Sunday, May 24, 2009

भाजपा की दशा और दिशा

मजबूत नेता निर्णायक सरकारका नारा जनता ने ठुकरा दिया। न तो लालकृष्ण आडवाणी में उन्हें किसी मजबूत नेता के लक्षण दिखायी दिये और न ही राजग की सम्भावित सरकार में निर्णय लेने की क्षमता। दरअसल इस नारे का चुनाव ही गलत किया गया। इसलिए चुनाव प्रचार पहले दिन से ही जनता की भावनाओं को स्पर्श नहीं कर पाया। इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी कि भाजपा के रणनीतिकार ने जनता की नब्ज को ही नहीं पहचाना? अगर पिछले वर्षों में विधानसभाओ के चुनावों में हुयी जीत का सेहरा अरूण जेटली के सिर बंधता रहा तो इस हार के लिए भी वही जिम्मेदार हैं जिन्होंने जनता को समझने में इतनी बड़ी भूल कर दी। जबकि कहा ये जा रहा है कि इस हार के लिए भाजपा नेतृत्व साझा जिम्मेदार है।

जब हार हो जाती है तो पोस्टमार्टम तो होता ही है। आज भाजपा में भी यही हो रहा है। अब भाजपाई खुलकर मान रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री बनाकर प्रस्तुत करना गलत रहा। जीवन के नवें दशक में वे न तो नयी ऊर्जा का संचार कर पाये और न ही उनमें देश के युवाओं को अपना भविष्य दिखायी दिया। जरूरत भाजपा को भी युवा नेतृत्व प्रस्तुत करने की थी। ऐसा युवा कौन होता, इस पर भाजपा में आज भी मतभेद हैं। भाजपा का आम कार्यकर्ता नरेन्द्र मोदी को अपना आदर्श मानता है। जबकि संघ और भाजपा के कुछ नेता इससे सहमत नहीं हैं। यह कहने से नहीं चूक रहे कि चुनाव के बीच नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दूसरा प्रबल दावेदार बताकर ठीक नहीं किया गया। इससे भी दल को हार का मुँह देखना पड़ा। जबकि दूसरा पक्ष मानता है कि अगर शुरू से नरेन्द्र मोदी को सामने रखा जाता तो देश में एक नई ऊर्जा का संचार होता। यह सही है कि उन पर गोधरा को लेकर हमले होते तो भी मोदी अपने काम के बूते लोगों को आश्वस्त कर देते और भाजपा की नैया पार लगा देते। भविष्य में यही होने जा रहा है।

जिस महत्वपूर्ण बात पर अभी चर्चा नहीं हो रही, वो यह है कि भाजपा की इस हार के लिए मुसलमान वोटों का एकसाथ इंका के पक्ष में चले जाना भी है। अयोध्या में विवादास्पद ढाँचे के विध्वंस के बाद से इंका के पारंपरिक वोट बैंक मुसलमानों ने इंका का साथ छोड़ दिया था। 19 वर्ष बाद उन्हें लगा कि मौजूदा हालात में इंका ही इनके हितों का बेहतर संरक्षण कर सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि जनता को लगा कि भाजपा के पास जनहित का कोई मुद्दा ही नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में आम आदमी को ध्यान में रखकर कई राहत योजनाओं का जिक्र था। पर पता नहीं क्यों अरूण जेटली की टीम ने इन मुद्दों को नहीं उछाला और सारी ताकत प्रधानमंत्री को कमजोर सिद्ध करने में लगा दी।  

दरअसल रामजन्मभूमि आन्दोलन के बाद से ही भाजपा नेतृत्व अपने भ्रमित होने का संदेश देता रहा है। इस देश की सनातनी सांस्कृतिक विरासत को हिन्दुत्व के तंग दायरे में सीमित कर उसकी रक्षा करने का दम्भ भाजपाई भरते रहे हैं। सच्चाई यह है कि उनके जीवन मूल्य और आचरण ऐसा कोई परिचय नहीं देते। इसके विपरीत भाजपा का चेहरा इंका की दसवीं कार्बन काॅपी जैसा रहा है। न खुदा ही मिला, न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे। न तो भाजपा नेतृत्व सनातनी दिखायी देता है और न ही धर्मनिरपेक्ष, न तो उसकी नीतियाँ इस देश की जमीनी हकीकत से जुड़ी हैं और न हीं विकास के आधुनिक प्रारूप से। एक तरफ उसके कार्यकर्ता डिस्को में जाकर तोेड़-फोड़ करते हैं और जनता के नैतिक पुलिसिए बन जाते हैं, दूसरी तरफ उसके ही चुनावी प्रत्याशी पाश्चात्य संगीत को गगनभेदी स्वर में बजाकर रातभर शराब की दावत करते हैं और टोकने पर कहते हैं कि कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए चुनाव में यह सब करना पड़ता है। भाजपा का नेतृत्व यह सब देखता रहता है और भूल जाता है उस दौर को जब भाजपा के मात्र 2 सांसद लोकसभा में होते थे। रामजन्म भूमि का आन्दोलन चलाकर, जनसभाओं में रामधुन की अलख जगाकर और सौगंध राम की खाते हैं, हम मन्दिर वहीं बनायेंगेजैसे गगनभेदी नारे गुंजायमान करके भाजपा यहाँ तक पहुँची कि 1998 में उसकी केन्द्र में पहली बार सरकार बन गयी। फिर भी भाजपाईयों को समझ में नहीं आया। सबको खुश करने के चक्कर में वह अपनी पहचान खो बैठी। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।

इसी तरह आर्थिक विकास के मामले में भी भाजपा नेतृत्व भ्रमित रहा है। एक तरफ उसका सहोदर स्वदेशी जागरण मंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी जागरण करता है और दूसरी ओर राजग के शासनकाल में उदारीकरण इस सीमा तक बढ़ जाता है कि राजग पर अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करने का आरोप लगता है। अब अगर भाजपा विकास के माॅडल को लेकर ही स्पष्ट नहीं है तो जनता को क्या सपना दिखायेगी? गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्रियों के काम को लोगों ने पसन्द किया है। इसलिए उसे वहाँ सफलता मिली है। पर सफलता का यह ग्राफ इसलिए गिरा भी है क्योंकि यह चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा गया। इसलिए इन राज्यों में भी इंका की छिपी लहर ने काम किया।

जो होना था सो हो गया। अब तो भाजपा को आगे की बात सोचनी होगी। आडवाणी जी को उनकी इच्छा के विरूद्ध विपक्ष का नेता बनाना ठीक नहीं है। जब वे घोषणा ही कर चुके थे तो उनको अब आराम करने देना चाहिए। पुस्तकें लिखें, देश-विदेश में भाषण दें और पार्टी नेतृत्व को अपने जीवन के अनुभवों का लाभ देते रहें। प्रधानमंत्री का सपना देखने वाला और इस उम्र में भी इस जीवट से चुनाव लड़ने वाला व्यक्ति अब घायल और हताश विपक्ष का नेतृत्व उत्साह से कैसे कर सकता है? यह उन पर अत्याचार है। पर भाजपा की अन्दरूनी कलह और वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी जी को ढाल बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे पहले कि यह गन्दगी और बढ़े, इस विषय पर भाजपा की चिन्तन बैठक होनी चाहिए और खुले दिमाग और साझी समझ से भाजपा का नया नेता चुना जाना चाहिए। जरूरी नहीं कि वो पुराने थके-पिटे चेहरों में से कोई हो। बेहतर तो यह होगा कि एक ऐसा चेहरा सामने आये जो उसी तरह नयी ऊर्जा का संचार कर सके जैसा इंका में राहुल गाँधी ने, रालोद में जयंत चैधरी ने, नेकाँ में उमर अब्दुल्ला ने किया है। बहुसंख्यक हिन्दु समाज से जुड़े ऐसे तमाम सवाल हैं जिन्हें अगर ठीक से और ईमानदारी से लेकर चला जाए तो एक बहुत बड़ा वर्ग साथ खड़ा रह सकता है। यह मानना गलत है कि अब इन मुद्दों की सार्थकता नहीं रही। तकलीफ इस बात की है कि इन मुद्दों को भाजपा के नेतृत्व ने कभी भी न तो ठीक से समझा, न अपनाया और न ही उनकी वकालत की। राजनीति में कभी कोई हाशिए पर नहीं जाता। फिर इतने बड़े हिन्दु समाज के हित साधने का लक्ष्य रखने वाले अगर ईमानदार हांेगे तो वे फिर से ताकत खड़ी कर पायेंगे।

Sunday, May 17, 2009

आगे का एजेण्डा

अब सब सफलता और असफलता के मूल्यांकन में जुटे हैं। बात होनी चाहिए आगे के एजेण्डा की। वामपंथी दलों ने ठीक ही निर्णय लिया है कि वे विपक्ष में बैठेंगे। उनकी सप्रंग को जरूरत भी नहीं है। पर नीतिश कुमार का यूपीए के साथ आना नीतिश के फायदे में रहेगा। इससे बिहार के विकास के लिए बड़ा पैकेज और सहूलियतें मिल पायेंगी, ठीक वैसे ही जैसे राजग के शासन में चन्द्रबाबू नायडू ने केन्द्र से वसूली थीं। जाहिर है कि भाजपा के सहयोग पर टिकी बिहार सरकार फिर चल नहीं पायेगी। जिसका सरल उपाय नीतिश कुमार के पास यही होगा कि वे अपनी लोकप्रियता के शिखर के इस दौर में सरकार गिर जाने दें और विधानसभा भंग करवाकर नये चुनावों की घोषणा कर दें। जनता को बतायें कि अगर बिहार का विकास करना है तो उन्हें स्पष्ट बहुमत दें। हालांकि ऐसी हालत में कांग्रेस उनसे सीटों का बंटवारा चाहेगी जो विवाद का विषय बन सकता है। पर खुले दिमाग और बड़ी सोच के साथ ऐसे झंझटों से निपटा जा सकता है। इससे नीतिश को एक लाभ और होगा कि उनके दल के कुछ लोग केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी आ जायेंगे। जाहिर है कि इन हालातों में वे राजद को सप्रंग के साथ नहीं देखना चाहेंगे। पर लालू और इंका का सुख-दुख का साथ रहा है। हालांकि लालू का जो रवैया इस चुनाव के पहले रहा और जैसे परिणाम आये हैं उससे उनकी कोई उपयोगिता अब सप्रंग को नहीं है। फिर भी वे सप्रंग को सहयोग देना चाहेंगे और सप्रंग उनसे बिगाड़ेगा नहीं। हाँ, उनके और नीतिश के बीच एक संतुलन कायम करने की जरूरत होगी। जो इन हालातों में असंभव नहीं है।

ममता बनर्जी के साथ इंका को आर्थिक नीतियों पर दृष्टि साफ करनी होगी ताकि भविष्य में विवाद पैदा न हो। पर नवीन पटनायक के साथ जुगलबंदी शायद मुश्किल पड़े क्योंकि वहाँ भी उनका सीधा विरोधी दल इंका है। बिहार की तरह वह भी अपने राज्य की तरक्की के लिए ऐसे निर्णय ले सकते हैं जो उन्हें बड़ा फायदा दिला सके। सप्रंग के बाकी सहयोगी दलों को तो कोई दिक्कत नहीं है। वे मानते हैं कि सबसे बड़ा दल होने के नाते उन्हें सप्रंग की अध्यक्ष के निर्णय स्वीकार होंगे। प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखने वाले शरद पवार तक यह स्वीकार कर रहे हैं।

असली मामला तो राहुल गाँधी के भविष्य का है। इंका की संस्कृति के अनुसार वे निश्चय ही भावी प्रधानमंत्री हैं। पर राहुल की विनम्रता और सोनिया व राहुल का चुनाव के पहले डाॅ. मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाये जाने का उद्घोष इतनी जल्दी बदला नहीं जा सकता। पर ऐसी हालत में जब युवाओं ने राहुल के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया है तो उनमें सत्ता हासिल करने की अधीरता भी होगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो कह ही दिया कि राहुल को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। खुद राहुल शायद इसके लिए अभी तैयार न हों। पर एक रास्ता है। प्रधानमंत्री तो मनमोहन सिंह ही बने पर राहुल को उपप्रधानमंत्री बनाकर युवाओं से जुड़े मंत्रालयों का कार्यभार सौंपा जा सकता है। इससे इंका को दो लाभ होंगे। एक तो दोनों तरह का नेतृत्व मजबूत बना रहेगा, बुजुर्गों का भी और युवाओं का भी। दोनों के अनुभव और ऊर्जा का लाभ मिलेगा। सबसे बड़ी बात तो ये होगी कि समय-समय पर उठने वाली अफवाहों की गंुजाइश नहीं बचेगी। वर्ना बात-बात पर खबरें उड़ा करेंगी कि सप्रंग में नेतृत्व परिवर्तन की संभावना। इसका एक लाभ और भी होगा कि राहुल गाँधी को सरकार चलाने का अनुभव मिलने लगेगा। इतना ही नहीं, उपप्रधानमंत्री का पद उनकी पारिवारिक विरासत, इंका संस्कृति और युवा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप होगा। जिसमें हताशा की गुंजाइश नहीं होगी। इंका को यह समझ लेना होगा कि जनता आर्थिक स्थायित्व के साथ विकास चाहती है। वैश्वीकरण इसका समाधान नहीं है। मंदी की मार से बचने के लिए आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की बुनियादी सोच ही कारगर रहेगी।

जहाँ तक भाजपा की बात है, अब तो सब यही कर रहे हैं कि आडवाणी की पारी खत्म। सपना चूर। प्रधानमंत्री पर हमले का अभियान उल्टा पड़ा। हमने तो 19 अपै्रल,09 को अपने इसी काॅलम में आडवाणी को चेताया था कि ये अभियान का तरीका ठीक नहीं है। बार-बार टी.वी. पर सीधी बहस की चुनौती देकर वे क्या सिद्ध करना चाह रहे हैं। अगर डाॅ. सिंह ने उनसे हवाला काण्ड से जुड़े सवाल पूछ लिये तो वे क्या जबाव देंगे? यह रोचक बात है कि अगले दिन ही अमर उजाला जैसे कई दैनिकों में खबर छपी कि आडवाणी जी अब मनमोहन सिंह पर हमला नहीं करेंगे। कारण जो भी हो, देर आये, दुरस्त आये। अब उनके ससम्मान राजनैतिक सन्यास का समय आ चुका है। युवा नेतृत्व को विपक्ष के नेता व दल के नेता की कमान देकर उन्हें दल का भीष्म पितामह बन जाना चाहिए।  तभी लम्बे समय तक दल को उनकी अनुभव और ज्ञान का लाभ मिल सकेगा और उनको उनका यथोचित सम्मान भी मिलता रहेगा।

भाजपा की दिक्कत यह है कि न तो वह हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रति ईमानदार है और न ही वह इस देश के संस्कृति और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी विचारधारा को ठोस रूप दे पायी है। हमने बार-बार यह दोहराया है कि हिन्दुत्व के मुद््दे पर भाजपा का नेतृत्व भ्रमित और कमजोर नजर आता है। इसलिए उसे भावनात्मक वोट भी नहीं मिल पाता। दूसरी ओर उसके नेतृत्व में कोई ऊर्जा, भविष्य का सपना और लोगों को आकर्षित करने का करिश्मा दिखायी नहीं देता। इसलिए सफलताऐ ंतो मिलती हैं पर एक लहर नहीं बन पाती। अब वह समय आ गया है जब उसे पाँच वर्ष और इंतजार करना है। इस दौर में इन दोनों ही कमजोरियों को दूर करना होगा। नहीं करेगी तो जैसा कभी भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले गोविन्दाचार्य ने कहा है कि भाजपा झीने केसरिया आवरण वाली कांग्रेस ही बनकर रह जायेगी।आज तो वह न कांग्रेस है और न ही जनसंघ।

सरकार तो अब बन गयी और चलेगी भी। पर क्या आम आदमी के हक में नीतियाँ और कार्यक्रम लागू हो पायेंगे? ये सवाल गम्भीर लोगों के मन में हमेशा रहता है। सवा चार सौ सांसद लाकर भी 1984 में इंका लड़खड़ा गयी थी। डाॅ. सिंह व राहुल गाँधी दोनों को खुले दिमाग से इस तथ्य को स्वीकारना चाहिए और यह भी कि उनके दल का राजनैतिक भविष्य ठोस परिणामों पर निर्भर होगा। जनता तक अगर नीतियों का लाभ पहुँचेगा तभी वे मजबूत बनेंगे। वैसे इस बार भी जो जनादेश उन्हें मिला है, वह सकारात्मक वोट है। जिसके लिए उनका खुश और संतुष्ट होना लाजमी है।

Sunday, May 10, 2009

चुनाव आयोग में सुधार की जरूरत

दिल्ली में मतदान के दिन खबर आई कि मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला का नाम मतदाता सूची में नहीं है। बाद में पता चला कि वे गलत बूथ पर पहुंच गए थे और मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद उन्होंने सरकारी घर बदल लिया था। इसलिए अब उनका नाम दूसरे मतदान केंद्र में था और उन्होंने वहां वोट डाल दिया। देश के मुख्य चुनाव आयुक्तए राजधानी दिल्ली में जब गलत मतदान केंद्र पर पहुंच सकते हैं तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आम लोगों के साथ ऐसा नहीं होता होगा। श्री चावला तो बड़े सरकारी अफसर हैंए चुनाव करा रहे हैं और सरकारी मकान में रहते हैं इसलिए उनका नाम किस दूसरी सूची में है यह तुरंत पता चल गया और उन्होंने वहां जाकर वोट भी डाल दिया। पर क्या आम आदमी को यह सुविधा उपलब्ध होगी। अगर नहीं होगी तो उसका सीधा सा असर यह होगा कि वह वोट नहीं डाल पाएगा।

दिल्ली की मुख्य चुनाव आयुक्त सुश्री सतबीर सिलस बेदी ने कहा है कि दिल्ली में 53 प्रतिशत मतदान का श्रेय उनके सहकर्मियों और कर्मचारियों को भी जाता है। खबर के मुताबिक 80 अधिकारियों की एक टीम अक्तबूर 2007 से लगातार इस काम में लगी थी। इनलोगों ने मतदाता सूची को संशोधित व अद्यतन करने का काम किया। इसका असर हुआ। सवाल उठता है कि क्या ऐसा प्रयास सारे देश में किया जाता है घ् उत्तर होगा नहीं। सुश्री बेदी ने यह भी कहा है जनता को वोट देने के लिए जागरूक करने वाले प्रचार का ऐसा असर हुआ कि उनके कार्यालय के फोन काफी व्यस्त रहे और दिन भर वोटिंग से संबंधित जानकारियों के लिए लोगों के फोन आते रहे।

दिल्ली के पास ही गुड़गांव और गाजियाबाद में लोगों को अपने राज्यों के चुनाव कार्यालय के नंबर नहीं मालूम थे। ऐन मतदान के दिन अखबारों में खबर छपी थी कि गुड़गांव के कई अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब हो गए हैं। गाजियाबाद के वैशाली इलाके में भी यही हुआ। वर्ष 2002 से वहां रह रहे पत्रकार संजय कुमार सिंह ने बताया कि इस बार उनका नाम मतदाता सूची में नहीं था। जबकि उनके पास 05 जनवरी 2005 को जारी मतदाता पहचान पत्र है तथा पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उन्होंने मतदान किया भी था। इस बार वैशाली में ग्यारह मंजिल की जिस बिल्डिंग में वे पिछले सात साल से लगातार रह रहे हैं उसमें रहने वाले तमाम लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब थे। यही हाल आस.पास की ऐसी कई बिल्डिंग में रहने वालों का था। जाहिर है कि वैशाली की मतदाता सूची बहुत ही लापरवाही से बनाई गई है और उसमें कोई क्रमए सिस्टमए व्यवस्था नजर नहीं आती है। इसलिए जिनका नाम है वे वोट नहीं डाल पाते और जो वोट डालना चाहते हैं उनके नाम ही नहीं हैं।

भविष्य में यह स्थिति न रहे इसके लिए इसमें सोच.समझ कर काम करने की जरूरत है। देश के अलग.अलग हिस्सों में मतदाताओं को शिकायत है कि उनका मतदान केंद्र अक्सर बदल जाता है जिसकी  सूचना सरकारी स्तर पर देने का रिवाज ही नहीं है। ऐसे में अगर किसी मतदाता को यह पता ही न चले कि उसका नाम मतदाता सूची में कहां है और उसे वोट डालने किस मतदान केंद्र पर जाना है तो वह वोट कैसे डालेगा। वैशाली के मतदाताओं के नाम एक बार मतदान सूची में शामिल होने और फिर गायब हो जाने के बारे में पता चला है कि पुनरीक्षण के समय अगर किसी बीएलओ को नाम नहीं मिलते तो वह उन्हें विलोपित या डिलीट करने की सिफारिश कर देता है। अब अगर किसी सरकारी अधिकारी को बड़ी संख्या में मतदाताओं वाली कोई बिल्डिंग ही न मिले तो उसमें रहने वाले मामूली वोटर को मतदाता सूची में अपना नाम कैसे मिलेगा घ्

इसपर मतदान से पहले भिन्न राजनैतिक दलों द्वारा बंटवाई जाने वाली पर्ची का ख्याल आया जिसमें मतदान केंद्रए भाग संख्या आदि की जानकारी दी जाती है। मतदान के समय भी अधिकारी इस पर्ची की मांग करते हैं। वैसे तो इस पर्ची पर ऐसा कुछ नहीं होता जिससे जारी करने वाली पार्टी की पहचान हो पर किस पार्टी ने कितने सफेदए भूरे या पीले कागज वाली पर्ची जारी की है यह तो संबंधित क्षेत्र में सक्रिय लोगों को मालूम ही रहता है और मेरा मानना है कि जो लोग जिस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं उसी पार्टी की पर्ची लेकर मतदान करने जाते हैं। या मतदान केंद्र के बाहर उसी पार्टी के लोगों के पास जाते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इससे मत की गोपनीयता भंग होती है और यह काम सरकार को करना चाहिए। सरकार लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के लिए जो प्रयास कर रही है उसके साथ लोगों को यह बताना भी जरूरी है कि उनका नाम मतदाता सूची में कहां है और उन्हें वोट डालने कहां जाना है।

इसके अलावा मतदाता सूची को आसानी से उपलब्ध कराना भी जरूरी है। मतदान से काफी पहले इसे इंटरनेट समेत जनता के लिए सार्वजनिक और सुविधाजनक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए और उसके बाद लोगों को समय व मौका दिया जाना चाहिए कि वे अपना नाम शामिल कराने के लिए आवेदन और आवश्यक प्रयास करें। हर बार मतदान केंद्र बदलने का कारण भी समझ से परे है। वैशाली नई बस रही कालोनी है। इसलिए अगर ऐसा हो रहा है तो भी एक बात है पर कोशिश होनी चाहिए कि ऐसा न हो। देश के कई शहरों में लोग बाग सालों से एक ही मतदान केंद्र पर मत डालते आ रहे हैं।

एक तरफ तो सरकार मतदाता सूची और परिचय पत्र बनाने पर भारी भरकम राशि खर्च कर रही है। यह काम ठीक से न होने के नुकसान की भरपाई करने के लिए मतदाताओं को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के नाम पर भी भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है। वोट डालने के लिए जरूरी है कि वोट डालने वालों के नाम मतदाता सूची में होंए उन्हें मिल जाएं और जहां एक बार दर्ज होए वहीं रहे . अगर वोटर वहीं है। मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की प्रक्रिया भी आसान होनी चाहिए। लोगों को पता होना चाहिए कि इसके लिए उन्हें कब कहां जाना है और यह काम लोगों के घर के आस.पास ही हो तो अच्छा है। मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिए ठोस कार्रवाई की जरूरत है। अगर यह प्रतिशत मात्र विज्ञापनों से बढ़ना होता तो मुंबई में भी बढ़ता। दिल्ली और मुंबई में मतदान के प्रतिशत और सुश्री सतबीर सिलस बेदी के बयान ने इसे साबित कर दिया है।

Sunday, May 3, 2009

पप्पू ने वोट नहीं डाला

30 अपैzल की सुबह 5 बजे मुम्बई के छत्रपति शिवाजी हवाई अड्डे पर इस कदर भीड़ थी, मानो सारा मुम्बई कुम्भ के मेले में जा रहा हो। चैक-इन काउण्टर की लाइन में खड़े-खड़े मैंने बहुत से लोगों को पूछा कि आज आपके शहर में मतदान है और आप छुट्टी मनाने बाहर जा रहे हैं? जबाव था कि कोई भी उम्मीदवार हमें पसन्द नहीं। मतदान का प्रतिशत देशभर में अब तक काफी कम रहा है। शहर में रहने वाले पप्पू तो मतदान दिवस को छुट्टी मानकर मौज-मस्ती करने चले जाते हैं, पर क्या वजह है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में भी लोग वोट डालने घर से नहीं निकले? जबकि अपने अस्तित्व की सबसे कठिन लड़ाई यही लोग लड़ते हैं।

आसार पहले से ही ऐसे दिख रहे थे। क्योंकि दलों के पास कोई मुद्दा ही नहीं है और राजनेताओं के बयानों में ईमानदारी नहीं है। इसलिए गर्मी के अलावा मतदाता को लगने लगा कि वो चाहे जिसे चुन ले, कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि चुनाव के बाद सब एक हो जाते हैं। तब शुरू होती है सत्ता की बंदरबांट। एक-एक, दो-दो सीट जीतने वाले दल भी सत्ता का ऐसा मोलतोल करते हैं कि सबसे मलाईदार विभाग लेकर ही छोड़ते हैं। जनता को साफ दिखाई देता है कि चुनाव के पहले लम्बे चैड़े वायदे करने वाले दरअसल इस देश की सम्पदा को लूटने के मकसद से राजनीति में आ रहे हैं। इसलिए उसकी रूचि अब इस व्यवस्था में न के बराबर रह गई है। यही वजह है कि इस बार निर्दलीय उम्मीदवारों को ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े दलों को भी कार्यकर्ताओं का टोटा रहा।

चुनाव का कर्मकाण्ड तो हो ही जाएगा पर ये ऐसा विवाह होगा जो कन्या की रूचि के विरूद्ध जबरन सात फेरे डालकर करवाया गया हो। यह गम्भीर स्थिति है। बहुत से लोग इसके बारे में सोच रहे हैं। वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था की तैयारी में 1977 से ही जुटे हैं। जब पहली बार जनता दल के गठन का प्रयोग जन आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा था। पर ऐसा सोचने वाले समाज सुधारक व बुद्धिजीवी आज तक कोई देश व्यापी विकल्प  खड़ा नहीं कर पाये। कई चुनाव लड़े भी पर कोई सीट नहीं जीत पाये। दूसरी तरफ इस हताशा के माहौल में बड़े राजनैतिक दलों ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि देश में दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिए। जो भी हो यह निश्चित है कि लोकतंत्र का यह स्वरूप अब बुरी तरह विखण्डित हो रहा है। एक के बाद एक जनसभाओं में राजनेताओं पर फिंकते जूते क्या बता रहे हैं? हद तो तब हो गयी जब गुजरात में एक सांसद की चुनावी सभा में श्रोता ने उसके उपर भारी-भरकम ईंट फैंक कर मारी। वह बाल-बाल बच गया। अगर जनता अपने आक्रोश का इस तरह प्रदर्शन करना शुरू कर देगी तो स्थिति कितनी भयावह होगी, इसका अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता? मीडिया क्रांति ने जहां लोगों को देश के कोने-कोने में घटने वाली घटनाओं से जोड़ा है, वहीं ऐसे नकारात्मक विचार भी अब आग की तरह फैल जाते हैं। आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और बुनियादी सेवाओं का अभाव, ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं जिनपर जनता का आक्रोश कब फूट पड़े और वह क्या स्वरूप ले ले, नहीं कहा जा सकता।

काॅर्ल माक्र्स ने सर्वाहारा के एलिएनेशनका जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था, उसकी मूल मान्यता यह है कि जब मजदूर का उत्पादन की जा रही वस्तु से कोई सारोकार नहीं होता तो उसकी उत्पादन प्रक्रिया में अरूचि बढ़ती जाती है। उदाहरण के तौर पर कार बनाने वाले मजदूर जानते हैं कि वे कभी कार नहीं खरीद पायेंगे। माक्र्स का यह सिद्धांत भी अन्य सिद्धांतों की तरह शाश्वत नहीं है। जयपुर के कुन्दन कारीगर करोड़ों रूपये के जेवर बनाते हैं पर उनकी स्त्रियां यह जेवर कभी पहन नहीं पातीं। फिर भी वे सदियां से इस कार्य में जुटे हैं। पर भारत के चुनावों में माक्र्स का यह सिद्धांत सही सिद्ध हो रहा है। चुनाव से पहले उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक परंपराओं का लगातार लुप्त होते जाना कार्यकर्ताओं और मतदाताओं दोनों के मन में इस प्रक्रिया के प्रति अरूचि पैदा कर रहा है। इसीलिए न तो दलों को कार्यकर्ता मिल रहे हैं और न ही हाईकमान द्वारा चुने गये उम्मीदवार को जनता के वोट।

अगर देश के बुद्धिजीवी, राजनैतिक विश्लेषक व स्वंय राजनेता मानते हैं कि लोकतांत्रिक परपंरा ही भारत जैसी विविधता वाले देश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व्यवस्था है, तो शायद अब वह समय आ गया है कि जब इसकी खामियों पर चिंतन छोड़ उन्हें दूर करने की दिशा में ठोस, प्रभावी व त्वरित कदम उठाये जायें। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनाव के नतीजे विखण्डित नेतृत्व देने वाले होंगे। ऐसी लंगड़ी सरकार शायद अपना कार्यकाल पूरा न कर पाये और फिर मध्यावधि चुनाव का अनावश्यक भार इस देश की अर्थ व्यवस्था को झेलना पड़े। ऐसे में जन आक्रोश अबसे भी ज्यादा खतरनाक रूप में सामने आ सकता है। इसलिए सबकी भलाई इसी में है कि चुनाव होते ही राजनैतिक सुधार के कार्यक्रमों को देश में हर स्तर पर गम्भीरता से लिया जाये और जनमत संग्रह कराकर इन सुधारों को लागू किया जाये। इस प्रक्रिया में नई संसद, चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय और मीडिया को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। 

Sunday, April 26, 2009

सुधरना चाहिए चुनाव अभियान


पिछले सप्ताह इसी का¡लम में हमने डा¡. मनमोहन सिंह पर आडवाणी जी के लगातार चल रहे व्यक्तिगत हमले और डा¡. सिंह के पलटवार की सम्भावना को लेकर जो लेख लिखा था, उसका असर तीसरे दिन ही देखने में आया। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने यह तय किया कि अब आडवाणी जी और उनका दल डा¡. सिंह पर व्यक्तिगत हमला नहीं करेगा। दरअसल राजनीति में क्या जायज है और क्या नाजायज, इसका फर्क करना आसान नहीं होता। पश्चिमी देशों की कहावत है कि ऐवरी थिंग इज फेयर इन वा¡, लव एण्ड पालिटिक्सयानि युद्ध, प्रेम और राजनीति में सबकुछ जायज होता है। शायद इसीलिए हमारे देश के चुनावों में दलों ने अपने अभियानों को इस नीचाई तक गिरा दिया कि कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति इस कीचड़ में गिरना नहीं चाहता। कहते हैं कि अगर अपनी दस पीढि़यों तक की पोटली चैराहे पर खुलवानी हो तो राजनीति में जाओ। लोकतंत्र के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति है।

अगर अपनी किसी पिछली गलती या पूर्वजों की कमजोरी के डर से अच्छे लोग राजनीति से परहेज करते रहेंगे तो एक से एक गुण्डे, बकैल और लोफर राजनीति में हावी होते जायेंगे। वोरा समिति की रिपोर्ट हो या सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ, मीडिया में आये दिन छपने वाले घोटाले हों या एक आम आदमी की राय, राजनीतिज्ञों की छवि लगातार गिरने का ही प्रमाण देती है। एक मत यह भी हो सकता है कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का कोई निजी जीवन नहीं होता। इसलिए उसकी और उसके परिवार की हर कमजोरी जनता के सामने आनी ही चाहिए। तभी मतदाता यह निर्णय कर पायेगा कि वह किसे अपना प्रतिनिधि चुने। यूं यह बात बहुत तार्किक लगती है पर इसकी अपनी सीमाऐं हैं। सार्वजनिक जीवन जीने वाले का भी एक निजी जीवन होता है। अगर उसके निजी जीवन का हर पक्ष गली मौहल्लों की चर्चा का विषय बन जायेगा तो उस बिचारे का जीना दूभर हो जायेगा। वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठेगा। उसका परिवार इस त्रासदी को भोगने में अपना चैन गंवा बैठेगा। इसलिए एक सीमा निर्धारण करने की जरूरत होती है।

खोजी पत्रकार के रूप में अपने शुरू के वर्षों में मैंने उत्साह के अतिरेक में अनेक बार बहुत तीखे वार राजनेताओं पर किये। हाँलाकि उन सब का तथ्यात्मक आधार सुदृढ़ था और ऐसा करते वक्त मेरे मन में कोई राग द्वेष की भावना भी नहीं थी, फिर भी मेरा वह अनुभव अच्छा नहीं रहा। बाद के वर्षों में तो समझ बढ़ी और तरीका बदला। पर सबसे अच्छा पाठ उस दिन सीखने को मिला जिस दिन न्यूयाZक के वल्र्ड ट्रेड सsटर व वाशिंगटन के पेण्टागाॅन पर आतंकवादी हमले हुए और पूरा अमरीका दहल गया। तब सी.एन.एन. का एक वरिष्ठ संवाददाता जो गत दो दशक से व्हाईट हाउस की रिपोर्टिंग करता रहा था, उससे एंकर पर्सन्स ने बार-बार जानना चाहा कि इस समय व्हाईट हाउस के भीतर क्या घट रहा है? जार्ज बुश की मानसिक हालत कैसी है? आदि। उस संवाददाता ने कहा कि ये सही है कि मैं व्हाईट हाउस के अंदर घट रही हर हलचल से वाकिफ हूँ, पर जो कुछ मैं जानता हूँ वह पूरी दुनिया के सामने नहीं रख सकता। ऐसा करना देश और उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी है। उसका यह कथन मेरे दिल को छू गया। मैंने मनन किया और सोचने लगा कि हममें से कितने पत्रकार ऐसे हैं जो पत्रकारिता के जुनून में इस सीमा का ध्यान रखते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि बढि़या रिपोर्ट यानि सनसनीखेज रिपोर्ट फाइल करने के चक्कर में हम अपनी हद तोड़ देते हों? आज ज्यादातर यही हो रहा है। इसलिए पाठकों और दर्शकों की रूचि ऐसी पत्रकारिता से हटती जा रही है। यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। चुनाव लड़ना है तो अपने को बेहतर साबित करना होगा। अपने प्रतिद्विंदी को कमजोर साबित करना होगा। ऐसा करने में कुछ भावनाऐं तो आहत होंगी ही पर इसके बिना आपका अभियान सिरे नहीं चढ़ सकता। लेकिन विरोधी को नीचा दिखाने के लिए गरिमा से नीचा गिरकर गली-मौहल्ले के वाक्युद्ध के स्तर पर उतर आना, लोकतंत्र के कर्णधारों को शोभा नहीं देता। कानून के निर्माताओं से गम्भीर आचरण की अपेक्षा की जाती है। ऐसा आचरण न रखने वाले प्रतिनिधि ही सदन में कुर्सियाँ और माइक तोड़कर विरोधियों पर फैंका करते हैं और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का भौंडा प्रदर्शन करते हैं।

चुनाव अभियान मुद्दों पर आधारित हो। मुद्दे चाहें स्थानीय हों, प्रांतीय हों, राष्ट्रीय हों या अन्तर्राष्ट्रीय हों। इन मुद्दों पर प्रत्याशी या उसके दल की राय क्या है? उनकी नीति क्या रही है? वे यदि विपक्ष में हैं तो सत्ता पक्ष की किन नीतियों से उन्हें मतभेद है और अगर वे सत्ता में आयेंगे तो उनकी नीति क्या होगी? यह ऐसे बिन्दु हैं जिन पर अपनी बात रखनी चाहिए। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोपों के माहौल में कोई गम्भीर मुद्दा सामने आ ही नहीं सकता। दुर्भाग्यवश इस बार भारत की लोकसभा का चुनाव बिल्कुल मुद्दा विहीन चल रहा है। किसी भी दल को नहीं पता कि वो चाहता क्या है? विरोध किस का कर रहा है? जिस बिन्दु पर विरोध कर रहा है, अपने शासनकाल में उसकी भी यही नीति थी। तो फिर विरोध किस बात का? ऐसे भ्रामक माहौल में मतदाता समझ नहीं पा रहा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावा ठोंकने वाले नेता और उनके दल कौन सा ठोस कार्यक्रम लेकर जनता के सामने आयें हैं? जब वे सत्ता में रहे तब इनमें से कितने कार्यक्रम उन्होंने लागू किये? अगर नहीं किये तो अब किस मुँह से दूसरों की आलोचना करते हैं? ऐसे बुनियादी सवालों का उठना और उन पर मीडिया में व जनसभाओं में सार्वजनिक बहस होना एक शुभ लक्षण होगा। उससे हमारी राजनीति परिपक्व होगी। उसमें गाम्भीर्य आयेगा और उस राजनीति से जनता को दिशा मिलेगी। फैसला प्रत्याशियों को करना है कि वे राजनीति में राजऋषि बनना चाहते हैं या सड़कछाप मवाली?

Sunday, April 19, 2009

मतदाता को दल से नहीं अच्छी सरकार से मतलब है

मनमोहन सिंह और आडवाणी के वाक्युद्ध के बीच फंसा मतदाता हैरान है कि आखिर ये कहना क्या चाहते हैं? अखबारों की मानें तो आडवाणी जी मनमोहन सिंह को कमजोर और कठपुतली प्रधानमंत्री मानते हैं और अपने मजबूत और निर्णायक होने का दावा करते हैं। उधर मनमोहन सिंह आडवाणी को राजनैतिक बयानवाजी से ज्यादा कुछ न करने वाला बताते हैं। दोनों की बात में दम है। अगर आडवाणी जी डाॅ0 मनमोहन सिंह को खुली बहस की चुनौती बार-बार देकर ये जताना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह उनके सामने आने से कतरा रहे हैं तो मनमोहन सिंह भी आडवाणी जी से पूछ सकते हैं कि हवाला कांड के संदर्भ में कालचक्र पत्रिका ने जो सवाल आपसे पूछे थे, उनके जवाब आप आज तक नहीं दे पाये तो मुझे क्यों उलाहना देते हैं? इस पर आडवाणी जी कोई उत्तर नहीं दे पायेंगे। क्योंकि हाल में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में भी आडवाणी जी ने हवाला कांड से सम्बन्धित तथ्यों को इस तरह तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है कि उनके दावों को एक आम आदमी तक प्रमाण प्रस्तुत करके झूठा सिद्ध कर सकता है। आश्चर्य की बात है कि आडवाणी जी के प्रतिद्वदिंयों ने आज तक इस ओर ध्यान नहीं दिया।

दूसरी तरफ मनमोहन सिंह अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का चाहे जितना बखान करें, इस बात का कोई उत्तर नहीं दे सकते कि जब वे भारत के वित्त मंत्री थे और नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो सबसे ज्यादा बड़े घोटाले उनकी नाक के नीचे हुये। कैसे होने दिया ऐसा उन्होंने, इसका क्या कोई जवाब उनके पास है? क्या यह सच नहीं है कि डाॅ. सिंह को सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री ही इसलिए बनाया कि वे जनाधार न होने के कारण कभी भी नेहरू खानदान को चुनौती नहीं दे पायेंगे और एक विश्वासपात्र मुलाजिम की तरह नेहरू परिवार की सरपरस्ती में हुकूमत चलाते रहेंगे? यही उन्होंने आज तक किया भी है। जितनी कमजोरी उनके व्यक्तित्व में भाजपा को दिखाई दे रही है, उससे ज्यादा लम्बी फेहरिस्त आडवाणी जी की कमजोरियों की भी प्रकाशित की जा सकती है। इसलिए भाजपा का बार-बार चुनौती देना एक चुनावी स्टंट से ज्यादा कुछ भी नहीं है।


पर इसका मतलब ये नहीं कि आडवाणी जी या डा¡ सिंह में कोई गुण ही नहीं है। जीवन के छः दशक सार्वजनिक जीवन में जीने वाले इन दोनों नेता-अफसर-नेता के व्यक्तित्व में अनेक ऐसे गुण हैं, जिनके कारण वे आज यहाँ तक पहुँचे हैं। यहाँ उद्देश्य इन दो नेताओं के व्यक्तित्वों का मूल्यांकन कर जनता के सामने परिणाम घोषित करना नहीं है। यह तो इसलिए लिखना पड़ा कि पिछले दो हफ्ते से लोकसभा चुनाव में असली मुद्दों को छोड़कर व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों का जो दौर चल रहा है, वो कोई बहुत अच्छा संदेश नहीं दे रहा। देश का मतदाता इन दो नेताओं की शख्सियत का मोहताज नहीं है। उसे इंका, भाजपा, सपा, बसपा, जेडीयू, वामपंथी दल या दूसरे दलों के बैनरों, नारों, विचारधाराओं, आश्वासनों में कोई रूचि नहीं है। ऐसे तमाम मुद्दे संसद के सामने आते रहे हैं जिनमें ये सब दल अपनी घोषित नीतियों के विरूद्ध अनैतिकता का निर्लज्जता से साथ देते रहे हैं। इसलिए दलों की दलदल अब लोगों को पसन्द नहीं आती। जनता अच्छी और असरदार सरकार चाहती है। लोकतंत्र में उसकी आस्था है। वह अपने प्रतिनिधि से संवेदनशील होने और उनकी समस्याओं का हल ढूंढने की अपेक्षा रखती है। दुर्भाग्य से कुछ अपवादों को छोड़कर हमारे नेता, चाहे किसी दल के क्यों न हों, अपनी उपलब्धियों की कोई उल्लेखनीय छाप जनता के मानस पटल पर नहीं छोड़ पाये हैं। उनकी छवि विदू्रप की बनकर रह गयी है। इसीलिए अब गुड गवर्नेंसकी बात की जाती है। पढ़े-लिखे समाज में भी और आमलागों के बीच भी। अन्तर इतना है कि पढ़े-लिखे लोग जब गुड गवर्नेंसकी बात करते हैं तो उन्हें सिविल सोसाइटी, एन.जी.ओ. या सोशल एक्टिविस्ट का खिताब दे दिया जाता है। पर जब ऐसे ही सवाल देहात का कोई साधारण आदमी नेताओं की जनसभा में, दबंगाई से उठाता है तो उसे कोई नाम नहीं दिया जाता। पर अपने हक की माँग करना और नकारा नेतृत्व को सबक सिखाना हिन्दुस्तान के देहातियों को शहरियों के मुकाबले ज्यादा अच्छी तरह से आता है।

दरअसल 1980 में जब विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष ने यह देखा कि सरकारें अपने नकारापन, भ्रष्टाचार और गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते विकास के धन का सदुपयोग नहीं कर पा रही है तो उन्होंने गुड गवर्नेंसकी बात कहनी शुरू की। अब तो यह पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशंसके पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। इस विषय पर दुनिया के अनेक नामी विद्वानों ने लम्बे-चैड़़े साहित्य का सृजन कर डाला है। इन विद्वानों का मत है कि अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही सर्वाधिक स्वीकार्य व्यवस्था है, तानाशाही या सैन्य हुकूमत नहीं। सोशल एक्टिविस्टसमाज के एक छोटे से हिस्से को जगा तो सकते हैं। बागी तो बना सकते हैं। उनकी आवाज तो बुलंद करवा सकते हैं। पर देश का निजाम नहीं बदल सकते। सरकार नहीं चला सकते। इसलिए सत्ता परिवर्तन की बात करना ख्याली पुलाव लगता है। चीन और रूस का उदाहरण सामने है, जहाँ जनक्रांति के बावजूद वह सबकुछ हासिल नहीं हुआ जिसकी लोगों को उम्मीद थी। क्यांेकि देश चलाने के अपने मापदण्ड, अपनी समझ और अपना अनुभव होता है जो सामाजिक कार्यकर्ता दो, चार, पाँच गाँवों को बदलने में जीवन खपा देते हैं और कुछ बुनियादी बदलाव भी नहीं ला पाते, वे देश की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक जटिलताओं को कैसे समझ सकते हैं? कैसे उसके निदान खोज सकते हैं? इसलिए इसी लोकतंत्र में से गुड गवर्नेंसका रास्ता निकालना होगा। सिर्फ ऐसा नेतृत्व चाहिए जो अपने मतदाताओं से कहे कि मैं तुम्हारे कष्ट दूर नहीं करूँगा पर उन्हें दूर करने के तुम्हारे प्रयास में आने वाले रोड़ों को हटाऊँगा और तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को उपलब्ध रहूँगा। बस इतना सा अगर हमारे राजनेता कर सकें तो न तो तंत्र बदलने की जरूरत रहेगी और न राज ही। इसी राजनैतिक व्यवस्था से कल्पनातीत उपलब्धियाँ हासिल की जा सकती हैं, बशर्ते कोई यह करना चाहता हो! दुख की बात है कि इतनी छोटी पर दूरगामी परिणाम लाने वाली बात तो कोई दल नहीं कह रहा बस सब एकदूसरे पर कीचड़ उछालने में जुटे हैं।

Sunday, April 12, 2009

आर्थिक पैकेज या अपराधियों को ईनाम

भारत में हर दल का नेता वोटों के लिए देश की जनता को सपने दिखाने में जुटा है। जबकि हालत यह है कि नये सपने पूरे होना तो दूर मौजूदा हालात में अर्थव्यवस्था को चलाये रखना ही एक बड़ी चुनौती बन चुका है। अभी हमारे देश के लोगों को इस मंदी के कारणों का पूरी तरह से अंदाजा नहीं है। पर जैसे-जैसे दुनिया के समझदार लोग समझते जा रहे हैं, जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। अब यह साफ हो चुका है कि पिछली दशाब्दी की आर्थिक प्रगति एक बहुत बड़ा धोखा था, जालसाजी थी और आम जनता की लूट का सामान था। लोगों को यह समझ में आ रहा है कि अपने अधिकारियों को करोड़ो रूपये महीने के वेतन देने वाली कम्पनियाँ जनता के साथ कैसा धोखा कर रही थीं। भारत में हुआ सत्यम घोटाला तो एक झलक मात्र है। आजकल ई-मेल के माध्यम से पूरी दुनिया में इस खेल के जानकार लोग तमाम तरह की सूचनाऐं एक दूसरे को भेज रहे हैं। जिनमें दुनिया के प्रमुख औद्योगिक घरानों के सत्यम जैसे घोटालों के समाचार फ्लैश किये जा रहे हैं। ये ई-मेल भेजने वाले सवाल कर रहे हैं कि तमाम तथ्य मौजूद होने के बावजूद क्या वजह है कि सरकारें इन कम्पनियों के विरूद्ध जाँच नहीं करवा रही?

क्या वजह है कि भारत में सरकार पर दोष मढ़ने वाले विपक्ष के नेता भी इन मामलों पर खामोश रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनाव के दौर में इन कम्पनियों के मालिकों ने विपक्षी राजनेताओं को भी मोटी थैलियाँ देकर खामोश कर दिया है? इसलिए भ्रष्टाचार की बात तो हर दल का नेता कर रहा है पर अपने वक्तव्यों में सत्यम जैसे घोटाले की जाँच की माँग करने की हिम्मत इनमें से किसी की नहीं है। शायद उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया में कहीं उनका औद्योगिक जगत से नाता न बिगड़ जाये।

पर दुनिया के जागरूक नागरिक और चार्टर्ड एकांटेट, जो वित्तीय बाजार के खेल को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस सबसे बहुत उद्वेलित हैं। इनका आरोप है कि पिछली दशाब्दि में जितने भी लोग खरबों रूपये के लाभ कमाकर बड़े पैसे वाले बने हैं, उन्होंने अपने-अपने देश में वित्तीय व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर आम जनता को लूटा है। जनता को शेयर बेचकर उसके खून-पसीने की गाढ़ी कमाई बटोरना और उसके ही पैसे से कम्पनियाँ खड़ी करना और ऐशो-आराम की जिंदगी में पैसे को धुएँ में उड़ाना, ये इन रईसों का पेशा रहा है। इसलिए इन वर्षों में शेयर बाजारों में हवाई किले बनाये गये। मसलन अमरीका में पिछले दशक में औद्योगिक जगत का मुनाफा कुल सकल घरेलू मुनाफे का 41 प्रतिशत था। इस तरह आम लोगों में शेयर मार्केट की ललक पैदा की गयी। आम जनता अपने मेहनत की, खून पसीने की कमाई इनके शेयरों में लगाती रही और उसके बैंकर और सलाहकार उसे गुमराह कर शेयरों का तेजी से हस्तांतरण करते और करवाते रहे। इस तरह इन वित्तीय सलाहकारों ने अपने आम निवेशकों को जमकर उल्लू बनाया और अपना उल्लू सीधा किया। अब जब गुब्बारा फूटा तो अर्थव्यवस्था का काल्पनिक रूप से उठना और इतनी नीचाई तक जाकर गिर जाना कितने ही युवाओं और काबिल लोगों को बर्बाद कर चुका है। उनके जीवन भर की कमाई डूब चुकी है। हताशा में ऐसे लोग आत्महत्यायें कर रहे हैं।

दुनिया के कई देशों की जनता में आक्रोश है कि उनकी सरकारों ने ऐसा क्यों होने दिया? क्यों नहीं आम जनता के हक की रक्षा की? बात इतनी सी नहीं है। अब इन घोटालेबाज कम्पनियों की जाँच करने की बजाये या दोषियों को सजा देने की बजाये सरकारें इन कम्पनियों को मोटे-मोटे आर्थिक पैकेज देकर नव जीवन प्रदान कर रही है। इसमें गलत कुछ भी नहीं था अगर ये सामान्य स्थिति में किया जाता। क्योंकि डूबती अर्थव्यवस्था को उबारना सरकार का कर्तव्य होता है। पर अगर आपराधिक रूप से आर्थिक साजिशें करके अर्थव्यवस्था का नकली महल खड़ा किया गया हो और वो धराशायी हो जाये तो इसे अपराध ही माना जाना चाहिए। फिर अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए। क्योंकि अगर ऐसे आर्थिक अपराधियों को आर्थिक पैकेज देकर बचाया जायेगा तो दो बाते होंगी। एक तो भविष्य के लिए कोई सबक नहीं सीखेगा। दूसरा इन बड़े लोगों के आर्थिक घोटालों और अपराधों का खामियाजा भी आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। क्योंकि जो मोटी रकम इन्हें पैकेज के तौर पर इन्हें बैंकों से मिल रही है वह भी दरअसल छोटे व मझले लोगों की जीवन भर की कमाई है। अब अगर बैंकों में या सरकार के बाॅण्डों में लगा उनका यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विनियोग भी डूब जाता है तो उनकी रही-सही बचत भी हाथ से निकल जायेगी। देश कंगाली के रास्ते पर चल पड़ेंगे।

इस चुनाव में बहुत सारे टी.वी. चैनल जनता की आवाज उठाने का दावा कर रहे हैं। पर आश्चर्य की बात है कि इन सवालों को पूछने के लिए न तो वे वित्तीय जानकारों को बुला रहे हैं और न ही उनका सामना बड़े राजनेताओं से करवा रहे हैं। केवल बयानों की राजनीति और टी.वी. स्टूडियो में बुलाकर नूरा कुश्ती करवाकर ये चैनल जनता का कोई भला नहीं कर रहे। पर यह मुद्दा आज उतना ही गम्भीर है जितना भ्रष्टाचार और आतंकवाद का। चुनाव के दौर में इस पर बहस हो या न हो, पर चुनाव के बाद यही मुद्दा सबके गले की फांस बनने वाला है। कमजोर और मिली जुली सरकार अगर केन्द्र में काबिज होती है तो वह सहयोगी दलों की ब्लैकमेलिंग के आगे कुछ भी ठोस करने में सक्षम नहीं होगी। ऐसे में हालात बद से बदतर होंगे। देश के निष्पक्ष अर्थशास्त्रियों और वित्त विशेषज्ञों को इन सवालों पर जनता के बीच एक बहस खड़ी करनी चाहिए। जनता को सच्चाई बतानी चाहिए। उसे भविष्य के लिए आगाह करना चाहिए। उन्हें ही इस भंवर से निकलने का रास्ता सुझाना चाहिए।