रही-सही ताकत भी कम नहीं करना चाहती।
सवाल उठता है कि भाजपा की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? हमने पिछले हफ्ते भी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी इसी तरह के सवाल उठाए थे। वही सवाल आज भाजपा के संदर्भ में भी सार्थक हैं। दलों के बीच आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव में और सही स्थानीय नेतृत्व को लगातार दबाने के कारण भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की तरह भाजपा भी अपने बूढ़े हो चुके नेतृत्व को सेवामुक्त करने को तैयार नहीं है। इससे उसके युवा कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश है। इसी कारण भाजपा के हर नेता की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी है कि वहाँ हर आदमी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है। भाजपा जरूर यह सफाई देती है कि यह उसके दल की विशेषता है कि उसके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कई लोग तैयार हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पर असलियत यह है कि भाजपा के यह नेता प्रधानमंत्री बनने के योग्य हों न हों, उस पद के दावेदार जरूर बन गए हैं। इसलिए इस दल में नेतृत्व और अनुशासन दोनों कमजोर पड़ चुके हैं।
देश और विदेश में रहने वाले अनेक हिन्दूवादी भारतीय चाहते रहे हैं कि भाजपा आगे बढ़े और देश और संस्कृति की रक्षा करे। पर असलियत यह है कि भजपा के नेताओं को संस्कृति की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरे कई काम हैं। जिनमें वे उलझे रहते हैं। ऐसे माहौल में श्री श्री रविशंकर हों या बाबा रामदेव, सब नए राजनैतिक संगठनों को खड़ा कर राजनीति में दखलअंदाजी करना चाहते हैं। इससे यह साफ है कि एक स्वस्थ्य विपक्ष होने की जो भूमिका भाजपा निभा सकती थी, उसे निभाने की भी शक्ति अब उसमें नहीं बची है। ऐसे में यह सोचना असम्भव नहीं कि 2014 तक केन्द्रीय सरकार इसी तरह चलती रहेगा और भाजपा अपने अन्दरूनी झगड़ों में उलझती जाऐगी।

Sunday, March 18, 2012

समय बरबाद कर रहे हैं नेतृत्व और चिंतक

संसद और टी.वी. की बहस को देखकर क्या आपको लगता है कि हमारा राजनैतिक नेतृत्व और बुद्धिजीवी देश की समस्याओं के समाधान की तरफ आगे बढ़ रहे हैं या हम फिजूल की नोंक-झोंक में कीमती समय बरबाद कर रहे हैं ? देश में पैदा हो रहे इन हालातों के लिये पक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रूप से जिम्मेदार हैं। जहाँ काँग्रेस नेतृत्व अपने लम्बे अनुभव के बावजूद विपक्ष और जनता से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा, वहीं विपक्ष और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के खिलाफ हर मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा शोर मचाकर लोगों में हताशा पैदा कर रहा है।
सात फीसदी की आर्थिक विकास दर को हासिल करने का लक्ष्य लेकर प्रणव मुखर्जी ने जो बजट प्रस्तुत किया, वह ‘हैण्डस अप बजट’ था। यानि सरकार ने यह तय कर लिया कि मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक हालात में वह कोई दखलंदाजी नहीं करेगी। क्योंकि ऐसा करने पर विपक्ष के भड़कने का पूरा खतरा था। दूसरी तरफ कड़े कदम से मतदाताओं के बीच आक्रोश पैदा हो सकता था। जो 2014 के लोकसभा चुनावों के लिये घातक होता। वैसे इस सरकार के पास बजट प्रस्तुत करने का एक मौका फिर 2013 में आयेगा, लेकिन उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मंदी की आहट को ध्यान में रखकर कुछ कदम भले ही उठाये गये हों, पर इस बजट को कामचलाऊ बजट से ज्यादा कुछ नहीं का जा सकता।
काँग्रेस अपनी इस हालत के लिये कहाँ तक जिम्मेदार है ? उत्तरांचल को लीजिये। हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाने के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है ? जिस आदमी ने उत्तरांचल में काँग्रेस को खड़ा किया उसे तो 2002 में ही मुख्यमंत्री बना देना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। अबकी बार फिर रावत के साथ धोखा हुआ। पंजाब और उत्तर प्रदेश में काँग्रेस की आशा के विपरीत परिणाम  आने के बाद उत्तरांचल ने कुछ आंसू पोंछे थे। पर इस नाटक ने वहाँ भी काँग्रेस की छवि खराब करने का काम किया हैं।  नेतृत्व को सोचना होगा कि पुराने रवैये से अब महत्वाकांक्षी जनता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें तो मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि राहुल गांधी फेल हो गये। आखिर 11 फीसदी मत कांग्रेस को मिला है। उस राज्य में जहां गांव कस्बे और जिले स्तर पर कांग्रेस के नेताओं का चेहरा गायब हो चुका था। संगठन के नाम पर कुछ भी नहीं है। कार्यकर्ता जैसी कोई चीज वहां नहीं हैं प्रदेश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में नहीं है जो आम आदमी व खासकर युवाओं को आश्वस्त कर सकें। जिसके पास सोच, क्षमता और आत्मविश्वास है। सब कुछ इतना लचर पचर था, फिर क्यों नेतृत्व ने इसे संजीदगी से सुधारा नहीं ? सुल्तानपुर रायबरेली के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया कि केवल चुनावी उत्सवों पर दर्शन देने से जनता नेताओं को स्वीकार नहीं करेगी। अब जनता को अपने बीच में से उठने वाले नेता चाहियें। जिनसे उनका सम्वाद बना रहे। क्या श्रीमती सोनिया गांधी ने या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कुछ संकेत दिये हैं, जिनसे यह पता चले कि उनके दरबार में गंभीर और अनुभवी लोगों के सद्विचार सुनने का रास्ता खुला है ? 8-10 चुने हुए सम्पादकों से बात करना और समर्पित बुद्धजीवियों के विचार जानना सम्वाद नहीं कहा जा सकता। छोटे-छोटे लाभ के लालच में सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोग न तो जनता की नब्ज पर उंगली रख पाते हैं और न ही नेतृत्व को सही राय दे पाते हैं। पर दुर्भाग्य से आज दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में यही संस्कृति प्रचलित हो गयी है। इसलिये दोनों क्षेत्रीय स्तर पर पिट रहे है। ंनतीजन नीतिश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी व जयललिता जैसे नेता सफलता के नये झण्डे गाड़ रहे हैं। इसलिये इन दोनों ही दलों को अपनी कार्यशैली में भारी बदलाव लाना होगा।
आज अगर भाजपा सशक्त और आश्वस्त होती तो मध्यावधि चुनाव करवा सकती थी। पर उसे पता है कि उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी ही है। इसलिये सरकार के विरूद्ध शोर चाहें जितना भी मचाये, सरकार गिराने का कोई इरादा नहीं है। इसलिये मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना दिखायी नहीं देती। क्षेत्रीय दलों के सांसद भी समय से पहले चुनावों के खिलाफ हैं। हां यह जरूर है कि क्षेत्रीय दलों के ताकतवर होने से केन्द्र सरकार कमजोर हुई है। कभी ममता बनर्जी, कभी करूणानिधि, कभी मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब सरकार को अपनी शर्तों पर झुकाते रहेंगे और इनकी शर्तें मानना सरकार की मजबूरी होगी।
पर विपरीत परिस्थिति में जो अपना रास्ता बना ले उसे ही नेता कहा जाता है। देश के इस राजनैतिक माहौल में हर उस नेता को और उनसे जुड़े बुद्धजीवियों को आत्मचिंतन करना चाहिये कि हम समस्या का पोस्टमार्टम करते रहेंगे या मरीज का इलाज भी करेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम समस्या का कारण न बनें, समाधान बनें। क्योंकि हमारा देश आज भी काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के शिकंजे से बचा हुआ है। इसलिये हमारे उठ खड़े होने की संभावना उन देशों से ज्यादा है जिनका नेतृत्व और अर्थव्यवस्थायें बाहरी शक्तियों के आगे समर्पित हैं। युवाओं की बढ़ती तादाद और महत्वाकांक्षा किसी भी दल या नेता के साथ हमेशा खड़ी रहने वाली नहीं हैं। चांहे वो अखिलेश यादव हों या सुखविन्दर सिंह बादल। इन्हें कुछ मिलेगा तो ये साथ खड़े रहेंगे। नहीं मिलेगा तो ये विरोध में ही नहीं जायेंगे बल्कि सड़कों पर भी उतर आयेंगे। वह भयावह स्थिति होगी। जिससे हमें बचना है और मजबूती और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है।