Monday, March 25, 2019

सांसद की भूमिका क्या होती है?

इस देश की राजनीति की यह दुर्दशा हो गई है कि एक सांसद से ग्राम प्रधान की भूमिका की अपेक्षा की जाती है। आजकल चुनाव का माहौल है। हर प्रत्याशी गांव-गांव जाकर मतदाताओं को लुभाने में लगा है। उनकी हर मांग स्वीकार कर रहा है। चाहे उस पर वह अमल कर पाए या न कर पाए। 2014 के चुनाव में मथुरा में भाजपा उम्मीदवार हेमा मालिनी ने जब गांवों के दौरे किए, तो ग्रामवासियों ने उनसे मांग की कि वे हर गांव में आर.ओ. का प्लांट लगवा दें। चूंकि वे सिनेतारिका हैं और एक मशहूर आर.ओ. कंपनी के विज्ञापन में हर दिन टीवी पर दिखाई देती है। इसीलिए ग्रामीण जनता ने उनके सामने ये मांग रखी। इसका मूल कारण ये है कि मथुरा में 85 फीसदी भूजल खारा है और खारापन जल की ऊपरी सतह से ही प्रारंभ हो जाता है। ग्रामवासियों का कहना है कि हेमा जी ने ये आश्वासन उन्हें दिया था, जो आजतक पूरा नहीं हुआ। सही बात क्या है, ये तो हेमा जी ही जानती होंगी।

यह भ्रान्ति है कि सांसद का काम सड़क और नालियां बनवाना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में फंसने के बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सांसदों की निधि की घोषणा करने की जो पहल की, उसका हमने तब भी विरोध किया था। सांसदों का काम अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति संसद और दुनिया का ध्यान आकर्षित करना हैं, कानून बनाने में मदद करना हैं, न कि गली-मौहल्ले में जाकर सड़क और नालियां बनवाना। कोई सांसद अपनी पूरी सांसद निधि भी अगर लगा दे तो एक गांव का विकास नहीं कर सकता। इसलिए सांसद निधि तो बन्द कर देनी चाहिए। यह हर सांसद के गले की हड्डी है और भ्रष्टाचार का कारण बन गई है।

हमारे लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के कई स्तर हैं। सबसे नीची ईकाई पर ग्राम सभा और ग्राम प्रधान होता है। उसके ऊपर ब्लाक प्रमुख। फिर जिला परिषद्। उसके अलवा विधायक और सांसद। यूं तो जिले का विकास करना चुने हुए प्रतिनिधियों, अधिकारियों, विधायकों व सांसदों की ही नहीं, हर नागरिक की भी जिम्मेदारी होती है। परंतु विधायक और सांसद का मुख्य कार्य होता है,अपने क्षेत्र की समस्याओं और सवालों को सदन के समक्ष जोरदार तरीके से रखना और सत्ता और सरकार से उसके हल निकालने की नीतियां बनवाना। प्रदेश या देश के कानून बनाने का काम भी क्रमशः विधायक और सांसद करते हैं।

जातिवाद, सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीति का अपराधिकरण व भ्रष्टाचार कुछ ऐसे रोग हैं, जिन्होंने हमारी चुनाव प्रक्रिया को बीमार कर दिया है। अब कोई भी प्रत्याशी अगर किसी भी स्तर का चुनाव लड़ना चाहे, तो उसे इन रोगों को सहना पड़ेगा। वरना कामियाबी नहीं मिलेगी। इस पतन के लिए न केवल राजनेता जिम्मेदार है, बल्कि मीडिया और जनता की भी जिम्मेदारी कम नहीं। जो निरर्थक विवाद खड़े कर, चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति हमलावर रहते हैं। बिना ये सोचे कि अगर कोई सांसद या विधायक थाना-कचहरी के काम में ही फंसा रहेगा, तो उसे अपनी कार्यावधि के दौरान एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलेगी।, जिसमें वह क्षेत्र के विकास के विषय में सोच सके। जनता को चाहिए कि वह अपने विधायक और सांसद को इन पचड़ों में न फंसाकर उनसे खुली वार्ताऐं करें। दोनों पक्ष मिल-बैठकर क्षेत्र की समस्याओं की प्राथमिक सूची तैयार करे और निपटाने की रणनीति की पारस्परिक सहमति से बनाए। फिर मिलकर उस दिशा में काम करे। जिससे वांछित लक्ष्य की प्रप्ति हो सके।

एक सांसद या विधायक का कार्यकाल मात्र 5 वर्ष होता है। जिसका तीन चैथाई समय केवल सदनों के अधिवेशन में बैठने पर निकल जाता है। एक चैथाई समय में ही उन्हें समाज की अपेक्षाओं को भी पूरा करना है और अपने परिवार को भी देखना है। इसलिए वह किसी के भी साथ न्याय नहीं कर पाता। दुर्भाग्य से दलों के कार्यकर्ता भी प्रायः केवल चुनावी माहौल में ही सक्रिय होते हैं, अन्यथा वे अपने काम-धंधों में जुटे रहते हैं। इस तरह जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच खाई बढ़ती जाती है। ऐसे जनप्रतिनिधि को अगला चुनाव जीतना भारी पड़ जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि दल के कार्यकर्ताओं को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ स्थानीय लोगों की समस्याऐं सुलझाने में भी अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। इसी तरह हर बस्ती, चाहे वो नगर में हो या गांव में उसे प्रबुद्ध नागरिकों की समितियां बनानी चाहिए, जो ऐसी समस्याओं से जुझने के लिए 24 घंटे उपलब्ध हो। मुंशी प्रेमचंद की कथा पंच परमेश्वरके अनुसार इस समिति में गांव की हर जाति का प्रतिनिधित्व हो और जो भी फैसले लिए जाऐ, वो सोच समझ कर, सामूहिक राय से लिए जाऐ। फिर उन्हें लागू करवाना भी गांव के सभी लोगों का दायित्व होना चाहिए।

हर चुनाव में सरकारें आती-जाती रहती हैं। सब कुछ बदल जाता है। पर जो नहीं बदलता, वह है इस देश के जागरूक नागरिकों की भूमिका और लोगों की समस्याऐं। इस तरह का एक गैर राजनैतिक व जाति और धर्म के भेद से ऊपर उठकर बनाया गया संगठन प्रभावी भी होगा और दीर्घकालिक भी। फिर आम जनता को छोटी-छोटी मदद के लिए विधायक या सांसद की देहरी पर दस्तक नहीं देनी पड़ेगी। इससे समाज में बहुत बड़ी क्रांति आऐगी। काश ऐसा हो सके।

Monday, March 18, 2019

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को

पाठकों को याद होगा कि जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तो हमारे देश का सोना इंग्लैंड के पास गिरवी रखकर, तेल और गैस के बिल का भुगतान किया गया था। दूसरे शब्दों में यह कहा जाऐ कि विकासशील देशों की इकॉनोमी और महगाई दर पैट्रोल और गैस की इंटरनेशनल कीमतों से जुड़ी रहती है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश का करीब आधा जीडीपी क्रूड आयल और गैस के आयात में चले जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो आयल और गैस के आयात के बदले में हर साल ‘मिडिल ईस्ट’ के देशों को करीब दस लाख करोड़ रूपये की भारी भरकम रकम भारत अदा करता है। पिछले पांच साल में मोदी सरकार ने करीब 50 लाख करोड़ रूपये इस मद में खर्च किये हैं।
अब प्रश्न ये पैदा होता है कि क्या ये पैसा बचाया जा सकता था? क्या हमारे देश में तेल और गैस के भंडार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं थे? तो इसका उत्तर है कि हमारे देश में तेल और गैस के भंडार पर्याप्त मात्रा से भी ज्यादा मौजूद हैं। 24 अक्तूबर 2016 को इसी कॉलम के माध्यम से हमने इसका उल्लेख भी किया था मगर सत्ता में बैठे चार-पांच व्यक्तियों की हवस ने 130 करोड़ भारतीयों की जेब के ऊपर 5 साल तक डाका डाला। आज की तारीख में हमारे देश में उपलब्ध तेल और गैस के भंडारों में से सिर्फ 15 प्रतिशत उत्खनन किया जा रहा है। बाकी 85 प्रतिशत को जानबूझकर छेड़ा नहीं जा रहा। अब जब लोकसभा के चुनाव घोषित हो गए हैं, तो मोदी जी ने तेल और गैस की पॉलिसी में जो संशोधन 2014 में करना था, वो 11 मार्च 2019 को एक अधिसूचना जारी करके कर दिया। इस अधिसूचना से पहले कैबिनेट में 28 फरवरी 2019 को अरूण जेटली के नेतृत्व ये संशोधन करने का फैसला लिया गया। ये संशोधन जानबूझकर 5 साल तक इस तथाकथित ईमानदार मोदी सरकार ने लंबित रखा। 4-5 ताकतवर लोगों ने अपनी धन की हवस को पूरा करने के लिए इस गरीब देश को मिडिल ईस्ट के शेखों के हाथों लुटवा दिया।
दरअसल तेल और गैस के उत्पादन के बारे में एक बहुत बड़ी गलतफहमी है, कि तेल और गैस लाखों सालों के अंतराल में बहुत थोड़ी मात्रा में बनता है। पर ‘केन उपनिषद्’ के एक आख्यान में अग्नि देवता के द्वारा इस गलत धारणा का खुलासा किया गया है। उसी ज्ञान को अमरिका के दो वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया, 20 साल तक मिडिल ईस्ट के तेल व गैस के कुंओं में रिसर्च करते रहे, तो उनको पता चला कि तेल और गैस किसी सबडक्शन जोन में जहां मैग्मा 1200 डिग्री सैंटीग्रेड का उपलब्ध होता है, वहां पर एक सैकेंड में भारी भरकम मात्रा में बनते हैं। इसको हम विज्ञान की भाषा में ‘इनआर्गेनिक’ तेल और गैस के बनने की विधि कहते हैं।
सौभाग्य की बात है कि यही परिस्थिति हमारे देश में अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी उपलब्ध है। आज से 30 साल पहले अमरिका के दो वैज्ञानिकों ने मिडिल ईस्ट के तेल के कुंओं में एक अजीब बात देखी, कि तेल के कुंए को साल के शुरू में जितना मापा जाता था। सारा साल तेल के कुंए से तेल निकालने के बाद भी साल के अंत में तेल पहले से बढ़ा हुआ मिलता था। इस अजूबे को देखने के बाद अमरिका के वैज्ञानिकों ने दुनिया के सामने एक घोषणा की मिडिल ईस्ट के तेल के कुंए कभी भी खाली नहीं होंगे। इसी बात को जब वैदिक विज्ञान के परिपेक्ष में खंगाला गया, तो पता चला कि विश्व के पास सिर्फ 50 साल का तेल का स्टॉक नहीं है, बल्कि इसके विपरीत 200 करोड़ साल का तेल और गैस मौजूद है। अगर पूरे विश्व की 800 करोड़ की जनसंख्या प्रतिदिन बाल्टियां भर-भरके तेल से नहाना शुरू कर दे, तो भी 200 करोड़ वर्ष तक उनको धरती माता और अग्नि देवता तेल और गैस की आपूर्ति करते रहेंगे।
आप जानना चाहेंगे कि ये चमत्कारी ‘इनआर्गेनिक’ तेल बनने की विधि क्या है। दुनिया के सभी सबडक्शन जोन्स में जब चूने (कैल्शियम कार्बोनेट) की सतह 1200 डिग्री से.गे. के मैग्मा में प्रवेश करती है, तो कैल्शियम, कार्बन, आक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं। इसी प्रकार जब समुद्र का जल (एच2ओ) 1200 डिग्री मैग्मा के संपर्क में आता है, तो हाईड्रोजन और आक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं। तत्काल कार्बन और हाईड्रोजन मिलकर हाईड्रो कार्बन बन जाता है। जिसको साधारण भाषा में कू्रड आयल और गैस कहते हैं। गौर से देखा जाए तो ये विधि विश्व के सभी सबडक्शन जोन्स के आलवा सी-सप्रेडिंग सेंटर्स’, हॉट-स्पॉट्स, रिफ्ट्स में भी उपलब्ध है।
पाठकों को हम यह बता दें कि जो धीमी गति से तेल और गैस बनने की प्रक्रिया है, उसके अंदर भी इसी प्रक्रिया का जिसको हम विज्ञान की भाषा में मेटार्मोफिस्म (रूपांतरण) उसी का योगदान है।
भारतवासियों को हम बधाई देना चाहते हैं कि आने वाले कुछ ही वर्षों में भारत तेल और गैस का आयात बंद कर देगा और अपने ही देश में निकलने वाले तेल और गैस से हमारी जरूरत पूरी हो जाएगी और यहां तक कि अगर परिस्थितियां अनुकूल रही, तो भारत तेल और गैस का निर्यात करने वाला देश भी बन जाएगा और भारत के सुपरपावर बनने के सपने साकार हो जाऐंगे।

Monday, March 4, 2019

मीडिया अपने गिरेबान में झांके


40 बरस पहले जब हमने टीवी पत्रकारिता शुरू की, तो हमने कुछ मूल सिद्धांतों को पकड़ा था। पहला: बिना प्रमाण के कुछ भी लिखना या बोलना नहीं है। दूसरा: किसी के दिए हुए तथ्यों को बिना खुद परखे उन पर विश्वास नहीं करना। तीसरा: अगर किसी के विरूद्ध कोई विषय उठाना है, तो उस व्यक्ति का उन बिंदुओं पर जबाब या वक्तव्य अवश्य लेना। चैथा:  सभी राजनैतिक दलों से बराबर दूरी बनाकर केवल जनता के हित में बात कहना। जिससे लोकतंत्र के चैथा खंभा होने का दायित्व हम ईमानदारी से निभा सकें। आज 63 बरस की उम्र में भी विनम्रता से कह सकता हूँ कि जहां तक संभव हुआ, अपनी पत्रकारिता को इन चार सिद्धांतों के इर्द-गिर्द ही रखा। ये जरूर है कि इसकी कीमत जीवन में चुकानी पड़ी। पर इसके कारण जीवनभर जो दर्शकों और पाठकों का सम्मान मिलता आया है, वह मेरे लिए किसी पद्मभूषण से कम नहीं है।

ऐसा इसलिए उल्लेख करना पड़ रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा इस सिद्धांतों के विपरीत काम रहा है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता की सारी सीमाओं को लांघकर हमारे कुछ टीवी एंकर और संवाददाता एक राजनैतिक दल के जन संपर्क अधिकारी बन गए हैं। वे न तो तथ्यों की पड़ताल करते हैं, न व्यवस्था से सवाल करते हैं और न ही किसी पर आरोप लगाने से पहले उसको अपनी बात कहने का मौका देते हैं। इतना ही नहीं, अब तो अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की तरह वे ये कहने में भी संकोच नहीं करते कि जो मीडियाकर्मी या नेता या समाज के जागरूक लोग उनके पोषक राजनैतिक दल के साथ नहीं खड़े हैं, वे सब देशद्रोही हैं और जो साथ खड़े हैं, केवल वे ही देशभक्त हैं। मीडिया के पतन की यह पराकाष्ठा है। ऐेसे मीडियाकर्मी स्वयं अपने हाथों से अपनी कब्र खोद रहे हैं।

ताजा उदाहरण पुलवामा और पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के हवाई हमले का है। कितने मीडियाकर्मी सरकार से ये सवाल पूछ रहे हैं कि भारत की इंटेलीजेंस ब्यूरो, रॉ, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर पुलिस, मिल्ट्रिी इंटेलीजेंस व सीआरपीएफ के आला अफसरों की निगरानी के बावजूद ये कैसे संभव हुआ कि साढ़े तीन सौ किलो आरडीएक्स से लदे एक नागरिक वाहन ने सीआरपीएफ के कारवां पर हमला करके हमारे 44 जाँबाज सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए। बेचारों को लड़कर अपनी बहादुरी दिखाने का भी मौका नहीं मिला। कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई? कितनी युवतियां भरी जवानी में विधवा हो गई? कितने नौनिहाल अनाथ हो गए? मगर इन जवानों को शहीद का दर्जा भी नहीं मिला। इस भीषण दुर्घटना के लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे देश की एनआईए ने अब तक क्या जांच की? कितने लोगों को इसके लिए पकड़ा? ये सब तथ्य जनता के सामने लाना मीडिया की जिम्मेदारी है। पर क्या ये टीवी चैनल अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? या रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नौटंकीबाजों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे हैं? आखिर किस लालच में ये अपना पत्रकारिता भूल बैठे हैं?

यही बात पाक अधिकृत कश्मीर पर हुए हवाई हमले के संदर्भ में भी लागू है। पहले दिन से मीडिया वालों ने शोर मचाया कि साढ़े तीन सौ आतंकवादी मारे गए। इन्होंने ये भी बताया कि महमूद अजहर के कौन-कौन से रिश्तेदार मारे गए। इन्होंने टीवी पर हवाई जहाजों से गिरते बम की वीडियो भी दिखाई। पर अगले ही दिन इनको बताना पड़ा कि ये वीडियो काल्पनिक थी। आज उस घटना को एक हफ्ता हो गया। साढ़े तीन सौ की बात छोड़िए, क्या साढ़े तीन लाशों की फोटो भी ये मीडिया वाले दिखा पाऐ ? जिनको मारने का दावा बढ़-चढ़कर किया जा रहा था। जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया मौके पर पहुंचा, तो उसने पाया कि हमारे हवाई हमले में कुछ पेड़ टूटे हैं, कुछ मकान दरके हैं और एक आदमी की सोते हुए मौत हुई है। अब किस पर यकीन करें? सारे देश को इंतजार है कि भारत का मीडिया साढ़े तीन सौ लाशों के प्रमाण प्रस्तुत करेगा। पर अभी तक उसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे। प्रमाण तो दूर की बात रही, इन घटनाओ से जुड़े सार्थक प्रश्न तक पूछने की हिम्मत इन मीडियाकर्मियों को नहीं है। ऐसा लगता है कि अब हम खबर नहीं देख रहे बल्कि झूठ उगलने वाला प्रोपोगंडा देख रहे हैं। जिससे पूरे मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग गया है।

तीसरी घटना हमारे मथुरा जिले की है। हमारे गांव जरेलिया का नौजवान पंकज सिंह श्रीनगर में हैलीकॉप्टर दुर्घटना मे शहीद हो गया। हम सब हजारों की तादात में उसकी शाहदत को प्रणाम करने उसके गांव पहुंचे और पांच घंटे तक वहां रहे। सैकड़ों तिरंगे वहां लहरा रहे थे। हजारों वाहन कतार में खड़े थे। सारा प्रशासन फौज और पुलिस मौजूद थी। जिले के सब नेता मौजूद थे। सैकड़ों गांवों की सरदारी मौजूद थी। वहां शहीद के सम्मान में गगन भेदी नारों से आकाश गूंज रहा था। इतनी बड़ी घटना हुई, पर किसी मीडिया चैनल ने इस खबर को प्रसारित नहीं किया। इस सब से शहीद पंकज सिंह के परिवार को ही नहीं, बल्कि लाखों ब्रजवासियों में भी भारी आक्रोश है। वे मुझसे प्रश्न पूछ रहे हैं कि आप खुद मीडियाकर्मी हैं, ये बताईये कि व्यर्थ की बातों पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया चैनल एक शहीद की अन्त्येष्टि के इतने विशाल कार्यक्रम की क्या एक झलक भी अपने समाचारों में नहीं दिखा सकते थे। जिस शहादत में मोदी जी खड़े दिखाई दें क्या वही खबर होती है? अब इसका मैं उन्हें क्या जबाब दूँ? शर्म से सिर झुक जाता है, इन टीवी वालों की हरकतें देखकर। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दें।

Monday, February 25, 2019

लोकतंत्र चैराहे पर

चुनाव सिर पर हैंद्य भाजपा समर्थक मीडिया पाकिस्तान के विरुद्ध उन्माद पैदा करने में जुटा है। अंदेशा है कि प्रधान मंत्री मोदी भी कुछ ऐसा कर सकते हैं जो हवा उनकी तरफ बहने लगे। सम्विधान की धारा 35370 को राष्ट्रपति के अध्यादेश से खत्म करवाना, ऐसा ही एक कदम है। धारा 35 हटने से कश्मीर के बाहर के भारतीय नागरिक वहां स्थाई संपत्ति खरीद पायेंगे और 370 हटने से कश्मीर को मिला विशेष दर्जा समाप्त हो जाएगा। ये दोनों ही बातें ऐसी हैं जिनकी मांग संघ व भाजपा के कार्यकर्त्ता शुरू से करते आ रहे हैं। जाहिर है कि अगर मोदी जी ऐसा करते हैं तो इसे चुनावों में भुनाने की पुरजोर कोशिश की जायेगी जिसका जाहिरन काफी लाभ भाजपा को मिल सकता है। किन्तु इसमें कुछ पेंच हैं। संविधान का कोई भी संशोधन संसद की स्वीकृति के बिना स्थाई नहीं रह सकता। क्योंकि राष्ट्रपति अध्यादेश की अवधि 6 महीने की होती है। आवश्यक नहीं कि अगली लोक सभा इसे पारित करे। उस स्थिति में यह अध्यादेश निरस्त हो जाएगा। पर इस बीच में जो राजनैतिक लाभ भाजपा चाहती है वह तो ले ही लेगी।
एक दूसरा पेंच यह है कि जम्मू कश्मीर का सृजन ही धारा 370 के तहत हुआ है। अगर यह धारा समाप्त कर दी जाती है तो कश्मीर भारत का अंग नहीं रह पायेगा और 1948 की स्थिति में एक स्वतंत्र राष्ट्र हो जाएगा। इसलिए अगर मोदी जी यह अध्यादेश लाते भी हैं तो दर्जनों बड़े वकील इसपर स्थगन आदेश लेने सर्वोच्च न्यायालय दौड़ेंगे। अगर अदालत ने स्थगन आदेश दे दिया तो सरकार की किरकिरी हो जाएगी।
इस समय लोकतंत्र एक ऐसा चैराहे पर खड़ा है, जहां एक तरफ मोदी-अमित शाह की जोड़ी है। जो जिहाद के मूड में है। उन्हें किसी भी तरह ये चुनाव जीतना है और इसके लिए उनके पास धन बल, सत्ता बल व अन्य सभी तरह के बल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए मोदी जी कोई जोखिम उठाने से हिचकेंगे नहीं। क्योंकि उन्होंने अपने मन में ठान ली है, ‘करो या मरो’। कानूनी या राजनैतिक विवाद जो भी उठेंगे, उन्हें चुनावों के बाद साध लिया जाऐगा, यह सोचकर मोदी-अमित शाह की जोड़ी कोई भी जोखिम उठाने के लिए रूकेगी नहीं। चाहे वो पाकिस्तान पर हमला ही क्यों न हो।
दूसरी तरफ विपक्ष बिखरा हुआ है, अपने-अपने अहम और अंहकार में क्षेत्रिय दलों के सत्रप एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। उन्हें भ्रम है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में अपने मतों पर पकड़ बनाऐ रखेंगे। वे ये नहीं सोच पा रहे कि जब मोदी का कश्मीर या पाकिस्तान ऑपरेशन सफल हो जाऐगा, तो फिर से मीडिया देश में देशभक्ति का गुबार पैदा करने में जुट जाऐगा। जिससे चुनाव की पूरी हवा भाजपा के पक्ष में रहेगी औ विपक्षी दलों के नेता चुनावों के बाद औंधे पड़े होंगे। विपक्ष का भविष्य तभी सुरक्षित, जब सभी विपक्षी दल अपने अहम को पीछे छोड़कर, एक साझा मंच बनाये और भाजपा से सीधा मुकाबला करे।
उधर पाकिस्तान पर हमला करने के कुछ जोखिम भी हैं। एक तो ये कि पाकिस्तान को सऊदी अरब, चीन और अमरिका की खुली मदद मिल रही है। चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर से करांची के बंदरगाह तक जो अपनी सड़क पहुचाई है, उस पर वो किसी किस्म का खतरा बर्दाश्त नहीं करेगा। क्योंकि यह सड़क उसके लिए सामरिक और व्यापारिक हित साधने का सबसे बड़ा साधन है। ठंडे पानी के चीन सागर से करांची के गर्म पानी के अरब सागर तक पहुंचने का उसका रास्ता अब साफ हो गया है। इसके अलावा भी अन्य कई कारण हैं, जिससे चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा है, चाहे चीन के राष्ट्रपति मोदी जी के साथ कितनी ही झप्पी डालें। अगर भारत पाकिस्तान पर हमला करता है, तो चीन भी भारत पर तगड़ा हमला कर सकता है। उधर पाकिस्तान के सेना नायकों को अगर फितूर चढ़ गया और उन्होंने एक एटम बम भारत की तरफ फेंक दिया, तो उत्तर भारत में तबाही मच जाऐगी। जनता हाहाकार करेगी। उधर फिर भारत भी चुप नहीं बैठेगा और इस तरह एक आणविक युद्ध छिड़ जाने का खतरा है।
हो सकता है कि कुछ भावुक लोग मेरी इस बात को कायराना समझें। पर सोचने वाली बात ये है कि क्या एक बार पाकिस्तान पर हमला करने से आतंकवाद खत्म हो जाऐगा? जबकि भारत में आतंकवादियों को पैसा पश्चिमी ऐशिया, बांग्लादेश, अरूणाचल और नेपाल के रास्ते भी आता है। आयरलैंड जैसा देश दशकों तक आतंकवाद पर काबू नहीं पा पाया था।
दरअसल आतंकवाद के अन्य बहुत से कारण भी हैं। जिन पर रातों-रात काबू नहीं पाया जा सकता। इसलिए सरकार जो भी कदम उठाये, उसमें किसी दल का हित न देखकर, राष्ट्र का हित देखना चाहिए। ऐसा न हो कि चुनाव की हड़बड़ी में ऐसे कदम उठा लिये जाऐ, जिनका समाज और देश की अर्थव्यवस्था पर बरसों तक उल्टा असर पड़े और आतंकवाद खत्म होने की बजाय देश में साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ जाऐ। देश की शांति व्यवस्था भंग हो जाऐ और करोबार ठप्प होने की स्थिति में आ जाऐ। आशा की जानी चाहिए कि मोदी जी जो भी करेंगे, सही लोगों की सलाह लेकर करेंगे और अपने राजनैतिक स्वार्थ की बजाय राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखेंगे।

Monday, February 18, 2019

आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो

जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले से पूरा भारत आज दुखी है और आक्रोश में है। इस त्रासदी के समय हम सब प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के साथ हैं। देशवासी चाहते हैं कि आतंकी वारदात पर कड़़ी कार्यवाही हो। पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कड़ी कार्यवाही तो पहले भी होती रही है। प्रश्न है कि जब सुरक्षाबलों का काफिला चलता है, तो उस मार्ग को पहले सुरक्षित कर दिया जाता है। जब ढाई्र हजार जवानों का आधा किलोमीटर लंबा काफिला एक जगह से दूसरी जगह सड़क मार्ग से जा रहा था, तो क्या उस पर ड्रोन से नजर, हेलिकॉप्टर से निगरानी रखते हुए, सुरक्षा कवच नहीं होना चाहिए था? ताकि अगल-बगल से कोई अनाधिकृत गाड़ी या बारूद से भरी कार, बस द्वारा किसी तरह की संदिग्ध गतिविधि न हो। आश्चर्य है कि इतनी भारी मात्रा विस्फोटक का प्रयोग कैसे कर लिया गया? कैसे इन विस्फोटक अतिसंवेनशील क्षेत्र में आतंकवादी तक पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया ऐजेंसी क्या कर रही थी?
अब सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए। हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं कई वर्षों से लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।
आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं। पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। तीसरा कदम संसद को उठाना है द्य ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।
अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। राजनीतिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता।
नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा ह। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।
यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें।
देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें।

Monday, February 11, 2019

सौगंध राम की खाते हैं-हम मंदिर वहीं बनाएंगे

आरएसएस व विहिप द्वारा अर्ध कुम्भ में बुलाई गई धर्म संसद में जमकर हंगामा हुआ। मंच से संघ, विहिप और उनके बुलाये संतों के मुख से ये सुनकर कि अयोध्या में श्री राम मंदिर बनाने में जल्दी नहीं की जाएगी। कानून और संविधान का पालन होगा। अभी पहले चुनाव हो जाने दें। आप सब भाजपा को वोट दें जिससे जीतकर आई नई सरकार फिर मंदिर बनवा सके।

इतना सुनना था कि पहले से ही आधा खाली पंडाल आक्रामक होकर मंच की तरफ दौड़ा। श्रोता, जिनमे ज्यादातर विहिप के कार्यकर्ता थे, आग बबूला हो गए और मंचासीन वक्ताओं को जोर जोर से गरियाने लगे। उनका कहना था की तीस वर्षों से उन्हें उल्लू बनाकर मंदिर की राजनीति की जा रही है। अब वो अपने गांव और शहरों में जनता को क्या मुँह दिखाएंगे ?
उल्लेखनीय है कि गत कुछ महीनों से संघ, विहिप और भाजपा लगातार मंदिर की राजनीति को गर्माने में जुटे थी। इस मामले की बार-बार तारीख बढ़ाने पर कार्यकर्ता और उनका प्रायोजित सोशल मीडिया सर्वोच्च न्यायालय पर भी हमला कर रहे थे। मुख्य न्यायाधीश को हिन्दू विरोधी बता रहे थे। मंदिर निर्माण के लिये कानून अपने हाथ मे लेने की धमकी दे रहे थे। सरकार से अध्यादेश लाने को कह रहे थे। फिर उन्होंने अचानक धर्म संसद में ये पलटी क्यों मार ली गई ?
दरअसल पिछले कई महीनों से संघ व भाजपा के अंदरूनी जानकारों का कहना था कि मंदिर निर्माण को लेकर ये संगठन और सरकार गम्भीर नहीं हैं। वे इस मुद्दे को जिंदा तो रखना चाहते हैं, पर मंदिर निर्माण के इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। उधर सर्वोच्च न्यायालय के हाल के कई फैसलों का रुख देखने के बाद ये आश्चर्य भी व्यक्त किया जा रहा था कि जब लगभग हर मामले में सर्वोच्च अदालत यथासंभव सरकार के हक में ही फैसले दे रही है तो राम मंदिर का मामला क्यों टाला जा रहा है ? कहीं सरकार ही तो इसे गुपचुप टलवा नहीं रही ?
सरकार के इस टालू रवैये को देखकर ही शायद दो पीठों के शंकराचार्य स्वरूपानंद जी ने पिछले हफ्ते अर्ध कुम्भ में धर्म संसद बुलाकर मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने संतों और भक्तो का आव्हान किया कि वे 21 फरवरी को मंदिर का शिलान्यास करने अयोध्या पहुंचें। 
इस तरह अपने पारम्परिक धार्मिक अधिकार के आधार पर उन्होंने मंदिर की राजनीति करने वालों को अचानक बुरी तरह से झकझोर दिया। उनके लिये एक बड़ी चुनौती खडी कर दी। अगर वे शंकराचार्य जी को राम जन्मभूमि की ओर बढ़ने से रोकते हैं तो देश विदेश में ये संदेश जाएगा कि केंद्र और राज्य में भाजपा की बहुमत सरकारों ने भी संतों को मंदिर नहीं बनाने दिया । जबकि केंद्र सरकार ने खुद पिछले 5 वर्षों में इस ओर कोई प्रयास किया ही नहीं। अगर सरकार उन्हें नहीं रोकती है तो कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो जाएगी। इस मामले में स्वामी स्वरूपानंद जी शंकराचार्य को यदि गिरफ्तार या नजरबंद करना पड़ा तो ये सरकार को और भी भारी पड़ेगा। क्योंकि अपनी सत्ता और पैसे के बल पर सरकार चाहे जितने अवसरवादी संत मंच पर जोड़ ले, वे शंकराचार्य जैसी सदियों पुरानी धार्मिक पीठ की हैसियत तो प्राप्त नहीं कर सकते ?
इसीलिये हड़बड़ाहट में संघ व विहिप नेतृत्व को भी धर्म संसद बुलाकर फिलहाल मंदिर की मांग टालने की घोषणा करनी पड़ी। पर इसकी जो तुरंत प्रतिक्रिया पंडाल में हुई या अब जो जनता में होगी, जब ये संदेश उस तक पहुंचेगा, तो भाजपा की मुश्किल और बढ़ जाएगी। क्योंकि उसकी और उसके सहोदर संगठनों की ये छवि तो मतदाता के मन मे पहले से ही बनी है कि ये सब संगठन केवल चुनाव में वोट लेने के लिए राम मंदिर का मामला हर चुनाव के पहले उठाते है, जन भावनाएं भड़काते हैं, और फिर सत्ता में आने के बाद मंदिर निर्माण को को भूल जाते हैं। ये ही सिलसिला गत तीस वर्षों से चल रहा है।
दरअसल इस सबके पीछे एक कारण और भी हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस को लगभग तीस वर्ष हो गए। जो पीढी उसके बाद जन्मी उसे मंदिर उन्माद का कुछ पता नहीं। उसे तो इस बात की हताशा है कि उसे आज तक रोजगार नहीं मिला। भारत सरकार के ही सांख्यकी विभाग की एक हाल में लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार आज भारत मे गत 42 वर्षों की तुलना में सबसे ज्यादा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। जिससे युवाओं में भारी हताशा और आक्रोश है। उन्हें धर्म नहीं रोजी रोटी चाहिए। इसलिए भी शायद संघ व भाजपा नेतृत्व को लगा हो कि कहीं इस चुनावी माहौल में मंदिर की बात करना भारी न पड़ जाय, तो क्यों न इसे फिलहाल  टाल दिया जाय।
जो भी हो ये तय है कि पिछले इतने महीनों से अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण की हवा बना रहा भाजपा और संघ परिकर अब इस मुद्दे पर पतली गली से बाहर निकल चुका है। उसकी कोशिश होगी कि वो इस मुद्दे पर से मतदाताओं का ध्यान हटा कर किसी नए मुद्दे पर फंसा दे, जिससे चुनावी वैतरणी पार हो जाय। पर मतदाता इस पर क्यानिर्णय लेता है, ये तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम से ही पता चलेगा।

Monday, February 4, 2019

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारार्थ कुछ प्रश्न

पिछले हफ्ते ट्वीटर पर मैंने सरसंघचालक जी से एक खुले पत्र के माध्यम से विनम्रता से कहा कि मुझे लगता है कि संघ कभी-कभी हिन्दू धर्म की परंपराओं को तोड़कर अपने विचार आरोपित करता है।  जिससे हिंदुओं को पीड़ा होती है। जैसे हम ब्रजवासियों के 5000 वर्षों की परंपरा में वृन्दावन और मथुरा का भाव अलग था, उपासना अलग थी व दोनों की संस्कृति भिन्न थी। पर आपकी विचारधारा की उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों का एक नगर निगम बनाकर इस सदियों पुरानी भक्ति परम्परा को नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया ?
इसका उत्तर मिला कि संघ का सरकार से कोई लेना देना नहीं है। देश की राजनीति, पत्रकारिता या समाज से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति क्या यह मानेगा कि संघ का सरकार से कोई संबंध नहीं होता ? सच्चाई तो यह है कि जहां-जहां भाजपा की सरकार होती है, उसमें संघ का काफी हस्तक्षेप रहता है। फिर ये आवरण क्यों ? यदि भाजपा संघ की विचारधारा व संगठन से उपजी है तो उसकी सरकारों में हस्तक्षेप क्यों न हो ? होना ही चाहिए तभी हिन्दू हित की बात आगे बढ़ेगी।
मेरा दूसरा प्रश्न था कि हम सब हिन्दू वेदों, शास्त्रों या किसी सिद्ध संत को गुरु मानते हैं, ध्वज को गुरु मानने की आपके यहां ये परंपरा किस वैदिक स्रोत से ली गई है ? इसका उत्तर नागपुर से मुकुल जी ने संतुष्टिपूर्ण दिया। विभिन्न संप्रदायों के झगड़े में न पड़के संघ ने केसरिया ध्वज को धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की प्रेरणा देने के लिये प्रतीक रूप में गुरु माना है। वैसे भी ये हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानित रहा है।
मेरा तीसरा प्रश्न था कि हमारी संस्कृति में अभिवादन के दो ही तरीके हज़ारों वर्षों से प्रचलित हैं ; दोनों हाथ जोड़कर करबद्ध प्रणाम (नमस्ते) या धरती पर सीधे लेटकर दंडवत प्रणाम। तो संघ में सीधा हाथ आधा उठाकर, उसे मोड़कर,  फिर सिर को झटके से झुकाकर ध्वज प्रणाम करना किस वैदिक परंपरा से लिया गया है ? इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं मिला। हम जानते हैं कि अगर बहता न रहे तो रुका जल सड़ जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संघ ने दशाब्दियों बाद नेकर की जगह हाल ही में पेंट अपना ली है। तो प्रणाम भी हिन्दू संस्कृति के अनुकूल ही अपना लेना चाहिए। भारत ही नहीं जापान जैसे जिन देशों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति का प्रभाव हैं वहां भी नमस्ते ही अभिवादन का तरीका है। माननीय भागवत जी को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि अभी जो ध्वज प्रणाम की पद्ति है, वो किसी के गले नहीं उतरती। क्योंकि इसका कोई तर्क नहीं है। जब हम बचपन मे शाखा में जाते थे तब भी हमें ये अटपटा लगता था।
मेरा चौथा प्रश्न था कि वैदिक परंपरा में दो ही वस्त्र पहनना बताया गया है ; शरीर के निचले भाग को ढकने के लिए 'अधोवस्त्र' व ऊपरी भाग को ढकने के लिए 'अंग वस्त्र' । तो ये खाकी नेकर/पेंट, सफेद कमीज़ और काली टोपी किस हिन्दू परंपरा से ली गई है ? आप प्राचीन व मध्युगीन ही नहीं आधुनिक भारत का इतिहास भी देखिए तो पाएंगे कि अपनी पारंपरिक पोशाक धोती व बगलबंदी पहन कर योद्धाओं ने बड़े-बड़े युद्ध लड़े और जीते थे। तो संघ क्यों नहीं ऐसी पोषक अपनाता जो पूर्णतःभारतीय लगे। मौजूदा पोषक का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
सोशल मीडिया पर वायरल हुए मेरे इन प्रश्नों के जवाब में मुझे आसाम से 'विराट हिन्दू संगठन' के एक महासचिव ने ट्वीटर पर जान से मारने की खुली धमकी दे डाली। ये अजीब बात है। दूसरे धर्मों में प्रश्न पूछने पर ऐसा होता आया है। पर भारत के वैदिक धर्म ग्रंथों में प्रश्न पूछने और शास्तार्थ करने को सदैव ही प्रोत्साहित किया गया है। मैं नहीं समझता कि माननीय डॉ मोहन भागवत जी को मेरे इन प्रश्नों से कोई आपत्ति हुई होगी ? क्योंकि वे एक सुलझे हुए, गम्भीर और विनम्र व्यक्ति हैं। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि मुझ जैसे कट्टर सनातनधर्मी की भी विनम्र जिज्ञासा पर उनके कार्यकर्ताओं को इतना क्रोध क्यों आ जाता है ? भारत का समाज अगर इतना असहिष्णु होता तो भारतीय संस्कृति आज तक जीवित नहीं रहती। भारत वो देश है जहां झरनों का ही नहीं नालो का जल भी मां गंगा में गिरकर गंगाजल बन जाता है। विचार कहीं से भी आएं उन्हें जांचने-परखने की क्षमता और उदारता हम भारतीयों में हमेशा से रही है।
संघ के कार्यकर्ताओं का इतिहास, सादगी, त्याग और सेवा का रहा है। पर सत्ता के संपर्क में आने से आज उसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। ये चिंतनीय है। अगर संघ को अपनी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखना है, तो उसे इस प्रदूषण से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना होगा। मुझे विश्वास है कि डॉ साहब मेरे इन बालसुलभ किंतु गंभीर प्रश्नों पर विचार अवश्य करेंगे। वंदे मातरम।