Friday, February 7, 2003

कल्पना चावला और राजा भैया


पिछले हफ्ते कल्पना चावला और राजा भैया दोनों भारतीय समाचारों में छाये रहे। एक अपने अदम्य साहस और विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करते हुए शहादत देने के लिये और दूसरा अपने साहस और क्षमता का उपयोग बाहुबल बढ़ाकर अपराध और राजनीति की दुनिया में झंडे गाड़ने के लिये। जहां कल्पना चावला दुनिया के करोड़ों नौजवानों खासकर युवतियों के लिये एक आदर्श बनकर सामने आईं वहीं राजा भैया अपराध और राजनीति के जरिये दौलत हासिल करने का सपना संजोने वाले नौजवानों के लिये आदर्श बनकर सामने आया। एक के प्रति पूरी दुनिया में श्रद्धा और संवेदना थी तो दूसरे के प्रति भारत के जागरूक समाज में हेय दृष्टि और आक्रोश। आक्रोश इसलिये भी कि विभिन्न राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं ने खुलकर राजा भैया के ऊपर पोटा लगाने का विरोध किया। इतना मुखर विरोध कि समाचार सुनने देखने वाले तिलमिला गये। अपराध जगत से राजनीति में आने वाले के प्रति मुख्य राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं का इस तरह खुलकर समर्थन देना जहां राजनीति में आई मूल्यों की गिरावट का परिचय देता है, वहीं यह भी सिद्ध करता है कि हम्माम में सब नंगे हैं। आज विरोध इसलिये कर रहे हैं कि कल कहीं ऐसी गाज उन पर न आ गिरे। अरे विरोध करना ही है तो सब मिलकर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण का करो। ऐसा विधेयक संसद में पारित करो कि अपराध करने वाला किसी भी विधाई संस्था में चुनाव लड़ने का अधिकारी न रह पाए। पर वहां विरोध कोई नहीं करता। कोई इस विधेयक के समर्थन में सशक्त आंदोलन नहीं चलाता। पर जब देश के युवाओं को संदेश देने की बारी आती है तो राजा भैया पर पोटा लगाने का विरोध करने वाले नौजवानों से गांधी, भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसों के त्याग को याद दिलाते हैं। सब चाहते हैं कि भगत सिंह पैदा हो पर पड़ोसी के घर। ऐसे दोहरे चरित्र वाले नेताओं के उद्बोधन युवाओं को न तो प्रभावित करते हैं और न आंदेालित। इसलिये कार्यशालायें, चिंतन शिविर व संभाषण चाहे जितने किये जायें समझदार और संस्कारवान युवाओं की भीड़ राजनैतिक दलों को बल देने सामने नहीं आती। आते हैं वही युवा जो बेरोजगारी से आजिज आ चुके हैं और पेट की आग बुझाने के लिये कुछ भी करने को तैयार हैं। चाहे राजनैतिक दल में नारे लगाने पड़ें या हत्या, बलात्कार या अपहरण करने पड़ें। दोष युवाओं का नहीं, उन्हें मिल रहे माहौल का है। देश के नेतृत्व का है जो उन्हें आदर्शों के साथ जीने को प्रेरित नहीं कर पाते। वरना हर बीज में वृक्ष बनने की संभावना निहित होती है। जैसी कल्पना चावला में थी। उसे ठीक खाद, पानी, हवा और रोशनी मिली तो वह भारतीय नारी की अबला छवि को तोड़कर एक जांबाज महिला के तौर पर सामने आई और रानी झांसी की तरह भारत की जहनियत में अपना अमिट स्थान सुरक्षित कर गयी। कल्पना चावला की अकाल मृत्य पर पूरी दुनिया के भारतीयों ने ही नहीं दूसरे समुदाय के लोगों ने भी जिस तरह अपनी संवेदना प्रकट की उससे दिवंगत कल्पना के परिवार का मस्तक जरूर ऊंचा हुआ है। उनको हुई इस अपूरणीय क्षति को तो अब पूरा नहीं किया जा सकता पर इसमें शक नहीं कि कल्पना की शहादत आने वाली पीढि़यों को प्रेरणा देती रहेगी। कहते हैं कि काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। फिर भी भारत की परंपराओं में कुछ ऐसा है जो अनदेखा नहीं किया जा सकता। 

जिस दिन अमरीका के शहर ह्यूस्टन के ऊपर अमरीकी अंतरिक्ष यान कोलम्बियाध्वस्त हुआ, उस दिन शनिवार था और मौनी अमावस्या भी। इसे इत्तफाक कहिये या हिन्दू मान्यताओं की पुष्टि कि एक बूढ़ी महिला उसी दिन सुबह एक सत्संग में यूं ही बोल उठीं, ‘‘आज शनिवार को मौनी अमावस्या पड़ रही है। जरूर कहीं कोई विस्फोट होगा।’’ अनुभव भी बताते हैं और ऐसा माना भी जाता है कि जब-जब शनिवार को मौनी अमावस्या पड़ती है कोई विस्फोट या बड़ी दुर्घटना होती है। यह शोध का विषय हो सकता है। पर यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि रूस जैसे साम्यवादी रहे देश में डाक्टरों ने जब अपने अनुभव से यह पाया कि कुछ खास नक्षत्रों की स्थिति में जब मरीजों के आपरेशन किये जाते हैं तो वे आपरेशन नब्बे फीसदी सफल रहते हैं। जबकि दूसरे नक्षत्रों की स्थिति में किये गये आपरेशन या तो असफल रहते हैं या मरीज का जीवन ही नहीं बचता। अपने इस अध्ययन के बाद उन्होंने यह तय कर लिया कि वे नक्षत्रों की सकारात्मक स्थिति में ही आपरेशन करेंगे। 

उधर अमरीका का मशहूर अंतरिक्ष शोध संस्थान नेशनल एयरोनाॅटिक एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) यूं तो दुनिया भर से सूचनायें और ज्ञान इकट्ठा करने में संकोच नहीं करता पर यह बात भी तहकीकात करने वाली होगी कि क्या वह अपने अंतरिक्ष यानों को नक्षत्रों की शुभ घड़ी में भेजता है या नहीं। क्योंकि ज्योतिषियों का कहना है कि शनिवार को पड़ी मौनी अमावस्या को इतना बड़ा प्रयोग नहीं करना चाहिये। कोलम्बिया के पृथ्वी पर लौटने की घड़ी इतवार या सोमवार को रखी जा सकती थी।
इस मुद्दे पर विवाद हो सकता है। लोग अविश्वास भी कर सकते हैं। नास्तिक लोग इसे अंधविश्वास और मूर्खतापूर्ण बात भी कह सकते हैं। पर यह तथ्य भी रोचक है कि किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली में यदि अकाल मृत्यु का योग होता है तो ज्योतिष बड़े विश्वास के साथ ऐसा बता देते हैं। यह बात दूसरी है कि वे उसे सम्बन्धित व्यक्ति को न बतायें और उसके शुभचिंतकों तक ही यह सूचना सीमित रहे। ऐसे अनेक ज्योतिष देश में आज भी मौजूद हैं जो घटनाओं की काफी हद तक सही गणना कर लेते हैं। जब तमाम किस्म की वैदिक ज्ञान धाराओं को अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय के सामने क्रमशः मान्यता मिलती जा रही है तो इसमे क्या हर्ज है अगर ज्योतिष के सही ज्ञान और पूर्वानुमानों की सहायता इस किस्म के महंगे और बड़े प्रयोगों के पहले ली जाए। यह भी सही है कि अक्सर ज्योतिष के नाम पर ढोंगी ही सामने आते हैं। पर यह बात तो विज्ञान के जगत में भी खूब प्रचलित है कि शोध करने वाले असली वैज्ञानिक अपनी मेहनत का फल नहीं पाते। उनके शोध पर चालू किस्म के प्रभावशाली और मशहूर वैज्ञानिक अपना दावा पेश करके ख्याति अर्जित कर लेते हैं। पर जिसे खरे ज्ञान की तलाश है वह खरे ज्योतिष भी तलाश ही लेगा। अरबों खरबों रुपये शोध पर खर्च करने वाला नासा निश्चय ही इस तरह की खोज करने में सक्षम हो सकता है। 

कल्पना चावला की मौत हो या दुनिया के किसी और हिस्से में कोई हृदय विदारक घटना या कोई आनंद उत्सव, टेलीविजन की मार्फत उसकी सजीव रिपोर्ट कुछ मिनटों में दुनिया के हर कोने में पहंुच जाती है। यही कारण है कि जब कभी ऐसी घटना होती है तो सारी दुनिया टीवी के आगे जमकर बैठ जाती है और हर क्षण की रिपोर्टिंग को दिल थामकर देखती है। कल्पना चावला के मामले में भी यही हुआ। जिस उत्सुकता और आशा भरे उत्साह के साथ कल्पना की पृथ्वी पर वापसी का इंतजार हो रहा था उन्हीं क्षणों के बीच जब अचानक कोलम्बिया का धमाका हुआ तो सारी दुनिया स्तब्ध रह गयी। हम टेलीविजन के त्वरित विकास और प्रसार से हतप्रभ हैं। समाज पर इसके पड़ रहे कुप्रभावों के प्रति चिंतित भी हैं। पर ऐसी घटनायें टीवी की सार्थकता भी सिद्ध कर देती हैं। इसलिये इसके व्यापक और गहरे प्रभाव को ध्यान में रखते हुए यदि इस माध्यम का सकारात्मक उपयोग किया जाए तो दुनिया कुछ की कुछ बन सकती है। तकलीफ सिर्फ इस बात की है कि कल्पना चावला जैसी दुर्घटना दिखाने वाले या ज्ञान देने वाले नेशनल ज्योग्राॅफिक जैसे टीवी चैनल तो कम ही हैं, अधिकतर समय टीवी चैनलों पर समाज के लिये निरर्थक माल परोसा जाता है। वह चाहे वस्तुओं के रूप में हो या जीवन पद्धति के रूप में। वैश्वीकरण के इस दौर को अब लगता नहीं कि रोका जा सकता हैै। पूरी दुनिया एक होती जा रही है। कम से कम साधन सम्पन्न लोगों के लिये तो यह बात सत्य सिद्ध हो रही है। यही वो लोग हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में कुछ नया करने की पहल कर सकते हैं। क्योंकि इनकी जिदंगी चूल्हे के चक्कर में बरबाद नहीं होती। पर इन्हीं लोगों को लक्ष्य बनाकर टीवी चैनल केवल बाजार संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। उसकी जगह अगर जीवन मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं को बढ़ाने वाले कार्यक्रमों का पैकेजिंग किया जाए तो हो सकता है कि राजा भैया की जगह कल्पना चावला को आदर्श मानने वाले युवाओं की तादाद तेजी से बढे़।

दुनिया के दूसरे देशों से प्रसारित होने वाले टीवी कार्यक्रमों में इस बात की चिंता हो या न हो, भारत के टीवी चैनलों को तो यह सोचना ही चाहिये। पिछले कुछ वर्षों में जिस तेजी से भारत में टीवी चैनलों का विस्तार हुआ है उतनी ही तेजी से इन चैनलों पर आने वाले कार्यक्रमों की गुणवत्ता गिरी है। कितने टीवी कार्यक्रम हैं जो देश में युवाओं को भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था से लड़ने के लिये प्रेरित कर रहे हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जिनसे लोकतांत्रिक शक्तियां प्रबल हो रही हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जिनसे समाज में जन सहयोग और नागरिक संगठनों की वृद्धि हो रही है ? कितने टीवी चैनल हैं जो समाज और राजनीति के दुर्दान्त अपराधियों को ब्लैक आउट कर रहे हैं ? या उनके प्रति घृणा पैदा कर रहे हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जो चरित्रवान  और नैतिक मूल्यों के पक्षधर समाज के विभिन्न क्षेत्र के लोगों को महिमा मंडित कर रहे हैं ? क्या यह सही नहीं है कि टीवी न्यूज चैनलों पर सत्ता की दलाली करने वाले वे लोग, जिनके दोहरे जीवन से सब वाकिफ हैं, ही प्रमुखता से छाये रहते हैं ? यही कारण है कि समाज में बिना श्रम, बिना त्याग और बिना पुरुषार्थ के धन कमाने वालों की होड़ लगती जा रही है।  राजा भैया तो एक प्रतीक है। पर देश के हर प्रांत में ऐसे कितने ही राजा भैया हैं जिन्हें राजनीति में सफलता सिर्फ इसलिये मिल रही है कि मीडिया उनके चरित्र का खंडन नहीं बल्कि महिमा मंडन कर रहा है। कल्पना चावला जैसी वीरांगनायें लगातार समाचारों में बनी रहें अपनी शहादत देकर नहीं बल्कि अपनी प्रभावशाली उपलब्धियों के कारण और हर राजनैतिक दल को पल्लवित और पोषित करने वाले अपराधी समाज की हिकारत का शिकार बने इसी में संचार माध्यमों की सार्थकता है, अन्यथा नहीं। शहादत केवल जान देकर ही नहीं की जाती, कभी कभी जीवन में तकलीफें उठाकर भी सुख सम्पत्ति पाने के अनैतिक प्रस्तावों को ठुकराने वाले भी अपने जीवन में जिंदा ही शहीद हो जाते हैं। देश में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका जीवन कल्पना की ही तरह युवाओं में नये रक्त का संचार कर सकता है बशर्ते कि हमारा मीडिया उन्हें उनका उचित स्थान दे।

Friday, January 31, 2003

हिन्दू राष्ट्र ख्वाब या हकीकत


जब से बीजेपी ने खुलकर यह घोषणा की है कि वो अपने मूल एजेन्डे पर टिकी रहेगी और आगामी चुनावों में एक दल के रूप में अपने एजेन्डे पर ही चुनाव लड़ेगी तब से बीजेपी के कई नेताओं के स्वर तीखे होते जा रहे हैं।जहां एक तरफ गुजरात के चुनाव की विजय ने भाजपा में नये रक्त का संचार किया है वहीं उसके विरोधी गुजरात को एक खास परिस्थिति मानकर नकार रहे हैं और धर्म निरपेक्ष ताकतों को एकजुट करने की अपील कर रहे हैं। इस माहौल में एक सवाल जो सबके जहन में घूम रहा है वो ये कि क्या भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा ? भाजपा नेतृत्व राजग के दबाव के चलते चाहे जो कहे पर उसके कार्यकर्ता और संघ और विहिप के लोगों में यह विश्वास है कि एक न एक दिन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनना ही होगा। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यह कहे हैं कि भारत तो हिन्दू राष्ट्र है ही क्योकि इसकी बहुसंख्यक आबादी हिन्दू है। दूसरी तरफ मुसलमानों की सोच में भी बदलाव आया है। एक तरफ तो कट्टरपंथी फिलहाल खामोश हो गये हैं क्योंकि उन्हें यह साफ दिख रहा है कि जितना मुस्लिम साम्प्रदायिकता ज्यादा मुखर होती है उतनी ही हिन्दू साम्प्रदायिकता भी तेजी से बढ़ रही है। इसलिये मुसलमानों के समझदार तबके ने इन साम्प्रदायिक नेताओं से अपनी जुबान बंद रखने को कहा है। गनीमत है कि अब मुसलमानों के बीच समझदार लोगों की बात सुनी जा रही है। जहां तक भारत के हिन्दू राष्ट्र बनने या न बनने का सवाल है तो इस विषय पर देश के लोगों को गंभीरता से सोचने की जरूरत है। केवल भावनायें भड़काकर लोगों को गुमराह करने से कुछ नहीं होगा। कुछ बुनियादी बातें समझनी होंगी। 

यह सच है कि भारत मंे बहुसंख्यक हिन्दू रहते हैं और वैदिक संस्कृति का पालन करते हैं जिसकी जड़ंे दुनिया के  किसी भी धर्म से ज्यादा पुरानी हैं। इतना ही नहीं वैदिक धर्म के कुछ सिद्धांतों को तो अब सारी दुनिया मानने लग है। अंधविश्वास के तौर पर नहीं बल्कि वैज्ञानिक परीक्षणों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर। मसलन आज सारी दुनिया में आयुर्वेद का हल्ला है। पूरी दुनिया को अब ऐलोपैथी के मुकाबले आयुर्वेद की श्रेष्ठता समझ में आ रही है। आयुर्वेद वैदिक संस्कृति का ही तो अंग है। इसी तरह योग और ध्यान भी आज पूरी दुनिया में स्थापित हो चुका है। इतना ही नहीं भारतीय खान पान, दिनचर्या, संस्कृत भाषा व आध्यात्मिक ज्ञान अपनी श्रेष्ठता के झंडे गाड़ रहा है। इसमें न तो अति उत्साहित होने की बात है और न ही विस्मय की। जो सत्य है वह शाश्वत है। गाय के शरीर से निकले पदार्थ पांच हजार वर्ष पूर्व जो गुण लिये थे वे आज भी वैसे ही हैं। अपनी मूर्खता के कारण अगर पश्चिमी दुनिया ने इस वैदिक ज्ञान का उपहास किया तो उससे वह ज्ञान निरर्थक नहीं हो गया। हां, यह जरूर हुआ कि पश्चिमी मानसिकता से प्रभावित लोगों ने इस स्वयंसिद्ध ज्ञान को आगे फैलने से रोका। इसके पीछे बाजारू शक्तियों की साजिश भी रही। दवा कंपनियां क्यों चाहेंगी कि लोग आयुर्वेद, योग और ध्यान के सिद्धांतों का अनुपालन कर स्वस्थ और सुखी बनें। वे तो बीमार को ठीक करने का दावा करेंगी ताकि अरबों खरबों रुपये की दवाई बेच सकें। इसीलिये उनकी मेडीकल साइंस पैथीहै यानि निदान की तकनीकी। चाहे ऐलौपैथी हो, चाहे होम्योपैथी या फिर नेचुरोपैथी। जबकि हमारी मेडीकल साइंस आयुर्वेद है। आयु का वेद यानि आयु बढ़ाने का ज्ञान। बीमार को ठीक करने का नहीं। जब व्यक्ति तन और मन से स्वस्थ होगा तभी तो दीर्घायु होगा और तब रोग की जगह कहां बचेगी ? जब रोग ही नहीं होगा तो उसके निदान की पैथी की जरूरत कहां पड़ेगी ? आयुर्वेद, योग और ध्यान किसी दवा कंपनी के उत्पादन नहीं हैं। यह तो वह ज्ञान है जो जीवन की दृष्टि देता है। इसमें कहीं व्यवसायिक मुनाफे की भावना नहीं है। अब तो ईसाई मिशनरी  भी आयुर्वेद का प्रचार करने में लगे हैं।  ये वो ही मिशनरी हैं जो सौ बरस पहले सीधे सादे भारतीयों का उनकी गौ भक्ति के लिये मजाक उड़ाते थे। इसी मानसिकता के असर में भारत के सत्ताधीशों ने पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा की। अगर सारी दुनिया आयुर्वेद, योग और ध्यान की श्रेष्ठता को मानने लगी है। पेटेंट तक कराये जा रहे हैं तो भारत के सत्ताधीशों को और भारत के तथाकथित बुद्धिजीवियों को अपनी भूल स्वीकारने में शर्म कैसी ? अगर जीवन जीने की इस पद्धति को सरकार टी वी व जनसंचार के अन्य माध्यमों से प्रोत्साहित करती है और हमारे सत्ताधीश अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करते हैं तो बिना खर्चे के सौ करोड़ भारतीय स्वस्थ और सुखी हो सकते हैं। पर तब कोई दवा घोटाले करने की गुंजाइश नहीं बचेगी। अगर ऐसा होता है तो पूरे देश का कल्याण होगा। फिर उसे चाहे हम हिन्दू राष्ट्र मानें या धर्म निरपेक्ष राष्ट्र मानें। इंका ऐसे फैसले ले या भाजपा ले। असली मकसद तो स्वास्थ्य के प्रति दृष्टि बदलने का है। भाजपा हिन्दू राष्ट्र का नारा तो लगाती रहे पर उसकी स्वास्थ्य नीति में आज भी प्राथमिकता अगर ऐलोपैथी को मिली हुई है तो केवल नारे लगाने से भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बनेगा। मुश्किल ये है कि हर राजनैतिक दल को पैसे की मदद औद्योगिक घरानों से ही मिलती है। जो औद्योगिक घराने भाजपा को पैसे देते हैं वही इंका को भी देेते हैं। उनमें बहुत से दवाई कंपनियों के निर्माता भी हैं। उन्हें तो अपने मुनाफे से मतलब है। सरकार में जो भी आये उसकी नीति ऐसी बने कि उनका मुनाफा बढ़ता ही जाए। कोई हिन्दू राष्ट्र का नारा देकर सरकार में आना चाहता है तो आ जाए और अगर कोई धर्म निरपेक्षता का नारा देकर सत्ता पाना चाहता है तो बेशक आये पर खबरदार! स्वास्थ्य नीति वही बनेगी जो दवा कंपनियां या बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहेंगी।

इसी तरह शिक्षा की बात है। आधुनिक शिक्षा का कोई विरोध भारत की पारंपरिक शिक्षा से नहीं है। हरेक की अपनी जगह और जरूरत है। पर, शिक्षा के नाम पर जो कुछ पश्चिम में परोसा जा रहा है उससे युवाओं में पैसा कमाने की होड़ तो पैदा हो रही है पर जीवन मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। उनके ही सर्वेक्षण बताते हैं कि उनके यहां युवा और व्यवसाई लोग लगातार बेहद तनाव में जी रहे हैं। छूत की यह बीमारी भारत के नये पनपे एक्जीक्यूटिव वर्ग में भी आ गयी है। पांच लाख रुपया महीना कमाने वाला 33 वर्षीय नौजवान भी सुखी और संतोष में नजर नहीं आता। यह तनाव भरी स्पर्धा परिवारों में भौतिक सुख भले ही ले आये, परिवार का सुख चैन छीन रही है। आज तक हमने भारत की पारंपरिक शिक्षा को महत्व नहीं दिया। ना गांधी के अनुयायियों ने और ना ही हिन्दू धर्म का ढिंढोरा पीटने वालों ने। देश में ऐसे सैकड़ांे लोग हैं जिन्होंने पश्चिमी देशों मंे उच्चतम शिक्षा पाई है फिर भी भारतीय शिक्षा और संस्कृति के प्रति उनके मन में आस्था घटी नहीं बढ़ी है। ऐसे लोगों को अगर भारत की शिक्षा को सजाने संवारने की स्वतंत्रता मिलती है तो समाज का कल्याण होगा, अन्यथा नहीं। निहित स्वार्थों के राजनैतिक दबावों के चलते अगर देश में तेजी से पश्चिमी मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है तो काहे का हिन्दू राष्ट्र। उसे चाहे हिन्दू राष्ट्र मानो या मत मानो।
हिन्दू संस्कृति में भोजन के पकाने और खाने की बहुत वैज्ञानिक और विस्तृत आचार संहिता है जिसका पालन करने वाली पीढ़ी आज भी अपने उदाहरण से इस पद्धति की श्रेष्ठता सिद्ध कर सकती है। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों के जंक फूड संस्कृतिको भारत में बेलगान फैलने की छूट दे दी गयी। उस जंक फूड को जिसे पश्चिम नकार चुका है। अगर भारतीय सत्ताधीश देश की पारंपरिक भोजन संस्कृति का प्रचार प्रसार नहीं कर सकते तो भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकता। अपनी परंपरा कहती है जैसा खाओ अन्न वैसा मने मन। इस मामले में पूर्वी दुनिया के सभी देश सहमत हैं कि उनकी पारंपरिक भोजन संस्कृति को जंक फूड संस्कृति ने बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। इसमें कोई हिन्दू या मुस्लिम राष्ट्र की बात नहीं है। 

आज टेलीविजन चाहे अनचाहे हर घर में घुस गया है। जिस पर नब्बे फीसदी कार्यक्रम निहायत वाहियात, बेसिर पैर के और फूहड़ मनोरंजन लिये होते हैं। अगर भारत के सत्ताधीश टेलीविजन चैनलों के माध्यम से आने वाले इस पश्चिमी कचरे को रोक पाने में नाकाम रहे हैं तो भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकता। जो कुछ हमारी आंखें देखती हैं उसका हमारे दिल और दिमाग पर असर पड़ता है। आज किसी भी घर में जाइये बच्चों का व्यवहार टी वी के विज्ञापनों और सीरियलों से नियंत्रित हो रहा है। इससे हिन्दु ही नहीं मुसलमान भी दुखी हैं। अगर यह रुकता है और पूर्वी देशों की प्राचीन संस्कृति के अनुरूप कार्यक्रम प्रसारित होते हैं तो उससे हिन्दू भी खुश होंगे और मुसलमान भी। पर, ऐसा होगा नहीं क्योंकि आज के सत्ताधीश वैश्वीकरण की दौड़ में अपनी आजादी गिरवी रख चुके हैं। नारे कितने ही लगें, टी वी पर दिखाया वही जाएगा जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहेंगी। उनकी रुचि सादा जीवन उच्च विचारके भारतीय जीवन मूल्य में नहीं है। उनका तो नारा है महंगा जीवन बनो कर्जदार।फिर भारत कैसे हिन्दू राष्ट्र बनेगा ?   

इसका मतलब ये नहीं कि जो कुछ पुरातन है, पूर्वी संस्कृति का है वह सब सर्वश्रेष्ठ है। जो कुछ पश्चिम से आया वह सब कचरा है। दरअसल संतुलन की जरूरत है। पश्चिम का प्रबंध और पूर्व की दृष्टि अगर मिल जाए तो पूरे विश्व का कल्याण हो सकता है। पर तकलीफ इस बात की है कि पश्चिमी ताकतें खुद को दुनिया का ठेकेदार मान बैठी हैं। इसलिये योग हो या आयुर्वेद, हल्दी हो या नीम सब पर ये ताकतें अपना मालिकाना हक जमाती जा रही हैं। इस घातक प्रवृत्ति को रोकने में नाकाम राजनेता न तो भारत को हिन्दू राष्ट्र बना सकते हैं और ना ही गांधी के सपनों का भारत। यह फैसला तो देश की चिंता करने वाले लोगों को करना है कि वे अपनी आंखों के सामने अपने देश को लुटते और बरबाद होते देखते रहेंगे या पूरे देश में एक सशक्त और साझा मंच बनाकर अपने सत्ताधीशों को मजबूर करेंगे कि वे जो कुछ करें उसमें समाज का हित सर्वोच्च हो। उनकी यह एकजुटता पश्चिमी ताकतों को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर सकती है क्योंकि जिन कुंठाओं और नाराजगियों को लेकर मुस्लिम समाज में बिन लादेन पैदा हो गया अगर पश्चिम का पूर्व के प्रति यही रवैया रहा तो कल हिन्दू समाज में भी आतंकवादी पैदा हो सकते हैं। भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा या है, एक बात साफ है कि 15 करोड़ मुसलमान यहीं रहेंगे अपनी तरह से रहेंगे और शेष समाज से मिल जुलकर रहेंगे। पर इस बात में कोई शक नहीं होन चाहिये कि जो कुछ समाज के लिये उपयोगी है उसे  केवल धर्मान्धता के कारण नकारना न तो मुसलमानों के हक में है, न हिन्दुओं के और न ही धर्मनिरपेक्षतावादियों के।

Friday, January 24, 2003

बड़े अफसरों की बीबियां


पिछले दिनों एक परिचित 35 साल भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहकर रिटायर हुए। जब तक वे सत्ता में रहे, काफी व्यस्त रहे। इतने व्यस्त कि उन्हें अपने मित्रों और परिजनों के लिये भी समय नहीं मिला। अब अचानक उन्हें उनकी याद आई तो एक एक कर सबसे मिलने जाने लगे। कुछ और करने को भी नहीं है उनके पास। अकेलापन खाये जा रहा है। ऐसे में रिश्तेदारों के घर जाकर कुछ मन बदल जाता है। ऐसा नहीं कि वे इन लोगों से मिलना नहीं चाहते थे। आखिर जिस कस्बे में किसी का बचपन गुजरा हो, जिन यारों के साथ पतंग उड़ाई हो, मोहल्ले के जिन बुजुर्गों को चाचा-ताऊ कहकर जय रामजी की कही हो, उन्हें कोई अचानक भूल थोड़े ही सकता है। जब फिजी और माॅरीशस का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी एक व्यक्ति तीन सौ साल पुराने अपने पूर्वजों की जड़ें खोजने अपने पैतृक गांव चला आता है और मुक्त हृदय से अपने दरिद्र कुटुम्बियों से मिलता है तो किसी नौकरी में जाते ही कोई कैसे इतना रूखा हो सकता है ? दरअसल कोई भी बड़ी नौकरी क्यों न हो उसमें जाने वाला व्यक्ति तो अपनी काबिलियत और मेहनत के बूते पर ही वहां पहंुचता है। पर एक बार जब पहंुच जाता है तो उसको उसके परिवेश से काटने का काम शुरू होता है। पहले तो प्रशिक्षण के दौरान ही उसको बता दिया जाता है कि अब वह सामान्य नागरिक नहीं, भारत के समाज की क्रीम है यानि मलाई अैर मलाई तो ऊपर तैरती है। तो उसे आम लोगों से क्या काम ? फिर वो चाहे उसके मित्र और नातेदार ही क्यों न हों। जो इस झटके को झेल जाते हैं और अपनी जड़ों से नहीं कटते उन्हें उनकी बेगमें पकड़ लेती हैं। उन्हें उनके मित्रों और नातेदारों से काट देती हैं। इस तरह कि फिर वे अपनी नौकरी के दौरान कभी सामान्य नहीं रह पाते। जिस किसी का अपने परिवार या सामाजिक दायरे में ऐसे हाकिमों से पाला पड़ा है उसने महसूस किया होगा कि अफसरों से ज्यादा अफसरी उनकी बीबी दिखाती हैं। अंग्रेज चले गये पर ये खुद को आज भी मेमसाहब कहलवाने में गौरवान्वित महसूस करती हैं। वह दूसरी बात है कि मेमसाहबों की जमात में वे अपने व्यक्तित्व के कारण कई बार आया जैसी नजर आती हैं। पर हाकिम की पत्नी है, इतना ही उनकी ठसक के लिये काफी है।
अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में तैनात रहे साहबों और मेमसाहबों की जीवन शैली पर इंग्लैण्ड और भारत में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई व्यंग्यात्मक भी हैं। आजादी को पचास साल हो चुके हैं। अब जरूरत है काले साहबों और काली मेमसाहबों की जीवन शैली पर ऐसी किताबें लिखे जाने की। इन काली मेमसाहबों का सरकारी नौकरों की फौज पर आतंक रहता है। सरकारी नौकरों की यह फौज अवैध रूप से घर पर तैनात की जाती है। सरकारी गाडि़यां इनके दुरुपयोग के लिये कतारबद्ध रहती हैं। अपने पति के अधीनस्थ अधिकारियों पर घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिये ये काली मेमसाहबें ऐसी हुक्म चलाती हैं, मानो वे उनके खरीदे गुलाम हों। ये अधीनस्थ अधिकारी भी फर्शी सलाम करने में पीछे नहीं रहते। अगर मैडम खुश तो साहब के नाखुश होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। चूंकि अब देश में भ्रष्टाचार और नैतिकता तो कोई मुद्दा ही नहीं है इसलिये यहां तक तो ठीक है। पर जब इन काली मेमसाहबों की हाकिमी पति के मित्रों और नातेदारों को झेलनी पड़ती है तो उनका दिल टूट जाता है। जिन्हें उनसे किसी मदद की आस होती है वो तो खून का घूंट पीकर भी ऐसी बेगमों के दरवाजों पर बार बार दस्तक देते रहते हैं। पर जो स्वाभिमानी होते हैं वो एक बार अपमानित होकर फिर उधर मुंह नहीं करते। उन्हें पता है कि अगर वे अपने प्यार का इजहार करने जायेंगे भी तो उन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिलेगा। मसलन किसी अफसर के बेटे की शादी में मेमसाहब का ध्यान उन लोगों पर लगा होता है जो गिफ्ट के तौर पर भारी भरकम रिश्वत देने आते हैं। ऐसी शादियों में घर के रिश्तेदारों को यतीमखाने का सा व्यवहार मिलता है। अगर इन काली मेमसाहबों को मजबूरन परिवार के उत्सवों में शामिल होना पड़े तो इनकी मंशा यही होती है कि ये अपनी ठसक बनाये रखें। ये नातेदारों के घरों के उत्सव में सहज होकर शामिल नहीं होतीं। इस तरह की निजी यात्रा को भी सरकारी यात्रा बनाकर सरकारी तामझाम के साथ रहना पसंद करती हैं। पर इनका ये ऐश्वर्य अचानक एक दिन इनसे छीन लिया जाता है। जिस दिन पतिदेव सेवानिवृत्त होकर घर आते हैं उस दिन से इन काली मेमसाहबों की दुनिया अचानक बदल जाती है। अब न तो लाल बत्ती की सरकारी गाड़ी उन्हें सब्जी खरीदवाने आती है। न पहले जैसे पांच सितारा दावतों के न्यौते आते हैं। न घर पर चपरासियों की फौज खड़ी होती है। इतना ही नहीं बिजली, टेलीफोन और पानी जैसे विभाग के छोटे छोटे मुलाजिम तक उन्हें छका देते हैं। काली मेमसाहब ये समझ ही नहीं पातीं कि भारत सरकार के संचार सचिव पद से रिटायर हुए उनके पति से घर का टेलीफोन तक क्यों नहीं ठीक करवाया जाता ? अगर इन्हें यात्रा करनी पड़े तो अर्दलियों का काफिला इनके साथ नहीं होता। गंतव्य पर इन्हें लेने अधिकारियों की बारात नहीं खड़ी होती। ट्रेन से उतरकर आम आदमी की तरह टैक्सी लेनी पड़ती है। ऐसे में वो रिश्तेदार या दोस्त देवता बनकर प्रकट होते हैं जो अपनी कार में इन्हें लेने स्टेशन या हवाई अड्डा आ जाते हैं।
पति के रिटायर होने के बाद इन काली मेमसाहबों को पता चलता है कि अपना कौन है और पराया कौन ? अब अगर उन्हें अपने दूसरे बेटे की शादी करनी पड़े तो वह सब कुछ गायब हो चुका होता है जिसकी शान शौकत में नौकरी के दौरान उन्होंने अपने पहले बेटे की शादी की थी। अब तो एक आम आदमी की तरह हर बात का इंतजाम खुद करना पड़ता है। तब नातेदार और मित्र याद आते हैं। अब शादी के स्वागत समारोह में भारी भरकम गिफ्ट लेकर आने वालों की लम्बी कतार नहीं होती। केवल परिवार के मित्र और रिश्तेदार ही वहां मौजूद होते हैं। भारी अंतर होता है तब और अब के आयोजनों में। ऐसे में काली मेमसाहबों को अपने रिश्तेदार बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि अगर वे भी न आते तो उनका रंग बिल्कुल फीका पड़ जाता। ये तो गनीमत है कि ये नातेदार और मित्र पिछली शादी में मिली उपेक्षा को याद नहीं रखते। बदले माहौल में आनंद के रस में डूब जाते हैं और अपनी गर्मजोशी और नाच गाने से उत्सव को चार चांद लगा देते हैं। तब न सिर्फ काली मेमसाहब को बल्कि उनके रिटायर पतिदेव को भी अपनी गलती का अहसास होता है। उन्हें मन ही मन इस बात की शर्म महसूस होती है कि उन्होंने अपने वैभव के दिनों में अपनों से इतनी दूरी क्यों बनाये रखी ? वे अपने और पराये का भेद क्यों नहीं समझ सके ? पर अब पछताय होत क्या जब चिडि़या चुग गयी खेत। ये तो भारत की संस्कृति की महानता है कि कोई परिवार अपने सदस्य से विमुख नहीं होता। दूरियां भावनाओं को खत्म नहीं कर पातीं। घर के लोग निस्वार्थ प्रेम बांटने में संकोच नहीं करते। सुबह का भटका शाम को घर लौट आये तो उसे खुले हृदय से स्वीकार लेते हैं। 
पर इसका मतलब ये नहीं कि उनके प्रेम का नाजायज फायदा उठाया जाए। काली मेमसाहबांे को जरा सोचना चाहिये कि उनका व्यवहार अपने नातेदारों और मित्रों के प्रति कैसा होना चाहिये ? मेडीकल सांइस की तरक्की के कारण औसत आयु बढ़ती जा रही है। अक्सर लोग रिटायर होने के बाद भी दस-बीस बरस तक जी लेते हैं। बुढ़ापे के इस दौर में बेटे-बेटी काम आयें न आयें, निकट के नातेदार और मित्र हमेशा काम आते हैं। बेहतर हो कि उन्हें सारे जीवन यथोचित सम्मान और प्यार दिया जाए ताकि जब कोई और साथ न खड़ा हो तब ये लोग हौसला बुलंदी के लिये आपके साथ खड़े रहें। भाई भतीजावाद करना या रिश्वत का पैसा नातेदारों में बांटना कोई सर्वमान्य सिद्धांत नहीं हो सकता। यह तो नैतिक पतन का परिचायक होगा। पर अपने रिश्तेदारों और मित्रों की अपनी क्षमता अनुसार आवश्यकता पूरी करना हरेक साधन सम्पन्न भारतीय का फर्ज माना जाता है। इतना भी अगर न कर सके तो उसके बड़े होने या पढ़ने लिखने का क्या लाभ ?
दरअसल काली मेमसाहबों को अपने रवैये में भारी परिवर्तन करने की जरूरत है। अब वो जमाने नहीं रहे जब हाकिमों की हुकूमत चला करती थी। वैश्वीकरण, उदारीकरण और उपभोक्तावाद के दौर में अब पूछ उनकी होगी जो बड़े औद्योगिक या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों से जुड़े होंगे। जिनमें हुनर होगा, काबिलियत होगी, जीवन मे आगे बढ़ने की आग होगी। ऐसे में आने वाले समय में काली मेमसाहबों को बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। बेहतर हो कि वे इस यथार्थ को समय रहते पहचान लें और अपने रवैये को बदलें। जिस तरह कोई जज घर में निर्णय नहीं सुना सकता। कोई पत्रकार घर की खबर बाहर नहीं छाप सकता। कोई वैज्ञानिक रसोई को प्रयोगशाला नहीं बना सकता। इसी तरह अफसरी और हाकिमी अपने कार्य क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये होती है, नातेदारों पर रौब गांठने के लिये नहीं। काली मेमसाहबों को अपने नातेदारों और मेहमानों के प्रति मानवीय व्यवहार करना चाहिये। उनका यथोचित सम्मान करना चाहिये।उनके दुख दर्द में शामिल होना चाहिये। इससे न सिर्फ उनके चाहने वालों का दायरा बढ़ेगा बल्कि उन्हें जीवन में कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा। विस्तृत परिवार हमारी सामाजिक व्यवस्था का एक सुदृढ़ स्तम्भ है। प्रसिद्ध अमरीकी समाजशास्त्री तालकाॅट पार्सन ने भारतीय समाज की इस विशेषता को उसका आधार स्तम्भ बताया है। उनका मानना कि तमाम संघर्षों और तनावों के बावजूद अगर भारतीय समाज आज भी एकजुट खड़ा तो वह इसी विस्तृत परिवारवादी भावना का परिणाम है। इसे तोड़ देने से हम अपनी आने वाली पीढि़यों को विरासत में मात्र शून्य देकर जायेंगे। अगर रिटायरमेंट के बाद लम्बे समय तक अकेले रहना पड़ा, बच्चे हुए तो भी अमरीका जा बसे, तो बेरुखी काली मेमसाहब क्या करेंगी ? किसके दरवाजे पर जाकर दस्तक देंगी ? नौकरी में रहकर नौकरी का सा जीवन स्तर बनाये रखना और अपने पति के साथ काम करने वाले अफसरों से मिलना जुलना कोई अपराध नहीं है। यह तो सामान्य सी बात है पर असमान्य तब हो जाती है जब सत्ता के मद में होकर हम अपनों को भूल जाते हैं। उन्हें याद रखना और अपने बच्चों को सही संस्कार देना गृहलक्ष्मी का फर्ज है। इसलिये अफसरों से ज्यादा उनकी बेगमों को सुधरने की जरूरत है।

Friday, January 17, 2003

क्या रेल मंत्रालय में भी भ्रष्टाचार है


रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे राजनेता की है। इसलिए उनके मंत्रालय की तरफ खोजी पत्रकारों की निगाह नहीं जाती। पर जब रेल मंत्रालय में भ्रष्ट और नाकारा अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दिए जाने की सूचना मिलती है तो यह सवाल जरूर पैदा होता है कि श्री नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति यह सब कैसे होने दे रहा है ? मंत्रालय में हो रहे घोटालों की जो खबरें दीवारों के बाहर पहुंच रही हैं क्या वे रेल मंत्री के कानों तक नहीं पहुंचतीं ? इसी जिज्ञासा में कुछ पड़ताल की तो कई रोचक सवाल खड़े हुए। जिनके जवाब श्री नीतीश कुमार को देश की जनता को देने चाहिए।

पिछले दिनों एक अजीब वाकया हुआ। एक टैªवल एजेंट ने एक पत्रकार से ये वायदा किया कि अगर वो दिल्ली-मुंबई की 3 टीयर की रेल टिकट पर 300 रूपए अतिरिक्त दे दें तो उसी दिन के दिन कन्फर्म टिकट मिल जाएगी। क्योंकि यात्रा की तिथि अनिश्चित थी इसलिए उन्हें ये तनाव बना हुआ था कि दिन के दिन टिकट कैसे कन्फर्म होगी ? यूं पत्रकार भी राजनेताओं और रेल अफसरों की तरह आपात्कालिक स्थिति में रेल मंत्रालय के कोटे से आरक्षण कन्फर्म करा लेते हैं। पर इधर कई बार ऐसा अनुभव हुआ कि रेल मंत्री के कोटे से कराई गई उनकी टिकट भी कन्फर्म नहीं हुई। इसलिए उन्होंने प्रयोग के तौर पर ट्रवेल एजेंट की बात मान ली और आश्चर्य हुआ ये देखकर कि टैªवल एजेंट ने वायदे के मुताबिक दिन के दिन कन्फर्म टिकट करवा दी। उत्सुकता हुई कि ऐसा कैसे हुआ ? तहकीकात की तो पता चला कि इस तरह टिकट बुक कराने का एक बहुत बड़ा जाल देश में बिछा हुआ है ।  टैªवल एजेंट ने बताया कि वो 25 हजार रूपया महीना रेलवे अधिकारियों को इसी बात का देता है। अगर एक ट्रवेल एजेंट इतनी रकम दे रहा है तो पूरे देश के हजारों टैªवल एजेंटों से कितनी रकम रेल मंत्रालय के अधिकारियों के पास हर महीने पहुंच रही होगी ? दूर की छोडि़ए मिन्टो ब्रिज से आते हुए पहाड़ गंज की तरफ से जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में प्रवेश करते हैं तो स्टेशन की एक तरफ बने रेलवे क्वाटरों में तमाम टैªवल एजेंसियां अवैध रूप से चल रही हैं। जानकार बताते हैं कि इस तरह से सरकारी मकानों में यह धंधा इसलिए बेरोक टोक चलता है क्योंकि इसमें रेलवे के ही लोग शामिल हैं और रेलवे के बड़े अधिकारियों वगैरह के लिए हवाई टिकटों, होटलों और सैर सपाटों का खर्चा ये लोग उठाते रहते है। टैªवल एजेंट वाले अनुभव का जिक्र उस पत्रकार ने रेल मंत्री श्री नीतीश कुमार के एक निकटम अधिकारी से किया तो वे चैंक गए। सवाल उठता है कि रेलवे की आरक्षण व्यवस्था में जो भ्रष्टाचार का यह सुगठित तंत्र देश में चल रहा है क्या उसकी कोई माकूल समीक्षा और निदान श्री नीतीश कुमार ने आज तक किया या नहीं ? क्या इसके लिए उन्होंने कभी किसी बाहरी जांच एजेंसी को जिम्मदारी दी कि वो इस भ्रष्टाचार के कुछ सबूत पकड़ कर उन्हें दे। क्योंकि मंत्रालयों की अपनी सतर्कता एजेंसियां तो खुद ही भ्रष्टाचार की कब्रगाह हैं।

इसी तरह रेलवे में पास देने की प्रथा का बहुत दुरूपयोग होता आया है। पिछली कई सरकारों में रेल मंत्री अपने चहेतों को रेलवे के पास बांट-बांट कर उपकृत करते आएं है। क्या यह सही है कि पिछले वर्ष ही लगभग 7 सौ अल्पकालिक रेलवे पास रेल मंत्री ने अपने चहेतों को बांटे ? जिनमें काफी पास ए.सी. प्रथम श्रेणी के भी थे। क्या इस तरह के पास बांटने की कोई स्पष्ट नीति है या केवल ये मनमर्जी का सौदा ? इसी तरह हेड क्वाटर के आरक्षण कोटा का सवाल है। एक लोकतांत्रिक देश में जनता के साथ इस भेद को क्यों रखा जाए। जो पहले टिकट खरीदे वो पहले सीट पाए। हां सरकारी ड्यटी, फौज की डयूटी और पत्रकारिता के काम से जाने वाले लोगों को इस आरक्षण की सुविधा मिलती रह सकती है। बशर्ते कि ये आरक्षण सिर्फ संबंधित व्यक्ति को ही मिले उसके परिवार को नहीं। इसी तरह रेलवे के अधिकारियों के पास का सवाल है। अक्सर हर बड़ा अधिकारी अपने रेलवे के पास का खूब दुरूपयोग करता है। रेलवे चैकिंग स्टाफ बताता है कि एक ही पास पर ये लोग बार-बार यात्रा करते हैं । पर कनिष्ठ कर्मचारी डर के मारे कुछ नहीं कहते। इस समस्या का बेहतर निदान हो कि रेल मंत्रालय सभी पास रद्द कर दे और जिस व्यक्ति को उसकी यात्रा का भुगतान करना चाहे वो उसकी टिकट की एवज में करें। यानी अगर किसी रेल अधिकारी को साल में तीन बार परिवार सहित मुफ्त यात्रा की सुविधा मिली है तो हर बार वह अपने पैसे से टिकट खरीदे और यात्रा के बाद उसकी वसूली मंत्रालय से कर ले। इसी तरह जिस पत्रकार या राजनेता को रेल मंत्रालय मुफ्त रेल यात्रा कराना चाहता है वह भी टिकट खरीदे, यात्रा करें और बाद में अपनी यात्रा का रेल मंत्रालय के लाभ के लिए किए गए इस्तेमाल का विवरण देते हुए इस टिकट की एवज में पैसा वसूल कर लें। इस तरह पास संस्कृति पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।

दरअसल, पैसिंजर रेल सेवा तो रेल मंत्रालय का वो विभाग है जिस पर देशभर की निगाह लगी रहती है। क्योंकि करोड़ों यात्रियों को रोज ढोने का काम ये सेवा करती है। हर किस्म के यात्री होते हैं, धनी, गरीब, प्रभावशाली, साधारण, वकील, पत्रकार सबकी निगाह इस सेवा की गुणवत्ता पर लगी होती है। इसलिए ये मीडिया की सुर्खियों में भी बनी रहती है। पर रेलवे की असली कमाई रेलवे फ्रेटिंग सर्विस से होती है। यानी माल की ढुलाई। इस काम में रेलवे का बहुत बड़ा हिस्सा जुटा रहता है और सबसे ज्यादा घोटाले इसी सेवा में होते आए हैं। क्या रेल मंत्री देश की जनता को बताएंगे कि उनके कार्यकाल में रेल की फ्रेटिंग सेवा की आमदनी कितनी बढ़ी ? अगर उसमें उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई तो इस सेवा में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाए हैं ? अगर नहीं तो क्यों नहीं 

इसी तरह रेलवे में आजकल नए-नए निगमों के सृजन की बहार आई हुई है। जैसे केटरिंग काॅरपोरेशन, कंटेनर काॅरपोरेशन, इंडियन रेलवे फाइनेंस काॅरपोरेशन, सिलिकन केेबिल काॅरपोरेशन जैसे कई नए निगम रेल मंत्रालय ने खड़े कर दिए हैं। इरकाॅन  और राॅइट्स जैसे निगम पहले से ही थे। जो ठेके पर काम लेकर देश और विदेश में अच्छी कमाई कर रहते आए हैं । उनकी सफलता देखकर ही शायद ये नए निगम शुरू किए गए। पर इन निगमों से रेल मंत्रालय को कितना आर्थिक लाभ हुआ है इसकी सही समीक्षा किए जाने की जरूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन निगमों का सारा काम तो रेल मंत्रालय कर रहा हो और मुनाफा निगमों के नाम पर दिखाया जा रहा हो। ताकि इस मुनाफे पर मौज-मस्ती की जा सके। इस तरह झूठा मुनाफा दिखाकर निगमों में तैनात अधिकारी अपने परिवारों को और राजनैतिक आकाओं को निगमों के खर्चें पर ऐश करवा रहे हों ? क्योंकि जब निगम बन जाता है तो उसमें तैनात सरकारी अधिकारियों के खर्चांे और सैर, सपाटांे पर कोई बंदिश नहीं रहती। वो बंदिशें जो मंत्रालय के अधीन रहते हुए उन्हें सरकारी नियमों के तहत माननी पड़ती है। निगम में आने के बाद आप लाखों रूपए गुलछर्रों पर उड़ाइए और राजनेताओं को खुश रखिए फिर कोई पूछने वाला  नहीं है। भारत में केंद्रीय और राज्य स्तर पर जितने निगम बने उनमें से ज्यादातर इसी भ्रष्टाचार के कारण घाटे में आते गए और बर्बाद हो गए। बिचारी जनता के कर का पैसा उसकी सेवा की बजाए भोग विलास में बर्बाद कर दिया गया। क्या ये सही है कि पिछले हफ्ते ही रेल मंत्रालय के एक निगम के छोटे से समरोह में पांच सितारा होटल में 27 लाख रूपए खर्च किए गए। जबकि समारोह में शायद 50 से भी कम लोग शामिल हुए । अगर ये सच है तो यह बहुत चिंता का विषय है। क्या किसी बाहरी जांच एजेंसी को इन निगमों की बैलेंस शीट्स को स्वतंत्रता से जांचने की छूट है ? इसलिए रेल मंत्री को इन निगमों की पारदर्शिता की जांच करवा कर आश्वस्त हो जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में उन्हें किसी असहज स्थिति का सामना करना पडे़।

देश की जनता को शायद ये पता न हो कि रेलवे केटरिंग काॅरपोरेशन भारत की संसद में जो केटरिंग सेवा करती है उसमें जनता का करोड़ों रूपया बर्बाद कर देती है। जानकार बताते है कि पिछले साल ही लगभग 28 करोड़ रूपए की सब्सिडी इस मद में दी गई। यही कारण है कि संसद में 15 रूपए में मुर्गा खाने को मिल जाता है। इस सब्सिडी का क्या औचित्य है ? उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों की बात करने वाली सरकार के रेल मंत्री, सांसदों के चमचों, मित्रों और अतिथियों के स्वागत में 28 करोड़ रूपए क्यों बर्बाद करते हैं ? क्यों नहीं रेलवे अपनी केटरिंग सेवा का उचित दाम वसूलती हैं और उस मुनाफे से रेलवे में सुविधाओं का विस्तार करती हैं ? इतना ही नहीं प्रधानमंत्री निवास की केटरिंग पर ही रेलवे केटरिंग काॅरपोरेशन ने पिछले वर्ष 15 करोड़ रूपया खर्च किया बताते हैं। ये बर्बादी रेल मंत्रालय के जिम्मे क्यों ? क्यों नहीं रेल मंत्रालय इन सेवाओं से हाथ खींच लेता ?

इसी तरह देश में चल रही बहुत सारी रेलवे आउट एजेंसियांें का सवाल है। शिमला, पहलगांव, बद्रीनाथ, अण्डमान निकोबार जैसी जगहों पर चलने वाली इन आउट एजेंसियांें की उपयोगिता पर क्या रेल मंत्रालय ने कभी गंभीरता से विचार किया है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये रेल मंत्रालय के घाटे का स्थायी कारण बनी हुई है ? इन्हंे क्यों नहीं आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जाता ? इसी तरह रेलवे हर साल ऊंटी, दार्जलिंग, शिमला जैसी सैलानी रेल व्यवस्था पर 2 हजार करोड़ रूपया बर्बाद करती है। अगर ये सैलानी रेल सेवा इतनी लोकप्रिय है कि पर्यटन की दृष्टि से इन्हंे बंद करना उचित न होगा तो क्यों नहीं इनका भी निजीकरण कर दिया जाता ? जो कंपनी रेल मंत्रालय को सही किराया दे इन्हें उसे सौपा जा सकता है। तब खर्चा भी नहीं होगा और मुनाफ भी हो जाएगा। दरअलस, ये रेल सेवा इतनी खर्चीली है कि सही दाम देकर इसे लेने को कोई तैयार नहीं है।  फिर भी रेलवे के आला हाकिम इसे चलाए रखना चाहते हैं क्योंकि इस सेवा के निरीक्षण के बहाने वे पहाड़ों या दूसरे पर्यटन स्थलों पर अपने परिवार को लेकर मौज-मस्ती करने जाते हैं और खर्चा पड़ता है देश की जनता पर । क्या नीतीश कुमार जी इस बात का सर्वेक्षण करवाएंगे कि गर्मियों में कितने रेल अधिकारियों ने सपरिवार जाकर पहाड़ों पर चलने वाली इस तरह की रेल सेवा का निरीक्षण किया और कितनों ने शेष साल भर। अगर ये जांच हो तो पता चलेगा कि निरीक्षण के नाम पर र्गिर्मयों में मौज मारने ही पहाड़ों पर जाया जाता है। उनकी थोड़ी सी मौज और देश की जनता का हजारों करोड़ रूपया इन सेवाओं पर बर्बाद हो जाता है। ऐसे तमाम सवालों पर रेल मंत्री को विचार करना चाहिए और आर्थिक दबावों से निपटने के लिए रेलवे की फिजूलखर्ची घटाकर मुनाफा कमाने की सोचना चाहिए। मंत्रालय में भ्रष्टाचार अगर है तो उसे रोकने की जिम्मेदारी भी रेल मंत्री की है।