Monday, August 29, 2016

गौरक्षक आहत क्यों ?


जिस तरह मीडिया ने गौरक्षकों के खिलाफ शोर मचाया था, उसे यह साफ हो गया था कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी भारत में गौमाता की रक्षा नहीं होने देगी। इस लॉबी ने प्रधानमंत्री को इस तरह घेर लिया कि उन्हें मजबूरन गौरक्षकों को चेतावनी देनी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं कि गौरक्षा के नाम पर जातीय संघर्ष या खून-खराबे को होने दिया जाए। जिन लोगों ने इस तरह की हिंसा इस देश में कहीं भी की, उन्होंने उत्साह के अतिरेक में गौवंश को हानि पहुंचाई।

दरअसल गौरक्षा का मुद्दा बिल्कुल धार्मिक नहीं है। यह तो शुद्धतम रूप में लोगों की कृषि, अर्थव्यवस्था और उनके स्वास्थ्य से जुड़ा है। हजारों साल पहले भारत के ऋषियो ने गौवंश के असीमित लाभ जान लिए थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में गौवंश को इतना महत्व दिया।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासकों ने बाकायदा रणनीति बनाकर भारतीय गौवंश को पूरी तरह नष्ट करने का अभियान चलाया, जो आज तक चल रहा है। क्योंकि वह जानते थे कि हजारों साल से भारत की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत गौ आधारित कृषि रहा था। बिना गौवंश की हत्या किए भारत और भारतीयों को कमजोर नहीं किया जा सकता था। आजादी के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इसमें बड़ी होशियारी से पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई। उन्होंने इस तरह की मानसिकता तैयार की कि घर-घर में पलने वाली गाय हमारी उपेक्षा और हीनभावना का शिकार हो गयी। जिससे गाय का दूध, दही, मक्खन, घी और छाछ सेवन करके हर भारतीय परिवार स्वस्थ, सुखी और संस्कारवान रहता था। आज आम भारतीयों को जीवन के लिए पोषक तत्व प्राप्त नहीं हैं। दूध, दही, घी के नाम पर जो बड़े ब्रांडो के नाम से बेचा जा रहा है, उसमें कितने कीटनाशक, रासायनिक खाद्य और नकली तत्व मिले हैं, इसका अब हिसाब रखना भी मुश्किल है। नतीजा सामने है कि मेडीकल का व्यवसाय हर गली व शहर में तेजी से पनप रहा है।

चिंता और दुख की बात ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन पर जीने वाले कैसे देश के हित में सोच सकते हैं ? वह तो वही लिखेंगे और बोलेंगे, जो उनके कॉरपोरेट आका उन्हें लिखने को कहेंगे। इस लॉबी के खिलाफ देशभक्तो को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। पर हिंसा से नहीं तर्क और प्रमाण के साथ। भारतीय गौवंश की श्रेष्ठता को भारतीय जनमानस के सामने लगातार हर मंच पर इस तरह रखना होगा कि एक बार फिर भारतीय परिवार गौवंश को अपने आंगन में स्थान दे।

गांवों में तो यह आसानी से संभव है, पर दुख की बात है कि वहां भी आज गौवंश की उपेक्षा हो रही है। हमने हमेशा कहा है कि गाय गौशाला में नहीं, बल्कि जब हर घर के आंगन में पलेंगी, तब गौवंश की रक्षा होगी। जिनके पास स्थान का अभाव है, उनकी तो मजबूरी है। पर वह भी भारतीय गौवंश के उत्पादों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन देकर अपने परिवार और समाज का भला कर सकते है।

गौरक्षकों के आक्रोश का भी कारण समझना होगा। सदियों से हिंदू समाज गौवंश के ऊपर हो रहे अत्याार को सहता आ रहा है। क्योंकि उसकी पकड़ सत्ताधीशों पर नहीं रही। नरेंद्र भाई मोदी के सत्ता में आने से हर हिंदू को लगा कि एक हजार वर्ष बाद भारत की सनातन संस्कृति को संरक्षक मिला है। जिसे अपने को हिंदू कहने में कोई झिझक नहीं है। ऐसे में जब मोदीजी लाल मांस के निर्यात को बढ़ाने की बात करते है, तो जाहिर है कि हिंदू समाज आहत महसूस करता है।

मोदीजी भूटान में देखकर आए है कि उस देश में हर व्यक्ति सुखी है, क्योंकि उनका जीवन गौ और कृषि आधारित है। उन्हें दुनिया के साथ दौड़ने की इच्छा नहीं है। क्योंकि वह तीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणामों से परिचित हैं।

फिर भारत क्यों उस अंधी दौड़ में भागना चाहता है, जिसका फल भौतिक प्रगति तो हो सकता है, पर उससे समाज सुखी नहीं होता। बल्कि समाज और ज्यादा असुरक्षित होकर तनाव में आ जाता है। भारत की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय समाज हजारों साल से निरंतर जिंदा रहा है। जबकि पश्चिमी समाज ने एक शताब्दी के अंदर ही औद्योगीकरण के नफे और नुकसान, दोनों का अनुभव कर लिया है। अब वह भारतीय जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है। ऐसे में भारत को फिर से विश्वगुरू बनना होगा। जो गौ आधारित जीवन और वेद आधारित ज्ञान से ही संभव है। इसमें न तो कोई अतिश्योक्ति है और न ही कोई धर्मांधता। कहीं ऐसा न हो कि ‘सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया।’

Monday, August 22, 2016

पुलैला गोपीचंद से सीखो

    पीवी सिंधु के रजत पदक के पीछे सबसे बड़ा योगदान उसके कोच पुलैला गोपीचंद का है। जिनकी वर्षों की मेहनत से उनकी शिष्या ओलंपिक में पहली बार ऐसा पदक जीत पाई। पुलैला गोपीचंद की ही देन थी सानिया मिर्जा। इसी काॅलम में आज से 15 वर्ष पहले मैंने लिखा था ‘शाबाश पुलैला गोपीचंद’। ये तब की बात है। जब इंग्लैंड ओपन टूर्नामेंट में पुलैला गोपीचंद ने विश्वस्तरीय खिताब जीता था और वह रातों-रात भारत में एक सेलीब्रिटी बन गए थे। उस वक्त कोकाकोला कंपनी ने करोड़ों रूपए का आॅफर गोपीचंद को दिया, इस बात के लिए कि वे उनके पेय को लोकप्रिय बनाने के लिए विज्ञापन में आ जाएं। पर गोपीचंद ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया, जबकि उन्हें उस वक्त पैसे की सख्त जरूरत थी। गोपीचंद का कहना था कि जिस पेय को मैं स्वयं पीता नहीं और मैं जानता हूं कि इसके पीने से शरीर को हानि पहुंचती है, उसके विज्ञापन को मैं कैसे समर्थन दे सकता हूं। गोपीचंद के इस आदर्श आचरण पर ही पर मैंने वह लेख लिखा था। जबकि दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन हों या आमिर खान। पैसे के लिए ऐसे विज्ञापनों को लेने से परहेज नहीं करते, जिनसे लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है।

    इंग्लैंड में खिताब जीतने के बाद गोपीचंद की इच्छा थी, एक बैडमिंटन एकेडमी खोलने की। पर उसके लिए उनके पास पैसा नहीं था। उन्होंने अपना घर गिरवी रखा। मित्रों से सहायता मांगी, पर बात नहीं बनीं। जो कुछ जमा हुआ, वो विश्वस्तरीय एकेडमी बनाने के लिए काफी नहीं था। आखिरकार आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति ने कई करोड़ रूपए की आर्थिक मदद देकर पुलैला गोपीचंद की एकेडमी स्थापित करवाई, जहां आज ओलंपिक स्तर के खिलाड़ी तैयार होते हैं। दुनियाभर से नौजवान गोपीचंद से बैंडमिंटन सीखने यहां आते हैं। सुबह 4 बजे से रात तक गोपीचंद अपने बैडमिंटन कोर्ट में खड़े दिखते हैं। वे कड़े अनुशासन में प्रशिक्षण देते हैं। यहां तक कि आखिर के एक-दो महीना पहले उन्होंने सिंधु से उसका मोबाइल फोन तक छीन लिया, ये कहकर कि केवल खेल पर ध्यान दो, किसी से बात मत करो।

    ऐसी ही कहानी हमारे दूसरे पदक विजेताओं की रही है। चाहे वो शूटिंग में अभिनव बिंद्रा हों, जिनके धनी पिता ने उनके लिए निजी शूटिंग रेंज बनवा दिया था या दूसरे कुश्ती के पहलवान या धावक हों। सब किसी न किसी गुरू की शार्गिदी में आगे बढ़ते हैं। दूसरी तरफ सरकारी स्तर पर अरबों रूपया स्पोर्टस के नाम पर खर्च होता है। पर जो अधिकारी और राजनेता स्पोर्टस मैनेजमेंट में घुसे हुए हैं, वे केवल मलाई खाते हैं और खिलाड़ियों व उनके कोच बुनियादी सुविधाओं के लिए धक्के खाते रहते हैं।

‘भाग मिल्खा भाग’ या ‘चक दे इंडिया’ जैसी फिल्मों में और अखबारों की खबरों में अक्सर ये बताया जाता है कि मेधावी खिलाड़ियों को ऊपर तक पहुंचने में कितना कठिन संघर्ष करना पड़ता है। जो हिम्मत नहीं हारते, वो मंजिल तक पहुंच जाते हैं। सवा सौ करोड़ के मुल्क भारत में अगर ओलंपिक पदकों का अनुपात देखा जाए, तो हमारे खेल मंत्रालय और उसके अधिकारियों के लिए चुल्लूभर पानी में डूब मरने की बात है।

    समय आ गया है कि जब सरकार को अपनी खेल नीति बदलनी चाहिए। जो भी सफल और मेधावी खिलाड़ी हैं, उन्हें अनुदान देकर प्रशिक्षण में लगाना चाहिए और उनके शार्गिदों के लिए सारी व्यवस्था उनके ही माध्यम से की जानी चाहिए। खेल में रूचि न रखने वाले नकारा और भ्रष्ट अधिकारियों की मार्फत नहीं। क्योंकि कोच अपने शार्गिदों को बुलंदियों तक ले जाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। जैसे गोपीचंद ने अपना घर तक गिरवी रख दिया, लेकिन कोई सरकारी अधिकारी किसी खिलाड़ी को बढ़ाने के लिए अपने आराम में और मौज-मस्ती में कोई कमी नहीं आने देगा। चाहे खिलाड़ी कुपोषित ही रह जाए। कोच अपने शार्गिदों का हर तरह से ख्याल रखेगा, इसलिए खेलों का निजीकरण होना बहुत जरूरी है। हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि खेल प्राधिकरणों और विभिन्न खेलों के बोर्ड जिन राजनेताओं से पटे हुए हैं, उन राजनेताओं को उस खेल की तनिक परवाह नहीं। उनके लिए तो खेल भी मौज-मस्ती और पैसा बनाने का माध्यम है। इसलिए सरकारी स्तर पर जो खेलों के आधारभूत ढांचें विकसित किए गए हैं, उन्हें योग्य और सक्षम खिलाड़ियों के प्रबंध में सौंप देना चाहिए। जिससे खेल की गुणवत्ता भी बनी रहे और साधनों का सदुपयोग भी हो। तब फिर एक पुलैला गोपीचंद नहीं या एक पीवी सिंधु नहीं, बल्कि दर्जनों कोच और दर्जनों ओलंपिक विजेता सामने आएंगे। वरना यही होगा कि भारत की बेटियां आंसू न पोंछती, तो हमारा पूरा ओलंपिक दल मुंह लटकाए लुटा-पिटा रियो से लौटकर आ जाता।

Monday, August 15, 2016

कश्मीर की घाटी में तूफान: मीडिया की विफलता

कश्मीर की घाटी में जो बवाल हो रहा है, उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार केंद्र सरकार की नाकारा मीडिया पाॅलिसी है। आज हालत ये है कि कश्मीर की घाटी में उपद्रव का संचालन पूरे तरीके से पाकिस्तान की आईएसआई के हाथ में है। जो सीमापार से गत 20 वर्षों में कश्मीरी युवाओं की ब्रेन वाॅशिंग करने में सफल रही है। आज यहां 10 साल के बच्चे के सिर पर जाली वाली टाॅपी और हाथ में पत्थर है। निशाने पर भारत की फौज। वही फौज, जिसने श्रीनगर की बाढ़ में सबसे ज्यादा राहत पहुंचाने का काम किया। तब न तो आईएसआई काम आयी और न ही पाकिस्तान की फौज। आज कश्मीर में भारत विरोधी माहौल बनाने का काम वहां का बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता कर रहे हैं। इन सबका एक ही नारा है - आज़ादी।

कोई इनसे यह नहीं पूछता कि किससे आज़ादी और कैसी आज़ादी ? जबकि हकीकत यह है कि कश्मीर के लोगों को भारतवासियों और पाकिस्तानियों से भी ज़्यादा आज़ादी मिली हुई है। भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है। जबकि कश्मीर का कोई भी व्यक्ति हिंदुस्तान के किसी भी कोने में संपत्ति खरीद सकता है। नौकरी और व्यापार कर सकता है। यही कारण है कि चाहें गोवा के समुद्री तट हों या हिंदू और ईसाइयों के समुद्र तट पर बसे दर्जनों पारंपरिक नगर हों, हर ओर आपको कश्मीरी नौजवानों के एम्पोरियम नज़र आएंगे। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे भारत में कश्मीरी खूब आर्थिक तरक्की कर रहे हैं। इज़्ज़त से जी रहे हैं। सरकारी नौकरियों एवं उच्च पदों पर तैनाती पा रहे हैं। इसके बावजूद खुलेआम भारत को गाली देते हैं।

जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान में तबाही मची है। आपस में मारकाट हो रही है। सरकार विफल है। आर्थिक प्रगति का नाम नहीं है। पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर वहां के अनेक बुद्धिजीवी यह कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर की बात करता है। जबकि वह खुद पूर्वी बंगाल को संभाल कर नहीं रख पाया। उसकी जगह बांग्लादेश बन गया। आज बलूचिस्तान बगावत का झंडा ऊंचा किए है और पाकिस्तान से आजादी चाहता है। हिंदुस्तान से गए हर मुसलमान को आज भी पाकिस्तान में मुजाहिर कह कर हिकारत से देखा जाता है। दुनिया का ऐसा कौन-सा मुल्क होगा, जो आपको तमाम रियायतें और सस्ती रसद दे और फिर भी आपसे गाली खाए।

पर ये बात कश्मीरियों को बताने वाला कोई नहीं। वहां का मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर असंतोष की खबरें देता है। देश के टीवी चैनल भी कश्मीर की सड़कों पर बंद दुकानें और पसरा सन्नाटा दिखाते हैं। वहां खड़ी फौज के ट्रक और जवान दिखाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि ये बंद का नाटक दोपहर तक ही चलता है। शाम होते ही घाटी के सारे लोग मस्ती करने डल झील, पार्कों और सैरगाहों पर निकल जाते हैं। खूब मौज-मस्ती करते हैं। सारे बाजार शाम को खुल जाते हैं। पर इसकी खबर कोई टीवी चैनल या अखबार नहीं दिखाता। न कोई ऐसी खबरें छापता और दिखाता है, जिससे कश्मीरियों को पाक अधिकृत कश्मीर या पाकिस्तान में हो रही बर्बादी की जानकारी मिले।

भारत सरकार ने फौज के स्तर पर तो कश्मीर में मोर्चा संभाला हुआ है, लेकिन मनोवैज्ञानिक युद्ध में सरकार बुरी तरह विफल हो रही है। भारत सरकार से अगर पूछो कि कश्मीर में आपकी प्रचार नीति क्या है, तो बोलेगी कि हमने दूरदर्शन को 500 करोड़ रूपए का स्पेशल कश्मीर पैकेज दे दिया है। ये कोई नहीं पूछता कि उस दूरदर्शन को देखता कौन है ?

मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीतने के तमाम दूसरे तरीके हो सकते थे, जिन पर दिल्ली में कोई बात नहीं होती। सबसे तकलीफ की बात यह है कि कंेद्र सरकार का कोई भी कार्यालय कश्मीर में सक्रिय नहीं है। वेतन और भत्ते सब ले रहे हैं, पर अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे रहे। इससे उन लोगों को भारी क्षोभ है, जो इन विपरीत परिस्थितियों में वहां तैनात हैं और अपना मनोबल बनाए हुए हैं।

    आए दिन सत्तारूढ़ दल भाजपा और अन्य दलों के माध्यम से तमाम मुल्ला, मुसलमान नौजवान, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रेस विज्ञप्तियां जारी करते हैं और अपने फोटो छपवाते हैं, जिनमें भारत के साथ एकजुटता दिखाई जाती है। ये लोग पाकिस्तान की बदहाली का जिक्र करना भी नहीं भूलते। यहां तक कि आग उगलने वाला मुस्लिम नेता और सांसद डा.असुद्दीन औवेसी तक पाकिस्तान में जाकर खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के मामले में दखलंदाजी करना बंद कर दे और अपने मुल्क के हालात संभाले। क्यों नहीं ऐसे सारे मुसलमानों को भारत सरकार बड़ी तादाद में कश्मीर की घाटी में भेजती है ? जिससे ये वहां जाकर आवाम को अपनी खुशहाली और पाकिस्तान के मुसलमानों की बदहाली पर खुलकर जानकारी दें। जिससे कश्मीरियों को यकीन आए कि ये प्रचार भारत सरकार या हिंदू नेता नहीं कर रहे, बल्कि खुद उनके ही धर्मावलंबी उन्हें हकीकत बताने आए हैं।

    हाल ही के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बढ़िया काम किया है। उन्होंने जोरदार बयान दिया है कि कश्मीर की घाटी की बात नहीं, भारत तो अब आजाद पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की बात करेगा। आज तक किसी प्रधानमंत्री ने इस बात को इतनी जोरदारी से नहीं उठाया था। जबकि कानूनी स्थिति यह है कि कश्मीर का क्या हो, वो तो भविष्य की बात है। पर कश्मीर के एक बड़े भाग पर पाकिस्तान नाजायज कब्जा किए बैठा है। वहां का आवाम रात-दिन पाकिस्तान से आजादी के नारे लगा रहा है। ऐसे में भारत को हर मंच पर एक ही मांग उठानी चाहिए कि पाकिस्तान को कश्मीर से बाहर खदेड़ा जाए। चुनौती मुश्किल है। पिछली सरकारों ने कश्मीर की नीति में देश को लुटवाया ज्यादा है, पर अब भी देर नहीं हुई। सही समझ और कड़े इरादे से इस समस्या से निपटा जा सकता है।

Monday, August 1, 2016

वेतन आयोग या विनाश आयोग

    मोदी सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर सरकारी कर्मचारियों को बड़ी सौगात सौंप दी। ये बात दूसरी है कि सरकारी कर्मचारियों का एक ना एक वर्ग हमेशा ऐसा होता है, जिसे कितना भी मिल जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता। पर असलियत यह है कि वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करके जहां एक तरफ सरकार अपने कर्मचारियों को खुश करती है, वहीं इसके कारण समाज में भारी हताशा और निराशा फैलती है। जिसका सीधा असर लोगों की कार्यक्षमता पर पड़ता है। 

    यह सर्वविदित है कि सरकारी कर्मचारियों में कुछ अपवादों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। चाहें भारत का कोई भी हिस्सा क्यों न हो, इनके भ्रष्टाचार से आपको पूरा समाज त्रस्त मिलेगा। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों की कार्यकुशलता, निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता, कार्य के प्रति समर्पण, आचरण में ईमानदारी को लेकर तमाम सवाल खड़े हैं। यह स्थापित सत्य है कि निजी क्षेत्र के कर्मचारी, चाहे वे चपरासी हों या कंपनी के प्रबंध निदेशक, सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं, लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा की भावना से जूझते हैं। उन्हें अवकाश भी सीमित मिलता है और वे सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों से ज्यादा घंटे कार्य करते हैं। सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले बहुत कम छुट्टी लेते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव तनाव में रहते हैं। उन्हें प्रायः मेडीकल, हाउसिंग, एलटीसी, यातायात और पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती। 

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि वे अपने जीवन की तुलना सरकारी कर्मचारियों से करते हैं। उन्हें इस बात पर भारी नाराजगी होती है कि निठ्ल्ले और भ्रष्ट लोग तो बिना कुछ किए सभी ऐशो-आराम और नौकरी में तरक्कियां लेने का मजा लूटते हैं। जबकि इतना काम करके भी इन्हें कभी भी नौकरी से निकाले जाने का डर बना रहता है। 

    इसलिए जब वेतन आयोग के कहने पर सरकार अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें एवं भत्ते बढ़ाती है, तो उससे समाज में भारी असंतुलन पैदा हो जाता है। जब अच्छे काम करने वाले को कोई तरक्की न मिले और निकम्मे व भ्रष्ट अधिकारियों को तरक्की और छुट्टी दोनों मिले, तो स्वाभाविक है कि सामान्य जन के मन में क्षोभ उत्पन्न होगा। इससे उनकी कार्यक्षमता घटेगी। उदाहरण के तौर पर दिल्ली जैसे शहर में एक सरकारी कार ड्राइवर को आराम से 30-35 हजार रूपए महीने तनख्वाह मिलती है। जबकि निजी क्षेत्र के ड्राइवरों को मात्र 10-15 हजार रूपए महीने। जबकि उन्हें 24 घंटे ड्यूटी पर रहता होता है। ऐसे माहौल में यह स्वाभाविक है कि देशभर के नौजवानों की रूचि सरकारी नौकरी पाने की तरफ ज्यादा होती है व मुकाबले निजी क्षेत्र में जाने की। नतीजतन सरकारी नौकरी का बाजार महंगा होता जाता है। एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति में भी 10-10 लाख रूपए तक की रिश्वत चलती है। गरीब कहां से लाए इतना पैसा ? 

    मोदीजी से हमेशा क्रांतिवारी और ठोस निर्णय लेने की अपेक्षा की जाती रही है। ये जो सवाल हमने यहां उठाया है, उसे हम मोदीजी से पूछना चाहते हैं कि एक-सा काम करने वालों की आमदनी में इतना भारी अंतर क्यों रखा जाए ? या तो वेतन आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंका जाए, ताकि कुछ क्रांतिवारी नीतियां लागू की जा सकें। जिससे निजी क्षेत्र के कर्मठ हिंदुस्तानियों को उत्साह मिले और दोनों वर्गों के बीच आय का अंतर इतना ज्यादा न हो। ये कठिन निर्णय होंगे। पर आज नही ंतो कल मोदीजी को ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। 

    समय आ गया है कि मोदीजी निजी क्षेत्र के योगदान को देखें, परखें और ऐसी नीतियां बनाएं, जिससे उद्यमियों को प्रोत्साहन मिले। सरकारी वजीफों या अनुदान जैसी सहायता के लिए वे सरकार का मुंह न देखें। अपने संसाधन, योग्यता और अनुभव के आधार पर तेजी से आगे बढ़ें और देश को बढ़ाएं। 

    आज से 15 वर्ष पहले जब अमेरिका में मंदी छायी हुई थी, तो वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने देश के युवाओं से एक जोरदार अपील की थी। उसका मूल मंत्र ये था कि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी के भरोसे न बैठा रहे और अपने-अपने उद्यम खड़े कर आत्मनिर्भर बने। क्लिंटन ने अपने युवाओं का आह्वान किया था कि आप छोटा सा भी काम अपने घर से शुरू करें, तो आपको सफलता मिलेगी और आपकी आर्थिक जरूरतें पूरी होंगी। क्योंकि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती। इस अपील का असर हुआ और अमेरिका में आर्थिकवृद्धि की लहर फिर से शुरू हो गई। ऐसा ही कुछ भारत के विकास का भी माॅडल होना चाहिए। जिससे योग्य और क्षमतावान लोग अपनी ऊर्जा का पूरा सदुपयोग कर सकें, तभी देश महान बनेगा।

Monday, July 25, 2016

दुनिया का सुखी देश कैसे बने

    पिछले हफ्ते मैं भूटान में था। चीन और भारत से घिरा ये हिमालय का राजतंत्र दुनिया का सबसे सुखी देश है। जैसे दुनिया के बाकी देश अपनी प्रगति का प्रमाण सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को मानते हैं, वैसे ही भूटान की सरकार अपने देश में खुशहाली के स्तर को विकास का पैमाना मानती है। सुना ही था कि भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश है। पर जाकर देखने में यह सिद्ध हो गया कि वाकई भूटान की जनता बहुत सुखी और संतुष्ट है। पूरे भूटान में कानून और व्यवस्था की समस्या नगण्य है। न कोई अपराध करता है, न कोई केस दर्ज होता है और न ही कोई मुकद्मे चलते हैं। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वकील और जज अधिकतम समय खाली बैठे रहते हैं। 

ऐसा नहीं है कि भूटान का हर नागरिक बहुत संपन्न हो। पर बुनियादी सुविधाएं सबको उपलब्ध हैं। यहां आपको एक भी भिखारी नहीं मिलेगा। अधिकतम लोग कृषि व्यवसाय जुड़े हैं और जो थोड़े बहुत सर्विस सैक्टर में है, वे भी अपनी आमदनी और जीवनस्तर से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

    लोगों की कोई महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। वे अपने राजा से बेहद प्यार करते हैं। राजा भी कमाल का है। 33 वर्ष की अल्पायु में उसे हर वक्त अपनी जनता की चिंता रहती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर, जहां कार जाने का कोई रास्ता न हो, उन पहाड़ों पर चढ़कर युवा राजा दूर-दूर के गांवों में जनता का हाल जानने निकलता है। लोगों को रियायती दर या बिना ब्याज के आर्थिक मदद करवाता है। 

    भूटान में कोई औद्योगिक उत्पादन नहीं होता। हर चीज भारत, चीन या थाईलैंड से वहां जाती है। वहां की सरकार प्रदूषण को लेकर बहुत गंभीर है। इसलिए कड़े कानून बनाए गए हैं। नतीजतन वहां का पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। लोगों का खानापीना भी बहुत सादा है। दिन में तीन बार चावल और उसके साथ पनीर और मक्खन में छुकीं हुई बड़ी-बड़ी हरी मिर्च, ये वहां का मुख्य खाना है। पूरा देश बुद्ध भगवान का अनुयायी है। हर ओर एक से एक सुंदर बौद्ध विहार में हैं। जिनमें हजारों साल की परंपराएं और कलाकृतियां संरक्षित हैं। किसी दूसरे धर्म को यहां प्रचार करने की छूट नहीं है, इसलिए न तो यहां मंदिर हैं, न मस्जिद, न चर्च। 

विदेशी नागरिकों को 3 वर्ष से ज्यादा भूटान में रहकर काम करने का परमिट नहीं मिलता। इतना ही नहीं, पर्यटन के लिए आने वाले विदेशियों को इस बात का प्रमाण देना होता है कि वे प्रतिदिन लगभग 17.5 हजार रूपया खर्च करेंगे, तब उन्हें वीजा मिलता है। इसलिए बहुत विदेशी नहीं आते। दक्षिण एशिया के देशों पर खर्चे का ये नियम लागू नहीं होता, इसलिए भारत, बांग्लादेश आदि के पर्यटक यहां सबसे ज्यादा मात्रा में आते हैं। भूटान की जनता इस बात से चिंतित है कि आने वाले पर्यटकों को भूटान के परिवेश की चिंता नहीं होती। जहां भूटान एक साफ-सुथरा देश है, वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक जहां मन होता है कूड़ा फेंककर चले जाते हैं। इससे जगह-जगह प्राकृतिक सुंदरता खतरे में पड़ जाती है। 

    एक और बड़ी रोचक बात यह है कि मकान बनाने के लिए किसी को खुली छूट नहीं है। हर मकान का नक्शा सरकार से पास कराना होता है। सरकार का नियम है कि हर मकान का बाहरी स्वरूप भूटान की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप हो, यानि खिड़कियां दरवाजे और छज्जे, सब पर बुद्ध धर्म के चित्र अंकित होने चाहिए। इस तरह हर मकान अपने आपमें एक कलाकृति जैसा दिखाई देता है। जब हम अपने अनुभवों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि नक्शे पास करने की बाध्यता विकास प्राधिकरणों ने भारत में भी कर रखी है। पर रिश्वत खिलाकर हर तरह का नक्शा पास करवाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत के पारंपरिक शहरों में भी बेढंगे और मनमाने निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। जिससे इन शहरों का कलात्मक स्वरूप तेजी से नष्ट होता जा रहा है। 

    भूटान की 7 दिन की यात्रा से यह बात स्पष्ट हुई कि अगर राजा ईमानदार हो, दूरदर्शी हो, कलाप्रेमी हो, धर्मभीरू हो और समाज के प्रति संवेदनशील हो, तो प्रजा निश्चित रूप से सुखी होती है। पुरानी कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। यह भी समझ में आया कि अगर कानून का पालन अक्षरशः किया जाए, तो समाज में बहुत तरह की समस्याएं पैदा नहीं होती। जबकि अपने देश में राजा के रूप में जो विधायक, सांसद या मंत्री हैं, उनमें से अधिकतर का चरित्र और आचरण कैसा है, यह बताने की जरूरत नहीं। जहां अपराधी और लुटेरे राजा बन जाते हों, वहां की प्रजा दुखी क्यों न होगी ? 

एक बात यह भी समझ में आयी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े मकान और आधुनिकता के तमाम साजो-सामान जोड़कर खुशी नहीं हासिल की जा सकती। जो खुशी एक किसान को अपना खेत जोतकर या अपने पशुओं की सेवा करके सहजता से प्राप्त होती है, उसका अंशभर भी उन लोगों को नहीं मिलता, जो अरबों-खरबों का व्यापार करते हैं और कृत्रिम जीवन जीते हैं। कुल मिलाकर माना जाए, तो सादा जीवन उच्च विचार और धर्म आधारित जीवन ही भूटान की पहचान है। जबकि यह सिद्धांत भारत के वैदिक ऋषियों ने प्रतिपादित किए थे, पर हम उन्हें भूल गए हैं। आज विकास की अंधी दौड़ में अपनी जल, जंगल, जमीन, हवा, पानी और खाद्यान्न सबको जहरीला बनाते जा रहे हैं। भूटान से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, July 18, 2016

कश्मीर नीति बदलनी होगी

कश्मीर के हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं, उससे ये नहीं लगता कि केन्द्र सरकार की कश्मीर नीति अपने ठीक रास्ते पर है। इसमें शक नहीं है कि कश्मीर की आम जनता तरक्की और रोजगार चाहती है और अमन चैन से जीना चाहती है। पर आतंकवादियों, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और अलगाववाद का समर्थन करने वाले घाटी के नेता हर वक्त माहौल बिगाड़ने में जुटे रहते है। यही लोग है जो आतंकवादियों के मारे जाने पर उन्हें शहादत का दर्जा दे देते हैं और फिर अवाम को भड़काकर सड़कों पर उतार देते है। घाटी का अमन चैन और कारोबार सब गड्ढे में चले जाते है। आवाम की जिन्दगी मंे मुश्किलें बढ़ जाती है। पर इन सबका ऐसे हालातों में कारोबार खूब जोर से चलता है। इन्हें विदेशों से हर तरह की आर्थिक मदद मिलती है। इनकी जेबें गहरी होती जाती है और इसलिए यह कभी नहीं चाहते है कि कश्मीर की घाटी में अमन चैन कायम हो। और आवाम तरक्की रहे। 

मुश्किल यह है कि इन मुट्ठी भर लोगों ने ऐसा हऊआ खड़ा कर रखा है कि आम जनता इन्हें रोक नहीं पाती। सब डरते है कि अगर हमने मुंह खोला तो अगला निशाना हम पर ही होगा। इसलिए सब चुपचाप इनकी हैवानियत और जुल्मों को बर्दाश्त करते रहते है। जरूरत इस बात की है कि केन्द्र सरकार कश्मीर के मामले में अब ढिलाई छोड़ दें और अपनी नीति में बदलाव करें। सीधे और कड़े कदम उठायें। मसलन घाटी के आवाम को 3 हिस्सों में बांट दिया जाय। जो आतंकवादी हैं उनको उनकी ही भाषा में जवाब दिया जाय। घाटी के जो नेता  आतंकवाद और अलगाववाद का समर्थन करते हैं जैसे हुर्रियत के नेता उनके साथ कोई हमदर्दी न दिखाई जायें। क्योंकि भारत सरकार इनका इलाज करवाती है, इन्हें इज्जत देती हैं और ये दिल्ली आकर दिल्ली आकर पाकिस्तान के राजदूत से मिलते है और आई.एस.आई. से मोटी रकम हासिल करके हिन्दुस्तान के खिलाफ जहर उगलते है, घाटी में जाकर आग लगाते है। सरकार क्यों ऐसे नेताओं की मिजाजकुर्सी करती है। क्यूं इन्हें सरकारी दामाद की तरह रखा जाता है ? ऐसे लोगों से केन्द्रीय सरकार को वही बर्ताव करना पड़ेगा जो किसी जमाने में पं. जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ किया था। इन्हें पकड़कर नजरबंद कर देना चाहिए और इनकी बात आवाम तक किसी सूरत में नहीं पहुंचनी चाहिए। तीसरी श्रेणी आम जनता यानि आवाम की है। जिसके लिए रोजी-रोटी कमाना भी मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के साथ सरकार को मुरव्वत करनी चाहिए। उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए। अगर ऐसे लोग किसी देश विरोधी आंदोलन में उतरते हैं, तो उसके पीछे आर्थिक कारण ज्यादा होता है वैचारिक कम। उन्हें पैसा देकर आतंकवाद बढ़ाने के लिए उकसाया जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा ले और आई.एस.आई. का पैसा आम जनता तक न पहुंचने पाये तो काफी हद तक कश्मीर के हालात सुधर सकते है। 

अब तक केन्द्र सरकार की नीति कश्मीर घाटी को लेकर काफी ढुलमुल रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वे आकर पुरानी नीति बदलेंगे और सख्त नीति अपनाकर कश्मीर के हालात सुधार देंगे। पर मोदी सरकार की कश्मीर नीति कांग्रेस सरकार की नीति से कुछ ज्यादा फर्क नहीं रही है। इसीलिए अब मोदी को अपनी कश्मीर नीति में बदलाव लाने की जरूरत है। 

अगर नरेन्द्र मोदी यह नहीं कर पायें तो यह उनकी बहुत बड़ी विफलता होगी। क्योंकि चुनाव से पहले कश्मीर नीति को लेकर उनके जो तेवर थे उनसे जनता को लगता था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद वे मजबूत और क्रान्तिकारी कदम उठायेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ है। इससे कश्मीर में शान्ति की उम्मीद रखने वालों को भारी निराशा हो रही है। उधर पाकिस्तान भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही नवाज शरीफ जो मोदी से भाई-भाई का रिश्ता बढ़ाने उनके शपथ-ग्रहण समारोह में आये थे। वे आज मोदी को गोधरा कांड के लिए फिर से दोष दे रहे है। मतलब हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसे में बिना लाग-लपेट के, पुरानी नीति को त्यागकर, कश्मीर के प्रति सही और सख्त नीति अपनानी चाहिए। इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बताने से चूंकना नहीं चाहिए कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद फैला रहा है। जिससे उसे अलग-थलग किया जा सकें। अमरीका और यूरोप को भी यह बताना होगा कि अगर तुम वाकई आतंकवाद से त्रस्त हो और इससे निजात पाना चाहते हो, तो तुम्हें पाकिस्तान का साथ छोड़कर भारत का साथ देना चाहिए। जिससे सब मिलकर आतंकवाद का सफाया कर सकें।

Monday, July 11, 2016

कौन विफल कर रहा है स्वच्छ भारत अभियान को?

पुरानी कहावत है कि जब खीर खा लो तो चावल अच्छे नहीं लगते| यूँ तो हमें अपने चारों तरफ गन्दगी का साम्राज्य देखने की आदत पड़ गयी है| इसलिए हमारा ध्यान भी उधर नहीं जाता | पर हर बार यूरोप या अमरीका से लौट कर जब कोई भारत आता है तो उसे सबसे पहले भारत के शहरों में गन्दगी देख कर झटका लगता है | पिछले हफ्ते अमरीका से लौटते ही मुझे काम से मुरादाबाद, लखनऊ और वाराणसी जाना पड़ा | तीनों शहरों में गन्दगी के अम्बार लगे पड़े हैं | जबकि पीतल की क्लाकृतियों के निर्यात के कारण मुरादाबाद एक धनीमानी शहर है | लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और वाराणसी प्रधान मंत्री का संसदीय क्षेत्र | पर तीनों ही शहरों में, सरकारी इलाकों को छोड़ कर बाकी सारे ही शहर एक ही बारिश में नारकीय स्थिति को पहुँच गये हैं | प्रधान मंत्री के स्वच्छता अभियान के पोस्टर तो आपको हर सरकारी इमारत में लगे मिल जायेंगे पर इस अभियान को सफल बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है | न तो सरकारी मुलाज़िमों का और न ही हम और आप जैसे आम नागरिकों का|

हमारी दशा तो उस मछुआरिन जैसी हो गई है जो एक रात बाज़ार से घर लौटते समय तेज़ बारिश के कारण रास्ते में अपनी मालिन सहेली के घर रुक गई | पर फूलों की खुशबु के कारण उसे रात को नींद नहीं आ रही थी, सो उसने अपना मछली का टोकरा अपने मुह पर ओढ़ लिया | टोकरे की बदबू सूंघ कर उसे गहरी नींद आ गयी | हमें घर से निकलते ही कूड़े के अम्बार दिखाई देते हैं पर हम उसको अनदेखा कर के चले जाते हैं | जबकि अगर हम सब इस बात की चिंता करने लगें कि अपने घर के आसपास कूड़ा जमा नहीं होने देंगे | कूड़े को व्यकितगत या सामूहिक प्रयास से उसे उठवाने की कोशिश करेंगे, तो कोई वजह नहीं है कि धीरे-धीरे न सिर्फ हमारे पड़ोसी बल्कि नगर पालिका के कर्मचारी भी अपनी ड्यूटी ज़िम्मेदारी से करने लगेंगे | 

हममें से कितने लोग हैं जो कार, बस या रेल में सफर करते समय अपने खानपान का कूड़ा डालने के लिए अपने साथ एक कूड़े का थैला लेकर चलते हैं ? जबकि नागरिक चेतना वाले समाजों में यह आम रिवाज़ है कि लोग अपना कूड़ा अपने थैले में भरते हैं और गंतव्य आने पर उसे कूड़ेदान में डाल देते हैं| हमें तो यात्रा के समय अपने इर्द गिर्द हर किस्म का कूड़ा फ़ैलाने में कोई संकोच नहीं होता | ज़रा सोचिये जब आप ट्रेन या हवाई जहाज के टायलेट में जाएं और वो गन्दा पड़ा हो तो आपको कितनी तकलीफ होती है ? फिर भी हम लोग यह नहीं करते कि जिस कमरे में रहे या जिस वाहन में यात्रा करें उसे साफ़ छोड़ें | 

1982 की एक घटना याद आती है | अपनी शादी के बाद हम तमिलनाडु में ऊटी नाम के हिल स्टेशन पर गए | होटल के कमरे से जब निकलने लगे तो मेरी पत्नी मीता ने कमरे की सफाई शुरू कर दी | मुझे अचम्भा हुआ कि हम तो अब जा रहे हैं | ये काम तो होटल के स्टाफ का है, तुम क्यों कर रही हो ? उन्होंने अंग्रेजी में जवाब दिया, “लीव द रूम ऐज़ यू वुड लाईक टू हैव इट” यानी कमरे को ऐसा छोड़ो जैसा कि आप उसे पाना चाहते हो | तब से आज तक मेरी ये आदत है कि होटल का कमरा हो, सरकारी अतिथिग्रह का हो या किसी मेज़बान का, मैं उसे यथासंभव पूरी तरह साफ़ करके ही निकलता हूँ | 

स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में बहुत सारे लोगों, मशहूर हस्तियों, सरकारी अधिकारीयों, मंत्रियों और नेताओं ने झाड़ू उठा कर सफाई करने की रस्म अदायगी की थी | झाड़ू ले कर फोटो छपवाने की होड़ सी लग गयी थी | यह देख कर बड़ा अच्छा लगा था कि मोदी जी ने महात्मा गाँधी के बाद पहली बार सफाई जैसे काम को इतना सम्मान जनक बना दिया कि झाड़ू उठाना भी प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया| पर चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात | इन महानुभावों की छोड़ हर रैली में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले प्रधान मंत्री की भाजपा के कार्यकर्ता तक आपको कहीं भी स्वच्छ भारत अभियान चलते नहीं दिख रहे हैं | 

आपको याद होगा कि लाल बहादुर शास्त्री जी ने अन्न संकट के दौरान हर सोमवार की शाम न सिर्फ भोजन करना छोड़ा बल्कि प्रधान मंत्री निवास में हल बैल लेकर खेती करना भी शुरू कर दिया था| मुझे लगता है कि इस देश में हम सब को लगातार धक्के की आदत पड़ गई है| इसलिए प्रधान मंत्री को हफ्ते में एक निर्धारित दिन राजधानी के सबसे गंदे इलाके में, बिना किसी पूर्व घोषणा के, अचानक जाकर झाड़ू लगानी चाहिए | इसके दो लाभ होंगे, एक तो पूरे देश में हर हफ्ते एक सकारात्मक खबर बनेगी, जिसका काफी असर आम जनता पर पड़ेगा | दूसरा झाड़ू पार्टी के नौटंकीबाज़ मुख्य मंत्री केजरीवाल की उर्जा फ़ालतू ब्यानबाजी से हटकर सकारात्मक कार्यों में लगेगी | क्योंकि शायद मुकाबले में वो सातों दिन झाड़ू लेकर निकल पड़ें| अगर उस निर्धारित दिन मोदी जी भारत के किसी अन्य नगर में हों तो वे वहां भी अपना नियम जारी रखें | जिससे हर जगह हड़कंप रहेगा | 

जिन लोगों ने स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में मोदी जी की यह कह कर आलोचना की थी कि प्रधान मंत्री के पास इतने बड़े काम हैं, ये झाड़ू लगाने की फुर्सत कहाँ से मिल गयी | उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि सफाई कि वृत्ति केवल अपने चारों ओर के कूड़ा उठाने तक सीमित नहीं रहेगी | इससे हमारे दिमागों और विचारों की भी सफाई होगी | जिसकी आज हमें बहुत ज़रुरत है |