Sunday, July 20, 2008

विश्वास मत और दलों की असलियत

 22 जुलाई को लोक सभा में विश्वास मत के बाद सरकार रहेगी या जाएगी ये तो सामने आ  ही जाएगा। पर  इस  पूरी प्रक्रिया में जो बातें सामने नहीं आ रही उन पर ध्यान देने की जरूरत है। वामपंथी दल परमाणु संधि के शुरू से विरोध में है। इसलिए स्वभाविक है कि वे इस मुद्दे पर सरकार गिराना चाहते हैं। परमाणु संधि के मुद्दे पर कांग्रेस का रूख शुरू से साफ है फिर क्यों नहीं यह निर्णायक लड़ाई पहले ही लड़ ली गयी ? वामपंथी कहेंगे कि तब सरकार इतनी कटिबद्ध नहीं थी जितनी आज है। असलियत ये है कि यह सारा नाटक चुनावी रणनीति के तहत खेला जा रहा है। डाॅ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां शुरू से ही अमरीकी नीतियों की पक्षधर रही हैं। फिर भी वामपंथी दलों ने उनके प्रधानमंत्रित्व में 4 साल तक सहयोग दिया क्योंकि वे सत्ता का सुख भोगना चाहते थे। अब चुनाव सिर पर है जिसमें उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही होना है इसलिए कांग्रेस का मुखर विरोध करना उन्हें फायदेमंद लग रहा है। जितना ज्यादा शोर वो मचाएंगे उतना ही उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा। अगर वामपंथी दल यह दावा करते हैं कि उनका विरोध सैद्धान्तिक है। तो ऐसे दर्जनों मुद्दे उन्हें याद दिलाए जा सकते हैं जब उन्होंने सिद्धांतों को ताक पर रखकर राजनैतिक फैसले लिए। भ्रष्टाचार के सवाल को ही ले तो क्या वामपंथी बता सकते हैं कि उन्होंने जैसा तूफान बोफोर्स और तहलका कांड पर मचाया था वैसा तूफान इन दोनों से सौ गुना बड़े व ज्यादा प्रमाणिक हवाला घोटाले पर क्यों नहीं मचाया ?

आज वाम मोर्चे के नेतृत्व में ही दरारें पड़ चुकी हैं। दो दशक तक बंगाल पर हुकूमत करने के बाद वामपंथी अपने प्रांत की गरीबी दूर नहीं कर पाए। आज उन्हें भी आर्थिक विकास के लिए पूंजीवाद और उदारीकरण का सहारा लेना पड़ रहा है। सच्चाई तो ये है कि बिड़ला, टाटा, निवतिया या खैतान कोई भी समूह क्यों न हों किसी को भी पश्चिमी बंगाल की वामपंथी सरकार से कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। साफ जाहिर है कि ज्योति बाबू के सुपुत्र वही करते रहे जो भाजपा में प्रमोद महाजन और कांगे्रस में अहमद पटेल करते आए हैं यानि सबको साधने का काम।

जहां तक भाजपा का प्रश्न है तो उसे तो इस संधि पर कोई विरोध हो ही नहीं सकता। उनकी सरकार के सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा से लेकर तमाम दूसरे नेता इस संधि के पक्षधर रहे हैं। कल अगर एनडीए की सरकार सत्ता में आती है तो वह भी वही करेगी जो यूपीए की सरकार आज कर रही है। पिछली बार जब एनडीए की सरकार सत्ता में आयी तो उसने इंका की सत्ता के दौरान लागू किए गए आर्थिक सुधारों को ही आगे बढाया कोई नयी आर्थिक नीति लागू नहीं की। यह हास्यादपद है कि भाजपा को अमरीकी साम्राज्यवाद का एजेंट बताने वाले वामपंथी दल आज भाजपा के ही साथ खड़े है। लोकसभा के चुनावों के बाद यही वामपंथी दल एक बार फिर इंका से हाथ मिलाकर सरकार बनाने को राजी हो जाएंगे। कल तक समाजवादी इंका के निशाने पर थे आज मुलायम सिंह उसकी सरकार बचाने में जुटे हैं। राजनीति के खेल निराले हैं। दरअसल विचारधारा का अब कोई स्थान बचा ही नहीं है। सारा खेल सत्ता पाने और उसे भोगने का है। जिसे जो चाहिए वो जैसे मिलता है वैसे हासिल करना है। जनता तो मूर्ख है उसे कुछ भी बता कर बहका लिया जाएगा।

इस विश्वास मत की विशेषता ये है कि कोई भी दल अभी चुनावों के लिए तैयार नहीं है। हर सांसद बेचैन है कि अगर सरकार गिर गयी और चुनावों की घोषणा हो गयी तो उसकी संसद सदस्यता नाहक ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी। फिर जो मोटा पैसा लगाकर चुनाव जीता गया था उसका पूरा लाभ भी नहीं मिल पाएगा। बहुत से सांसद जानते हैं कि उन्हें टिकिट भी नहंी मिलेगा और बहुत से जानते हैं कि वे अगले चुनाव में जीत नहीं पाएंगे। इस अफरातफरी के माहौल में आरोप लग रहा है कि सत्तारूढ़ दल 25-25 करोड़ रूपए में सांसद खरीद रहा है। यदि यह सही है तो जो सांसद सरकार के पक्ष में मतदान करेंगे वे तो फायदे में रहेंगे और जो उसके विरोध में मतदान करेंगे उन्हें रुपया भी नहीं मिलेगा और लोकसभा का कार्यकाल भी जल्दी समाप्त हो जाएगा। घाटा ही घाटा। इसलिए वे पशोपेश में हैं कि करें तो क्या करें। इसलिए कई बड़े दलों को व्हिप जारी करना पड़ रहा है।

इसका मतलब यह नहीं कि परमाणु संधि देशहित में ही है। यहां तो सिर्फ इतनी सी बात है कि इस विश्वास मत में जो लोग भी हिस्सा ले रहे हैं वे किसी वैचारिक आधार के कारण नहीं बल्कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण निर्णय लेने जा रहे हैं। ढिढोरा देश में यही पीटा जाएगा कि यह एक सैद्धान्तिक लड़ायी थी। इसलिए जब टीवी चैनलों पर विभिन्न दलों के नेता अपनी बात ऊंची आवाज में तर्क देकर और आक्रामक तेवर से कहें तो यह मान लेना चाहिए कि ये सब शैडो-बाॅक्सिंग कर रहे हैं। नाटक कर रहे हैं। इस विश्वास मत का जनता के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सिवाय इसके कि अनिश्चिता का माहौल व्यापार और उद्योग पर विपरीत असर डालेगा। नाहक थैलियों का आदान प्रदान होगा और देशवासी मूक दर्शक बनकर यह तमाशा देखेंगे।

Sunday, July 13, 2008

क्यों फट रही है धरती ?

13-07-2008_RP
एक कहावत है कि जब धरती पर पाप बढ़ते हैं तो धरती फट जाती है। पिछले कुछ महीनों से देश के अलग-अलग हिस्सों में धरती फटने की खौफनाक खबरे आ रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में अचानक धरती फटी और कई सौ मीटर तक लंबी दरार पड़ गई। यह दरार कई मीटर चैड़ी और कई मीटर गहरी थी। इस अप्रत्याशित घटना से लोग भयभीत हो गए। घर छोड़कर भाग निकले। दहशत फैल गयी। प्रशासन को भी समझ में नहीं आया कि इस नई आपदा से कैसे निपटे ? अभी हाल ही में मथुरा जिले के अकबरपुर गांव में भी ऐसी ही घटना हुयी। उधर गुजरात में जब भूकंप आया था तो लोग यह देखकर हैरान थे कि कई-कई मंजिल की इमारतें सीधी जमीन के अंदर घुस गईं। नई दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के मार्ग में भी एक तिमंजिली इमारत देखते ही देखते धरती के भीतर समा गयी।

इस तरह धरती का फटना और भवनों का जमीन में समाना कोई साधारण घटना नहीं है। यह संकेत है इस बात का कि हमारी धरती बीमार है। जिसका इलाज फौरन किया जाना है। नहीं तो मर्ज बढ़ जाएगा। धरती की इस बीमारी का कारण भू-जल का निरन्तर, अविवेकपूर्ण व आपराधिक दोहन है। आज शहर हो या गांव हर ओर सबमर्सिबल पंप लगाने की होड़ मची है। बहुत आसान उपाय है जल संकट से जूझने का। दो, चार, छः इंच चैड़ी और सौ-दो सौ फुट गहरी बोरिंग करवाओ उस पर सबमर्सिबल पंप लगा दो। फिर तो खेत खलियान और घर बैठे गंगा बहने लगती है। कहां तो एक-एक बाल्टी पानी की किल्लत और कहां पानी पर कोई रोक ही नहीं। चाहें जितना बर्बाद करो। बिना मेहनत के एक बटन दबाते ही आपके पानी की टंकी लबा-लब भर जाती है। इसलिए हमारा पानी का उपभोग पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है। पर इस अविवेकपूर्ण दोहन ने पृथ्वी के भीतर जमा जल के विशाल भण्डारों को पिछले दशक में तेजी से खाली कर दिया है। जिस कारण पृथ्वी के भीतर बहुत बड़े-बड़े वैक्यूम पैदा हो गए हैं। यूं समझा जाए कि धरती की जिस परत पर हमारे घर और भवन खड़े हैं उसके कुछ नीचे ही गुब्बारेनुमा हवा के खोखले विशाल कक्ष बन गए हैं। पृथ्वी में थोड़ी सी भी भूगर्भीय हलचल होते ही ऊपर की सतह फट जाती है। उस पर बने भवन या तो सीधे सरक कर नीचे चले जाते हैं या टूट कर गिर जाते हैं। ऐसी घटनाएं अब तेजी से बढ़ेंगी। क्योंकि अभी तो इसका आगाज होना शुरू हुआ है।

पानी तो पहले भी पृथ्वी के अंदर से ही लिया जाता था। पर उसे निकालने के तरीके बहुत मानवीय थे जैसे कुंआ या रहट। मानवीय इसलिए कि मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार अपने या अपने पशुओं के श्रम से जल निकालता था और उसका किफायत से उपयोग करता था। पर अब बिजली या डीजल के पंप अन्धाधुंध पानी निकालते हैं। किसान भी कृषि की आवश्यकता से ज्यादा पानी खींच लेता है। रासायनिक उद्योग और शीतलपेय कंपनियां भी बहुत बेदर्दी से भू-जल का दोहन कर रहे है। इसलिए धरती कराह उठी है।

पहले धरती की सतह पर जो जल फैलता था उसका एक भाग भाप बनकर आकाश में चला जाता था और दूसरा रिस-रिस कर पृथ्वी के भीतर। इस तरह भू-जल की कुछ मात्रा वापिस स्रोत तक पहुंच जाती थी। पर रासायनिकों, साबुन, डिटर्जेंट, फर्टीलाइजर, रासायनिक खाद और कारखानों से बहकर नदी नालों में जाने वाले तेल युक्त गंदे पानी ने पृथ्वी की सतह पर एक ऐसी तबाही मचाई है जो पिछले हजारों सालों में नहीं मची थी। इस सब ने और इसके साथ ही प्लास्टिक की थैलियों ने पृथ्वी की सतह पर जितने भी स्वभाविक छिद्र थे उन सबको सील कर दिया है। पूरी तरह बंद कर दिया है। अब सतह का जल धरती के भीतर रिस कर नहीं पहुंचता। पहुंचता भी है तो बहुत थोड़ी मात्रा में। 

पृथ्वी फटे न। सतह पर बने भवन उजड़े न। नगर और गांव पानी के संकट से जूझे न। भू-जल का स्तर घटे न। इसके लिए वही करना होगा जो इस समस्या का कारण है। यानी साबुन, रासायनिकों और फर्टीलाइजरों का प्रयोग बंद करना होगा। धरती के जल का दोहन तेजी से घटाना होगा। आधुनिक बाथरूमों की संरचना बदलनी होगी। जैसे जापान कर रहा है। वहां अब शौच के बाद पानी का फ्लश नहीं चलता बल्कि हवा के सक्शन से सीट साफ हो जाती है। यह सब करना ही होगा वरना अभी तो धरती ने बीमारी के लक्षण दिखाए हैं फिर प्रलय का तांडव भी दिखा देगी।

सवाल उठता है कि जानते सब है।ं लोग भी, कारखानेदार भी, किसान भी और सरकार भी। पर कोई पहल नहीं करता। विपक्षी दल परमाणुसंधि से लेकर घोटालों तक पे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पर ऐसे बुनियादी सवालों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। इसलिए पहल जनता को ही करनी होगी। आजकल लखनऊ के लोग और आला अफसर मिलकर गोमती नदी में उतर गए है और टोकरी, फावड़े व जाल लेकर इस प्रदूषित नदी का जल रोज साफ कर रहे हैं। कितने ही शहरों में प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल पर स्थानीय समाजिक व व्यापारिक संगठनों व निकायों ने पाबंदी लगा दी है। जिससे उनका पर्यावरण तेजी से सुधरा है।

आज भारत में ही नहीं दुनिया में हर ओर पानी के बढ़ते संकट पर चिंता व्यक्त की जा रही है। पर ठोस कदम उठाने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। वक्त ऐसा आ गया है कि हर शहर और गांव के लोग इन सवालों पर संगठित होकर आगे आए और प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ को पूरी ताकत से रोकने का प्रयास करें। पहले कहा जाता था कि हम यह अच्छा कार्य अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए कर रहे हैं। पर अब जिस तेजी से विनाश हो रहा है उससे साफ जाहिर है कि हम जो भी सही कदम उठाएंगे उसका परिणाम अपने ही जीवन काल में देख लेंगे। लेख को पढ़कर दो मिनट का मौन चिंतन और जीने का वही ढर्रा-यह तो श्मशान वैराग्य हुआ। मजा तो तब है जब हम अपनी जिंदगी में पानी का इस्तेमाल घटाएं और अपने हाथ पानी के किसी भी स्रोत को प्रदूषित न होने दें। ’मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर लोग मिलते गए और कारवां बनता गया।’

Sunday, July 6, 2008

अमरनाथ का सचः गृह मंत्रालय बेखबर

Rajasthan Patrika 06-07-2008
अमरनाथ में शिराइन बोर्ड को हुए भूमि आवंटन को लेकर कश्मीर की घाटी में जो तूफान मचा उसकी जड़ बहुत गहरी है। भूमि आवंटन का विरोध तो एक झलक है। इसके पीछे एक सोची समझी साजिश है जो धीरे-धीरे कश्मीर से भारत के अस्तित्व को खत्म कर देना चाहती है। इस साजिश की बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह विवाद इतना बढ़ता ही नहीं अगर इसकी असलियत लोग जान पाते। शिराइन बोर्ड इस जमीन पर तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए यात्रा के दौरान मात्र दो महीने के लिए टीन के शैड और शौचालय बनाने जा रहा था। जबकि घाटी के मुसलमान बुद्धिजीवियों ने अफवाह फैलाई कि शिराइन बोर्ड इस जमीन पर इजराइलियों की तरह खुफिया अधिकारियों की आबादी बसाने जा रहा है। जहंा से मुसलमानों के खिलाफ रणनीतियां बनाई जाएंगी। बे पढ़ी लिखी जनता को भड़काना आसान होता है। घाटी में तूफान उठा और अब जम्मू भी इस आग की लपेट में झुलस रहा है। आने वाले दिनों में ये आग देश के दूसरे हिस्सों में भी फैल सकती है। अमरनाथ का यह इलाका मौसम के हिसाब से इतना आक्रामक है कि यहां गर्मियों के दो महीनों के अलावा रहना असंभव है। उस बर्फीले तूफान में कौन अपनी जान जोखिम में डालेगा। काॅलोनी बसाकर रहना तो सपने में भी नहीं सोचा जा सकता। फिर शिराइन बोर्ड कोई सरकार तो है नहीं जो अमरनाथ में जमीन कब्जा कर लेती या उस पर खुफिया अधिकारियों की काॅलोनी बना देती। इतनी सी बात अगर कांगे्रस, पीडीपी, पैंथर पार्टी और दूसरे दलों के नेता बयान देकर घाटी के लोगों को बता देते तो उनका सारा भ्रम दूर हो जाता। पर एक नहीं बोला। सबने इस गफलत का राजनैतिक लाभ उठाया। जिससे मामला इतना उलझ गया।

जय बाबा बर्फानी का नारा लगाने वाले तीर्थयात्री जब अमरनाथ की ओर बढ़ते हैं तो उनके लिए भोजन, टट्टू, टैंट, कुली, गाइड, गेस्ट हाऊस, बस व टैक्सी का इंतजाम करने वाले कश्मीर के मुसलमान ही होते हैं। जिन्हें इस तीर्थयात्रा पर आने वालों से मोटी कमाई होती है। अमरनाथ जाने वाले बाकी कश्मीर में भी घूमते हैं तो शिल्पकारों, मेवा और फल बेचने वालांे, शिकारे, होटल व गाइड सबको रोजगार मिलता है। यह बात कश्मीरी मुसलमान अच्छी तरह जानते हैं। चरम आतंकवाद के दौर में घाटी में आम लोगो की बेरोजगारी और बदहाली काफी बढ़ गयी थी। जबसे आतंकवाद का असर कम हुआ है सारे देश से पर्यटक कश्मीर जाने लगे हैं। इस हकीकत को जानने के बावजूद यह आंदोलन किया गया। बिना ये सोचे कि इसकी प्रतिक्रिया में देश के बाकी हिस्सों में मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा भड़क सकता है। उन्हें हज की जो सहूलियतें दी जा रही हैं या अल्पसंख्यक होने के नाते जो फायदे दिये जा रहे है या राजेन्द्र सच्चर समिति की सिफारिशों को मानकर देश के मुसलमानों के हित में जो अविवेकपूर्ण नीतियों को लागू करने की जो तैयारियां हैं उससे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव घटेगा। पर देश की चिंता कश्मीर के नेताओं को क्यों होने लगी ? तभी तो कश्मीर में पैदा हुए नए किस्म के आतंकवाद से स्थानीय नेतृत्व या तो पूरी तरह बेखबर है या उसकी मिली भगत है। आश्चर्य की बात है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय में बैठे अधिकारी और मंत्री तमाम खुफिया एजेंसियों के बावजूद कश्मीर की घाटी में जड़ जमा चुके नव आतंकवाद से अनजान बने बैठे है।

दरअसल बंदूक की लड़ाई में थककर चूर हो चुके घाटी के आतंकवादी अब दिमाग की लड़ाई लड़ रहे है। घाटी के बुद्धिजीवी, प्रफैशनल्स, अनेक मीडिया कर्मी व दूसरे लोग बाकायदा सोची समझी रणनीति के तहत कश्मीर की घाटी में इस नव आतंकवाद को स्थापित कर चुके हैं। इसका तरीका यही है कि गोली मत चलाओ, बम मत फेंको पर अपने दिमाग से ऐसे मुद्दे खड़े करो जिससे कश्मीर में भारत की संम्प्रभुता धीरे-धीरे स्वयं ही समाप्त हो जाए। 

अमरनाथ में भूमि आवंटन के विरुद्ध शोर मचा कर इस वर्ग ने कश्मीर के राज्यपाल की गरिमा को ठेस पहुंचाई है और उनकी हैसियत गिरा दी है। राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि होता है। इस तरह घाटी के लोगों ने केन्द्र की सत्ता को चुनौती दी। आज अमरनाथ में शिराइन बोर्ड से जमीन वापिस मांगी है। कल मांग उठेगी कि कश्मीर में जहां जहां भारतीय सेनाओं ने डेरा डाला हुआ है वह जमीन भी खाली करवाई जाए। फिर मांग उठेगी कि कश्मीर से अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों को दिल्ली की हुकूमत वापिस बुला ले। इस तरह क्रमशः भारत सरकार के और भारत के असर को कश्मीर से खत्म किया जा रहा है। खूनी लड़ाई से यह लड़ाई ज्यादा पेचीदी है। इस तरह कश्मीरी भारत सरकार को हाशिए पर खड़ा कर देना चाहते है। हमारी सरकार खासकर गृह मंत्रालय इतना बेखबर है कि घाटी में चल रहे इस षड़यंत्र को नहीं देख पा रहा है। वोटों की राजनीति के चक्कर में हर दल मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करता है। संविधान में सबको समान हक की गारंटी मिलने के बावजूद मुसलमानों के साथ पक्षपात क्यों किया जाता है ? अगर हमारी सरकार वाकई धर्मनिरपेक्ष है तो फिर हज हाऊस बनाना, हवाई अड्डे पर उनके लिए विशेष टर्मिनल और हाजियों को यात्रा किराए में रियायत क्यों दी जाती है ? अमरनाथ की इस घटना के बाद अगर देश भर में मुसलमानों के विरुद्ध आंदोलन खड़ा हो तो क्या गलत है ? ये दूसरी बात है कि इस आंदोलन का सभी राजनैतिक दल चुनाव में फायदा उठाना चाहेंगे। पर उससे जनता और देश को कुछ नहीं मिलेगा सिवाय बर्बादी के। अमरनाथ में जो कुछ हुआ वह अक्षम्य है। गृह मंत्रालय को अपनी तंद्रा तोड़कर कश्मीर की घाटी में चल रहे बौद्धिक आतंकवाद से निपटना होगा। वरना हालात बद से बदतर हो जाएंगे। वह दिन दूर नहीं जब घाटी के लोग हिन्दुस्तान की हुकूमत को कश्मीर की सरहदों से दूर फेंक देगें। 60 वर्षों तक कश्मीर में खरबों रूपया खर्च करने के बाद शेष भारत हाथ मलता रह जाएगा।

Sunday, June 29, 2008

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और सीवीसी

Rajasthan Patrika 29-06-2008
पिछले दिनों केंद्रीय सतर्कता आयोग ने एक अभूतपूर्व कार्य किया। हाल ही में सेवा निवृत्त हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई. के. सब्बरवाल पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए कानून मंत्रालय को अपनी संस्तुति भेज दी। आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ। संविधान के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद में महाभियोग चलाकर ही हटाया जा सकता है। देश का दुर्भाग्य है कि गत 10 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय के दो मुख्य न्यायाधीशों व दो न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण के मामले उनके पदासीन होते हुए प्रकाशित हुए पर संसद नें महाभियोग चलाने का नैतिक साहस नहीं दिखाया। इंत्तफाकन इनमे से तीन मामले मैंने ही अपनी पत्रिका कालचक्र के माध्यम से उजागर किए थे। सभी मामलों में मैंने समुचित प्रमाण भी प्रकाशित किए थे। जिसके बाद मैंने सभी प्रमुखदलों के नेताओं से महाभियोग चलाने की पहल करने का अनुरोध किया। ये सभी मशहूर राजनेता इस बेखौफ पत्रिकारिता से प्रभावित तो जरूर हुए पर न्यायपालिका से उलझने को तैयार नहीं थे। सन 2002 में मैंने इसी अंगे्रजी पत्रिका में यह लेख लिखा कि जो मुख्य न्यायाधीश सेवा निवृत्त हो गए हैं उन्हें अब संविधान के प्रावधानों का संरक्षण प्राप्त नहीं है। अब वे सामान्य नागरिक हैं और इसीलिए पद पर रहते हुए उसके दुरूपयोग के प्रमाणों के आधार पर उनके खिलाफ आपराधित मामले दायर किए जा सकते हैं। पर तब न तो सीबीआई ने यह हिम्मत दिखाई और न ही सीवीसी ने।

जस्टिस सब्बरवाल के मामले में इस बात के अनेक संकेत मिल रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली में अवैध निर्माणों के खिलाफ जो आक्रामक तेवर दिखाया उसके पीछे उनके पुत्रों के व्यवसायिक हित छिपे थे। इन प्रमाणों को देख कर ही केंद्रीय सतर्कता आयोग ने यह ऐतिहासिक कदम उठाया है। अब जब ये पहल हो ही गयी है तो आवश्यकता इस बात की भी है कि जिन पूर्व न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के मामले पहले सामने आ चुके हैं उन्हें भी बक्शा न जाए। केवल सब्बरवाल के खिलाफ ही कारवाई ही क्यों हो ? केंद्रीय सतर्कता आयोग को चाहिए कि वह कालचक्र में छपी इन तथ्यात्मक रिपोर्टों के आधार पर बाकी पूर्व न्यायाधीशों के खिलाफ भी ऐसी ही कारवाई करें। एक तरह के अपराध को जांचने के दो माप दण्ड नहीं हो सकते।

आज तक यही होता आया है कि अदालत की अवमानना कानून का दुरूपयोग करके अनेकों भ्रष्ट न्यायाधीश विरोध के स्वर दबा देते हैं। खुद आपराधिक मामलों में लिप्त ये न्यायाधीश दूसरों के आचरण पर फैसला सुनाते है। जिसका इन्हें कोई नैतिक अधिकार नहीं है। पर आम जनता क्या करें ? किसके पास जाएं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोए ? जो उसे भ्रष्ट या अनैतिक न्यायाधीशों से राहत दिलाए। खुद न्यायपालिका ऐसे न्यायाधीशों के विरुद्ध कारवाई करती नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट बाॅर ऐसोसिएशन शोर मचाने से ज्यादा कुछ करना नहीं चाहती। संसद महाभियोग चलाती नहीं है। नतीजतन अनैतिक आचरण के बावजूद ऐसे न्यायाधीश अपना कार्यकाल पूरा करके ही हटते हैं। ऐसे में कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि सेवा निवृत्त हो चुके भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ सीबीआई केस दर्ज करे और अगर आरोप सिद्ध हो जांए तो उन्हें सजा दिलवाए। जब उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव ए.पी सिंह भ्रष्टाचार के मामले में जेल जा सकते हंै, तमिलनाडु और बिहार के मुख्यमंत्री जेल जा सकते हैं, सेना के वरिष्ठ अधिकारी जेल जा सकते हैं, तो न्यायपालिका के सदस्य क्यों नहीं ? आखिर वे भी तो इंसान हैं और उनमें भी वो सारी कमजोरियां हो सकती हैं जो एक आम आदमी में होती है। अगर दो-चार को भी सजा मिल गई तो बाकी के दिल में डर बैठ जाएगा। आखिर इटली में 90 के दशक में ऐसा हुआ ही था।

यहां एक और बात महत्वपूर्ण है कि भारत के मौजूदा कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज न्यायायिक आयोग के अपने प्रस्ताव पर आत्म सम्मोहित हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनेगा जो पदासीन न्यायाधीशों के दुराचरण की जांच कर उनके खिलाफ कारवाई करेगा। देश के कई जाने माने कानूनविद् भी इस आयोग का जम कर समर्थन कर रहे है। आश्चर्य की बात है न तो ये न्यायविद् और न ही कानून मंत्री इस प्रस्ताव की सीमाओं को समझ पा रहे हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश को भ्रष्टाचार से अछूता मान लिया गया है। पर यह नहीं सोचा जा रहा कि अगर मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट होगा तब यह आयोग कैसे काम करेगा ? मसलन मैंने दो मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण का उनके पद पर रहते हुए पर्दाफाश किया था। ऐसी परिस्थति में यह आयोग क्या करेगा ? आवश्यकता इस बात की है कि इस तथ्य को नजर अंदाज न किया जाए और आयोग के ढांचे पर चिंतन करते समय ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थति के समाधान का भी प्रावधान रखा जाए। वरना यह न्याय आयोग भी नाकारा सिद्ध होगा।

मुंशी प्रेमचन्द की मशहूर कहानी ’पंच परमेश्वर’ में यह संदेश मिलता है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर गांव का एक साधारण व्यक्ति भी निजी राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है और निष्पक्ष न्याय करता है। पर आज नैतिकता के वो मान दण्ड नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका के सुधार की दिशा में कोई नया कदम उठाने से पहले काफी सोचने की जरूरत है। यह चिंतन न्यायपालिका के सदस्य भी करें और सरकार भी तो कोई बेहतर विकल्प निकल आएगा।

फिलहाल तो देश को चाहिए कि वह केंद्रीय सकर्तता आयोग को इस पहल के लिए बधाई दे और साथ ही सरकार पर यह दबाव बनाए कि जस्टिस सब्बरवाल के मामले में कोई रियायत न दी जाए। वे आज एक आम आदमी है और आम आदमी की तरह अपने अपराध की सजा पाने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो न्यायपालिका में कैंसर की तरह फैलते भ्रष्टाचार पर स्वतः अंकुश लग जाएगा।

Sunday, June 22, 2008

बिना भ्रष्टाचार के कैसे जिएं राजनेता ?


आम जनता, पत्रकार और समाज सुधारक सब राजनेताओं को ही कोसते हैं। पर उनका दर्द कोई नहीं जानना चाहता। क्या वे जन्म से भ्रष्ट होते हैं या हालात भी उन्हें भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देते हैं ? इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या बिना भ्रष्ट हुए चुनाव लड़ा जा सकता है या राजनीति की जा सकती है। दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों में क्या व्यवस्था है ? सच्चाई ये है कि राजनीति में लोग जन सेवा की भावना से ही आते रहे हैं। पर राजनैतिक दलों ने इन लोगों की जिंदगी की हकीकत को अनदेखा किया। इसलिए राजनीति का स्तर इतना गिरा।

एक ग्रामीण प्राथमिक विद्यालय के निर्धन शिक्षक का बेटा संघ में आता है और फिर भाजपा में पहुंचते हजारों करोड़ का आदमी कैसे बन जाता है ? उसे दल के पुराने नेताओं से ज्यादा अहमियत कैसे मिलती है ? राम मनोहर लोहिया की वैचारिक आग में तपा एक अदना सा सामाजिक कार्यकर्ता राजनीति के शिखर पर पहुंच कर अपराध और अपहरण का पर्याय कैसे बन जाता है ? सर्वहारा की दयनीय हालत पर आंसू बहाने वाले वामपंथी नेता कैसे निजी जीवन में पांच सितारा ऐशो आराम का मजा लेते हैं ? गांधी की विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली कांग्रेस के नेता राजनीति में सफल होते ही हजारों करोड़ की दौलत कैसे इकठ्टा कर लेते हैं ?

एक कार्यकर्ता अगर सच्चाई और ईमानदारी से समाज में काम करता है तो उसे न तो अपने बड़े राजनेताओं का दुलार मिलता है और नाही जनता से कोई आर्थिक मदद। ऐसे में अगर राजनैतिक कार्यकर्ता के कंधों पर अपने परिवार का बोझ भी हो तो वो अपना परिवार कैसे पाले ? मजबूरन उसे दलाली करनी पड़ती है। एक बार दलाली में सफलता मिली तो वह समाज सेवा भूल कर केवल शुद्ध दलाली करने में व्यस्त हो जाता है। इसी तरह चुनाव लड़ने के लिए हर प्रत्याक्षी को मोटी रकम चाहिए। आप कितने भी अच्छे व्यक्ति क्यों न हो और आप समाज के बारे में कितना ही अच्छा सोचते हो पर ईमानदारी से चुनाव नहीं लड़ सकते। इसलिए अगर आप विधानसभा या लोक सभा का चुनाव लड़ने का  फैसला करो तो चुनाव के खर्चे के लिए मोटी रकम उद्योगपति या राजनैतिक दल ही देता है। कितनी रकम इकठ्ठा होती है, कोई नहीं जानता। जाहिर है कि चुनाव की अफरा-तफरी में कोई नहीं पूछता कि तुमने चुनाव के नाम पर कितनी रकम इकठ्ठा की और कितनी खर्च की ? ऐसा पैसा प्रायः प्रत्याक्षी ही हड़प कर जाता है। इस समस्या का एक बेहतर विकल्प है और यह विकल्प दुनिया के बड़े लोकतंत्रों में अपनाया जा रहा है।

अगर राजनैतिक दल अपने समर्पित कार्याकर्ता की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी नहीं कर सकता तो उसे अपने कार्यकर्ता को साधन इकठ्ठा करने की छूट दे देनी चाहिए। हर कार्यकर्ता को छूट होनी चाहिए कि वह एक धर्मार्थ ट्रस्ट का पंजीकरण करवा लें। जिसमें उसके परिवार के दो से अधिक सदस्य न हों। शेष सदस्य समाज के अन्य क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्ति हों। जो भी धन इकठ्ठा किया जाए वह इसी ट्रस्ट में जमा हो। इसमें से एक निश्चित सीमा तक धन राजनेता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निकाला जाना मान्य हो। शेष धन समाज के कार्यों या चुनाव पर खर्च किया जाए। अमरीका में सेनेटर का चुनाव लड़ने वाले कुछ ऐसी ही व्यवस्था के चलते आराम से अपना राजनैतिक जीवन चला ले जाते हैं।

अभी तक राजनैतिक दलों ने या सरकार ने यहां तक कि चुनाव आयोग ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया है। भारत में ट्रस्ट का पंजीकरण कराना हो तो यह घोषणा करनी होती है कि इसके माध्यम से कोई राजनैतिक कार्य नहीं किया जाएगा। यानी सरकार राजनैतिक कार्य को व्यवसाय मानती है धर्मार्थ कार्य नहीं। फिर ये क्यों कहा जाता है कि राजनेता समाज के लिए कार्य करते हैं। अगर राजनीति धर्मार्थ कार्य नहीं है तो फिर क्या यह भी एक धंधा है ?

चुनाव आयोग व सरकार को चाहिए कि नियमों में बदलाव करें और राजनैतिक जीवन जीने वालों की जरूरतों को ध्यान में रखकर कानून बनाए। जैसे ट्रस्ट के पंजीकरण में उसके गैर राजनैतिक होने की अनिवार्यता न हो। ऐसे ट्रस्टों को दिए गए धन पर कर से छूट हो। धर्मदा आयुक्त यह सुनिश्चित करें कि ट्रस्टी ट्रस्ट के पैसे का दुरूपयोग न करें। राजनैतिक कार्यकर्ता की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रावधान इस न्यास के संविधान में हों।

इस तरह जो व्यवस्था बनेगी उसमें पारदर्शिता ज्यादा होगी। राजनेता को बेईमानी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसके मन में असुरक्षा की भावना नहीं रहेगा। जनता को भी पता होगा कि उनका विधायक या संासद अपना जीवन कैसे जी रहा है ? राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर चिंता जताने में कोई पीछे नहीं रहा है। सर्वोच्च अदालत, संसद व स्वयं प्रधानमंत्री तक इस पर अनेक बार वक्तव्य दे चुके हैं। पर लगता है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार से निपटने का रास्ता किसी के पास नहीं है। ऐसे में ट्रस्ट के इस विकल्प पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

Sunday, June 15, 2008

ऐसे नहीं निकलेगा काला धन चिदांबरम जी

Rajasthan Patrika 15-06-2008
भारत के वित्तमंत्री श्री पी. चिदांबरम काले धन को लेकर काफी चिंतित हैं। उसे पकड़ने के काफी इंतजाम भी कर रहे हैं। कुछ सफलता भी मिली है। पर ये बहुत कम है। इसलिए चिदांबरम जी गाहे बगाहे टीवी चैनलों और प्रेस वार्ताओं में देशवासियों को चेतावनी देते रहते हैं कि वे उनका सारा का सारा काला धन निकलवा कर ही दम लेंगे। गत सोमवार को नई दिल्ली में आयकर आयुक्तों के वार्षिक सम्मेलन के बाद एक प्रेस का¡नफ्रेंस में उन्होंने जानबूझ कर आयकर अदा नहीं करने वालों को सीधे चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि आयकर जमा नहीं करने वाले या तीन वर्षों तक लगातार आयकर जमा नहीं करने वालों के खिलाफ केवल आर्थिक कार्रवाई ही नहीं की जाएगी, बल्कि उनके खिलाफ कड़े कानूनी कदम उठाए जाएंगे। इससे पहले कि हम चिदांबरम जी को देश के विदेशों में अवैध रूप से जमा काले धन की हकीकत याद दिलाएं बेहतर होगा कि देशवासियों के रवैये में आये बदलाव पर भी नजर डाल लें।

चिदांबरम जी की पहल का कमाल है या देशवासियों में बढ़ता जिम्मेदारी का भाव कि इस वर्ष आयकर संग्रह सरकार की उम्मीदों से भी काफी ज्यादा है। पिछले वर्ष 2007-08 के दौरान कुल आयकर संग्रह 3 लाख 14 हजार 416 करोड़ रुपये रहा है, जो सरकार के बजटीय अनुमानों से 117.56 फीसदी ज्यादा है। वर्ष 2006-07 के आयकर संग्रह के मुकाबले यह 36.62 फीसदी ज्यादा है। दूसरी तरफ देश का 40 लाख. करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में अवैध रूप से जमा है। स्विटजरलैंड के अलावा भी दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो भारत के भ्रष्ट राजनैताओं, उद्योगपतियों, फिल्म और क्रिकेट कलाकारों, भ्रष्ट अधिकारियों और तस्करों की अकूत दौलत अपने बैंकों में खुफिया रूप से जमा किए हुए हंै। यह रकम चोरी से देश के बाहर ले जायी गई है। यह धन हमारे कुल विदेशी कर्ज का तेरह गुना है। अगर यह काला धन विदेशों से देश में वापिस आ जाए तो न सिर्फ भारत विदेशी कर्ज से मुक्त हो जाएगा बल्कि देश के 45 करोड़ गरीब लोगों को एक एक लाख रूपया प्रति व्यक्ति बांटा जा सकता है। यानी देश से गरीबी एक झटके में भगाई जा सकती है।

क्या भारत के वित्तमंत्री में इतनी ताकत और हिम्मत है कि वे विदेशों में जमा भारत का 40 लाख करोड़ रुपया निकलवा सकें ? अगर हैं तो उन्हें संसद में विधेयक लाना चाहिए। जिससे भारत सरकार ऐसे लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाकर यह पैसा निकलवा सके। क्योंकि यह इस देश के आम आदमी की दौलत है और इसका प्रयोग देश की आर्थिक तरक्की के लिए होना चाहिए। पर यह विधेयक पास तो सांसद ही करेंगे। क्या हमारे सांसद यह चाहते हैं कि काला धन बाहर आये ? अगर चाहते तो चुनाव आयोग को चुनावों में काले धन के इस्तेमाल के खिलाफ इतने कदम क्यों उठाने पड़ते ? फिर भी क्या चुनावों में काले धन का प्रयोग रूक पाया है ? तो फिर चिदांबरम जी इतने तेवर क्यों दिखाते हैं ?

लगभग 25 वर्ष पहले की बात है मैं एक दैनिक अखबार का संवाददाता था। तब मैंने अनौपचारिक बातचीत में एक तत्कालीन ताकतवर केंद्रीय मंत्री से पूछा कि आप लोग ऐसे कानून क्यों नही बनाते कि काला धन पैदा ही न हों ? उनका जवाब था, ’अगर हम ऐसे कानून बना देंगे तो हमें कौन पूछेगा’। मशहूर फ्रांसीसी लेखक ज्यां पाॅल सात्र की ये बात मैं अक्सर याद करता हूं। उन्होंने अपनी पुस्तक ’द फ्लाईज’ (मक्खियां) में लिखा है कि शासक वर्ग जानबूझ कर ऐसे कानून बनाता है कि जनता उन्हें तोड़ने पर मजबूर हो और फिर लगातार अपराध बोध के साथ जीती रहे। यही हालत हमारे देश की भी है। इतने सारे कानून है कि आप बिना कानून तोड़े जी ही नहीं सकते। बार-बार इन कानूनों को सुधारने और सुविधाजनक बनाने की बात उठती है। पर गंभीरता से कुछ भी किया नहीं जाता।

कर सुधार के भी तमाम सुझाव गत 40 वर्षों में अनेक अर्थशास्त्री व कर विशेषज्ञ देते रहे हैं। सरकार भी कर सुधार के सुझाव आमंत्रित करने के लिए अनेक आयोग बना चुकी है। इन आयोगों की रिपोर्टें वित्तमंत्रालय के रिकाॅर्ड रूम में धूल खा रही हैं। अगर इन्हें लागू किया जाता तो देश में काले धन की समस्या इतना विकराल रूप धारण न करती। अब तो यूपीए सरकार का अंतिम वर्ष है। अगले वर्ष किसकी सरकार बनें कौन जाने ? इसलिए अब तो कोई क्रांतिकारी सुधार लागू भी नहीं किए जा सकते। जो चल रहा है वही चलेगा। यह साफ है कि वित्तमंत्री चाहें जितना बिगुल बजा लें विदेशों में जमा भारत का काला धन देश में लाने की क्षमता तो उनमें नहीं है और बिना इस धन के लाए देश में काले धन की समस्या हल होने वाली नहीं है। जो भी कानून है, चेतावनी हैं, सजाएं है और घोषणाएं है वे सब केवल इस देश के आम आदमी के लिए हैं। वो डरा रहे। कर जमा कराता रहे। उसके कर के पैसे पर हुक्मरान पांच सितारा जिंदगी की ऐश लेते रहे। जबकि वो मकान, सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा, स्वास्थ्य और खाद्यान्न के लिए जूझता रहे। चिदांबरम जी ये याद रखिए कि कर दिया जाता है सरकार चलाने के लिए। सरकार का काम होता है जनता की जिंदगी खुशहाल बनाना। एक सर्वेक्षण करवा लीजिए और आम आदमी से पूछिए कि क्या केंद्र और प्रान्त की सरकारों में बैठे नेता और अफसर जनता का दुख दर्द दूर कर रहे हैं या उसके कर के पैसे पर मौज उड़ा रहे हैं। जवाब आप जानते हैं। फिर भी आप धमकाकर कर वसूलना चाहते हैं तो जरूर वसूलिए। क्योकि हमारे देश के आम लोग मार खाकर भी चू नहीं करते। दुश्यन्त कुमार की कविता की ये पंक्तियां इसे बखूबी बयान करती है- ’न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए’।

Sunday, June 8, 2008

महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान


कमरतोड़ मंहगाई से हर हिंदुस्तानी त्रस्त है। प्रधानमंत्री व पेट्रोलियम मंत्री का कहना है कि हमको मजबूरी में यह कदम उठाना पड़ा। सब जानते हैं कि इस मूल्य वृद्धि से मंहगाई और भी बढ़ जाएगी। पहले से बदहाली में रहने वाले हिंदुस्तानी का क्या होगा, किसे फिक्र है कहने को हमारी आर्थिक प्रगतिदर 8.5 फीसदी है पर इसका असर देश के किसान मजदूरों पर नहीं पड़ रहा। अर्थशास्त्री अर्जुन सेन गुप्ता की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि भारत में 77 फीसदी लोग 20 रु. प्रतिदिन से कम में गुजर बसर करते हैं। 20 रु. में कोई क्या खाएगा, क्या पहनेगा, कैसे घर में रहेगा, इलाज कैसे कराएगा और बच्चों को कैसे पढ़ाएगा ? इसकी चिंता गरीबी की परिभाषा देने वालों को नहीं।

आज दुनिया भर में पेट्रोलियम पदार्थों व खाद्यान्न का संकट खड़ा हो गया है। इसलिए मंहगाई भी बढ़ रही है। पर कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि यह हालात पैदा कैसे हुए ? सारी दुनिया को तरक्की और ऐशोआराम का सपना दिखाने वाले अमरीका जैसे देशों के पास कोई हल क्यों नही है। अभी तो भारत के एक छोटे से मध्यमवर्ग ने अमरीकी विकास माॅडल का दीवाना बन कर अपनी जिंदगी में तड़क भड़क बढ़ानी शुरू की है।  जिस तरह के विज्ञापन टीवी पर दिखाकर मुठ्ठी में दुनिया कैद करने के सपने दिखाये जाते हैं अगर वाकई हर हिंदुस्तानी ऐसी जिंदगी का सपना देखने लगे और उसे पाने के लिए हाथ पैर मारने लगे तो क्या दुनिया के अमीर देश एक सौ दस करोड़ भारतीयों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाएंगे ? क्या दे पाएंगे उन सबको जरूरत का खाद्यान्न और पेट्रोल ? आज दुनिया में गरीबी समस्या नहीं है। समस्या है दौलत का चंद लोगों के हाथ में इकठ्ठा होना। धनी देश और धनी लोग साधनों की जितनी बर्बादी करते हैं उतनी में बाकी दुनिया सुखी हो सकती है। उदाहरण के तौर पर इंग्लैंड के लोग हर वर्ष 410 अरब रु. की कीमत का खाद्यान्न कूड़े में फेंक देते है।

पश्चिमी विकास का मा¡डल  और जीवन स्तर हमारे देश के लिए बिल्कुल सार्थक नहीं है। पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हमारी सरकारें जनविरोधी नीतियां अपना कर अपने प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग कर रही है और उन्हें बर्बाद कर रही हैं। दुनिया का इतिहास बताता है कि जब जब मानव प्रकृति से दूर हुआ और जब जब हुक्मरान रक्षक नहीं भक्षक बने तब तब आम आदमी बदहाल हुआ। कुछ वर्ष पहले एक टेलीविजन चैनल पर एक वृत्तचित्र देखा था जिसमें दिखाया था कि विश्व बैंक से मदद लेने के बाद अफ्रीका के देशों में कैसे अकाल पड़े और कैसे भुखमरी फैली। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मदद को तो बेईमान नेता, अफसर और दलाल खा गये। जनता के हिस्से आई मंहगाई, मोटे टैक्स, खाद्यान्न का संकट और भुखमरी। इस फिल्म में रोचक बात यह थी कि उस देश के आम लोगों ने मिट्टी, पानी, सूरज की रोशनी और हवा की मदद से अपने जीने के साधन फिर से जुटाना शुरू कर दिया था।

भारत की वैदिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी थी। प्रकृति के साथ संबंध बनाकर जीना सिखाती थी। कृषि गौ आधारित थी और मानव कृषि आधारित और दोनों प्रकृति के चक्र को तोड़े बिना शांतिपूर्ण सहअस्तिव का जीवन जीते थे। दूसरी खास बात ये थी कि जब जब हमारे राजा और हुक्मरान शोषक, दुराचारी और लुटेरे हुए तब तब जनता को नानक, कबीर, रैदास, मीरा, तुकाराम, नामदेव जैसे संतों ने राहत दी।  आज सरकार राहत दे नहीं पा रही है। लोकतंत्र होते हुए भी आम आदमी सरकार की नीतियों को प्रभावित नहीं कर  पा रहा है। उसके देखते देखते उसका प्राकृतिक खजाना लुटता जा रहा है और वो असहाय है। तकलीफ की बात तो यह है कि आज उसके जख्मों पर मरहम लगाने वाले संत भी मौजूद नहीं। टीवी चैनलों पर पैसा देकर अपने को परमपूज्य कहलवाने वाले चैनल बाबाओं की धूम मची है। अरबों रूपया कमाकर अपने को वैदिक संस्कृति का रक्षक बताने वाले ये आत्मघोषित संत पांच सितारा आश्रम बनाने और राजसी जीवन जीने में जुटे है। इनकी जीवन शैली में कहीं भी न तो प्रकृति से तालमेल है और ना ही वैदिक संस्कृति का कोई दूसरा लक्षण ही। इनके जीवन में और अमरीका के रईसी जीवन शैली में क्या अंतर है ?

वैदिक ऋषि गाय, जमीन, जंगल और पानी के साथ आनंद का जीवन जीते थे। श्रम करते थे। पर आज अपने को संत बताने वाले अपने परिवेश का विनाश करके भोगपूर्ण जीवन जीते हैं और लाखों लोगों को माया मोह त्यागने और वैदिक मान्यताओं पर आधारित जीवन जीने का उपदेश देते हैं। इनकी वाणी में न तो तेज है और न ही असर। इसलिए आम जनता के संकट आने वाले दिनों में घटने वाले नहीं है। न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ कमजोर होगी न ही हमारे हुक्मरान अपनी गलतियों को दोहराना बंद करेंगे। इसलिए मंहगाई हो या खाद्यान्न का संकट हमें नए सिरे से अपनी जीवन शैली के विषय में सोचना होगा। सौभाग्य से आज देश में ऐसे अनेकों लोग है जो इन तथाकथित संतों की तरह खुद को परमपूज्य नहीं कहते पर बड़ी निष्ठा, त्याग और अनुभव के आधार पर आम लोगों को वैकल्पिक जीवन जीने के सफल माॅडल दे रहे है। इनकी बात मानकर लाखों लोग सुख का जीवन जी रहे है। इन लोगों को मंहगाई बढ़ने से असर नहीं पड़ता क्योंकि इन्हें इस बाजार से कुछ भी खरीदना नहीं होता। ये अपनी जरूरत की हर वस्तु खुद ही पैदा कर रहे हैं। ऐसा ही एक नाम है सुभाष पालेकर का। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में सुभाष पालेकर ने आम आदमी की जिंदगी बदल दी है। आज उनके अनुभव सुनने और उनसे ज्ञान लेने लाखों किसान जुटते हैं और उन्हें दो तीन दिन तक लगातार सुनते है। ऐसे सैकड़ों लोग देश में और भी है जिन्होंने वैदिक जीवन पद्धति को समझने और उसे समसामायिक बनाने में जीवन गुजार दिया। डा महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान. मनमोहन सिंह लाचार भले ही हों और उनके पास आम आदमी के दुख दर्द दूर करने का समाधान भी न हो पर देश में सुभाष पालेकर जैसे लोग आज भी है जो हल दे सकते हैं। बशर्तें हम उनकी बात सुनने और समझने को तैयार हों।