Friday, October 20, 2000

नरसिंह राव को सजा के मायने


आखिरकार विशेष अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंह राव को झारखंड रिश्वत काण्ड में 3 वर्ष की सख्त सजा सुना ही दी। इस खबर को अलग-अलग हल्कों में अलग-अलग तरह लिया गया। जहाँ देश की जनता ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि चलो कम से कम बड़े राजनेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में सज़ा मिलने का सिलसिला शुरू तो हुआ। वहीं राव के राजनैतिक विरोधियों के बीच जाहिरन हर्ष की लहर दौड़ गयी। इस मुद्दे पर कांग्रेस समिति के अधिकृत प्रस्ताव में श्री राव का वह बहुप्रचारित जुमला जान-बूझ कर दर्ज किया गया कि कानून अपना काम करेगा। यह बात श्री राव ने जनवरी 1996 में तब कही थी जब हवाला-काण्ड में आरोपित दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों व विपक्ष के नेताओं ने उन पर हल्ला बोला था। इस पूरे मामले में कई दिलचस्प पहलू हैं।

सबसे अजीबो-गरीब बात यह है कि कांगे्रस सरकार को बचाने के लिये झारखण्ड-रिश्वत काण्ड में जिन लोगों ने श्री राव के साथ मिलकर रिश्वत देने का यह काम किया था उन्हें सी.बी.आई. के लचरपन के चलते छोड़ दिया गया। मसलन श्री भजन लाल, श्री ललित सूरी श्री सतीश शर्मा आदि। दूसरी रोचक बात यह है कि रिश्वत लेने वालों को सजा नहीं मिली। अलबत्ता न्यायाधीश अजीत भरिहोक के फैसले से इस रिश्वत काण्ड में दी गई रकम के बैंक खाते फिलहाल जब्त कर लिये गये हैं। इतना ही नहीं अदालत ने सी.बी.आई. को रिश्वत लेने वालों के खिलाफ पुनः ठीक से जांच करके आरोप पत्र दाखित करने की हिदायत दी है। इस काण्ड ने एक बार फिर तय कर दिया है कि सी.बी.आई. केवल सत्ताधारी दल के हाथ की कठपुतली की तरह काम करती है। इस झारखण्ड रिश्वत काण्ड के शुरू में ही सी.बी.आई. ने कुछ इस तरह की कारिस्तानियां की कि श्री राव व श्री बूटा सिंह को छोड़कर बाकी सब आरोपियों के निकल भागने का रास्ता बनाया जा सके। मसलन जब इस मामले में सर्वोच्च अदालत ने यह कहा कि अविश्वास प्रस्ताव पर मत देना संसद के भीतर की गयी कार्यवाही है और इस मामले में अदालत कोई दखलंदाजी नहीं कर सकती। उसी समय यदि लोक-सभा के अध्यक्ष से इस मामले को आगे बढ़ाने या ना बढ़ाने की अनुमति मांगी जाती तो शायद कोई भी इसमें नहीं फंसता। इतना ही नहीं रिश्वत लेने वाले श्री शिबू सोरेन को मुखबिर बनाने के बाद यह आश्चर्यजनक है कि उन्होंने केवल श्री राव व श्री बूटा सिंह को ही अपराधी बताया और बाकी के नाम दबा गये। इस काण्ड के लिए रिश्वत की रकम मुहैया कराने वालों को भी सी.बी.आई. ने नहीं पकड़ा। जबकि जिन्दल पाईप, वीडियोेकाॅन, एस्सार, रिलाइन्स व बिन्दल एग्रोे जैसे कई उद्योग समूहों के प्रतिनिधियों ने रकम दी थी यह बात सी.बी.आई. से कैप्टन सतीश शर्मा के अतिरिक्त निजी सचिव ई. सफाया ने अपने बयान में कही है। जबकि इस काण्ड में और कौन लोग शामिल थे यह बात जग जाहिर है फिर किसके निर्देश पर सी.बी.आई. ने इन राजनेताओं को बचाया है ?

लोग कयास लगा रहे हैं कि अब श्री राव का भविष्य क्या होगा ? यदि पिछले 5 वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो यह साफ हो जायेगा कि बड़े स्तर के राजनैतिक अपराधियों को सजा देने का माहौल अभी नहीं बन पाया है। पेट्रोल पम्पों के अवैध आवंटनों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री कैप्टन सतीश शर्मा को जो सज़ा सुनाई थी और उन पर जो 50 लाख रू. का जुर्माना ठोका था वह निर्णय खुद सर्वोच्च न्यायालय ने ही पलट दिया। इसी तरह जैन बंधुओं की जिन खाता पुस्तकों को इतना महत्वपूर्ण मानकर सर्वोच्च अदालत ने जिस हवाला काण्ड को पूरी दुनियां की खबरों में ला दिया थां उन्हीं खाता पुस्ताकें को उसी सर्वोच्च न्यायालय ने नाकाफी सबूत मानकर सभी हवाला आरोपियों के आरोप मुक्त होने के रास्ते साफ कर दिये। ऐसे ही तमाम दूसरे उदाहरण हैं इसलिये यह मानने का कोइ्र विशेष आधार नहीं है कि अन्ततोगत्वा श्री राव को सजा मिल ही जायेगी।

दरअसल अभिजात्य राजनैतिक वर्ग में एक गोपनीय आपसी समझौता होता है। राजनेता चाहे किसी भी दल का क्यों ना हो उसकी एक ही जात हो जाती है। कोई राजनेता नहीं चाहता कि दूसरे राजनेता को भ्रष्टाचार के मामले में सज़ा मिले। चूँकि हमाम में सभी नंगे हैं इसलिए उन्हें यह डर होता है कि आज अगर एक जेल गया तो कल मेरी बारी भी आ सकती है। राजनेता या दल केवल उन्हीं मामलों में शोर मचाते हैं जिनमें किसी एक दल के कुछ नेता फंसे हों। उनका मकसद अपने राजनैतिक विरोधियों को सजा दिलवाना नहीं बल्कि उस मुद्दे पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकना ही होता है। इसका सबूत वे दर्जनों घोटाले हैं जिनपर 50 वर्षों में वर्षों शोर मचा पर आज तक किसी भी राजनेता को अन्त में जाकर सजा नहीं मिल पाई। श्री राव के मामले में भी यही माना जा रहा है कि हवाला काण्ड के आरोपी राजनेताओं ने उनको आज इस स्थिति में लाकर खड़ा किया है ताकि वे श्रीराव के उस रवैये की उन्हें याद दिला सकें जब ये तमाम राजनेता हवाला-काण्ड मे आरोपित हुए थे और श्री राव ने यह कहकर इनकी मदद करने से इन्कार कर दिया था कि कानून अपना काम करेगा। वैसे राष्ट्र के हित में तो यही होगा कि न सिर्फ श्री राव बल्कि झारखण्ड-रिश्वत काण्ड मे शामिल हर व्यक्ति के खिलाफ ईमानदारी से जांच हो और  अपराधियों को कानून के मुताबिक सजा दी जाये। इससे एक लाभ और होगा कि हवाला-काण्ड जैसे जिन बड़े काण्डों को बहुत बेशर्मायी और बेईमानी से दबवा दिया गया उनके फिर से उठ खड़े होने का माहौल बन जायेगा। इस बात के तमाम सबूत हैं कि इन काण्डों में तथ्यों और सबूतों को दबाकर राजनेताओं के निकल भागने के रास्ते बनाए गये थे।

इतना ही नहीं श्री अटल बिहारी वाजपेयी भ्रष्टाचार को निर्मूल करने का वायदा करके प्रधानमंत्री के पद पर बैठे थे। आज उनका भी यह फर्ज है कि वे अपने आधीन सी.बी.आई. की कार्य प्रणाली को पारदर्शी बनाएं। सी.बी.आई. के कब्रगाह में सैकड़ों ऐसे मामले दबे पड़े हैं जिनमें देश के तमाम बड़े नेता शामिल हैं। इस तरह सी.बी.आई. के पास दर्ज मामलों पर एक श्वेत-पत्र जारी किया जाना चाहिये। पर यह सोचना कि ऐसा हो पाएगा एक स्वप्न से अधिक कुछ नहीं है। राजनीति आज भ्रष्टाचार की दलदल में जितनी गहराई तक डूब चुकी है उतनी गहराई तक जाकर उसकी सफाई करने की क्षमता, हौसला या इचछा आज किसी भी राजनेता में नहीं है। चाहे वह किसी भी दल का हो या उसकी निजी छवि कैसी भी हो। सब समझौते किये बैठे हैं। कोई दूसरे की फटी चादर में उंगली नहीं डालना चाहता। हर स्तर पर राजनेता भ्रष्टाचार का पोषण करने मं जुटा है जबकि जनता के सामने अपने भ्रष्टाचार विरोधी होने की तस्वीर पेश करता है। वैसे जनता को भी अब कोई भ्रम नहीं बचा है। इसलिये उसके मन में राजनेताओं के प्रति अब न तो आदर बचा है और न आकर्षण। इसका प्रमाण यह है कि आज राजनेताओं को जनसमर्थन खरीदना पड़ता है, उन्हें स्वतः नहीं मिलत। यही कारण है कि चुनाव जीतने के बाद राजनेता देश के 100 करोड़ लोगों को भूल जाते हैं। उन वायदों को भी भूल जाते हैं जिन्हें करके वे चुनाव जीते थे। उन्हें तो बस एक ही बात याद रही है कि राजनीति में शामिल वर्ग ही उनकी असली बिरादरी है और वे जो भी करें इसी बिरादरी के फायदे के लिये होना चाहिये। यही कारण है कि चुनाव के पहले जो राजनेता जनता के सामने अपने विरोधियों को हर तरह से नीचा दिखाने में जुटे रहते हैं वे ही राजनेता चुनाव के बाद उन्हीं प्रतिद्वन्द्वी राजनेता को गले से लगाकर हमजोली हो जाते हैं। चूंकि श्री राव के कार्यकाल में कुछ ऐसा माहौल बन गया कि बहुत से मंत्रियों व अन्य राजनेताओं को अदालतों के सामने नीचा देखना पड़ा इसलिए पारस्परिक संरक्षण की राजनैतिक परम्परा टूट गई और श्री राव पूरी राजनैतिक जमात की आंख की किरकिरी बन गये। ऐसा नहीं है श्री राव का दामन साफ था यूरिया घोटाला, सैंट-किट्स व हर्षद मेहता काण्ड ने भी उन पर काफी उंगलियां उठी थीं इसलिये भी उन्हें अपने साथी राजनेताओं के आक्रोश का शिकार होना पड़ा।

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि यह जानते हुए भी कि हमारी राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह सड़कर चरमरा चुकी है फिर भी कोई इस स्थिति में सुधार करने की नहीं सोच रहा। जो ऐसा सोचते हुए टी.वी. के पर्दों पर दिखाई देते हैं वे प्रायः नाटक से ज्यादा कुछ नहीं करते। अगर करते होते तो इतने सारे लोग मिलकर अब तक हालात में कबका सुधार कर चुके होते। हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और। इसलिये चाहे छात्र तों या बेरोजगार युवा, किसान, मजदूर हों या जागरूक नागरिक, जो भी इस देश की बिगड़ी दशा सुधारना चाहता है उसे ही साझी पहल करनी होगी। सी.बी.आई., संसद, न्यायपालिका, व प्रधानमंत्री से उम्मीद करना कि वे भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े काण्डों में लिप्त राजनेताओं को सजा दिलवा पायेंगे, बचकानी सोच होगी। फिर चाहे वह नरसिंह राव की बात हो, लालू की हो या किसी और की। ये जेल भी जाते हैं तो एक पांच सितारा बंगले में रहते हैं। कहते हैं कि सफेदपोश अपराध वह अपराध होता है जिसे करने वाले को उसकी ताकतवर हैसियत के कारण सज़ा न दी जा सके। फिर भी हम हिन्दुस्तानी चाहतेे हैं कि भगत सिंह पैदा हो, पर पड़ौसी के घर।

Friday, October 13, 2000

आर.एस.एस. के लिए एजेन्डा


देश भर के सत्तर हजार स्वयं सेवकों को आगरा बुलाया गया है। उद्देश्य है उनके हौसले बनाये रखने का। वैसे तो संघ को दिशा निर्देश देने का काम इसके सर संघ चालक का है। वे ऐसा करेंगे भी। पर पत्रकार या साहित्यकार समाज का दर्पण होते हैं। जो बात किसी संगठन के भीतर रह कर महसूस नहीं की जा सकती वह बाहर से देखने वाला महसूस भी कर सकता है और उसका समाधान भी बता सकता है।

अभी दशहरे पर संघ के सर संघ चालक श्री सुदर्शन जी ने अपने वार्षिक अधिवेशन में नागपुर में देश के मुसलमानों और ईसाईयों का आह्वान किया कि वे अपना भारतीयकरण कर लें। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले दिनों सत्तारूढ़ दल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण ने मुसलमानों का खुले हृदय से भाजपा में स्वागत किया। उनका यह कदम संघ की घोषित नीतियों से मेल नहीं खाता। निश्चय ही इससे संघ के कार्यकर्ताओं में हताशा फैली। सुदर्शन जी ने इस बिगड़ी स्थिति को संभालने के लिए ऐसा कहा होगा।

सोचने वाली बात यह है कि जब संघ लगातार यह कहता आया है की यह राजनैतिक संगठन न होकर व्यक्ति और राष्ट्र के निर्माण के लिए समर्पित एक संगठन है तो इसके स्वयं सेवकों में एक राजनैतिक दल भाजपा के पतन को देखकर इतनी हताशा क्यों है ? भाजपा की छवि बनें या बिगड़े, संघ की सेहत पर क्यों असर पड़ना चाहिए ? दरअसल इस दर्द के पीछे एक महत्वपूर्ण बात छिपी है। आज से 75 वर्ष पहले जब डाॅ. हेडगेवार जी ने संघ की स्थापना की थी तो व्यक्ति निर्माण को इसका मुख्य उद्देश्य बताया था। किसी प्रयोगशाला से बन कर निकली एक वस्तु की गुणवत्ता का पता तो तभी चलता है जब वह वस्तु सामान्य जन द्वारा उपयोग में लाई जाती है। मसलन एक छाता निर्माण करने वाली प्रयोगशाला अगर यह दावा करे कि उसके बनाए छाते को भेद कर पानी नीचे नहीं टपकेगा, लेकिन जब वह छाता बारिश में लेकर निकला जाए तो उसका कपड़ा बरसात की मार न झेल सके, तो यह माना जाएगा कि प्रयोगशाला में ही कोई कमी रह गयी। संघ के कार्यकर्ताओं के मन में आज यही सवाल घुमड़ रहा है। उनको यह विश्वास था कि संघ रूपी प्रयोगशाला से निकले स्वयं सेवक जब राजनेता बनेंगे तो कांगे्रस या जनतादल की तरह अपनी दुर्गति न करवाकर सार्वजनिक जीवन के उच्च मानदण्डों की स्थापना करेंगे। पर हुआ उसके विपरीत। अब संघ के कार्यकर्ताओं के मन में संघरूपी प्रयोगशाला की विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा हो गया है। संघ का नेतृत्व चाहे जो सफाई दे स्वयं सेवक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि भाजपा के नेता इससे बेहतर आचरण नहीं कर सकते। जब वे जानते हैं कि इसी व्यवस्था में केन्द्रीय मंत्री बनीं सुश्री ममता बनर्जी बिना बंगले, सरकारी गाड़ी और अमले और बिना किसी ठाटबाट के एक साधारण व्यक्ति का-सा जीवन जी कर भी राजनीति और प्रशासन में सफल हैं तो भाजपा के नेताओं को कांगे्रसियों की तरह सत्ता सुख भोगने की बीमारी कैसे लग गई ? इस सवाल को गोपनीय गोष्ठियों में नहीं बल्कि आगरा के खुले मंच पर सोचा जाना चाहिए। इस खुली बहस से लाभ ही होगा हानि नहीं।

कभी-कभी समय की धारा के साथ भी चलना पड़ता है। भूखे को आप राष्ट्र धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते। आज संघ की शाखाओं में पहले जैसा उत्साह नहीं रहा। जबकि अपनी सरकार के रहते यह उत्साह बढ़ना चाहिए था। दरअसल लोगों की समस्याएं कुछ और हैं और संघ की प्राथमिकताएं कुछ और। आवश्यकता इस बात की है कि संघ अपने आदर्शों पर चलते हुए भी समाज की वर्तमान समस्याओं से जुड़ सकता है। आज भारत के शहरों में रहने वाले हर वर्ग के लोगों की मूल समस्या है सरकारी तंत्र का पूरी तरह भ्रष्ट, नाकारा, आलसी और रूखा हो जाना । संघ के कार्यकर्ता बिना रागद्वेष के और बिना स्वार्थ के यदि शहरी लोगों को एकजुट कर प्रशासन से निपटने में मदद करें तो उन्हें हर तरह से लाभ ही होगा। एक तो उनकी समाज में प्रतिष्ठा व लोकप्रियेता बढ़ेगी, दूसरा भाजपा के मंत्रियों की कमी को इस तरह दूर करके वे अपरोक्ष रूप से समर्थित भाजपा सरकार की गिरती साख को बचाने में सफल हो पाएंगे। यह कोई मुश्किल काम नहीं। भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था से जूझने में जुटे कुछ मशहूर और अनुभवी लोगों की सलाह से इस कार्यक्रम को प्रभावी रूप से चलाया जा सकता है।

ईसाई और मुसलमान धर्म के बढ़ते प्रभाव से हिन्दू समाज के मन में चिन्ता होना स्वाभाविक है क्योंकि इन धर्मों का प्रसार आध्यात्मिक आधार पर न होकर भौतिक लाभ देकर किया जा रहा है। पर दूसरे की लकीर को छोटा करने की कोशिश करना बेकार है। उसके मुकाबले अगर अपनी लकीर और बड़ी खींच दी जाए तो काम बन जायेगा। देश के करोड़ों पिछड़े और गरीब लोगों के बीच कितने हिन्दू हैं जो ईसाईयों की सी भावना से काम करने सामने आ रहे हैं। संघ इस दिशा में कोई उल्लेखनीय सफलता  हासिल क्यों नहीं कर पाया है ? अगर इस दिशा में जी-जान से जुट कर काम किया जाए और सभी धार्मिक लोगों, संतो, संगठनों, सम्प्रदायों व आंदोलनों की मदद ली जाऐ तो यह सम्भव है। पर इसके लिए संघ के कार्यकर्ताओं में प्रबल इच्छा शक्ति की आवश्यकता होगी।

संघ यह तो कहता है कि गर्व से कहो हम हिन्दू हैंपर क्या संघ ने आज तक हिन्दू धर्म के तीर्थस्थलों की अव्यवस्था को दूर करने का कोई प्रयास किया है ? क्या यह सच नहीं है कि किसी साधारण से भी चर्च, मस्जिद या गुरूद्वारे की तुलना में हिन्दुओं के तीर्थस्थान यात्रियों को बुरी तरह निराश करते हैं। देश विदेश के हिन्दू इन तीर्थस्थानों पर बड़ी श्रद्धा, आस्था और भावना लेकर आते हैं इस उम्मीद में कि वहाँ उन्हें मन की शांति और सच्चा आनन्द मिलेगा पर क्या यह सब उन्हें मिल पाता है ? यदि हम चाहते हैं कि लोग वाकई हिन्दू होने पर गर्व महसूस करे तो सबसे पहले तो हमें अपने तीर्थस्थानों का जीर्णोद्धार करना होगा। उन्हें आकर्षक और आदर्श रूप में विकसित करना होगा। संघ के महाशिविर स्थल आगरा से भगवान श्रीकृष्ण का क्रीड़ा स्थल ब्रज प्रदेश बहुत दूर नहीं है। महाशिविर में आए अनेक स्वयं सेवक लगे हाथों इस तीर्थ के दर्शन का लाभ प्राप्त करने अवश्य जाएंगे। उन्हें यह सोचना चाहिए कि जिस वृन्दावन ने संघ समर्थित जनसंघ की देश में पहली नगर पालिका की स्थापना पचास के दशक में ही की थी उसकी आज इतनी दुर्दशा क्यों है। जबकि आज भी वहां भाजपा की ही नगर पालिका है, मथुरा जिले में भाजपा के 4 मंत्री है, प्रांत और केन्द्र में भाजपा की सरकार है। राम जन्मभूमि या कृष्ण जन्मभूमि पर मन्दिर का निर्माण तो जब होगा तब होगा पर जन्म स्थान के इर्द-गिर्द की नारकीय अवस्था को ठीक करने के लिए हम किस सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इन्तजार कर रहे हैं।

इसी तरह स्वदेशी और स्वालम्बन की देशी संस्कृति व उपभोक्तावाद की विदेशी संस्कृति को लेकर भी संघ के स्वयं सेवकों के मन में संघर्ष चला रहता है। देखने वाली बात यह है कि संघ से जुड़े परिवारों मे घरों का वातावरण कैसा है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम दूसरों को तो उपदेश देते हों और हमारे घर की साज-सज्जा, खान-पान, संस्कार, पहनावा व मनोरंजन का तरीका खालिस भौंड़ी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हो। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज के आधुनिक संसार में भी अमरीका जैसे विकसित देश में भी भारतीय संस्कृति पर आधारित जीवन जीने वाले लाखों परिवार हैं जिनमें सिर्फ भारतीय ही नहीं विदेशी भी शामिल हैं। इसलिए कोई बहाना स्वीकार्य नहीं। आज बंगलौर विश्व की सूचना प्रौद्योगिकी की राजधानी इसलिए बना है कि वहां के समाज ने सदियों सात्विक शाकाहारी और आध्यात्मिक जीवन जिया है। जिससे उनकी बुद्धि प्रखर बनी। पर हमें सोचना है कि हम आज कैसा जीवन जी रहे हैं ?

आशा है संघ के महाशिविर में इन मूल प्रश्नों पर खुला चिन्तन होगा। दरअसल इस महाशिविर की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले कुछ वर्षों में राज्यों में केन्द्र की भाजपा सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। संघ के स्वयं सेवकों ने पिछले पचास वर्षों में जो आदर्श और सपने लोगों को दिखाये थे उन्हें ये सरकारें पूरा नहीं कर सकीं। संघ के समर्पित कार्यकर्ताओं को इससे बहुत धक्का लगा। यह तो वे भी जानते थे कि सत्ता भ्रष्ट बनाती है और निरंकुश सत्ता पूरी तरह भ्रष्ट बनाती है।पर यह सब इतनी जल्दी हो जायेगा ऐसा उन्होंने सपने में भी न सोचा था। जिन्हें वे आजतक फरिश्ता बताकर लोगों के बीच प्रचारित करते आए थे वे तो कच्ची माटी के भांड निकले। अब संघ के कार्यकर्ताओं के सामने विश्वसनीयता का सवाल खड़ा हो गया है। उनका समर्पण और उनके आदर्श कोई एक चुनाव जीत कर तो निपटाए नहीं जा सकते। वे तो पिछले 75 वर्षों से एक अखंड हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए जुटे हैं। पर जब उनके ही रोपे हुए पौधे बजाय फल देने के कांटे दे रहे हों तो वे भविष्य में किस मुंह से जनता के पास जाएंगे, यही चिंता उन्हें खाए जा रही है। संघ के नेेतृत्व को इसका एहसास हुआ तो उसने यह महाशिविर बुला डाला। यह महाशिविर एक किस्म का शक्ति प्रदर्शन भी है और अपनी मान्यताओं में पुनः आस्था प्रकट करने का एक अवसर भी। ऐसे महाशिविरों में आकर संघ के उन स्वयं सेवकों को निश्चय ही बल मिलेगा जिनका विश्वास पिछले वर्षों में डगमगा गया है।

Friday, October 6, 2000

सुषमा स्वराज की वापसी


सुषमा स्वराज को निकट से जानने वाले यह जानते हैं कि वे उन राजनेताओं में नहीं हैं जो सिर्फ गाल बजाते हैं। विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में आने वाली सुषमा स्वराज एक तेजतर्रार, जागरूक और कर्मठ महिला के रूप में जानी जाती रही हैं। 1996 में जब वे 13 दिन की भाजपा सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्राी बनीं तो उन्होंने संवाददाताओं के सामने  घोषणा की कि वे दूरदर्शन की संस्कृति में अपेक्षित सुधार करेंगी। दिल्ली की मुख्यमंत्राी बनाये जाने से पहले भी वे सूचना प्रसारण मंत्राी थीं। इस रूप में उनका यह तीसरा कार्यकाल है। सूचना प्रसारण मंत्राी के काम के दायरे में केवल दूरदर्शन ही नहीं होता, बहुत कुछ और भी होता है। पर सामान्य जन यही मानते हैं कि सूचना प्रसारण मंत्राी का मुख्य काम दूरदर्शन पर नियंत्राण रखना है। आज जब देश में तीन दर्जन से ज्यादा सैटेलाइट टेलीविजन चैनल काम कर रहे हैं तो केवल दूरदर्शन पर दर्शकों की निर्भरता नहीं रही। इसलिये यह और भी जरूरी हो जाता है कि दूरदर्शन वह सब करे जिसके लिये इसकी स्थापना भारत में की गई थी। गरीब देश के सीमित संसाधनों को इस उम्मीद से दूरदर्शन में लगाया गया था कि इससे आम आदमी को शिक्षा और सूचना देने का काम तेजी से आगे बढेगा। क्या हुआ इसके इतिहास में जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सब जानते हैं कि दूरदर्शन जैसा सशक्त  माध्यम, तमाम संसाधनों के बावजूद आज भी सरकार का भोंपू ही है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। यह भी सर्वविदित है कि सौ करोड़ के इस मुल्क में, जहां एक से बढ़कर एक प्रतिभायें हैं वहां दूरदर्शन आज भी उन्हीं पिटे-पिटाये पुराने चेहरों से घिरा है जो अपने ऊंचे सम्पर्कों या दूसरे तरीकों से कभी दूरदर्शन के सर्किट में घुस गये थे। इसलिये दूरदर्शन के कार्यक्रमों में न तो पैनापन है और न आकर्षण। अब जबकि दूरदर्शन का मुकाबला तमाम दूसरे निजी चैनलों से हो रहा है तो यह बात आम दर्शक को भी बड़ी आसानी से समझ में आ चुकी है। दूरदर्शन के कार्यक्रमों के चयन में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के तमाम कांड उजागर होने के बाद भी कुछ नहीं बदला है। नीचे के अफसर ऊपर के अफसरों को  दोषी ठहराते हैं और ऊपर के अफसर सूचना प्रसारण मंत्रालय को। मंडी हाउस के गलियारों में दखल रखने वाले दलाल यह बात दावे से कहते हैं कि लाख प्रसार भारती बोर्ड बन गया हो पर दूरदर्शन मंे स्वायत्तता नाम की चीज दूर तक दिखाई नहीं देती। स्वायत्तता का ढिंढोरा पीटने के बाद जो कुछ हुआ है वह नई बोतल में पुरानी शराब ही है। प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य सूचना प्रसारण मंत्रालय के जी-हुजूर बने हुए हैं। मंडी हाउस के ये दलाल दावे से कहते हैं कि दूरदर्शन में आज भी सूचना प्रसारण मंत्राी का पूरा दखल चलता है। जो काम योग्यता के आधार पर वहां न हो सके उसे दूसरे किस्म की योग्यताका प्रदर्शन करके मंत्राी महोदय से करवाया जा सकता है।

जब दूरदर्शन के संचालन की प्रशासनिक व्यवस्था इतनी सड़ गल चुकी हो तो जाहिर है कि उसके कार्यक्रमों की गुणवत्ता गिरेगी ही। यही कारण है कि किसी भी निजी चैनल से पचास गुना ज्यादा संसाधन और नेटवर्क के बावजूद दूरदर्शन प्रभाव नहीं छोड़ पा रहा। पर दूरदर्शन के अधिकारियों को इसकी कोई परवाह नहीं। उधर प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य भी लगता है चैन की नींद सो रहे हैं। या फिर बोर्ड की सदस्यता पाने के बाद उनका उत्साह और ऊर्जा ठंडा पड गया है। आज  देश में जिन सवालों को लेकर जनमानस उद्वेलित है उनका दूरदर्शन पर कितना सतही प्रदर्शन होता है यह कोई भी आम दर्शक बता सकता है। इस तरह न तो दूरदर्शन वांछित मनोरंजन ही दे पा रहा है और न ही सूचना और शिक्षा देने का काम ठीक से कर पा रहा है। भारत की अन्य सरकारी व्यवस्थाओं की तरह दूरदर्शन की व्यवस्था भी पूरी तरह सड़ गल चुकी है।   इसे एक बडी शल्य चिकित्सा, हृदय प्रत्यारोपण व रक्त परिवर्तन की आवश्यकता है। ऐसे माहौल में सुषमा स्वराज का सूचना प्रसारण मंत्राी बनना बहुत मायने रखता है।

श्रीमती स्वराज की छवि उस घरेलू महिला की है जिसके लिये बाहर का जीवन जितना महत्वपूर्ण है उससे कम महत्वपूर्ण घर का जीवन भी नहीं है। अपनी किशोर पुत्राी के विकास में दूरदर्शन के प्रभाव या कुप्रभाव का उन्हे वैसा ही अनुभव है जैसा किसी भी दूसरी संवेदनशील मां को हो सकता है। राजनीति में रहकर भी भारतीय सांस्कृतिक परिवेश से अपने को जोड़े रखने में कामयाब रहीं श्रीमती स्वराज यह जानती हैं कि दूरदर्शन पर क्या दिखाया जाना चाहिये और क्या नहीं। इसके लिये उन्हें किसी भी आयोग या समिति के गठन की जरूरत नहीं है। उन्हें इस मामले में बहुत सारे सलाहकारों की भी जरूरत नहीं है। खासकर उन सलाहकारों की जो विशेषज्ञ सलाहकार का आवरण ओढ़कर दूरदर्शन की दलाली से ज्यादा कुछ नहीं करते। जरूरत इस बात की है कि सुषमा जी उन समस्याओं पर सबसे पहले ध्यान दें जिनसे दूरदर्शन की गुणवत्ता में बुनियादी सुधार आ सके। इसके साथ ही दलालनुमा सलाहकारों या भ्रष्ट नौकरशाहों से अपना पिण्ड अगर छुड़ा सकें तो न सिर्फ दूरदर्शन का भला करेंगी बल्कि अपना और देश का भी कुछ भला कर पायेंगी। यह बात कहने में जितनी सरल है व्यवहार में उतनी ही कठिन भी। जिस देश में शिखर की राजनीति से लेकर पंचायत के चुनाव तक में झूठ, फरेब, दलाली और बदमाशी चलती हो वहां यह उम्मीद करना कि सुषमा स्वराज राजनीति की दलदल में कमल सा खिल जायेगी, बचपना होगा। उन्हें उन्ही घडि़यालों के बीच रहना है और काम करना है जो किसी भी मंत्राी को हफ्ते भर में उसकी औकात बता देते हैं। इस व्यवस्था में संचार मंत्रालय को झकझोरने की ताकत हुए बिना कोई दूरगामी बदलाव नहीं किये जा सकते। ऐसे बदलाव किये बिना सुषमा स्वराज अपनी श्रेष्ठता और योग्यता के झंडे नहीं गाड़ पायेंगी। इसमें शक नहीं कि देश उन्हें और उन जैसे सभी मेधावी राजनेताओं को भविष्य के शिखर के नेताओं के रूप में देखता है। सुषमा ये जानती हैं कि  भीड  इकट्ठी करने वाले नेता नहीं होते। नेता तो वह है जो अपने नेतृत्व की क्षमता से समय की धारा को मोड़ सके। वैसे जब कभी भी सुषमा स्वराज को मंत्राी बनने का मौका मिला उन्होंने कुछ अनूठा करने की अपनी कसक को दबने नहीं दिया। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की मुख्यमंत्राी के रूप में उन्होंने दीपावली पर पटाखों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाकर दिल्ली को उस रात प्रदूषण मुक्त रहने का तोहफा दिया। मजे की बात तो यह है कि इस प्रयास में उन्होंने स्कूली बच्चों का सहयोग लिया और कामयाब रहीं।

सूचना प्रसारण मंत्रालय अनेक ऐसे विभागों को समेटे हुए है जो देश की नब्ज पर नजर रखते हैं। इतना ही नहीं यह मंत्रालय उस सूचना का भी उद्गम है जिसे आधुनिक तकनीकी के सहारे हर घर तक पहंुचाया जाता है। इसलिये इस मंत्रालय के ऊपर देश को दिशा देने की जिम्मेदारी दूसरे मंत्रालयों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। कृषि मंत्रालय कृषि की ही बात करेगा, उद्योग मंत्रालय उद्योगों की बात करेगा, स्वास्थ्य मंत्रालय स्वास्थ्य की बात करेगा पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय अपने विभिन्न अंगों की मदद से पूरे समाज की बात करता है। पूरे समाज को दिशा देने का काम करता है। इसलिये इसका बहुत महत्व है। यह गृहणियों और माताओं का सौभाग्य ही है कि उनके घरों तक में पैठ रखने वाले इस मंत्रालय के सदर के रूप में उनकी ही सी एक महिला बिठा दी गई है। जो उनके दर्द भी समझती है और उनकी आकांक्षाओं से भी वाकिफ है। इसलिये एक बहन, बहूरानी या मां सरीखी शख्सियत जब इस मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रही हो तो यह उम्मीद की जानी चाहिये कि दूरदर्शन अपने रूप रंग में वांछित निखार लायेगा। पर ऐसा हो सके इसके लिये श्रीमती स्वराज को अपने पारम्परिक सलाहकारों के शिकंजे से मुक्त होकर उन लोगों की राय लेनी होगी जिन्होंने इस माध्यम को समझा है और जिनके पास इसकी गुणवत्ता  सुधारने के लिये बहुत कुछ संरक्षित है। पर ऐसे लोग मंडी हाउस के दलालों के चक्कर नहीं काटा करते।वैसे आज तक प्यासे के इंतजार में बैठे यह कुएं अब बेकार नहीं हैं। तमाम सैटेलाइट चैनल वाले उनके दरवाजे पर लाइन लगाकर खडे हैं। उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप वाजिब दाम भी मिल रहे हैं और वांछित सम्मान भी। इतना ही नहीं सैटेलाइट टेलीविजन के व्यापक प्रसार के कारण आज उनके हुनर के कद्रदान पूरी दुनिया मंे फैले हैं। आज मेधावी लोग सैटेलाइट टीवी पर आते हैं, देखते ही देखते तमाम लोगों के दिलोदिमाग पर छा जाते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय की भ्रष्ट और निकम्मी नौकरशाही के चलते पहले ऐसा होना संभव नहीं था। अफसरों और राजनेताओं की बहू बेटियां, सुपुत्रा या कुपुत्रा, चहेते या चहेतियां ही प्रसारण के माध्यमों पर छाये रहते थे। यह सब अब बंद होना चाहिये। योग्यता और प्रतिभा को उसका सही स्थान मिलना चाहिये। सैटेलाइट टेलीविजन पूरी तरह व्यवसायिक प्रतिष्ठान होने के कारण अपने सामाजिक दायित्वों से कंधा झाड़ सकते हैं। पर दूरदर्शन ऐसा नहीं कर सकता। दूरदर्शन को समाज के उस वर्ग की तेजी से बदलती जरूरतों का भी ध्यान रखना है जो आज सूचना प्रोद्योगिकी  की दौड़ में शामिल हैं और समाज के उस विशाल वर्ग को भी ध्यान रखना है जिसे आज भी बुनियादी सुविधायें तक  उपलब्ध नहीं हैं। गनीमत यह है कि यह वर्ग अभी सैटेलाइट टेलीविजन की पहंुच से दूर है। पर दूरदर्शन की पहुंच से नहीं। सैटेलाइट टेलीविजन के कार्यक्रमों का वितरण केबिल टीवी से होता है जो अभी केवल शहरों तक ही सीमित है। जबकि दूरदर्शन गांव-गांव तक पहंुच चुका है। इसलिये तमाम सैटेलाइट चैनल आ जाने के बावजूद इसकी ताकत और क्षमता कहीं ज्यादा है। देश की चिंता करने वाले बार-बार एक ही बात कहते हैं कि भारत गरीब देश नहीं है, इसके    संसाधनों की कुव्यवस्था ने इसे गरीब और काहिल बना दिया है। किसी देश के   संसाधनों को सही दिशा में लगाने का काम उसके राजनेताओं के जिम्मे होता है। पर दुर्भाग्य से आज बहुत कम राजनेता हैं जो अपनी इस सामाजिक जिम्मेदारी को महसूस करते हैं। ज्यादातर राजनेताओं का आचरण अगर अनुकरणीय नहीं है तो समाज में दिशाहीनता फैलती है। क्योंकि कहा गया है कि यथा राजा तथा प्रजा। सूचना प्रसारण मंत्रालय जनता को सूचना कम देता है गुमराह ज्यादा करता है। सरकार की उन तथाकथित उपलब्धियों का बखान करना इसके अंगों का काम है, जिन   उपलब्धियों को जनता केवल अखाबारों और टेलीविजन पर ही देखती है। इससे हटकर अगर देश के संसाधनों, मानवीय क्षमताओं और जन अपेक्षाओं के अनुरूप दिशा देने का काम यह मंत्रालय करने लगे तो राजनीति में राजनैतिक नेतृत्व से पनपी शून्यता को कुछ सीमा तक भरा जा सकता है।

आज पूरी दुनिया में यह माना जाता है कि पैसे और बल की ताकत से ज्यादा सूचना की ताकत काम करती है। इस युग को सूचना युग कहा जा रहा है। ऐसे युग में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रा में सूचना प्रसारण मंत्रालय अपने देशवासियों को ंकैसी सूचना दे पाता है यह निर्भर करेगा उसकी नवनियुक्त मंत्राी पर जो चाहे तो रेत पर अपने कदमों के निशान छोड़कर जा सकती हैं और न चाहें तो कोई उनका क्या बिगाड़ लेगा। बहुत आये और आकर चले गये, सुषमा स्वराज भी क्या उन भूतपूर्वों की कतार में खड़ी होंगी या उनकी जिन्हें लोग भूला नहीं करते।

Friday, September 22, 2000

हर गाँव में दिखाई जानी चाहिए फिल्म ‘गाॅडमदर’


लोकतंत्र के नाम पर देश में चल रही विकृत राजनीति का चित्रण करनेवाली कई फिल्में पिछले 15-20 वर्षों में मुम्बई के सिनेमा जगत नें देश को दी हैं। इन फिल्मों में राजनेताओं की स्वार्थपरकता व कुनबापरस्ती सामने आई है। अपने फायदे के लिए जनता को जाति और धर्म के नाम पर भड़काने जैसी जनविरोधी साजिशों का भी अक्सर सटीक चित्रण किया जाता रहा है। पर इस समस्या से निपटा कैसे जाय ? इस पर कोई ठोस समाधान ये फिल्में नहीं दे पाईं। दे भी कैसे सकती हैं ? राजनीति में नैतिक पतन की जैसी समस्याओं से हमारा लोकतंत्र इस दौर में जूझ रहा है उनका समाधान अगर इतना सरल होता तो अब तक उसे अपनाने की कोशिश की जाती। देश इतना बड़ा है और समस्याएं भी उतनी ही व्यापक । फिल्मकार अपनी समझ और विचारधारा के अनुरूप समाधान पेश कर देते हैं। किसी फिल्म में दिखा देते हैं कि इस राजनैतिक व्यवस्था के गुण्डों से लड़ने वाले पत्रकार को हर स्तर पर शिकस्त खानी पड़ी क्योंकि लोकतंत्र के सभी खम्भे बदमाशों के हक में आपस में समझौते किए बैठे हैं। किसी फिल्म में दिखा देते हैं कि राजनैतिक व्यवस्था से जूझने वाला क्रान्तिकारी नौजवान आखिरकार इतना बेचैन हो गया कि उसने व्यवस्था पोषक बड़े राजनेताओं और उन्हें संरक्षण देने वाले न्यायाधीशों को गोली से उड़ा दिया । कभी दिखा देते हैं कि व्यवस्था से टक्कर लेने वाले को इतनी मुसीबतें झेलनी पड़ीं कि आखिरकार उसकी हिम्मत जवाब दे गई। कभी दिखा देते हैं कि आदर्शों के लिए भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था से लड़ने वाला तो नहीं टूटा पर परिवेश की मार ने उसके बच्चों को बागी बना दिया। क्योंकि वे पिता के त्यागमय जीवन की सीमाओं में जीते हुए ऊब गये। उनका मन आम लोगों की तरह मौजमस्ती करने को बेचैन हो उठा। राष्ट्र की चिन्ता में समर्पित उनके पिता के पास इतना समय ही नहीं था कि वह अपने बच्चों के दिल में उठ रहे तूफान की गंूज सुन पाता। इस गूंज को सुना व्यवस्थापोषक भ्रष्ट नेताओं और ठेकेदारों ने जिन्होंने उस तपस्वी के बच्चों को बड़ी आसानी से मौजमस्ती के वो सब सामान उपलब्ध करा दिए जिनकी उन्हें हसरत थी। एक बार ऐसे बदमाशों के चंगुल मे फंसने के बाद वह बच्चे निकल नहीं सके, बिगड़ते ही गये। जब तक उनके पिता को पता चला बहुत देर हो चुकी थी। अब हाथ मलने और अपने बिगड़े हुए बेटे को थप्पड़ मार कर घर से बाहर निकालने के अलावा उनके पास कोई चारा न बचा। एक तो वख्त की मार, ऊपर से सभी सपनों का टूट जाना उनके दिल में गहरी चोट कर गया। हिम्मत टूट गई। मन हार गया। शरीर ऊर्जाविहीन हो गया। जवानी तो पहले ही देश सेवा में समर्पित कर दी थी अब बुढ़ापे के लिए कुछ न बचा। न        साधन न सन्तान।

इस तरह अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा करके व्यवस्था से लड़नेवालों की जिन्दगी का चित्रण  इन फिल्मों में किया जाता है।  बहुत दिन पुरानी बात है एक बार श्री रघुवीर सहाय जी, नामवरसिंह जी और मैं एक सार्वजनिक व्याख्यान के बाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश से दिल्ली लौट रहे थे। उन दिनों एक फिल्म आई थी जिसमें व्यवस्था विरोध करने वाले पत्रकार के परिवार को शारीरिक यातना पहुंचाने का भयावह दृश्य था। चर्चा चली कि आखिर यह फिल्म क्या संदेश दे रही है ? क्या यह कि व्यवस्था से जूझने वाले किसी भी मुसीबत से घबड़ाते नहीं हैं ? या ये कि व्यवस्था से लड़ने वाले को ऐसी खौफनाक परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए ? या ये कि जो कोई भी व्यवस्था से लड़ने की जुर्रत करेगा उसका यही अंजाम होगा ? सहमति इस बात पर हुई कि यह तीसरा अघोषित लक्ष्य ही ऐसी फिल्मों की बुनियाद में होता है। यानी मकसद यह दिखाना होता है कि व्यवस्था जैसी है, चलने दो, न रोको, न टोको बस आंख फेर कर निकल जाओ।

सोचने वाली बात यह है कि फिल्म निर्माण में धन कौन लगाता है ? जाहिर सी बात है कि फिल्मों में बेइन्तहा काला धन लगता है। यह पैसा अन्डरवर्ड यानी तस्करों और देशद्रोहियों की तिजोरियों से निकलता है। उन लोगों की तिजोरियों से जो इस व्यवस्था को चलाने वाले नेता और अफसरों को पाल कर ही तो अकूत दौलत इकट्ठा करते हैं। यह दौलत इस देश की करोड़ों बदहाल जनता के सुख चैनछीन कर जमा की जाती है। मतलब यह हुआ कि इस दौलत को हासिल करने का रास्ता राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को भ्रष्ट और निकम्मी बनाकर ही हासिल किया जाता है। तो जो लोग व्यवस्था को बिगाड़ कर अपना फायदा कर रहे हैं वो ऐसी फिल्में क्योंकर फाइनेंस करने लगे जो फिल्में उनके ही अस्तित्व को चुनौती देने वाली हों ? जिन्हें देखकर देश के शोषित नौजवानों का खून खौल उठे। वो ऐसे समाज विरोधी तत्वों को सबक सिखाने सड़कों पर उतर आयें। नहीं, उनका यह मकसद कतई नहीं होता। उनका मकसद वही होता है जो स्वर्गीय रघुवीर सहाय जी कह रहे थे - बिगड़ी व्यवस्था का विरोध करने वालों के मन में आतंक पैदा करना।इसके अपवाद भी होते हैं। अनेक फिल्मकार ऐसे भी हुए हैं जो सही धन न मिल पाने की तमाम सीमाओं के बावजूद कम साधनों में ही ऐसी प्रभावशाली फिल्म बनाते हैं जिससे समाज को लाभ ही होता है। दुर्दशा का चित्रण भी होता है और उससे लड़ने की इच्छा भी पैदा होती है। ऐसी फिल्में उन लोगों की हौसला आफजाई करती हैं जो सब बाधाओं को झेलते हुए बड़ी हिम्मत और दिलेरी से व्यवस्था के घडि़यालों से जूझ रहे होते हैं। इस सन्दर्भ में पिछले वर्ष बनी फिल्म गाॅडमदर एक अच्छी मिसाल है।

आमतौर पर इस किस्म की फिल्में गम्भीर या कलात्मक कहकर एक तरफ खड़ी कर दी जाती हैं। ये फिल्में बाॅक्स आॅफिस पर हिट नहीं हो पातीं। इन्हें देखने वाला वर्ग उन संभ्रात लोगों का होता है जिनकी संवेदनशीलता प्रायः उनके ड्राइंगरूमों के बाहर नहीं जाती। ये वो लोग हैं जो व्यवस्था के दोषों से भलीभांति परिचित होते हैं। पर सब कुछ देखकर भी मौन रहना ही पसन्द करते हैं। बहुत हुआ तो सेमिनारों या टी.वी. की बहसों में अपनी विशेषज्ञ रायदेकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। समाज का वह वर्ग जो व्यवस्था के इन दोषों के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होता है उसे ऐसी फिल्में देखने की पे्ररणा देने वाला कोई नहीं होता। जबकि यह वही वर्ग है जो ऐसी फिल्में देखकर कुछ फायदा उठा सकता है। इसलिए ऐसे इन्तजाम किए जाएं कि देश के आमलोगों तक ऐसी फिल्में पहुंच सकें। सरकार तो क्यों करने लगी ? पर जो लोग साधन सम्पन्न है और समाज सेवा करना चाहते हैं मसलन धनी घरों की महिलायें उन्हें अपने-अपने इलाको में आम लोगों तक सही सूचना पहुंचाने के साधनों का इन्तजाम करना चाहिए। जिले के लाखों गरीबों में से अगर दस गरीब बच्चों के लिए स्कूल की यूनिफार्म बांट दी या पचास बच्चों को पाठ्यपुस्तकों के पैकेट तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अगर बांट भी दिए तो उसका पूरे समाज को उतना लाभ नहीं होगा जितना उसे जागृत बना कर हो सकता है। इस मामले में टेलीविजन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। क्योंकि आज इसकी पहुंच देश के कोने कोने तक हो चुकी है। दुर्भाग्य से टेलीविजन भी बड़ी व्यावसायिक कम्पनियों के उत्पादनों को बेचने के काम में ज्यादा लगा है बमुकाबले लोगों को सूचना और शिक्षा देने के। फिर भी कभी कभार यह कुछ अच्छा कर बैठता है। गत वृहस्पतिवार की रात स्टार टी.वी. चैनल ने गाॅडमदर फिल्म दिखाकर कुछ ऐसा भला कर दिया। हमेशा की तरह शबानाआजमी इस फिल्म की प्रमुख भूमिका को बेहद असरदार तरीके से निभाने में सफल रही हैं। फिल्म की खास बात इसका यथार्थ के निकट होना और बहुत धारदार तरीके से सन्देश दर्शकों से मन तक उतार देना इस फिल्म के निर्देशक का कमाल है। सबसे अच्छी बात जो इस फिल्म में है वह यह है कि यह फिल्म एक तरफ तो उन परिस्थितियों का चित्रण करती है जिनसे यह स्पष्ट होता है कि राजनेता किस तरह अच्छी भावना के बावजूद भ्रष्ट और स्वार्थी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है । दूसरी तरफ यह फिल्म उस कहावत को चरितार्थ करती है कि डाकू भी नहीं चाहता कि उसका बेटा डाकू बने। यानी हर नेता के सीने में भी किसी इंसान का दिल धड़कता है। वह जानता है कि जो कुछ वहां अपनी आत्मतुष्टि के लिए कर रहा है वह सही नहीं है। अपराधबोध उसे चैन से जीने नहीं देता और वासनाएं उसे मरने नहीं देतीं। इस तरह वह अपने ही अन्तद्र्वन्द्वों के बीच जीवन को घसीटता हुआ चलता जाता है। इस फिल्म में यह तथ्य बहुत सशक्त ढंग से उजागर हुआ है। इसमें व्यवस्था का विरोध करने वाले नहीं बल्कि उसका पोषण करने वाली एक स्वार्थी और हिंसक बन चुकी राजनेत्री का अंत उसके प्रयाश्चित से होता है। जिसपर उसे जनता की हार्दिक सहानुभूति मिलती है। यह फिल्म आज के इस दौर में एक आशा जगाती है कि सच्चाई पर लड़ने वालों हिम्मत मत हारना। आखिर एक दिन तो देशद्रोह में आकंठ डूबे हुए लोगों के मन में अपने किए का पश्चाताप जरूर होगा। तुम उस वक्त तक लड़ते रहो तो सुबह जरूर देखोगे। ऐसी फिल्में हर गाँव में दिखाई जानी चाहिए।

Friday, September 15, 2000

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में दलील ?


कुछ ऐसे महत्वपूर्ण लोग जो कल तक साम्यवादी, गांधीवादी या आर.एस.एस. की विचारधारा के थे पिछले कुछ वर्षो में धीरे धीरे पूंजीवाद व विदेशी निवेश के समर्थक बन गए हैं। ये लोग भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध करने वालों को दकियानूसी मानते हैं। इनका तर्क है कि पिछलेे पचास वर्षों में भारत जिन नीतियों को लेकर चला उनसे देश की तरक्की नहीं हुई, भ्रष्टाचार बढ़ा और गरीब की हालत जस की तस रही। जबकि एशिया के तमाम देश जिनकी हालत पचास वर्ष पहले भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा दयनीय थी आज तरक्की में बहुत आगे निकल गए हैं। क्योंकि इन देशों नें पूंजीवाद को अपनाया और प्रतिभाओं को बढ़ने का मौका दिया। विदेशी निवेश के हिमायती प्रश्न पूछते हैं कि अगर कोई कंपनी भारत में 1,000 कि,मी, ‘एक्सपे्रस हाइवेबनवाए तो किसका फायदा होगा ? गांव-गांव में एस.टी.डी. बूथ खुलने से व्यापार व संचार में जो गति आई क्या उसका फायदा आम आदमी को नहीं मिल रहा ? अमरीका की माइक्रोसाॅफ्ट कम्पनी में आज 35 प्रतिशत भारतीय हैं। अब यह कंपनी अमरीका के बाद दुनिया में अपना दूसरा सबसे बड़ा विनियोग भारत के हैदराबाद शहर में करने जा रही है। इससे किसे फायदा मिलेगा। जाहिरन भारत के मेधावी युवाओं को ही मिलेगा फिर मल्टीनेशनल का विरोध क्यों ?

इनका तर्क है कि आजादी बचाओ आन्दोलन चलाने वाले लोग जनता को गुमराह कर रहे हैं। तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर अपने कैसेटों में पेश कर रहे हैं। वे लोगों को सच्चाई से मुंह मोड़ कर अंधेरे में रखना चाहते हैं। अब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था, संचार व व्यापार इतनी तेजी से एक दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं कि भारत या कोई देश चाहे भी तो इससे अछूता नहीं रह सकता। वे पूछते हैं कि क्या वजह है कि इनके विरोध करने के बावजूद पेप्सी कोला जैसे पेयों की लोकप्रियता में रत्ती भर भी कमी नहीं आ रही ? आम उपभोक्ता को इससे मतलब नहीं कि वस्तु स्वदेशी है या विदेशी वह तो सिर्फ इस बात पर आश्वस्त होना चाहता है कि वह जो वस्तु खरीद रहा है वह बढि़या है और दाम में दूसरे से कम है। बजाज आटो के स्कूटर अगर बनकर बेकार खड़े हैं और हीरो होंडा की बिक्री तेजी से हो रही है तो इसके लिए भारत का उपभोक्ता क्यों आंसू बहाये ? वह तो कम पेट्रोल में ज्यादा चलने वाला उन्नत तकनीकी का वाहन ही खरीदेगा। क्यों नहीं एम्बेस्डर, फिएट कार बनाने वालों ने पिछले पचास वर्षों में अपने माॅडलों का सुधार किया ? क्यों ये वाहन निर्माता ब्लैक मार्केट को नहीं रोक पाए ? क्यों इन्होंने कभी उपभोक्ता की वैसी परवाह और खुशामद नहीं की जैसी आज कर रहे हैं ? आज जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काम का तरीका उपभोक्ता के सामने आ रहा है तो उनको देशी व विदेशी कंपनियों की कार्य संस्कृति में फर्क नज़र आने लगा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां उपभोक्ता के संतोष को प्राथमिकता देती हैं। इतना ही नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियां में काम करने वाले देशी मजदूरों, तकनीशियनों और प्रबन्धकों से पूछिए काम की दशा व गुणवत्ता में देशी और विदेशी कंपनियों में कितना अंतर है ? क्या वजह है कि समाज सुधारकों, गांधीवादियों और माक्र्सवादियों के बच्चे भी मल्टीनेशनल में नौकरी के लिए भाग रहे हैं ? जहां अच्छा वेतन और काम करने का बेहतर वातावरण मिलेगा वहां कौन काम करना नहीं चाहेगा? स्वदेशी के समर्थक जब इन लोगों से पूछते हैं कि अफ्रीका और लातिनी अमरीका के देशों को तो इन्हीं मल्टीनेशनल्स ने लूट कर बर्बाद कर दिया, तो उदारीकरण के समर्थक असहमति नहीं जताते। पर तर्क देते हैं कि उन देशों के हालात हमसे भिन्न थे। उनके नागरिक भारतीयों की तरह मेधावी, सक्षम व जागरूक नहीं थे। आज तो भारत के लोग अमरीका के उद्योग धंधों में भी छा गए हैं। पर अफ्रीका व लातिनी अमरीका के लोग ऐसे कुशल नहीं थे। उनके यहां लोकतंत्र नहीं था, सैनिक तानाशाही थी जिसे भ्रष्ट करके अपने कब्जे में लेना सरल था। बाकी दुनिया से उनका संचार व सम्पर्क नगण्य था जबकि आज सूचना क्रांति के चलते सारी दुनिया आपस में जुड़ गई है। इसलिए विदेशी निवेश के हिमायती मानते हैं कि भारत की गति अफ्रीका व लातिनी अमरीका  के देशों जैसे नहीं होगी। बल्कि भारतीयों को जैसे ही खुलकर आगे बढ़ने का मौका मिलेगा तो वे पूरी दुनिया पर छा जायेंगे। जैसे  आज अमरीका में हो रहा है। वहां रहने वाले अनिवासी भारतीयों ने वहां के उद्योग और व्यापार में अपनी खास जगह बना ली है। अब तक भारतीय मेधा को ढोंगी समाजवाद के नाम पर दबा कर रखा गया।

मल्टीनेशनल्स के समर्थक लोग यह नहीं मानते कि देशी उद्योगपतियों के मुकाबले मल्टीनेशनल्स ज्यादा भ्रष्ट है। वे तो पलट कर प्रश्न करते हैं कि क्या वजह है कि भारत के उद्योगपतियों ने देशी बैंकों का 58 हजार करोड़ रूपया कर्ज ले रखा है और उसे वापिस करने को भी तैयार नहीं हैं। कर्जा लौटाना तो दूर इन उद्योगपतियों के नेता राहुल बजाज सरीखे लोग तो सरकार से 58 हजार करोड़ रूपये का कर्जा माफ करने की अपील करते हैं। ये कैसा मजाक है ? एक तरफ तो देश में दस हजार रूपये का कर्जा न दे पाने वाला मजबूर किसान आत्महत्या कर लेता है और दूसरी तरफ देशी उद्योगपति अपने राजनैतिक दबाव के बूते पर इतना बड़ा भ्रष्टाचार कर रहे हैं। कोई इनके खिलाफ क्यों नहीं बोलता ? जैसे गरीब किसान की सम्पत्ति बैंक वाले कुर्क करा देते हैं वैसे ही इन उद्योगपतियों की सम्पत्ति कुर्क क्यों नहीं करवाते ? दरअसल राजनेताओं को चुनावी चंदा या मोटी रिश्वत देकर ये उद्योगपति उनका मुंह बन्द करवा देते हैं।

भारत इतना विशाल देश फिर भी करोड़ों लोग भूखे नंगे सोते हैं। क्या मल्टीनेशनल्स की आंधी इन गरीबों को रौंद तो नहीं देगी ? स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े भाजपा के महासचिव रहे श्री गोविन्दाचार्य कहते हैं कि आने वाले समय में देश के बहुसंख्यक बदहाल लोगों का आक्रोश भयावह स्थिति का निर्माण करेगा। भारी बेरोजगारी फैलेगी, इसलिए इस दिशा में  बहुत काम करने की जरूरत है। दूसरी तरफ विदेशी निवेश के हिमायती ऐसे संदेहों को गम्भीरता से नहीं लेते। उनका कहना है कि जब तकनीकी बदलती है तो रोजगार के पुराने क्षेत्र समाप्त हो जाते हैं और नये क्षेत्र पैदा हो जाते हैं। मसलन सदी के शुरू में अमरीका में जितने क्लर्क थे उसकी तुलना में आज वहां दस फीसदी भी नहीं बचे। तो क्या लोग शोर मचायें कि रोजगार घट गया जबकि कंप्यूटर जैसे नये क्षेत्र के विकसित होने से लाखों रोजगार पैदा हो गये हैं।  इस पक्ष के लोगों का विश्वास है कि सूचना और तकनीकी के क्षेत्र में तेजी से आये परिवर्तन के कारण भविष्य में भारत के मध्यमवर्ग का आकार मौजूदा दस करोड़ से बढ़कर पचास करोड़ हो जायेगा। इनकी तरक्की के साथ निर्बल वर्ग की तरक्की स्वतः ही हो जायेगी। ये लोग यह भी पूछते हैं कि समाजवाद का मुखौटा ओढ़कर पिछले पचास वर्षों में रोजगार क्यों नहीं बढ़ पाया ? उधर स्वदेशी के पैरोकारों को उन शेष पचास करोड़ भारतीयों की चिन्ता है जो भूमण्डलीकरण के इस दौर में अनेक कारणों से पिछड़ जायेंगे और पेट की आग बुझाने के लिए हिंसा का रास्ता अपना सकते हैं।

विदेशी निवेश के हिमायती यह दावा करते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ाती हैं। हर व्यक्ति को अपनी क्षमता अनुसार काम करने के अवसर प्रदान करती है। उसके काम के आधार पर ही उसे तरक्की मिलती है। वही भारतीय जब राष्ट्रीयकृत बैंक में काम करते हैं तो कोताही बरतते हैं, रूखा व्यवहार करते हैं। जब यही लोग बहुराष्ट्रीय बैंक में आ जाते हैं तो उनका आचरण और व्यवहार सब बदल जाता है। इतना ही नहीं देशी उद्योपतियों के मुकाबले विदेशी कंपनियों में कर्मचारियों की प्रबन्ध में हर स्तर पर भागीदारी सुनिश्चित होती है। वहां श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन होता है जबकि मौजूदा व्यवस्था में मजदूरों का शोषण होता है।

विदेशी पूंजी के समर्थक यह मानते हैं कि देश में पानी की समस्या या साक्षरता और स्वास्थ्य की समस्या का निदान मल्टीनेशनल्स के पास नहीं है। ऐसे क्षेत्रों में तो स्वयं सेवी संगठनों और धर्मार्थ संस्थाओं को ही सामने आना पड़ेगा। स्थानीय समुदायों की साझी समझ और सहयोग से ही स्थानीय समस्याओं के हल ढूंढे जा सकते हैं। जैसे इस वर्ष गुजरात के लोगों ने छोटे-छोटे बांध बनाकर जल स्तर ऊंचा कर लिया। इसी तरह अन्य क्षेत्रों में भी लोग ऐसी समस्याओं से निपट सकते हैं। एक फार्मूला सब जगह फिट नहीं हो सकता। जहां मल्टीनेशनल्स की जरूरत है वहां उन्हें आने दिया जाए और जहां देशी उद्योग की जरूरत हो वहां वह रहे। इसलिए विदेशी निवेश के पैरोकारों का दावा है कि पूंजीवाद ही भारत की समस्याओं का हल निकाल सकता है। उनके ये तर्क प्रायः अंगे्रजी मीडिया में ही आते हैं। जरूरत है कि भाषाई मीडिया में भी इस गम्भीर प्रश्न पर बहस चले।

Friday, September 8, 2000

खेल बहुराष्ट्रीय कंपनियों का, पत्रकारिता कागजी घोड़ों की

केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री श्री धनंजय कुमार ने संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन श्री राम दास अठावले के अल्प सूचना प्रश्न के जवाब में सदन को बताया कि गुर्दे का आपरेशन कराने वाले मरीजों के काम आने वाली जीवन रक्षक दवाइयों के आयात पर लगाए गए 40 प्रतिशत के सीमा शुल्क को वापस लेने की मांग पर सरकार विचार कर रही है। यह अलग बात है कि इस सवाल का जवाब देते हुए मंत्री जी ने श्री अठावले को ”माननीय सदस्या“ कह दिया। सदन में इस पर जोरदार ठहाका लगा। अखबारों में इसी खबर को प्रमुखता से छापा गया। पर इस चक्कर में मूल प्रश्न के बारे में जनता को जानकारी नहीं दी गई कि जीवन रक्षक दवा पर सरकार ने सीमा शुल्क क्यों बढ़ाया और सदन में इस पर सवाल उठने के बाद मंत्री ने क्या आश्वासन दिया और क्यों ?

उल्लेखनीय है कि इस संबंध में हिन्दी के कुछ अखबारों और टेलीविजन पर प्रमुखता से खबरें आई थीं । जिनमें कहा गया था कि सीमा शुल्क में की गई इस भारी वृद्धि से मरीजों की जान पर बन आई है और हजारों मरीजों ने सरकार को अर्जी भेजकर शुल्क में वृद्धि वापस लेने की मांग की है। कहा तो यह भी गया था कि कुछ मरीजों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया है। यह बहुत ही गंभीर मामला है। जनहितैषी सरकार किसी जीवन रक्षक दवाई पर बिना वजह, अचानक 40 प्रतिशत शुल्क लगा दे, यह बात गले उतरने वाली नहीं है। इस मामले में यह बात तो समझ में आती है कि इस समय देश में चल रहे आर्थिक उदारीकरण के कारण देसी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। सरकार की यह आम नीति रही है कि जिन चीजों का उत्पादन देश में होता है उसके देसी उत्पादकों की सहायता की जाए । यह सहायता विदेशी उत्पादों पर लगाए जाने वाले सीमा शुल्क के जरिए दी जाती है। ऐसी अर्थ संगत नीति दुनिया के हर देश में मौजूद है। देसी उद्योग विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए इस तरह के शुल्क लगाने की मांग हमेशा करते रहते हैं। पर ऐसी स्थिति में देसी उद्योग को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराने की सरकार की भूमिका के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि उदारीकरण की नीति का लाभ आम जनता तक पहुंचे। फिलहाल उदारीकरण की नीतियों का लाभ देश के कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से देखा जा रहा है। इनमें सूचना तकनाॅलोजी और फार्मास्यूटिकल्स (दवाइयों) का क्षेत्र खासतौर से उल्लेखनीय है।

पर हाल की धटना से लगता है कि दवाइयों के मामले में देश के अखबार गच्चा खा गए । इस तरह जाने-अनजाने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधने का काम कर दिया । यह सही है कि जिन जीवन रक्षक दवाइयों का उत्पादन देश में नहींे होता है उन्हें आमतौर पर सीमा शुल्क आदि से मुक्त रखा गया है। साइक्लोस्पोरिन ऐसी ही एक दवा है। हाल के वर्षों तक इस दवा के बाजार में स्विटजरलैंड की कंपनी नोवार्टिस का लगभग एकछत्र राज था। इस कंपनी की यह दवा सैंडिमन न्यूरल के नाम से बिकती है। इस साल के बजट के पहले तक इस दवा के आयात पर कोई भी शुल्क नहीं लगता था। लेकिन इस वर्ष के बजट में साइक्लोस्पोरिन पर सीमा शुल्क की पूरी छूट हटा दी गई । इस पर 15 प्रतिशत की रियायती दर पर सीमा शुल्क लगा दिया गया है। इसका कारण यह है कि भारत में ही आरपीजी लाईफ साइंसेज़ ने इस दवा का निर्माण शुरू कर दिया है। आरपीजी से खरीदी हुई दवा की बिक्री सिपला और पनेशिया नामक कंपनियां भी भारतीय बाजार में करती हैं। आयात शुल्क में उठाये गये सरकार के इस कदम पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं शुरू हो गई। अखबारो में खबरें छपने के बाद, लोकसभा में सवाल पूछा गया और सरकार दबाव में आ गई। उसने इस वृद्धि पर विचार करने का आश्वासन दिया है। जबकि वृद्धि सोच समझ कर एक मान्य नीति के तहत की गई थी। लेकिन अखबारों में प्रकाशित खबरों से ऐसा लगा मानो सरकार ने राजस्व की बढ़ोत्तरी के लिए इन मरीजों की जान खतरे में डाल दी है। इस मामले पर राज्य सभा में भी सवाल उठा था। अगस्त के महीने में ही राज्य सभा में एक लिखित उत्तर में सरकार ने बताया था कि वह साइक्लोस्पोरिन पर से सीमा शुल्क हटाने की अर्जियों पर विचार कर रही है। इसके बाद लोकसभा में भी वित्त राज्य मंत्री ने भी ऐसा ही आश्वासन दिया है। लेकिन उन्होंने जो तथ्य सदन को बताए हैं उसके बाद यह समझना मुश्किल है कि गुर्दे के इन मरीजों को परेशानी क्या है ? सरकार किस मजबूरी में संसद के दोनों सदनों को यह आश्वासन दे बैठी है कि वह मामले पर विचार कर रही है?

दरअसल इस मामले में तथ्य यह है और मंत्री जी ने भी ऐसा ही कहा है कि देश मे चार कंपनियां अब ऐसी दवा का उत्पादन कर रही हैं। इन कंपनियों की उत्पादन क्षमता पूरे देश की आवश्यकता को पूरा करने के लिए काफी है। इसके अलावा, ताज्जुब की बात तो यह है कि सीमा शुल्क लगाए जाने के बाद न तो नोवाटिस की दवा सैंडिमन न्यूरल की कीमत में और ना ही ऐसी किसी अन्य दवा की कीमत में कोई बढ़ोत्तरी हुई है। जाहिर है, इन दवाइयों की कीमत पहले ही इतनी ज्यादा थी कि शुल्क बढ़ने के बावजूद भारतीय कंपनियों की प्रतिस्पर्धा में विदेशी कंपनी को अपने उत्पाद की कीमत में वृद्धि की गुंजाईश नहीं लगी। इससे यह भी साफ हो जाता है कि ये विदेशी कंपनियां कितने भारी मुनाफे पर इन दवाओं को भारतीय बाजार में बेच रही थीं। यहां यह उल्लेखनीय है कि देश में बनी दवाइयों की कीमतें आयातित सैंडिमन न्यूरल की तुलना में काफी कम हैं। एक ओर जहां सैंडिमन न्यूरल की एक खुराक की कीमत साठ रूपए से भी अधिक है वहीं भारतीय निर्माताओं की दवाइयां 38 से 45 रूपये के बीच उपलब्ध हैं। इसके साथ ही यह महत्वपूर्ण बात है कि सीमा शुल्क बढ़ाने के बावजूद इस दवा की कीमत बढ़ी ही नहीं । तो जाहिर है कि मरीजों को इलाज पर एक भी पैसा ज्यादा खर्च करने की नौबत फिलहाल तो नहीं आई है।

पर अखबारों ने अलग ही तरह की तस्वीर खींची। पता नहीं सरकार इस दबाव में या किसी अन्य ‘गोपनीय’ कारण से सीमा शुल्क में वृद्धि पर पुनः विचार करने का आश्वासन दे चुकी है। जब सच्चाई यह है तो जाहिरन यह जांच का विषय है कि हजारों की संख्या में मरीजों के नाम से भेजे गए आवेदन क्या वास्तव में मरीजों ने खुद ही भेजे थे या किसी ऐसी कंपनी ने भिजवाए थे जिसका हित इससे जुड़ा हुआ है। ऐसी शिकायतों के आधार पर ही पत्रकारों ने, तथ्यों की जांच किए बगैर, अखबारों और टेलीविजन पर लगातार ऐसी खबरें दीं जिससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ही फायदा होगा, देश को नहीं । यह शर्म, दुख और चिन्ता का विषय है। विशेषकर तब जबकि ऐसी खबरें देने वालों में वे पत्रकार भी शामिल थे जो जाहिराना बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खिलाफत करते हैं।

पिछले कुछ दिनों से देश की चिन्ता करने वालों को यह देखकर हैरानी हो रही है कि गलत नीतियों का पारम्परिक रूप से विरोध करने वाले बुद्धिजीवी, समाजसुधारक व पत्रकार भी धीरे धीरे अपनी धार खोते जा रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे विदेशी कंपनियों की आंधी ने और टेलीविजन चैनलों की बाढ़ ने लोगों की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं, चिन्ताओं, आकांक्षाओं व मूल्यों को जड़ से उखाड़ना शुरू कर दिया है। टी.वी. मीडिया की पहुंच इतनी व्यापक है कि ज़रा-सी देर में सारे देश में हल्ला मच जाता है। लोगों तक सूचना पहुंचाने की यह व्यवस्था जितनी ज्यादा केन्द्रित होती जाएगी उतनी ही इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगते जाऐंगे। क्योंकि बार बार ऐसा देखने में आ रहा है कि यह मीडिया जो चाहता है सो दिखाता है और जिसे दिखाने से मीडिया के नियंत्रकों को परेशानी का सामना करना पड़े उसे यह मीडिया बड़ी आसानी से दबा देता है या तोड़मरोड़ कर पेश करता है। चाहें वह तथ्य कितने ही महत्वपूर्ण क्यों नहीं । ऐसे तमाम उदाहरण पेश किये जा सकते हैं। विदेशी कंपनियों की इस दवा पर सीमा शुल्क को लेकर मचाया गया शोर उसका एक बहुत छोटा नमूना है। जिसका हकीकत से कोई नाता नहीं ।

Friday, September 1, 2000

प्रियंका गांधी का प्रसव


गर्भवती प्रियंका गांधी की देखभाल करने वाले, दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के बड़े डाक्टरों ने पत्रकारों को बताया कि वे प्रियंका के प्रसव को लेकर किसी हड़बड़ी में नहीं हैं। वे इत्मीनान से उनकी स्वाभाविक प्रसव पीड़ा शुरू होने की प्रतिक्षा करेंगे क्योंकि वे उन्हें प्राकृतिक रूप से ही प्रसव करवाये जाने के पक्ष में हैं। यह खबर पढ़ते ही एक तरफ तो सन्तोष हुआ कि इतालवी मां की आधुनिक बेटी प्रियंका प्रसव के पारम्परिक तरीके में ही विश्वास करती हैं। दूसरी तरफ डाक्टरों के इस आत्मविश्वास भरे सहज वक्तव्य को पढ़कर दिमाग में वो तमाम चेहरे घूम गये जिन्हें पिछले वर्षों में, समान परिस्थितियों में, अकारण आपरेशन से बच्चा पैदा करने को मजबूर किया गया। आप भी यदि अपने सामाजिक दायरे का सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि पिछले 10 वर्षों में गर्भवती महिलाओं को आपरेशन से बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर करने की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। रोचक बात यह है कि ऐसा प्रायः प्रायवेट अस्पतालों या नर्सिंग होम में ही ज्यादा होता है सरकारी अस्पतालों में नहीं। वह भी केवल सम्पन्न परिवारों की ही महिलाओं के साथ ही होता है। क्योंकि आपरेशन से बच्चा करवाने में डाक्टरों और अस्पताल दोनों का बिल तगड़ा बनता है। सुप्रसिद्ध स्वास्थ्य विशेषज्ञ डाॅ. सुश्री मीरा शिवा बताती हैं कि औसतन 8 से 10 फीसदी गर्भवती महिलाओं की स्थिति ही ऐसी होेती है जिसमें आपरेशन से प्रसव कराना जरूरी होता है। पर आज यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा बढ़ गया है। यह चिन्ता की बात है। सारा दोष डाक्टरों का ही नहीं सम्पन्न परिवारों की अनेक गर्भवती महिलाएँ भी कभी कभी नासमझी में आपरेशन से ही बच्चा पैदा करने की जिद करती हैं। शायद उन्हें या उनके घरवालों को ऐसा लगता हो कि जब तक कुछ दिन अस्पताल में रह कर मोटे पैसे खर्च करके बच्चा पैदा न किया जाए तब तक उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रह पायेगी। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि आपरेशन से बच्चा तभी पैदा करना चाहिए जब गर्भवती महिला से ऐसे आपरेशन की आवश्यकता के संकेत मिलने लगें। मसलन प्रसव पीड़ा हो ही न, गर्भधारण काल सामान्य से ज्यादा बढ़ जाए। मां के पेट में शिशु की स्थिति स्वाभाविक न होकर ऐसी हो कि प्रसव के समय उसकी जान खतरे में पढ़ जाए। ऐसे ही कुछ दूसरे संकेत मिलने पर ही आपरेशन किया जाना चाहिए। पर डाक्टर शिवा का सर्वेक्षण बताता है कि ज्यादातर मामलों में डाक्टर इन संकेतों के बिना ही आपरेशन कर डालते हैं। जिसका जच्चा और बच्चा दोनों स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। चिन्ता की बात यह है कि जहां एक तरफ शहर की साधन सम्पन्न महिलाओं को प्रसव काल में सभी स्वास्थ्य सुविधाऐं आसानी से उपलब्ध हैं जबकि दूसरी तरफ देश की बहुसंख्यक ग्रामीण और शहरी  गरीब महिलाओं के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सरकारी अस्पतालों में सही जांच करवाने की भी सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसलिए देश में बहुत सारी गर्भवती महिलाऐं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। अकेले उड़ीसा में हर वर्ष एक लाख गर्भवती महिलाओं में से सात सौ महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। यह बहुत खतरनाक स्थिति है। इतना ही नहीं कृत्रिम रूप से प्रसव पीड़ा पैदा कराने की जो आधुनिक दवाईयां और इंजेक्शन आजकल प्रचलन में हैं उनका गर्भवती महिला और उसके शिशु के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
उधर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की महिला रोग विशेषज्ञ डाॅ. दीपा डेका का कहना है कि गर्भ के जटिल मामलों में आपरेशन करना ही एकमात्र विकल्प होता है पर वे भी इस बात से सहमत हैं कि बालक को जन्म देना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है इसलिए जहां तक सम्भव हो इसे कुशल डाक्टरों की निगरानी में प्राकृतिक रूप से ही पूरा किया जाना चाहिए। अमरीकी मूल की श्रीमती जेनेट चावला पिछले 20-25 वर्षों से प्रसव की आधुनिक व पारम्परिक तकनीकीयों का अध्ययन कर रही हैं। उनका कहना है कि प्रसव के समय गर्भवती माता को चिकित्सा से ज्यादा प्यार, हिम्मत, तीमारदारी, पौष्टिक खुराक और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जबकि श्रीमती चावला के अनुसार हमारे ज्यादातर अस्पतालों के महिला रोग विशेषज्ञ डाक्टर इन जरूरतों से अनभिज्ञ हैं। बच्चे का जन्म जोकि परम्परा से एक पारिवारिक उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए अस्पतालों में जाकर एक यातना शिविर की तरह हो जाता है। जहां डाक्टर और नर्स गर्भवती महिला और उसके तीमारदारों पर अनावश्यक रूप से रूखा व्यवहार करते हैं। जिससे गर्भवती महिला के मन में भी भय, तनाव और कुंठा पैदा हो जाती है जिसका जाहिरन उस पर और नवजात शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए श्रीमती चावला अमरीका से लेकर भारत के गांवों तक में प्राकृतिक रूप से बच्चा पैदा करने की वकालत करती रही हैं। प्रसव के दौरान अपनाऐ जाने वाली भारत की तमाम पारम्परिक प्रथाओं का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंची हैं कि ये प्रथाऐं गर्भवती महिलाओं व नवजात शिशुओं के लिए वरदान के समान हैं। मसलन भारत में ऐसे समय में गर्भवेती महिला को गर्म तासीरवाला भोजन ही दिया जाता है जो स्वाभाविक रूप से प्रसव पीड़ा को पैदा करता है और बढ़ाता है। इसी तरह गर्म पानी से पेट की सिकाई और कुछ खास तरह से की जाने वाली कसरतें करके भी गर्भवती महिला का प्रसव बिना किसी दिक्कत के आसानी से सम्पन्न कराया जा सकता है। दूसरी तरफ आधुनिक महिलाऐं व चिकित्सक इन बातों को हंसी में उड़ा कर गर्भवती महिलाओं को कुछ भी खाने पीने की इजाजत दे देते हैं। जिसका दुश्परिणाम इन महिलाओं को सारे जीवन भुगतना पड़ता है। श्रीमती चावला का 15 वर्ष का अध्ययन यह सिद्ध करता है कि प्रसव के काम में दाईयों की भूमिका आधुनिक डाक्टरों से कहीं ज्यादा अच्छी होती है। क्योंकि ये दाईयाँ अपने लम्बे अनुभव और पारम्परिक ज्ञान से गर्भवती महिला को जो राहत देती हैं वह अत्याधुनिक अस्पताल नहीं दे पाते। इसलिए गर्भधारण के जटिल मामलों को छोड़कर सामान्य केसों के लिए दाई की मदद से ही प्रसव करावाया जाना चाहिए। अमरीका में तो घर पर ही रहकर बच्चा पैदा करने का रिवाज तेजी से फैलता जा रहा है। जबकि भारत में आधुनीकरण के नाम पर प्राइवेट अस्पतालों में जाकर बच्चा पैदा करने की इच्छा तेजी से बढ़ती जा रही है। यह सही है कि किसी प्रशिक्षण के अभाव और सरकारी मान्यता के अभाव में अब दाईयों का स्तर और उनकी संख्या तेजी से घटती जा रही है। हाल ही में दिल्ली के बड़े अस्पतालों द्वारा निराश की दी गईं तीन महिलाओं को दाईयों की मदद से ही गर्भधारण भी हुआ और प्रसव भी सुगमता से हो गया। इसका अर्थ यह नहीं कि हर दाई एक जैसी कुशल होती हो। अक्सर कुछ दाईयाँ भी बिना बिचारे ऐसे इंजेक्शन लगा देती हैं जो घातक हो सकते हैं। इसलिए श्रीमती चावला परखी हुई दाईयों से सेवा लेने के पक्ष में हैं।
आमतौर पर देखने में आता है कि कामकाजी देहाती महिलाऐं प्रसव के अन्तिम क्षण के पहले तक काम करती रहती हैं। वहीं खेत में शिशु का जन्म हुआ और उसे टोकरी में डालकर घर ले आईं। जबकि आधुनिक महिलाऐं इतनी मजबूत नहीं होतीं क्योंकि आज के जीवन नें उनसे शारीरिक श्रम करने वाले काम धीरे धीरे खींच लिए हैं। इसी तरह     सीधा लिटा कर बच्चा पैदा करवाना गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत के विरूद्ध है। इससे बच्चे के स्वाभाविक रूप से बाहर आने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। जबकि एक विशेष मुद्रा में बैठकर अगर प्रसव किया जाए तो बालक और मां दोनों को ज्यादा सहूलियत होती है। इसलिए अति आधुनिक चिकित्सालयों के प्रसूति विभागों में अब ऐसी विशेष कुर्सीनुमा मशीनें भी आ गई हैं जिनमें बैठकर शिशु को जन्म दिया जा सकता है।
डाक्टर मीरा शिवा बताती हैं कि बच्चा पैदा करने की जो तकनीकी पूरी दुनिया में लैबियोर्स मैथडके नाम से मशहूर है वह तकनीकी डाक्टर लैबियोर भारत से ही सीख कर गये थे तो हम क्यों नहीं अपनी ही पारम्परिक प्रथाओं को अपनाते हैं ? उधर पश्चिमी देशों में भी फिर से घर पर ही रहकर बच्चे को जन्म देने का रिवाज फैलता जा रहा है। बालक का जन्म एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है इसमें आनन्द और उत्सव का भाव छिपा है। भारत में कोई भी उत्सव बिना परिवार, समुदाय और धर्म को जोड़े बिना पूरा नहीं हो सकता। इसलिए बालक के जन्म के समय दादी-नानी, मौसी-बुआ जैसी घर की महिलाओं का गर्भवती महिला के साथ जन्म की अन्तिम घड़ी तक जुड़े रहना उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। ऐसी अनुभवि महिलाऐं हर समय गर्भवती महिला या जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की जरूरतों के अनुरूप ही उसकी देखभाल करती हैं। जबकि आधुनिक डाक्टर और नर्स यह सब नहीं कर पाते। संयुक्त परिवारों में तो आज भी ऐसा ही होता है पर जहां केवल पति-पत्नी और बच्चे ही रहते हों वहां गर्भवती महिला को यह सुविधा नहीं मिल पाती ।
देश के निर्बल वर्गों की गर्भवती महिलाओं या नवजात शिशुओं की सस्ती किन्तु सही तीमारदारी सुनिश्चित करने के लिए समर्पित दिल्ली की मातृका नाम की एक संस्था इस दिशा में कई वर्षों से ठोस काम कर रही है। संस्था के संचालकों का मानना है कि धनी लोग तो धन खर्च करके बड़े अस्पतालों में अपने परिवार की महिलाओं की देखभाल सुनिश्चित कर लेते हैं, किन्तु किसान मजदूर परिवार की महिलाओं को न तो परिवार से ही ऐसी मदद मिलती है, न उनके हालात ऐसे होते हैं कि वे शिशु जन्म के पहले या बाद में वे मजदूरी करने से बच सकें। दूसरी तरफ इनके लिए        उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाऐं केवल कागजों पर ही चल रही हैं। ऐसी स्थिति में तो यह और भी जरूरी है कि सरकार व मीडिया देश के आम लोगों को प्रसव के बारे में सही व पारम्परिक सूचनाऐं देकर उनमें आत्म विश्वास और सुरक्षा की भावना पैदा करें। इसके दो लाभ होंगे एक तो सरकार के चरमराते स्वास्थ्य सेवा तंत्र पर सेे बोझ कम होगा और दूसरी ओर देश की आधी से अधिक साधनहीन आबादी को यह समझ में आ जायेगा कि जिस काम पर वे अपना पेट काट कर पैसा बर्बाद करते हैं वह काम पारम्परिक ज्ञान की मदद से कम खर्चे में बेहतर तरीके से हो सकता है। यहां यह ध्यान रखना भी जरूरी होगा कि हमारे देश में महिलाओं के स्वास्थ की तरफ पुरुषों का रवैया प्रशंसनीय नहीं होता, इसलिए यह सावधानी भी बरतनी होगी कि कहीं ऐसा न हो कि पुरुष अपने घर की गर्भवती महिलाओं को रामभरोसे छोड़कर निश्चिंत हो जाऐं। इस दिशा में आज भी देश में भारी अज्ञान फैला है। दुर्भाग्य से आधुनिक लोग इस मामले में पारम्परिक लोगो के मुकाबले कहीं कम समझदार हैं। प्रियंका गांधी के प्रसव के समाचार से ऐसे लोगों की भी आंखें खुलनी चाहिए।