Friday, September 17, 2004

भाजपा और हिन्दू धर्म ?


जब कभी हिंदुओं की भावना भड़काने का मौका मिलता है भाजपा चूकती नहीं। वीर सावरकर वाला मामला कुछ ऐसी ही घटना है। भाजपा दावा करती है कि हिंदुओं की चिंता सिर्फ उसे ही है और किसी दल को नहीं। रामजन्म भूमि आन्दोलन को पकड़कर भाजपा ने हिंदुओं को संगठित करने का काम किया भी इसमें संदेह नहीं। हर घर से राम मंदिर के नाम पर ईंट और चंदा लेकर भाजपा और विहिप ने पूरे देश के ही नहीं विदेशों में रहने वाले हिंदुओं को भी आंदोलित कर दिया। पर सत्ता में आने के बाद उसने जो रंग दिखाया उससे सभी धर्म पे्रमी हिन्दू हतप्रभ रह गये। राम मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा नेताओं ने बार बार बयान बदले। धर्म पे्रमी निष्पक्ष लोगों ने बार बार अपने लेखों और वक्तव्यों से भाजपा नेताओं को सलाह दी कि मंदिर का विवाद जब हल होगा, हो जायेगा, तब तक कम से कम तीर्थ स्थलों की दुर्दशा तो सुधार दो। पर इस मामले में भाजपा के शासन काल में ऐसा कुछ भी ठोस नहीं हुआ जिससे हिंदू धर्म या समाज को लाभ मिला हो। बल्कि सत्ता के लालच में भाजपा नेता हिंदूवादी मुद्दों से पल्ला झाड़ते नज़र आए।

संघ के कार्यकर्ताओं को हमेशा की तरह बहका दिया गया कि साझी सरकार की सीमाएं होती हैं इसलिए कुछ ठोस नहीं हो पा रहा। इसी तरह आतंकवाद के सवाल पर भाजपा ने देशवासियों को खूब डराया और वोट सीधे किए पर इस काॅलम में मैं कई बार लिख चुका हूँ और प्रमाण दे चुका हूँ किस तरह देश में आतंकवाद के फैलने के लिए भाजपा भी जिम्मेदार है। इस विषय पर भाजपा के हर बड़े नेता से मैं किसी भी टी.वी. चैनल पर खुली बहस करने को तैयार हूँ। अपनी बात प्रमाण के साथ रखने को भी तैयार हूँ। पर वे ऐसी बहस करने की हिम्मत नहीं करते। एक बार जी.टी.वी. के कार्यक्रम में ऐसा अवसर आया तो भाजपा नेताओं के होश उड़ गए। फौरन कार्यक्रम का रूख बदलवा दिया।

फिलहाल चर्चा भाजपा के हिंदू पे्रम की करना चाहता हूँ। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन बार बार हिंदू धर्म और अपनी पुरातन संस्कृति की रक्षा करने का दावा करते हैं। संस्कृति की रक्षा में सांस्कृतिक अवशेषों की रक्षा बहुत ज़रूरी होती है। इससे कोई असहमत नहीं होगा। बामियान (अफगानिस्तान) में बुद्ध भगवान की मूर्ति ध्वस्त कर दी गई तो बुद्ध धर्म का वहाँ अवशेष भी नहीं बचा। मूर्ति बनी रहती तो शायद वहां कभी फिर बौद्ध़ धर्म फिर फैल सकता था। अगर मक्का मदीना या वेटिकन सिटी नहीं रहेंगे तो इस्लाम और ईसायत भी नहीं रहेगी। इसी तरह हिंदू धर्म की भी कुछ सांस्कृतिक विरासतें हैं। जिनकी रक्षा होनी चाहिए। पर केन्द्र और जिन राज्यों में भी भाजपा की सरकार थी वहां भी हिन्दू सांस्कृतिक विरासतों का खुलेआम विनाश होता रहा पर किसी ने परवाह नहीं की। जगमोहन जी जैसे व्यक्ति कुछ कर सकते थे पर उन्हें कुछ करने नहीं दिया गया। दूसरी तरफ अगर किसी भी शहर में किसी मंदिर - मसजिद का विवाद हो जाए तो भाजपा और संघ वाले फौरन आग में घी देने पहुँच जाते हैं। पर पांच हजार वर्ष पुरानी ब्रज संस्कृति की रक्षा की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। राधाकृष्ण के पे्रम की रसमयी लीलाओं के साक्षी स्थल और भगवान् की बाल लीलाओं को समेटे सांस्कृतिक स्थलों का जितना और जैसे विनाश भाजपा के शासन काल में हुआ है उतना शायद पहले कभी नहीं हुआ। इसके तमाम प्रमाण हैं। 

देश विदेश में भागवत सुना सुनाकर करोड़ों बटोरने वाले अपने भक्तों को भी नहीं बताते कि ब्रज का कैसा विनाश हो रहा है। जिन लीला स्थलियों की कथा सुनाकर वे आपका मन द्रवित कर देते हैं वे सब विनाश के कगार पर खड़ी हैं या उनका विनाश हो चुका है। भगवान की कोई लीला ब्रज के आज मशहूर हो चुके मंदिरों, मठों, आश्रमों, गेस्ट हाउसों में नहीं हुई थी। भगवान की तो सब लीलाएं ब्रज के वनो, पर्वतों, कुण्डों व यमुना तट पर हुई थीं। ये सब काफी तेजी से नष्ट किये जा रहे हैं। इनकी रक्षा के लिए कभी भाजपा, विहिप या संघ ने कोई पहल नहीं की। गुजरात में भाजपा को सत्ता में बैठाने वाली कृष्ण भक्त जनता के मन में यमुना माई के प्रति अगाध पे्रम और श्रद्धा है। पर उन्हें सुनकर आघात लगेगा कि वृंदावन में यमुना मां की गोद में भाजपा शासन के दौरान अवैध निर्माणों की होड़ लग गई। वृंदावन वासी शोर मचाते रह गए और देखते देखते भाजपा सरकार ने यमुना तट को अवैध नगर में बदल दिया। यमुना मैया के घाटों के सामने, तट के बीच में, अवैध सड़क का निर्माण कर दिया ताकि कालोनियां काटी जा सकें। यह दृश्य इतना हृदय विदारक है कि हर भक्त रो देता है। दुनिया के तमाम देशों में रेत हटाकर नदी पुनः साफ की गई है व  तटों पर लाई गई है। जबकि यूरोप अमेरिका के देशों की नदियों का वो महत्व नहीं है जो हिन्दुओं के लिए यमुना जी का है। यमुना में भी रेत और गाद हटाकर वही करने की जरूरत थी। इस ओर बार बार ध्यान दिलाया गया पर हिंदू धर्म के प्रति असंवेदनशील भाजपा नेताओं के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। सुश्री मायावती ने जो आगरा में यमुना के साथ किया उसके मुकाबले यह अवैध निर्माण कहीं ज्यादा बड़ा अपराध है और अगर एक भी जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में इस मांग के साथ आ जाये कि वृंदावन में यमुना पर हुए अवैध निर्माण के लिए जिम्मेदार लोगों को अदालत सजा दे और भारत व उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दे कि वे दोनों मिलकर यमुना की ड्रैजिंग करवायें जिससे यमुना फिर अपने ऐतिहासिक घाटों पर लौट सके, तो इस याचिका के सर्वोच्च न्यायालय में आते ही भाजपा नेताओं के होश उड़ जायेंगे। 

संघ, विहिप व भाजपा के कार्यकर्ताओं को समझा दिया गया कि जनता को बता दो कि साझाी सरकार के कारण राम मंदिर नहीं बन सका। पर भाजपा के पास इस बात का क्या जवाब है कि ब्रज के हजारों प्राचीन मंदिर और लीला स्थलियाँ क्यों जीर्णशीर्ण अवस्था में पड़ी रहीं ? उनका जीर्णोद्धार कराने में भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारों को क्या दिक्कत थी ? भगवान की रास लीलाओं के साक्षी ब्रज के 48 वनों को सजाने संवारने में क्या दिक्कत थी ? वृदंावन की हरित पट्टी की रक्षा करने में क्या दिक्कत थी ? जबकि इसी काॅलम में 1998 से इन मुद्दों की ओर मैं भी भाजपा नेतृत्व का ध्यान आकर्षित करता रहा। आज वृंदावन कंक्रीट का जंगल बन चुका है। जबकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि देश में 33 फीसदी हरित क्षेत्र होना चाहिए। मथुरा-वृदांवन की सड़कों की दुर्दशा तो वर्णन से परे है। इतनी खराब सड़कें किसी तीर्थ में नहीं होंगी। कूड़े के ढेरों से तीर्थ पटा पड़ा है। भाजपा की सरकारों को ब्रज की सड़कें ठीक करवाने और सफाई सुनिश्चित करने से कौन सा मुकदमा रोक रहा था ? ब्रज के पर्वतों पर भगवान के तमाम लीला चिन्ह हैं जिन्हें डायनामाइट से उड़ाया जा रहा है। इनमें से ज्यादातर पहाड़ राजस्थान के भरतपुर जिले की कामा तहसील में पड़ते हैं। राजस्थान में भाजपा की सरकार है। इस खनन को रोकने में इतनी देर क्यों हो रही है। खनन और डायनामाइट से भगवान की लीला स्थलियों को रात-दिन मिट्टी के ढेर में बदला जा रहा है। हिंदू धर्म की रक्षा करने वाली भाजपा मौन क्यों है ? अंडमान और हुबली जाकर जो आंदोलन खड़ा किया जा रहा है या रामजन्म भूमि की रक्षा के नाम पर जो ऊर्जा व धन खर्च किया गया उसका 10 प्रति भी अगर ब्रज की सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा के प्रयासों पर किया गया होता तो 5000 वर्ष पुरानी यह हिन्दू धरोहर इतनी तेज़ी से नष्ट नहीं होती। पर भाजपा ने ब्रज में विकास के नाम पर अपने नेताओं के आराम के लिए तीन भव्य आश्रम बनवाए और वन संस्कृति पर आधारित ब्रज की धार्मिक भावनाओं की परवाह न करके वहां तमाम पुराने वृक्षों को काट डाला और कौडि़यों के दाम पर वह जमीन अपनी नेता साध्वी ऋतम्भरा को अलाट कर दी। तीर्थयात्रियों और धर्म पे्रमी जनता और साधुसंतों की सुविधा के लिए कौड़ी खर्च करना तो दूर रहा उल्टा ब्रज के विनाश का काम तत्परता से किया। फिर भाजपा कैसे हिन्दू धर्म की ठेकेदारी का दावा करती है ? यही कारण है कि मथुरा की धर्म पे्रमी जनता ने भाजपा को लोकसभा व विधानसभा चुनावों में हरा दिया।

जनसंख्या वृद्धि में हिन्दुओं का प्रतिशत गिरने का सवाल हो, सावरकर जी की नामपट्टी हटाने का सवाल हो या फिर मथुरा, काशी और अयोध्या के धर्म स्थलों का सवाल हो भाजपा भावनात्मक मुद्दे उठाकर आंदोलन खड़ा करने में माहिर है। पर उसके कृत्य ऐसे नहीं हैं जिससे यह प्रमाण मिले कि भाजपा और उसे जुड़े संगठन हिन्दुओं के  धर्म स्थलों और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण व संवर्द्धन में कोई रुचि लेती हो। दूसरी तरफ इंका है जो हिन्दुओं के तमाम धर्म स्थलों का अपने शासन काल में विकास करती आई है। पर मुस्लिम वोटों के लालच में कभी उसका प्रचार नहीं करती। प्रचार करे या न करे पर यह सही है कि इंका को सत्ता में बैठने वाले मतदाताओं में हिन्दुओं की ही संख्या सबसे अधिक है। ये हिन्दू भी धर्म पे्रमी हैं। पर वे भाजपा के छद्म हिन्दूवाद से दुखी और नाराज हैं। इसलिए इंका के साथ खड़े हैं। इसलिए इंका और सपा की सरकारों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ब्रज के वनों, कुण्डों, पर्वतों, यमुना व ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण व संवर्द्धन में कोताही न दिखायें। चुनाव आने का इन्तजार न करें। ठोस काम करके दिखायें। फिर उन्हें प्रचार की जरूरत नहीं पड़ेगी। देश भर के करोड़ों हिन्दू जब ब्रज आयेंगे तो देखकर अवश्य प्रसन्न होंगे कि भाजपा उनकी सुविधा के लिए ब्रज में कुछ भी न कर सकी जबकि धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाने वाले लोगों ने ब्रज को सजा संवार कर रख दिया। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म विमुखता नहीं है। सभी धर्मों के तीर्थ स्थलों का भक्तों की भावना के अनुरूप संरक्षण व संवर्द्धन होना चाहिए। ब्रज की संस्कृति से सारा देश प्रभावित हुआ। मणिपुर से गुजरात और केरल से कश्मीर तक ब्रज की संस्कृति पर आधारित कलाओं का प्रदर्शन होता है। ब्रज से सारे देश के हिन्दुओं का रागात्मक लगाव है। ब्रज का उत्थान ब्रज के प्राकृति सौंदर्य को बचाकर और वहां तीर्थाटन की सुविधा बढ़ाकर किया जा सकता है। जो दल भी इस कार्य को निष्काम भावना से करेगा वो धाम कृपा से दीर्घकाल तक सत्ता का सुख भोगेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं। भाजपा के आन्दोलन केवल जनता को भड़काने के लिए होते हैं उसकी ठोस सेवा के लिए नहीं। इसीलिए छः वर्ष सत्ता में रहकर भी भाजपा यह कृपा प्राप्त नहीं कर सकी।

Friday, September 3, 2004

राजनीति में दागी कौन ?


संसद में बिना बहस के बजट पास हो गया। विपक्ष ने इसका बहिष्कार किया। सरकार में शामिल दागी मंत्रियों को लेकर विपक्ष नाराज है। जबसे सरकार बनी है उसने लगातार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर दबाव बना रखा है। इसमें शक नहीं कि अपराधियों के राजनीति में प्रवेश को लेकर हर समझदार भारतवासी चिंतित है। पर असहाय भी है। कुछ कर नहीं सकता। पहल तो राजनैतिक दलों को ही करनी होगी। भाषण सब झाड़ते हैं पर किसी भी राजनैतिक दल के नेता में यह नैतिक साहस नहीं कि राजनीति से अपराधियों को निकालने के सवाल पर जनता को आंदोलित करे। राजनीति में अपराधियों का आना सबके लिए घातक है। जनता के लिए ही नहीं बल्कि उन राजनेताओं के लिए भी जो अपराधी नहीं हैं। यह कैंसर अगर जड़ से निर्मूल नहीं किया गया तो कुछ समय बाद डाॅक्टर मनमोहन सिंह नहीं बल्कि दाउद जैसे लोग इस देश में प्रधानमंत्री बन जायेंगे। पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? सत्ता हासिल करने की होड़ में हर दल वही करता है जिसकी वह आलोचना करता है।

वैसे अपराधी कौन है या दागी कौन है ? इसका फैसला इतना आसान नहीं। राजग के सदस्य तपाक से उत्तर देते हैं कि हत्या, लूट, अपहरण और हिंसा में शामिल व्यक्ति को अपराधी नहीं तो और क्या माना जाये। यह तर्क सही है और इस कोई बहस की भी नहीं जा सकती। सब एक मत होंगे। पर सवाल उठता है कि क्या केवल ये अपराध ही अपराध है। देश द्रोह करना या देश के खिलाफ षड्यंत्र करने वालों को प्राश्रय देना तो इससे भी बड़ा अपराध है। दुख की बात यह है कि दागी मंत्रियों का मुद्दा उछालने वाली राजग का दामन कुछ ऐसे ही जघन्य अपराधों से भरा पड़ा है। उदाहरण के तौर पर स्टैंप घोटाले में बम्बई के पुलिस आयुक्त श्री राधेश्याम शर्मा को इसलिए गिरफ्तार किया गया कि उन्होंने इस मामले में एफ.आई.आर. दर्ज करने में ढील रखी और समय पर कार्यवाही नहीं की। क्या राजग सरकार के गृहमंत्री संसद को ये बताने को तैयार है कि हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों को विदेशी मदद पहुंचाने वाले लोगों को सी.बी.आई के जिन पुलिस अधिकारियों ने चार वर्ष तक बचाये रखा उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया ? सजा देना तो दूर राजग सरकार ने देशद्रोह के काण्ड में लिप्त इन अधिकारियों को समय से पहले पदोन्नति देकर, राष्ट्रपति के पदक दिलवाकर और विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया ? यदि राजग सरकार देश के प्रति अपना फर्ज ईमानदारी से निभाती और जैन हवाला काण्ड की जांच में हुई कोताही को ध्यान में रख कर इस जघन्य काण्ड की ईमानदारी से जांच करवाती तो आतंकवाद देश में इतने पांव नहीं पसारता।
क्या राजग सरकार में शामिल दलों के नेता बतायेंगे कि तीन बार आंतकवाद पर श्वेतपत्र लाने की घोषणा करने के बावजूद राजग सरकार के गृहमंत्री ने यह श्वेतपत्र देश के सामने प्रस्तुत क्यों नहीं किया ? ऐसा क्या संशय था, क्या डर था और क्या हिचक थी जिसने गृहमंत्री को देश हित में यह काम नहीं करने दिया। केवल सामाजिक अपराध करने वाला ही अपराधी नहीं होता। आर्थिक अपराध समाज में विषमता को जन्म देते हैं। बेईमानी से और गरीबों का हक छीनकर हासिल की गई आर्थिक प्रगति समाज में हिंसा को जन्म देती है। इसलिए अपराध शास्त्री हर अपराध को समाज के लिए घातक मानते हैं।
राजनीति में विरोध केवल विरोध के लिए किया जाता है। जब तत्कालीन रक्षामंत्री के विरुद्ध तहलका काण्ड को लेकर इंका विरोध कर रही थी तब भी मैंने ये सवाल उठाया था कि ऐसा क्यों होता है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर मचानेवालों को केवल अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों का भ्रष्टाचार ही नज़र आता है अपने सहयोगियों का नहीं। साफ जाहिर है कि शोर केवल राजनैतिक लाभ के लिए मचाया जाता है, जनता को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए नहीं। यही कारण है कि ऐसे किसी भी आन्दोलन का स्थाई परिणाम नहीं निकलता। मान लें कि डाॅक्टर मनमोहन सिंह सरकार से दागी मंत्री हटा दिये जाएं तो क्या हिन्दुस्तान की राजनीति से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा। क्या राजग के हर नेता को यह पे्ररणा मिलेगी कि वह अपने पूरे परिवार और नातेदारों की आर्थिक हैसियत को सार्वजनिक करने को तैयार होगा ? क्या राजग के नेता उस कानून को लाने की पहल करेंगे जिसके तहत सी.बाी.आई. को बड़े नेताओं और अफसरों के खिलाफ जांच करने की खुली छूट मिल जायेगी। उल्लेखनीय है कि वाजपेई सरकार के दौरान जो सी.वी.सी. विधेयक पारित हुआ उसमें राजग सहित किसी भी दल ने सी.बी.आई. या सी.वी.सी. को स्वायत्त्ता नहीं मिलने दी। जब कि सर्वोच्च न्यायालन ने ऐसा किए जाने के आदेश दिए थे। क्या राजग के नेता इस बात पर भी डटेंगे कि जब तब राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को प्रतिबंधित करनेवाला कानून पास नहीं हो जाता तब तक संसद को नहीं चलने देंगे ? जाहिर है कि वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे। ये शोर तो केवल डाॅक्टर मनमोहन सिंह को घेरने के लिए मचाया जा रहा है। राजग के नेता इस बात से बुरी तरह बौखला गये हैं कि डाॅक्टर मनमोहन सिंह जैसी साफ छवि का व्यक्ति प्रधानमंत्री कैसे बन गया ? विज्ञापन ऐजेंसियों और चारण और भाट किस्म के पत्रकारों को खैरात बांट कर नेतृत्व की छवि कितनी ही क्यों न बनाई जाए कहते हैं कि सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से
डाॅक्टर मनमोहन सिंह की ईमानदारी किसी के सर्टिफिकेट की मुरीद नहीं है। जब देश के भूखे किसान अपने परिवारों सहित जहर खाकर आत्महत्या कर रहे थे तब वाजपेई जी ने इस देश के गरीबों का उपहास उड़ाते हुए करोड़ों  रूपयों की बेहद मंहगी बी.एम.डब्ल्यू. कारों का काफिला अपने आराम के लिए खरीदा। डाॅक्टर सिंह ने इन मंहगी कारों के काफिलों को चुपचाप लौटा दिया। इस प्रशंसनीय कदम की कोई चर्चा तक जनता के बीच में नहीं की। टिकट की लाईन में खुद लगना, अपनी मारूति खुद चलाकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में पहुंच जाना, दावे कम करना और काम ज्यादे करना, किसी विवाद में न पड़ना, गलत काम को अगर रोक न सकें तो स्वयं उससे बचकर रहना उनके कुछ ऐसे गुण हैं जिन्हें देशवासियों को जानना चाहिए। मेरा छोटा पुत्र बचपन से डाॅक्टर सिंह के नाती के साथ पढ़ता भी है और दोनों घनिष्ठ मित्र भी हैं। आमतौर पर बच्चे जब राजनेताओं के घर जन्मदिन की पार्टियों में जाते हैं तो उन पार्टियों के वैभव से दिग्भ्रमित हो जाते हैं। हम साधारण मध्यमवर्गीय लोग उस स्तर के जश्न जन्मदिन के नामपर मनाने की सोच भी नहीं सकते। इसलिए प्रायः ऐसी जगह जाना टाल जाते हैं। पर डाॅक्टर सिंह के घर हर वर्ष जन्मदिन की पार्टी में जाना ऐसा ही अनुभव होता है जैसा अपने जैसे लोगों के बीच। न कोई तामझाम, न कोई वैभव। घर के बने दो-चार सामान और नाना-नानी की आत्मीय आतिथ्य शैली जहां नौकरों का भी प्रवेश नहीं। ऐसे सहज, सरल और ईमानदार व्यक्ति को हर राजनैतिक दल का समर्थन मिलना चाहिए ताकि देश की राजनैतिक संस्कृति में बदलाव की शुरुआत हो सके। पर ये बदलाव चाहता कौन है ? राजग के नेता ऐसा क्यूं चाहेंगे ? राजग छोड़ इंका में भी बहुत से लोग इस स्थिति से खुश नहीं हैं। चाहे जो भी कारण रहे हों पर इस कदम के लिए श्रीमती सोनिया गांधी की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में देश की बागडोर सौंपी जिसके भाई तक उससे किसी लाभ की उम्मीद नहीं रखते। ऐसा व्यक्ति आज के बिगड़े राजनैतिक माहौल में अपने बूते पर चुनाव जीतकर कभी भी प्रधानमंत्री के पद पर नहीं पहुंच सकता था। देश को पता ही नहीं चलता कि प्रधानमंत्री के पद पर सच्चे और ईमानदार व्यक्ति भी बैठ सकते हैं। राजग की यही तड़प है। दागी मंत्रियों के हक में कोई नहीं है। पर राजग को यह नहीं भूलना चाहिए कि सुखराम के खिलाफ 13 दिन तक संसद न चलने देने वाली भाजपा ने बाद में उन्हीं सुखराम के साथ मिलकर सरकार चलाई थी। अगर ये दागी मंत्री आज राजग का दामन थाम लें तो उसे इनके साथ सरकार चलाने में कोई संकोच नहीं होगा। फिर ये ढोंग क्यों ?
दरअसल राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। हर दल सत्ता में रह कर वही करता है जो उसके अपने फायदे में होता है और विपक्ष में बैठ कर जनता के हितों की दुहाई देता है। दुर्भाग्य से लोकतंत्र का अब यही स्वरूप बन गया है। लोकतंत्र लोक आधारित न होकर कुलीन तंत्र बन गया है। नेता के बेटे-बेटी चाहे काबलियत न हो तो भी रातोरात नेता या टीवी स्टार बन जाते हैं। जबकि योग्य लोग वर्षों चप्पलें घिसते रहते हैं। सारी सत्ता कुछ कुलीनों के हाथ में केंद्रित है। इनमें से बहुत से भ्रष्ट तरीकों से ताकतवर बने हैं। जब ताकतवर बन ही गये तो फिर कुलीनों के क्लब में भी आसानी से शामिल हो जाते हैं। ऐसे तमाम राजनेता सत्ता अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहते। हर जा-बेजा काम कर सत्ता में बने रहना चाहते हैं और अपने गलत कामों को छिपाते हैं या उन्हें जनहित में बताकर जनता को गुमराह करते हैं। सत्ता से हट जाने के बाद वे हताशा में सरकार को गिराने में जुट जाते हैं। चूंकि देश में लोकतंत्र है और किसी को तलवार के जोर पर गद्दी से नहीं उतारा जा सकता। इसके लिए लोगों के पास वोट मांगने जाना होता है। लोग वोट उसी को देंगे जो उनकी गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने के सपने दिखाये। इसलिए विपक्ष के सभी दल जब तक सत्ता के बाहर रहते हैं तब तक गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के सवाल पर डटकर शोर मचाते हैं। खूब बयानबाजी करते हैं। सम्वाददाता सम्मेलन बुलाते हैं। संसद नहीं चलने देते। पर जब खुद सत्ता में होते हैं तो वही सब करते हैं जिसके विरुद्ध शोर मचा रहे थे। जब खुद घोटालों में फंस जाते हैं तो खतरनाक खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। क्या राजग के नेता बतायेंगे कि देशद्रोह के जैन हवाला काण्ड की ईमानदारी से जांच करवाने की मांग उन्होंने कभी भी क्यों नहीं की? जिस काण्ड ने इस देश के दर्जनों मंत्रियों को कटघरे में खड़ा कर दिया क्या उसमें जांच की मांग करना भी जरूरी नहीं था ? फिर दागी मंत्रियों के विरुद्ध चल रहे हंगामें का नैतिक आधार क्या है ?

Friday, June 4, 2004

सोनिया का त्याग और भाजपा की नौटंकी


जब तक श्रीमती सोनिया गांधी एक विधवा के रूप में अपने घर की चारदीवारी में बंद रहीं, तब तक किसी को उनसे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ। पर कांग्रेस की दुर्गति देखकर 1998 में जब उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया तो भाजपा के नेता बौखला गए। तब सुश्री सुषमा स्वराज और कुछ दूसरे बड़े नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर करारा प्रहार किया। उस वक्त इसी काॅलम में मैंने वैदिक दर्शन के आधार पर तर्क देते हुए इस हमले के खोखलेपन को सिद्ध करने का प्रयास किया था। 21 फरवरी 1998 को देश भर के अनेक प्रांतीय अखबारों में मेरा यह लेख छपा, ‘सोनिया गांधी को विदेशी कहना कहां तक उचित है?’ इसके कुछ समय बाद जब श्री पी.ए. संगमा ने संविधान संशोधन समिति से इसी मुद्दे पर इस्तीफा दिया, तब भी मैंने अंग्रेजी में एक कड़ा पत्र लिखकर उन्हें कटघरे में खड़ा किया और इसको प्रेस को जारी किया। एक बार फिर जिस तरह से श्रीमती सुषमा स्वराज और सुश्री उमा भारती ने श्रीमती गांधी के चयन को लेकर नौटंकी की, उससे भाजपा की हिंदु धर्म की समझ पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। हवाला कांड से लेकर सर्वोच्च न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को उजागर करते समय मैंने भाजपा के कई बड़े नेताओं को इतने निकट से देखा है कि मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि जिसका जन्म इस देश में हुआ है, वही देशभक्त हो सकता है। जिसका जन्म यहां नहीं हुआ, वह नागरिक बन जाने के बाद भी देश भक्त नहीं हो सकता। भाजपा के साढ़े पांच साल के शासन में आतंकवाद, भ्रष्टाचार और न्यायपालिका की जवाबदेही को लेकर जितने गंभीर सवाल मैंने उठाए, उन सबके समर्थन में इतने प्रमाण मेरे पास थे और आज भी हैं कि पूरे देश का दिल दहलाने के लिए काफी होते। पर मुझे जानकारी मिली कि भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के प्रभाव के चलते इन तथ्यों को देश की जनता के सामने किसी टीवी चैनल के माध्यम से कभी नहीं आने दिया गया। दरअसल 5 फरवरी 2000 को एनडीटीवी के बिग फाइट शो में जिस तरह मैंने भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल को हवाला कांड की जांच को लेकर कटघरे में खड़ा किया था और 10 फरवरी 2000 को जी न्यूज के प्राइम टाइम शो में जिस तरह के तथ्य भाजपा के नेताओं के हवाला कांड में शामिल होने को लेकर सुश्री सुषमा स्वराज के सामने रखे थे, उससे इन दोनों ही शो को लेकर भाजपा के सांसदों ने संसद और मीडिया में काफी बवाल मचाया। सुषमा जी हवाला कांड में फंसे अपने वरिष्ठ नेताओं की रक्षा में असफल रहीं और बौखला कर अनर्गल तर्क देने लगीं। इसके बाद से ही एक मूक संदेश दे दिया गया कि किसी भी चैनल पर मेरे विचार जनता के सामने मत आने दें। अगर वो तथ्य जनता के सामने आज भी आ जाएं, तो बीजेपी का देश प्रेम और आतंकवाद को लेकर उसकी चिंता पर कई सवालिया निशान लग जाएंगे। फिर ये सवाल देश पूछेगा कि देश में ही जन्म लेने वालों ने ऐसा क्यों किया?
खैर श्रीमती सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के संदर्भ में वही किया जो उनसे अपेक्षित था। जब भी लोग पिछले छह बरसों में यह सवाल पूछते कि अगर श्रीमती सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनती हैं, तो आपको कैसा लगेगा? हमारा उत्तर यही होता कि वे कभी नहीं बनेंगी। पर वैदिक शास्त्रों में जीवात्मा को परमात्मा से मिलने या उनकी सेवा करने का निर्देश दिया गया है। यह नहीं कहा गया कि यह अधिकार केवल हिंदुओं तक सीमित है। जाति, धर्म और देश की पहचान व्यक्तियों ने बनाई है, भगवान ने नहीं। पर जो बात हम अपनी अंतप्र्रेरणा के आधार पर कहते थे, वो उस दिन सच हो गई, जब श्रीमती गांधी ने वाकई प्रधानमंत्री पद को लात मारकर डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। उन्होंने अपने ससुराल के देश की संस्कृति को न सिर्फ आत्मसात किया बल्कि एक अभूतपूर्व आदर्श की स्थापना की। दूसरी तरफ भाजपा की नेताओं सिर मुड़ाने जैसी बचकानी घोषणाएं करके पूरी दुनिया में अपना मजाक उड़वाया। शंकराचार्य तक ने कहा है कि सुश्री उमा भारती और श्रीमती सुषमा स्वराज का यह नाटक वैदिक परंपरा के प्रतिकूल था।
यह कोई पहली बार नहीं है जो भाजपा ने हिंदू धर्म का इस तरह मखौल उड़ाया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जिस तरह एक हाथ को मोड़कर ध्वज प्रणाम करते हैं, वो किस वैदिक या हिंदू परंपरा का हिस्सा है? हमारी परंपरा तो करबद्ध प्रणाम करने की या साष्टांग दंडवत प्रणाम करने की है। ये अधूरा प्रणाम तो हिटलर के दिमाग की उपज है, जिसे पता नहीं किस मानसिकता से संघ परिवार ने अपना लिया है। इसीलिए संघ के अनेक विचारों से सहमत होते हुए भी मैं उनके प्रणाम करने की इस मुद्रा को कभी स्वीकार नहीं कर पाता। अगर संघ साष्टांग दंडवत या करबद्ध प्रणाम को ही अपना लेता, तो उसकी वैचारिक यात्रा में कौन सा व्यवधान पड़ जाता? पर शायद वैदिक मान्यताओं को तोड़ मरोड़कर अपने तरीके से पेश करना और उसे जबरन हिंदू समाज पर थोपना ही संघ का हिंदूवाद है। इसी तरह खाकी निकर भी कहीं से कहीं तक हिंदू संस्कृति का हिस्सा नहीं है। पर संघ वाले इसे पहनकर ही स्वयं को भारत मां का सच्चा सपूत मानते हैं। जबकि इस्काॅन जैसी संस्था ने पूरे विश्व के देशों के भक्तों को धोती-कुर्ता पहनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि आधुनिक समाज में भी वैदिक परिधान पहना जा सकता है। मैं और मेरे जैसे तमाम लोग संघ और भाजपा की इस बात से सहमत हैं कि धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदुओं और मुसलमानों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। पर जिस तरह से हिंदुओं के हित के हर सवाल पर भाजपा ने बार-बार हिंदुओं की भावनाओं का मजाक उड़ाया है और उनसे लगातार खिलवाड़ किया है, उससे अब हिंदुओं को यह लगने लगा है कि दरअसल भाजपा के लिए हिंदुवाद सत्ता प्राप्ति का हथकंडा मात्र है।
दूसरी तरफ कांग्रेस को भी समझ लेना चाहिए कि हिंदुओं के पक्ष में बोलने से संकोच करने के  दिन लद गए। कांग्रेस का स्वरूप सर्वधर्म समभाव का रहा है और वही उसके व्यवहार में दिखना चाहिए। इस चुनाव में दिल्ली समेत जिन राज्यों में भी इंका को सफलता मिली है, उसमें बहुसंख्यक मतदाता हिंदु ही हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के हिंदूवादी व्यवहार से उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। असलियत तो यह है कि हिंदु धर्म में इंका के नेताओं की भाजपाइयों से कहीं ज्यादा आस्था है, पर वे उसका राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास नहीं करते। साढ़े पांच साल केंद्र में और इससे कहीं ज्यादा बरसों तक उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार रहीं, पर भाजपा बताए कि उसने अयोध्या, मथुरा और काशी के विकास के लिए क्या किया? केवल जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का ढोंग रचती रहीं। जबकि इंका के शासनकाल में सोमनाथ, तिरुपति और वैष्णो देवी जैसे तीर्थों का प्रशंसनीय विकास हुआ। दुख की बात ये है कि पिछले छह सालों में भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेताओं से मैं व्यक्तिगत रूप से मिलकर ब्रज के तीर्थस्थलों के विकास की मांग करता रहा। लेख लिखता रहा और पत्र भेजता रहा। पर सत्ता के मद में चूर इन नेताओं ने तीर्थों के लिए कुछ भी नहीं किया। दूसरी तरफ इंका के जिन राजनेताओं को हवाला कांड केि मेरे युद्ध को लेकर राजनैतिक वनवास झेलना पड़ा था, वे भी इतने स्नेह और उदारता से मिले और सहयोग किया कि लगा कि इंका नेता वाकई शासन करने के योग्य हैं और तंग दिल नहीं हैं। यह भी विश्वास दृढ़ हुआ कि सभी धर्मों के धर्मक्षेत्रों का जीर्णोद्धार भी केवल इंका के ही शासनकाल में हो सकता है।
अब जब श्रीमती सोनिया गांधी ने तपोभूमि भारत की सनातन संस्कृति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद को ठुकरा दिया, तो भाजपाइयों को तमाचा तो पड़ा ही, पर यह पचाना भी भारी पड़ गया। फौरन दिल्ली में सुगबुगाहट शुरू कर दी गई कि राष्ट्रपति ने श्रीमती गांधी से चुनाव में विजय के बाद हुई पहली मुलाकात में ही यह कह दिया था कि वे उनकी नागरिकता के सवाल को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बेंच को भेजेंगे और उसका निर्णय आने तक उन्हें शपथ नहीं दिलाएंगे। यह भी अफवाह फैलाई गई कि श्रीमती गांधी को संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री बनने का अधिकार नहीं है। मैंने तुरंत श्री कपिल सिब्बल से मोबाइल फोन पर स्पष्टीकरण मांगा तो उन्होंने इसे कोरी बकवास बताया। यह बात आगे न बढ़े इसलिए इसका स्पष्टीकरण जरूरी था। अतः मैंने उन्हें सलाह दी कि वे स्वयं या राष्ट्रपति भवन से इस अफवाह का खंडन जारी करवा दें। सौभाग्य से चार घंटे के भीतर ही राष्ट्रपति भवन से इसका खंडन जारी हो गया। पर भाजपा अभी भी संभली नहीं है। वो श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल को लेकर देश में अभियान चलाना चाहती है। यह जानते हुए भी कि श्रीमती गांधी के एक कड़े कदम ने उन्हें वास्तव में देश का सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया है। ऐसे माहौल में इंका को चाहिए कि वह भाजपा के ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप न लगाए। इससे उसका वोट बैंक मजबूत होता है। जरूरत इस बात की है कि भाजपा हिंदूवाद को लेकर दोहरी नैतिकता का त्याग करे और अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट करे। जिससे कि भविष्य में लोगों की धार्मिक भावनाओं से इस तरह का खिलवाड़ न हो। दूसरी तरफ इंका को देश के सभी धर्मस्थलों के विकास के लिए कुछ ठोस करना चाहिए। इससे उसकी लोकप्रियता भी बढ़ेगी और मतदाता के सामने यह तस्वीर साफ हो जाएगी कि भाजपा तो राम जन्मभूमि के नाम पर फील गुड करवाती रही और करा कुछ नहीं। जबकि इंका ने बिना भावनाएं भड़काए ही धर्म की ठोस सेवा की। इंका के इस कदम से हो सकता है कि भाजपा को नया चुनावी मुद्दा ढूंढना पड़े। उधर इंका विकास भी करे, गरीब की भी सुने और इस धर्म प्रधान देश की जनता की भावनाओं की कद्र भी करे, तो उसकी स्वीकार्यता बढ़ती जाएगी। जबकि भाजपा को बिना संकोच किए अपने हिंदूवादी एजेंडा पर ही डटना होगा। वर्ना वो अपनी पहचान खो देगी। हां यह हिंदूवाद आज परोसे जा रहे प्रदूषित हिंदूवाद जैसा न होकर वैदिक धर्म की सनातन मान्यताओं पर आधारित होना चाहिए।

Friday, May 14, 2004

‘बेलगाम न्यायपालिका’ को कैसे कसें

सेवानिवृत्त होते-होते भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एन. खरे कह गए कि उच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्य बेलगाम हो गए हैं और उन्हें नियंत्रित करने के अधिकार उनके पास नहीं हैं। इस चैंकाने वाले वक्तव्य का बड़ा गहरा अर्थ है। इसका मतलब है कि उच्च न्यायपालिका में कुछ लोग न सिर्फ भ्रष्ट हो गए हैं बल्कि अनुशासनहीन भी हैं। इससे पहले भी भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस पी भरूचा ने कहा था कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। एक के बाद एक कई मुख्य न्यायाधीश निचली अदालतों को काफी हद तक भ्रष्ट बताते रहे हैं। इस सबका मतलब ये हुआ कि भारत की न्याय व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक भारी भ्रष्टाचार फैल चुका है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे आज से कुछ वर्ष पहले कोई कहने को तैयार नहीं था। 

जैन हवाला कांड में जिस तरह से राजनेताओं को तमाम सबूतों के बावजूद छोड़ा गया, उससे पूरा देश हतप्रभ था। सर्वोच्च न्यायालय के जिस मुख्य न्यायाधीश ने हवाला कांड की शुरूआत में कहा था कि इस कांड में इतने सबूत हैं कि अगर इस पर भी हम उच्च पदों पर बैठे लोगों को सजा नहीं दे पाते, तो हमें अदालतें बंद कर देनी चाहिए। बाद में उन्हीं मुख्य न्यायाधीश ने इस कांड को समय से पहले व बिना जांच हुए ही लपेटते हुए यह कहा कि इस कांड में नाकाफी सबूत हैं। बाद में इस केस को रफा-दफा करने में उन मुख्य न्यायाधीश के अनैतिक आचरण का पर्दाफाश भी कालचक्र समाचार के माध्यम से किया गया। तब से ही सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे। बाद में भी कुछ अन्य न्यायाधीशों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को हमने सप्रमाण छापकर देश के सामने रखा। हमारा मकसद सिर्फ यह बताना था कि न्यायपालिका के फैसले की आड़ लेकर जो राजनेता भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त हो जाते हैं, वे अक्सर पाक-साफ नहीं होते। बड़े-बड़े घोटाले करने के बाद राजनेताओं के अदालत से बरी हो जाने का नाटक इस देश की जनता बरसों से देख रही है।

इस देश में पांच सौ रुपये की रिश्वत लेने वाला एक सिपाही तो सजा भोगता है, पर पांच सौ करोड़ का घोटाला करने वाला मुख्यमंत्री बन जाता है। देश में साधनों की कमी नहीं है। पर उन साधनों का अनैतिक दोहन और सारी आर्थिक सत्ता का कुछ भ्रष्ट लोगों के हाथ में इकट्ठा हो जाना इस देश के आम आदमी की बदहाली, गरीबी और बेरोजगारी का कारण है। संविधान के निर्माताओं ने लोकतंत्र का प्रारूप अपनाते समय लोकतंत्र के चारों खंभों को इस तरह खड़ा किया था कि एक-दूसरे पर निगाह रखने का हक और दायित्व बना रहे। कार्यपालिका पर विधायिका की निगाह रहती है और विधायिका पर मतदाता की, पर न्यायपालिका ने अदालत की अवमानना कानून का गलत अर्थ निकालकर और उसका सरासर दुरुपयोग करके अपने लिए एक ढाल खड़ी कर ली है। इस ढाल के पीछे स्याह और सफेद सब ढक दिया जाता है। आवाज उठाने वाले को अदालत की अवमानना का दोषी करार देकर जलील किया जाता है और जेल भेज दिया जाता है। इस तरह लोकतंत्र का यह सबसे महत्वपूर्ण खंभा यानी न्यायपालिका भ्रष्टाचार की घुन से खोखला हो चुका है, फिर भी झूठे आडंबर से अपनी झूठी गरिमा को बचाए हुए है। जिसका खामियाजा इस देश की सौ करोड़ जनता को भुगतना पड़ रहा है।

सोचने वाली बात ये है कि न्यायपालिका का भ्रष्ट होना कोई सामान्य बात नहीं है, जिसकी उपेक्षा की जा सके। देश के सौ करोड़ लोगों को न्याय देने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है अगर वे बेलगामहैं, ‘उनमें बीस फीसदी भ्रष्ट हैंतो यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। जरा सोचिए कि किसी औद्योगिक घराने पर पांच सौ करोड़ रुपये के उत्पादन शुल्क की देनदारी है। वह औद्योगिक घराना उच्च न्यायपालिका के बीस फीसदी भ्रष्ट न्यायाधीशों में से किसी एक के सामने अपना मामला लगवा लेता है और ऐसे न्यायाधीश को उसके विदेशी खाते में पचास करोड़ रुपये की घूस दे देता है तो माननीय न्यायमूर्ति महोदय निर्णय देते हैं कि दरअसल उस घराने से पांच सौ करोड़ नहीं मात्र सौ करोड़ रुपये वसूल किए जाएं। इस तरह वह औद्योगिक घराना साढे़ तीन सौ करोड़ रुपये का उत्पादन शुल्क देने से बच जाता है। अगर माननीय न्यायमूर्ति भ्रष्ट न होते और उस औद्योगिक घराने को पांच करोड़ ही देना पड़ते, तो उससे मिले चार सौ करोड़ रुपये से इस देश के चार सौ गांवों में रोशनी आ जाती या सड़क बन जाती। पर एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जब देश के उच्च पदों पर बैठे राजनेताओं और अफसरों को उनके बड़े-बड़े घोटालों के बावजूद सर्वोच्च अदालत तक ने बाइज्जत बरी कर दिया। यही कारण है कि भारत में उच्च पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार शर्म की सारी सीमाएं लांघ चुका है, फिर भी पचास बरसों में आज तक किसी को सजा नहीं मिल पाई है। 

अगर न्यायमूर्ति खरे को अपनी स्थिति पर इतनी असहायता महसूस हो रही थी तो उन्होंने उसे अपनी सेवानिवृत्ति के दिन तक के लिए बचाकर क्यों रखा ? जाहिर है उनका यह अनुभव सेवा के आखिरी चैबीस घंटों में तो हुआ नहीं होगा ? काफी पहले से वह ये दर्द महसूस करते रहे होंगे, फिर क्या वजह है कि उन्होंने अपने इस अनुभव को देश की जनता, मीडिया और हुक्मरानों से पहले नहीं बांटा ? इस देश का यही दुर्भाग्य है कि चाहे वो कैबिनेट सचिव हों, सेनाध्यक्ष हो या सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, पूरे सेवाकाल में सत्ता का सुख भोगते है। हर तरह के समझौते करते है और अपने नीचे और ऊपर वालों के काले कारनामों को अनदेखा करते है या खुद भी उनमें हिस्सा लेते है, पर जब उनका वानप्रस्थ आश्रम शुरू होता है तो अचानक उन पर नैतिकता का भूत सवार हो जाता है। इन घडि़याली आंसुओं से किसी का भला नहीं होने वाला। न न्यायपालिका का और ना ही इस देश की जनता का। 

चुनाव संपन्न हो चुके हैं। परिणाम भी आ ही रहे हैं। सरकार भी बन ही जाएगी। इस पूरे दौर में राजनेताओं ने एक-दूसरे पर जमकर कीचड़ उछाली। अपनी कमीज को दूसरों की कमीज से ज्यादा सफेद बताया। पर कौन नहीं जानता कि आज राजनीति समाजसेवा का नहीं, भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। इस चुनावी व्यवस्था से चुनकर संसद में आने वाले देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए कितने गंभीर हैं, यह बताने की जरूरत नहीं। अगर वास्तव में हमारे सांसद समाज को इस रोग से मुक्त करना चाहते हैं तो उनके पास वे सारे अधिकार और ताकत है जिससे वे कानून में वांछित संशोधन करके जनता के प्रति अपनी और न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित कर सकते हैं। अदालत की अवमानना कानून में अगर सिर्फ इतनी सी बात जोड़ दी जाए कि किसी न्यायाधीश के निजी आचरण पर सबूत के साथ भ्रष्टाचार या अनैतिकता का आरोप लगाना अदालत की अवमानना नहीं माना जाएगा, तो न्यायपालिका में सुधार की बहुत बड़ी शुरुआत हो जाएगी। पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण के सप्रमाण घोटाले उजागर करने के दौरान मैंने अनुभव किया कि सांसद ऐसी पहल नहीं करना चाहते। उस दौर में मैं देश में विभिन्न दलों के पचास से ज्यादा सांसदों से मिला जिनमें से ज्यादातर राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता थे। सबने इस दुत्साहस की सराहना तो की पर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे न्यायपालिका को नाराज नहीं करना चाहते क्योंकि वे स्वयं या उनके कार्यकर्ता तमाम तरह के आपराधिक मामलों में फंसे हैं। नाराज न्यायपालिका उनके राजनैतिक कैरियर में घातक हो सकती है। नतीजतन कुछ नहीं बदला। फिर न्यायमूर्ति खरे का विलाप किस काम का? जनता की यही नियति है।