Sunday, November 25, 2007

चैराहे पर वामपंथी

Rajasthan Patrika 25-11-2007
नंदीग्राम की हिंसा, उस पर मुख्यमंत्री बुद्ध्देव भट्टाचार्य का बयान, सी पी एम की चुप्पी और भाजपा का आक्रमक तेवर इस सब पर तो बहुत लिखा जा चुका है। जरूरत यह समझने की है कि इस घटना से वामपंथियों खासकर सी पी एम का कौन सा रूप सामने आया है?

वामपंथ की बुनियाद द्वेश, प्रतिषोध, हिंसा और काल्पनिक जगत के सपनों पर टिकी है। इस सदी के शुरू में वामपंथियों ने रूस और चीन में जो कामयाबी के झंडे गाढ़े थे उससे पूरी दुनियां हिल गई थी। एक बार तो हर पढ़े लिखे, चिंतनशील व्यक्ति को लगा कि यही सही रास्ता है। पूंजीवादी बुरी तरह घबड़ा गए थे। पश्चिम को वामपंथ का खौफ कई दशकों तक भयभीत किए रहा। पर जिस सदी में वामपंथ ने पैर जमाए उसी सदी में उसके डेरे तंबू उखड़ गए। अब जो रूस और चीन में बचा है वह वामपंथ की दसवीं कार्बन कापी भी नहीं है।

स्वभाविक है कि इन हालातों में भारत के वामपंथी दिग्भ्रमित हैं। उन्हें अपने को टिकाए रखने के लिए अब कोई ठोस आधार नहीं मिल रहा। जिससे वे अपनी श्रेश्ठता सिद्ध कर सके। इस प्रक्रिया में आज वामपंथियों व बाकी के राजनैतिक दलों में कोई अंतर नहीं बचा है। सर्वहारा की हित की बात करने वाला वामपंथी नेतृत्व आज सर्वहारा को कुचलकर हुकूमत चला रहा है। पर ऐसा पहली बार नहीं हुआ। मैं पिछले 20 वर्षाें से बंगाल के दौरे पर जाता रहा हूं। वहां हर आदमी यह कहता था कि वामपंथी आतंक और डंडे के जोर पर संगठन और सरकार चलाते हैं। अगर ऐसा न होता तो नक्सलवाद क्यों जन्म लेता? अगर सीपीएम वास्तव में सर्वहारा की हितैषी है तो उसके दो दशकों के शासन के बाद भी बंगाल की गरीबी क्यों दूर नहीं हुई? अगर सीपीएम धर्म निरपेक्ष है तो आज तक केवल हिन्दुओं का विरोध समर्थन क्यों करती रही? मैने दो दशकेां तक राजनीति के शीर्ष पर खोजी पत्रकारिता की है। और मैं बिना किसी राग द्वेश के यह कह सकता हूं कि कई नामी वामपंथियों का भी वैसा ही दोहरा जीवन है जैसा दूसरों का। वे भी उन्हीं पूंजीपतियों की खैरात पर पलते रहे हैं जिन पर दूसरे पलते हैं।

दरअसल वामपंथियों ने पश्चिमी बंगाल में जो आडंबर फैला रखा था उसके पीछे वही सब होता था जो अन्य राजनैतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए करते हैं। हां आडंबर और संगठन इतना जोरदार रहा कि लोग बहकावे में आते रहे। पर नंदीग्राम जैसी घटनाओं ने सीपीएम के उस आडंबर को बेनकाब कर दिया है। देश में बुद्धिजीवियों, फिल्मी सितारों, लेखकों,  ायरों व पत्रकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जो नंदीग्राम जैसी घटनाओं पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। टीवी चैनलों और सड़कों पर उतर आते हैं। सामने वाले को अमानवीय, साम्प्रदायिक, बुर्जुआ क्या कुछ नहीं कहते। पर आज ये सारे के सारे वाक्पटु लोगों को लकवा क्यों मार गया है?

नंदीग्राम का एक सच और भी है जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया। गत तीन दशकों में बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ ने पश्चिमी बंगाल का समाजिक ताना बाना बदल दिया है। एक  साजिश के तहत बांग्लादेशियों को पश्चिमी बंगाल के  हरों में भेजा गया  और सीपीएक सरकार ने उन्हें वोटों के लालच में जानते हुए भी अवैध रूप से बसने दिया। अपनी आलोचना और गृहमंत्रालय की चेतावनियों की परवाह नहीं की। धीरे धीरे यही अल्पसंख्यक समुदाय सीपीएम पर हावी होने लगा। अब उसका नेतृत्व फिरकापरस्तोें ने संभाल लिया। जिससे जाहिरन सीपीएम को खतरा लगने लगा कि जो लोग कल तक पनाह मांग रहे थे वे आज काबू के बाहर हो चुके हैं और अपनी जा-बेजा हर मांग मनवा लेते हैं। तस्लीमा नसरीन को निकलवाना इसका एक उदाहरण है। इसलिए सीपीएम के काडर ने नंदीग्राम में रहने वाले अल्पसंख्यक समाज को अपनी हिंसा के प्रदशन से एक चेतावनी दी है।

दरअसल जीवन के षश्वत सत्य व मनुश्य के मूल चरित्र को समझे बिना केवल द्वेश, हिंसा और प्रतिशोध की भावना से जिस राजनैतिक विचारधारा का जन्म हुआ हो उससे सिर्फ यही निकलेगा। समाज बनेगा, पनपेगा नहीं टूटेगा और बिखरेगा। नंदीग्राम की घटना ने सीपीएम के पूरे चरित्र को बेनकाब कर दिया है।

Sunday, November 18, 2007

हिंसक हो रहे हैं पैसे वाले

Rajasthan Patrika 18-11-2007
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, नोएडा और गुड़गांव जैसे इलाकों में नए पैसे वाले हिंसक होते जा रहे है। सुनने में यह अटपटा लगेगा क्याsकि माना यही जाता है कि ज्यों-ज्यों आदमी का धन बढता हैं त्यों-त्यों उसमें असुरक्षा की भावना बढ़ती जाती है। पर पिछले कुछ वर्षों से इसका उल्टा नजारा महानगरों की सड़कों पर देखने को मिल रहा है। नए पैसे वालों के साहबजादे बड़ी-बड़ी महंगी गाडि़यों में मदमस्त होकर आए दिन आम लोगों को कुचलने और मारने लगे हैं। अंग्रेजी अखबार इसे रोड रेज कहते हैं। यानी सड़क पर गुस्सा।

होता यह है कि जब कोई वाहन चालक चाहे वह बुजुर्ग हो या अधेड़, युवा हो या स्त्री सड़कों पर शालीनता से अपनी गाड़ी चलाते हुए जाता है तो ये रईसजादे उन्हें नाहक रौंद देते हैं। क्योंकि ये तेज गति से भीड़ चीरते हुए सबसे आगे निकलना चाहते हैं। अपनी गाड़ी के सामने कोई अवरोध इन्हें बर्दाश्त नहीं होता। चाहे सामने वाला हालात से मजबूर होकर ही वह अवरोध कर रहा हो। ऐसे में यह लोग अपनी गाड़ी से उतर कर दूसरी गाड़ी वाले को बाहर खींच लेते हैं। उसकी बुरी तरह धुनाई करते हैं। उसकी गाड़ी पर बार-बार जानबूझ कर टक्कर मारते हैं। कई बार तो उस पर गाड़ी सीधी चढाकर उसे मार डालते हैं। आए दिन राजधानी के अखबार ऐसी खौफनाक खबरों से भरे रहते हैं। इस रोड रेज में निरपराध आम नागरिक रोज शिकार होते हैं। पुलिस कुछ भी नहीं कर पाती। क्योंकि घटना स्थल पर तब पहुंचती हैं जब ये कांड हो चुकते हैं।

एडमिरल नन्दा का पोता बीएमडब्ल्यू कांड में फंसा हो या फिल्मी सितारा सलमान खान फुटपाथ पर सोने वालों को कुचलने का आरोप झेल रहा हो तो ये कोई अपवाद नहीं है। ऐसे नौजवानों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ रही है। घर में आती अकूत दौलत, माता-पिता का कोई नियंत्रण न होना, नशे की आदत, जिम जाकर बनाई अपनी मांसपेशियों के प्रदर्शन की चाहत, फिल्मी हिंसा का असर सड़कों पर बढती करों की संख्या व तंग होती सड़कें कुछ ऐसे कारण हैं जो इस तरह की हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं।

मौजूदा कानून सड़क दुर्घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा नहीं दे पाता। सजा मिलने में भी 10-12 वर्ष से भी ज्यादा का वक्त लग जाता है। इसलिए इन बिगडै़ल साहबजादों के मन में कानून का कोई डर नहीं है। आधुनिकता ने नाम पर इन महानगरों में अब फार्महाउसों पर रात भर डांस पार्टियां चलती हैं। जिनमें शराब और अश्लीलता का नंगा नाच होता है और इनमें शिरकत करते हैं ताकतवर और पैसे वालों के बेटे-बेटियां। रात के डेढ-दो बजे जब ये पार्टियां खत्म होती हैं तब ये सड़कों पर खूब हंगामा काटते हैं। खाली सड़कों पर नाहक अपनी गाडि़यों के वीआईपी सायरन जोर-जोर से बजा कर आस-पास के घरों में सोने वाले लोगों की नींद में खलल डालते हैं। शहर की सड़कों को कार रेस का मैदान बना देते हंै। गाडि़यों में बजने वाले कान फोडू संगीत से पूरे इलाके में शोर मचा देते हैं। इसी मदमस्ती की हालत में अपनी गाड़ी में बैठी लड़कियों को प्रभावित करने के लिए ये बिगडै़ल साहबजादे सड़क चलते लोगों को रांैदते, पीटते और डराते हुए चलते हैं। पर इनका कोई इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इस तरह का आतंक रात में ही नहीं दिन में भी आए दिन देखने को मिलता है। पिटने वाला पिटता रहता है और कोई तमाशबीन मदद को सामने नहीं आता।

उधर पिछले दो दशकों में महानगरों में बढ़ते भवन निर्माण के कारण गांवों की जमीनें कई गुने दाम पर बिकने से अचानक इन गांवों में भारी दौलत आ गई है। जिसे संभालने की समझ, अनुभव व योग्यता इन परिवारों के पास नहीं थी। इनकी कृषि योग्य भूमि चली जाने से अब इनके लिए कोई रोजगार बचा नहीं। इनके लड़के इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं कि अच्छी नौकरी पा सकें। इसलिए जमीनें बेच कर कमाए गए मोटे पैसे को यह नौजवान दारू, मौज-मस्ती और सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाने में बिगाड़ रहे हैं। ये नौजवान तो पहले से ही मजबूत कदकाठी के होते हैं। पारिवारिक संस्कार देहाती होते हैं जिनमें आधुनिक समाज के सड़क के नियमों का पालन करना अपनी तौहीन समझा जाता है। फिर नए पैसे का मद। इसलिए जब ये सड़कों पर आम जनता की धुनाई करते हैं तो तमाषबीनों की रूह कांप जाती है।

हमारी आर्थिक प्रगति के ऊंचे दावों और आधुनिकता के नशे में हम अपनी सभ्यता और मानवीयता भूलते जा रहे हैं। हम अंधे बनकर पश्चिमी देशों के उन समाजों का अनुसरण कर रहे हैं जहां इस तरह की अनियंत्रित जीवनशैली ने समाज और परिवार दोनों को तोड़ा और हिंसा, बलात्कार व आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति को आम बना दिया। सौभाग्य से भारतीय समाज अभी भी इस पश्चिमी प्रभाव से बहुत हद तक अछूता है। क्योंकि पश्चिमीकरण की आंधी ने गांवों और कस्बों में रहने वाली भारत की बहुसंख्यक आबादी को अभी प्रभावित नहीं किया है। आवश्यकता इस बात की है कि महानगरों में रहने वाले मां-बाप, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता व राजनेता इस तरह की उद्दंडता की खुलेआम भत्र्सना करें। उसे अपनी पूरी ताकत से रोकें और ऐसा करने वालो को सुधारे या कड़ा दंड देने का प्रावधान करें। वरना हालात काबू के बाहर हो जाएंगे और रोड रेज, रोड रेज न रहकर एक नए किस्म का आतंकवाद बन जाएगी।

Sunday, November 11, 2007

बढ़ रही है धर्म की भूमिका


पाकिस्तान में आपात्काल सिर्फ इसलिए नहीं लगा कि परवेज मुशर्रफ अपनी कुर्सी बचाना चाहते हैं। बल्कि इस लिए भी लगाना पड़ा क्योंकि कट्टरपंथी और जेहादी किसी तरह काबू में नहीं आ रहे थे। केरल में स्वयं सेवक संघ, चर्च और इस्लामी राजनीति वामपंथियों पर हावी रही है। रूस में साम्यवाद के ढीला पड़ने के बाद धार्मिक संगठनों और केन्द्रों की बाढ़ आ गयी है। राम मंदिर के सवाल पर जनता की अपेक्षाओं का जनाजा निकालने वाली भाजपा राम सेतु के मुद्दे पर देश भर में रातों रात माहौल खड़ा कर देती है। पश्चिम एशिया के धर्म युद्ध चाहे वे मुसलमानों और यहूदियों के बीच हो या शिया और सुन्नियों के बीच अब केवल पश्चिम एशिया तक सीमित नहीं रह गये। इस्लामी आंतकवाद ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। अमरीका जैसी महाशक्ति की जड़ों को ओसामा बिन लादेन हिला चुका है। पंजाब में सिक्ख आतंकवाद ने एक लंबा खूनी दौर देखा है। आसाम की घाटी और शेष भारत के 300 से भी अधिक शहर सांप्रदायिकता की दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं। तार्किक सोच, निरीश्वरवाद व साम्यवादी विचारधारा की वकालत करने वाले दुनिया में उठ रही धर्म की आंधी के आगे टिक नहीं पा रहे हैं।

लगता तो यही है कि इस सदी मे धर्म दुनिया की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन कर रहेगा। चाहे अनचाहे देशों की सरकारों और राजनैतिक दलों को अपनी राजनीति में धर्म की उपेक्षा करना संभव न होगा। समाजिक वैज्ञानिक इसी उधेड़बुन में लगे है कि सूचना क्रान्ति और वैश्वीकरण के इस दौर में धर्म निर्रथक होने की बजाय इतना महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है। उन्हे इसका जबाब नहीं मिल रहा। दरअसल राज्य, सत्ता व राजनैतिक दलों के माध्यम से   लोगों के समाजिक कल्याण का जो स्वप्न जाल पिछली सदी में बुना गया था वह पिछले कुछ दशकों में चूर चूर हो गया। व्यक्ति, परिवार और समाज अपने अस्तित्व के लिए अब इन से हट कर विकल्पों की ओर देख रहा है। ऐसे में धर्म उसे एक सशक्त विकल्प के रूप में नजर आता है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते है कि चार किस्म के लोग मेरी शरण में आते हैंःआर्त यानी दुखियारे, अर्थातु यानी कामना रखने वाले, जिज्ञासु यानी ब्रहम को जानने की इच्छा रखने वाले और ज्ञानी जो इस संसार की नश्वरता को समझ गये हैं। आज के दौर में जो लोग विभिन्न धर्मों की शरण में दौड रहें है वे पहली श्रेणी के लोग हंै। दुखी हैं, हताश हैं, दिशाहीन हैं इसलिए वे धर्म गुरूओं की शरण में जा रहे है। जिन्ंहे ये निहित स्वार्थ चाहे वे विभिन्न धर्मों के आत्मघोषित धर्म गुरू हों या राजनेता सभी अपने चंगुल में फंसा लेते हैं और उनका जमकर दोहन करते हैं।

धर्म का वास्तविक स्वरूप है रूहानियत या अध्यात्म। खुद को जानना। जीवन का लक्ष्य समझना। शरीर की जरूरतों के अलावा अपनी आत्मा की जरूरतों को पूरा करना। ऐसा धर्म मानने वाले तलवारें नहीं खींचा करते। बम नहीं फोड़ते। निरीह लोगों की हत्या नहीं करते। दूसरे के संसाधनों पर बदनियती से कब्जा नहीं करते। बल्कि सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना से त्याग, तप और संयम का जीवन जीते हैं। दुर्भाग्य से धर्म के सही मायने समाज को बताने वाले समाज में नहीं जगंलों और कंदराओं में रहते है। वे गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, ईसा मसीह, गुरू नानक देव और कबीर दास की तरह विरक्तों का जीवन जीते हैं, महलों का नहीं। पैंसे खर्च करके अपने को महान संत बताने वाला, प्रचार करवाने वाले  अपने शिष्यों को वैसा ही माल देंगे जैसा शीतल पेय बनाने वाली कंपनियां देती है। विज्ञापन जबरदस्त पर वस्तु पोषक तत्वों से हीन। जिसका सेवन कुपोषण और रोग देता है।

इन हालातों में लोगों के लिए यह बहुत बडी चुनौती है कि वे धर्म को बेचने वालों से कैसे बचें और कैसे रूहानियत को अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा बनायें। तब धर्म से समाज को लाभ ही लाभ होगा। खतरा नहीं जैसा आज पैदा हो गया है।अगर मौजूदा ढर्रे पर धर्म और उसका उन्माद फैलता गया तो पूरे विश्व के लिए यह आत्मघाती स्थिति होगी। तब हम धर्म के नाम पर लड़कर करोंड़ों लोगों का खून बहायेगें और अंत में मध्य युग से भी बदतर हालात में पहुंच जायेगे। क्या हममें इतना धैर्य और इतनी तीव्र इच्छा है कि हम धर्म के मर्म को जाने और उसके लबादे के उतार फेंके ?

Sunday, November 4, 2007

स्टिंग आ¡परेशन से नरेन्द्र मोदी को फायदा

Rajasthan Patrika 4-11-2007
पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक स्टिंग आ¡परेशन दिखाया गया। जिसमें उन्ही के कुछ सहयोगियों ने यह स्वीकारा कि गुजरात में गोधरा के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों में नरेन्द्र मोदी का पूरा हाथ था। यह कोई नया आरोप नहीं हैं। इन दंगों के बाद से ही विपक्षी दल, कई तरह के स्वयंसेवी संगठन और मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा नरेन्द्र मोदी पर गुजरात में दंगे करवाने का और अल्पसंख्यकों के साथ अमानवीय व्यवहार करवाने का आरोप लगाते रहे हैं। इन आरोपों में कितनी सच्चाई है उसे जानने के लिए केन्द्रीय सरकार और अदालत समय-समय पर जांच करवाती रहीं हैं। जिनके विषय में यहां चर्चा की आवश्यकता नहीं।

असली बात तो यह है कि इस स्टिंग आ¡परेशन को इस वक्त दिखाने का मकसद क्या विशुद्ध खोजी पत्रकारिता था या इसके पीछे कोई और कारण है ? खुद स्टिंग आॅपरेशन करने वालों ने माना कि उन्होंने यह खोज कई महीने पहले पूरी कर ली थी। फिर क्यों इसे चुनाव के पहले तक रोक कर रखा गया ? इसका उत्तर ये लोग टेलीविजन की वार्ताआंे में नहीं दे पाए। इससे भाजपा को ये कहने का पर्याप्त आधार मिला कि यह स्टिंग आॅपरेशन विपक्षी दल के इशारे पर और चुनावांे को ध्यान में रख कर किया गया है। जो भी हो विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस स्टिंग आॅपरेशन से नरेन्द्र मोदी की छवि खराब हुई है ? वामपंथी या खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक लोग यही कहेंगे। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। इस स्टिंग आ¡परेशन से गुजरात के बहुसंख्यक मतदाताओं के बीच नरेन्द्र मोदी की छवि सुधरी है। गुजरात के अनेक नगरों में मैने विभिन्न तबके के लोगों से बात की तो पता चला कि ये लोग नरेन्द्र मोदी को एक योग्य और सक्षम नेता मानते हS। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से गुजरात के शहरों में बढ रहे कठमुल्लापन पर नरेन्द्र मोदी ने लगाम कसी और गोधरा के बाद के दंगों से यह संदेश दिया कि अल्पसंख्यक होने का अर्थ उद्दंडता और आतताई होना स्वीकारा नहीं जाएगा। इस बात का सीधा प्रमाण यह है कि नरेन्द्र मोदी के इस शासनकाल में गुजरात में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। दूसरी ओर आर्थिक प्रगति के इच्छुक लोगों को नरेन्द्र मोदी के शासन में मदद ही मिली है। चाहे वे अल्पसंख्यक ही क्यों न हों।

गुजरात के बहुसंख्यकों का कहना है कि मीडिया और खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक दल हमेशा मुसलमान का पक्ष लेते हैं और हिन्दू हितों का उपेक्षा करते हैं। गुजरात के लोग यह प्रश्न करते हैं कि जब कश्मीर के हिन्दू मारे जा रहे थे या मुसलमान आतंकवादियों द्वारा आज भी देश में बड़ी संख्या में हिन्दू मारे जा रहे हैं तब यह लोग क्यों नहीं उतने ही मुखर होते जितने की मुसलमानों के पिटने पर होते हैं ? इसलिए स्टिंग आॅपरेशन के बावजूद गुजरात के लोगों में चाहे-अनचाहे यह बात बैठ गई है कि अगर गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार का कोई हाथ है भी तो इसमें कोई बुराई नहीं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो गुजरात का बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकों के उद्दंड व्यवहार से अशांत और असुरक्षित ही रहता।

ये गंभीर बात है कि मीडिया के प्रति बहुसंख्यकों के मन में यह बात घर कर गई है कि वह हिन्दुओं के हित नहीं साधता। जबकि मीडिया की छवि यथा संभव निष्पक्ष ही होनी चाहिए। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि वैदिक परंपराओं के वैज्ञानिक आधार सिद्ध हो जाने के बावजूद इस देश का पढ़ा-लिखा प्रगतिशील वर्ग स्वयं को हिन्दू मानने से बचता है। उसे लगता है कि धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा ओढे बिना कुलीन समाज में उसे स्वीकारा नहीं जाएगा। इसलिए उसे दोहरे मापदंड अपनाने पड़ते हैं। पर मतदाता अपना अच्छा-बुरा खुद सोच लेता हैं। वह मीडिया के नियंत्रित ‘टाॅक-शो’ ‘ओपिनियन पोल’ और राजनैतिक विश्लेषणों से प्रभावित नहीं होता। मीडिया की उपक्षा के बावजूद मायावती की चुनावी फतह इसका उदाहरण है। यही वजह है कि मायावती मीडिया की परवाह नहीं करतीं। लालू यादव भी नहीं करते थे और अब नरेन्द्र मोदी भी नहीं करते। ये तीनों ही नेता अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मीडिया पर निर्भर नहीं है। लोकतंत्र के लिए मीडिया का इस तरह निरर्थक हो जाना शुभ संकेत नहीं है। मीडियाकर्मियांे और अखबार व टीवी चैनलों के मालिकों को गंभीरता से सोचना होगा। अगर मतदाता और नेता दोनों उससे प्रभावित नहीं हो रहे तो स्पष्ट है कि मीडिया के कुछ हिस्से ने अपनी सार्थकता खो दी है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किया गया स्टिंग आॅपरेशन भी इसीलिए उनके हक मे गया है। जिसका लाभ नरेन्द्र मोदी को आगामी विधान सभा चुनाव में देखने को मिल सकता है।

Sunday, October 28, 2007

जागो कृष्ण भक्तों

 Rajasthan Patrika 28-10-2007
भारत सरकार की पर्यटन मंत्री श्रीमती अम्बिका सोनी हर मंच पर घोषणा करती हैं कि वे देश में धार्मिक व सांस्कृतिक पर्यटन को बढाने के लिए तत्पर हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान के हर तीर्थ पर जाकर शीश नवाती हैं। हरियणा सरकर ने भी धार्मिक तीर्थाटन के महत्व को समझ कर अपने राज्य कुरूक्षेत्र जैसे अनेक तीर्थों को सुधारा व संवारा है। पर्यटन आज वैश्वीकरण के दौर में एक तेजी से पनपता उद्योग बन चुका है। माॅरीशस, मलेशिया, हवाई जैसे तमाम देश पर्यटन पर आधारित अर्थ व्यवस्था चला रहे हैं। पर दुःख की बात है कि भारत ने आज अभी भी अपने धार्मिक पर्यटन की संभावनाओं को विकसित नहीं किया है। केवल ताज महल ही ऐसा स्थल नहीं जिसके पीछे पूरी दुनिया भारत आती है। अगर हम अपने सांस्कृतिक महत्व के तीर्थ स्थलों की ओर ध्यान दें तो ताज महल से कहीं ज्यादा पर्यटक इन स्थलों की ओर आएंगे। क्योंकि दुनिया आज भी भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरू मानती है। ताज महल के निकट है, ब्रज क्षेत्र जहां 5 हजार वर्ष का सांस्कृतिक वैभव बिखरा पड़ा है। ब्रज में उत्तर प्रदेश का मथुरा जिला, राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कामा तहसील और हरियाणा के फरीदाबाद जिले की होडल तहसील भी आती हैं।



कश्मीर से कन्याकुमारी और आसाम से गुजरात तक कृष्ण भक्त बिखरे हुए हैं। भारत की जितनी नृत्य कलाएं हैं, काव्य रचनाएं हैं, चित्र कलाएं हैं, वास्तु कलाएं हैं व संगीत कलाएं हंै, सब पर भगवान श्री राधाकृष्ण के प्रणय प्रसंगों की व लीलाओं की छाप स्पष्ट है। इसलिए ब्रज भारत की सांस्कृतिक राजधानी है। यही वह क्षेत्र है जहां 5 हजार वर्ष पहले भगवाने श्री राधाकृष्ण ने अनेक लीलाएं की। जबसे टीवी चैनलों पर भागवत कथाओं की बाढ आई है तब से ब्रज प्रेमियों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है। पर इसके साथ ही बढता जा रहा है ब्रज का विनाश भी।



भागवतम् के दशम स्कंध के चोबीसवें अध्याय के 24वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण नंद बाबा से कहते हैं, ‘बाबा हम नगरों और गांवों के रहने वाले नहीं। हमारे घर तो ब्रज के वन और पर्वत हैं।ब्रज भक्ति विलास ग्रंथ के अनुसार 137 वन ब्रज में थे। जहां भगवान ने लीलाएं की। इनमें से अब मात्र 3 बचे हैं। शेष में धूल उड़ती है। लताआंे, वृक्षों व निकुंजों का नामोनिशान तक नहीं है। ब्रज में 72 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में पर्वत श्रृखलाएं हंै। जिन पर भगवान ने गो-चारण किया। वंशीवादन किया। रास किया व अनेक लीलाएं की। दुर्भाग्यवश राजस्थान की सरकार इन पर्वतों को खनन उद्योग के हवाले कर रात-दिन इनका विनाश करवा रही है। उधर गोवर्द्धन की परिक्रमा हो या बरसाने की वाटिकाएं। वृंदावन के निकंुज हों या जमुना जी के घाट, हर ओर विनाश का तांडव चल रहा है। अनेक भागवताचार्य एक ओर तो माया का मोह छोडने का उपदेश देते हैं और दूसरी ओर अपने यजमानों को ब्रज वास का लालच दिखा कर ब्रज में प्लाॅट व फ्लेट बेचने में जुटे हैं। दिल्ली और आसपास के बिल्डर्स भी बड़ी तादाद में ब्रज में फ्लैट व मकान बनवा रहे हैं ताकि ब्रज के प्रेम को पैसे में भुनाया जा सके।



इस प्रक्रिया में ब्रज के नैसर्गिक सौंदर्य का तेजी से विनाश हो रहा है। इन मकानों मंे 90 फीसदी से ज्यादा पूरे वर्ष खाली पड़े रहते हैं। दरअसल ब्रज जैसे तीर्थ स्थल के विकास और संवर्द्धन की तीनों ही प्रांतीय सरकारों व केन्द्रीय सरकार के पास न तो कोई दृष्टि है और नही ही कोई ठोस योजना। यहां तैनात प्रशासनिक अधिकारी भी ब्रज को आम शहरों की तरह अपनी कमाई का धंधा बना लेते हैं। स्थानीय नेताओं को भी केवल वोटों से मतलब हैं। उनके वोटर चाहे धरोहरों को नीलाम करें या उन पर अवैध कब्जें करें, वे विरोध नहीं करते। इसके विपरीत कब्जा करने वालों का ही साथ देते हैं। इन हालातों में जब दुनिया भर के करोडों कृष्ण भक्त यहां आते हैं तो यहां चल रही विनाश लीला और यहां की दुर्दशा देख कर धक्क रह जाते हैं।



पर कृष्ण भक्त भी इस विनाश के लिए कोई कम जिम्मेदार नहीं। कृष्ण भक्त देश-विदेश के नगरों में भगवत कथाओं में, छप्पनभोगों में, फूल बंगलों में, मंदिर निर्माणों में व भंडारों में करोडों रूपया पानी की तरह बहा देते हैं। अपने घर का मंदिर तो सजाते हैं पर भगवान के नित्यधाम ब्रज को सजाने के लिए कुछ नहीं करते। आलोचना करने से क्या कुछ बदल जाएगा ? अगर ब्रज को सजाना है तो कृष्ण भक्तों को अपनी सोच बदलनी होगी। मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध व जैन धर्मावलंबी अपने तीर्थों को सजा-सवार कर रखते हैं। पर कृष्ण भक्त ब्रज को सड़ा कर छोड जाने में ही गर्व का अनुभव करते हैं। भंडारे करने, मंदिर और फ्लैट बनवाने से कहीं ठोस सेवा है ब्रज को सजाना और संवारना। सरकारें यह कार्य करती नहीं। भागवताचार्य अपनी कमाई अपने ही ऐश्वर्य में लगा देते हैं। अगर भक्त ही नहीं जागे तो कौन सुधारेगा ब्रज की  दशा घ् ब्रज फाउंडेशन जैसी कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं ब्रज में बहुत ऐतिहासिक कार्य कर रही हैं। जिनसे सलाह लेकर कृष्ण भक्त ब्रज को सजाने, संवारने का काम कर सकते हैं। अगर कृष्ण भक्त नहीं जागे तो ब्रज की इतनी बुरी दशा हो जाएगी कि भला आदमी वहां जाने की हिम्मत भी नहीं करेगा। सरकारों को भी नारे नहीं ठोस योजनाएं देनी चाहिए। वरना हम देश में धार्मिक, सांस्कृतिक पर्यटन की असीम संभावनाओं को विकसित होने से पहले ही कुचल देंगे।

Sunday, October 21, 2007

कौन चाहता है कि पुलिस सुधरे ?

 Rajasthan Patrika  21-10-2007
नोएडा की श्रीमती नीमा गोयल आज संतोष के आंसू बहा रही हैं। दस वर्ष पहले दिल्ली के क्नाट प्लेस में पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में निरअपराध मारे गए उनके युवा पति प्रदीप गोयल के हत्यारे, दिल्ली पुलिस के सहायक आयुक्त एसएस राठी सहित सभी 10 पुलिस कर्मियों को अदालत ने हत्या का दोषी करार दिया है। देशवासी प्रसन्न हैं कि आखिर दोषी पुलिस कर्मियों को सजा मिलेगी। मिलनी भी चाहिए। तभी तो इस तरह की अहमक हरकत करने वाले पुलिसकर्मी सुधरेंगे।

अक्सर आरोप लगते हैं कि पुलिस अमानवीय व्यवहार करती है। पुलिस थाने में बलात्कार करती है। पुलिस आधी रात में वर्दी में डकैती करती है। पुलिस लाचार लोगों की संपत्ति पर जबरन कब्जा करती है। पुलिस रिपोर्ट लिखने के लिए भी रिश्वत मांगती है। पुलिस जातिगत द्वेष की भावना से काम करती है। पुलिस सांप्रदायिकता से ग्रस्त है। पुलिस को आम आदमी रक्षक नहीं भक्षक मानता है। ऐसे ही आरोपों के इर्द-गिर्द देश के हर प्रांत की पुलिस से जुड़ी खबरें अक्सर आती रहती हैं। पर क्या कभी हमने जानने की कोशिश की कि पुलिस इतनी गैर-जिम्मेदार क्यों है ?
अजमेर की दरगाह शरीफ में आतंकवादी बम का विस्फोट होता है तो हम पुलिस पर लापरवाही का दोष लगाते हैं। अगर पुलिस मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च कहीं भी घुसती हैं तो हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हैं। पुलिस को हम अपने धर्म स्थान में घुसने नहीं देंगे। उधर आतंकवादी नमाजी या भक्त बन कर घुस जाएंगे। फिर जब विस्फोट होगा तो हम इसे पुलिस की लापरवाही बताएंगे। योग्य उम्मीदवारों की उपेक्षा करके रिश्वत में मोटी रकम लेकर अगर सिपाहियों की भर्ती होगी तो हम कैसे उम्मीद करें कि वे अपने जीवन में धर्मराज युधिष्ठिर की तरह आचरण करेंगे ? यदि मुख्यमंत्री अपनी जाति के लोगों को थोक में पुलिस में भर्ती करेंगे तो कैसे इन पुलिस वालों से उम्मीद की जाए कि वे जातिगत द्वेष नहीं पालेंगे। जब पुलिसकर्मी अपनी आंखों से रातदिन देखते हैं कि अनेक बड़े नेता और मंत्री खुलेआम अपराधियों को प्राश्रय दे रहे हंै और स्वयं भी व्यभिचार में लिप्त हैं तो इन पुलिस वालों से सदाचरण की आशा कैसे की जा सकती है? जब पुलिस वाले देखते हैं कि अदालतांे में खुलेआम रिश्वत देकर अपराधी छूट जाते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद की जाए कि वे जान जोखिम में डालकर अपराधियों को पकड़े ? वीआईपी सुरक्षा के नाम पर जब पुलिस का दुरूपयोग राजनेताआंे की झूठी शान बढाने में हो रहा हो तो वे कैसे जनता को सुरक्षा मुहैया कराएंगे? जब पुलिस के बड़े हाकिम लाटसाहबों की सी जिंदगी जीते हों और सिपाही को 24 घंटे पिलने के बाद भी दिवाली और ईद की छुट्टी बमुश्किल मिलती हों तो वो कैसे अपना मानसिक संतुलन कायम रख पाएगा ? जब थानों पर तैनाती पुलिस कप्तान को हर महीने मोटी थैली पहुंचाने की एवज में होती तो उस थाने का चार्ज लेकर दरोगा अपराध का ग्राफ कम क्यों करवाएगा ?

दरअसल भारत में पुलिस राज सत्ता के हाथ में जनता के दमन का औजार मात्र है। इसकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं केवल सरकार के प्रति है। दरसल भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 हमारे संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता। 1857 के गदर के बाद जब ब्रितानी हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कंपनी से हिंदुस्तान की बागडोर ली तो उसे ऐसे कानून की जरूरत थी जिसकी मदद से वह भारत की जनता का दमन कर सके। इसीलिए उसने यह कानून बनाया था। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि 1947 में आजादी मिलने के बाद और 1950 में नए संविधान के लागू होने के बाद भी पुलिस अधिनियम में संशोधन नहीं किया गया।

1977 में जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग बनाया। जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों को पुलिस सुधार का मसौदा बनाने का काम दिया गया। इस आयोग ने बड़ी मेहनत से काम किया। इसकी रिपोर्ट रोंगटे खडे़ कर देती है। जिसे पढने के बाद हर आदमी यह मान लेगा कि दोष पुलिस का नहीं हमारे राजतंत्र का है। इस रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था में आमूलचूल परिर्वतन की सिफारिश की गई है। संक्षेप में रिपोर्ट कहती है कि पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। पुलिस कर्मियों के प्रशिक्षण और काम की दशा पर संवेनदशीलता से ध्यान दिया। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हो बल्कि उसमें न्यायपालिका व समाज के अन्य महत्वपूर्ण वर्गों का भी प्रतिनिधित्व हो। पुलिस वालांे के तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उन पर निगरानी रखने के लिए स्वायत्त नागरिक समितियां गठित हांे। पर दुख की बात है कि पिछले 30 वर्षों से पुलिस आयोग की सिफारिशें धूल खा रही है। 1998 में महाराष्ट्र के मशहूर पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए एक और समिति का गठन किया गया। जिसने मार्च 1999 में अपनी रिपोर्ट दे दी। वह भी धूल खा रही है। इसके बाद पद्मनाभैया समिति का गठन हुआ। पर रहे वही ढाक के तीन पात।

पुलिस व्यवस्था में क्या सुधार किया जाए ये तो इन समितियों की रिपोर्ट से साफ है पर लाख टके का सवाल यह है कि यह सुधार लागू कैसे हो ? यह कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना ये हो नहीं सकता। सच्चाई यह है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट हैं। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। इसलिए भारत के गृहमंत्री पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बडबोले ऐलान करते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले और वे भक्षक की जगह रक्षक बने, तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को पकड़ना होगा। हर सांसद को जनता इस बात के लिए तैयार करे कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने का जोरदार अभियान चलाए। अगले आम चुनावों से पहले पूरे देश में इन सुधारों को लागू करने का महौल बनाया जाए। तभी कुछ बदलेगा। क्या हम ये करंेगे ?

Sunday, October 14, 2007

परमाणु सन्धि का विकल्प मौजूद हैं सरकार क्यों नहीं सोचती इस ओर

Rajasthan Patrika 14-10-2007
1 लाख 35 हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता के बावजूद देश भीषण उर्जा संकट से गुजर रहा है। यsह तो तब है जबकि देश में प्रति व्यsक्ति बिजली खपत मात्र 631 यूनिट है। दुनियk के दूसरे उन्नत देशों के प्रति व्यक्ति उपभोग के स्तर से तुलना करें तो देश का ऊर्जा संकट किसी सुरसा से कम नहीं दिखाई देता। मसलन कनाडा की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत है 17179, अमरीका की 13338, अमरीका की 13338 इटली की 5644 व चीन की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत है। 1470 ।ऐसे में विकास की पश्चिमी अवधारणा से पूर्णतय अभिभूत प्रधानमंत्रh श्री मनमोहन सिंह की चिंता वाजिब ही है। चिंता चिता की अग्नि से भी ज्यkदा भयवह होती है.देश को मुद्रा संकट से उबारने वाले श्री सिंह आज देश को ऊर्जा संकट से निकालने की मंशा रखते हैं। उनकी मंशा पर किसी को लेशमात्र भी संशय नहीं हो सकता परन्तु उस मंशा को अमली जामा पहनाने के उनके तरीके से लोगों में बेचैनी है। यह बेचैनी इस स्तर तक पहु¡च चुकी है कि मध्यवधि चुनाव तक की नौबत आ चुकी है। बेचैनी का राजनैतिक गणित चाहे जो कुछ भी हो परन्तु वह राष्ट्रहित का सुरक्षा कवच बनी हुई है।



प्रधानमंत्रh नाभिकीय ऊर्जा के वर्तमान उत्पादन स्तर 4120 मेगावाट को सन 2020 तक 40000 मेगावाट तक पहु¡चा देना चाहते हैं। इस 4120 मेगावाट क्षमता में से 2180 मेगावाट का विकास पिछले 7 सालों में हुआ है और दिसम्बर 2008 तक 2660 मेगावाट की अतिरिक्त क्षमता विकसित हो जाएगी। संतोष की बात यह है कि परमाणु ऊर्जा का  यह समूचा विकास भारतीय नाभिकीय कायर्क्रम के जनक डा¡ होमी जहा¡गीर भाभा की  दूर दृष्टि से  प्रभावित रही परमाणु नीति के तहत हुआ है। डा. भाभा को पता था कि  भारत में यwरेनियम का सीमित भण्डार है। इसलिए यूरेनियम पर आधारित तकनीकी से नाभकीय ऊर्जा का उत्पादन मंहगा पड़ेगा। इतना ही नहीं हमारी निभर्रता दूसरे देषो पर बढ़ती जाएगी। जबकि भारत में थोरियम का विशाल भण्डार हैं। जिसके मद्देनजर अगर नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन थोरियम के ब्रीडर रिएक्टर की तकनीकी से होता है तो भारत नाभिकीय ऊर्जा के मामले में आप निर्भर हो जाएगा। उनकी  यह रणनीति देश की ऊर्जा सुरक्षा के लिए अहम रही है।



रहीम जी का एक दोहा बहुत मषूहर है कि रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून आज से करीब 500 वर्ष पूर्व रचे गए इस दोहे में पानी के स्थान पर यदि बिजली शब्द डाल दियk जाए तो दोहा और अधिक प्रासंगिक हो उठेगा। इसका अंदाजा इसी बात से लगायk जा सकता है कि पानी की आपूर्ति भी बिजली की उपलब्धता पर ही निर्भर हो चुकी है। वर्तमान अर्थव्यवस्था में पानी के बगैर तो एक बार जीवन की कल्पना की भी जा सकती है परन्तु बिजली का एक पल का भी अभाव समूची व्यवस्था को चरमरा देने की ताकत रखता है। भारत में ऊर्जा की जरूरत जिस तेजी से बढ रही है उससे भारत की ही कई निजी कंपनियां नाभकीय ऊर्जा के उत्पादन को उत्सुक बैठी हैं। नाभिकीय रियsक्टरों के विविध आयkमों के विकास हेतु भारतीय कम्पनियks के पास पयkZIr कौशल भी मौजूद है। निजी क्षेत्र की कम्पनियks जैसे टाटा पावर रिलांयस एनर्जी एस्सार xqzi व जीएमआर ग्रुप  नाभिकीय ऊर्जा संयU= लगाने को तत्पर हैं। गौरतलब यह है कि जब स्वदेशी संसाधनों के बूते पर पिछले 8 वर्षों में 4840 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता का विकास कियk जा सकता है तो क्यk आगामी 12 वर्षों में 40000 मेगावाट क्षमता का विकास सम्भव नहीं है \ क्यk भारतीय वैज्ञानिक,  इंजीनियjk औद्यौगिक घराने देष में हुई दूर संचार क्रांति की भा¡ति नाभिकीय ऊर्जा क्रkfUr को गति नहीं दे सकते+ \



दरसल असली बात कुछ और है। सामरिक हितों का निर्धारण सदा से आर्थिक हिsतों के आधार पर ही होता आयk है। भारतीय नाभिकीय कायZdze  पर लगे 33 वर्ष पुराने प्रतिबंध को आज यfn अमरीका ढील दे रहा है तो उसे अगले 3 दशकों में 150 अरब डा¡लर का भारतीय परमाणु ऊर्जा बाजार दिखाई पड रहा है। सन्धि के प्रभाव में आने के साथ ही 14 अरब डाWलर के सौदों के लिए अरीवा, जनरल इलैक्ट्रिक, वेस्टिंग हाउस और रोसाटम जैसी बहुरा’Vªh;  कम्पनिय्ंks में होड लगी हुई है।

आर्थिक विकास के लिए सन्धिय और समझkSrs तो जरूरी होते हैं। परन्तु उसमें दोनों पक्षों के लिए मोल भाव का पूरा मौका रहता है। आज भारत के लिए परमाणु बाजार खोलना अमरीका की आर्थिक मजबूरी है। ऐसे में भारत को कोई भी समझkSrk  अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप करना चाहिए।  पिछले 4 दशकों से भारत का परमाणु ऊर्जा कायZक्रम सुचारू रूप से चल ही रहा है। कुछ नीतिगत परिवर्तनों की आव”;drk अवश्यd है जिससे नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में भी टेलीका¡म की तरह तेजी आ सके। आत्मनिर्भरता के ठोस आधार पर हम बेहतर निर्णय ले पाए¡गे।



Tkgk¡ तक ऊर्जा संकट का प्रश्न है तो उसके लिए अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के विकास का पयkZIr अनुभव व दक्षता हमारे पास मौजूद है। ऊर्जा संकट को धुरी बना एकपक्षीय नाभिकीय सन्धि करने की जल्दी यk मजबूरी भारत की बिलकुल नहीं है।



ऊर्जा के पश्चिमी उपभोग स्तरों को मानदण्ड मानकर भारतीय  vFkZO;oLFkk के विकास का खा¡pk  तैयkर करना तो चार्वाकीय ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत वाले न्यk; से एक मूर्खतापूर्ण अभिप्राय होगा। राष्ट्रपिता की 139वीं  वर्षगा¡ठ हाल ही मना चुके राष्ट्र के कर्णधारों को भारतीय विकास की अवधारणा पर एक बार फिर चिन्तन करने की आवश्यdrk है। पाश्चात्यk भोगवादी दृष्टिकोण से भारत की  leL;k,¡ सुलझsxh नहीं वरन और अधिक जटिल होती चली जाए¡गी।