Friday, October 10, 1997

घोटालेबाज नेताओं की रिहाई से जनता हैरान

1996 की शुरूआत देश की भ्रष्ट राजनीति को बुरी तरह झकझोरने वाले एक धमाके के साथ हुई थी। जब पहली बार राजनेताओं, मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को ‘हवाला कांड’ में चार्जशीट किया गया। इसके बाद सेंटकिट्स, झामुमो रिश्वत कांड, लखुभाई पाठक रिश्वत कांड, संचार घोटाला, यूरिया घोटाला, जयललिता कांड, चैरासी के दंगों की सुनवाई, मकानों और पेट्रोंल पंपों के अवैध आवंटन का घोटाला और चारा घोटाला जैसे दर्जनों घोटाले एक के बाद एक सामने आने लगे। पहली बार देश की जनता को लगा कि कानून की निगाह से कोई बच नहीं सकता। चाहे वो किसी भी पद पर क्यों न हो।

किंतु 1997 की शुरूआत लोकतंत्रा के इतिहास में अपशकुनी रही। जब एक-एक करके सभी नेता अदालतों से छूटने लगे। देश की जनता हतप्रभ है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? उसे यह सवाल भी खाए जा रहा है कि पिछले 50 वर्ष में कभी भी कोई बड़ा नेता, मंत्रh या अफसर भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा क्यों नहीं गया ? जबकि एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनियां के दस भ्रष्टतम राष्ट्रों में से ण्क है। एक कहावत है कि, ‘शासक को ईमानदार होना ही नहीं चाहिए बल्कि दीखना भी चाहिए’। पूरा देश बिहार बन जाएगा

इस सबका नतीजा यह हुआ कि लालू यादव चार्जशीट होने के बाद भी कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थे। यह तो आगाज है आगे-आगे देखिए होता है क्या ? एक बार पकड़े जाने के बाद जब यह नेता छूटते जाएंगे तो ये डंके की चोट पर ऐलान करेंगे कि, ‘देखा हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका?’ फिर बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह आए दिन अपहरण, अवैध कब्जें, लूटपाट पूरे देश में होंगे और कोई सुनने वाला नहीं होगा।

षड़यंत्रा किसके खिलाफ: नेताआs के या देश के ?

हवाला कांड को ही लीजिए बजाए शमिंदा होने के ये नेता आज देश को गुमराह करने में जुटे हैं। ये कहते हैं कि इन्हें षड़यंत्रा करके हवाला कांड में फंसाया गया। आप जानते हैं कि मार्च 1991 में दिल्ली पुलिस ने शाहबुद्दीन गौरी और अशफाक हुसैन लोन को लाखों रूपए के बैंक ड्राफ्टों और नकद के साथ गिरफ्तार किया था। ये पैसा कश्मीर के आतंकवादी संगठनों को भेजा जा रहा था। इनकी सूचना पर पुलिस और सीबीआई ने देश के कई हवाला कारोबारियों और जैन बंधुओं के यहां छापा डाला। जिसमें करोड़ों रूपए का हिसाब-किताब, लाखों रूपए की नकदी, सोने की छड़े, पचास देशों की मुद्राएं व संवेदनशील दस्तावेज मिले थे। यह धन दुबई और लंदन से अवैध रूप से आ रहा था और जैन बंधुओं के मार्फत देश की राजनीति में ताकतवर लोगों में बंट रहा था। इतनी बड़ी जब्ती और इतनी सारी जानकारी सीबीआई के इतिहास में शायद ही कभी मिली हो। इसके फौरन बाद जैन बंधु से जुड़े आला अफसरों, मंत्रियों और दूसरे अधिकारियों के घर छापे डालकर कड़ी पूछताछ व धर-पकड़ करनी चाहिए थी। पर बड़े राजनेताओं के दबाव के कारण सीबीआई ने देशद्रोह के हवाला कांड को बड़ी बेशर्मी और बेईमानी से दबा दिया। इसे अपने विरूद्ध षड़यंत्रा बताने वाले इन नेताओं से कोई पूछे कि
क्या आतंकवादियों को धन पहुंचाने वालों को पकड़ना इनके विरूद्ध षड़यंत्रा था ?
क्या इनको लगता है कि इन युवको के विरूद्ध टाडा के तहत कार्रवाई नही करनी चाहिए थी?

साफ है कि जैन बंधुओं को सिर्फ इसलिए बचाया गया ताकि उनके चक्कर में हवाला आरोपी नेता न पकड़े जाए ? सीबीआई में तब सुगबुगाहट हुई जब जुलाई 1993 में कालचक्र वीडियो के कैमरों ने इस मामले की खोजबीन शुरू की। पर असली हरकत में वो तब आई जब हमारी जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायधीशों ने सीबीआई को उसके निकम्मेपन के लिए फटकारा। ये इसे षड़यंत्रा कहते हैं। तो यह षड़यंत्रा किसने किया ? जनहित याचिका दायर करके हमने या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों ने ?

1991 में सीबीआई को जैसे ही पता चला कि बड़े-बड़े नेता जैन बंधुओं से अवैध रकम पाते रहे हैं। तो उसने जांच को वहीं रोक दिया। फिर ये षड़यंत्रा किसके खिलाफ था, इनके या देश के ?

अगस्त 1993 में कालचक्र वीडियो मैगजीन ने जब बार-बार इनका इंटरव्यू लेने का प्रयास किया तो ये सब नेता इतने घबरा क्यों गए थे ? मैं इनसे सिर्फ दो सवाल पूछना चाहता था। क्या ये जैन बंधुओं को जानते हैं ? और क्या इन्होंने जैन से इतने पैसे लिए ? अगर इनके पास छुपाने को कुछ नहीं था? तो सच बोलने में इतनी घबराहट क्यों थी ?

संसदीय चुप्पी ?

इनके खिलाफ आरोप पत्रा जनवरी-फरवरी 1996 में दाखिल हुए। जबकि इनका नाम हवाला कांड में अगस्त 1993 से समाचारों में था। यदि यह इनके विरूद्ध षड़यंत्रा था तो इसके खिलाफ इन वर्षों में इन्होंने आवाज क्यो नहीं उठाई? क्या ये मान कर चुप बैठे रहे कि किसी नेता का कुछ नहीं बिगड़ेगा। इसलिए क्यों बर्र के छत्ते में हाथ डाला जाए? वैसे 11 नेताओं ने माना है कि जैन डायरी में दर्ज धन उन्होंने लिया था, इस बारे में इनका क्या ख्याल है?

ये नेता अच्छी तरह जानते हैं कि हवाला कांड मात्रा भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि देशद्रोह का भी कांड है। क्योंकि यह कश्मीर के आतंकवाद और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। फिर इन्होंने संसद में शोर मचा कर हवाला कांड में ईमानदारी से जांच की मांग क्यों नहीं की? जैसे आज तक हर कांड पर करते आए हैं। यह अनैतिक चुप्पी क्यों? इस तरह चुप रह कर इन नेताओं और इनके साथियों ने देश के साथ जो गद्दारी की है उसका क्या ख़ामियाजा ये देश को देने को तैयार हैं ? ऐसे अनैतिक आचरण के बाद इनकी ये ‘नैतिक’ जीत कैसे है?

सीबीआई के आपराधिक कारनामे पाठक जानते हैं कि सीबीआई हवाला कांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक में झूठ बोलती आई है। ताकि इनके जैसे बड़े राजनेताओं को बचा सके। मसलन सीबीआई ने जनवरी 1994 में दावा किया कि वह मुस्तैदी से जांच कर रही है। जबकि 4 वर्ष बाद मार्च’95 तक आकर भी उसने प्राथमिक कार्रवाई भी नहीं शुरू की थी। सीबीआई ने लिखकर कोर्ट में कहा कि जैन बंधुओं के यहां से छापे में बरामद 50 देशों की विदेशी मुद्राओं को वो पहचान नहीं पाई है। क्या ये देश सौर्यमंडल से बाहर के नक्षत्रों पर हैं ? सीबीआई ने दावा किया कि वह ‘तमाम कोशिशों के बावजूद जैन बंधुओं को नहीं ढूंढ पाई। मजबूरन उसे जैन बंधुओं को ढंwढ़ने वाले इश्तहार लगवाने पड़े, तब भी बात नहीं बनी तो उसे आव्रजन अधिकारियों की मदद लेनी पड़ी।’ जबकि जैन बंधु खुलेआम दिल्ली में घूम रहे थे, आलीशान दावतें दे रहे थे और इसकी खबरें अखबारों में छप रही थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने भी सीबीआई ने अधूरे तथ्य रखे ताकि हवाला कांड के आरोपी नेताओं को निकल भागने का रास्ता मिल सके । ऐसे तमाम झूठ पर खड़ी यह ‘असत्य पर सत्य की विजय’ कैसे है ?
अब जबकि इनके ‘सर पर से बोझ उतर गया है’ तब क्या इनमें यह नैतिक बल है कि हवाला कांड में सीबीआई की बेईमानियों के खिलाफ निष्पक्ष जांच की मांग करें ? ये नेता और इनसे हमदर्दी दिखाने वाले बुद्धिजीवी क्या देश की जनता को यह बताने को तैयार है कि यह मांग क्यों नहीं कर रहे ?

सर्वोच्च न्यायलय पर दबाव डालने वाला आज़ाद क्यों ?

14 जुलाई 1997 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश माननीय श्री जेएस वर्मा जी ने यह बता कर कि हवाला मामले को दबाने के लिए उन पर दबाव डालने की कोशिश की जा रही है, सारे देश में सनसनी फैला दी। किंतु माननीय मुख्य न्यायधीश श्री जेएस वर्मा उस अपराधी का नाम बताने तक से बच रहे हैं जिसने उन पर व उनके सहयोगी जजों पर ‘दबाव’ डालने की कोशिश की। हवाला आरोपियों के हितैषी इस व्यक्ति ने ‘न्यायालय की अवमानना कानून’ को तोड़ने का गंभीर अपराध किया है। जिसकी सजा उसे मिलनी ही चाहिए। किंतु संसद, सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल और अखबारों के संपादकीयों में जोरदार मांग उठने के बावजूद माननीय न्यायधीशगणों की चुप्पी, इस अपराधी को संरक्षण दे रही है। इन हालातों में जनता क्या उम्मीद करे ? इससे यह तो जाहिर हो ही गया कि हवाला केस इतना दमदार है कि इसमें फंसे सभी प्रमुख दलों के नेता हर कीमत पर इसे दबा देना चाहते हैं। कोई भी दल हवाला कांड में ईमानदारी से जांच की मांग नहीं कर रहा। स्वर्ण जयंती यात्रा के बहाने पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल बजा कर लौटे भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी व उनके अन्य साथी नेता तक यह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, आखिर क्यों ?

विचित्रा विरोधाभास दरअसल हवाला कांड पूरी दुनियां में पहला ऐसा बड़ा कांड है कि जिसमें सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों लिप्त हS। इसलिए इसलिए इस कांड की जांच की मांग कोई नहीं कर रहा। इस कांड ने भ्रष्ट राजनीति को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है। भारत के इतिहास में पहली बार दर्जनो मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामले में आरोप पत्रा इसी कांड में दाखिल हुए। एक साल में तीन प्रधान मंत्रh बदल गए और एक के बजाए 15 दल मिलकर सरकार चलाने पर मजबूर हैं। फिर भी इतने बड़े कांड में निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर कोई जन प्रदर्शन नहीं हो रहे, कोई सेमिनार, कोई धरने नहीं हो रहे, कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चलाए जा रहे, संसद का कोई बर्हिगमन नहीं कर रहा, कोई इस्तीफे नहीं मांगे जा रहे।

सावधान आपका ध्यान हटाया जा रहा है

ऐसे में देश की जनता को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अखबार और टेलीविजन के माध्यम से हर घोटाले पर शोर मचाने वाले लोग कितनी होशियारी से हवाला कांड से आपकी निगाह हटा देना चाहते हैं। इसीलिए दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय की खामियों को उजागर करते हुए हमने एक पर्चा छापा था। इसमें उन तमाम कानूनी मुद्दों का ब्यौरा था जिनसे यह सिद्ध होता है कि हवाला आरोपी नेताओं व दूसरे लोगों के खिलाफ कोई जांच ही नहीं की गई है। इस पर्चे में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय में ‘एविडेंस एक्ट’ के अनेक प्रावधानों की उपेक्षा का भी विवरण था। इस पर्चे में दी गई जानकारी को आधार बनाकर ही सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायलय में अपील दायर की है। तो बिना जांच हुए ही इस तरह घोटालेबाज नेताओं का छूट जाना इस देश की करोड़ों जनता के साथ विश्वासघात है। कानून में आस्था रखने वाले लोग काफी चिंतित हैं। किंतु पिछले कुछ हफ्तों से जो बहस सर्वोच्च न्यायलय में चल रही है उसमें हवाला केस की जांच की खामियों का जवाब ढूंढने की बजाय भविष्य की सावधानियों पर समय लगाया जा रहा है। यह तो ऐसा हुआ कि चोर निकल कर भागा जा रहा हो और हम शोर मचाए कि अगली बार मजबूत ताला लगाना।

जनता क्या करे ?

उधर आजादी के पचासवें वर्ष में देश के कुछ गिने-चुने समाजसेवी, बुजुर्ग पत्राकार और बुद्धिजीवी देश में जगह-जगह गोष्ठियां करके बिगड़ी हालत पर चिंता जता रहे हैं। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोगों का आव्हान कर रहे हैं। पर इनकी अपीलों का कोई असर नहीं पड़ रहा। क्योंकि ये बैठकें बयान जारी करने तक सीमित रहती हैं। मजे की बात यह है कि जिनके विरूद्ध ये लड़ाई लड़ी जानी है, उनसे ही सुधार की अपील की जाती है। आज जबकि हवाला घोटाले से लेकर दूसरे घोटालों में अनेक दलों के बड़े नेता रंगे हाथ पकड़े जा चुके हैं उस वक्त बैठकें करने से क्या होगा? जरूरत सब लोगों को एकजुट होकर आम जनता को जागृत करने की है। ताकि हर कस्बे और शहर में लोग सड़कों पर उतर आएं और सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ निष्पक्ष व तीव्रता से जांच की मांग करें और इन्हें सजा देने की मांग करें। अब तो भारत के वर्तमान राष्ट्रपति जी तक ने जनता से सत्याग्रह करने की अपील की है। फिर संकोच कैसा ? भारत से ज्यादा जागरूक तो बांग्लादेश के आम नागरिक हS। जिन्होंने सड़कों पर उतर कर, चुनाव जीत कर आए राष्ट्रपति को जेल पहुंचवा दिया। कुछ बड़े नेताओं के सजा मिलने से भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं होगा। परंतु उसके समाप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। कानून का डर मन में बैठने लगेगा।

Thursday, December 19, 1996

नैतिकता से भरपूर शिक्षा की जरूरत


पिछले महीने दिल्ली में शिक्षा पर दक्षिण एशियाई देशों का एक सेमिनार हुआ। इस तीन दिवसीय सेमिनार में विशेषकर लड़के और लड़कियों के शिक्षा अनुपात में अंतर पर जोर दिया गया। सात देशों से आए बुद्धिजीवियों ने लड़कियों की कम साक्षरता पर चिंता जताई। इसी सम्मेलन में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने एक महत्वपूर्ण सवाल की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया। उनका सवाल था कि क्या कारण है कि शिक्षित होने के बावजूद भी लोग जघन्य अपराध  करते हैं। क्या वजह है कि उच्च शिक्षा हासिल करने के बावजूद भी लोगों में नैतिकता नहीं आ पाती? देखा जाए तो सवाल बड़े गंभीर हैं। साथ ही सरकार तथा दर्जनों स्वयंसेवी और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा साक्षरता के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर भी सवालिया निशान लगा देते हैं। साल भर में हजारों करोड़ रुपये खर्च करके सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं सैकड़ों-हजारों बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाती हैं और उनमें समाज में स्वाभिमान के साथ जीने का माद्दा पैदा करती हैं। इनकी कोषिषों के बलबूते ही ऐसे अनेक लड़के और लड़कियाँ क.ख.ग.घ. सीख चुके हैं, जिन्हें, और जिनके माँ-बाप को कभी उम्मीद नहीं थी कि उनके लाड़ले कभी पेन्सिल भी पकड़ पाएंगे। भारत में साक्षरता की दर बढ़ी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देश में अपराध भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे हैं।
आँकड़ांs के मुताबिक वर्ष 2001 में भारत की साक्षरता दर 65 प्रतिशत थी। इस मामले में भारत कई पड़ोसी देशों से बहुत आगे है। यूनेस्को की सांख्यकीय इयरबुक 1999 के मुताबिक, भारत में जहां 44.2 फीसदी लोग ही निरक्षर हैं, वहीं पाकिस्तान में यह संख्या 56.7 प्रतिशत, नेपाल में 58.6 प्रतिशत, बांग्लादेश में 59.2 प्रतिशत तथा अफगानिस्तान में निरक्षरता का प्रतिशत 63.7 है। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत में अनपढ़ों की संख्या हमारे पड़ोसी मुल्कों से काफी कम है। उधर, भारत की सरकार भी सबको शिक्षा देने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। नई-नई योजनाएं और कानून बनाकर हरेक के लिए शिक्षा को जरूरी बनाया जा रहा हैं। सरकार का प्रयास है कि बच्चे तो बच्चे, बडे-बूढे़ भी पढ़ना-लिखना सीखें। इसके लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। जहाँ बिना किसी भेदभाव के किसी भी आयु वर्ग के लोग आकर साक्षर लोगों की जमात में शामिल हो सकते हैं। वैसे सरकार इस बात से चिंतित भी है कि अनेक तरह से प्रोत्साहित करने के बावजूद भी लोग लड़कियों को शिक्षा दिलाने में अभी भी संकोच करते हैं। यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2001 में भारत में जहाँ 76 फीसदी पुरुष शिक्षित थे, वहीं महिलाओं का प्रतिशत मात्र 54 ही था। वैसे देखा जाए तो पिछले वर्षों में इसमें इजाफा ही हुआ है।
शिक्षा पर पैसा खर्च करने में भी सरकार पीछे नहीं है। भारत ने शिक्षा पर वर्ष 2001-02 के दौरान सकल घरेलु उत्पाद का 4.02 फीसदी धन खर्च किया। यह बहुत बड़ी राशि है, परंतु इसके बावजूद करीब 44 फीसदी लोग अभी भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। इसके लिए बहुत से कारण जिम्मेवार हैं। साक्षरता के मामले में सबसे आगे केरल है। वहाँ के करीब 91 प्रतिशत लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं जबकि सबसे कम बिहार में 48 फीसदी लोग ही साक्षर हैं। इसके अलावा झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में भी साक्षर लोगों की संख्या देश के कुल साक्षरता प्रतिशत से काफी नीचे है। पिछले कुछ सालों में देश में स्कूलों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2001-02 में जहां 6,64,041 प्राइमरी स्कूल थे, वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों की संख्या 2,19,626  थी। हाईस्कूल-इंटर कालेज 1,33,492 थे जबकि स्नातक और परास्नातक स्तर के का¡लेज की संख्या 8,737 पार कर गई। इंजीनियरिंग, तकनीकी, चिकित्सा आदि व्यावसायिक शिक्षा देने वाले का¡लेजों की संख्या भी 2,,409 थी। इसके अलावा देश में 272 यूनीवर्सिटी तथा राष्ट्रीय महत्व के संस्थान थे। स्कूल-का¡लेजों की इतनी बड़ी फौज और सरकार द्वारा हजारों-करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी सवाल आखिर वही है। इन स्कूल-का¡लेजों में दी जाने वाली शिक्षा को हासिल करके भी लोगों में नैतिकता क्यों नहीं आ पाती? क्यों वह अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते? क्यों देश में अपराधों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका मतलब है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में कहीं न कहीं कमी है। हमें जो करना चाहिए, वह हम नहीं कर पा रहे हैं। नैतिकता और मानवता कोई घुट्टी तो है नहीं, जो लोगों को पिला दी जाए।
व्यक्ति के आंतरिक मूल्यों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहला सांसारिक और दूसरा मानवीय। सांसारिक मूल्यों के अंतर्गत सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यवसायिक और सामाजिक मूल्य आते हैं। इनमें सांस्कृतिक मूल्य सामान्यता अनुभव, स्वभाव और प्रथाओं से संबंधित होते हैं। राजनीतिक मूल्य इंसान को संकीर्ण मानसिकता से उबरकर उदार बनाते हैं। आर्थिक मूल्य इस बात की प्रेरणा देते हैं ‘‘हमेशा अच्छा खरीदो-हमेशा सस्ता खरीदो।’’ व्यापारिक मूल्य व्यक्ति के व्यापारिक संबंधों को परिभाषित करते हैं। सामाजिक मूल्यों के जरिए व्यक्ति समाज से जुड़ाव महसूस करता है। इसी तरह स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, समानता, आत्मनियंत्रण और सहयोग की भावना मानवीय मूल्यों के तहत आती हैं। ईमानदारी, एकता, अहिंसा, सच्चाई तथा न्याय नैतिक मूल्यों में शुमार होते हैं। प्यार, शांति, शुद्धता, मानवता, सच्चाई, करुणा, आदर,, क्षमाशीलता, मैत्री, एकजुटता तथा खुशी के भाव आध्यात्मिक मूल्यों की शाखाएं हैं। यदि इन सभी मूल्यों को व्यक्ति आत्मसात कर ले, तो वह कोई गलत काम नहीं कर सकता। अब जरूरत है ऐसी शिक्षा तथा ऐसी प्रणाली को विकसित करने की, जो व्यक्तियों में इन गुणों का विकास कर सके।
आजकल की शिक्षा केवल प्रतियोगितात्मक वातावरण को बढ़ावा दे रही है। जैसा कि आम तौर पर माना जाता है कि उच्च शिक्षा पाने से व्यक्ति भला-बुरा सोचने में सक्षम हो जाता है। साथ ही उसमें सहृदयता का  प्रादुर्भाव हो जाता है। पर, यह पूरी तरह सच नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपराध नहीं करता। पर यह कटु सत्य है कि देश ही नहीं दुनिया भर में होने वाले अपराधों को अंजाम देने वाले अनपढ़ नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे व्यक्ति होते हैं। इनमें से बहुत से तो ऐसे होते हैं जिनके हाथों में देश और देशवासियों की बागडोर होती है, जैसे कि राजनेता। कुछ नेता राजनीति रूपी तालाब को गंदा कर रहे हैं, और इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है शरीफ प्रतिनिधियों को। हालत यहां तक बदतर हो गई है कि नेताओं को भ्रष्टाचार और घोटालों का पर्याय माना जाने लगा है। देश में आज तक सैकड़ों घोटाले हुए हैं। अगर देखा जाए तो उनमें से अधिकांश में किसी न किसी नेता का हाथ होता है। बहुत से डा¡क्टर, इंजीनियर भी ऐसे हैं जो थोड़े से दहेज के लिए अपनी पत्नी को सूली पर चढ़ाने से नहीं चूकते। यहाँ तक कि अपराधों को रोकने की जिम्मेदारी जिनके ऊपर होती है, वह भी कानून के ढीले पेंचों को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं। विज्ञान में मनुष्य के बढ़ते कदमों का भी नैतिकता का कोई सरोकार नहीं है। यदि ऐसा होता तो जिस गति से मानव विज्ञान में तरक्की कर रहा है, उसी गति से उसमें नैतिकता भी बढ़ती। संचार और सूचनाओं के वैश्विक फैलाव का भी असर उलटा ही पड़ा है। कोई व्यक्ति गलत काम तभी करता है, जब उसके अंदर नैतिकता खत्म हो जाती है। मानवीय मूल्यों का पतन हो जाता है। उसकी आत्मा मर जाती है। आजकल लोगों में जिस तेजी से नैतिकला का लोप होता जा रहा है, वह बहुत ही चिंता की बात है।
इसलिए सिर्फ शिक्षित करना ही पर्याप्त नहीं है। जरूरत इस बात की है कि लोगों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जो उनकी तरक्की में तो सहायक हो ही, साथ ही उन्हें नैतिकता का पाठ भी पढ़ाए। उन्हें समाज में शांति से रहना सिखाए।