Sunday, March 18, 2012

समय बरबाद कर रहे हैं नेतृत्व और चिंतक

संसद और टी.वी. की बहस को देखकर क्या आपको लगता है कि हमारा राजनैतिक नेतृत्व और बुद्धिजीवी देश की समस्याओं के समाधान की तरफ आगे बढ़ रहे हैं या हम फिजूल की नोंक-झोंक में कीमती समय बरबाद कर रहे हैं ? देश में पैदा हो रहे इन हालातों के लिये पक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रूप से जिम्मेदार हैं। जहाँ काँग्रेस नेतृत्व अपने लम्बे अनुभव के बावजूद विपक्ष और जनता से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा, वहीं विपक्ष और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के खिलाफ हर मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा शोर मचाकर लोगों में हताशा पैदा कर रहा है।
सात फीसदी की आर्थिक विकास दर को हासिल करने का लक्ष्य लेकर प्रणव मुखर्जी ने जो बजट प्रस्तुत किया, वह ‘हैण्डस अप बजट’ था। यानि सरकार ने यह तय कर लिया कि मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक हालात में वह कोई दखलंदाजी नहीं करेगी। क्योंकि ऐसा करने पर विपक्ष के भड़कने का पूरा खतरा था। दूसरी तरफ कड़े कदम से मतदाताओं के बीच आक्रोश पैदा हो सकता था। जो 2014 के लोकसभा चुनावों के लिये घातक होता। वैसे इस सरकार के पास बजट प्रस्तुत करने का एक मौका फिर 2013 में आयेगा, लेकिन उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मंदी की आहट को ध्यान में रखकर कुछ कदम भले ही उठाये गये हों, पर इस बजट को कामचलाऊ बजट से ज्यादा कुछ नहीं का जा सकता।
काँग्रेस अपनी इस हालत के लिये कहाँ तक जिम्मेदार है ? उत्तरांचल को लीजिये। हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाने के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है ? जिस आदमी ने उत्तरांचल में काँग्रेस को खड़ा किया उसे तो 2002 में ही मुख्यमंत्री बना देना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। अबकी बार फिर रावत के साथ धोखा हुआ। पंजाब और उत्तर प्रदेश में काँग्रेस की आशा के विपरीत परिणाम  आने के बाद उत्तरांचल ने कुछ आंसू पोंछे थे। पर इस नाटक ने वहाँ भी काँग्रेस की छवि खराब करने का काम किया हैं।  नेतृत्व को सोचना होगा कि पुराने रवैये से अब महत्वाकांक्षी जनता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें तो मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि राहुल गांधी फेल हो गये। आखिर 11 फीसदी मत कांग्रेस को मिला है। उस राज्य में जहां गांव कस्बे और जिले स्तर पर कांग्रेस के नेताओं का चेहरा गायब हो चुका था। संगठन के नाम पर कुछ भी नहीं है। कार्यकर्ता जैसी कोई चीज वहां नहीं हैं प्रदेश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में नहीं है जो आम आदमी व खासकर युवाओं को आश्वस्त कर सकें। जिसके पास सोच, क्षमता और आत्मविश्वास है। सब कुछ इतना लचर पचर था, फिर क्यों नेतृत्व ने इसे संजीदगी से सुधारा नहीं ? सुल्तानपुर रायबरेली के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया कि केवल चुनावी उत्सवों पर दर्शन देने से जनता नेताओं को स्वीकार नहीं करेगी। अब जनता को अपने बीच में से उठने वाले नेता चाहियें। जिनसे उनका सम्वाद बना रहे। क्या श्रीमती सोनिया गांधी ने या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कुछ संकेत दिये हैं, जिनसे यह पता चले कि उनके दरबार में गंभीर और अनुभवी लोगों के सद्विचार सुनने का रास्ता खुला है ? 8-10 चुने हुए सम्पादकों से बात करना और समर्पित बुद्धजीवियों के विचार जानना सम्वाद नहीं कहा जा सकता। छोटे-छोटे लाभ के लालच में सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोग न तो जनता की नब्ज पर उंगली रख पाते हैं और न ही नेतृत्व को सही राय दे पाते हैं। पर दुर्भाग्य से आज दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में यही संस्कृति प्रचलित हो गयी है। इसलिये दोनों क्षेत्रीय स्तर पर पिट रहे है। ंनतीजन नीतिश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी व जयललिता जैसे नेता सफलता के नये झण्डे गाड़ रहे हैं। इसलिये इन दोनों ही दलों को अपनी कार्यशैली में भारी बदलाव लाना होगा।
आज अगर भाजपा सशक्त और आश्वस्त होती तो मध्यावधि चुनाव करवा सकती थी। पर उसे पता है कि उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी ही है। इसलिये सरकार के विरूद्ध शोर चाहें जितना भी मचाये, सरकार गिराने का कोई इरादा नहीं है। इसलिये मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना दिखायी नहीं देती। क्षेत्रीय दलों के सांसद भी समय से पहले चुनावों के खिलाफ हैं। हां यह जरूर है कि क्षेत्रीय दलों के ताकतवर होने से केन्द्र सरकार कमजोर हुई है। कभी ममता बनर्जी, कभी करूणानिधि, कभी मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब सरकार को अपनी शर्तों पर झुकाते रहेंगे और इनकी शर्तें मानना सरकार की मजबूरी होगी।
पर विपरीत परिस्थिति में जो अपना रास्ता बना ले उसे ही नेता कहा जाता है। देश के इस राजनैतिक माहौल में हर उस नेता को और उनसे जुड़े बुद्धजीवियों को आत्मचिंतन करना चाहिये कि हम समस्या का पोस्टमार्टम करते रहेंगे या मरीज का इलाज भी करेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम समस्या का कारण न बनें, समाधान बनें। क्योंकि हमारा देश आज भी काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के शिकंजे से बचा हुआ है। इसलिये हमारे उठ खड़े होने की संभावना उन देशों से ज्यादा है जिनका नेतृत्व और अर्थव्यवस्थायें बाहरी शक्तियों के आगे समर्पित हैं। युवाओं की बढ़ती तादाद और महत्वाकांक्षा किसी भी दल या नेता के साथ हमेशा खड़ी रहने वाली नहीं हैं। चांहे वो अखिलेश यादव हों या सुखविन्दर सिंह बादल। इन्हें कुछ मिलेगा तो ये साथ खड़े रहेंगे। नहीं मिलेगा तो ये विरोध में ही नहीं जायेंगे बल्कि सड़कों पर भी उतर आयेंगे। वह भयावह स्थिति होगी। जिससे हमें बचना है और मजबूती और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है।

Sunday, March 11, 2012

अखिलेश यादव की अग्नि परीक्षा

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की अपेक्षा के अनुरूप देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर 38 वर्ष के अखिलेश यादव की ताजपोशी हो रही है। जिस वक्त चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस वक्त एक अंग्रेजी टी वी चैनल पर पंजाब के मुख्यमंत्री के सुपुत्र सुखवीर सिंह बादल और अखिलेश यादव से बरखा दत्त साथ-साथ चर्चा कर रही थीं। सुखवीर ने अखिलेश को सलाह दी कि अगर उत्तर प्रदेश को तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे ले जाना है तो उन्हें भी विकास कार्यों को पंजाब की ही तरह ‘पीपीपी मोड’ में जाना होगा। अखिलेश के लिये यह सबसे महत्वपूर्ण सलाह है। क्योंकि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। लोगों ने मत जात-पात पर नहीं, विकास के नाम पर दिया है। नौकरशाहों की लाल फीताशाही और निहित स्वार्थों की राजनैतिक दखलंदाजी विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है।
उत्तर प्रदेश के नगरों का आधारभूत ढांचा चरमरा गया है। अवैध निर्माण, उफनती नालियाँ, कूड़े के पहाड़ और विकास प्राधिकरणों की भू-माफियागिरी ने प्रदेश के नगरों को एक विद्रूप चेहरा दे दिया है। शहर के चुनिंदा पैसे वाले और नौकरशाहों को छोड़कर बाकी लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश के कई राज्यों में इस समस्या का हल जनता की भागीदारी और सक्षम निजी संस्थाओं के सहयोग से किया गया है। जिन मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य के स्वरूप को सजाने की इस पहल में निजी रूचि और उत्साह दिखाया है वे बार-बार जीत कर लौटे हैं।
उत्तर प्रदेश में पर्यटन की दृष्टि से आगरा, ब्रज, वाराणसी, सारनाथ आदि जैसे क्षेत्र प्रदेश की अर्थव्यवस्था में तेजी से इजाफा कर सकते हैं। क्योंकि मौरिशिय्स, थाईलेंड, सिंगापुर, बाली जैसे तमाम देश केवल पर्यटन के सहारे अपनी अर्थ-व्यवस्थाओं को मजबूत बनाये हुए हैं। पर उत्तर प्रदेश में इस दिशा में सही समझ और ईमानदार कोशिश के अभाव में सारी योजनाऐं कागजी खानापूरी तक सीमित रह जाती हैं। जिसमें अखिलेश को क्रान्तिकारी परिवर्तन करना होगा।
गुण्डाराज की बात हर मीडिया पर की जा रही है। मैंने कई चैनलों पर ये कहा है कि अगर अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव और चाचा जैसे मौहम्मद आजम गुण्डाराज को दस्तक देने से पहले ही रोकने में सफल नहीं होते तो 2014 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को मुँह की खानी पड़ सकती है। अखिलेश युवा हैं, उत्साही हैं, विनम्र हैं और कुछ करना चाहते हैं। पर प्रान्त के अराजक तत्वों को रोकने का काम भी अगर उनके कंधों पर डाल दिया जायेगा तो संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिये यह काम तो अखिलेश के पिता और इन चाचाओं को करना होगा। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को इसी तरह दोबारा सत्ता सौंपने में उत्तर प्रदेश की जनता को गुरेज नहीं होगा।
प्रदेश के शासन की रीढ़ होते हैं नौकरशाह। अगर जिले में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक मुख्यमंत्री के लिये धन उगाही के एजेंट बनाकर भेजे जाते हैं और जल्दी-जल्दी ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाते हैं तो अखिलेश यादव की सरकार जनता की नजरों में गिर जायेगी। अगर ये ही दो अधिकारी ईमानदार, कड़क लेकिन जनता की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होंगे तो अखिलेश यादव की सरकार लोकप्रियता के झण्डे गाड़ देगी।
मुख्यमंत्री सचिवालय अकुशल और निकम्मे सचिवों का जमावड़ा न होकर अगर ऐसे अधिकारियों को तरजीह देगा जो रचनात्मकें, परिणाम लाने वाले, जोखिम उठाकर भी गैर-पारंपरिक निर्णय लेने वाले और लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध क्रियान्वन करने वाले हों तो पूरे उत्तर प्रदेश को दिशा और गति दोनों मिलेगी।
प्रदेश के देहातों में बेरोजगारी, बिजली-पानी सबसे बड़ी समस्या है। पर इनका निदान केवल राजनैतिक बयानबाजी के तौर पर किया जाता है। जबकि देश में कई ऐसे सफल माॅडल हैं जहाँ किसान-मजदूर को बिना ज्यादा बाहरी मदद के सुखी बनाने के सफल प्रयोग किये गये हैं। क्योंकि ऐसे मॉडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं होती, इसलिये वे हुक्मरानों को पसंद नहीं आते। पर अब चुनाव का स्वरूप इतना बदल चुका है कि कोरे वायदों से आम मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। गाँव की समस्याओं के हल के लिये ठोस काम की जरूरत है। अखिलेश को लीक से हटकर देखना होगा।
ईसा से 300 वर्ष पूर्व जब न तो ई-मेल, एस.एम.एस. थे और न ही फैक्स या फोन तब भी मगध का साम्राज्य चलाने वाले महान सम्राट अशोक मौर्य ने अफगानिस्तान से असम और कश्मीर से तमिलनाडु तक के भू-भाग को बड़ी संजीदगी से संचालित किया और यश कमाया। क्योंकि वे वेश बदल कर खुद और अपने दूतों को साम्राज्य के हर हिस्से में भेजकर अपने कामों के बारे में जनता की राय गोपनीय तरीके से मँगवाया करते थे। जहाँ से विरोध के स्वर सुनायी देते वहाँ समस्या का हल ढूँढ़ने में फुर्ती दिखाते थे। अखिलेश यादव को पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के अनुभव से यह सीखना चाहिये कि अपने चारों ओर चहेतों और सलाहकारों की दीवार मुख्यमंत्री को अन्धा और बहरा बना देती है। राहुल गाँधी ने मेहनत कम नहीं की पर अखिलेश का सहज सामान्य जन से संवाद उन्हें आज इस मुकाम तक ले आया। अपनी इस ताकत को खोना नहीं संजोना है।
भगवान कृष्ण के यदुवंश में जन्म लेने वाले अखिलेश यादव के कार्य काल में अगर ब्रज विश्व का सबसे सुन्दर तीर्थ क्षेत्र न बना तो अखिलेश का जन्म निरर्थक रहेगा। बसपा, संघ और इंका की विशाल सेनाओं के सामने अखिलेश यादव ने अपने युद्ध कौशल से इस महाभारत को जीतकर भगवान कृष्ण के वंशज होने का प्रमाण दिया है। अगर अखिलेश में सही सलाह को समझने और जीवन में उतारने की क्षमता होगी तो उत्तर प्रदेश को वे विकास और सुख-समृद्धि के रास्ते पर ले चलने में कामयाब हो पायेंगे।

Sunday, March 4, 2012

उत्तर प्रदेश में एक अपूर्व असमंजस

ऐसा पहली बार हुआ है कि पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को लेकर राजनैतिक पण्डित अटकल तक नहीं लगा पा रहे हैं। यह बात अलग है कि इससे पहले जब-जब इन पण्डितों ने अपनी अटकलें लगायीं, वे कभी ठीक नहीं निकलीं। हाँ पहले यह जरूर हुआ करता था कि अलग-अलग चुनाव विश्लेषक मतदान से पहले अपने-अपने ओपिनियन पोल के जरिये किसी पार्टी विशेष के लिये माहौल बनाने का काम किया करते थे और उसका असर भी पड़ जाया करता था। लेकिन इस बार चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल पर लगायी गयी पाबन्दी से यह रोग नहीं दिखा और अनापेक्षित स्थिति बन नही पायी।
पिछले चार महीनों में विभिन्न राष्ट्रीय दलों और प्रादेशिक दलों के चुनाव प्रचार अभियानों में भी कोई नयी बात नजर नहीं आयी। सिर्फ यह जरूर दिखा कि पाँच राज्यों में जिस तरह से शान्तिपूर्ण ढंग से चुनाव निपटे हैं, उसमें चुनाव आयोग की मुस्तैदी में नयापन था। इस दौरान हिंसा नहीं हुई और मतदान के दौरान गड़बड़ियों की घटनायें भी नगण्य रहीं।
मणिपुर, पंजाब और उत्तराखण्ड में मतदान पहले ही निपट चुके हैं और उनके बारे में अटकलें और विश्लेषण भी मीडिया में खूब आ चुके हैं। आखिर में उत्तर प्रदेश और गोवा में मतदान हुआ है। अपने आकार के कारण उत्तर प्रदेश को लेकर लोगों में कौतुहल कुछ ज्यादा ही रहा।
उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार को लेकर एक रोचक तथ्य यह रहा कि मतदान के एक हफ्ते पहले तक मीडिया ने चार प्रमुख दलों - बसपा, सपा, भाजपा और काँग्रेस को नम्बरवार लगाने की कोशिश की। आम तौर पर मध्यस्थता में व्यस्त रहने वाले मीडिया ने सबसे पहला काम यह किया कि दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों - काँग्रेस और भाजपा के बीच तीसरे और चैथे नम्बर के लिये लड़ाई की बात प्रचारित करनी शुरू की। यह प्रचार इतनी तीव्रता के साथ किया गया कि माहौल बसपा और सपा के बीच लड़ाई तक सिमट गया। और जब काँग्रेस के लिये राहुल गाँधी के व्यवस्थित चुनाव प्रचार ने असर दिखान शुरू किया तो उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के मतदान के बाद से ही यह बात सामने आने लगी कि सीटों के लिहाज से स्थिति कुछ भी रहे, लेकिन मत प्रतिशत के लिहाज से काँग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी।
उधर दो प्रमुख प्रादेशिक दलों - बसपा और सपा की लड़ाई में यह माहौल बनाया गया कि बसपा के खिलाफ सत्तारूढ़ दल के विरोध में होने वाला स्वाभाविक विरोध काम कर रहा है। ऐसे ही प्रचार से सपा के पक्ष में एक माहौल बनना शुरू हुआ।
रही बात उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान मुद्दों की - तो उत्तर प्रदेश की जनता की ओर से विकास की बातें ज्यादा की गयीं। इससे ऐसा माहौल बना कि लोग धर्म और जाति के दायरे से बाहर आ कर सोचना शुरू कर रहे हैं। पर यह ज्यादा दिन चला नहीं। आखिर, आखिर में मुस्लिम वोट बैंक को लेकर मीडिया ने माहौल बना ही दिया। हालांकि कुछ यह भी था, कि उत्तर प्रदेश में छठे और सातवें दौर के चुनाव में आबादी के लिहाज से मुस्लिम मतदाता अपेक्षाकृत ज्यादा थे। लेकिन मुस्लिम ध्रुवीकरण की स्थिति बनती नहीं दिखी और यह संकेत आये कि बिखराव के कारण धर्म-आधारित कारक काम नहीं करेगा।
यानि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में पर्याप्त तथ्यों का अभाव है। राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार अभियानों से भी कुछ नहीं भाँपा जा सकता। इस स्थिति में अगर सामान्य निरीक्षण की पद्धति अपनायी जाये तो लोग यह कहते पाये जा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। दूसरी बात यह कि सबसे बड़े दल के रूप में बसपा और सपा में से कोई होगा। तीसरी बात यह कि सपा और बसपा कुल 403 सीटों में कोई 70 फीसदी सीटें ले जायेंगे। काँग्रेस और भाजपा के पास कुल सीटों की 25 फीसदी सीटें आने की अटकल है।
यदि ऐसा होता है तो सरकार बनाने के लिये गठबंधन की कवायद शुरू हो जायेगी। इस सिलसिले में अगर चुनाव प्रचार के दौरान कही गयी बातों पर गौर करें तो काँग्रेस के कुछ नेताओं के बयान महत्वपूर्ण हो जायेंगे। यानि एक स्थिति यह बनती है कि नयी सरकार में काँग्रेस का समर्थन अपरिहार्य हो जायेगा। काँग्रेस का वह बयान महत्वपूर्ण हो जायेगा कि अगर जीते तो वे खुद ही सरकार बनायेंगे वरना किसी को समर्थन नहीं देना चाहेंगे। यानि तब विकल्प किसी की भी सरकार नहीं बन पाने यानि राष्ट्रपति शासन का होगा। तब यह देखना होगा कि काँग्रेस के अलावा दूसरे दल क्या रूख अख्तियार करते हैं और कितना समझौता करते हैं।
लेकिन अगर-मगर के साथ ये सारी बातें तब फिजूल हो जायेंगी जब पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश के मतदता ने भी ये सारे अगर-मगर देख लिये थे। यानि जनता के सामूहिक निर्णय की प्रतिभा को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि चुनाव नतीजों के बाद हमें मतदाता के मन का विश्लेषण करने का भी मौका मिलेगा। यह पहले भी होता आया है। नब्बे के दशक में क्षेत्रीय दलों के उद्भव के बाद खण्डित जनादेश की स्थितियाँ कई बार बनी हैं। धीरे-धीरे गठबंधन की राजनीति को स्वीकार भी किया जा चुका है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे गठबंधन की राजनीति का कोई बिल्कुल नया आयाम पेश कर सकते हैं।

Tuesday, February 28, 2012

रामलीला मैदान से सबक

4/5 जून 2010 की रात को दिल्ली के रामलीला ग्राउण्ड में सो रहे बाबा रामदेव के भक्तों पर दिल्ली पुलिस के बर्बरतापूर्ण हमले की सर्वोच्च अदालत ने भत्र्सना की है। अदालत ने निहत्थे लोगों पर इस तरह से जुल्म ढाने के लिये दिल्ली पुलिस पर जुर्माना भी किया है। पर साथ ही बाबा रामदेव पर भी इस हादसे के लिये 25 फीसदी जुर्माना देने का आदेश दिया है। अदालत के इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। सबसे पहली बात तो यह है कि अब केन्द्र और प्रान्तों की पुलिस सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को कानून बताकर जन-आन्दोलनों को हतोत्साहित करने का काम करेगी। अब पुलिस तर्क देगी कि अगर हमने आपको धरने या प्रदर्शन की अनुमति दे दी तो किसी अप्रिय घटना के हो जाने पर हमारी फोर्स को सजा भुगतनी पड़ सकती है। इसलिये हम ऐसे हालात पैदा ही नहीं होने देंगे वर्ना हमें जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं  का विश्वास है कि इस फैसले के बावजूद किसी भी प्रान्त या केन्द्र की सरकार जन-आन्दोलनों को रोक नहीं पायेंगी। क्योंकि लोकतंत्र में जनता की सत्ता सर्वोपरि होती है। दूसरी तरफ पुलिस के आला हाकिमों का यह कहना है कि बाबा रामदेव ने सारी शर्तों का उल्लंघन किया और योग शिविर को राजनैतिक रैली में बदल दिया। जिससे स्थिति बेकाबू हो रही थी। सुबह तक रूकते तो इससे भी ज्यादा खूनखराबा होता है। इसलिये उसने सावधानी बरती और यह कदम उठाया।

राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर बाबा रामदेव में सत्ता का चरित्र समझने की क्षमता होती, जन-आन्दोलनों का अनुभव होता और उनके अनुयायी मात्र योग के विद्यार्थी न होकर सामाजिक आन्दोलनों से जुड़े हुए होते तो बाबा के धरने की इतनी दुर्दशा नहीं होती। इसीलिये अदालत ने बाबा को भी दोषी ठहराया है। इस फैसले से अब यह भी स्पष्ट हो गया कि भविष्य में अराजकता या हिंसा के लिये जन-आन्दोलन करने वालों को भी जिम्मेदार माना जायेगा।

विपक्ष इस पूरे मामले को वोटों के लिये भुनाने को तत्पर है। इसलिये लगातार यह आरोप लगा रहा है कि इतना बड़ा हादसा भारत सरकार के गृहमंत्री के निर्देश के बिना हो ही नहीं सकता। इसलिये गृहमंत्री पी. चिदम्बरम को इस्तीफा देना चाहिये। पर विपक्ष की इस माँग में एक पेच है। अगर गृहमंत्री के आदेश पर दिल्ली पुलिस ने यह काम किया है तो यह भी मानना पड़ेगा कि गुजरात के दंगों में पुलिसिया जुल्म भी नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर हुए, पश्चिमी बंगाल में नक्सलवादियों पर पुलिस का जो जुल्म होता रहा वो सीपीएम सरकार के निर्देश पर हुआ और ब्रज के पर्वतों की रक्षा के लिये भरतपुर के बोलखेड़ा पहाड़ पर धरने पर बैठे साधु-संतों पर जो राजस्थान पुलिस की लाठी-गोली चलीं वो भाजपा सरकार के निर्देश पर हुआ या अयोध्या में कारसेवकों पर पुलिसिया जुल्म मुलायम सिंह यादव ने करवाया।

 मतलब है या तो हम यह मान लें कि राजनीतिक दल सत्ता में आकर अपने अधीन पुलिस का दुरूपयोग करते हैं और अपने विरोध को कुचलते हैं। फिर तो हर पुलिसिया जुल्म के लिये सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये। ऐसे में सिर्फ अकेले चिदम्बरम ही इस्तीफा क्यों दें ? अब तक देश भर में हुए पुलिसिया जुल्म के लिये दोषी सभी मुख्यमंत्रियों पर कार्यवाही होनी चाहिये। अगर ऐसा नहीं है और पुलिस अपनी समझ के अनुसार निर्णय लेती है तो फिर केवल एक रामलीला ग्राउण्ड की घटना को ही इतना तूल क्यों दिया जाये ? जबकि हकीकत यह है कि भारत की पुलिस चाहें केन्द्र में हो या राज्यों में, आज भी अपने औपनिवेशिक स्वरूप को बदल नहीं पायी है। तकलीफ की बात तो यह है कि पुलिसिया जुल्म पर तो हम शोर मचाते हैं पर पुलिस के सुधार की कोई कोशिश नहीं करना चाहते। 1977 में केन्द्र में बनी पहली गैर-काँग्रेसी सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था। जिसकी सिफारिशें तीन दशकों से धूल खा रही हैं। उन्हें लागू करने की माँग कोई नहीं उठाता। अगर पुलिस आयोग की सिफारिशें लागू हो जायें तो न सिर्फ पुलिस के काम-काज में सुधार आयेगा, बल्कि देश की करोड़ों जनता को पुलिस मित्र जैसी दिखायी देगी, दुश्मन नहीं। 

उधर बाबा रामदेव को भी अपनी रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। वे भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाने की बात तो कहते हैं पर राजनीति में उनका व्यवहार निष्पक्ष दिखायी नहीं देता। जबकि आम जनता मानती है कि भ्रष्टाचार के मामले में कोई भी राजनैतिक दल किसी से कम नहीं है। जिसका, जहाँ, जब, जैसा दाँव लगता है, वहीं मलाई खाता है। तो फिर बाबा रामदेव लगातार केवल एक दल के विरूद्ध बोलकर क्या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि बाकी के दल सत्यवादी महाराजा हरिश्चन्द्र के पदचिन्हों पर चलते हैं ? क्यूँकि ऐसा नहीं है इसलिये बाबा रामदेव के आन्दोलन की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। बाबा को यदि वास्तव में देश की चिन्ता है तो उन्हें अपनी मान्यतायें और रणनीति दोनों बदलनी होंगी। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का गहरा मतलब है।

Monday, February 20, 2012

राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी राजनीति

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधक केन्द्र को लेकर राजनीतिक हलचल शुरू हो गयी है। इस विशेष केन्द्र के जरिये राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित विभिन्न एजेंसियों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था की गयी है। इन सूचनाओं के जरिये आतंकवाद सम्बन्धी जोखिम के विश्लेषण का काम शुरू होना है। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह काम हर हफ्ते के सातों दिन, चैबीसों घण्टे, पल-पल होता रहेगा।

मसला यह है कि आतंकवाद से संबन्धित गतिविधियों पर पल-पल की जानकारियां जमा करने की व्यवस्था के खिलाफ देश के कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री एकजुट होना शुरू हो गये हैं। इस विरोध में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हो गयी हैं।

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधी केन्द्र के विरोध का तर्क इन मुख्यमंत्रियों ने यह कहकर दिया है कि आतंकवाद प्रतिरोधी इस केन्द्र के काम-काज से राज्यों के अधिकारों को हड़प लिया जायेगा। उधर केन्द्र सरकार ने ऐसे विरोध को खारिज करते हुए आतंकवादी प्रतिरोधी केन्द्र की स्थापना के लिये प्रतिबद्धता जता दी है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने शनिवार को एक कार्यक्रम में कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये केन्द्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है।

बहरहाल यहाँ यह जानना भी अति आवश्यक है कि एनसीटीसी नाम से इस केन्द्र को बनाने का यह फैसला नया नहीं है। इंटेलीजेंस रिफॉर्म एण्ड टैररिज्म प्रिवेन्शन एक्ट के तहत इसकी स्थापना के लिये प्रेजीडेन्शियल एक्जीक्यूशन ऑर्डर संख्या 13354, अगस्त 2004 में ही जारी हो गया था। इस एक्ट में यह तय किया गया था कि आतंकवाद के खिलाफ साझा योजनायें बनाने व खुफिया जानकारियाँ साझा करने के लिये यह केन्द्र बनेगा और इस केन्द्र के स्टाफ में विभिन्न एजेंसियों के अधिकारी एवं कर्मचारी रखे जायेंगे। पिछले 8 साल से लगातार इस पर काम हो रहा था और अब 500 लोगों के टीम के साथ आगामी 1 मार्च से यह केन्द्र औपचारिक तौर पर अपना काम-काज शुरू करने जा रहा है।

फिर भी मीडिया के लिये यह मामला नया-नया सा दिख रहा है। नया इस लिहाज से, कि पिछले 4-6 दिनों से गैर काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण यह मीडिया की सुर्खियों में आया है। अलबत्ता शुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता का विषय होने के कारण मीडिया के पास इस बारे में तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। यानि मीडिया के पास गैर-काँग्रसी मुख्यमंत्रियों के एकजुट होने की हलचल के कारण ही यह मुद्दा खबरों में है।

रही बात केन्द्र के स्थापना की उपादेयता की, तो यह तय ही है कि किसी भी समस्या से निपटने (समस्या बनने से पहले और समस्या खड़ी होने के बाद) के लिये तथ्यों/सूचनाओं को जमा करने की और समस्या के उत्तरदायी तथ्यों का अध्ययन करने की जरूरत पड़ती है। समाधान के लिये कारगर योजनायें तब ही बन पाती हैं। यह केन्द्र भी ऐसे ही अपने सीमित उद्देश्यों के साथ बना है। इसका काम आतंकवाद के जोखिम का विश्लेषण करना है और आतंकवाद संबन्धी जानकारियों का देश की विभिन्न सुरक्षा/खुफिया एजेंसियों के बीच आदान-प्रदान हो सके, इसका प्रबन्ध करना है। यानि उपादेयता के लिहाज से ऐसा केन्द्र सुरक्षा तन्त्र में व्यावसायिक कौशल तो बढ़ायेगा ही। मगर फिलहाल यहाँ सवाल इस मुद्दे का तो है ही नहीं है। मुद्दा सिर्फ यह बना हुआ है कि केन्द्र-राज्य सम्बन्धों या राज्यों के अधिकार के अतिक्रमण के तर्क के आधार पर 8 गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्री एक साथ आते दिख रहे हैं।

यानि एनसीटीसी को लेकर बहस विशुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता के मुद्दे और राजनीतिक मुद्दे के बीच सीमित हो जायेगी। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि अपराध शास्त्रीय विशेषज्ञता के पहलू पर बोलने वालों ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के अलावा कोई बोलता नहीं दिखता। यानि यह बहस केन्द्र सरकार बनाम कुछ राज्य सरकारों के बीच सिमट जायेगी। खास तौर पर जब 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हों, तब ऐसे मुद्दे सिर्फ राजनीति के ही मुद्दे क्यूँ नहीं बनेंगे ?

अब जो लोग ऐसे विषयों की गंभीरता को समझते हों, उनके दखल की भी दरकार है। लेकिन अफसोस यह है कि किसी भी समस्या से संबन्धित विशेषज्ञों का भी टोटा पड़ा हुआ है। हद यहाँ तक है कि शनिवार को केन्द्रीय गृह सचिव को ही बोलते सुना गया। उनके बयान में भी यही बात थी कि आतंकवाद प्रतिरोधी व्यवस्था के लिये देश की विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल की जरूरत है और इसीलिये ऐसे केन्द्र का गठन हुआ है। उनके बयान में यह कहीं नहीं आया कि ऐसे केन्द्र के काम-काज को सुचारू रूप से करने के लिये राज्य सरकारों के प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिये। खैर अभी तो बात शुरू हुई है। होते-होते यह बात भी शुरू होने ही लगेगी कि आतंकवाद की घटनायें होती कहाँ हैं ? कहाँ का मतलब भौगोलिक तौर पर कहाँ होती हैं। बड़ा आसान सा जवाब है कि देश में ऐसा कोई भी भूखण्ड नहीं है जो किसी न किसी राज्य के भूभाग में न हो। यानि घटना किसी न किसी राज्य में ही होती है और उसके तथ्य या सूचना का प्रस्थान बिन्दु वही होता है। जाहिर है कि प्रशासनिक तौर पर राज्यों की भागीदारी के बगैर यह काम हो नहीं सकता।

Sunday, February 12, 2012

हमारी उत्पादकता कैसे बढ़े ?

Rajasthan Patrika 12 Feb 2012
राष्ट्रीय उत्पादकता की जब बात होती है तो आम आदमी समझता है कि यह मामला उद्योग, कृषि, व्यापार व जनसेवाओं से जुडा है। हर व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाने के लिये सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार मानता है। दूसरी तरफ जापान जैसा भी देश है, जिसने अपने इतने छोटे आकार के बावजूद आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में दुनिया को मात कर दिया है। सूनामी के बाद हुई तबाही को देखकर दुनिया को लगता था कि जापान अब कई वर्षों तक खड़ा नहीं हो पायेगा। पर देशभक्त जापानियों ने न सिर्फ बाहरी मदद लेने से मना कर दिया, बल्कि कुछ महीनों में ही देश फिर उठ खड़ा हो गया। वहाँ के मजदूर अगर अपने मालिक की नीतियों से नाखुश होते हैं तो काम-चोरी, निकम्मापन या हड़ताल नहीं करते। अपनी नाराजगी का प्रदर्शन, औसत से भी ज्यादा उत्पादन करके करते हैं। मसलन जूता फैक्ट्री के मजदूरों ने तय किया कि वे हड़ताल करेंगे, पर इसके लिये बैनर लगाकर धरने पर नहीं बैठे। पहले की तरह लगन से काम करते रहे। फर्क इतना था कि अगर जोड़ी जूता बनाने की बजाय एक ही पैर का जूता बनाते चले गये। इससे उत्पादन भी नहीं रूका और मालिक तक उनकी नाराजगी भी पहुँच गयी।

जबकि हमारे देश में हर नागरिक समझता है कि कामचोरी और निकम्मापन उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। दफ्तर में आये हो तो समय बर्बाद करो। कारखाने में हो तो बात-बात पर काम बन्द कर दो। सरकारी विभागों में हो तो तनख्वाह को पेंशन मान लो। मतलब यह कि काम करने के प्रति लगन का सर्वथा अभाव है। इसीलिये हमारे यहाँ समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है। एक छोटा सा उदाहरण अपने इर्द-गिर्द की सफाई का ही ले लीजिये। अगर नगर पालिका के सफाई कर्मचारी काम पर न आयें तो एक ही दिन में शहर नर्क बन जाता है। हमें शहर की छोड़ अपने घर के सामने की भी सफाई की चिन्ता नहीं होती। बिजली और पानी का अगर पैसा न देना हो तो उसे खुले दिल से बर्बाद किया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तो दूर उसे बर्बाद करने या चुराने में हमें महारथ है। इसलिये सार्वजनिक स्थलों पर लगे खम्बे, बैंच, कूड़ेदान, बल्ब आदि लगते ही गायब हो जाते हैं। सीमान्त प्रांतों में तस्करी करना हो या अपने गाँब-कस्बे, शहर में कालाबाजारी, अवैध धन कमाने में हमें फक्र महसूस होता है। पर सार्वजनिक जीवन में हम केवल सरकार को भ्रष्ट बताते हैं। अपने गिरेबाँ में नहीं झाँकते।

देश की उत्पादकता बढ़ती है उसके हर नागरिक की कार्यकुशलता से। पर अफसोस की बात यह है कि हम भारतीय होने का गर्व तो करते हैं, पर देश के प्रति अपने कर्तव्यों से निगाहें चुराते हैं। जितने अधिकार हमें प्रिय हैं, उतने ही कर्तव्य भी प्रिय होने चाहियें। वैसे उत्पादकता का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवा का उत्पादन ही नहीं, बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें हर नागरिक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से करले और उसके मन में संतोष और हर्ष का भाव हो। पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सबके लिये बहुत कुछ उपलब्ध है। पर लालची व्यक्ति के लिये पूरी दुनिया का साम्राज्य भी उसे संतोष नहीं दे सकता। व्यक्ति की उत्पादकता बढ़े, इसके लिये जरूरी है कि हर इंसान को जीने का तरीका सिखाया जाये। कम भौतिक संसाधनों में भी हमारे नागरिक सुखी और स्वस्थ हो सकते हैं। जबकि अरबों रूपये खर्च करके मिली सुविधाओं के बावजूद हमारे महानगरों के नागरिक हमेशा तनाव, असुरक्षा और अवसाद में डूबे रहते हैं। वे दौड़ते हैं उस दौड़ में, जिसमें कभी जीत नहीं पायेंगे। वैसे भी इस देश की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार की रही है। लोगों की माँग पूरी करने के लिये आज भी देश में संसाधनों की कमी नहीं है। पर किसी की हवस पूरी करने के लिये कभी पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। इसलिये रूहानियत या आध्यात्म का, व्यक्ति के तन, मन और जीवन से गहरा नाता है। देश में अन्धविश्वास या बाजारीकरण की जगह अगर आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना होगी तो हम सुखी भी होंगे और सम्पन्न भी।

संत कबीर कह गये हैं ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में, जो सुख पाऊँ राम भजन में वो सुख नाहिं अमीरी में’। बाजार की शक्तियाँ, भारत की इस निहित आध्यात्मिक चेतना को नष्ट करने पर तुली हैं। काल्पनिक माँग का सृजन किया जा रहा है। लुभावने विज्ञापन दिखाकर लोगों को जबरदस्ती बाजार की तरफ खींचा जा रहा है। कहा ये जाता है कि माँग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा तो आर्थिक सम्पन्नता आयेगी। पर हो रहा है उल्टा। जितने लोग हैं, उन्हें पश्चिमी देशों जैसी आर्थिक प्रगति करवाने लायक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और ना ही वैसी प्रगति की जरूरत है। इसलिये अपेक्षा और उपलब्धि में खाई बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि हताशा, अराजकता, हिंसा या आत्महत्यायें बढ़ रही हैं। यह कोई तरक्की का लक्षण नहीं। उत्पादकता बढ़े मगर लोगों के बीच आनन्द और संतोष भी बढ़े, तभी इसकी सार्थकता है।

Sunday, February 5, 2012

अब सूरत बदलनी चाहिए

ट्रायल कोर्ट ने डा. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका निरस्त कर दी। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को बड़ी राहत मिली। पर क्या सर्वोंच्च न्यायालय के फैसले के बाद यूपीए सरकार के दामन से टू जी घोटाले का दाग मिट गया ? इस पर दो मत हैं। विपक्ष सरकार की इस दलील से सहमत नहीं कि इस घोटाले के लिये प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल जिम्मेदार नहीं है। जबकि संचार मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को दोषी नहीं माना। केवल आवंटन की नीति को गलत माना है जो राजग ने बनाई थी और ए राजा के तौर-तरीकों को गलत माना है। इसलिए प्रधानमंत्री की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। श्री सिब्बल का यह भी कहना है कि यह फैसले आने के बावजूद सेंसेक्स गिरने की बजाय बढ़ गया। यानि उद्योग जगत को इस फैसले से कोई झटका नहीं लगा। काँग्रेस ने यह भी दावा किया है कि इस फैसले से गठबन्धन की सरकार में आने वाली दिक्कतों से बचने का रास्ता प्रधानमंत्री के लिये साफ हो गया है। उधर डा. स्वामी चुप बैठने वाले नहीं है। वे उच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगे। वहाँ से भी राहत न मिली तो सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे। इस फैसले से निराश हुई भाजपा अब इसे चुनाव प्रचार में ज्यादा नहीं भुना पायेगी।
पर यहीं मेरा विरोध है। कब तक राजनैतिक दल एक-दूसरे पर इसी तरह भ्रष्टाचार के मामलों में हल्ला बोल कर देश को उलझाये रखेंगे। आज यूपीए पर हमला है, कल एनडीए पर ऐसा ही होगा। गठबन्धन की सरकार में शामिल होने वाले क्षेत्रीय दल जिस तरह मंत्रिमंडल में अपने दल के नेताओं को मंत्री बनावाते हैं और उनके लिये महत्वपूर्ण मंत्रालयों की माँग करते हैं, उससे गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है। ए राजा जैसे मंत्री डा. मनमोहन सिंह के निर्देशों की उपेक्षा करते हैं और करूणानिधि से निर्देश लेते हैं। पर विपक्ष इस भेद को अनदेखा कर सीधा प्रधानमंत्री पर तोप दागता है। जो कि स्वाभाविक है। पर क्या तोप दागने से कुछ हासिल होता है ? क्या भ्रष्टाचार रूकता है ? क्या आरोपियों को सजा मिल पाती है ? बोफोर्स, हवाला घोटाला, स्टाम्प ड्यूटी घोटाला, बैंक घोटाला, चारा घोटाला, तहलका काण्ड जैसे कितने ही घोटाले जोर-शोर से सामने आये। पर अन्त में क्या हुआ ? किसी को सजा नहीं मिली।
राजनीति का मकसद है आम आदमी की सम्पन्नता और खुशहाली बढ़ाना। पहले ‘सकल घरेलू उत्पाद‘ (जीडीपी) की बात होती थी, अब जी एन एच(ग्रास नैचुरल हैप्पीनेस) की बात हो रही है यानि लोगों की खुशहाली बढ़ायी जाये। अब खुशहाली बढ़ाने के लिये सरकार कोई निर्णय लेना चाहती हो और गठबन्धन के सहयोगी दल सहमत न हों  तो सरकार क्या करेगी ? अगर गठबन्धन के सहयोगी दल भ्रष्ट आचरण करें और रोकने पर सरकार गिराने की धमकी दें तो प्रधानमंत्री क्या करे ? आँखें मींचे, जैसा टू जी में हुआ या नैतिकता की दुहाई देकर सरकार गिर जाने दे। अगर ऐसे सरकारें गिरेंगी तो इटली की तरह एक-एक साल में कई-कई प्रधानमंत्री शपथ लेंगे। देश की प्रगति रूक जायेगी। निवेशकों का विश्वास हिल जायेगा। देश में अराजकता बढ़ेगी।
समय आ गया है कि सरकारों के घोटालों से आजिज आ रहे देशवासियों को राहत मिले। सभी दलों और जागरूक लोगों को मिल कर कुछ ठोस फैसले लेने होंगे। जैसे गठबंधन की शर्तें क्या हों ? सहयोगी दलों को ब्लैकमेल करने से कैसे रोका जाये ? सरकारें अपने संसाधनों का आवंटन किस तरह करें कि पारदर्शिता भी बनी रहे और देश को लाभ भी हो ? यानि घोटालों की गुंजाइश खत्म की जाये।
दुख की बात यह है कि घोटाले सामने आने पर शोर तो खूब मचता है। पर इस बात पर कभी सहमति नहीं होती कि घोटालों को रोकने के लिये व्यवस्था को पारदर्शी और जिम्मेदार कैसे बनाया जाये ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्तता देने की बात हो या ठेके, आवंटन और लीज में पारदर्शिता लाने की बात हो। ये सब मामले ऐसे हैं जिन्हें ठोस और क्रान्तिकारी परिवर्तनों के बिना सुलझाया नहीं जा सकता। घोटाले का उबाल उतरते ही मीडिया भी ढीला पड़ जाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि घोटालों के कारणों को दूर करने के काम में भी मीडिया, विशेषकर टी वी मीडिया वैसी ही उत्तेजना और तत्परता दिखाये, जैसी घोटालों के उजागर होने के कुछ दिन बात तक दिखाता है। अगर परिवर्तत के तमाम बिन्दुओं पर गंभीर और लंबी बहसें चलेंगी तो जनता भी शिक्षित होगी और व्यवस्था पर भी दवाब बनेगा। पिछले वर्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध चले लम्बे आन्दोलन के बावजूद समाधान के बिन्दुओं पर कोई गहरी चर्चायें नहीं हुईं। बस एक ही बात उठती रही कि ‘आप लोकपाल के साथ है या खिलाफ‘ नतीजन सब ठंडा पड़ गया। अगर सुधार लाने का यह प्रयास राजनैतिक जमात, न्यायविद्, मीडिया व सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर प्राथमिकता से नहीं करते हैं तो रोज नये घोटाले होते रहेंगे। न तो आरोपियों को सजा मिलेगी और न भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’, जैसी भावना दिवगंत कवि दुष्यंत ने अभिव्यक्त की थी वैसा ही जज्बा आज हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व के मन में उठना चाहिये।