Friday, August 18, 2000

छत्तीसगढ़ के लोग अब चुप नहीं बैठेंगे


छत्तीसगढ़ राज्य के गठन का विधेयक पास हो गया। केंद्रीय गृहमंत्री ने उम्मीद जताई है कि आगामी एक नवंबर तक छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो जाएगा। इस तरह खनिज और वन्य संपदा से भरपूर इस इलाके के लोगों का वर्षों पुराना सपना पूरा हो जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने संसाधनों पर अपना अधिकार जमाकर छत्तीसगढ़ के लोग अब अपना आर्थिक विकास तेजी से कर पाएंगे। सबसे पहले छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य की मांग इलाके के लोकप्रिय मजदूर नेता शहीद शंकरगुहा नियोगी जी ने उठाई थी। गरीब किसान-मजदूरों के हित में सादगी त्याग और तपस्या सं भरा जीवन समर्पित करने वाले नियोगी जी ने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा  का गठन कर इस लड़ाई का अंत समय तक सफल संचालन किया। पर छत्तीसगढ़ राज्य के गठन की घोषणा होते ही इसके मुख्यमंत्री पद के लिए जिन राजनेताओं में मल्ल युद्ध होना शुरू हो गया है उनका छत्तीसगढ़ के गरीब किसान-मजदूरों और वनवासियों के दारिद्रपूर्ण, कठिन और संघर्षशील जीवन से या उनकी आकांक्षाओं से दूर-दूर का भी संबंध नहीं है। पुरानी कहावत है कि जुझारू और क्रांतिकारी लोग बलिदान देकर राजनैतिक परिस्थितियां बदलते हैं और चतुर भोगी लोग उनके त्याग की अग्नि पर सत्ता की रोटियां सेंकते हैं। शायद यही अब छत्तीसगढ़ में होने जा रहा है। इसलिए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा नए राज्य के गठन को अपनी मंजिल नहीं मानता बल्कि इसे तो अपने संघर्ष का पहला पड़ाव भर मानता है।
मोर्चे के वर्तमान नेता श्री जनकलाल ठाकुर दूसरे राजनेताओं से भिन्न एक सच्चे जनसेवक के रूप में पिछले दो बार से मध्य प्रदेश विधानसभा में विधायक के रूप में अपनी विशिष्ट छवि बनाने में कामयाब हुए हैं। इस मोर्चे के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाली सुश्री सुधा भारद्वाज मानती हैं कि उनके इलाके के लोगों के लिए आने वाले दिन और भी संघर्षमय होंगे। जब नवगठित राज्य के सत्तालोलुप राजनेता पदों, सरकारी वाहनों व बंगलों के पीछे भागेंगे। नव गठित राज्य की नई सरकार इलाके के गरीब और पिछड़े लोगों को राहत पहुंचाने की बजाए राज्य के सीमित संसाधनों को सत्ताधीशों के ऐशों आराम के सामान जुटाने में बर्बाद करेगी तब छत्तीसगढ़ की जुझारू जनता सड़कों पर उतरेगी और अपना हक मांगेगी। अलबत्ता ये लड़ाई पहले के मुकाबले अब ज्यादा आसान होगी। क्योंकि पहले सत्ताधीशों से अपनीे बात कहने छत्तीसगढ़ के आम लोगों को रेलगाडि़यों में भर कर भोपाल जाना पड़ता था। जो एक लंबा तकलीफदेह सफर होता था। अब तो सत्ता का केंद्र उनकी पहुंच के भीतर है। अब तो उन्हें अपने काम की जगह से यानी खेत, खदान या कारखानों से बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। हर अन्याय के विरूद्ध इकट्ठा होना अब बहुत आसान होगा। इतना ही नहीं सत्ताधीशों के रंग-ढंग, उनकी पैनी निगाह के सामने होंगे। वो हर रोज देखेंगे कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने से किसकी आर्थिक प्रगति तेजी से हो रही है ? आम लोगों की या सत्ताधीशों की ?
भावी संघर्ष के लिए छत्तीसगढ़ के लोगों ने अभी से जमीन तैयार करनी शुरू अर दी है। पिछले दिनों बैंकों के कर्जा वसूली अभियान के दौरान प्रशासन के दोहरे रवैए के विरूद्ध छत्तीसगढ़ के किसानों ने एकजुट होकर मोर्चा लिया। हुआ यूं कि बैंकों ने छत्तीसगढ़ के छोटे और गरीब किसानों से कर्जा वसूलने का नायाब और आततायी तरीका ईजाद किया। मार्च 2000 में दुर्ग जिले के गुरूर थाने में कर्जा वसूली का शिविर लगाया गया। थाने और पुलिस को इस्तेमाल कर बैंक अधिकारियों ने कर्जदार किसानों को थाने में तलब किया। वहां उन्हें आतंकित किया जाने लगा। जबकि दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ अंचल के ही उद्योगपतियों पर बैंकों का सैकड़ों करोड़ रुपया बकाया है। जो कि पूरे इलाके के हजारों किसानों को दिए गए कुल कर्जे का पचासों गुना ज्यादा रकम है। पर इन उद्योगपतियों के विरूद्ध कर्जा वसूली के लिए कभी भी ऐसे सख्त और भयाक्रांत कर देने वाले कदम नहीं उठाए गए।  जैसे ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के कार्यकर्ताओं को पता चला वे गुरूर थाना पहुंच गए और उन्होंने किसानों से कहा कि पुलिस से भयभीत होने की कतई जरूरत नहीं है। तब सब किसानों ने मिलकर बैंक अधिकारियों को चुनौती दी। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि बैंक अधिकारी पहले उन उद्योगपतियों से कर्जा वसूलें जिन पर करोड़ों रुपए की देनदारी है। जो बैंकों का पैसा हड़प कर पांच सितारा जिंदगी जी रहेे हैं। जब उनसे वसूली कर लें तब उन किसानों की तरफ मुखातिब हों जिन पर चंद हजार रुपए कर्ज है और जो खराब फसल के कारण भुखमरी की जिंदगी जी रहे हैं। इसी मोर्चे की एक कार्यकर्ता सुश्री सुधा भारद्वाज जो कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री दिवंगतत प्रो. श्रीमती कृष्णा भारद्वाज की बेटी हैं। स्वयं सुधा आईआईटी, कानपुर और लंदन में पढ़ी और पिछले दस वर्षों से भी ज्यादा से छत्तीसगढ़ इलाके में गरीबतम मजदूरों की सी जिंदगी जीकर उनके संघर्ष में साथ दे रही हैं। सुधा चाहती तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करके लाखों रुपए महीने कमा रही होतीं। ऐसी अनुभवी और तपस्वी सुश्री सुधा भारद्वाज का कहना है कि कहने को तो हमारे देश में लोकतंत्र है पर आम लोगों के वोटांे से चुनी हुई सरकारें उन उद्योगपतियों के इशारे पर चलती हैं जो कभी वोट डालने भी नहीं जाते। सुधा पूछती हैं कि क्या वजह है कि महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे संपन्न राज्यों के किसान भी बैंके के छोटे-छोटे कर्जे न चुका पाने की स्थिति में आत्म हत्या कर लेते हैं। जबकि इस देश के उद्योगपतियों पर बैंकों और सरकार का 55 हजार करोड़ रुपया कर्ज है पर न तो उनमें से किसी की कुर्की होती है, न किसी को जेल होती है और न ही उन्हें समय पर कर्ज और ब्याज न देने की एवज में कोई सजा ही दी जाती है । सजा देना तो दूर उलटा इन उद्योगपतियों के संगठन बड़ी निर्लजता से इस गरीब देश की सरकार पर दबाव डालते हैं कि सरकार उन पर बकाया 55 हजार करोड़ रुपए का कर्जा माफ कर दे।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के ही एक समर्पित कार्यकर्ता अनूप सिंह, जो दस वर्ष पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टिफिन्स काॅलेज से पढ़ कर मोर्चे में एक मजदूर कार्यकर्ता के रूप में शामिल हुए, कहते हैं कि जितना कर्जा दुर्ग, राजनंद गांव व कवंरघा जिलों के सब किसानों पर बकाया है उससे कहीं ज्यादा कर्जा अकेले भिलाई वायर्स लिमिटेड के ऊपर बकाया है। प्रशासन 37 हजार किसानों को प्रताडि़त कर, इतनी मेहनत करके जितना कर्जा वसूलेगा उसकी बजाए अगर अकेले भिलाई वायर्स लिमिटेड से ही कर्जा वसूल ले तो मेहतन भी कम लगेगी और वसूली भी कहीं ज्यादा होगी। अनूप पूछते हैं कि क्या वजह है कि प्रशासन 37 हजार किसानों पर डंडे बरसाने में तो इतना फुर्तीला है पर उद्योगपतियों की तरफ उसकी नजर ही नहीं जाती, क्यों? दक्षिणी अफ्रीका के रंगभेद की ही तरह क्या यह गरीबों के विरूद्ध और अमीरों के पक्ष में सरकार का नस्लवाद नहीं है ? छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के लोग पिछले दिनों भारत के राष्ट्रपति श्री केआर नारायनन से मिले और उनसे इस तरह के प्रशासनिक नस्लवाद को रोकने की अपील की। 
छत्तीसगढ़ के ये जुझारू नौजवान आरोप लगाते हैं कि केंद्र और प्रांतीय सरकारों का जो हजारों करोड़ का घाटा है उसका एक बड़ा कारण यही रंग भेद है। आज देश में लगभग आठ लाख करोड़ रुपया काला धन है। यदि इस पर मात्र 33 फीसदी कर लगा दिया जाए तो सरकार की तमाम आर्थिक जरूरतें पूरी हो सकती हैं और विदेशी कर्ज भी तेजी से घट सकता हैं इतना ही नहीं सरकार का वार्षिक बजट भी फिर घाटे का बजट न रह कर मुनाफे का बजट बन सकता है। अगर सरकार ईमानदारी से ऐसा करे तो उसे विनिवेशी करण की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। बशर्ते कि सत्ताधीशों का इरादा देश से काला धन समाप्त करने का हो।असलियत यह है कि देश में देशी व विदेशी धनी वर्ग से सरकारी कर्ज वसूलने की दर पिछले दस वर्षों से लगातार गिरती जा रही है।
छत्तीसगढ़ का इलाका खनिज और वन्य संपदा से भरा पूरा है। आवश्यकता है स्थानीय संसाधनों के संतुलित दोहन की। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा लंबा और खतरनाक संघर्ष करने के अनुभवी छत्तीसगढ़ के लोग नए राज्य में अपना शोषण नहीं होंने देंगे। वे अपने हक के लिए तो लड़ेंगे ही नए राज्य के नए सत्ताधीशों को बेफिक्री से प्रदेश लूटने की इजाजत नहीं देंगे। यदि वे ऐसा कर सकें तो छत्तीसगढ़ राज्य एक सबल राज्य होकर ऊभरेगा। तभी इसके गठन का मकसद पूरा होगा।

Friday, August 11, 2000

कश्मीर: चलो ये भी करके देख लें !

कश्मीर की घाटी में पिछले एक दशक से खून की होली खेलने वाला संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन अब अचानक अपने तेवर बदल रहा है। उसने भारत सरकार से शांति-वार्ता शुरू कर दी है। ये दूसरी बात है कि इस वार्ता के शुरू होते ही अमरनाथ के पवित्र दर्शनों को जा रहे 100 बेगुनाह तीर्थयात्रिओं को मौत के घाट उतार दिया गया। हिजबुल मुजाहिद्दीन ने इस हत्या कांड की निंदा की है। पर घाटी के ही आतंकवादी संगठन लश्करे-तोइवा और जैश-ए-मोहम्मद की तरफ उंगलिया उठ रही हैं। ये तो शुरूआत है अभी तो इस बात का पूरा भरोसा भी नहीं कि हिजबुल मुजाहिद्दीन इस बातचीत के बारे में कितना गंभीर है ? क्या उसके सभी नेता इस पहल पर एकमत हैं ? क्या वे वाकई कश्मीर में शांति चाहते हैं ? कहीं ये उनकी कोई नई चाल तो नहीं ? कहीं ये कदम अमरीका के पाकिस्तान पर पड़ रहे दबाव के कारण ही तो नहीं उठाया गया ? जो भी हो फिलहाल कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। ये तो आने वाला वक्त बताएगा कि ये बातचीत किस दिशा में आगे बढ़ती है। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि ये एक अच्छी शुरूआत है। अगर दोनो पक्ष ईमानदारी से इस पहल को आगे बढ़ाते हैं तो भविष्य में कुछ रास्ता निकल सकता है। पर इसके लिए कई तरह की सावधानियां बरती होगी।

कश्मीर घाटी में फैले लगभग 9 आतंकवादी संगठनों में से केवल एक ही संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन से बातचीत करने से घाटी की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकता। क्योंकि बाकी के आतंकवादी संगठनों के नेताओं व कार्यकताओं में इससे हताशा फैलेगी और वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कश्मीर घाटी में आतंकवाद और तेजी से फैलाने में जुट जाएंगे। इसलिए यह जरूरी होगा कि जितनी ज्यादा समूहों से अगल-अलग स्तर पर बातचीत चलाना संभव हो उतनों से ये बातचीत चलाई जानी चाहिए। वैसे भी हिजबुल मुजाहिद्दीन कश्मीर घाटी में फैले बाकी आतंकवादी संगठनों का कोई अकेला सरपरस्त तो है नहीं। अलग-अलग गुटों के अलग-अलग निहित स्वार्थ हैं और उन्हें सहारा और बढ़ावा देने वाले लोग भी अलग-अलग हैं। चाहे वो कश्मीर की राजनीति में हाशिए पर बैठा दिए गए स्थानीय नेता हों या भारत की सरहदों के बाहर बैठी ताकतें।

इसके साथ ही एक बहुत अहम् मसला है श्री फारूख अब्दुल्ला का रवैया और उनके साथी विधायकों और नेताओं की इस पहल पर सोच। आज कश्मीर घाटी में शांति स्थापना का कोई भी प्रयास वहां की स्थानीय सरकार के सदर श्री फारूख अब्दुल्ला की उपेक्षा करके पूरा नहीं किया जा सकता। इसका एक नमूना पिछले दिनों देश देख चुका है। जब केंद्रिय गृहमंत्री श्री लालकुष्ण आडवाणी ने श्री अब्दुल्ला को बिना विश्वास में लिए हिजबुल मुजाहिद्दीन से शांति-वार्ता की एकतरफा घोषणा कर दी तो श्री फारूख इतना ज्यादा बौखलाए कि उन्होंने रातोरात कश्मीर की स्वयत्तता का प्रस्ताव अपनी विधानसभा में पारित करके बिना वजह देश में तूफान खड़ा कर दिया। ऐसा करना फारूख की राजनीतिक मजबूरी थी। उन्हें लगा कि अगर केंद्र सरकार हिजबुल मुजाहिद्दीन से सीधे बात करके घाटी में शांति स्थापना करने में कामयाब हो जाती है तो कहीं नेशन कांफ्रेंस पार्टी का भविष्य ही खतरे में न पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि हिजबुल मुजाहिद्दीन संगठन शांति स्थापना के बाद चुनावी राजनीति में कूद पड़े और नेशनल कांफ्रेंस को दर-किनार कर कश्मीर की राजनीति में हावी हो जाए।

श्री फारूख अब्दुल्ला की राजनैतिक मजबूरियों और उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को मद्देनजर रख कर अगर उनके इस कदम का मूल्यांकन किया जाए तो शायद श्री फारूख को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि जो भी उनकी जगह होता शायव वह भी इन परिस्थितियों में ऐसा ही करता। यह राजनैतिक भूल तो केंद्रिय गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी की रही, जिन्होंने ऐसी बातचीत की पहल करने से पहले श्री फारूख अब्दुल्ला को विश्वास में नहीं लिया। यहां यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि श्री फारूख अब्दुल्ला कश्मीर की स्वायत्तता के मामले पर किसी अडि़यल घोड़े की तरह अपनी मांगों पर अड़े हुए नहीं हैं।

पिछले दिनों इस मुद्दे पर उनके कई विरोधाभासी बयान आए हैं। एक तरफ तो वे स्वायत्तता की बात करते हैं और दूसरी तरफ बार-बार जोर देकर कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हैं। कभी वो कहते हैं कि उन्हें 1953 की स्थिति के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है यानी उस स्थिति से कम या ज्यादा पर भी फैसला हो सकता है और कभी कहते हैं कि उनसे गलती हुई जो उन्होंने जल्दीबाजी में यह विधेयक पास करवा दिया वरना उनकी इच्छा तो देश में सभी प्रांतों में इस सवाल पर खुली बहस करवाने की है ताकि प्रांतों की स्वायत्तता के लटके हुए सवाल का कोई स्थायी हल निकल सके। उनके इस वक्तव्यों से साफ हो जाता है कि वे कश्मीर के सवाल को लेकर किसी भी सीमा तक लोचशील हो सकते हैं। यह एक शुभ संकेत है और इसलिए उनकी उपेक्षा किए बिना प्राथमिकता के आधार पर श्री फारूख अब्दुल्ला और उनके लोगों की बात भी सुनी जानी चाहिए। वैसे भी कश्मीर में मौजूदा सरकार की उपेक्षा करके कुछ विशेष हासिल नहीं किया जा सकता।

जैसे कि संकेत मिल रहे हैं कि पाकिस्तान इस शांति-वार्ता से कतई खुश नहीं है। पाकिस्तान की राजनीति पर हावी रहे सैन्य अधिकारी व कुछ कुलीन, ताकतवर स्वार्थी तत्व घाटी और भारत में आतंकवाद फैलाए रखने के पक्ष में हैं क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हित पूरे होते हैं। वे न तो कश्मीर में शांति बहाल करवाने के इच्छुक हैं और ना ही उनकी रूचि इस बात में है कि घाटी के लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो। उनका एक मात्र मकसद घाटी में आतंकवाद को जिंदा रखना है। इसलिए घाटी में सक्रिय कई आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान का सीधा या परोक्ष समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान की राजनीति में सेना हमेशा से हावी रही है और पाकिस्तान की सेना का एकसूत्रीय ऐजेंडा है भारत द्वेष। जिसकी दुहाई देकर वे अपने हित साधते रहते हैं। इसीलिए यह माना जाता है कि जब नवाज शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी के सद्-प्रयासों से दोनों देशों के बीच शांति स्थापना का माहौल बनना शुरू हुआ तभी कारगिल में युद्ध छेड़ दिया गया। जाहिर है कि पाकिस्तानी सेना के उच्च अधिकारी हिजबुल मुजाहिद्दीन के उन नेताओं को लगातार इस शांति-वार्ता के विरूद्ध उकसाते रहेंगे जो पाकितान में रह कर इस संगठन को चला रहे हैं। जहां एक तरफ यह सच है वहां इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि बदले हालात में अब अमरीका पाकिस्तान को हर जा-बेजा बात पर संरक्षण देने को तैयार नहीं है। दूसरी तरफ चीन ने भी अपने रूख को कुछ बदला है। आज के अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में लगभग सभी देश अमरीका की दादागिरी के आगे नतमस्तक हैं। क्योंकि अब दुनियां में वही एक सुपर पावर बची है और कोई भी अमरीका से अपने रिश्ते बिगाड़ कर सद्दाम हुसैन की तरह अपनी दुगर्ति नहीं करवाना चाहता। अमरीका का व्यावसायिक हित इस उपमहाद्वीप में शांति स्थापित करने मेें ही है। इसलिए उसने पाकिस्तान पर कड़ा दबाव बना रखा है। वैसे भी अमरीका पास्तिान के सैन्य शासन से खुश नहीं है। वह पाकिस्तान में लोकशाही की बहाली चाहता है। इसलिए हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे संगठनों को कश्मीर में शांति का महत्व समझ में आने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

कश्मीर के आतंकवादी संगठनों से बातचीत के ठोस नतीजे निकलें इसके लिए जरूरी है कि इन बातचीतों में केवल नौकरशाह ही नहीं, दूसरे भी कई तरह के अनुभव वाले लोग शामिल हों। मसलन, घाटी के आतंकवादियों से पिछले वर्षों में लगतार संपर्क में रहे पत्रकार, घाटी और उसके बाहर के वे सम्मानित लोग जिनकी बात वहां सुनी जाती है। ऐसे सैन्य अधिकारी और प्रशासक जिनकी सख्ती और नीयत के आतंकवादी संगठन भी कायल रहे हैं व ऐसी परिस्थितियों से निपटने के अनुभवी लोग। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि ये बातचीत जितने ज्यादा खुलेपन से होगी और जितनी लंबी चलेगी उतने ही परिणाम भी दूरगामी होंगे। कभी-कभी जल्दीबाजी में किए गए फैसले हालात सुधारने की बजाए बिगाड़ देते हैं। इसमें शक नहीं कि कश्मीर के घाटी के लोग न तो आतंकवादियों के मुरीद हैं न पाकिस्तान या हिंदुस्तान के हुक्मरानों के। वर्षों के अशांत वातावरण ने उनकी रोजी-रोटी छीन ली है। उन्हें बेरोजगारी की मार ने अधमरा बना दिया है। वे तो हर कीमत पर अमन, चैन और तरक्की चाहते हैं। अगर शांति-वार्ताओं के इस मंथन में से वाकई शांति का मक्खन निकल सके तो सबसे ज्यादा खुश जम्मू-कश्मीर के लोग होंगे जो आज या तो शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं या घाटी में ही अपने घरों में बेगानों की सी जिंदगी जी रहे हैं और हर दिन शायद यही नगमा गाते हैं, ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन-बीते हुए दिन वो मेरे प्यार पलछिन।’

Friday, August 4, 2000

कैसे बचाएं अपनी आजादी ?


जब से डा. मनमोहन सिंह देश में आर्थिक उदारतावाद लाए हंै हर शहर में लघु उद्योग क्रमशः बंद होते जा रहे हैं। बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और विकास की बजाए जनता विनाश की ओर धकेली जा रही है। देश के अनेक जागरूक लोग और संगठन उदारतावाद से पैदा हुए खतरों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। पर स्वेदेशी को डंका पीटने वाली भाजपा भी इंका के रास्ते पर ही चल रही है। उधर उदारतावाद के नाम पर देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ रहे डाके की तरफ इन संगठनों ने काफी रोशनी डाली है। ऐसे ही एक संगठन द्वारा जारी एक पर्चे में महत्वपूर्ण जानकारियों को एक जगह इकट्ठा करके रख दिया गया है ताकि इसे पढ़ने वाला कम समय में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट का अनुमान लगा सके।
इस पर्चे में छापी गई शोध आधारित जानकारी के अनुसार देश की पांच प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत से मोटा मुनाफा कमा कर विदेश भेज रही हैं। हिंदुस्तान लीवर ने जब भारत में कारोबार शुरू किया था तो मात्र 24 लाख रूपए लगाए थे। आज यह कंपनी हर साल भारत से 775 करोड़ रुपए का मुनाफा कमा कर विदेश ले जाती है। कोलगेट पामोलिव इंडिया ने शुरू में मात्र 1.5 करोड़ रुपया लगाया था और अब यह कंपनी मुनाफा के रूप में भारत से 46 करोड़ रुपया हर साल कमा कर विदेश ले जाती है। बाटा इंडिया कंपनी ने 70 लाख रुपया लगाया था और अब यह कंपनी 24 करोड़ रुपया हर साल कमा कर भारत से विदेश ले जाती है। पेप्सी कोला इंडिया कंपनी ने शुरू में 40 लाख रुपया लगाया था और अब यह कंपनी 240 करोड़ रुपया कमा कर हर साल भारत से विदेश ले जाती है। कोका कोला इंडिया कंपनी ने शुरू में 70 करोड़ रुपया शुरू में लगाया था और अब यह कंपनी 300 करोड़ भारत से हर साल कमा कर विदेश ले जाती है।
दुनियां की अर्थव्यवस्था में सोने की चिडि़या माने जाने वाला भारत कभी विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश था। आज सबसे बड़ा कंगाल देश बन गया है। भारत की हुकूमत पर अंग्रेजों का सिक्का जमने से पहले सन् 1830 में, विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 33 फीसदी था। इस दौरान भारत पर कोई विदेशी कर्ज नहीं था। अंग्रेज हुकूमत के काबिज हो जाने के बाद भारत का निर्यात घटता गया और 1947 के आने तक भारत की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी घट कर रह गई मात्र ढाई फीसदी। पर पिछले दशक में आए आर्थिक उदारतावाद ने तो कमाल ही कर दिया। 1999 आते-आते तक विश्व व्यापार में हमारा हिस्सा घट कर रह गया मात्र 0.2 फीसदी। 1947 तक भारत सरकार पर न कोई विदेशी कर्ज था और ना ही कोई घरेलू कर्ज। पर उदारतावाद की कृपा से भारत पर आज 6.5 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज है। इसके अलावा घरेलू कर्ज है 8.5 लाख करोड़ रुपया।
देश की अर्थव्यवस्था पर हो रहे इस लगातार हमले से चिंतित लोग याद दिलाते हैं कि एक ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतवर्ष में व्यापार करने की अनुमति देने की भूल का हर्जाना मिला 200 साल से ज्यादा की गुलामी। आज 4000 से ज्यादा विदेशी कंपनियां व्यापार के नाम पर भारत को लूट कर हर साल करीब 80 हजार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा मुनाफे के रूप में हमारे देश से बाहर ले जा रही हैं और इस तरह देश को धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक गुलामी की ओर धकेल रही हैं। आजादी बजाओ आंदोलन, इलहाबाद के प्रवक्ता का कहना है कि कारगिल में राजनैतिक घुसपैठ के खिलाफ तो पूरा देश एकजुट हो गया था पर कितने दुख की बात है कि इस आर्थिक घुसपैठ की ओर  किसी का ध्यान नहीं जा रहा। मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग के हाथ में आधुनिकता और मनोरंजन के नाम पर तमाम तरह के झुनझुने थमा दिए गए हैं। ये लोग बर्गर, पिज्जा, डिस्को, सैटेलाइट टीवी और इनटरनेट में मस्त हो रहे हैं और पीछे से उनके घर में डाके डाले जा रहे हैं। जब उन्हें होश आएगा तब तक सब लुट चुका होगा।
सरकार में बैठे नौकरशाहों और राजनेताओं का फर्ज होता है कि वे जनता को सुशासन दें। चाणाक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झौपडि़यों में रहती है और जिस देश का राजा झौपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में रहती है। भारत के विधायकों, सांसदों और नाकरशाहों ने अपने तो ऐशों-आराम के सब साधन जुटा लिए हैं और जनता को पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से नहीं मिलती। आधी से अधिक आबादी दयनीय हालत में जी रही है। 1999-2000 में भारत सरकार का कुल बजट था 2 लाख 83 हजार करोड़ रुपए। जिसमें से राजस्व की आमदनी 1 लाख 83 हजार करोड़ रुपया और नया कर्ज लिया गया 1 लाख करोड़ रुपया। इतने भारी कर्जे से जुटाई गई इस आमदनी में से 90 हजार करोड़ रुपया तो सिर्फ विदेशी कर्ज की किश्त और ब्याज देने में चला गया और 54 हजार करोड़ रुपया सरकारी मुलाजिमों की तनख्वाह, पेंशन आदि पर खर्च हुआ।  50 हजार करोड़ रुपया देश की रक्षा व्यवस्था पर खर्च हुआ। इस तरह विकास कार्यों और जनता की सेवा के लिए बचा मात्र 77 हजार करोड़ रुपया। इस तरह देश के बजट का 32 फीसदी कर्ज और ब्याज देने में, 19 फीसदी वेतन और पेंशन देने में, 18 फीसदी रक्षा मद में और कुल 27 फीसदी जनता के लिए खर्च होता है। यानी देश पुराने कर्जें चुकाने के लिए नए कर्जे लेता जा रहा है फिर भी सरकार अपनी फिजूलखर्ची में कमी नहीं करती। नतीजतन अपने ऐश के लिए जनता पर टैक्स बढ़ा-बढ़ा कर खर्चों की भरपाई करती है। फिर भी जनता खामोशी से सब देखती रहती है। कोई विरोध नहीं करती।
परंपरा से यह माना जाता है कि लोग मजबूरी में ही घर का जेवर, सामन या जायदाद बेचते हैं। आज भारत सरकार अपने देश की हीरे व सोने की खोने, तेल के भंडार और सार्वजनिक कारखाने कौडि़यों के दाम विदेशी कंपनियों को बेच रही है। वाजपेयी सरकार का तर्क है कि घाटा दे रहे इन सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बेच कर सरकार अपनी जिम्मेदारी कम करना चाहती है। प्रश्न है कि ये घाटे हुए क्यों ? इन प्रतिष्ठानों में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के कारण। पर इन घोटालों के लिए जिम्मेदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जांच दबा दी गई। किसी को सजा नहीं मिली। तो सरकार का फर्ज है कि पहले इन कंपनियों में हुए घाटों के लिए जिम्मेदार अफसरों और नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवाए। देश का जो धन उन्होंने विदेशी बैंको में जमा कर दिया है उसे उनसे वसूले। तब कहीं जाकर सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के संबंध में पुनः विचार करें। 
इस उदारीकरण के नाम पर देशवासियों को आर्थिक विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए थे। पर जिस तरह उदारीकरण हो रहा है उस तरह केवल मुट्ठी भर धनी लोग और देश के हुक्मरान ही इन सपनों को पूरा होते देख पाए हैं। सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण देश में तीन लाख कारखाने पिछले आठ वर्षों के दौरान बंद हो चुके हैं और शेष भारी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। जिससे देश के व्यापारियों व मध्यम वर्गीय कारखानेदारों में भारी हताशा फैल रही है। फिर भी सरकार सपने दिखाने से बाज नहीं आ रही है। जागरूक लोगों को चिंता है कि देश की बहुसंख्यक जनता कभी भी इन सपनों को पूरा होते नहीं देख पाएगी। आजादी के वक्त भारत की जनता थी 34 करोड़ आज है 100 करोड़। उस वक्त ेश में दो करोड़ लोग बेरोजगार थे और आज 20 करोड़ लोग पूरी तरह बेरोजगार हैं। तब गरीबी की रेखा के नीचे कुल चार करोड़ लोग रहते थे। आज तमाम पंचवर्षीय योजनाओं में अरबों-खरबों रूपया विकास के नाम पर खर्च करने के बाद देश के 40 करोड़ नागरिक गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बसर करने पर मजबूर हैं। ये तो तब है जबकि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की परिभाषा बहुत छद्म किस्म की है। जिन्हें सरकार गरीबी की रेखा के ऊपर मानती है उनमें भी करोड़ों लोग काफी दयनीय जीवन जी रहे हैं। दूसरी तरफ देश के बड़े नेता और अफसरों ने देश को लूट कर 14 लाख करोड़ रुपया अवैध रूप से विदेशी बैंकों में जमा करा दिया हैं ताकि उनकी आने वाली सात पीढि़यां भी राजाओं का सा जिंदगी जीती रहे। देश की जनता जाए भाड़ में। सरकारी अव्यवस्था का यह आलम है कि की सरकार गोदामों में हर साल दो करोड़ टन अनाज सड़ जाता है। अगर इसका रख-रखाव ठीक से हो तो 12 करोड़ गरीब लोगोें की भूख मिट सकती है। ऐसे ही तमाम उदाहरण दूसरे सरकारी विभागों में भी मिल जाएंगे। इसलिए जरूरत इनकी व्यवस्था सुधारने की है ना कि विदेशी कंपनियों को बुलाने की।
दरअसल आज के दौर में कोई भी ताकतवर देश किसी कमजोर देश को राजनैतिक रूप से जीत कर गुलाम बनाने का इच्छुक नहीं है। उनका तो मकसद होता है कि इन देशों को आर्थिक रूप से गुलाम बना लो और फिर इनका जम कर दोहन करो। यही भारत में आज हो रहा है। इसलिए समाज और राष्ट्र के प्रति जागरूक लोगों को भारी चिंता है। वे देश में घूम-घूम कर बैठकें कर रहे हैं और जनजागरण कर रहे हैं। उन्हें दुख है जनता आज उनकी बात को पूरी गंभीरता से नहीं ले रही है। फिर पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत। इन लोगों की आम जनता से अपील है कि वह विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदेशी को अपनाएं ताकि देश का पैसा देश मंे ही रहे। जब ऐसा होगा, तभी भारत का आर्थिक विकास होगा।

Friday, July 28, 2000

क्यों हुआ बाल ठाकरे की गिरफ्तारी का नाटक?

इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि अगर शिव सेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे मुंबई में साम्प्रदायिक दंगा भड़काने के दोषी हैं तो उन पर कानूनी कार्रवाही न की जाए। पर प्रश्न है कि जो बवाल हाल ही में मचाया गया उसकी पृष्ठभूमि में क्या था ? क्या किसी दोषी राजनेता को सजा देने की मंशा या केवल अहम् तुष्टि की राजनीति की उपज और ताकत का टकराव ?

अगर साम्प्रदायिकता भड़काने के जुर्म में ही बाला साहब को गिरफ्तार करने की बात सोची गई थी तो देश के हिंदुओं को यह सवाल पूछने का हक है कि पिछले 50 वर्षों से देश की हजारों मस्जिदों में जुम्मे की नमाज के बाद जो साम्प्रदायिक उन्माद भड़काया जाता रहा है उसके जुर्म में कितने मौलवी आज तक गिरफ्तार किए गए ? कितनों पर मुकदमे चले ? कितनों को सजा मिली ? इन सवालों के जवाब देने की हिम्मत न तो महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री छगन भुजबल की है न उनके वरिष्ठ नेता शरद पंवार की और न ही उनके सहयोगी दल इंका के नेताओं की। हिंदुस्तान पर आज तक सबसे ज्यादा हुकूमत कांग्रेस पार्टी ने की है। उस कांग्रेस पार्टी ने जिसके मार्ग निर्देशक महात्मा गांधी सरीखे लोग रहे हैं। कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती है किंतु उसके शासनकाल में साम्प्रदायिकता घटने के बजाए दिन दूनी और रात चैगुनी बढ़ीं थी। जाहिर है कि देश में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने में एक सुगठित तंत्र लगा हुआ था। जिस तंत्र का पालन-पोषण कांग्रेस की ही छत्र-छाया में हुआ। यानी कांग्रेस पार्टी ने बाकायदा साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों को प्राश्रय और प्रोत्साहन दिया। इन वर्षों में मुस्लिम धर्मांधता और हिंदुओं के प्रति घृणा बढ़ाने वाले हजारों आॅडियो-वीडियो कैसेट और करोड़ों पर्चे व पुस्तिकाएं मुस्लिम समाज द्वारा देश भर में बांटी गईं हैं। जिनमें भारतीय मूल के मुसलमानों का साम्प्रदायिकता भरा आह्वाहन किया जाता रहा है। प्रायः ऐसे प्रकाशनों में लिखने वालों ने अपने नाम व पते भी निडर होकर छापे हैं। इसलिए केंद्र और राज्यों की सरकारें यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उनके पास साम्प्रदायिकता भड़काने वालों के खिलाफ प्रमाण नहीं थे। प्रमाण थे और आज भी है पर वे दबा दिए जाते हंै। इस काम में वे सभी दल या नेता शामिल हैं जो कभी न कभी सत्ता में रह चुके हैं। अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के वोटों के लालच में हर दल उनकी सेवा में जुटा रहता है। उनकी हर जा और बेजा हरकत को नजरंदाज करता रहता है। पर जब वैसी ही हरकत हिंदू समाज के नेता करते हैं तो उन्हें साम्प्रदायिक करार दे दिया जाता है। इस देश के ज्यादातर आत्म घोषित बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से का भी यही रवैया रहा है। उन्हें बाल ठाकरे की शिव सेना तो साम्प्रदायिक नजर आती है। पर देश के मुस्लिम आबादी वाले नगरों में हावी मुस्लिम माफियाओं के द्वारा किए जा रहे अपराध, तस्करी, हिंसा और देशद्रोह के काम नजर नहीं आते। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट इस बात की गवाह है कि देश में अपराध और आतंक फैलाने में सत्तारूढ दल के नेताओं का हाथ रहा है। जिस दौर की बात वोहरा कमेटी करती है उस दौर में इस देश में उन्हीं लोगों की सरकारें रही हैं जिनकी सरकार आज महाराष्ट्र में है। पर सब कुछ दबा दिया गया। वैसे ही जैसे दर्जनभर केंद्रीय मंत्री और बड़े नेताओं से जुड़ेे हवाला कांड को दबा दिया गया। उस हवाला कांड को जो मुंबई, दिल्ली, कश्मीर और देश के बाकी हिस्सों में आतंक फैलाने के लिए जिम्मेदार लोगों के काले कारनामों को उजागर करता है।

पिछले हफ्ते टेलीविजन के अनेक चैनलों पर ‘रूॅल आॅफ लाॅ’ को लागू करने की बात की गई यानी कानून का शासन। किस कानून का ? उस कानून का जो आज तक देश में एक भी बड़े नेता को भ्रष्टाचार, हिंसा, जातिवाद या साम्प्रदायिकता फैलाने के जुर्म में सजा नहीं दे पाया। फिर बाला साहब ठाकरे के संबंध में ही कानून की इतनी याद क्यों आ रही थी ? उस कानून की जिसके सर्वोच्च शिखर पर बैठे कुछ लोग आज शक के घेरे में खड़े किए जा चुके हैं और उनके पास अपनी सफाई में कहने को कुछ भी नहीं है ।

इतना ही नहीं बाला साहब ठाकरे पर जो लोग राजनीति में धर्म का दुरूपयोग करने का आरोप लगा रहे हैं वो तब कहां थे जब धीरेंद्र ब्रह्चारी नाम का एक व्यक्ति इस देश की प्रधानमंत्री का इस्तेमाल करके रातो रात अरबपति बन गया। कांग्रेसी हुकूमत के दौरान धीरेंद्र ब्रह्म्चारी जैसे लोग देश की आम जनता के प्रति सैकड़ों करोड़ की आर्थिक हिंसा करके रातो रात अरबपति हो गए और किसी ने विरोध नहीं किया। किसी ने नहीं पूछा कि बिहार से योग सिखाने निकला एक व्यक्ति अरबों की संपत्ति का मालिक कैसे बन गया ? कैसे खड़े कर लिए उसने हवाई जहाजों के जखीरे ? कैसे खड़ी कर ली उसने शस्त्रों की फैक्ट्रियां? कैसे खड़े कर लिए उसने कश्मीर में सैकड़ों एकड़ वर्जित क्षेत्र में राज-प्रसादों के से ठाट-बाट ? जिसने भी मानतलाई में अपर्णा आश्रम नाम की विशाल संपत्ति देखी है, वह यह देख कर हैरान हो जाता है कि डोडा जिले से लगे इस अति संवेदनशील इलाके में, सेना की नाक तले, हवाई अड्डा, पांच सितारानुमा होटल व दूसरी तमाम अति आधुनिक इमारतें अवैध रूप से कैसे बनती रहीं ? क्या वह योग-धर्म का राजनैतिक दुरूपयोग नहीं था ?

दिल्ली की जामा मस्जिद इलाके में इमाम बुखारी की हुकूमत कैसे चलती है यह बताने की जरूरत नहीं। उस इलाके में पुलिस भी घुसती है तो वहां के साम्प्रदायिक नेताओं की इजाजत लेकर। लेकिन तब कोई बुद्धिजीवी शोर नहीं मचाता। कोई नहीं कहता कि कानून का शासन लागू होना चाहिए। विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे प्रधानमंत्री तक इमाम बुखारी को सिजदा करने जाते हैं। पर आश्चर्य होता है यह देख कर कि ऐसे तमाम लोग बाला साहब ठाकरे को ही साम्प्रदायिक बता कर जेल में बिठाना चाहते थे।

अक्सर इस तरह के सवाल पर लिखना बहुत खतरनाक होता है क्योंकि टिप्पणी देने में सिद्ध लोग झट से नतीजा निकालेंगे कि लिखने वाला बाल ठाकरे पक्ष का ले रहा है। इसलिए लेख की मूल भावना को समझा जाए। यहां यह आशय कतई नहीं है कि बाला साहब ठाकरे ने अगर कानून की नजर में कोई अपराध किया है तो उन पर मुकदमा न चलाया जाए। यहां यह भी आशय नहीं है कि शिव सेना के काम काज का जो तरीका रहा है उससे हम सहमत हैं। यहां केवल इतनी सी बात उठाने की कोशिश की जा रही है कि क्या कानून सब पर एक-सा लागू होता है ? ऐसा क्यों होता है कि सत्तारूढ़ दल केवल अपने विरोधी नेताओं के ही खिलाफ कार्रवाही करते हैं। उन्हें अपने दल के अपराधी राजनेताओं के खिलाफ उसी तत्परता से कानूनी कार्रवाही करने की हिम्मत क्यों नही होती? कोई दल इस मानसिकता आ अपवाद नहीं है। वही जयललिता जब राजग की सदस्य थी तो उनके सौ खून माफ थे। पर जैसे ही वो राजग के विरोध में गई उनकी गिरफ्तारी के सिलसिले चालू हो गए। वही सुखराम भाजपा के लिए भ्रष्टाचार के पर्याय थे और उनके विरूद्ध भाजपा ने 13 दिन तक संसद नहीं चलने दी थी पर वही सुखराम आज भाजपा सरकार के सहयोगी हैं।

इसलिए बाला साहब ठाकरे की गिरफ्तारी के नाटक को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस नाटक के पीछे इरादा न तो साम्प्रदायिकता फैलाने के आरोप में श्री ठाकरे को सजा दिलवाना था और न ही इस कदम से मुंबई की सड़कों से अपराध और आतंक को समाप्त करना था। इस कदम का तो एक ही मकसद था कि छगन भुजबल, जो कुछ वर्ष पहले तक बाल ठाकरे के दाहिने हाथ थे, अब उन्हीं से अपना पुराना हिसाब चुकता करना चाहते थे। उन्हें अपमानित करना चाहते थे और उन्हें अपनी ताकत दिखाना चाहते थे। श्री भुजबल को इस बात की कतई चिंता नहीं कि उनके इस बचपने से मुंबई में कितना आतंक और अनिश्चितता फैल गई ? कितना पैसा बंदोबस्त में बर्बाद हुआ? नगर के उद्योग-व्यापार पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ा ? मुंबईवासी हफ्ते भर तक कितने भय और आतंक में जिए। श्री भुजबल जानते हैं कि उनके दल के पास कोई भी नैतिक आधार नहीं है। फिर भी वे ऐसा प्रचारित करने का प्रयास कर रहे थे कि उनकी सरकार कानून की रक्षा के लिए समर्पित है। अगर श्री भुजबल वाकई कानून की स्थापना करना चाहते हैं तो वे इस बात की पुरजोर मांग करें कि सीबीआई के कोल्ड स्टोरेज में दबा दी गई सैकड़ों फाइलों को बाहर निकाला जाए और उनमें दर्ज कांग्रेसी व दूसरे बड़े नेताओं के अपराधों के अनुरूप उन्हें भी सजा दी जाए। अगर उनमें ऐसी मांग करने का नैतिक बल नहीं है तो उन्हें इस बात का भी हक नहीं है कि वे इतने पुराने मामले को इस तरह बेवजह उखाड़ कर मुंबई के जनजीवन में जहर घोलें।

Friday, July 21, 2000

मुलायम सिंह यादव के सामने चुनौती


भारत का लोकतंत्र ठिठक गया है। लोग हैरान हैं कि देश में विपक्ष नाम की कोई चीज है भी या नहीं? क्योंकि देश को विपक्ष की मौजूदगी का एहसास ही नहीं हो रहा। संसद के कितने अधिवेशन हो चुके और अब मानसून सत्र शुरू होने को है, पर लगता है कि जैसे सत्तापक्ष ने विपक्ष की आवाज छीन ली है। क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा की सरकार इतना बढि़या काम कर रही है कि उसमें विपक्ष को कहीं कमी नजर ही नहीं आती ? या फिर सरकार जो कुछ कर रही है वह विपक्षी दलों के नेताओं की सहमति और साझेदारी से कर रही हैइसलिए विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्ष में जो बडे़ दल आज हैं उनके पास  अब इतना नैतिक बल ही नहीं बचा कि वे सत्तारूढ़ दलों का विरोध कर सकें ? शायद इसलिए कि जो दल आज विपक्ष में बैठे हैं वो कभी न कभी सत्ता में रह चुके हैं। इसलिए जानते हैं कि जब वे सत्ता में थे तब वे भी ऐसे ही सरकार चलाते थे तो अब किस मुंह से विरोध करें ? जो भी हो कुल मिला कर विपक्ष थका-पिटा, ऊर्जाहीन, कांतिहीन और नेतृत्व विहीन नजर आता है। सबसे बड़े दल की नेता श्रीमती सोनिया गांधी का अभी राजनैतिक प्रशिक्षण चल रहा है। पिछले वर्ष में उन्होंने जिस तरह का नेतृत्व दिया उससे कांगे्रसियों के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। शरद पंवार, नरसिंह राव, एनडी तिवारी जैसे दिग्गज नेता चुप्पी ओढ़े बैठे हैं। कम्युनिस्ट दल अपने शेष साम्राज्य को ढहता हुआ देख रहे हैं। विपक्ष के इस बिखराव का भाजपा व सहयोगी दल डट कर फायदा उठा रहे हैं। आज सरकार में बैठे ज्यादातर राजनेता वह सब कर रहे हैं जिसकी वे अतीत मे आलोचना करते आए थे। वे जानते हंै कि विपक्ष उन्हें चुनौती नहीं देगा इसलिए अब उन्हें लोक-निंदा की भी चिंता नही रही। अब तो भाजपा के छुट-भइए नेता भी यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हमें तो सत्ता चाहिए थी, वो मिल गई। वायदे और विचारधारा तो जनता को हांकने के लिए होते हैं। असल में तो राजनीति ऐसे ही की जाती है जैसे आज हमारे नेता कर रहे हैं।
एक तरफ देश की राजनीति के सर्वोच्च स्तर पर ये आलम है तो दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक गरीब और आम जनता ही नहीं मध्यम वर्गीय लोग तक मौजूदा सरकार की नाकामियों और जन विरोधी नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं। बिजली, पानी जैसी बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने में नाकामयाब सरकार जब चांद पर राकेट भेजने की बात करती है तो देश की जनता सिर धुन लेती है। इधर कुछ दिनों से सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर जिस तरह का शोर मचाया जा रहा है उससे भी आम जनता में हताशा फैल रही है, क्या सूचना प्रौद्योगिकी को खाएं या पिएं ? जनता हैरान है यह सोच कर कि क्या सरकार की प्राथमिकताएं केवल देश के बड़े उद्योगपतियों के हित साधना ही है ? क्या उसे अपने गरीब मतदाताओं की कोई चिंता नहीं है ? यह सही है कि मौजूदा सरकार में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पूर्ववर्ती सरकारों में भी उतने ही शक्तिशाली थे, जितने आज हैं। जाहिरन उनकी कार्य प्रणाली में वही पुराना ढर्रा है जो पिछली सरकारों में था। इस पर न तो संघ की विचारधारा का कोई प्रभाव है और न उन आश्वासनों का जो वाजपेयी जी आज तक जनसभाओं में देते आए हैं। कुल मिलाकर लोगों को यही लगता है कि कोई भी दल सरकार में क्यों न आ जाए उसको चलाने की बागडोर निहित स्वार्थों के हाथों में ही रहती है। ऐसा अब भाजपा के समर्थक भी मानने लगे हैं। इसलिए उनके मन में निराशा और भविष्य के प्रति आशंका दोनों है।
इस शून्य को भरने के दो रास्ते हैं या तो देश के जुझारू और क्रांतिकारी लोग राजनीति में आएं और विकल्प दें। पर वे ऐसा कर पाएंगे इस पर किसी को सहज विश्वास नहीं होता। अगर ऐसा नहीं होता है, जिसकी संभावना ज्यादा है, तो मौजूदा राजनैतिक दलों में से ही नए नेतृत्व को चुनने की बात उठेगी। दरअसल देश को आज एक जुझारू  और जमीन से जुड़े नेतृत्व की जरूरत है। इस दृष्टि से फिलहाल दो-तीन नाम ही उभर कर सामने आते हैं। ममता बैनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, मायावती व मुलायम सिंह यादव।
चंद्रबाबू नायडू और ममता बैनर्जी फिलहाल केंद्रीय सरकार में शामिल हैं इसलिए इनकी तलवार भौंथरी हो गई है। जब कभी भविष्य में चुनाव होंगे तो इन्हें सरकार की नाकामियों के पाप को ढोना पड़ेगा। इसलिए ये दोनो ही नेता विपक्षी दलों के ध्रुवीकरण का केंद्र नहीं बन सकते। वैसे भी इनकी रूचि अपने-अपने राज्यों तक ही सीमित है। मायावती अपने अहमक स्वभाव के कारण शायद सर्वमान्य नेता नहीं हो सकती। वैसे भी उन्होंने उत्तर प्रदेश की सरकार चलाने के लिए भाजपा से हुए अपने करार को जिस तरह तोड़ा था और लोकसभा में विश्वास मत पर बहस के दौरान जिस तरह रातो-रात पासा पलटा था उससे मायावती की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग गया है। इसलिए बचे मुलायम सिंह यादव। यूं तो चार पूर्व प्रधानमंत्री भी देश को फिर से नेतृत्वदेने को अकुला रहे हैं। पर काठ की हांडी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। वे भले ही चाहें पर लोग उन्हें अब एक और मौका देकर मूर्ख बनने को तैयार नहीं हैं।
उधर मुलायम सिंह यादव ने पिछले कुछ वर्षों में अपने व्यक्तित्व और कद को बढ़ाया है। केंद्र की सत्ता में साझेदारी का इंकाई न्यौता उन्होंने जिस तरह ठुकरा दिया था उससे उनके बारे में अच्छा संदेश गया। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी ऐसी स्थिति रही है कि मुलायम सिंह चाहते तो सरकार में शामिल हो सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। शायद उनकी रणनीति रही होगी कि भाजपा को सरकार चलाने दो। लोगों का भाजपा से मोहभंग होने दो। हिंदू धर्मावलंवियों को यह महसूस करने का मौका दो कि भाजपा ने राम नाम का सहारा लेकर जनता की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ किया है, केवल इसलिए कि सत्ता हासिल की जा सके। यह तो सभी जानते हैं कि भाजपा का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग वैश्य समुदाय है। जिस वैश्य समुदाय को भाजपा आज तक रंगीन सपने दिखाती आई थी वही वैश्य समुदाय आज भाजपा से सबसे ज्यादा नाराज है। भाजपा के राज के बावजूद न तो करों को लेकर सरकार की नीति बदली, न इंस्पेकटर राज का खातमा हुआ। यहां तक कि हर सरकारी मुलाजिम को रिश्वत देने के बाद भी गाली खाने को मजबूर वैश्य समुदाय की इज्जत में भी भाजपा के शासनकाल में कोई इजाफा नहीं हुआ। छोटे दुकानदारों और कारखानेदारों की जो बेइज्जती पिछली सरकारों के दौरान होती थी वैसी ही भाजपा के राज में आज भी हो रही है। इतना ही नहीं भाजपा सरकार की आयात-निर्यात और आर्थिक नीतियों के चलते तमाम लघु उद्योग तेजी से बंद होते जा रहे हैं। इससे वैश्य समाज में भाजपा के प्रति भारी आक्रोश है। जिसका सीधा लाभ अब मुलायम सिंह यादव को मिल सकता है।  शायद यही सोच कर उन्होंने उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ अन्य दलों की तरह गठबंधन सरकार में शामिल होने की बात नहीं स्वीकारी। उन्होंने सोचा होगा कि भाजपा की सरकार बनी रही तो जनता के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। जनता इनका असली चेहरा देख लेगी। उसे अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि भाजपा की कमीज दूसरों की कमीज से ज्यादा उजली नहीं है, जिसवे वे दावा करते हैं। शायद मुलायम सिंह की राजनैतिक सूझबूझ और दूर-दृष्टि काम आई। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हुए पंचायतों के चुनावों में भाजपा समर्थित उम्मीदवार बुरी तरह पिटे। जबकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से समर्थित उम्मीदवार बड़ी तादाद में सफल रहे। जाहिरन इससे सपा के खेमे में उत्साह बढ़ा है और अब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में अगला विधानसभाई चुनाव अकेले अपने ही बूते पर लड़ने की बात कह रहे हैं। पर आगे का रास्ता इतना आसान न होगा। उनके वोट बैंक पर कई दावेदार दांत गड़ाए बैठे हैं। अगर मुलायम सिंह यादव का लक्ष्य केवल उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री ही बनना है तो बात दूसरी है। पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो वे 10 वर्ष पहले भी थे। इन 10 वर्षों में तो उनका कद बढ़ा है। एक बार तो वे प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार भी रह चुके हैं। इसलिए यदि वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका को महत्वपूर्ण बनाना चाहते हैं तो उन्हें उत्तर प्रदेश के बाडे़ से बाहर निकलना होगा और अपनी पुरानी छवि को बदलना होगा। जिसके लिए उन्हें एक सुगठित संगठन की जरूरत होगी जो आज उनके पास नहीं है। भाजपा समर्थित मीडिया ने जो उनकी छवि बनाई थी उसे तोड़ने के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कुछ मशहूर और सक्षम नए चेहरों की एक टीम भी अपने साथ जोड़नी पड़ेगी। जिस टीम के सदस्य समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हों। ताकि उनकी पार्टी एक नेता के पीछे ही चलने वाली भीड़ न लग कर एक इज्जतदार राष्ट्रीय दल के रूप में स्थापित हो सके। तभी देश की राजनीति में उनकी भूमिका बढ़ेगी।
अब जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि उनकी आलोचना करने वालों के असली चेहरे कुछ बेहतर नहीं हैं, तो यही वह मौका है जब मुलायम सिंह यादव यह संदेश दे सकते हैं कि उनकी नई टीम प्रशासन और राजनीति को नए अंदाज से चलाएगी। इतनी गंभीरता से कि जनता सुरक्षित महसूस करे। किसान मजदूरो की भी सुनी जाए। व्यापारी की इज्जत हो। समाज में कानून का डर फैले। यदि मुलायम सिंह यादव ऐसा संदेश दे पाते हैं तो उनकी कामयाबी को कोई रोक नहीं पाएगा। क्योंकि उनमें राष्ट्रीय नेता बनने के सभी गुण मौजूद हैं। लालू यादव के मुकदमों में उलझ जाने के कारण हिंदी भाषी राज्यों में उनका कोई सीधा मुकाबला करने वाला अभी दिखाई नहीं दे रहा है। पर उन्हें संकुचित राजनीति के दायरे से निकल कर संपूर्ण भारत की दृष्टि से हर स्थिति का मूल्यांकन करने की आदत डालनी होगी। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो केंद्र की राजनीति में वे सत्ता की जोड़तोड़े व मोलभाव करने वाले कुछ सांसदों के एक गुट के नेता से ज्यादा नहीं बन पाएंगे। मौजूदा हालात में मुलायम सिंह क्या करते हैं ये आने वाला वक्त ही बताएगा। पर यह भी स्पष्ट हैं कि भारत में फिलहाल विपक्ष की राजनीति की धु्ररी बनने की सबसे ज्यादा संभावना मुलायम सिंह यादव की ही है।

Friday, July 14, 2000

अभिषेक बच्चन के आगे का सफर

जिस दौर में हर नया युवा फिल्मी अदाकार कपड़े उतार कर, कूल्हे मटकाकर और बिना वजह कूद-कूद कर बंदरनुमा डांस करने को ही एक्टिंग मान रहा हो उस दौर में धारा के विरूद्ध तैरने का प्रयास किया है जया और अमिताभ बच्चन के बेटे ने। हाल में रिलीज हुई रिफ्यूजी फिल्म में न तो अपने जिस्म की नुमाइश की और न ही भौंडे डांस। भारत पाक सीमा पर बसे गांवों के बीच तस्करी होती आई है ये वर्षों से लोग सुनते आए थे। पर उसका तरीका क्या है ? इस तस्करी में दोनों देशों के सीमा सुरक्षा बलों की क्या भूमिका होती है। सरहद के आस पास रहने वाले गांव कैसे खतरों के बीच अपनी भावनाओं के रिश्ते बनाए रखते हैं ? कुछ ऐसे सवाल थे जिन पर रिफ्यूजी फिल्म ने अच्छा प्रकाश डाला है। ऐसे गंभीर विषय के लिए जैसे किरदार की जरूरत थी उसे अभिषेक ने बखूबी निभाया है। फिल्म आलोचक जरूर अभिषेक की तुलना रितिक रोशन से करके अभिषेक को अभिनय में कच्चा बता रहे हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिक डिस्को संस्कृति में पले-बढ़े बच्चे जब युवा कलाकार बन कर फिल्मों में आते हैं तो उनको वैसे ही सांस्कृतिक परिवेश पर आधारित फिल्म में काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती। क्योंकि जो वे स्कूल और काॅलेज में करते आए हैं उसे बड़ी सहजता से फिल्म पर्दे पर उतार देते हैं। फिर वो चाहे रितिक हो या कोई और। पर रिफ्यूजी फिल्म से अपनी फिल्मी कैरियर की शुरूआत करके अभिषेक ने बहुत बड़ा जोखिम उठाया है। इसलिए अभिषेक के अभिनय की छोटी-मोटी कमियों की तरफ ध्यान न देकर यह देखना चाहिए कि जो किरदार उसे सौपा गया वह उसने ठीक से निभाया या नहीं। जवाब होगा कि अभिषेक रिफ्यूजी के पात्र को दर्शक के दिल में उतारने में कामयाब हुआ है। 

ये जरूरी नहीं कि हर कलाकार समय के साथ बहे तभी कामयाब होता है। बाॅलीबुड के इतिहास में ऐसे अनेकों सितारे हुए हैं जिन्होंने लीक से हटकर अभिनय किया और उसी तरह के अभिनय पर टिके रहे और अपनी एक अलग पहचान बनाई। राजकुमार ऐसा ही एक नाम था। अभिषेक की मां जया बच्चन जब पूना फिल्म इंस्टिट्यूट से पढ़कर फिल्म जगत में आईं तो एक तेज-तर्रार लड़की थीं। ऐसा उनके शिक्षक श्री रौशन तनेजा और सहपाठी बताते थे। पर जब जया भादुड़ी फिल्मों में आई तो उनकी छवि एक शालीन, सुसंस्कृत लड़की की बनी। क्योंकि उन्होंने वैसी ही भूमिकाएं निभाई। कभी न तो कपड़ों को तन से उतारा और ना ही कभी कोई वाहियात हरकत कीं। फिर भी वे बहुत जल्दी दर्शकों को भा-गई और उन्होंने अपनी यही छवि बनाए रखी।

अभिषेक के चेहरे-मोहरे और आंखांे में अपनी मां का वही भोलापन और सादगी है। यूं तो कलाकार को कई तरह की भूमिकाएं निभानी होती है। जरूरी नहीं कि हर भूमिका हर दर्शक को पसंद ही आ जाए पर अभिषेक चाहे तो नसरूद्दीन शाह और नाना पाटेकर को अपना आदर्श मान कर चुनौती पूर्ण भूमिकाएं ले सकता है। इससे उसका अभिनय भी निखरेगा और अलग पहचान भी बनेगी। पुरानी कहावत है कि नया नौ दिन और पुराना सौ दिन। ये कमर मटका कर और उछलकूद करके फिल्में पूरी कर देना बहुत दिनों तक नहीं चलेगा। लोग ऊब जाएंगे और तब उन्हें तलाश होगी धीर-गंभीर नायकों की। चूंकि फिलहाल अभिषेक उसी संाचे में ढला दिखाई देता है  इसलिए ऐसा करना शायद उसके लिए मुश्किल नहीं होगा।

वैसे भविष्य में क्या होगा यह कहा भी नहीं जा सकता। अमिताभ बच्चन जब सात हिंदुस्तानी फिल्म में आए थे तो उनकी एक शालीन, सरल युवक की छवि बनी थी। पर बाद में शायद सस्ती लोकप्रियता और पैसा कमाने की चाहत ने उन्हें भौंडे नृत्य करने पर मजबूर कर दिया। वे लोकप्रिय तो खूब हुए पर एक पूरी पीढ़ी उनके साथ कमर मटकाने को खड़ी हो गईं। अमिताभ यह कह कर पल्ला झाड़ सकते हैं कि फिल्म समाज से हट कर नहीं बन सकती। पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज पर फिल्मों का काफी प्रभाव पड़ता है। इसलिए सुसंस्कृत और शालीन परिवारों से आने वाले कलाकारों से तो उम्मीद की ही जा सकती है कि वे समाज के पतन में सहयोग न देकर उसके उत्थान में योगदान देंगे। जीवन में पैसा ही सब कुछ नहीं होता। अपने से ये सवाल भी पूछना बहुत जरूरी  होता है कि हमने समाज से क्या लिया और उसे बदले में क्या दिया ? ये जरूरी नहीं कि अभिषेक अपनी मां का रास्ता ही अपनाएं। लोकप्रियता और खूब पैसे की चाहत अभिषेक को भी उसी रास्ते पर ले जा सकती है जिस पर उनके पिता चाहे-अनचाहे चले। इसलिए आगे क्या होगा इसका फैसला तो अभिषेक और उनके दर्शकों के हाथ में रहेगा, पर अभिषेक को यह भी याद रखना चाहिए कि वे सम्मानित साहित्यकार श्री हरिवंशराय बच्चन के प्रपौत्र हैं।

ये बड़े दुख की बात है कि जिस तरह की भौंड़ी संस्कृति को आज बढ़ाया जा रहा है उससे समाज के एक बहुत बड़े साधनहीन वर्ग का भारी नुकसान हो रहा है। जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी निरक्षर और भुखमरी के कगार पर खड़ी हो उस देश में उपभोक्तावादी व डिस्को संस्कृति पर इतना ज्यादा जोर देकर समाज में असंतुलन पैदा किया जा रहा है। इससे युवकों के व्यक्तित्व में सतहीपन और गैर-जिम्मेदाराना रवैया बढ़ता जा रहा है। साधन तो उपलब्ध हो नहीं और फिल्म व टीवी में दिखा-दिखा कर चाहत इतनी बढ़ा दी जाए कि नौजवान होशो-हवाश खो बैंठें, तो हताशा तो बढ़ेगी ही। यही हताशा फिर युवाओं को आतंकवादी या बड़ा अपराधी बना देती है। इसलिए फिल्म बनाने वालों पर इस बात की काफी जिम्मेदारी है कि वे युवा पीढ़ी को खोखला न होने दें। बल्कि ऐसी फिल्में बनाएं जिससे युवाओं को हालात से जूझने की प्रेरणा मिले। मुल्क की बदइंतजामी व भ्रष्टाचार से निपटने की भावना पैदा हो। मुश्किल ये है कि फिल्म बनाने में बहुत पैसा लगता है जो प्रायः अवैध धन ही होता है। इस धन का सबसे बड़ा स्रोत प्रायः अपराध जगत के कुख्यात लोग होते हैं। ऐसे लोगों को न तो देश में क्रांति करवानी है और न ही समाज के नैतिक मूल्यों के पतन को रोकना है। उन्हें तो सिर्फ दौलत बढ़ानी होती है। चाहे उसके लिए कोई भी कीमत क्यों न देनी पड़ी। ऐसे माहौल में किसी फिल्म निर्देशक या कलाकार से ये उम्मीद करना कि वह धारा के विरूद्ध खड़ा रह पाएगा, जरा मुश्किल बात है। इसके लिए साफ दृष्टि और मजबूत इरादे की जरूरत होती है। खरबूजे के देखकर खरबूजा रंग बदलता है। अगर अभिषेक भी उसी रास्ते पर चल पड़े तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पर यहां मुद्दा सिर्फ एक नए कलाकार की पहली फिल्म की समीक्षा करने का नहीं है बल्कि हिंदी फिल्मों से जुड़े उन सवालों को उठाने की है जो आज भारतीय समाज के सभी जागरूक और चिंतनशील लोगों को परेशान कर रहे हैं। खासकर उन्हें जिनके बच्चे इन फिल्मों को देखकर शिष्टाचार और शालीनता की मर्यादाओं को बड़ी आसानी से तोड़ते जा रहे हैं और हिंसक और आक्रामक होते जा रहे हैं। देश और समाज से जुड़े सवालों से कटते जा रहे हैं। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। पड़ौस के ज्यादातर मुल्कों में मीडिया अब मात्र मनोरंजन का साधन रह गया है। सूचना देने और शिक्षित करने की इसकी भूमिका पीछे हट गई है। ऐसा इन देशों के हुक्मरानों ने साजिशन किया है ताकि पूरी की पूरी जवान पीढ़ी नाॅच-कूद और  मौज-मस्ती में डूबी रहे और अपने और देश के भविष्य के बारे में न कुछ सोचे। न तो आलोचना करें और न सवाल खड़े करे। अभी तक भारत में गनीमत थी कि फिल्म, टेलीविजन और प्रिंट मीडिया देश और समाज से सारोकार रखने वाले  सवालों को उठाता आया था। दुर्भाग्य से अब वहां भी बाजारू शक्तियां हावी होती जा रही हैं। अब अखबारों के ज्यादातर पन्ने कुलीनसमाज के राग-रंग का कवरेज करते हैं और बुनियादी सवालों को उठाने से कतराते हैं। यह खतरनाक प्रवृत्ति है जो अब घटने वाली नहीं।

ऐसा नहीं है कि हालात आज ही इतने बिगड़े हैं। हर पिछली पीढ़ी आने वाली पीढ़ी से यही कहती आई है कि जमाना कितना खराब आ गया है। पर फिर भी कालचक्र रूकता नहीं, अपनी गति से चलता ही रहता है। इस सबके बावजूद जो लोग मजबूती से खड़े रहते हैं वहीं कालपुरूष बनते हैं। ऐसे कालपुरूष कर क्षेत्र में हमेशा सामने आते रहते हैं। वह चाहे राजनीति का क्षेत्र हो उद्योग का या मनोरंजन का। अभिषेक जैसे नौजवान काल पुरूष बनना चाहते हैं या समय की धारा में बह कर जीवन का तथाकथित आनंद लूटना चाहते हैं। ये उनके संस्कारों, परिवेश और व्यक्तिगत आकांक्षाओं पर निर्भर करेगा। धारा के साथ बहना बहुत सरल होता है पर धारा को अपनी इच्छानुसार मोड़ देना बहुत कठिन काम है। यूं तो एक तरह से अपने जमाने में राजकपूर, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन व राजेश खन्ना जैसे फिल्मी सितारों ने समाज को अपनी शख्सियत से काफी प्रभावित किया था, जैसा आज शायद शारूर्खान कर रहे हैं। ये जरूरी नहीं कि आइंस्टाइंन का बेटा बाप की तरह मशहूर वैज्ञानिक ही बने। पर जब अभिषेक ने फिल्म जगत में प्रवेश कर ही दिया है तो जाहिरन लोग उनके कद को उनके पिता से नाप कर देखेंगे। ऐसे में अभिषेक के सामने और भी ज्यादा बड़ी चुनौती है कि वे अपनी एक अलग पहचान बना सकें। जो उनकी पीढ़ी के नौजवानों को देश और समाज के प्रति ज्यादा जागरूक बनने में मदद करे, उन्हें पलायनवादी न बनाए। क्या होगा वक्त बताएगा।

Friday, July 7, 2000

जेठमलानी जी की दरियादिली

केन्द्रीय कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी का बयान आया है कि क्रिकेट मैंच फिक्सिंग में आरोपित क्रिकेट खिलाडि़यों को देश माफ कर दे। जाहिर है कि उनकी इस दरियादिली के लिए क्रिकेट मैंच फिक्सिंग में आरोपित रहे सभी खिलाडि़यों ने बेहद राहत महसूस की होगी। यह इत्तेफाक ही है कि ऐसे कुछ खिलाडि़यों ने कानून मंत्री के सुपुत्र श्री महेश जेठमलानी को अपना वकील बनाया था। सही भी है कि इतने बड़े कांड में फंसने के बाद बहुत बड़े वकीलों की ही जरूरत होती है। अगर बड़े वकील न मिलें तो उनके सुपुत्रों से ही काम चलाया जाता है ताकि बड़े वकील की कृपा मिल सके। ऐसे वकील लेने पर फीस भी तगड़ी ही देनी होती है। इतनी कि आम आदमी अंदाजा भी नहीं लगा सकता। कानून मंत्री तो वकालत करते नहीं। इसलिए श्री राम जेठमलानी का उनके बेटे के मुवक्किल से कोई ताल्लुक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्रिकेट खिलाडि़यों को माफी दिए जाने की बात तो उन्होंने अपने हृदय में उपजी करूणा के कारण कही है। पर उनके इस अप्रत्याशित वक्तव्य से देश की जनता जरूर हतप्रभ है। उसके मन में कई सवाल उठ रहे हैं।

जांच पूरी होने से पहले ही माफी की बात करना कहां तक उचित है। अगर यही बात है तो फिर देश की जेलों में लाखों लोग वर्षों से क्यों सड़ रहे हैं ? इनमें ऐसे नौजवान और युवतियां भी हैं जिन्हें छोटे-छोटे अपराधों के लिए वर्षों से गिरफ्तार करके रखा गया है। इन सब छोटे अपराधियों को भी ‘राम-राज्य’ स्थापित करने वाली भाजपा सरकार के चर्चित कानून मंत्री के दरबार में याचिका देनी चाहिए कि उन सबको भी आम माफी दे दी जाए। इससे कई फायदे होंगे। एक तो देश की अदालतों में वर्षों से लटके हुए करोड़ों मुकदमें एक झटके में समाप्त हो जाएंगे। दूसरा, इन मुकदमों में उलझे करोड़ गरीब किसान मजदूरों का मेहनत का पैसा वकीलों और कचहरियों में बर्बाद होने से बचेगा। तीसरा, भाजपा सरकार के वोट बैंक में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी क्योंकि इस तरह रिहा हुए सभी लोग और उनके परिवारजन भाजपा सरकार की दरियादिली के मुरीद बन जाएंगे। खुद तो वे भाजपा को वोट देंगे ही अपनी ‘विशेष योग्यताओं’ के कारण लाठी-गोली के जोर पर दूसरों से भी वोट डलवा देंगे। इससे देश को लंबे समय तक एक ही सरकार के बने रहने का फायदा मिलेगा।

जब जेठमलानी जी इतनी दरियादिली पर उतर ही आए हैं तो उन्हें एक काम और करना चाहिए। 1986 से वे लगातार बोफोर्स कांड के पीछे पड़े हैं। अपनी काफी ऊर्जा और देश के काफी पैसा इस कांड की जांच के नाम पर देश और विदेशों में खर्च करवा चुके हैं। इस कांड की नौका पर बैठकर वो और उनके साथी राजनेता कई चुनावों की वैतरणी पार कर चुके हैं। फिर भी इस कांड में आज तक एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। क्यों न जेठमलानी जी बोफोर्स कांड के आरोपियों की भी आम माफी की घोषणा कर देते हैं। क्वात्रोची जैसे तमाम लोगों को नाहक अपना प्रिय देश भारत छोड़कर विदेशों में रहना पड़ रहा है। अगर उन पर भी जेठमलानी जी की निगाहेकरम हो जाए तो उनकी आने वाली सात पीढि़यां जेठमलानी जी को इस दरियादिली के लिए दिल से दुआ देंगी। इतनी ही नहीं उनकी इस दरियादिली से इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी खासतौर पर बड़ी राहत महसूस करेंगी। बेचारी को नाहक हर चुनाव के पहले ‘बोफोर्स-बोफोर्स’ की नाम-धुन सुननी पड़ती है। मन में तो वे जानती हैं कि यह सब चुनावी हथकंडा है जिसे वीपी सिंह से लेकर वाजपेयी जी तक प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। पर फिर भी अगर हर चुनाव के पहले इंकाईयों को ‘बोफोर्स-बोफोर्स’ सुनना पड़े तो उनके मन में चोट तो पहुंचती ही है। बोफोर्स मामले में अभयदान देकर जेठमलानी जी रातो-रात इंकाईयों के भी हृदय सम्राट बन जाएंगे। अबसे पहले चार बार भिन्न-भिन्न दलों के कंधे पर पैर रख कर राज्यसभा की सदस्यता का जुगाड़ करने वाले श्री जेठमलानी को अगली बार इंका ही राज्यसभा में भेज देगी।

वैसे देश के कानून की रक्षा के लिए जिम्मेदार बनाए गए केन्द्रीय कानून मंत्री जेठमलानी जी के लिए ऐसी दरियादिली दिखाना कोई नई बात नहीं है। आजकल उनकी दरियादिली अपने मंत्रालय की सीमाओं के बाहर जा पहुंची है। जिन मंत्रालयों में महत्वपूर्ण मामलों में फैसले लिए जा चुके हैं और उनमें बड़े-बड़े लोग फंसे हैं उनकी भी फाइलें जेठमलानी जी कानून मंत्रालय में मंगवा रहे हैं। उन पर नई ‘कानूनी’ राय दर्ज करवा कर उन फैसलों को बदलवा रहे हैं। दरअसल जेठमलानी जी का तो इतिहास ही ऐसी दरियादिली का रहा है। वे किसी भी बड़े घोटाले पर पहले खूब शोर मचाते हैं। जब उनके शोर से उनका लक्षित व्यक्ति पूरी तरह जख्मी हो जाता है और वह उनके चरणों में गिर कर ‘त्राहि माम्-त्राहि माम्‘ कहता है, फिर पता नहीं दोनो के बीच क्या होता है कि अचानक श्री राम जेठमलानी जी के हृदय में शरणागत के प्रति करूणा उपज जाती है। ऐसी अनेक घटनाए देशवासियों को याद है।

हर्षद मेहता कांड में क्या हुआ था ? श्री राम जैठमलानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंह राव पर आरोप लगाया कि उन्होंने हर्षद मेहता से नोटो का भरा एक सूटकेस रिश्वत में लिया। जेठमलानी जी ने खूब बवाल मचाया। मीडिया में छाए रहे। सरकार का काम-काज ढीला पड़ गया। पर फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि उनके मन में नरसिंह राव जी के करूणा उपजी और उनके मुवक्किल ने अपना बयान बदल दिया। उसे यही याद नहीं रहा कि वह प्रधानमंत्री निवास जैसे महत्वपूर्ण स्थान पर सूटकेस लेकर कितने बजे गया। 8 बजे या 11 बजे ? जब समय ही याद नहीं रहा तो बाकी आरोपों का भी क्या भरोसा किया जाता ? मामला अपने आप ठंडा पड़ गया।

1996 में भाजपा की अल्पमत की 13 दिन चली सरकार में बनाए गए कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी ने अपना नया पदभार ग्रहण करते ही अपनी दरियादिली का नमूना पेश किया। उन्होंने घोषणा की कि हवाला कांड में आरोपित भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी निर्दोष हैं। यह भी कि कानून मंत्री की हैसियत से श्री जेठमलानी इस आशय का शपथ पत्र दाखिल करेंगे। जब कानून मंत्री न्यायालय में चल रहे मुकदमें के बारे में ऐसी घोषणा करेंगे तो जांच एजेंसियों को क्या संकेत जाएगा, जांच बंद कर दो और आरोपियों के रिहा होने का रास्ता साफ कर दो ? ये जेठमलानी जी की दरियादिली ही तो है कि वे कानून मंत्री होकर भी गैर-कानूनी घोषणा करने से भी नहीं हिचकते।

2 सितंबर 1993 को तत्कालीन सांसद श्री राम जेठमलानी ने हवाला कांड उजागर करने वाली कालचक्र वीडियों कैसेट के प्रैस-प्रिव्यू के दौरान हवाला आरोपियों के खिलाफ खूब जहर उगला। उन्हें सख्त सजा दिलवाने की घोषणा की। इसके बाद उन्होंने हवाला कांड की ईमानदार जांच की मांग करने वाली जनहित याचिका तैयार करवाने में पूरी मदद की। पर फिर अचानक उनके मन में करूणा उपजी और उन्होंने कश्मीर के आतंकवादियों से जुड़े हवाला कांड के आरोपियों को बचाने का काम शुरू कर दिया। उनकी परोपकारिता इस हद तक बढ़ गई कि उन्होंने अपने मुवक्किल के विरोधी पक्ष की अदालत में रक्षा करने में भी कोई संकोच नहीं किया। इस बात की भी परवाह नहीं की कि उनका यह कदम वकालत के पेशे की सभी नैतिक सीमाओं को पार करने वाला था और इस जुर्म में वकालत करने का उनका अधिकार तक छिन जाने का खतरा था। दरअसल जेठमलानी जी का मानना है कि जब दरियादिली ही दिखानी हो तो कंजूसी क्यों की जाए ? चाहे अपना मान चला जाए या प्रैक्टिस करने का लाइसेंस ही क्यों न छिन जाए।

ये दूसरी बात है कि जेठमलानी जी प्रायः ऐसी दरियादिली बडे़ अपराधियों, ताकतवर, धनी और मशहूर लोगों के लिए ही दिखाते हैं। गरीब मुवक्किल तो उन जैसे महंगे वकील के दरवाजे पर दस्तक देने का भी हिम्मत नहीे कर सकता। पर कानून मंत्री बन कर तो उन्हें अब वकालत में अपना वक्त भी खराब नहीं करना है। बस कानून मंत्रालय के अधिकारियों से एक ऐसा विधेयक तैयार करवाना है जिसमें देश के हर अपराधी को अभयदान की घोषणा की जाए। आखिर को तो हमारा देश दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। फिर इसमें कानून की निगाह में सब बराबर क्यों न हों? जब सैकड़ों करोड रुपए के घोटाले करके, देशवासियों से झूठ बोल कर तमाम लोग बड़े-बड़े पदों पर बैठे रहते हैं और उनका कानून कुछ नहीं बिगाड़ता तो फिर देश के करोड़ों मदतादाओं के मन में कानून का डर क्यों रहे ? उन्हें भी आजाद भारत में उसी आजादी से अपराध करने की छूट होनी चाहिए जिस आजादी से यह छूट देश के हुक्मरानों और कुलीन वर्ग को मिली हुई है। आम माफी का ऐसा विधेयक लाकर जेठमलानी जी अपने दायित्व का निर्वाह ही करेंगे। क्योंकि संविधान के अनुसार हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त है और कानून मंत्री के नाते उनका फर्ज है कि वे आम जनता के हक की रक्षा करें। वैसे भी पुलिस आम अपराधियों को सजा दिलवाना नहीं चाहती। उन्हें सजा का डर दिखा कर उनसे रकम ऐंठना चाहती है। जैसा आजकल मैंच फिक्सिंग के मामले में हो रहा है। एक तरफ तो कानून मंत्री मैंच फिक्सिंग के प्रमुख आरोपियों को माफ करने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ देश के लगभग दो सौ व्यापारियों को मैंच फिक्सिंग में गिरफ्तार किए जाने का डर दिखा कर उनसे पैसा वसूला जा रहा है।

वैसे भी अगर यही रवैया चलता रहा कि देश के ताकतवर अपराधी छूटते रहे और मध्यम वर्गीय पेशेवर लोग, व्यापारी व गरीब-किसान-मजदूर सरकारी जांच एजेंसियों की धौस, धमकियों और लूट का शिकार होते रहे तो हालात काबू के बाहर हो जाएंगे। फिर देश के हर राज्य में जनता का आतंकवाद पैदा होगा। अगर देश के सभी छोटे अपराधी संगठित हो जाएं और ‘अखिल भारतीय छोटे अपराधी महासंघ’ बना कर ये मांग करें कि या तो बड़े घोटालों में लिप्त हुक्मरानों के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवा कर सजा दी जाए या फिर छोटे अपराधियों के विरूद्ध दर्ज सभी आपराधिक मामलों को बिना शर्त समाप्त कर दिया जाए, तो सरकार और उसके कानून मंत्री किस मुंह से मना करेंगे?