Monday, December 14, 2015

गोडसे ने नहीं की महात्मा गांधी की हत्या

 दुनिया यही मानती है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। पर भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि आत्मा अजर अमर है। इसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस दृष्टि से महात्मा गांधी की आत्मा भी अजर अमर है। असली हत्या तो उनके विचारों की की गई और ये काम आजादी मिलते ही शुरू हो गया।
 
 जिस अखबार में आप यह लेख पढ़ रहे हैं, वो अखबार आपकी मात्र भाषा का है। अगर ये अंग्रेजी में होता तो क्या आप इसे पढ़ते ? भारत के कितने लोग अंग्रेजी लिख-पढ़ सकते हैं। पर विड़बना देखिए कि हमारी शिक्षा से लेकर न्याय पालिका तक, प्रशासन से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है। जबकि इस भाषा को समझने वाले देश में 2 फीसदी लोग भी नहीं हैं और यही 2 फीसदी लोग भारत के संसाधनों पर सबसे ज्यादा कब्जा जमाकर बैठे हैं, सबसे ज्यादा मौज भी इन्हीं को मिल रही है। शेष भारतवासियों का हक छीनकर ये पनप रहे हैं। पर आम भारतवासियों की आवाज इनके कानों तक नहीं पहुंचती। उनका दर्द इनके सीने में नहीं उठता। इन्हंे तो हर वक्त अपनी और अपने कुनबे की तरक्की की चिंता रहती है और हर तिगड़म लगाकर ये विकास का सारा फल हजम कर जाते हैं। इसका एक मात्र कारण यह है कि हमने गांधीजी के विचारों की हत्या कर दी। वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी एक दिन भी हिंदुस्तानियों पर हावी हो, क्योंकि वे इसे गुलाम बनाने की भाषा मानते थे।
 
 इस लेख में आगे कुछ और बताने से ज्यादा जरूरी होगा कि हम जानें कि मातृभाषा के लिए और अंग्रेजी के विरूद्ध गांधीजी के क्या विचार थे और फिर देखें कि क्या आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है ? अगर हां तो फिर उस गलती को दूर करने की तरफ सोचना होगा।
 
अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ गांधीजी ने कहा, ‘‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। ....अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बड़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’’ वे आगे कहते हैं कि “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता।”
 
भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है ‘‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे विचार प्रकट किये जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अंग्रेजी के जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’’
 
एक अवसर पर गांधीजी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा है ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियां भी होती है। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधरण को नहीं पहचानते, जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
 
उन्होंने यह भी कहा कि, “मुझे लगता है कि जब हमारी संसद बनेगी तब हमें फौजदारी कानून में एक धारा जुड़वाने का आन्दोलन करना पड़ेगा। यदि दो व्यक्ति भारत की एक भाषा जानते हों और इस पर भी उनमें से कोई दूसरे को अंग्रेजी में पत्र लिखे या एक-दुसरे से अंग्रेजी में बोले तो उसे कम से कम छः महीने की सख्त सजा दी जायेगी।’’
 
साफ जाहिर है कि गांधीजी को भारत की असलियत की गहरी समझ थी। वे जानते थे कि अगर भारत में आर्थिक विकास और शिक्षा का काम गांवों की बहुसंख्यक आबादी को केंद्र में रखकर किया जाए, तभी भारत का सही विकास हो पाएगा। अन्यथा चंद लोग तो मजे करेंगे और बहुसंख्यक आबादी बर्बाद होगी। यही आज हो रहा है। असहिष्णुता हिंदू और मुसलमान के बीच में नहीं, बल्कि 2 फीसदी अंग्रेजीदां वर्ग और 98 फीसदी आम हिंदुस्तानी के बीच है। जिसे दूर करने के लिए अपनी भाषा नीति को बदलना होगा। क्या संसद इस पर विचार करेगी ?

Monday, December 7, 2015

भयावह होता जल संकट

चेन्नई अतिवृष्टि से जूझ रहा है और हरियाणा के एक बड़े क्षेत्र में भूजल स्तर दो हजार फीट से भी नीचे चला गया है। भारत का अन्नदाता कहे जाने वाला पंजाब भी जल संकट से अछूता नहीं रहा। यहां भी भूजल स्तर 6-700 फीट नीचे जा चुका है। यह तो हम जानते ही है कि देश में 80 फीसदी बीमारियां पेयजल के प्रदूषित होने के कारण हो रही हैं। फिर भी हमारे नीति निर्धारकों को अक्ल नहीं आ रही।
 
अरबों-खरबों रूपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। उसके बावजूद हालत ये है कि भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है।
 
दरअसल, ये सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीकि अपनाने के कारण हुआ है। वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे। हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है। जिसमें वर्षा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानि 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए कि आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है। जिसके अनेकों नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है। इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है। लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बनकर खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ इस बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेजी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था। आज सैकड़ों-हजारों फीट नीचे पानी चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रूपए का बिकेगा। क्योंकि रोका न गया, तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेजी से गिरता चला जाएगा।
 
आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि केंद्रीयकृत टंकियों से पाइपों के जरिये भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है। पर यह दावा अपने आपमें जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जबकि वर्षा का जल जब कुंडों, कुंओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो वह सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। साथ ही इन सबके भर जाने से भूजल स्तर ऊंचा बना रहता था। जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्चकोटि के पैदा होते थे। पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पाश्विक दोहन ने यह सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दी। पोखर और कुंड सूख गए, क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए है। वृक्ष काट दिए गए। जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक व रासायनिक कचरा व सीवर लाइन का गंदा पानी बिना रोकटोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है। जिससे ये नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जलसंकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा जल से भरा है। पर इसका 97.3 फीसदी जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसदी है। जिसमें से केवल 22.5 फीसदी जमीन पर है, शेष धु्रवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसदी खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानि दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसदी मीठे जल का भी केवल एक फीसदी हमारे लिए उपलब्ध है और उसका भी संचय और प्रबंधन अक्ल से न करके हम उसका भारी दोहन, दुरूपयोग कर रहे हैं और उसे प्रदूषित कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास माॅडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
 
जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देखकर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी के संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।

Monday, November 30, 2015

क्या नीम की छांव में मिल सकती है सार्थक शिक्षा ?

 पिछले लेख में हमने देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया था। इस हृदय विदारक लेख पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं आयीं। सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाढ़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हिनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कालेज की शिक्षा के विश्वविख्यात लेखक बने।
 
 पिछले 15 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए। जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रूपया इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई। खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रूपए के वारे न्यारे कर लिए।
 
 दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी सर्टिफिकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई ? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गईं, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यवहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यवहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं। जबकि अरबों रूपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।
 
 कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षों से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पंप विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा में सुधार के नाम पर आयोगों के सदस्य बनने वाले और आधुनिक शिक्षा को समझने के लिए बहाना बना-बनाकर विदेश यात्राएं करने वाले हमारे अधिकारी और नीति निर्धारक इस बात का महत्व कभी भी समझने को तैयार नहीं होंगे, यही इस देश का दुर्भाग्य है।
 
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत।
 

Monday, November 23, 2015

महागठबंधन और राजग को युवाओं की चुनौती

 संसद सत्र शुरू होने वाला है। पक्ष और विपक्ष खम ठोकने को तैयार है। खूब शोर मचेगा, कोई काम नहीं होगा और टीवी चैनल चोंचे लड़वाएंगे। पर राष्ट्र की सबसे गंभीर समस्या पर कोई ध्यान नहीं देगा। चैंकाने वाला आंकड़ा है कि 2020 तक भारत में 21 करोड़ युवा बेरोजगार होंगे। क्या किसी दल के नेता को इस बात की चिंता है कि देश की इतनी बड़ी युवा शक्ति हताशा और संताप में जी रही है। सर्वेक्षण से यह पता चला है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपराधियों में अच्छी खासी तादाद ग्रेजुएट युवाओं की है। अभी तो दुनिया आईएसआईएस के आतंक से जूझ रही है। भारत पहले ही पंजाब, असम, नक्सलवाद जैसे अनेक हिंसक युवा आंदोलनों को झेल चुका है। भविष्य में ये 21 करोड़ नौजवान अगर हथियार उठा लें तो क्या हमारे हुक्मरान, उद्योगपति, व्यापारी और हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग चैन और सुरक्षा से जी पाएंगे ?

 मेक इन इंडिया की बात हो या महागठबंधन के नेताओं का दलित शोषित समाज को लेकर किए जाने वाला प्रलाप हो - कोई भी युवाओं की बेरोजगारी के प्रश्न का हल नहीं दे रहा है, न हल देने की तरफ सोच रहा है। हर चुनाव से पहले इन युवाओं को महीने-दो महीने का रोजगार देकर इनसे प्रचार करवा लिया जाता है और शेष 5 वर्ष इन्हें नौकरी दिलाने का वायदा करके छलावे में रखा जाता है। अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में चपरासी के पद के लिए 368 रिक्तियों के लिए 23 लाख आवेदन आए। जिनमें से अधिकतर युवा ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक, एम.टेक एवं एमबीए थे। अगर इन सब युवाओं का साक्षात्कार भी लिया जाए, तो उसमें 4 वर्ष लग जाएंगे। जबकि चपरासी के पद की वांछित योग्यता 5वीं पास व साइकिल चलाना आता हो, यही थी। इसी तरह मध्य प्रदेश में चपरासी की 1333 रिक्तियों के लिए 4 लाख से अधिक बेरोजगारों ने परीक्षा दीं। जबकि इन पदों के लिए न्यूनतम योग्यता 8वीं पास थी, तो भी इस पद के लिए 62 हजार ग्रेजुएट, 15 हजार पोस्ट ग्रेजुएट और 1400 बी.टेक ने परीक्षा दी। यही हाल अन्य प्रांतों का भी है।

 देश के 527 शहरों के 5387 स्कूलों के शिक्षकों के माध्यम से उनके विद्यार्थियों की योग्यता का सर्वेक्षण करवाया गया, तो पता चला कि गुजरात के 62 फीसदी छात्र किसी भी नौकरी के योग्य नहीं है। उत्तर प्रदेश के 49 फीसदी छात्र किसी भी नौकरी के योग्य नहीं है। जबकि हरियाणा के 33 फीसदी छात्र इस श्रेणी में पाए गए। एक और दर्दनाक तथ्य यह है कि आज आत्महत्या करने वाले लोगों में 48 फीसदी युवा वर्ग के हैं, वे भी 18 से 30 आयु वर्ग के। युवा हताशा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?

 कितने शर्म की बात है ? क्या हो गया है कि हमारे नेताओं और नीति निर्धारकों को ? लाखों किसान-मजदूरों ने अपना पेट काटकर अपने बच्चों को बड़ी उम्मीदों से ये डिग्रियां दिलवाई हैं। पर उसके बदले में उन्हें चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल रही। ये कैसा विकास हो रहा है ? एक तरफ तो हम दावा करते हैं कि भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और दूसरी तरफ हमारे बेरोजगार युवाओं की संख्या दिन दूनी और रात चैगुनी गति से बढ़ रही है। यह सब हुआ है हमारे गलत आर्थिक नीतियों के कारण। आजादी के बाद महात्मा गांधी बार-बार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ और आत्मनिर्भर बनाने की बात कहते थे। पर पं.जवाहरलाल नेहरू से लेकर आज तक हर प्रधानमंत्री ने तीव्र औद्योगिक विकास का लक्ष्य रखकर बेरोजगारों को रोजगार देने के झूठे सपने दिखाए हैं। न तो औद्योगिक विकास उस तेजी से हुआ, न उस विकास से इतने रोजगार का सृजन हुआ। अगर गांव की अर्थव्यवस्था अंग्रेजों के आने से पहले जैसी कर दी गई होती तो न तो देश में बेरोजगारी होती, न गरीबी और न गांवों से शहर को पलायन। गांधीजी की समाधि पर श्रद्धांजलि देने का नाटक करने वालों ने कभी उनके विचारों का सम्मान नहीं किया। अगर किया होता तो गांधीजी की आत्मा ज्यादा प्रसन्न होती।

 आज हर शहर की गंदी बस्तियों में नारकीय दशा में जो करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी जी रहे हैं, उन्होंने खुशी से अपना गांव नहीं छोड़ा। गांव की बदहाली ने उन्हें शहर आने पर मजबूर कर दिया। गांवों के पारंपरिक व्यवसायों को नष्ट करके, उनके बदले खड़े होने वाले बड़े उद्योगों से नए रोजगार का सृजन होता है दर्जनों में। जबकि गांवों में बेरोजगारी फैलती है हजारों में। इस तरह का औद्योगिक विकास भारत की बेरोजगारी और गरीबी को कभी दूर नहीं कर सकता, बल्कि और बढ़ाता जाएगा।

हमारे गांवों का एक-एक कुटीर उद्योग इतना सक्षम था कि आज भी करोड़ों नौजवानों को नौकरी दे सकता है। चाहे वो तेलघानी का काम हो या कपड़ा बनने का या खेती करने का या ग्रामीण जीवन से जुड़े अन्य पारंपरिक व्यवसायों का। इस तरह कड़ी नीति बनाकर अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित किया जाता तो किसान-मजदूर कर्जदार भी नहीं होते। आज तो वो हर तरह से बर्बाद हैं और उनकी बर्बादी दूर होने के कोई आसार नजर नहीं आते। चाहे सरकार किसी भी दल की क्यों न बन जाए।

 इतनी गंभीर समस्या है कि सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जरा अनुमान कीजिए कि आपके घर में पढ़ा-लिखा नौजवान बेटा सुबह से रात तक हर दिन, महीनों, सालों अगर बेरोजगार घूमता है, तो वह कितना विध्वंसक बन सकता है ? ऐसे युवा परिवार के लिए कितना  बड़ा बोझ हैं ? देश के लिए यह कितनी बड़ी शर्म की बात है ? पर हमारे हुक्मरानों को कोई चिंता नहीं। बेरोजगारी और गरीबी की बात करना तो अब मध्यमवर्गीय समाज में भी ‘आउट आॅफ फैशन’ हो गया है। ड्राइंग रूम और टीवी स्टूडियो में बड़ी-बड़ी लच्छेदार बाते करो, संसद में कुर्ते की बांहें चढ़ाकर लंबे-लंबे बयान दो, मगर करोड़ों किसान-मजदूरों और उनके नौजवान बेटे-बेटियों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दो। वाह रे मेरे हिंदुस्तान, क्या खूब तरक्की कर रहा है तू ?

Monday, November 16, 2015

बिहार के परिणामों से भाजपा में टीस भरी खुशी क्यों ?

    पूर्वोत्तर राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कि कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के हैं, ने बिहार चुनाव परिणाम पर फोन करके खुशी जाहिर की। पर फिर फौरन ही फोन आया कि यह खुशी बहुत दुखभरी है। यही विरोधाभास सारी भाजपा में दिखाई दे रहा है। यूं तो लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत सामान्य बात है। पर बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री ने जितनी रूचि ली, उसके अनुरूप परिणाम न आने पर हिंदूवादियों का खुशी मनाना सोचने पर मजबूर करता है। इसके कारण में जाने की जरूरत है। दरअसल, नरेंद्र भाई मोदी ने पिछले कुछ वर्षों में अपने दमदार वक्तव्यों में इतनी उम्मीद जगा दी थी कि हर आदमी सोच बैठा कि लोकसभा का चुनाव जीतकर मोदी के हाथ में अल्लादीन का चिराग आ गया। जबकि हकीकत इसके काफी विपरीत है। प्रधानमंत्री चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि बहुमत न होने के कारण उनके हाथ राज्यसभा में बंधे हैं। वे कोई कड़ा कानून नहीं ला सकते। दूसरी ओर संघीय ढांचा होने के कारण जनहित के जितने भी कार्यक्रम या नीतियां बनती हैं, उनका क्रियान्वयन करना प्रांतीय सरकार की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां मोदी कुछ भी नहीं कर सकते और न जबर्दस्ती करवा सकते। राज्य सरकारों की कमियों का ठीकरा प्रधानमंत्री पर फोड़ना उचित नहीं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक है। उन्होंने देशभक्तों को अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया, जिससे लगे कि भारत अपनी सनातन सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप विकसित होने जा रहा है। इसके विपरीत मोदी के वक्तव्यों से यह संदेश गया है कि वे अमेरिका के विकास माॅडल से भारी प्रभावित हैं। जिसका आम जनता के मन में कोई सम्मान नहीं है। वे इस माॅडल को शोषक और समाज में असंतुलन पैदा करने वाला मानते हैं, इसलिए उन्हें मोदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी। जो उन्हें आज देखने को नहीं मिल रहा।

    उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।

    समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।

    नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।

    जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। 

Monday, November 9, 2015

आधुनिक शिक्षा को कड़ी चुनौती


 अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय से लेकर भारत के आई.आई.टी. तक में क्या कोई ऐसी शिक्षा दी जाती है कि छात्र की आंखों पर रूई रखकर पट्टी बांध दी जाए और उसे प्रकाश की किरण भी दिखाई न दे, फिर भी वो सामने रखी हर पुस्तक को पढ़ सकता   हो ? है ना चैंकाने वाली बात ? पर इसी भारत में किसी हिमालय की कंद्रा में नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात के महानगर अहमदाबाद में यह चमत्कार आज साक्षात् हो रहा है। तीन हफ्ते पहले मुझे इस चमत्कार को देखने का सुअवसर मिला। मेरे साथ अनेक वरिष्ठ लोग और थे। हम सबको अहमदाबाद के हेमचंद्र आचार्य संस्कृत गुरूकुल में विद्यार्थियों की अद्भुत मेधाशक्तियों का प्रदर्शन देखने के लिए बुलाया गया था। निमंत्रण देने वालों के ऐसे दावे पर यकीन नहीं हो रहा था। पर, वे आश्वस्त थे कि अगर एक बार हम अहमदाबाद चले जाएं, तो हमारे सब संदेह स्वतः दूर हो जाएंगे और वही हुआ। छोटे-छोटे बच्चे इस गुरूकुल में आधुनिकता से कोसों दूर पारंपरिक गुरूकुल शिक्षा पा रहे हैं। पर उनकी मेधा शक्ति किसी भी महंगे पब्लिक स्कूल के बच्चों की मेधा शक्ति को बहुत पीछे छोड़ चुकी है।
 
 आपको याद होगा पिछले दिनों सभी टी.वी. चैनलों ने एक छोटा प्यारा सा बच्चा दिखाया था, जिसे ‘गूगल चाइल्ड’ कहा गया। यह बच्चा स्टूडियो में हर सवाल के सेकेंडों में उत्तर देता था। जबकि उसकी आयु 10 वर्ष से भी कम थी। दुनिया हैरान थी उसके ज्ञान को देखकर। पर, किसी टीवी चैनल ने यह नहीं बताया कि ऐसी योग्यता उसमें इसी गुरूकुल से आयी है।
 
 
 दूसरा नमूना, उस बच्चे का है, जिसे आप दुनिया के इतिहास की कोई भी तारीख पूछो, तो वह सवाल खत्म होने से पहले उस तारीख को क्या दिन था, ये बता देता है। इतनी जल्दी तो कोई आधुनिक कम्प्यूटर भी जवाब नहीं दे पाता। तीसरा बच्चा गणित के 50 मुश्किल सवाल मात्र ढ़ाई मिनट में हल कर देता है। यह विश्व रिकार्ड है। ये सब बच्चे संस्कृत में वार्ता करते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, देशी गाय का दूध-घी खाते हैं। बाजारू सामानों से बचकर रहते हैं। यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीते हैं और घुड़सवारी, ज्योतिष, शास्त्रीय संगीत, चित्रकला आदि विषयों का इन्हें अध्ययन कराया जाता है। इस गुरूकुल में मात्र 100 बच्चे हैं। पर उनको पढ़ाने के लिए 300 शिक्षक हैं। ये सब शिक्षक वैदिक पद्धति से पढ़ाते हैं। बच्चों की अभिरूचि अनुसार उनका पाठ्यक्रम तय किया जाता है। परीक्षा की कोई निर्धारित पद्धति नहीं है। पढ़कर निकलने के बाद कोई डिग्री भी नहीं मिलती। यहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे 15-16 वर्ष से कम आयु के हैं और लगभग सभी बच्चे अत्यंत संपन्न परिवारों के हैं। इसलिए उन्हें नौकरी की चिंता भी नहीं है, घर के लंबे-चैड़े कारोबार संभालने हैं। वैसे भी डिग्री लेने वालों को नौकरी कहां मिल रही हैं ? एक चपरासी की नौकरी के लिए 3.5 लाख पोस्ट ग्रेजुएट लोग आवेदन करते हैं। ये डिग्रियां तो अपना महत्व बहुत पहले खो चुकी हैं।
 
 इसलिए इस गुरूकुल के संस्थापक उत्तम भाई ने ये फैसला किया कि उन्हें योग्य, संस्कारवान, मेधावी व देशभक्त युवा तैयार करने हैं। जो जिस भी क्षेत्र में जाएं, अपनी योग्यता का लोहा मनवा दें और आज यह हो रहा है। दर्शक इन बच्चों की बहुआयामी प्रतिभाओं को देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं।
 
 
 खुद डिग्रीविहीन उत्तम भाई का कहना है कि उन्होंने सारा ज्ञान स्वाध्याय और अनुभव से अर्जित किया है। उन्हें लगा कि भारत की मौजूदा शिक्षा प्रणाली, जोकि मैकाले की देन है, भारत को गुलाम बनाने के लिए लागू की गई थी। इसीलिए भारत गुलाम बना और आज तक बना हुआ है। इस गुलामी की जंजीरें तब टूटेंगी, जब भारत का हर युवा प्राचीन गुरूकुल परंपरा से पढ़कर अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं पर गर्व करेगा। तब भारत फिर से विश्वगुरू बनेगा, आज की तरह कंगाल नहीं। उत्तम भाई चुनौती देते हैं कि भारत के 100 सबसे साधारण बच्चों को छांट लिया जाए और 10-10 की टोली बनाकर दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में भेज दिया जाए। 10 छात्र उन्हें भी दे दिए जाएं। साल के आखिर में मुकाबला हो, अगर उत्तम भाई के गुरूकुल के बच्चे शेष दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों के विद्यार्थियों के मुकाबले कई गुना ज्यादा मेधावी न हों, तो उनकी ‘‘गर्दन काट’’ दी जाय और अगर ये बच्चे सबसे ज़्यादा मेधावी निकले, तो भारत सरकार को चाहिए कि वो गुलाम बनाने वाले देश के इन सब स्कूलों को बंद कर दे और वैदिक पद्धति से चलने वाले गुरूकुलों की स्थापना करे।
 
 उत्तम भाई और उनके अन्य साथियों के पास देश को सुखी और समृद्ध बनाने के ऐसे ही अनेक कालजयी प्रस्ताव हैं। जिन्हें अपने-अपने स्तर पर प्रयोग करके सिद्ध किया जा चुका है। पर, उन्हें चिंता है कि आधुनिक मीडिया, लोकतंत्र की नौटंकी, न्यायपालिका का आडंबर और तथाकथित आधुनिक शिक्षा इस विचार को पनपने नहीं देंगे। क्योंकि ये सारे ढांचे औपनिवेशिक भारत को झूठी आजादी देकर गुलाम बनाए रखने के लिए स्थापित किए गए थे। पर, वे उत्साहित हैं यह देखकर कि हम जैसे अनेकों लोग, जो उनके गुरूकुल को देखकर आ रहे हैं, उन सबका विश्वास ऐसे विचारों की तरफ दृढ़ होता जा रहा है। समय की देर है, कभी भी ज्वालामुखी फट सकता है।

 

Monday, November 2, 2015

लौटाना ताजपोशी का

 गए वो जमाने, जब राजा कलाकारों, साहित्यकारों और संतों से प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले के आभूषण, स्वर्ण मुद्राएं या जागीरें दान में दिया करते थे। लोकतंत्र की स्थापना के बाद जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जब सरकार बनाते हैं, तो वे कोई राजा नहीं होते, जो पत्रकारों, साहित्यकारों या कलाकारों को सम्मान दें। इन सब लोगों का सम्मान तो वह प्यार है, जो इन्हें इनके दर्शकों और श्रोताओं से मिलता है।




1989 में जब हमने देश का पहला हिंदी टेलीविजन समाचार ‘कालचक्र वीडियो’ शुरू किया था, तब मशहूर पत्रकार निखिल चक्रवर्ती, गिरीलाल जैन और अरूण शौरी जैसे पत्रकारों को अलग-अलग सरकारों ने पद्मभूषण या पद्मश्री दिए। निखिल चक्रवर्ती ने वह पद्मभूषण लेने से मना कर दिया। हमने तब कालचक्र वीडियो समाचार के दूसरे अंक में एक रिपोर्ट तैयार की ‘पत्रकारों की ताजपोशी’। जिसका मूल यह था कि सरकार का पत्रकारों को कोई भी अवार्ड देना, उन पत्रकारों की निष्पक्षता और ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। यही कारण है कि मैंने आजतक श्रेष्ठ पत्रकारिता का कोई अवार्ड किसी संस्था से नहीं लिया। हालांकि मेरे पाठक और श्रोता जानते हैं कि पिछले 30 वर्षों में पत्रकारिता में मैंने कितनी बार इस देश में इतिहास रचा है। यहां यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि किसी सरकार ने मुझे ऐसा कोई ईनाम देने की कभी कोई पेशकश नहीं की। जाहिर है कि जब हम डंडा लेकर निष्पक्षता से हर दल की सरकार के पीछे पड़े रहेंगे और उसकी कमियों को उजागर करेंगे, तो कौन सरकार इतनी मूर्ख है, जो हमें सम्मानित करेगी। अब वो दिन थोड़े ही हैं, जब कहा जाता था कि, ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करें सुभाय।।’ अब तो उन पत्रकारों, साहित्यकारों और कलाकारों को राज्यसभा का सदस्य बनाया जाता है या अवार्ड दिए जाते हैं या राजदूत बनाया जाता है, जो किसी एक राजनैतिक दल की चाटुकारिता में लगे रहते हैं और जब वह दल सत्ता में आता है, तो उनको इस तरह के ईनाम देकर पुरूस्कृत किया जाता है।

 
 इसलिए जो लोग आज अवार्ड लौटा रहे हैं, हो सकता है कि वो वाकई देश के सामाजिक ढांचे में तथाकथित रूप से पैदा की जा रही विसंगतियों से आहत हों। हमें इस विषय में कुछ नहीं कहना। पर, यह जरूर है कि वे लोग अपने मन में जानते हैं कि जो अवार्ड इन्हें मिले, वो केवल इसलिए नहीं मिले कि ये अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कलाकार, पत्रकार या साहित्यकार थे। इन्हें पता है कि इनके समय में इनसे भी ज्यादा योग्य लोग थे, जिनका नाम तक ऐसे किसी अवार्ड की सूची में विचारार्थ नहीं रखा गया। क्योंकि ऐसी सूचियों में नाम स्वतः ही प्रकट नहीं हो जाते। अवार्ड लेने के लिए आपको एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। नौकरशाही और राजनेताओं के तलवे चाटने पड़ते हैं। बड़े-बड़े ताकतवर लोगों से सिफारिशें करवानी पड़ती हैं और ये सब तब, जब आप पहले से ही सत्तारूढ़ दल के चाटुकार रहे हों। क्योंकि चाटुकारों की कोई कमी थोड़े ही होती है। उनकी भी एक बड़ी जमात होती है। उनमें से कुछ ही को तो अवाॅर्ड मिलता है, बाकी को कहां पूछा जाता है ?
 
 इसलिए इनका अवार्ड लौटाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। क्योंकि अगर ये आज की सरकार के समय में दावेदार होते, तो जाहिर है, इन्हें यह अवाॅर्ड नहीं मिलते। मतलब साफ है कि जिसने अवार्ड दिए, उसकी राजनीति चमकाने के लिए अगर हम आज अवाॅर्ड लौटा भी दें और खुदा-न-खास्ता कल वो फिर से सत्ता में आ जाएं, तो इस ‘बलिदान’ के लिए दुगना-चैगुना पुरूस्कार मिलेगा। अगर वे सत्ता में न भी आएं, तो भी उनके प्रति कुछ फर्ज तो अदा करना चाहिए। वैसे भी इन पुरूस्कारों को कौन पूछ रहा है। सबको पता है कि कैसे मिलते हैं और किसको मिलते हैं ? जो यश तब लेना था, वो तो मिल चुका। अब तो लौटने में भी वाहवाही है।
 
 
 इसका मतलब यह नहीं कि मैं समाज में सामाजिक वैमनस्य पैदा करने वालों के हक में बोल रहा हूं। ऐसा कार्य तो जिस भी दल के कार्यकर्ता करते हैं, वह राष्ट्रद्रोह से कम नहीं हैं और अगर ऐसा भाजपा के कार्यकर्ता कर रहे हैं, तो मोदीजी को उनकी लगाम कसनी चाहिए। पर, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब संसद में भाजपा के मात्र 2 सांसद होते थे, तब भी तो देश में सामाजिक वैमनस्य होता था। सांप्रदायिक दंगे होते थे और खूब लोग मरते थे। क्या कश्मीर में जब हिंदूओं को मार-मारकर निकाला गया और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी गई, तब इन सब लोगों ने क्या अपने अवार्ड लौटाए थे ? तब तो सबको सांप सूंघ गया था।
 
 
इसलिए अवार्ड लौटाने का यह नाटक बंद होना चाहिए। इसलिए जगह मांग उठनी चाहिए कि किसी भी सरकार को किसी कलाकार, पत्रकार, साहित्यकार को कोई भी अवार्ड देने का कोई हक नहीं हो। जितने अवार्ड आजतक दिए गए हैं, वे सब राष्ट्रपति का अध्यादेश लाकर निरस्त किए जाएं। अब आप ही सोचिए कि अमिताभ बच्चन को 50 हजार रूपए महीने की पेंशन का अवार्ड देने के पीछे क्या तुक है ? वो तो खुद ऐसी पेंशन हर महीने 50 लोगों को दे सकते हैं। हां, अगर कोई पत्रकार, साहित्यकार या कलाकार गरीबी में जी रहा हो और उसके पास इलाज को भी पैसे न हों और समाज उसकी मदद को आगे न आए, तो सरकारों का फर्ज बनता है कि उसकी मदद करें। अच्छे भले खाते-पीते संपन्न लोगों को आर्थिक अवार्ड या तमगे देना उनके स्वाभिमान को कुचलने जैसा है। जिसे रोकने की पहल हम सबको करनी चाहिए। अवार्ड लौटाकर नहीं, बल्कि आजतक मिले सभी अवार्ड निरस्त करवाकर।