Friday, January 19, 2001

क्यों न राजनैतिक दलों के नाम बदल दें !

लोकशक्ति पार्टी नाम से एक और राजनैतिक दल का जन्म हो गया। केंद्रीय संचार मंत्री श्री रामविलास पासवान इसके संस्थापक प्रणेता हैं। उनका दावा है कि उनका नया दल गरीबों के हक के लिए लड़ाई लड़ेगा। श्री पासवान सभी पत्रकारों के मित्र हैं इसलिए उन्हें पत्रकारों की चुटकी झेलने की आदत है। पर असलियत यह है कि अब रोजाना इतने नए दल बनने लगे हैं कि जनता में किसी भी दल के प्रति उत्साह पैदा नहीं होता। किसी भी दल के नेता के आश्वासनों पर जनता को विश्वास नहीं होता। वेैसे भी आज दलों की स्थिति है क्या ? कौन सा दल ऐसा है जो इस बात का दावा कर सकता है कि उनके दल में पूरी तरह लोकतंत्र है। जवाब होगा कोई दल ऐसा नहीं है। प्रायः हर दल में विभिन्न स्तरों पर पदों के लिए चुनाव नहीं बल्कि मनोनयन होता है। जिसको चुनाव की रस्म अदायगी करके पूरा कर दिया जाता है। पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में एक पोस्टर लगा कि इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी को दिल्ली प्रदेश इंका अध्यक्ष पद के लिए श्री सुभाष चैपड़ा के चुने जाने के लिए बधाई ! पोस्टर छापने वाला भ्रमित था। कहना तो वह यह चाहता था कि सुभाष चैपड़ा को अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई पर साथ ही उसे पता था कि यह चुनाव नहीं श्रीमती गांधी द्वारा किया गया

मनोनयन है इसीलिए उसके पोस्टर की भाषा में मनोनयन और चुनाव दोनों के बीच दुविधा की भाषा झलकती है। प्रायः हर दल का नेता यह अपेक्षा करता है कि उसके दल के लोगों की पूरी निष्ठा केवल उसी नेता के प्रति हो, उसी दल के किसी अन्य नेता के प्रति नहीं। इसीलिए आए दिन सुनते रहते हैं कि फलां नेता वाजपेयी खेमे का है तो फलां नेता आडवाणी खेमे का। फलां नेता अर्जुन सिंह खेमे का है तो फलां नेता वीसी शुक्ला खेमे का। कोई नेता किसी गुट का तो कोई किसी गुट का। हर गुट का नेता अपने बाकी साथियों के सिर पर पैर रखकर अपने लिए राजनैतिक पद का जुगाड़ करता है। इसीलिए आए दिन एक ही दल के विभिन्न नेताओं के बीच सिर फूटते रहते हैं, उनके अह्म टकराते रहते हैं। बात बात पर नए राजनैतिक दल खड़े हो जाते है। हर नया दल खुद को दूसरे से ज्यादा जुझारू बता कर आम जनता को मीठे सपने दिखाता है। इस तरह चुनावों में और उसके बाद जुगाड़ करके सत्ता में शामिल होने का जुगाड़ करता है। सत्ता में पहुंचने के लिए और उसके बाद उसके मन में विचारधारा को लेकर कोई दुविधा नहीं होती। सत्ता हथियाने के लिए हर तरह के नापाक गठबंधन किए जाते हंै। आए दिन इन नए दलों के नेताओं के खिलाफ विद्रोह होते हैं, वे टूटते हैं और फिर नए दलों का गठन होता है। इतने सारे नेता हैं और इतने सारे दल हैं कि देशवासियों को यह याद करना भी संभव नहीं होता कि प्रमुख दलों के नाम क्या है और उन दलों के नेता कौन है ?

इतना ही नहीं लोकतंत्र की रक्षा की मांग करने वाले ये तमाम नेता नहीं चाहते कि इनके कार्यकर्ताओं की अपनी अलग पहचान बने। ये नेता ऐसे कार्यकर्ताओं को दल में पनपने नहीं देते जिनमें नेतृत्व की क्षमता होती है। दलों के भीतर चुनाव का नाटक करने बाद भी ऐसा कैसे होता है कि सारे सदस्य अपने नेता के भाई बेटा या बेटी को ही नया नेता चुन लेते हैं ? इस किस्म का एक महत्वपूर्ण चुनाव 31 दिसंवर 1984 को किया गया जब श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे और राजनीति में नौसिखिए श्री राजीव गांधी को बिना दिल्ली पहुंचे ही दल का नेता चुन लिया गया। इतना ही नहीं उन्हें बिना सांसद हुए संसदीय दल का नेता भी चुन लिया गया और इस तरह हवाई अड्डे से सीधे राष्ट्रपति भवन ले जाकर उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गई। 1967 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ था और वरिष्ठ कांग्रेसी श्री कामराज व श्री मोरारजी देसाई आदि ने कांग्रेस सिंडिकेट बनाई थी तब श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम के आगे इंदिरा जुड़ गया था। शायद दल की जगह व्यक्ति को महत्व देने की यहीं से शुरूआत हुई। सिख धर्म की सेवा के लिए बने अकाली दल का भी नाम अब गुरू गोविन्द सिंह के नाम पर नहीं बल्कि प्रकाश सिंह बादल और सिमरनजीत सिंह मान के नाम पर अकाली दल (बादल) और अकाली दल (मान) है।

चुनाव आयोग के पास आज सैकड़ों दलों के नाम पंजीकृत हैं। ज्यादातर दल केवल कागजों पर ही हैं। पर सक्रिय दलों की भी कमी नहीं। समाजवादी के नाम पर ही कितने दल हैं। श्री मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, श्री चन्द्रशेखर का समाजवादी दल (राष्ट्रीय) व तमाम और। हकीकत यह है कि कोई भी दल न तो किसी विचारधारा के प्रति समर्पित है और न किसी विचारधारा का विरोधी है। जब जिसे जैसी सुविधा होती है वैसा गठबंधन कर लेता है और सत्ता का सुख भोगता है। राजग में ही आज वे तमाम दल हैं जो कल तक मंचों पर एकदूसरे को जम कर कोसते थे। दरअसल विचारधारा का मुखौटा पहनने के दिन अब लद गए। हर दल बेनकाब हो चुका है जनता जानती है कि जो कहा जा रहा है वह सच नहीं है। फिर भी इतने सारे दल हैं कि उनके नामों को याद रखना भी मुश्किल होता है। इस समस्या का एक सरल समाधान हो सकता है वह यह कि नए दलों के नाम भाषा या विचारधारा के शब्दकोशों में ढूंढ़ने के बजाए उन्हें दल के संस्थापक व नेता के नाम पर ही रख दिया जाए। जैसे, श्री रामविलास पासवान पार्टी, श्री चन्द्रशेखर पार्टी, श्री सुब्रमणयम स्वामी पार्टी, श्रीमती सोनिया गांधी पार्टी, श्री लालू यादव पार्टी, सुश्री जयललिता पार्टी, श्री शरद पंवार पार्टी, श्री ओम प्रकाश चैटाला पार्टी व श्री कांशी राम पार्टी। हंसिए मत यह मजाक नहीं है अगर ऐसा हो जाए तो न सिर्फ राजनैतिक कार्यकर्ताओं को सुविधा हो जाएगी बल्कि पत्रकारों को भी भारी राहत मिलेगी। क्योंकि उन्हें खबर लिखते वक्त यह आश्वस्त होने की चिंता नहीं रहेगी कि जिस दल का वह नाम लिख रहे हैं वह सही है या नहीं।

आज आमतौर पर राजनैतिक कार्यकर्ता किसी दल में देश की सेवा करने तो आते नहीं। आते हैं तो राजनीति को निजी लाभ का जरिया बनाने। इसलिए जिसका पलड़ा भारी दिखता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। हमारे पुराने मित्र श्री संजय सिंह राजनीति में आए इंका की मार्फत। जब श्री वीपी सिंह का पलड़ा भारी हुआ तो भाग कर उनके साथ चले गए। साल भर में जब श्री वीपी सिंह की सरकार गिरने लगी तो वे चन्द्रशेखर के दल के नेता हो गए। बाद में जब राम लहर बही तो भाजपा में आ गए। ऐसे ही तमाम दूसरे लोग भी हैं। यदि दलों के नाम व्यक्ति आधारित हों जाए तो ऐसे सभी राजनेताओं को और कार्यकर्ताओं को बड़ी सुविधा होगी। फिर इंका के सदस्य यह नहीं कहेंगे कि हम अपनी पार्टी के नेता से नाराज हैं और इसलिए तिवारी कांग्रेस में जा रहे हैं। फिर वे कहेंगे कि हम नरसिंह राव पार्टी से नाराज हैं इसलिए नारायणदत्त तिवारी पार्टी में जा रहे हैं। जरा सोचिए सबके लिए कितना सुलभ होगा दलों का नाम याद रखना ? हर नेता के नाम पर एक अलग पार्टी होगी जिसका घोषणा पत्र कहेगा, ‘हम इस दल के संस्थापक श्री क,ख,ग के विचारों के प्रति आस्था रखते हैं। इसलिए उनके श्रीचरणों में अपना राजनैतिक जीवन समर्पित करते हैं। हम शपथ लेते हैं कि हम पूरी निष्ठा ओर स्वामिभक्ति से अपने दल के नेता श्री क,ख, ग के आदेशों का पालन करंेगे। उनके स्वार्थ और अह्म के रास्तों में रोड़ा नहीं बनेंगे। उनके बेटी, बेटों, भतीजों और दामादों की सेवा उन्हें युवराज मानकर पूरी निष्ठा से करेंगे और उन्हें भी अपने सम्मानीय नेता का दर्जा देंगे।’ ऐसे घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद ही कोई राजनैतिक कार्यकर्ता किसी दल में शामिल हो पाएगा। यह बात दूसरी है कि जब उसे लगेगा कि उसके दल के नेता श्री क,ख,ग उसकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। यानी उसे उसकी अपेक्षा अनुरूप आर्थिक लाभ या सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिली तो उसे टिका पाना मुश्किल होगा। ऐसी स्थिति में यह कार्यकर्ता इस बात के लिए स्वतंत्र होगा कि वह श्री क,ख,ग के प्रति समर्पित अपनी स्वामिभक्ति को वापिस लेकर श्री अ,ब,स के चरणों में समर्पित कर दे, जैसा आज भी हो रहा है। इसी तरह जब श्री क,ख,ग के दाहिने हाथ श्री य,र,ल को लगेगा कि उसका नेता उसके साथ ना-इंसाफी कर रहा है तो वह भी झट से य,र,ल नाम से एक नए दल का गठन कर लेगा। अभी हाल ही में समता पार्टी में जोे कुछ हुआ वह ऐसी संभावनाओं की ताजा मिसाल है। इस व्यवस्था में किसी को कोई समस्या नहीं आएगी। जो लोग राम मंदिर बनाने की वायदा करके भाजपा में आए थे उन्हें फिर यह दिक्कत नहीं आएगी कि लोग उनसे पूछे कि सरकार में तो आप आ गए अब मंदिर का क्या होगा ?ऐसा कार्यकर्ता तपाक से कहेगा कि हमें मंदिर से क्या देना-देना हमने तो अपने नेता के प्रति समर्पण किया था और आज भी हम अपने नेता का ही राग अलप रहे हैं, मंदिर जाए भाड़ में। इस तरह एक नई परंपरा की शुरूआत होगी। कालवश जब उस राजनेता का निधन होगा तो दल का नाम पुनः बदल कर युवराज बेटे या बेटी के नाम पर रख दिया जाएगा। इस तरह भारत के लोकतंत्र में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा। लोगों को भी किसी राजनैतिक कार्यकर्ता से कोई उम्मीद न रहेगी और दल के संस्थापक और नेता को भी अपनी गद्दी खिसकने की चिंता नहीं रहेगी क्योंकि वह आश्वस्त होगा कि उसका दल उसकी निजी जागीर है और कोई भी सदस्य उसके निर्देशन के बिना काम कर ही नहीं सकता। वैसे हो तो आज भी यही रहा है पर पर्दे की ओट में

Friday, January 12, 2001

जुझारू पत्रकारों की कमर तोड दी जाती है पंजाब में

मुल्क के गलत निजाम और बिगड़े हालात के विरूद्ध जाने तथा इन्हें बदलने की कोशिश करने का साहस बहुत ही कम व्यक्तियों मे होता है। आजादी से पहले ऐसे हिम्मतवाले कारनामें करने वालों को विद्रोही करार दिया जाता था और पत्रकार भी विद्रोही की श्रेणी में ही आते थे। अंग्रेज जानते थे कि विद्रोही उनके लिए अत्यंत खतरनाक हैं क्यांेकि वे आग पैदा कर रहे हैं, विद्रोह को हवा दे रहे हैं। इसलिए वे शुरू से ही इस चिंगारी को कुचल डालने की कोशिश मे लगे रहते थे। आजादी के बाद परिस्थितियांे में कुछ बदलाव जरूर आया है तथा पत्रकारिता के मायने व उद्देश्य भी बदल गए हैं मगर दुव्र्यवस्थाओं का विरोध करने वाले को विद्रोही करार देकर दबाने के प्रयासों में आज भी कोई कमी नहीं आई है, खासकर देश के छोटे शहरों और पिछड़े इलाकों में। परिस्थितियों तथा दुव्र्यवस्थाओं का विरोध करने की हिम्मत जुटाने वाले पत्रकार को धमकियां मिलना अथवा जानलेवा हमलों का शिकार होना हर इलाके में भले ही आम बात न हो मगर पंजाब में समझौता न करने तथा समाजहित को महत्व देने वाले पत्रकारों की स्थिति कुछ ज्यादा ही बदत्तर नजर आ रही है।

पंजाब के ही कुछ जुझारू पत्रकार यह देख कर काफी दुखी हैं कि उनके सूबे में बहुत से पत्रकार केवल सरकार के जनसंपर्क का जरिया बनते जा रहे हैं। कुछ अन्य राज्यों की तरह ही पंजाब में भी जो पत्रकार मंत्रियों के बयान तथा तारीफें बढ़-चढ़ कर छापते हंै उन्हें तमाम तरह की सरकारी एवं गैर सरकारी नियामतें बख्शी जाती है। जबकि सरकार की कुनीतियों तथा मंत्रियों व विधायकों की घपलेबाजियों का भंडाफोड़ करने वाले पत्रकारों को प्रायः तरह-तरह की मुसीबतों से गुजरना पड़ता है। पंजाब पुलिस भी सरकार की पिट्ठू बन कर ऐसे जुझारू पत्रकारों को प्रताडि़त करने का काम बेखौफ करती है। अभी हाल ही में एक ऐसे ही नौजवान पत्रकार के साथ घटे हादसों को सुनकर बहुत तकलीफ हुई। कहते हैं कि इंसान की आंखें उसके दिल का आइना होती हैं। इस नौजवान पत्रकार की आंखों में इस मुल्क के तेजी से बिगड़ते निजाम को लेकर तमाम सवाल तैर रहे हैं। उसके दिल में तमन्ना है कि वो हालात सुधारने का जरिया बने।  शहीदे आजम भगत सिंह की सरजमी पर पैदा होने वाला यह नौजवान जानता है कि मुल्क की खिदमत और इबादत का रास्ता फूलों से नहीं कांटों से भरा होता है। फिर भी वह इस रास्ते पर ही चलना चाहता है। उसकी इसी जिद ने उसे न सिर्फ कई बार जानलेवा हमलों का शिकार बनाया बल्कि कई महीनों के लिए जेल के सींखचों के पीछे बंद करवा दिया।

पंजाब के एक छोटे से नगर के इस युवा पत्रकार से मेरा संपर्क जब खतों की मार्फत हुआ तब वह 18 वर्ष का था आज 26 वर्ष का है। पर इतनी कम उम्र में ही उसमें कुछ कर गुजरने का जज्बा था। बाद के वर्षों में इधर-उधर से खबर मिलती रही कि इस नौजवान ने पत्रकारिता के क्षेत्र में छोटी उम्र में ही नाम कमा लिया। इसकी भावुकता व अपने पेशे के प्रति ईमानदारी का उदाहरण देने के लिए एक घटना का जिक्र करना ही काफी होगा । पंजाब के जिस छोटे से समाचार पत्र के माध्यम से इसने पत्रकारिता में कदम रखा था उससे उसने जल्दी ही इसलिए इस्तीफा दे दिया क्योंकि अखबार के संपादक ने एक तत्कालीन राज्यमंत्री के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला उसका एक तथ्यपरख व मयसबूत समाचार प्रकाशित करने से इंकार कर दिया। अपनी ऐसी जिद के चलते वह ज्यादा देर तक एक अखबार में टिक नहीं सका। कुछ समय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता करने के बाद जल्दी ही फिर एक अन्य हिंदी दैनिक के जरिए पत्रकारिता में अपना नाम रोशन करने लगा।

 समाज के लिए कुछ करने की भावनाएं इसकी कलम में स्पष्ट झलकती थी। जबकि पंजाब पुलिस की गुंडागर्दी तथा भ्रष्टाचार इस पत्रकार का प्रमुख निशाना रहे। वर्दी में शराब पीते पुलिसकर्मियों के चित्र खींचकर प्रकाशित करवाना, पुलिस थानों में विभिन्न केसों के लिए निश्चित रिश्वत की सूची छापना तथा स्वास्थ्य एवं अन्य विभागों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध भी खुलकर लिखना इसे भारी पड़ा। लिहाजा पुलिस के साथ-साथ कुछ एक ताकतवर सफेदपोशों को भी इसने अपना दुश्मन बना लिया। उस पर कुल चार बार हमले हुए। एक बार तो मौत के मुंह में जाते-जाते बचा और एक बार इसके पूरे परिवार को जान से मारने की कोशिश की गई। मगर तमाम घटनाक्रम की जांच करने के बाद भी हमलावरों के विरूद्ध पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। जैसा आमतौर पर होता है कि जब कोई व्यक्ति बिकने, झुकने या डरने से मना कर देता है तो उसका चरित्रहनन करना ही हुकमरानों की कोशिश होती है। उसे विदेशी खुफिया एजेंसी का एजेंट बता दो, देशद्रोही बता दो, किसी झूठे मुकदमें में फंसा दो या उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगा कर उसे बदनाम कर दो।  शायद ऐसा ही कुछ इस नौजवान के साथ हुआ। जब उसके इलाके के ताकतवर लोग उसे खरीद नहीं पाए तो इस युवा पत्रकार के विरूद्ध एक औरत को छेड़ने के आरोप में केस दर्ज कर दिया गया। जबकि पुलिस अच्छी तरह से जानती थी कि यह औरत इस पत्रकार पर हमला करने वालों में से ही एक की पत्नी थी। हमलावरों को बचाने में जुटी पुलिस का ऐसा भ्रष्ट रवैया देखकर इस पत्रकार ने अपने परिवार पर हुए हमले के संबंध में अदालत में केस दायर कर दिए। इससे बौखलाई पुलिस और वहां के हुक्मरानों ने इस जुझारू पत्रकार को फंसाने का एक और तरीका ईजाद किया। 23 वर्षीय इस पत्रकार के खिलाफ 48 वर्षीय यानी इसकी मां से भी ज्यादा उम्र की एक अन्य औरत से अदालत में याचिका दायर करवाई गई जिसमें उसने शिकायत की कि इस पत्रकार ने उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश की थी। ऐसा नहीं है कि 23 वर्ष का नौजवान 48 वर्ष की महिला के साथ बलात्कार नहीं कर सकता। पर माना जाता है कि कानून की आंख और कान ज्यादा चैकन्ने होते हैं। कानूनविद और पुलिस अगर ईमानदारी से पूरे हालात की सिलसिलेवार जांच करें तो यह पता चल जाता है कि आरोपी ने वास्तव में जुर्म किया है या उसे झूठे ही फंसाया जा रहा है। पर शायद ऐसी किस्मत इस नौजवान पत्रकार की नहीं थी। उसे इस छोटी सी उम्र में भरपूर यातनाएं दी गई पर इसकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि इस पत्रकार ने इन सबके बावजूद भी हार नहीं मानी। शायद उसे विश्वास था कि अदालत से उसे एक दिन इंसाफ जरूर मिलेगा।

इसी बीच पता चला कि इस नौजवान को निचली अदालत ने एक वर्ष की कैद की सजा सुना दी। इतना ही कहर काफी न था कि एक और लड़की का अपहरण और बलात्कार करने के आरोप में इसे ही नहीं बल्कि इसके पूरे परिवार को भी फंसा दिया गया हैे। ऐसा यह नहीं कि कोई नौजवान गलत नहीं हो सकता मगर तथ्यों को नजरंदाज करना नाइंसाफी होगी। भुक्तभोगी यह जानते हैं कि पत्रकारिता के महंत बन कर बैठे दलाल किसी छोकरे पत्रकार की जाबांजी को बर्दाश्त नहीं कर पाते। उसे न सिर्फ हतोत्साहित करते हैं बल्कि अपने गाॅड-फादरों के इशारांे पर बदनाम करने से भी बाज नहीं आते। ऐसे दलालनुमा पत्रकार  जुझारू पत्रकारों को अक्सर ब्लैकमेलर कह कर बदनाम करने की कोशिश करते हैं। पर सूरज को बादल हमेशा ढक कर नहीं रख सकते। सच्चाई सामने आ ही जाती है। इस पत्रकार का परिवार आज भी एक किराए के मकान में रह रहा है। औरत को छेड़ने के जिस आरोप में इसे एक वर्ष की सजा सुनाई गई है उसके बारे में मात्र इतनी टिप्पणी काफी है कि इस केस मे कोई स्वतंत्र गवाही नहीं है। दोनों गवाहियां उक्त औरत के रिश्तेदारों यानी पति और भाभी ने ही दीं थीं। यह आश्चर्यजनक बात है कि उसी औरत के पति के विरूद्ध, इसी पत्रकार के परिवार पर हमले के आरोप में चल रहे अदालती केसों को भी नजरंदाज किया गया।

मानवाधिकारों व पत्रकारों की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले पंजाब के वकीलों, पत्रकारों, समाजकर्मियों व बुद्धिजीवियों के लिए इस पत्रकार की कहानी एक चुनौती है। अगर उनके सीने में इंसानी दिल धड़कता है तो उन्हें इस मामले की निष्पक्ष जांच करनी चाहिए। यदि उनकी जांच से यह सिद्ध हो जाए कि इस नौजवान पत्रकार के साथ वाकई नाइंसाफी की गई है या आज भी की जा रही है तो उन्हें इसकी रिपोर्ट छापकर इस पर हल्ला मचाना चाहिए। इस पत्रकार के साथ ही नहीं बल्कि पंजाब के कई शहरों में ऐसे हादसे हुए हैं, जरूरत उन सबकी जांच करने की है। ताकि न सिर्फ बेवजह यातना भोग रहे ये नौजवान पत्रकार चैन से जी सकें बल्कि भविष्य में ईमानदार और जुझारू पत्रकारों का हौसला न टूटे। शहादत और वतनपरस्ती के लिए मशहूर और हम सबके आदरणीय सिख गुरूओं के रास्ते पर चलने वालों और शहीदाने वतन भगत सिंह की हिम्मत और कुर्बानी की दाद देने वालों का यह नैतिक फर्ज है कि वे पंजाब की पाक जमीन को ऐसी नाइ्रंसाफी का ग्रहण न लगने दें। खासतौर पर समर्पित पत्रकारों की  हौसला आफजाई करना उनका धर्म है क्योंकि पत्रकारिता लोकतंत्र का चैथा स्तंभ है और आज इसे तोड़ने की गहरी साजिश की जा रही है।

Friday, December 22, 2000

प्यासा जाड़ा दुनिया में अब युद्ध पानी के कारण लड़े जाएंगे

बाकी देश की छोडि़ए, भारत का दिल और देश की राजधानी दिल्ली दिसंबर के जाड़े में भी पानी के संकट से जूझ रही है। दिल्ली प्रदेश के अभिजात्य इलाके दक्षिणी दिल्ली के रहने वाले रोजाना पानी खरीद कर इस्तेमाल कर रहे हैं। जब जाड़े में ये हाल है तो गर्मी में क्या होगा ? दरअसल पानी का संकट भारत ही नहीं पूरी दुनिया में गहराता जा रहा है। अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मोंसान्टो अभी से भारत के जल संकट का फायदा उठा कर करोडों डालर कमाने की तैयारी कर रही है। इस कंपनी का एक गोपनीय दस्तावेज हाल ही में भारत की पर्यावरण विशेषज्ञ डा. वंदना शिवा के हाथ लगा तो यह चैकाने वाली बात सामने आई।

संघलोक सेवा आयोग द्वारा संचालित आईएएस की परीक्षा में आज से 20 वर्ष पहले दिल्ली की एक आधुनिक महिला उम्मीदार से साक्षात्कार के दौरान कहा गया कि, ‘परमाणु बम भले ही दुनिया का विनाश न करे किंतु फलश की लैट्रिंन व्यवस्था जरूर विश्व का सर्वनाश कर देगी- इस पर टिप्पणी कीजिए। बेचारी आधुनिक महिला उम्मीदवार तब यह सोच भी न सकी थी कि फलश की लैट्रिंन विश्व का सर्वनाश कैसे कर पाएगी ? पर आज यह सच हो रहा है। मशहूर लेखक जोसेफ जैनकस पूरी दुनिया के समाजों को दो श्रेणियों में बांटते हैं। वो समाज जो अपना मल (शौच) पीने के पानी में मिला कर बहा देते हैं और वो समाज जो ऐसा नहीं करते। जाहिर है कि सभी विकसित या पश्चिमी देश पहली श्रेणी में आते हैं जबकि भारत जैसे कृषि प्रधान देश दूसरी श्रेणी में आते हैं। भारत में खेत में जाकर शौच करने की जिस पारंपरिक प्रथा का आधुनिकता वादियों ने पिछले दशकों में मजाक उड़ाया था, आज उन्ह भी कुछ इसी किस्म की शौच व्यवस्था की ओर लौटने पर मजबूर होना पड़ रहा है। क्योंकि उनकी तथाकथित आधुनिक शौच व्यवस्था में साफ पानी की इतनी भारी बर्बादी हो रही है कि अब इन देशों में भी पानी का संकट पैदा होने लगा है। बदलते मौसम के कारण लंदन में बहने वाली टेम्स नदी के भूतल का जल स्तर पिछले 100 वर्षों में घटते-घटते आज न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। जबकि इंग्लैंड में पानी की खपत पिछले 30 वर्षों में दुगनी हो गई है। अमरीका में भी साफ पानी की आपूर्ति से कई गुना ज्यादा पानी फलश की लैट्रिनों में बहाए जाने के कारण समस्या खड़ी होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के एक अध्ययन के अनुसार एक टन मानवीय मल को बहाने के लिए 2000 टन शुद्ध जल बर्बाद किया जाता है। इसलिए जिन पारंपरिक समाजों में खेत में शौच जाने की प्रथा है वे समाज ज्यादा वैज्ञानिक व व्यवहारिक दृष्टि वाले हैं बमुकाबले उनके जो रंग-बिरंगे टाॅयल्स लगा कर, सोने की पोलिश वाली नल की टोटियां लगा कर अपने आधुनकि होने का स्वांग रचते हैं। इसलिए लगातार दोहन के कारण जब भूमिगत जल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और राजधानी के आधुनिक इलाकों में भी लोगों को पानी के टैंकरों से पानी खरीद कर पीना और नहाना पड़ रहा है तो बाकी शहरों की तो दुर्दशा का मात्रा अंदाजा लगाया जा सकता है।

बीबीसी के पर्यावरण संवाददाता एलक्स किरबी का कहना है कि दुनिया में अब उससे ज्यादा मात्रा में साफ पानी नहीं है जितना कि 2000 वर्ष पहले था। पर तब दुनिया की आबादी आज के मुकाबले मात्रा तीन फीसदी थी। यानी 97 फीसदी बढ़ी हुई आबादी के लिए जल की मात्रा पहले जितनी ही स्थिर है। पर्यावरण विशेषज्ञ श्री गार स्मिथ कहते हैं कि जल दुनिया का सबसे मूल्यवान संसाधन है एक औसत व्यक्ति तीन दिन से ज्यादा प्यासा नहीं रह सकता। वे चेतावनी देते हैं कि हमारे अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूमिगत जल का स्तर पूरी दुनिया में हर वर्ष औसतन दस फुट गिरता जा रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया का चालीस फीसदी भोजन सिंचित भूमि से मिलता है। यानी जल संकट से भोजन का संकट भी सीधा जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम प्रमुख इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हैं कि जल्दी ही दुनिया के देशों के बीच पीने के पानी के संकट को लेकर युद्ध शुरू हो जाएंगे। यह कोरी कल्पना नहीं, हकीकत है। आज भी दुनिया के तमाम देश पीने के पानी का आयात कर रहे हैं। सउदी अरेबिया अपनी आवश्यकता का आधा पानी विदेशों से मंगाता है। इजराइल 87 फीसदी जल का आयात करता है और जोर्डन मात्रा 9 फीसदी जल ही जुटा पाता है शेष 91 फीसदी पेय जल का उसे भी आयात करना पड़ता है। इस तरह मध्य पूर्वी एशिया व अफ्रीका के 31 देश भारी जल संकट के दौर से गुजर रहे हैं । अगले 25 वर्षों में 48 देश जल संकट की चपेट में आ जाएंगे। इस तरह 25 वर्ष के भीतर दुनिया की एक तिहाई आबादी रोजमर्रा की जरूरत का पानी जुटाने के लिए त्राहि-त्राहि कर रही होगी।

जल के इस संकट को भुनाने के लिए दुनिया की कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां तैयार बैठी हैं। अकेले इंग्लैंड में पिछले 10 वर्षों में निजी कंपनियों ने पेय जल की कीमत 44 फीसदी तक बढ़ा दी है। पानी एक ऐसी वस्तु है जिसके बिना जिंदा नहीं रहा जा सकता। लोगों की इस मजबूरी का फायदा उठाने के लिए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी भावी रणनीति बनाने में लगी हैं। अभी हाल में अमरीका की एक ऐसी ही कंपनी ने कनाडा के प्राकृतिक जल स्रोतों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। जब कनाडा की सरकार जागी और इसका विरोध किया तो यह कंपनी एनएएफटीए करार के तहत अदालत में चली गई और इसे जीतने की पूरी उम्मीद है। इसलिए जल स्रोतों के संरक्षण के लिए समर्पित अमरीका व कनाडा के संयुक्त आयोग ने कनाडा की साफ पानी की झीलों के निजीकरण का विरोध किया है। जबकि कैर्लिफोनिया की कंपनी सन बैल्ट वॅटर ने कनाडा की सरकार पर दावा ठोक दिया है। इस कंपनी को विश्वास है कि अदालत में मुकदमा जीत कर यह कंपनी कनाडा के जल स्रोतों पर कब्जा कर लेगी। कोई आश्चर्य न होगी जब आने वाले वर्षो में कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी पतित पावनी गंगा और यमफंद काटने वाली यमुना के उद्गम स्थल पर ही कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी ताला लगा कर बैठ जाएगी और लोक कल्याण के लिए समर्पित भागीरथी के जल की एक एक बूंद की कीमत मांगेगी।

पानी के वर्तमान संकट और भविष्य की भयावह स्थिति से निपटने के लिए जीवन जीने के तरीकों में व्यापक बदलाव लाना होगा। वर्षा के जल का संग्रह मकानों की छतों पर और खाली पड़ी जमीनों में करने से धरती के नीचे के जल का स्तर बढ़ाया जा सकता है। इस दिशा में गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके राजकोट के नागरिकों ने अच्छी पहल की और कामयाबी हासिल की। उन्होंने स्थानीय उत्साही प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से जगह-जगह ‘चैक-डैम‘ बना कर वर्षा के पानी का समुचित मात्रा में संग्रह कर लिया। बाकी देश को भी इससे सबक सीखना चाहिए। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को चाहिए कि बड़ी-बड़ी योजनाओं के मकड़ जाल में न फंस कर ऐसी स्थानीय उपलब्धियों को दूरदर्शन की मदद से लोकप्रिय बनाएं। आज टोकियो से टैक्सास तक इस दिशा में पारंपरिक ज्ञान पर आधारित प्रयोग दोहराए जा रहे हैं। जबकि हम भारतवासी अंधे होकर पश्चिमी जीवन पद्धति की तरफ दौड़ रहे हैं।

यह बहुत जरूरी है कि हम संडास की व्यवस्था को इस तरह बनाएं कि वह हमारे लिए अभिशाप न होकर वरदान बन जाए। ऐसे संडास बने जिनमें पानी का इस्तेमाल कम से कम हो और मल से विद्युत ऊर्जा व जैविकी खाद बन सके। ऐसे संडास के सफल माॅडल उपलब्ध हैं और देश के कई इलाकों में लोकप्रिय भी । किंतु निहित स्वार्थों के कारण इनका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है। इस मामले में भी पहल नागरिको को ही करनी चाहिए। महात्मा गांधी ने इस समस्या को बहुत पहले ही भांप लिया था। इसलिए उन्होंने इसी किस्म के संडास बनाने और विकसित करने पर काफी जोर दिया। हर शहर में गांधीवाद के अवशेषों के रूप में बचे इक्के-दुक्के बुर्जुग गांधीवादी आज भी मौजूद हैं। इनकी सहायता से इस किस्म के संडास बनाने की विधि पर बेहद कम कीमत की लघु पुस्तिकाएं प्राप्त की जा सकती हैं। बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है। ज्ञानी वह नहीं जो स्वार्थवश परमार्थ को भूल जाए। परमार्थ के लिए स्वार्थ को भूलने वाले तो बिरले ही होते हैं। पर स्वार्थ के लिए परमार्थ करना पड़े तो किसे बुरा लगेगा ? जल के संकट से सामुहिक रूप से निपटना ऐसा ही परमार्थ है जिसमें हम सबका स्वार्थ निहित है।

Friday, December 15, 2000

अयोध्या कांड वाजपेयी जी ने क्या गलत कह दिया ?


अयोध्या मुद्दे पर विपक्षी दलों का संसद में इतना तूफान मचाना क्यों जरूरी थाक्या इसलिए कि विपक्षी दलों के सदस्य  ने इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी माना ? या फिर इसलिए कि उनकी धर्मनिरपेक्षता में आस्था है ? या इसलिए कि उन्हें मुस्लिम समुदाय के वोटों की राजनीति करनी है ? या फिर इसलिए कि उनके पास सरकार का विरोध करने के लिए कुछ ठोस मुद्दे उपलब्ध नहीं हैं ? या फिर इसलिए कि इस तरह का शोर मचाकर जनता से जुड़े असली सवालों पर से ध्यान हटाया जा सके। उधर प्रधानमंत्रh अटल बिहारी वाजपेयी का बयान उनकी पारंपरिक छवि के विपरीत अवश्य लगा पर इस बयान से अयोध्या मसले पर सरकार का रूख साफ ही हुआ है। खासकर तब जब राजग के सदस्यों ने भी उस पर कोई उल्लेखनीय विरोध प्रकट नहीं किया।
जहां तक विपक्षी दलों के सांसदों की नैतिक जिम्मेदारी का सवाल है तो यह सही ही है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हर उस मुद्दे पर संसद में विरोध प्रकट करें जिससे उन्हें लगता है कि समाज के लिए या राष्ट्र के लिए खतरा पैदा हो रहा है। पर साथ ही यह बहुत जरूरी है कि शोर मचाने वाले दल या सांसद अधूरी नैतिकता का प्रदर्शन न करें। ऐसा न हो कि निजी हित और दलीय हित उनके फर्ज के सामने आड़े आए। ऐसे तमाम उदाहरण है जहां सांसदों की भूमिका लोगों को विस्मय में डालती है। कई महत्वपूर्ण सवालों पर सांसदों का चुप रह जाना जनता की समझ में नहीं आता।
सब जानते हैं कि करोडों मुकदमों में देश के करोडों निरीह लोग फंसे हुए हैं और अपने उत्पादक कामधंधों को छोड़कर वर्षों से कचहरियों में धक्के खा रहे हैं।  न्याय व्यवस्था भी भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त नहीं है। जिससे देशवासियों को भारी नाराजगी है। भारत के मुख्य न्यायधीश डा. ए.एस. आनंद ने इसी वर्ष के शुरू में कहा था कि न्यायधीशों के लिए एक आचार संहिता होना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि देश की विभिन्न अदालतों में कुछ न्यायधीश ऐसे हैं जो अपेक्षित आचरण नहीं कर रहें या उनका आचरण पारदर्शी नहीं है। तभी तो भारत के मुख्य न्यायधीश को ये कहना पड़ा। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि हमने सoksZच्च न्यायलय के तीन न्यायधीशों के गैर पारदर्शी आचरण पर कुछ तथ्य देश के सामने रखे थे। इनमें से एक तो अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में कार्यरत हैं। जो सवाल हमने उठाए थे उनसे संबंधित प्रमाण भी देश के सामने रखे थे। पिछले नौ महीनों से मैं खुद जाकर दर्जनों सांसदों से मिला और उन्हें इन न्यायधीशों के गैर पारदर्शी आचरण के प्रमाण दिए। इस उम्मीद में कि माननीय सांसदगण देश की जनता की तकलीफो को देखते हुए इन न्यायधीशों के विरूद्ध संसद में अपनी आवाज बुलंद करेंगे। इस तरह अपने नैतिक व लोकतांत्रिक फर्ज का निर्वाह करेंगे। पर बड़े आश्चर्य और दुख की बात है कि न्यायधीशों पर इतने गंभीर आरोपों के बावजूद माननीय सांसदाs ने चुप्पी साध रखी है। क्या उन्हें देश के सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा की चिंता नहीं है ? यह जानते हुए भी कि न्यायधीशों के आचरण की समीक्षा करने या अविश्वास प्रस्ताव लाकर उन्हें हटाने का काम केवल संसद कर सकती है, फिर भी माननीय सांसदों ने इन गंभीर सवालों को जानबूूझ कर अनदेखा कर दिया। क्या इन माननीय सांसदों को इस गंभीर मुद्दे पर अपना नैतिक फर्ज याद नहीं रहा
राजनीति के अपराधीकरण को रोकने और बड़े पदों पर बैठे भ्रष्ट लोगों को सजा दिलवाने संबंधी कानून आज तक नहीं बन पाए। जबकि इन मुद्दों पर तमाम सिफारिशें धूल खा रही हैं। देश की करोड़ों जनता राजनीति में आई इस गंदगी से बुरी तरह त्रास्त है। वह इन बुराइयों से निजात पाना चाहती है। पर क्या वजह है कि अयोध्या के मुद्दे से भी ज्यादा महत्वपूर्ण इन मुद्दों पर सांसदों ने कभी ऐसा शोर नहीं मचाया जैसा अयोध्या के सवाल पर मचाते हैं ? क्या इसलिए कि यदि राजनीति की गंदगी साफ करने वाले सवालों पर शोर मचेगा तो बहुत सारी किश्तियां डूब जाएंगी ?
सारा देश जानता कि जैन हवाला कांड कश्मीर के आतंकवादियों से जुड़ा है और यह भी कि इस खतरनाक कांड की सीबीआई ने आज तक ठीक से जांच भी शुरू नहीं की। देश की राजनीति में अभूतपूर्व तूफान मचा देने वाले इस कांड की ईमानदार जांच की मांग को लेकर माननीय सांसदों ने पिछले सात वर्षों में एक बार भी वैसा तूफान नहीं मचाया जैसा अयोध्या कांड पर मचाया। शोर मचाना तो दूर 10 सांसदों ने एक जुट होकर कभी सरकार से इस कांड की जांच में कोताही करने वालों को सजा देने तक की मांग नहीं की, क्यों ? क्या वह उनका नैतिक फर्ज नहीं था ? क्या कश्मीर के आतंकवादियों को अवैध धन पहंुचाना उनकी नजर में जुर्म नहीं है ? क्या वजह है कि माननीय सांसदों को देश और देशवासियों की सुरक्षा की जरा भी चिंता नहीं है ? होती तो वे हवाला कांड पर इस तरह चुप्पी साध कर न बैठे रहते।
अयोध्या मुद्दे पर शोर मचाने वाले माननीय सांसदों को अगर धर्मनिरपेक्षता की ही रक्षा करनी है तो ऐसा क्यों है कि उनकी धर्मनिरपेक्षतासे मुस्लिम सांप्रदायिकता की दुर्गंध आती है ? धर्म के आधार पर चुनावों में टिकटों का बंटवारा करने में कोई पीछे नहीं रहता, शोर मचाने वाले दल भी। क्या इससे धर्मनिरपेक्षता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता ? क्या वजह है कि कभी भी इन सांसदों ने इस बात पर शोर नहीं मचाया कि चुनावों में धर्म और जाति के आधार पर टिकटों का बंटवारा करने पर रोक लगाई जाए। शायद ही कोई सांसद ऐसा होगा जो अपने चुनाव में सांप्रदायिकता का सहारा लेकर वोट न मांगता हो। फिर ये हाथी के दांत खाने के और व दिखाने के और क्यों?
अगर शोरमचाने वाले माननीय सांसदों को अल्पसंख्यक वोटों की ही राजनीति करनी है तो फिर धर्मनिरपेक्षता का आडंबर क्यों? क्यों नहीं स्वयं को साफ-साफ तौर पर मुस्लिम सांप्रदायिकता के संरक्षक राजनैतकि दल के रूप में मान्यता ले लेते हैं ? कम से कम फिर मुस्लिम समुदाय को तो यह पता चल ही जाएगा कि उनके हितैषी मुस्लिम लीग ही नहीं तमाम दूसरे दल भी हैं। जाहिर है कि शोर मचाने वाले सांसदों के दल इस बात से सहमत नहीं होंगे। क्योंकि सब जानते हैं कि केवल मुस्लिम वोटों की मदद से ही चुनाव नहीं जीते जा सकते। हर चुनाव में जीतने के लिए दूसरे संप्रदायों के वोटों की भी भारी कीमत होती है। फिर क्या वजह है कि पिछले पचास वर्षेंा में धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले राजनैतकि दलों ने एक बार भी बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की। समझना तो दूर इन मुद्दों पर बात करने वालों को ही सांप्रदायिकत करार दे दिया। उनकी इस नासमझी का सीधा लाभ भाजपा को मिला जो यह बताने में कामयाब हो गई कि केवल वही एक दल है जो हिंदुओं के धार्मिक हितों की चिंता करता है। विपक्षी दल आज फिर वही गलती दोहरा रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करवाना कोई भाजपा का एकाधिकार नहीं है। यह तो पूरे देश के बहुसंख्यकों की दबाई गई भावनाओं को सम्मान देने का सवाल है। जब तक अयोध्या, काशी और मथुरा के पवित्रा तीर्थस्थलों पर बनें भव्य मंदिरों को ध्वस्त करके जबरन बनाई गई मस्जिदें खड़ी रहेंगी तब तक हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी रहेगी।
मथुरा, अयोध्या व काशी में हिंदुओं के धर्मस्थालों पर बनी मस्जिदें दुनियां में बनी हजारों मस्जिदों की तरह ही तीन मस्जिदें हैं। जो मक्का मदीना, वेटिकन सिटी व हरमंदिर साहिब की तरह विशेष अहमियत नहीं रखतीं।  पर ये तीनां स्थान इस देश के सनातनधर्मियों को जान से भी ज्यादा प्यारे हैं। हर रोज लाखों तीर्थ यात्राी, दुनियां भर से, इन स्थानों पर अपनी आस्था के फूल चढ़ाने आते हैं। वहां खड़ी ये तीनों मस्जिदें उन्हें बार-बार उस घिनौने इतिहास की याद दिलाती हैं जब चंद लुटेरों ने इसलाम के नाम पर यहां खड़े मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था। इससे उनके जख्म फिर हरे हो जाते हैं। बचपन से जो नफरत पैदा होती है वह सारी उम्र बनी रहती है। इसलिए इस समस्या का शीघ्र और स्थायी समाधान निकाला जाना चाहिए । दोनों समुदायों को साथ बिठाकर प्रेम और सह अस्तित्व की बात करनी चाहिए ना कि  भावनाओं को भड़काने की। हर सवाल को वोट के तराजू में तौलना देश के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रहा है। अच्छी बात यह है कि मुस्लिम समाज में भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो इस बात से इत्तफाक नहीं रखते कि विवादित स्थलों पर नमाज अदा की जाए। धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाले अगर मुस्लिम समुदाय को भड़काएं न तो उनमें भी ज्यादातर लोग संजीदगी से इस समस्या का हल चाहते हैं। अयोध्या विवाद के शिखर के दौर में भी  देश के अनेक आम मुसलमानों ने खुल कर ये राय व्यक्त की थी कि थी अयोध्या में विवादित स्थल पर मस्जिद बनाने की जिद छोड़ देनी चाहिए। दुनिया के तमाम मुसलमान देशों में पुरानी मस्जिदों को बाइज्जत उठाकर दूसरी जगह ले जाया गया है। फिर यह भारत में क्यों नहीं हो सकता ? तेा फिर श्री वाजपेयी ने ऐसा कया कह दिया जो कि विपक्ष पर आसमान टूट पड़ा ?

Wednesday, December 13, 2000

एड्स के झूठे आंकड़े नाको ने देश को गुमराह किया

एड्स को लेकर देश में फैलाए जा रहे आतंक पर पिछले वर्ष इसी कालम में हमने दो लेख लिखे थे। इसी क्रम में जो ताजा जानकारी हाथ लगी है वो बेहद चैकाने वाली है। जैसा कि सर्वविदित है देश में एड्स के मामलों की खोज करना और रोकथाम करना सरकारी एजेंसी ‘नेशनल एड्स कन्ट्रोल आरगेनाइजेशन’ (नाको) की जिम्मेदारी है। नाको ही समय-समय पर एड्स सम्बन्धित आंकड़े प्रसारित करता रहता है। इन्हीं आंकड़ों को आधार मानकर एड्स की रोकथाम के नाम पर विदेशों से भारी मात्रा में ऋण लिया जाता है। यानी एड्स को लेकर देश में जो कुछ आज चल रहा है वह सब नाको के आधार पर ही है। पर अगर यह पता चले कि नाको झूठे आंकड़े प्रसारित करके न सिर्फ जनता में आतंक पैदा कर रहा है बल्कि एड्स नियंत्रण के नाम पर हो रहे सैकड़ों करोड़ के फर्जी खर्चों के लिए भी जिम्मेदार है, तो यह बहुत गम्भीर मामला है।

पिछले वर्षों में पूरी दुनिया में यह शोर मचाया जा रहा था कि भारत में 85 लाख लोग एड्स से पीडि़त हैं और तीन करोड़ लोगों को एड्स होने की सम्भावना है। इस तरह का प्रचार कोई सड़क छाप एजेंसी नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव श्री कोफी अनान व भारत के विदेश सचिव श्री ललित मानसिंह तक करते आए हैं। इतना ही नहीं संसद की ‘स्टैंडिग कमेटी’ ने दो वर्ष अध्ययन करने के बाद संसद में यह बताया कि देश में 81 लाख 30 हजार लोग एच.आई.वी. पोजिटिव हैं। पर पिछले दो वर्षों में भारत के कुछ जागरूक नागरिकों ने व एड्स के पीछे की साजिश को बेनकाब करने में जुटी संस्थाओं ने जब इन आंकड़ों का स्रोत पूछा और उनके सर्वेक्षण के वैज्ञानिक आधार को चुनौती दी तो घबरा कर नाको के निदेशक श्री प्रसाद राव ने घोषणा कर डाली कि दरअसल भारत में एच.आई.वी. पोजिटिव लोगों की संख्या 85 लाख नहीं हैं बल्कि कुल 35 लाख लोगों के एच.आई.वी. पोजिटिव होने की सम्भावना है। यह अपने आप में एक बहुत बड़ा घोटाला है। इससे यह साफ जाहिर है कि एड्स के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताकर देश के साथ एक खतरनाक साजिश की गई।

देश के साथ ऐसा धोखा पहली बार नहीं हुआ। साक्षरता अभियान, समेकित ग्रामीण विकास योजना, नसबन्दी कार्यक्रम जैसे तमाम कार्यक्रमों में उपलब्धियों के लम्बे चैड़े झूठे दावे पेश करके अरबों रूपए के घोटाले किए जाते रहे हैं। चूंकि एड्स के मामले में बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के हित शामिल हैं इसलिए इसमें और भी बड़े घोटाले करने की गुंजाइश है। एड्स का झूठा आतंक फैला कर अनेक अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसिया इंजेक्शन की सूई, कन्डोम व मंहगी दवाओं का कारोबार फैला रही हैं। चूंकि भारत की आबादी लगभग 100 करोड़ हो चुकी है इसलिए यह एड्स के नाम पर अरबों खरबों का कारोबार किया जा सकता है। अगर बात सिर्फ झूठा डर दिखा कर भारत की गरीब जनता से अरबों रूपया कमाने तक ही सीमित होती तो भी एक बात थी। पर इससे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि एड्स के मामले में धीरे-धीरे भारत की सरकार पर विदेशी सरकारों का नियंत्रण बढ़ाया जा रहा है। इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को एच.आई.वी. पोजिटिव बताकर आकारण ही अछूत बना दिया जा रहा है। जिससे न सिर्फ उनमें हीन भावना पैदा हो रही है बल्कि एक पूरी पीढ़ी को कुंठित कर दिया गया है। इस संदर्भ में पूर्वोत्तर भारत के कुछ राज्यों की कहानी बहुत बेचैन कर देने वाली है।

इन अन्तर्राष्ट्रीय बाजारी शक्तियों के हित साधने में नाको किस तरह जुटा हुआ है और अपना पूरा सरकारी तंत्र उनकी सेवा में झोंक दे रहा है उसका भी उदाहरण पूर्वोत्तर राज्यों खासकर मणिपुर की घटनाओं से समझा जा सकता है। 1996 में नाको ने बड़े दम-खम के साथ अपने आंकड़ों के आधार पर यह प्रचारित किया कि मणिपुर में प्रति हजार व्यक्तियों पर 177 लोग एच.आई.वी. पोजिटिव हैं यानी लगभग 18 फीसदी। जो जाहिरन एक बहुत ही खतरनाक स्थिति को दर्शाती थी। जब हर पांचवां व्यक्ति एच.आई.वी. ग्रसित हो ही गया तब तो मणिपुर में एड्स एक महामारी का रूप ले चुका है, ऐसा माना गया। नतीजा यह हुआ कि पूर्वोत्तर राज्यों को खासकर मणिपुर के लोगों पूरी दुनिया में एड्स ग्रस्त बताकर प्रचारित किया गया। जिसका भारी मनोवैज्ञानिक असर उन पर पड़ा। पूरे देश में मणिपुरी लोगों की छवि खराब हो गई। लोग उनसे बचने लगे। यह हाल हो गया कि पूर्वोत्तर राज्यों के खासकर मणिपुर के लोग अपने राज्य के बाहर जैसे दिल्ली, मुम्बई में अगर मामूली बुखार से भी पीडि़त हों तो डाक्टर उन्हें एच.आई.वी. टेस्ट करवाने के लिए मजबूर करने लगे। जिन्होंने इस त्रासदी को भोगा है वही इसका असर जान सकते हैं। पर जब जे.ए.सी. कन्नूर नाम की एक स्वयं सेवी संस्था ने पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर नाको द्वारा प्रचारित किए जा रहे है एच.आई.वी. पोजिटिव के आंकड़ों को बाकायदा चुनौती दी तो नाको प्रशासन हिल गया। घबराकर उन्होंने केन्द्रीय मंत्री डा. सी.पी. ठाकुर से बयान दिलवाया कि पिछले 15 वर्षों से पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर नाको जिन आंकड़ों को प्रचारित करता आया था दरअसल वे आंकड़े इतने वैज्ञानिक नहीं है इसलिए अब नाको नए आंकड़े दे रहा है जो ज्यादा वैज्ञानिक आधार पर इकट्ठा किए गए हैं। अपने बयान पर विश्वसनीयता का मुल्लमा चढ़ाने के लिए नाका ने श्री सी.पी. ठाकुर से यह भी बयान दिलवाया कि उसके ताजा आंकड़ों को क्वालालमपुर में हुए वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में स्वीकृति मिल चुकी है। अगर ताजा आंकड़े सही माने जाएं तो यह बात साफ हो जाऐगी कि मणिपुर देश का सबसे ज्यादा एड्स ग्रस्त राज्य न होकर सबसे कम एड्स ग्रस्त राज्य है। यह बात सही है तो पिछले 15 वर्ष से पूर्वोत्तर राज्यों खासकर मणिपुर के बारे में गलत आंकड़े प्रचारित करके नाको ने उन लोगों पर जो कहर ढाया गया उसका खामियाजा कौन भुगतेगा ?

एक तो वैसे ही पूर्वोत्तर राज्यों के मन में यह टीस रहती है कि उन्हें देश की मुख्य धारा से अलग-थलग पटक दिया गया है ऊपर से एच.आई.वी. के नाम पर नाको ने जो फरेब उनके साथ किया उससे उनका विश्वास केन्द्र की सरकार के प्रति बुरी तरह हिल गया है। अगर वह यह माने कि केन्द्र सरकार उन्हें बलि का बकरा बनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है तो इसमें गलत क्या होगा ? इसलिए सरकार की यह जिम्मेदारी है कि इसके लिए नाको के दोषी अधिकारियों को तलब किया जाना चाहिए और उनका अपराध सिद्ध हो जाने पर उनको सजा दी जाए। नाको के अधिकारियों ने आंकड़ों का जाल कैसे बुना इसका एक नमूना देख लेने से सारी साजिश साफ हो जायेगी।

1986 से 1996 तक नाको देश में एच.आई.वी. पोजिटिव की स्थिति पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सारे देश एकीकृत आंकड़े छापता आया था। इसलिए यह सम्भव नहीं था कि उसके आंकड़ों को क्षेत्र में जाकर परखा जा सके। ऐसा करने के लिए नाको जैसे ही एक समानान्तर राष्ट्रव्यापी संगठन की जरूरत होती। पर 1996 में नाको ने पहली बार हर प्रान्त के बारे में अलग-अलग आंकड़े प्रकाशित करने शुरू किए। जिनके आधार पर किसी एक इलाके में जाकर नाको के आंकड़ों की विश्वसनीयता को परखना सम्भव था। मणिपुर के मामले में वही किया गया और नाको अपनी जालसाजी में रंगे हाथ पकड़ा गया। घबड़ा कर उसने देश के सामने नए आंकड़े पेश कर दिए। पर एड्स की साजिश का पर्दाफाश करने में जुटे जागरूक लोग अब चुप बैठने वाले नहीं हैं। उनके कई सवाल हैं। वे पूछते हैं कि 1996 की वार्षिक रिपोर्ट में नाको ने यह दावा किया है कि 1986 से 1996 तक नाको ने मणिपुर में 40,557 लोगों की जांच की जिनमें से 3,712 लोगों को एच.आई.वी. पोजिटिव पाया गया। इस संयुक्त आंकड़े के आधार पर मणिपुर में हर 1000 लोगों पर 91.52 लोग एच.आई.वी. पोजिटिव माने गए। लेकिन 1998 में नाको ने जो अपनी वार्षिक रिपोर्ट दी उसमें जो 1986 से 1998 तक के संयुक्त आंकड़े (क्यूमेलेटिव) दिए उसमें कहा गया कि मणिपुर में 1986 से 1998 के बीच केवल 29,975 लोगों को ही एच.आई.वी. के लिए जांचा गया जिसमें से 5,327 लोग एच.आई.वी. पोजिटिव पाए गए। यानी प्रति 1000 में 177.71 लोग नाको के अनुसार एच.आई.वी. पोजिटिव थे। बिना आंकड़ों के मकड़जाल में फंसे अगर ऊपर की इन तीन पंक्तियों को ध्यान से पढ़ा जाए तो नाको की जालसाजी का पर्दाफाश हो जाता है। अगर 1986 से 1996 तक नाको ने कुल 40,557 लोगों को जांचा था तो 1986 से 1998 के दौरान जांचे गए कुल लोगों की संख्या जाहिरन 1996 के मुकाबले कहीं ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि इसमें 1996 तक के परखे गए लोगों के अलावा 1996-98 के दौरान परखे गए अतिरिक्त लोगों की संख्या भी जुड़ जाएगी। जाहिरन यह आंकड़ा 40,557 से कहीं ज्यादा होना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि नाको 1986 से 1998 तक के कुल परखे गए लोगों की संख्या बता रहा है 29,975। देशवासियों की आंख में धूल झोंकने का इससे बड़ा नमूना और क्या हो सकता है।

पूर्वोत्तर राज्यों की सीमाएं अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से मिलती हैं इसलिए हमेशा से विदेशी ताकतों की रूचि इन राज्यों में रही है चाहे वह किसी धर्म के प्रचार के नाम पर हों या पिछड़ी जातियों के सेवा के नाम पर। विदेशी ताकतों की इन साजिशों का काफी खामियाजा भारत को उठाना पड़ा है। इसलिए पूर्वोत्तर राज्यों में विदेशी एजेंसियों की घुसपैठ पर सरकार की निगरानी और नियंत्रण क्रमशः बढ़ा दिया गया था। पर नाको ने उन विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर देश के साथ गद्दारी की है। पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में एड्स के झूठे आंकड़े प्रचारित करके पहले तो नाको ने वहां एड्स का आतंक पैदा किया फिर विदेशी ताकतों को यह मौका दिया कि वे एड्स से निपटने के नाम पर पूर्वोत्तर राज्यों में नई-नई स्वयंसेवी संस्थाओं का जाल खड़ा कर सकें। इन संस्थाओं और एजेंसियों के मार्फत एड्स के नाम पर हजारों तथाकथित अध्ययन और सर्वेक्षण करवाए गए। इस तरह विदेशी एजेंसियां पूर्वोत्तर राज्यों में जो साजिश नहीं कर पा रही थीं वे नाको के सहयोग से करने में कामयाब हो गईं।

इस पूरी जालसाजी का सबसे बुरा असर मणिपुर की महिलाओं पर पड़ा। उनके मन में ये बैठ गया कि मणिपुर के नौजवान एड्स ग्रस्त हैं इसलिए उनसे शादी करना खतरे का सौदा रहेगा। दूसरी तरफ एड्स के भय से त्रस्त मणिपुर के अभिभावकों ने यह बेहतर समझा कि उनके बेटे आवारा घूमने के बजाय किसी छोटे-मोटे जुर्म के नाम पर जेलों में बन्द रहें तो बेहतर होगा। कम से कम वे सामाजिक तिरस्कार और कुंठाओं से तो बच सकेंगे। इस तरह एक पूरी नौजवान पीढ़ी को बिना अपराध इस त्रासदी को भोगना पड़ रहा है। जिसके के लिए पूरी तरह से सिर्फ नाको के आला अफसर जिम्मेदार हैं। जिन्हें मानवता के विरूद्ध ऐसे जघन्य षड्यंत्र के लिए बक्शा नहीं जाना चाहिए। ताकि फिर कोई सरकारी संस्था से जुड़े आला अफसर चांदी के चन्द टुकड़े कमाने के लिए देश को गिरवी रखने की गुस्ताखी न कर सकें। देखना यह होगा कि संसद के शीतकालीन सत्र में कितने सांसद नाको की इस बदमाशी के विरूद्ध आवाज उठाते हैं। विदेशी एजेंसियों के हाथ देश र्की अस्मता और संसाधनों के दोहन के प्रति चिंतित और जागरूक लोगों को भी नाको की इस साजिश के खिलाफ जमकर आवाज उठानी चाहिए ताकि न सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों को इन विदेशी एजेंसियों के षड्यंत्र से बचाया जा सके बल्कि शेष भारत में भी इनके खतरनाक पंजे को फैलने से पहले ही रोका जा सके। इस लेख में तो हमने केवल मणिपुर और पूर्वोत्तर के मामले में नाको की साजिश का खुलासा किया है पर आने वाले दिनों में हम बाकी के राज्यों में आम जनता के विरूद्ध किए जा रहे नाको के षड्यंत्रों का पर्दाफाश करने से संकोच नहीं करेंगे। ताकि जनता भी इन साजिशों से सावधान रहे।

Friday, December 8, 2000

एन विट्टल की छटपटाहट की वजह


केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एन. विट्टल प्रस्तावित विधेयक से बहुत परेशान हैं। उनकी सबसे बड़ी परेशानी की वजह है कि इस विधेयक के संसद में पारित हो जाने के बाद उनकी ताकत भी खत्म हो जाएगी। संसदीय समिति ने काट-छा¡ट कर जिस रूप में इस विधेयक को तैयार किया उससे इसकी सार्थकता ही समाप्त हो गई। इस विधेयक के  पारित हो जाने के बाद केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का पद एक बिना दांत और पंजे वाले शेर जैसा होगा। यानी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसियों पर नियंत्रण रखने या उन्हें आदेश देने का हक नहीं होगा। दरअसल, हवाला कांड के नाम से मशहूर (विनीत नारायण वर्सेज भारत सरकार) नाम के मुकदमें में जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को स्वायतत्ता देने की घोषणा की थी तो अंग्रेजी पत्रा-पत्रिकाओं ने इसका बढ़-चढ़ कर स्वागत किया था। कुछ ने तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को ऐतिहासिक बताया था। पर पाठकों को यह बताने की कोशिश किसी ने नहीं की कि यह फैसला दरअसल जैन हवाला कांड की सुनवाई के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने दिया और आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने हवाला कांड की जांच पूरी करवाए बिना ही भविष्य में स्वायत्त संस्था गठित किए जाने की व्यवस्था सुझा दी। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का मौजूदा स्वरूप इसी मुकदमें का परिणाम है। 

इस निर्णय से सीबीआई के उन भ्रष्ट अधिकारियों को कोई सबक नहीं मिला जिन्होंने हवाला कांड की जांच को वर्षों साजिशन दबाए रखा। बल्कि भविष्य के लिए तय हो गया कि सर्वोच्च न्यायालय की देख-रेख में भी भ्रष्ट अधिकारियों का कुछ नहीं बिगड़ सकता। सीबीआई को स्वायतत्ता देने की जो बात इस निर्णय में कही गई वह आज झूठ सिद्ध हो रही है। प्रस्तावित विधेयक में उक्त आदेश के तहत दिए गए प्रावधानों की उपेक्षा कर दी गई है। अब केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को वैसे अधिकार प्राप्त नहीं है जिनकी उम्मीद सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को सुनाते वक्त की थी। इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। देश की राजनीति और संसद के इतिहास की थोड़ी भी जांनकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय तब तक कानून नहीं बन सकता था जब तक संसद इस पर विधेयक पारित न कर दे। ऐसे तमाम उदाहरण है जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, जस्टिस कुलदीप सिंह ने 1800 सरकारी बंगलों के अवैध आवंटन को रद्द करने का फैसला दिया था। सरकारी भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस फैसले को धता बताते हुए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने एक अध्यादेश जारी करके ऐसे अवैध काम करने वालों को कानूनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तमाम दूसरे उदाहरण भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने तो हवाला कांड के मामले में यही किया कि चोर निकल कर भागा जा रहा हो और बजाए चोर को पकड़ने के शोर मचाएं, ‘भईया अगली बार ताला मजबूत लगाना।
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में जो मजबूत ताला लगाने का सपना सर्वोच्च न्यायालय ने देश को दिखाया था वह सपना अब हकीकत नहीं बन पाएगा। शरद पवांर के नेतृत्व में संसदीय समिति ने  केंद्रीय सतर्कता आयुक्त संबंधी विधेयक को काट-छाट कर भौंथरा बना दिया है। दरअसल, राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे मन से ये कतई नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार के मामले में राजनेता या उच्च पदों पर बैठे अफसर किसी जांच के दायरे में आएं। पर लोक-लज्जा के लिए उन्हें यह दिखावा करना पड़ता है। इसलिए नए-नए नामों से भ्रष्टाचार से लड़ने की बात की जाती है। फिर वो चाहे लोक आयुक्त बना कर हो या केंद्रीय सतर्कता आयुक्त। हर चुनाव से पहले हर दल का नेता और प्रधानमंत्री पद का हर दावेदार, जनता को यह आश्वासन देता है कि वह भ्रष्टाचार से लड़ेगा। क्योंकि राजनेता जानते हैं कि इस देश के करोड़ों लोग प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं। इसलिए भ्रष्टाचार के नाम पर चुनाव में जनता को बहकाना सबसे ज्यादा आसान होता है। यही कारण है कि जैसे ही चुनावों की घोषणा होती है सभी दलों के राजनेता, चाहे वो क्षेत्रीय दल के हों या राष्ट्रीय दल के, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के घोटाले उछालने में जुट जाते हैं। चुनाव जीतने के बाद फिर सब एक हो जाते हैं और एक-दूसरे को बचाने में लगे रहते हैं। इसलिए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त से संबंधित विधेयक पर चर्चा करते समय सांसदों को यही दिक्कत आ रही थी कि वे कैसे ऐसा प्रारूप बनाएं जिससे जनता में तो यह संदेश जाए कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटना चाहती है, पर असलियत में कुछ न हो, सब यथावत चलता रहे। इसलिए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की छटपटाहट जायज है।
परंतु इसके साथ ही आश्चर्यजनक रूप से श्री विट्टल को प्रस्तावित विधेयक के जिस अंश ने सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है वह यह है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पद से निवृत्त होने के बाद वे किसी लाभ के पद पर नहीं रह पाएंगे। उनकी शिकायत है कि जब सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों पर यह प्रतिबंध नहीं है तो केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पर क्यों ? श्री विट्टल का यह वक्तव्य पिछले दिनों सारे देश में छपा। तभी से श्री विट्टल के बयान को लेकर राजधानी में अनेक तरह की चर्चाएं चल रही हैं। जागरूक लोग श्री विट्टल के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि दूसरी बार सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें फिर एक और नौकरी की क्यों मिले ? आमतौर पर देखा जा रहा है कि उच्च संवैधानिक पदों पर से निवृत्त होने वाले उन्हीं लोगों को अच्छे पद देकर पुरस्कृत किया जाता है जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान  राजनेताओं के हित साधे हों। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिन उच्च संवैधानिक पदों के लिए यह प्रावधान आज उपलब्ध है उनके लिए भी यह सुविधा समाप्त कर दी जाए। न्यायालयों के न्यायधीशों का सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पदों पर बैठना न्याय व्यवस्था की पारदर्शिता के लिए घातक है। पर श्री विट्टल अपनी मांग पर अड़े हैं। दूसरी तरफ जिस तरह के उत्तेजक भाषा श्री विट्टल देश भर में सेमिनारों में जाकर दे रहे हैं, उससे लगता है कि मानो वे कितनी बड़ी क्रांति करने के लिए तैयार हैं। जबकि हकीकत यह है कि जब श्री विट्टल भारत सरकार में सचिव थे तब उन्हांेने कई वरिष्ठ व ईमानदार लोगों को चैन से काम नहंी करने दिया, ऐसा आरोप उनके कई साथी लगाते हैं। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर आने के बाद पिछले तीन वर्ष में श्री विट्टल ने भाषण देने का तो खूब रिकार्ड कायम किया पर ऐसा कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया जिससे देश की स्थिति में कोई बदलाव आता। मसलन, जिस हवाला कांड की बदौलत उन्हें ये पद मिला उसकी ही ईमानदार जांच करवाने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए। अगर श्री विट्टल यह तर्क देते हैं कि उनके पास पर्याप्त अधिकार नहीं है तो उन्हें बजाए भावनात्मक भाषण देने के देश का हर मंच से यह बार-बार बताना चाहिए कि जब बड़े-बड़े कांड जानबूझ कर दबा दिए गए तो मैं ही क्या कर पाउंगा ? पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा।
इस देश में तमाम ऐसे लोग हैं जिन्होंने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर बैठे बिना भी व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए अथक प्रयास किए और भारी सफलता प्राप्त की। यदि श्री विट्टल इस लड़ाई में जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित कर लेते तो भी कुछ बात बनती। पर संसद उन्हें ताकत देगी नहीं। व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत उन्होंने तब नहीं दिखाई जब वे इसी व्यवस्था का अंग थे। जनता को हवाला कांड जैसे महत्वपूर्ण कांडों की वास्तविकता से परिचय कराने की बजाए उपदेश देने में उनकी उर्जा ज्यादा लग रही है। अब वे इस कार्यकाल के बाद एक तीसरे पद की प्राप्ति के लिए बेचैन लग रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यह कहां स्पष्ट होता है कि श्री विट्टल वास्तव में व्यवस्था में सुधार चाहते हैं। इससे तो यही लगता है कि वे सुधार का मुखौटा ओढ़ कर भविष्य के लिए एक और नौकरी सुनिश्चित करना चाहते हैं। इसलिए इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि संसद उन्हें पूरी ताकत दे या न दे। यदि वास्तव में श्री विट्टल इस देश की व्यवस्था में व्याप्त अनैतिकता और गंदगी साफ करना चाहते हैं तो उन्हें अपनी इस नाकारा और शक्तिहीन नौकरी का मोह त्याग कर सड़कों पर उतर जाना चाहिए। पर वे ऐसा नहीं करेंगे। अपना पूरा कार्यकाल सेमिनारों में भाषण देकर पूरा कर देंगे। देश को न तो खुदा ही मिलेगा, न बिसाले सनम। रहे वही ढाक के तीन पात।  श्री विट्टल के इस रूदन से कोई भी विचलित नहीं हो रहा न तो सरकार ही और न ही जनता।

Friday, December 1, 2000

संधू जैसे अफसर हर शहर में क्यों नहीं ?

जिस देश में राजनेता अपना घर भरने में लगे हों, अफसरशाही उनकी कमजोरी का फायदा उठाकर ऐशो-आराम में लिप्त हो उस देश में कोई जरा भी लीक से हटकर ठीक काम करने वाला अफसर अगर कहीं तैनात हो जाता है तो वह रातोंरात जनता का हीरो बन जाता है। इनमें से कुछ अफसर तो किरण बेदी की तरह केवल अपनी नौकरी और काम से लगातार सुर्खियों में रहते हैं और कुछ अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाकर राजनीति में जोर आजमाइश भी कर लेते हैं। जैसे बडौदा के मशहूर पुलिस कमिश्नर रहे जसपाल सिंह गुजरात की भाजपा सरकार में मंत्री हैं। इससे यह तो साफ है कि आज भी अपनी जिम्मेदारी को तत्परता से निभाने वाला घाटे में नहीं रहता। उसे अच्छे काम का इनाम फौरन और कई तरह से मिल जाता है। इस क्रम में एक नया नाम जुड़ा है सुखबीर सिंह संधू का। इस नौजवान आई.ए.एस. अधिकारी ने दो साल में ही पंजाब के लुधियाना शहर की कायाकल्प कर दी। साढे़ तीन सौ करोड़ रूपये कीमत की सरकारी जमीन अवैध कब्जों से मुक्त करायी। शहर के रास्तों और जनसुविधाओं को कम समय में तेजी से सुधारा। सबसे बड़ा काम जो श्री संधू ने किया वह है लुधियाना की रोज़ सफाई की माकूल व्यवस्था। लुधियाना वासियों को अपना ही शहर देखकर यह विश्वास नहीं होता कि गन्दगी के ढेर के नीचे दबे रहने वाला यह शहर रातो-रात सफाई की मिसाल कैसे बन गया ? इसके लिए श्री संधू ने रात-दिन एक कर दिया। आज भी वे रात के बारह बजे तक लुधियाना की सफाई रोज़ खुद सुनिश्चित करते है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ वर्ष पहले प्लेग फैलने के बाद सूरत के म्युनिस्पल कमिश्नर श्री राव ने किया था। श्री राव भी देर रात तक निगम के कार्यालय में बैठकर कंट्रोल रूम चलाते थे। उन्होंने भी सूरत की रातों-रात कायाकल्प कर दी थी। इन दोनों के ही प्रयासों में जो खास बात है वह यह कि इन्होंने नगर की सफाई को अपने लिए चुनौती मानकर कुछ अनूठा कर दिखाने का इरादा बनाया। दोनों ने ही सफाई कर्मचारियों के प्रारम्भिक विरोध के बाद धीरे-धीरे उन्हें इस बात के लिए पे्ररित किया कि वे रात में मेहनत और तत्परता से अपने फर्ज को अंजाम दें। दोनों ने ही निकम्मे सफाई कर्मचारियों को सज़ा और काम में मुस्तैदी दिखाने वाले सफाई कर्मचारियों को नियमित रूप से सार्वजनिक सभा में पुरस्कृत करने का काम लगातार किया। जिससे अच्छे और जिम्मेदार कर्मचारियों का मनोबल बढ़ा और निकम्मे कर्मचारियों को सार्वजनिक रूप से दंड सहना पड़ा। इसके चैंकाने वाले परिणाम आये। दोनों ने ही अपनी योजना में स्थानीय नागरिकों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की। जिससे न सिर्फ नागरिक सफाई कर्मचारियों पर निगरानी रखने का काम करने लगे बल्कि उन्हें भी सफाई की व्यवस्था में जिम्मेदारी सौंपी गई। नतीजतन उन नागरिकों में भी जिम्मेदारी का भाव आया जो अपने पड़ौस में गन्दगी फैलाने में उस्ताद थे। शुरू में इन दोनों अधिकारियों को राजनेताओं के विरोध को सहना पड़ा, पर दोनों ने बड़ी होशियारी से स्थानीय नेताओं को समझाया कि इस प्रयास से उनकी राजनैतिक साख बढ़ेगी ही, उन्हें नुकसान नहीं होगा। 

इन प्रयोगों से यह बात सिद्ध होती है कि नगरों की सही सफाई रात में ही हो सकती है, क्योंकि रात में जब सारा शहर सो जाता है। सड़कों पर हलचल खत्म हो जाती है तब सफाई कर्मचारियों के लिए काम करना बेहद सुविधाजनक होता है। उनकी कूड़ागाडि़या भी आसानी से आ जा सकती हैं। जबकि दिन निकलने के बाद सफाई करना एक खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं होता। सड़कों पर चलती भीड़ और वाहन, बाजारों में खरीदारों की चहल-पहल, काम पर जाने वाले लोगों की आवाजाही इतना व्यवधान पैदा करती हैं कि सफाई कर्मचारी हाथ चला ही नहीं सकते। सैकड़ों सालों से भारत के सभी नगरों में यही व्यवस्था चलती आई थी। सफाई देर रात या सूर्योदय से बहुत पहले हो जाती थी। सफाई के बाद भिश्ती सड़कों पर पानी छिड़कते थे ताकि धूल बैठ जाए। सुबह सवेरे सोकर उठने वाले, विद्यालय जाने वाले, व्यायाम या टहलने जाने वाले लोगों को सड़कें साफ मिला करती थीं। पर पिछले वर्षों में कुछ राजनेताओं ने अपनी जिद से इस चलती आई व्यवस्था को बदल दिया। इन राजनेताओं का तर्क था कि सफाई कर्मचारी भी अन्य विभागों के कर्मचारियों की तरह ही देर से काम पर आऐंगे क्यों कि उन्हें भी अपने परिवार के साथ समय बिताना होता है। यह एक वाहियात तर्क है। हर व्यवसाय की अपनी मांग होती है। सब जानते हैं कि जब वे रेलगाडि़यों, बसों, हवाई जहाजों में रात में सफर करते हैं तो उन्हें सूचना देने, टिकट बेचने, सीट देने या उनका सामान उठाने कोई मशीने नहीं आतीं। देश भर में लाखों कर्मचारी जिनमें पुरुष और महिलाएं शामिल हैं इन व्यवसायों में सारी रात मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं। इसी तरह टेलीफोन आपरेटर भी, अस्पताल के नर्स, वार्ड ब्वाय, डाक्टर भी रात भर ड्यूटी करते हैं। अखबार में खबर लिखने वाले या उसका सम्पादन कर उसे छापने वाले अगर यह तर्क दें कि हमें भी अपने परिवार के साथ समय बिताना होता है इसलिए हम रात की ड्यूटी नहीं करेंगे, तो न तो सुबह लोगों को अखबार ही पढ़ने को मिलेगा और न रात के एक बजे टेलीविजन पर किसी आकस्मिक दुर्घटना की ताजा खबरें देखने को मिलेंगी। बर्फ की खन्दकों में गले तक धंसे रह कर भी हमारी सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिक अगर यह कहने लगें कि हम तो रात में आराम करेंगे केवल दिन में ड्यूटी करेंगे तो शायद देश की सीमाएं सुरक्षित न रह पायें। दुश्मन की फौजें रात ही रात में हमारी जमीन पर कब्जा कर लेंगी। हर व्यवसाय की मांग के अनुरूप कर्मचारियों को काम करना होता है। उसमें अगर-मगर नहीं चलता। इसलिए जिन अधिकारियों की यह जिम्मेदारी है कि शहर साफ रहे और जिन कर्मचारियों को शहर साफ करने की तनखाह दी जाती है उनका यह फर्ज है कि उनका शहर हर सुबह साफ और तरोताजा दिखाई दे। जाहिरन इसके लिए हर शहर के सम्बन्धित अधिकारियों और कर्मचारियों को देर रात तक जागकर सफाई करनी ही चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं और उनका शहर गन्दा नजर आता है तो इसके लिए वे न सिर्फ जिम्मेदार हैं बल्कि उनके विरूद्ध कामचोरी, ड्यूटी की उपेक्षा करना जैसे आरोप लगाकर प्रशासनिक और कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। क्योंकि न सिर्फ वे कामचोरी कर रहे हैं बल्कि बिना काम के वेतन भी वसूल रहे हैं। इस तरह वे जनता के टैक्स के पैसे पर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जैसे घर में चोर पकड़े जाने पर हम शोर मचा देते हैं, पुलिस बुला लेते हैं, वैसे ही निकम्मे कर्मचारियों और अफसरों को देख कर हर नगर की जनता को सामूहिक रूप से शोर मचाना चाहिए और उनके खिलाफ जगह-जगह लिखकर शिकायतें करनीं चाहिए। जब कोई अधिकारी व उसकी टीम के कर्मचारी सुखबीर सिंह संधू की तरह कम समय में ही अच्छा काम करके दिखाते हैं तब पता चलता है कि बाकी के शहरों में जो अधिकारी या कर्मचारी तैनात हैं वे कितने निकम्मे और कामचोर हैं। दरअसल कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है। लोगों के वोटों से ही वार्डों के प्रतिनिधि, नगरपालिकाओं के अध्यक्ष, विधायक और सांसद चुने जाते हैं पर जीतने के बाद ये तथाकथित जनप्रतिनिधि सत्ता के दलालों या अलग-अलग तरह के माफियाओं के ही प्रतिनिधि रह जाते हैं। जनता की इन्हें सुध भी नहीं रहती। पर इसके लिए ये लोग नहीं जनता ही दोषी है जो मान लेती है कि वोट देकर उसका काम खत्म हो गया। असली काम तो चुनाव के नतीजे आने के बाद शुरू होता है। तब यह देखना होता है कि जिन वायदों को करके ये जनप्रतिनिधि चुनाव लड़े थे उनमें से कितनों को ये पूरा करवा रहे हैं। कोताही देखते ही इनके विरूद्ध शोर न मचाकर जनता खुद ही अपने को कमजोर करती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि सभी चुने हुए प्रतिनिधि या अफसर निकम्मे होते हैं। जो काम करवाना चाहते हैं उन्हें अपने सहयोगियों का तो सहयोग मिलता ही नहीं है जनता में से भी बहुत सारे लोग मदद करने सामने नहीं आते। कुछ कमी इनकी भी होती है कि ये जनता को विश्वास में लेकर उसे जिम्मेदारी सौंपने से कतराते हैं। शायद इन्हें डर लगता हो कि अगर जनता को हवलदार बना दिया तो अपनी नौकरी चला पाना खतरे में पड़ जायेगा। पर सुखबीर सिंह संधू जैसे युवा अधिकारी उनकी इस आशंका को निर्मूल करते हैं। जिस किसी अधिकारी ने जनता के हित में ईमानदारी से काम किया उसे जनता ने सर-आंखों पर बिठा लिया। इसलिए पहल उसे ही करनी होगी जिसके हाथ में शक्ति और साधन है। भीड़ उसके पीछे हो लेगी।
पर दुख की बात तो यह है कि आम शहरों की क्या बिसात जब देश के जाने-माने तीर्थस्थल ही गन्दगी के ढेर में दबे पड़े हैं। मन्दिर, मस्जिद, गिरजों के नाम पर धर्म की पताका फहराने का दम्भ करने वाले भी तीर्थस्थानों की सफाई का इन्तजाम करना अपनी शान के खिलाफ मानते हैं। वृन्दावन में पाँच हजार मन्दिर हैं। यह शहर रात को 9 बजे सो जाता है और सुबह 4 बजे से वृन्दावनवासी और बाहर से आये तीर्थयात्री नहाधोकर विभिन्न मन्दिरों में मंगल-आरती के दर्शनों के लिए दौड़ पड़ते हैं। पर ऐसे तीर्थस्थानों पर भी उन्हें सड़कों पर बिखरे कूड़े, उफनती नालियों और गन्दगी फैलाते सुअरों के बीच से कूद-कूद कर जाना होता है। पर किसी अधिकारी या जनप्रतिनिधि को शर्म नहीं आती। कोई धनी या साधन सम्पन्न व्यक्ति गंदगी के आसपास रहना पसंद नहीं करता। जब ये धनी लोग ही गन्दे इलाकों में नहीं रहते तो जो सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो सकल ऐश्वर्य का स्वामी है, वो भगवान या खुदा गन्दे धर्म क्षेत्रों में कैसे रह सकता है ? उसे क्या मजबूरी है ? उसे क्या गर्ज पड़ी है कि वह कूड़े के ढेर में अपने नाक पर रूमाल रखकर खड़ा रहे सिर्फ इसलिए कि उसके सेवायत पुजारियों, मौलवियों, पादरियों का धन्धा चल रहा है ? उसे क्या गर्ज कि वह उस जनता को आशीर्वाद देने कूड़े से घिरे मन्दिर या मस्जिद में बैठकर लोगों की उम्मीदें पूरी करे ? उसे कोई इस गन्दगी के बीच बैठने को मजबूर नहीं कर सकता। इसलिए विभिन्न धर्मों के अनुयाइयों को तो इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उनके पूजा स्थलों से दूर-दूर तक गन्दगी का नामोनिशान न रहे। इस मामले में सिक्खों का उदाहरण सबके लिए अनुकरणीय है। जो लोग अपने को किसी विशिष्ट धर्म का होने पर गर्व करते हैं उनके लिए तो यह और भी चुनौती है कि वे अपनी आस्था के केन्द्रों को साफ और सुव्यवस्थित रखें। सिक्ख धर्म का मानने वाला चाहे उद्योगपति हो या मंत्री, गुरू के द्वार पर सब समान हैं। सबको कर सेवा करनी ही होती है।
आज जबकि टेलीविजन के तमाम चैनल चल पड़े हैं। कई चैनलों के पास तो ढंग के कार्यक्रम तक नहीं हैं। ऐसे सभी टी.वी. चैनलों को सुखबीर सिंह संधू जैसे कर्मठ नौजवान के अनुभवों और सुझावों को इस तरह प्रसारित करना चाहिए कि वे अन्य नगरों के अधिकारियों के लिए भी पे्ररणास्पद बन सकें। किसी एक नगर में एक संधू या एक राव पैदा होकर देश भर की गन्दगी तो नहीं साफ कर सकते पर शेष देश के अधिकारियों और नागरिकों को राह तो दिखाई ही सकते हैं। कहते हैं खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। लुधियाना शहर में सुखबीर सिंह संधू की सफलता के बाद देखना यह है कि कितने नगरों के कर्मचारी, जनप्रतिनिधि व अधिकारी श्री संधू से पे्ररणा लेकर अपने-अपने नगरों को लुधियाना या सूरत की तरह रातों-रात नर्क से स्वर्ग में बदलते हैं। जो इस काम में दिलचस्पी नहीं लेते या अपने अधीन कर्मचारियों को कर्तव्य पालन करने की पे्ररणा नहीं देते वे सब लोग मक्कार हैं, कामचोर हैं और नगरवासियों पर बोझ हैं। उनकी खबर ली जानी चाहिए ताकि उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो। तभी कुछ बात बनेगी। वैसे एक शायर ने कहा है:
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
पूरे देश के तमाम शहर आज अपनी बेनूरी पर रो रहे हैं। देखें कितने संधू दीदावर बनकर पैदा होते हैं ?