Sunday, August 1, 2010

सतर्कता आयोग की दुर्गति क्यों?

 केन्द्र सरकार के महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने और भ्रष्ट अधिकारियों के आचरण की जाँच करने का दायित्व केन्द्रीय सतर्कता आयोग पर है। 1998 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे व्यापक अधिकार देकर सी.बी.आई. व आयकर विभाग जैसी एजेंसियों के हर काम पर निगरानी रखने का जिम्मा भी सौंपा था। पर पारदर्शिता का दावा करने वाली डा¡. मनमोहन सिंह की सरकार केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पंगु बनाने पर तुली है। तीन सदस्यीय इस आयोग में एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा, दूसरे सदस्य भारतीय पुलिस सेवा व तीसरे सदस्य भारतीय बैंकिंग सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारियों में से चुने जाते हैं। आयोग पर काम का इतना बोझ है कि ये तीन अधिकारी भी मिलकर काम नहीं संभाल पाते। पर लगता है कि सरकार की इच्छा ही नहीं है कि सतर्कता आयोग मुस्तैदी से काम करे। वरना क्या वजह है कि गत् 2009 के नवम्बर महीने में केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सेवानिवृत्त हुए दो सदस्यों, श्रीमती रंजना कुमार व श्री सुधीर कुमार के पद इस जुलाई के अंत नहीं भरे गये। जबकि यह चयन प्रक्रिया इन पदो के रिक्त होने से पहले ही पूरी हो जानी चाहिए थी।

विनीत नारायण बनाम भारत सरकारमामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सतर्कता आयोग के सदस्यों के चयन की जो प्रक्रिया निर्धारित की है, उसमें केवल तीन लोगों को बैठक करनी होती है; प्रधानमंत्री, संसद में प्रतिपक्ष के नेता व केन्द्रीय गृहमंत्री। क्या ये तीनों दिल्ली में रहते हुए इतने भारी व्यस्त हैं कि गत आठ महीने में एक घण्टे का समय भी केन्द्रीय सतर्कता आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था के सदस्यों के चयन के लिए नहीं निकाल सकते? इस बैठक को बुलाने की जिम्मेदारी गृहमंत्रालय के कार्मिक विभाग देखने वाले राज्यमंत्री पृथ्वीराज चैहान की है। इस कोताही के लिए उनके पास कोई जबाव नहीं है। पत्रकारों द्वारा पिछले एक महीने में जब लगातार दबाव बनाया गया, तब कहीं जाकर 30 जुलाई को यह बैठक बुलाने की कवायद शुरु हुइ है। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि अब जो नये सदस्य आयेंगे उन्हें वर्तमान मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा के साथ काम करने का एक महीने का भी समय नहीं मिलेगा। आगामी 6 सितम्बर को सेवानिवृत्त हो रहे श्री सिन्हा कैसे अपने नये साथियों को इस विभाग की संवेदनशील लम्बित फाइलों के बारे में बता पायेंगे? अगर पिछले नवम्बर में समय से यह नियुक्तियाँ हो जातीं तो नये सदस्यों को श्री सिन्हा के साथ 10 महीने तक काम करने का मौका मिलता। अब 6 सितम्बर से आयोग के तीनों ही सदस्य नये होंगे, जिससे आयोग के काम में काफी अड़चन आयsगी।

हम इस का¡लम में बहुत पहले जिक्र कर चुके हैं कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग को जो अमला दिया गया है, वह भी इसके दायित्वों को देखते हुए नाकाफी हैं। भ्रष्टाचार के मामले में दुनियाभर की सरकारों के आचरण पर निगाह रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनलकी रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया के भ्रष्टतम राष्ट्रों में से एक है। जाहिर है जहाँ भ्रष्टाचार इस कदर है वहाँ इस पर नियन्त्रण रखने वाले आयोग के काम का दायरा कितना बड़ जायेगा। आगामी राष्ट्रकुल खेलों को ही ले लीजिए। इनके आयोजन की तैयारी में हजारों करोड़ रूपया रात-दिन पानी की तरह बहाया गया है। पारदर्शिता और जबावदेही की सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। तमाम मामले केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास पहुँच चुके हैं। ऐसे में एक सदस्यीय आयोग कितना बोझा उठा सकता है?

भारत में जितने भी संवैधानिक पद हैं, उन पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया है। जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त, केन्द्रीय सूचना आयुक्त, महालेखाकार आदि। पर केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सदस्यों का कार्यकाल मात्र 4 वर्ष रखा गया है। इसके पीछे क्या तर्क है, समझ के बाहर है? इस आयोग को भी अन्य आयोगों की तरह समान कार्यकाल क्यों नहीं दिया जा सकता?

जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर मुकदमे की सुनवाई करते हुए जब सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि सी.बी.आई. लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश लेती है और स्वतन्त्र व्यवहार नहीं कर पाती तो अदालत ने सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उसे केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किये जाने के निर्देश दिए। साथ ही यह भी निर्देश दिए कि कानून की निगाह में सब बराबरके सिद्धांत का पालन करते हुए किसी भी पद पर बैठे वरिष्ठ अधिकारी या मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत आने पर सी.बी.आई. को सरकार से अनुमति नहीं लेनी होगी। पर विडम्बना देखिए कि संसदीय समिति ने, इसमें सभी दलों के सांसद सदस्य होते हैं, सर्वोच्च न्यायालय के इस नियम की धज्जियाँ उड़ा दीं। नतीजतन कहने को तो सी.बी.आई. केन्द्रीय सतर्कता आयोग की निगरानी में कार्य करती है, पर वास्तव में उसकी स्थिति आज भी पूर्ववत् है। यानि उच्च पदस्थ अधिकारियों और मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जाँच करने की उसे छूट नहीं है। ऐसा करने से पहले सी.बी.आई. को प्रधानमंत्री कार्यालय से पूर्वानुमति लेनी होती है। विडम्बना यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय सी.बी.आई. की ऐसी सभी प्रार्थनाओं पर कान बहरे करके बैठा रहता है और सालों अनुमति प्रदान नहीं करता। नतीज़तन उच्च पदस्थ भ्रष्ट अधिकारी न सिर्फ अपने पद पर बैठे रहते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय के अघोषित सुरक्षा कवच में अपने अनैतिक कारनामों को डंके की चोट पर अंजाम देते रहते हैं। ऐसा अब तक के हर प्रधानमंत्री के कार्याकाल में होता आया है, चाहे वह यू.पी.ए. का रहा हो या एन.डी.ए. का। इतना ही नहीं पिछले दिनों इस आयोग से सरकार ने वह अधिकार भी छीन लिया जिसके तहत यह सी.बी.आई. को केस रजिस्टर करने का निर्देश देता था। ऐसे तमाम प्रमाण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि केन्द्र में सरकार में कोई भी दल हो, वो उच्च पदासीन व्यक्तियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार की जाँच नहीं होने देना चाहता। इसलिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लगातार दुर्गति की जा रही है। पर पारदर्शिता के लिए पहचाने जाने वाले डा¡. मनमोहन सिंह को क्या हो गया है जो वे अपनी नाक के नीचे हो रही इस अन्धेर को अनदेखा किए बैठे हुए हैं?

Sunday, July 25, 2010

कियानी के बिना भारत पाक वार्ता बेमानी

अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लfoटन जब पाकिस्तान जाती हैं तो केवल विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी से ही नहीं मिलती बल्कि पाकिस्तानी फौज के जनरल परवेज कियानी से भी मिलती हैं। साफ जाहिर है कि लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाला अमेरिका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र नाम का है असली ताकत आज भी फौज के हाथ में है। इसलिए राजनायिक शिष्टाचार से परे हटकर ये कवायद की जाती है। जबकि हमारे गृहमंत्री और विदेश मंत्री जब पाकिस्तान जाते हैं तो केवल अपने समकक्ष मंत्रियों से ही वार्ता करके लौट आते हैं। इसलिए नतीजा कुछ भी नहीं निकलता।

जहां तक विदेश मंत्री श्री कृष्णा के ताजा पाकिस्तान दौरे से उठे विवाद का प्रश्न है तो इसके पीछे कांग्रेस की अन्दरूनी उठा-पटक भी देखी जा रही है। क्या वजह है कि गृहमंत्री पी0 चिदाम्बरम का पाकिस्तान दौरा तो बड़ी सुगमता से, सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूरा हो गया और कोई विवाद नहीं हुआ। जबकि विदेश मंत्री श्री कृष्णा की पाकिस्तान में ही किरकिरी हो गयी। हासिल तो वाजपेयी जी की यात्रा से आज तक हुई किसी भी यात्रा से कुछ नहीं हुआ और आसानी से भविष्य में कुछ हासिल होने की संभावना भी कम है। पर इस यात्रा के दौरान भारत के गृह सचिव जी. के. पिल्लई का आईएसआई के विरुद्ध बयान देना उचित नहीं था। यही बात यात्रा के बाद भी कही जा सकती थी। वैसे जो उन्होंने कहा उसमें नया कुछ भी नहीं था। आईएसआई की भूमिका के बारे में भारत हमेशा ही जोर से कहता रहा है। पर इंका के गलियारों में चर्चा है कि इस घटना के पीछे कोई और वजह है। कहा जा रहा है कि पी0 चिदाम्बरम गृहमंत्रालय से उकता गये हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद को लेकर वे जो कुछ करना चाहते थे, नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए वे अपना मंत्रालय बदलना चाहते हैं। उनकी इच्छा शुरू से वित्त मंत्रालय हासिल करने की रही है। पर प्रणव मुखर्जी जैसे भारी भरकम नेता के रहते उन्हें यह मंत्रालय मिलना संभव नहीं है। इसके बाद उनकी प्राथमिकता विदेश मंत्रालय हासिल करने की है। जिसमें वे अपनी हार्वड शैली में दुनिया भर में छवि बना सकते हैं। चर्चा है कि गृह सचिव के बयान का समय जानबूझ कर ऐसा रखा गया कि श्रीकृष्णा की स्थिति हास्यादपद बन जाए। वह बनी भी। अब इसमें चिदाम्बरम की राय शामिल थी या पिल्लई ने खुद ही यह पहल कर डाली यह तो ऊपर वाला ही जानता है।

वैसे यह विवाद न भी होता तो भी शाह महमूद कुरेशी कोई थाली पर व्यंजन परोसने वाले नहीं थे। आरोप उन्होंने भारत के प्रतिनिधि मंडल पर लगाया जबकि वे खुद लगातार आईएसआई से संपर्क साधे हुये थे और उसी के इशारे पर वार्ता कर रहे थे। आईएसआई नहीं चाहती कि भारत से कोई रिश्ता कायम हो। आईएसआई फौज के अधीन है और फौज का न तो लोकतंत्र में विश्वास है और न ही भारत के साथ मधुर संबंधों में। इसलिए वह हर उस प्रयास को विफल करने में लगी रहती है जिसमें दो देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश की जाती है। दोनों मुल्कों का आवाम और काफी सारे सियासतदान दोनों मुल्कों के बीच अमन और चैन चाहते हैं। पर पाकिस्तान की फौज जानती है कि अगर इन दो मुल्कों के बीच अमन कायम हो गया तो उसकी सार्थकता ही नहीं बचेगी।

उधर अमरीका यह जानता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का कोई वजूद नहीं है। इसलिए फौज से रिश्ता बना कर रखता है। दरअसल आईएसआई और तालिबान दोनों की ताकत के पीछे अमरीका का हाथ रहा है। अफगानिस्तान में रूसियों के दखल के बाद सीआईए ने तालिबान को खड़ा किया और इधर पाकिस्तानी फौज और आईएसआई को रसद देकर मजबूत किया। रूस के हटने के बाद तालिबान अमरीका के गले की हड्डी बन गया। अब अगर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा साल के अंत तक अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों की वापसी की अपनी घोषणा पर वास्तव में अमल करते हैं तो अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों के हटने से जो शून्य पैदा होगा उसे कौन भरेगा? जाहिर है कि अमरीका का विश्वास पाकिस्तान की फौज पर है। इसलिए अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजाई लगातार कयानी से मिल रहे हैं। जग जानता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को कतई मंजूर नहीं करता। उसकी पहली शर्त होगी अफगानिस्तान से भारत के माल असबाब की रूखसती। मतलब यह की भारत ने करजाई को पढ़ाने लिखाने और बचाकर रखने की जो कवायद की वो बेकार गयी। भारत अफगानिस्तान को जो मदद दे रहा है वह भी गढ्ढे में गयी। अफगानिस्तान पर पाकिस्तानी फौज और उसकी ऐजेंट आईएसआई का कब्जा होगा। जिसके तालिबान से गहरे संबंध हैं। तालिबान आदतन लड़ाकू है। जब उन्हें अफगानिस्तान में लड़ने के लिए अमरीकी फौज नहीं मिलेगी तो वे कश्मीर की घाटी की तरफ रूख कर लेंगे। जैसा पहले होता आया है। ऐसे में पहले से ही आतंकवाद से धधकती कश्मीर की घाटी एक बार फिर आतंकवाद की आग में झौंक दी जायेगी। इस स्थिति से निपटने के लिए भारत को कई स्तरों पर तैयारी करनी होगी। इसलिए इन वार्ताओं से कुछ निकलने वाला नहीं है।

Sunday, July 18, 2010

दलित मुख्यमंत्री के राज में निषाद दुखी क्यों?

भगवान राम को सरयू पार कराने वाले निषाद राज केवट ने राम राज में तो सुख भोगा पर यह कभी नहीं सोचा होगा कि कलियुग में जब दलितों का राज आयेगा तो निषादों की संतानों पर अत्याचार होंगे और उनसे उनके जीने के साधन छीन लिये जायेंगे। प्रयागराज इलाहाबाद में यमुना, गंगा व सरस्वती का मिलन स्थल है। यहां लगभग 300 किमी0 यमुना का कछार बहुत बढि़या यमुना रेत से पटा पड़ा है। जिसे खोद कर बेचने का पारंपरिक कानूनी हक स्थानीय समुदाय को होता है, जो इस इलाके में निषाद है। पर स्थानीय खनन माफिया के चलते आज यह निषाद समुदाय दर-दर की ठोकरे खा रहा है। दुर्भाग्यवश भाजपा, बसपा व सपा के स्थानीय विधायक और नेता भी या तो खनन माफिया के साथ हैं या सीधे लूट में शामिल हैं।

इतना ही नहीं उनके पारंपरिक रोजगारों पर भी इसी माफिया का नियंत्रण है। नदी के किनारे गैर मानसूनी महीनों में खेती करना या नाव पार कराना या मछली पकड़ना स्थानीय समुदाय के नैसर्गिक अधिकार हैं। पर यह सब करने के लिए भी उन्हें स्थानीय माफियाओं को टैक्स देना पड़ता है। जैसे खादर में लगने वाले तरबूज के हर पौधे पर पांच रू0, मछली पकड़ने पर हर किलो 50 रु0। इतना ही नहीं नाव चलाने का ठेका भी किसी निषाद के नाम पर लेकर उसे कोई माफिया ही चलाता है और खुद लाखों कमाता है जबकि निषाद भूखे मरते हैं। इलाहाबाद की बारह, कर्चना तहसील, कोशाम्बी की छैल व मंझनपुर तहसील और चित्रकूट की मउ तहसील के निषादों को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से पढ़े डाॅ. आषीश मित्तल व उनके साथियों ने आल इंडिया किसान मजदूर सभाके झंडे तले संगठित कर इस शोषण के विरुद्ध लगतार बार-बार प्रर्दशन किये। जिला प्रशासन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सन् 2008 के आदेश व प्रदेश सरकार के सन् 2000 के आदेशों का हवाला दिया। पर कोई सुनवाई नहीं हुई। बल्कि इन सबके विरुद्ध पुलिस और गुंडों का आतंक बढ़ता गया। बार-बार संघर्ष हुये। जिनमें मजदूर घायल हुये और मारे भी गये। पर पुलिस और प्रशासन का रवैया खनन माफियाओं की तरफदारी वाला रहा और माफिया द्वारा सताये जा रहे निषादों के खिलाफ दर्जनों फर्जी मुकदमें कायम कर दिये गये। बावजूद इसके इन जुझारू निषादों का मनोबल नहीं टूटा और यह आज भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। क्या यह संभव है कि दलितों के लिए दबंगाई से आवाज उठाने वाली सुश्री मायावती, जोकि प्रदेश की पहली बहुमत वाली दलित सरकार की नेता हैं, को इस दमन चक्र का पता ही न हो?

ऐसी ही लड़ाई छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वर्षोंं से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा स्थानीय वनवासियों के हक के लिए लड़ रहा है। जिनके जंगल, पहाड़ और खदानों पर बाहरी माफियाओं ने कब्जा कर लिया है। इनके लोकप्रिय नेता शंकर गुहा नियोगी की 90 के दशक में माफियाओं द्वारा हत्या कर दी गयी थी। पर उससे उनका संघर्ष दबा नहीं और तीव्र हो गया। यहां तक की उनके ही मजदूर साथी जनक लाल ठाकुर विधायक भी चुन लिये गये। उल्लेखनीय है कि जनक लाल ठाकुर ने न तो मजदूरों की बस्ती में रहना छोड़ा और ना ही उनकी मां ने खदान में पत्थर तोड़ना छोड़ा। 1994 से मैं कई बार रायपुर, राजनंद गांव, भिलाई, दुर्ग, कांकेड़ के इन इलाकों में इन संघर्षों को देखने जा चुका हूं। आईआईटी और लंदन स्कूल आॅफ इक्नाॅमिक्स से पढ़ी सुधा भारद्वाज या दिल्ली के प्रतिष्ठित सैंट स्टीफेंस काॅलेज से पढ़े अनूप सिंह जैसे युवा जो इन मजदूर बस्तियों में रह कर इन मजदूरों को संगठित करते रहे है, कोई अहमक लोग नहीं हैं। गरीब का दर्द उनसे देखा नहीं गया। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी और महानगरों की आरामदेह जिंदगी छोड़ इन खदानों में जिंदा शहीद होने चले आये।
तीसरा उदाहरण इन दोनों से अलग है। पर घटनाक्रम एक सा है। राजस्थान के भरतपुर जिले में डीग और काॅमा तहसील के पर्वतों की रक्षा के लिए गत आठ वर्षों से जो संघर्ष चला उसके प्रणेता विरक्त संत रमेश बाबा हैं। जिन पर नक्सलवादी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इस संघर्ष में अपनी आध्यात्मिक रूचि के कारण युवा साधु संतों और स्थानीय ग्रामीणों के साथ मैने और मेरे कई साथियों ने अपनी ऊर्जा लगाई। पर अनुभव वैसे ही हुए जैसे नक्सलवादी या प्रगतिशील नेतृत्व वाले संगठनों को होते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन पर्वतों का श्रीकृष्ण लीला में भारी महत्व रहा है। उन दिनों राजस्थान में भाजपा की सरकार थी। फिर भी भगवान की लीलास्थली की रक्षा के लिए हमें वर्षों संघर्ष करना पड़ा। बोलखेड़ा के ग्रामवासियों और धरने पर बैठे युवा साधुओं पर झूठे मुकदमें लगाये गये। 7 दिसम्बर 2006 को खान माफियाओं और स्थानीय भाजपा अध्यक्ष ने खुद खड़े होकर ब्रज रक्षक दल की गाड़ी पर हमला किया जिसमें मेरे अलावा भाजपा के राज्य सभा सांसद व उ0 प्र0 के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे बी.पी. सिंघल सहित अन्य लोग भी सवार थे। यह हमें जान से मारने की साजिश थी। पर भगवत् कृृपा से पूरी तरह तोड़ दी गयी गाड़ी में भी जान बचाकर निकल सके। हमारा 32 किमी0 तक पीछा गया। आश्चर्य की बात है कि तमाम चश्मदीद गवाहों के वहां मौजूद होने के बावजूद पुलिस ने इन आक्रमणकारियों के खिलाफ आज तक ईमानदारी से जांच तक नहीं की, कारवाई करना तो दूर की बात रही। इन पर्वतों को आरक्षित वन घोषित करने वाले इंका के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत को शायद इस घटना की जानकारी नहीं। वरना ये हमलावर अब तक बेखौफ नहीं घूमते।

बसपा, भाजपा व इंका शासित इन तीनों राज्यों की इन घटनाओं के संदर्भ में  सोचना हागा कि अगर नक्सलवाद, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया है तो दोष किसका है? नक्सलवादियों का या उस पुलिस, शासन व न्यायतंत्र का जो आम लोगों के प्राकृतिक हक को छीन कर, दानवीवृत्ति से उनके परिवेश व जीने के साधनों को बर्बाद करने वाले खनन माफियाओं का साथ देता है?

Sunday, July 11, 2010

क्या फुटबाल क्रिकेट को धकिया देगी?

क्रिकेट की तरह तो अभी नहीं हुआ पर फुटबाल का बुखार अब भारत पर भी चढ़ गया है। चढ़ना भी चाहिए था। फुटबाल आम जनता का खेल है। बंगाल और गोवा ही नहीं भारत के पहाड़ी अंचलों में भी फुटबाल लोकप्रिय खेल है। पर इसे कभी ऐसी ख्याति नहीं मिली। जैसी फीफा के कारण मिल रही है। इसका एक कारण भारत में ंचैबीस घंटे चलने वाले 59 टीवी समाचार चैनल भी हैं। जो दिन में कम से कम ढाई घंटे फुटबाल दिखा रहे हैं। इससे इस खेल के प्रति उत्सुकता बढ़ी है। इतने समाचार चैनल तो पूरे यूरोप में भी नहीं। हमारे अखबार भी पहले फुटबाल की खबर खेल के पन्ने पर छोटी सी देते थे। अब फुटबाल पर विशेष संस्करण निकाल रहे हैं।

वैसे भी फुटबाल 134 देशों में खेली जाती है, जबकि क्रिकेट मात्र 13-14 देशों में। औपनिवेशिक देश होने के कारण हमारे देश के कुलीन वर्ग ने क्रिकेट को बड़ी आसानी से अपना लिया। यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। बाद में बाजार की रूचि इस खेल में बढ़ी तो विज्ञापन जगत ने इसे घर-घर का खेल बना दिया। क्रिकेट के खिलाड़ी फिल्मी सितारों से भी ज्यादा विज्ञापनों में दिखने लगे। पर पिछले दशक में विशेष कर पिछले तीन वर्षों में फुटबाल की तरफ बाजार का ध्यान गया। अब फुटबाल उठान पर है। विश्व कप फाईनल देखने भारत से फिल्मी सितारे, उद्योगपति ही नहीं उत्तर-पूर्वी राज्यों के मंत्रीमंडल तक दक्षिण अफ्रिका पहुंच गये हैं। पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आम दर्शक इस खेल को देखने भारत से जा रहे हैं। यह इसलिए अच्छा है कि एक कम खर्चीले, ज्यादा गतिमान और आम जनता के खेल को बढ़ावा मिल रहा है। पर फुटबाल  के प्रति क्या यह अचानक उमड़ा प्रेम है या यह भी बाजार की एक नई चाल?

देश के सट्टेबाजों से पूछा जाये तो पता चलेगा कि जिस खेल के प्रति देश में कोई रूचि नहीं थी आज उस पर देश में अरबों रूपये का सट्टा लग रहा है। आॅक्टोपस ही नहीं भारत में तोते, गौरेया और तीतर से भविष्य पढ़वाने वालों की भी चांदी हो गयी है। सब सट्टेबाज इनकी तरफ भाग रहे हैं। ताकि भविष्यवाणी जानकर पैसा लगायें। इसलिए इसे एक सामान्य घटना न माना जाये। जाहिरन फुटबाल को लोकप्रिय बनाकर विज्ञापन जगत और सट्टेबाज अपना एक नया बाजार खड़ा करना चाहते हैं। दर्शकों को लुभाने के लिए कार्यक्रमों में आकर्षण होना जरूरी है। क्रिकेट का कवरेज धीरे-धीरे अपना आकर्षण खोने लगा था। आपने पिछले कुछ वर्षों में क्रिकेट मैच के दौरान खाली दर्शक दीर्घाओं को टीवी पर देखा होगा। इसलिए यह एक सोची समझी रणनीति का परिणाम भी हो सकता है। जैसे साबुन या डिटर्जेंट कंपनी अपने उसी उत्पादन को हर वर्ष नये नाम और नये गुणों से भरा बता कर नये-नये विज्ञापनों के माध्यम से बाजार में लाती रहती है। इससे पहले कि क्रिकेट का बुखार उतरे फुटबाल का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। खैर, यह तो पर्दे के पीछे की बातें हैं। आम आदमी को तो जो सामने दिखता है वही सच लगता है और वही अच्छा भी लगता है। चाहे वह नकली ही क्यों न हो। स्वाईनफ्लू का कितना आतंक मचाया गया? पर आज पश्चिमी देशों में भी कुछ जागरूक नागरिकों के कारण यह तथ्य सामने आ रहा है कि दवा कंपनियों ने स्वाईनफ्लू का झूठा आतंक खड़ा किया था। जिससे उन्हें अरबों-खरबों को मुनाफा हो गया।

फिलहाल फुटबाल के मौजूदा बुखार की बात की जाये तो इसमें सबसे सुखद पक्ष यह है कि अब आजादी मिलने के इतने वर्षों के बाद फुटबाल धीरे-धीरे मुख्य धारा का खेल बनता जा रहा है। हमें खुश होना चाहिए कि इससे हमारे बच्चे एक ऐसे खेल में शरीक होंगे कि जो उनके शरीर को सेहतमंद बनायेगा। इस दृष्टि से इस बुखार को बढ़ने देना चाहिए। वैसे भी गरीब और अमीर सब इस खेल को खेल सकते हैं और इसका आनंद ले सकते हैं।

भारत के खेल मंत्रालय को इस बुखार का फायदा उठाना चाहिए और स्कूल और काॅलेजों में इसको बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम चलाने चाहिए। अगर स्पेन 32 वर्ष बाद फुटबाल के दिग्गजों को हरा कर सामने आ सकता है तो भारत को भी फुटबाल में विश्व खिताब जीतने का लक्ष्य बनाना चाहिए। हो सकता है आने वाले दिनों में फुटबाल की भी आईपीएल जैसी स्थिति बन जाये। जब बड़े-बड़े विनिवेशक इस खेल में पैसा लगाने लगे। तब हो सकता है कि अच्छे खिलाडि़यों को तैयार करने के लिए बढि़या प्रशिक्षण के भी इंतजाम किये जाये। अमरीका में भी फुटबाल की टीमों के मालिक बड़े-बड़े उद्योगपति और फाईनेंसर होते हैं जो आईपीएल की तरह पैसा लगाते हैं और करोड़ों कमाते हैं। आज बाजारीकरण के दौर में हर चीज बिकाऊ है तो फुटबाल क्यों पीछे रहे? अब तो इंतजार होगा फुटबाल के उन सितारों का जो धोनी और तेंदुलकर की तरह भारत के युवाओं के हृदय पर छा जायेंगे। तब हमें इस खेल से आम जनता को होने वाले लाभ की तरफ निगाह रखनी होगी।

Sunday, June 27, 2010

एंडरसन विवाद - इंका शर्मसार क्यों?

यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भारत से सुरक्षित भगाने के लिए जिम्मेदार लोगों को लेकर काफी विवाद खड़ा हो गया है। इंका में आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी लगाये जा रहे हैं। उधर भाजपा के नेताओं पर भी इस मामले में गुनहगार कम्पनी के खिलाफ राजग सरकार के दौरान कोई कार्यवाही न करने के आरोप लग रहे हैं। इस पूरे विवाद में इंका के प्रवक्ता दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के बचाव में खड़े हो गये हैं।

यह सही है कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वारेन एंडरसेन को भोपाल में गिरफ्तार किया था। पर बाद में उसे तुरत-फुरत जमानती कार्यवाही करके पूरी सुरक्षा के साथ विशेष विमान से दिल्ली पहुँचा दिया गया। जहाँ से वो देश छोड़कर भागने में सफल हो गया। इंका के अन्दरूनी स्रोतों का कहना है कि अर्जुन सिंह ने यह दोनों काम अपनी मर्जी से किये, इसमें केन्द्र सरकार की कोई भूमिका नहीं। पर आक्रामक राजनेताओं ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। कई अधिकारियों के बयान भी इस आशय के आये हैं कि अर्जुन सिंह को केन्द्र से आदेश हुए थे एंडरसन को भोपाल से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए। इन दोनों ही आरोपों-प्रत्यारोपों में क्या सच है और क्या झूठ, यह तो आने वाले दिनों में और साफ हो जायेगा, पर इस पूरे विवाद का एक दूसरा पक्ष भी है। प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व मंत्री रहे कमल मोरारका कहते हैं कि इंका को इसमें इतनी सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ रही है? वे बताते हैं कि एंडरसन भारत आया ही इस शर्त पर था कि वो भोपाल गैस त्रासदी के नुकसान ज़ायजा ले सके। पर इसके लिए उसने भारत सरकार से सुरक्षित रास्ते की माँग की थी। जो मान ली गयी थी। सुरक्षित रास्ता यानि भारत आकर बिना गिरफ्तार हुए लौट जाने की शर्त। ऐसे में एंडरसन को गिरफ्तार करना वायदे का उल्लंघन होता। क्योंकि हमारा देश एक सम्मानित देश है जहाँ कानून का शासन है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के नियमों का सम्मान करता है। यह कोई आतंकवादी देश नहीं जहाँ वायदा कुछ किया जाए और फिर धोखे से गिरफ्तार कर लिया जाए। अगर गिरफ्तार ही करना है तो अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत हमारी पुलिस को अमरीका से अनुमति लेकर वहाँ जाकर गिरफ्तारी करनी होगी। इसलिए उस वक्त एंडरसन का वापिस भेजा जाना सही प्रशासनिक कदम था। जिसके लिए इंका को शर्मसार होने की कोई जरूरत नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि एंडरसन को अपराधी न माना जाए या उसके खिलाफ गिरफ्तारी की प्रक्रिया को ढीला छोड़ दिया जाए।

उल्लेखनीय है कि संवेदनशील स्थितियों में प्रशासनिक और राजनैतिक निर्णय सूझबूझ के साथ लिये जाते हैं और उसके कुछ अघोषित भी नियम होते हैं। उदाहरण के तौर पर मिजोरम के बागी नेता लालढेंगा एक फरार अपराधी थे और देश की पुलिस को उनकी तलाश थी। उसी दौरान उनकी कई बैठक दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के निजी सचिव यशपाल कपूर से हुई। श्रीमती गाँधी की श्री कपूर को हिदायत थी कि इन बैठकों की जानकारी पुलिस, मीडिया और खुफिया एजेन्सियों को न दी जाए। क्योंकि श्रीमती गाँधी नहीं चाहती थीं कि लालढेंगा से किसी समझौते पर सहमति हुए बिना ही स्थिति विस्फोटक बन जाए। यह उनकी राजनैतिक सूझबूझ थी। कोई भी समझौता, और वो भी जो राजनैतिक रूप से इतना संवेदनशील हो, एक दो बैठक में नहीं हुआ करता। इसलिए कई बैठकों की जरूरत होती है जो भूमिगत नेता से बात किये बिना सम्भव नहीं था। भूमिगत नेता को अगर गिरफ्तार कर लिया जाता तो समझौते की सम्भावना समाप्त हो जाती। अगर पुलिस को उन्हें पकड़ना ही था तो मिजोरम जाकर लालढेंगा को पकड़ लाती। कानून और पुलिस अपना काम करते हैं और राजनैतिक प्रक्रिया अलग चलती रहती है। पर सुरक्षा के आश्वासन के बाद गुप्त वार्ता करने आये किसी नेता के साथ, चाहे वह अलगाववादी ही क्यों न हो, विश्वासघात नहीं किया जा सकता था।

लालढेंगा और एंडरसन में कोई समानता नहीं है। एक भारत के ही एक प्रांत के उग्रवादी संगठन का नेता था। जो भारत से आजादी चाहता था और दूसरा हजारों निरीह लोगों की अकारण मौत की जिम्मेदार कम्पनी का मुखिया। पर जैसा पहले उल्लेख किया है कि अपराधी को पकड़ने की भी कानूनी प्रक्रिया होती है। जहाँ अन्धा कानून होता है या आतंक का राज होता है, वहाँ तो यह हो सकता है कि अजमल कसाब को चैराहे पर खड़ा करके गोली मार दी जाए। पर कानून के शासन में उस जाने-माने आतंकवादी को भी पूरी कानूनी लड़ाई लड़ने का हक दिया गया। अगर सबूत उसके पक्ष में होते तो वह आसानी से छूट सकता था। क्योंकि इस पूरे मुकदमें की सुनवाई अदालत में हुई। पर उसके खिलाफ इतने सबूत और चश्मदीद गवाह हैं कि उसको फाँसी की सजा सुनाई गयी। यही बात एंडरसन पर भी लागू होती है। तत्कालीन राज्य और केन्द्रीय सरकारों और उसके बाद सत्ता में आयी सरकारों को एंडरसन की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को तीव्रगति से आगे बढ़ाना चाहिए था, जो नहीं किया गया और इसके लिए सत्ता में रहे सभी दल जबावदेह हैं। पर फिलहाल जो विवाद खड़ा किया गया है, उसको लेकर तो श्री मोरारका का तर्क काफी ठीक लगता है जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

Sunday, June 20, 2010

होलैंड में साइकिल – भारत में कार

भारतीय विदेश सेवा के कितने ही अधिकारी होलैंड गए होंगे. ‍‌‌‌कितने ही हमारे दूतावास में तैनात भी हैं. न जाने कितने मंत्री, सांसद व देश के आला अफसर देश के खर्चे पर होलैंड की यात्रा कर आये हैं ? पर किसी ने आकर देशवासियों को ये नहीं बताया की इतने संपन्न देश में लोगों को कार व स्कूटर मोटरसाइकिल बेचने पर जोर नहीं है, जैसा की आज हमारे देश में है. बल्कि ज़ोर इस बात पर है की वहां की जनता चाहे धनि हो या साधारण ज्यादा से ज्यादा साइकिल पर सफर करे. जिससे पर्यावरण बचे, सडको पर ट्रैफिक की भीड़ न बढे  और पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम हो सके. ज़ाहिर है इससे लोगों की सेहत तो बनेगी ही.

होलैंड में, योरोप में सबसे ज्यादा साइकिल है. वहां के मंत्री, अफसर और पैसेवाले भी साइकिल को कार या स्कूटर मोटरसाइकिल से ज्यादा पसंद करते हैं. देश में हर सड़क पर साइकिल चलाने की पट्टी अलग बनी हुई है. साइकिल को ट्रेनों में रख कर ले जाने के लिए हर कोच में एक एक दरवाजा अलग होता है जिस पर साइकिल बनी होती है. मतलब यह की आप अपने घर से साइकिल पर निकलें, स्टेशन जाएं, टिकट खरीदें और साइकिल लेकर ट्रेन पर चढ़ जाएं. जब अपने गंतव्य पर उतरें तो स्टेशन से बाहर आते ही साइकिल पर चल दें. हैं न किफ़ायत और फायदे की बात. वहां की सरकार ने कारों पर ऐसे टैक्स लगा रखे हैं की ज्यादातर लोग कार खरीदने से बचें. पर हमारी सरकारों ने आज तक इस बढ़िया उदाहरण को अपनाने की कोई चेष्टा नहीं की है. नतीजतन आज देश की हर सड़क पर ट्रेफिक जाम होना आम बात है. पेट्रोल के धुएँ से बढता प्रदूषण हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गया है. पेट्रोल के बड़ते दामों से हमारी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. हम निकम्मे और आलसी होते जा रहे हैं. मैं देखता हूँ की गांव के हट्टे कट्टे नौ जवान जो पहले कई किलोमीटर पैदल चलना शान समझते थे, वो आज गांव की गलियों में मोटरसाइकिल दौड़ाना शान समझते हैं. यह आत्मघाती प्रवृत्ति हैं.

होलैंड तो योरोप का वह देश है जिसने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किये. खूब धन कमाया. वहां थोड़े लोग हैं. काफी सम्पन्नता है. पर भारत की गरीब जनता और भारत के सीमित संसाधनों पर बढता दबाव हमें इस बात की आजादी नहीं देता की हम पेट्रोलियम आधारित वाहनों को बढने की इस कदर छूट दे दें की सारा देश ही बावला हो जाये. मैं पिछले तीन हफ़्तों से योरोप का भ्रमण कर रहा हूँ. हर शहर में खूब पैदल चलता हूँ. हर शहर में किराय पर साइकिल लेता हूँ और खूब घूमता हूँ. इतना मज़ा आ रहा है साइकिल चलाने में की मुझे लगा की आप सभी सुधि पाठकों का ध्यान इस खास उपलब्धि ओर आकर्षित करूँ. ऐसा नहीं है की यह मेरे लिए नई जानकारी है, गत तीस वर्षों में कई बार विदेश यात्रा पर यह दृश्य देखा. पर होलैंड पहली बार गया तो वहाँ के साइकिल प्रेम ने बहुत प्रभावित किया. पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद होगा की ब्रिटिश साम्राज्य के ताकतवर प्रधानमंत्री चर्चिल भी साइकिल चला कर बाजार जाया करते थे.

हमारे देश में जब साइकिल आयी थी तो एकदम बहुत लोकप्रिय हो गई. यहाँ तक की शादी में दुल्हिन विदा करने की शर्त दहेज में साइकिल की मांग के साथ जुड़ गई. बहुत कम लोगों को पता होगा की देश के अति महत्वपूर्ण पद पर बैठ चुके एक व्यक्ति ने भी भोपाल में अपनी शादी के दौरान बिना साइकिल दहेज में लिए, विदाई न करने की जिद पकड़ ली थी. रात में ही साइकिल कसवाई गई और तब बारात विदा हुई. कुल मिलकर बात इतनी सी है की हमारे देश की आर्थिक सामाजिक स्तिथि को देखते हुए साइकिल हर दृष्टि से वरदान है. पर आज हम इसे गरीबों और मजदूरों का वाहन मान कर इसकी उपेक्षा कर रहे हैं. यह हमारे हित में नहीं. योरोप और अमरीका के छात्रों में साइकिल बहुत लोकप्रिय है. हर कैम्पस पर विद्यार्थी व शिक्षक साइकिल ही चलाते नज़र आते हैं. जबकि भारतीय शिक्षा संस्थानों में अपने परिसर के भीतर पेट्रोलियम आधारित निजी वाहनों के चलाने पर तो शिक्षा मंत्री कपिल सिबल रोक लगा ही सकते हैं. इससे कुछ उदाहरण सामने आएगा.

हमारे देश के पर्यावरण प्रेमीयों ने भी साइकिल के प्रति अपनी समझ विकसित नहीं की है. वे सब पश्चिम की इस नियामत को अनदेखा कर बैठे हैं. क्यूंकि उनके जीवन में साइकिल कहीं दिखाई नहीं देती. मुझे लगता है की समय आ गया है की जब देश में साइकिल चलाओ  अभियान की शुरुआत होनी चाहिए. सांसदों, विधायकों की दर्जनों प्रशंसकों से भरी गाड़ियों की जगह साइकिल की टोली जब संसद और विधान सभा पहुंचेगी तो नजारा कुछ और ही होगा. सुरक्षा के कारणों को अनदेखा किये बिना राहुल गाँधी को इस दिशा में पहल करनी चाहिए. उन्हें चाहिए की राजनीति में अश्लीलता की हद तक बड गयी पेट्रोल व् डीजल आधारित वाहनों की भीड़ की जगह उनके कार्यकर्ता साइकिल का प्रयोग गर्व से हर दिन करें. दिखावे और फोटो खिचवाने के ढोंग के लिए नहीं. फिर वे दूसरे दलों को भे मजबूर कर सकते हैं. क्यूंकि यह साफ़ होगा की जिस दल के कार्यकर्ताओं पर जितने ज्यादा पेट्रोलियम आधारित वाहन है वह उतना ही ज्यादा काला धन खर्च कर रहा है. मतलब यह की वह दल ज्यादा भ्रष्ट है.

पर्यावरण की चेतना टीवी पर रोजाना देने वाले टीवी चैनलों को भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए की वे खुद अपने दैनिक जीवन में पर्यावरण पर कितना बोझ दाल रहे हैं. जब तक हमारी कथनी और करनी एक नहीं होगी तो हम किसी को भी प्रभावित नहीं कर पाएंगे. अपने पर्यावरण को भी नहीं बचा पाएंगे. इसलिए समय की मांग है की हमारे देश के साधन संपन्न लोग साइकिल की ओर चलें.

Sunday, June 13, 2010

क्या टीवी समाचारों पर सेंसर हो

पिछले दिनों अजमल कसाब को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो देश के टीवी चैनलों पर रिपोर्टिंग देखकर सिर धुनने को मन करा। रिपोर्टर दौड़ दौड़ कर ओबी वैन के सामने आकर कचहरी के कमरे की खबर ऐसे दे रहे थे मानों कोई बहुत गहरी और गोपनीय जानकारी निकाल लाए हों। ऐंकर पर्सन भी उसी उत्तेजना में ऐसे बोल रहे थे मानों भारत की पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में विजय हो गई हो। कसाब के कृत्य, उसके विरुद्ध मौजूदा सबूत और गवाहों के बयान आने के बाद इससे इतर और क्या फैसला अदालत दे सकती थी फिर इतनी उत्तेजना और हड़बड़ी किस बात की। 

क्या आपको नहीं लगता कि आज टीवी चैनलों पर जो समाचार दिखाए जा रहे हैं उनपर सेंसर लगाया जाए। बीस बरस पहले सन 1990 में दिल्ली हाई कोर्ट में मैंने वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरुद्ध एक जनहित याचिका दायर की थी। तब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। कालचक्र वीडियो की मार्फत मैंने देश में पहली बार हिन्दी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। जितनी पैनी और खोजी टीवी रिपोर्ट इस वीडियो में तब दिखाई गई थी उनसे घबराकर सरकार ने वीडियो समाचारों पर सेंसर लगा दिया। इसके विरूद्ध हमने एक लंबी लड़ाई लड़ी। बाद में टीवी चैनल आ गए। इसी बीच प्रसार भारती का भी गठन हुआ। बीजी वर्गीज समिति की रिपोर्ट आई। कुल मिलाकर, टीवी समाचारों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई। टीवी दर्शकों और देश के जागरूक नागरिकों ने राहत की सांस ली। फिर तो समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गई।

आज जितने समाचार चैनल हैं कि आम दर्शक को उनके नाम तक याद नहीं हैं। ज्यादातर चैनलों को विज्ञापन नहीं मिल रहे या इतने कम मिल रहे हैं कि वे घाटे में चल रहे हैं। कोई घाटे में टीवी चैनल भला क्यों चलाएगा? जाहिर है इससे कुछ दूसरे हित साधे जा रहे हैं। नतीजतन खबरों की जगह कचरा परोसा जा रहा है। चाहे वो लोगों की निजी जिन्दगी में ताकझांक हो या अश्लीलता की नुमाईश। इन समाचार चैनलों में न तो विषय के प्रति गंभीरता दिखाई देती है न चैनल की कोई संपादकीय नीति समझ में आती है। दिशाहीन और आत्मविमोहित एंकर पर्सन और रिपोर्टर बौराए से दीखते हैं। बहुतों की तो प्रस्तुति देखकर उन्हें एक थप्पड़ जड़ने का जी होता है। इनमें कई नामी चेहरे भी हैं जिन्हें सवाल पूछने तक की तमीज नहीं है। जिन गिने चुने चेहरों ने विज्ञापनों के माध्यम से खुद को देश का सर्वश्रेष्ठ टीवी ऐंकर स्थापित किया था उनके नाम बड़ी बड़ी दलालियों में आने के बाद वे भी अपनी चमक खो चुके हैं। ऐसे में दर्शक परेशान हैं कि समाचार के नाम पर उसके साथ कैसा मजाक किया जा रहा है।     

टीवी चैनलों पर आने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में अलग-अलग लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है और भिन्न लोग भिन्न कार्यक्रमों को पसंद करते हैं। पहले का बुद्धु बक्सा जब एक साथ कई तरह के कार्यक्रम दिखा सकने वाले मनोरंजन यंत्र में बदल रहा था तो इसका विरोध भी किया गया था और यह आशंका जताई गई थी कि विदेशी कार्यक्रमों से देश की संस्कृति खराब होगी। अब इतने समय बाद कहा जा सकता है कि बाजार रूपी इस विशाल देश ने चैनलों को भारतीय रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । कुछेक चैनलों ने अपने कार्यक्रमों का भारतीयकरण भले ही नहीं किया हो और आप चाहे उन्हें अच्छा न मानें पर यह तो सत्य है कि भारतीय बाजार में बने रहने के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं को अपनाना पड़ा है।

पर जहां तक खबरों का सवाल है, खबरों का मतलब ही बदल गया है और आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।

दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिन्सा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदातल में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चनेल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें।