Monday, October 24, 2011

लोकपाल मुद्दे पर खुली बहस की ज़रुरत

टीम अन्ना की सदस्या किरण बेदी पर यात्रा भत्ते में से अवैध रूप से बचत करने का आरोप है। हालांकि यह आरोप मीडिया ने लगाया है, पर माना यही जा रहा है कि राजनेता किरण बेदी को भ्रष्ट सिद्ध करना चाहते हैं। उधर टीम अन्ना का कहना है कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के आरोपी ए.राजा की हीरा चोरी के मुकाबले किरण बेदी की खीरा चोरी नगण्य है। उनकी बात सही है, पर कानून यह फर्क नहीं मानता। दरअसल किरण बेदी सद्इच्छा के बावजूद एक ऐसी लापरवाही कर बैठी हैं, जिसका उन्हें काफी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उन्होंने पिछले वर्षों में अपने भाषणों के आयोजकों से हवाई जहाज की महंगी टिकट का पैसा वसूला मगर यात्रा की सस्ती टिकट पर। जिसमें भी उनको 75 फीसदी की रियायत एयरलाइंस ने इसलिए दी क्योंकि उन्हें ‘गैलेण्ट्री अवार्ड’ से नवाजा गया था। इस तरह उन्हें जो मुनाफा हुआ, उसे श्रीमती बेदी ने अपने निजी खाते में तो नहीं लिया पर अपनी धर्मार्थ संस्था में डाल दिया। जिससे वे जनहित के कार्य कर सकें। उनका कहना है कि इस तरह मैंने कोई अपराध नहीं किया। जबकि कानून के विशेषज्ञ और श्रीमती बेदी के समकालीन पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सरकारी नौकरी में रहते हुए ऐसा काम करने से नौकरी चली जाती लेकिन अभी भी उन्हें सजा मिल सकती है और उनकी पेंशन भी बन्द हो सकती है।
इससे पहले प्रशांत भूषण का विवादास्पद बयान कि यदि वहाँ की जनता चाहे तो कश्मीर को भारत से अलग होने देना चाहिए, या अरविन्द केजरीवाल का सरकार को पैसा लौटाए बिना, शर्त के विरूद्ध नौकरी छोड़ देना, कुछ ऐसे मामले हैं, जिनसे अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेतृत्व की नैतिकता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। टीम अन्ना इससे विचलित नहीं है। उनका कहना है कि सरकार जितनी कीचड़ हम पर उछालेगी, उतनी ही जनता की सहानुभूति हमें मिलेगी। पर दोनों तरह की बातें कही जा रही हैं। भ्रष्टाचार से आजिज जनता चाहती है कि उसे रोजमर्रा की जिन्दगी में भ्रष्टाचार और सरकारी लालफीताशाही का मुँह न देखना पड़े। उन्हें समझा दिया गया है कि लोकपाल बिल पास हो जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमला टीम अन्ना के किसी भी सदस्य पर हो, जनता की निगाह में वह सरकार का भड़ास निकालने का तरीका है।
दूसरी तरफ टीम अन्ना से मोहभंग होने वालों की भी कमी नहीं है। इन लोगों का कहना है कि जब छोटे-छोटे मौकों पर टीम अन्ना का नेतृत्व अपने आर्थिक लाभ के लिए समझौते किए बैठा है और उसे इसकी कोई ग्लानि नहीं है, तो भविष्य में क्या होगा, जब इनकी जैसी मानसिकता के लोग लोकपाल बनेंगे? इसलिए उन्हें लगता है कि टीम अन्ना का आन्दोलन दिशाहीन हो चुका है। अब केवल भावनाऐं भड़काने का और किसी तरह समाचारों में बने रहने का कार्य किया जा रहा है। मेगासेसे पुरूस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह और वरिष्ठ गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता राजगोपाल का टीम अन्ना की कोर समिति से इस्तीफा देना और कर्नाटक के लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े का अरविन्द केजरीवाल के हिसार चुनाव प्रचार में सक्रिय होने से नाराज होना, इस दिशाहीनता के प्रमाण के रूप में देखा जा रहा है। टीम अन्ना के शुभ चिंतकों का मानना है कि जहाँ अरविन्द केजरीवाल इस आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं, वहीं उनकी महत्वाकांक्षा, तानाशाही और आत्मकेन्द्रित रणनीति इस आन्दोलन के पतन का कारण बन रही हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध उत्तर भारत में जनमत तैयार करने का बाबा रामदेव व टीम अन्ना ने बहुत अच्छा काम किया है, जिससे कोई असहमत नहीं होगा। रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ और उसके बाद जिस तरह से संसद की प्रतिक्रिया अन्ना के पक्ष में सामने आई, उससे इस आन्दोलन का लक्ष्य प्राप्त हो गया था। इसके बाद कि प्रक्रिया सांसदों के हाथ में है। जिसके बिना कोई कानून नहीं बन सकता। पर सांसदों को बहस करने और कानून के मसौदे पर विचार करने से पहले ही अगर टीम अन्ना चुनाव के दंगल में उतर पड़ती है, तो उसकी नीयत पर सन्देह होना लाजमी है। जिस तरह की भाषा टीम अन्ना के सदस्य राजनेताओं के विरूद्ध प्रयोग कर रहे हैं, उससे उन्हें सलीम-जावेद के डायलाॅग की तरह जनता में वाह-वाही भले ही मिल रही हो, एक खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है। जो देश में अराजकता की हद तक जा सकती है।
Punjab Kesari 24 Oct 2011
यह सही है कि देश की जनता सरकारी व्यवस्थाओं में जबावदेही और पारदर्शिता चाहती है। इसलिए उसे जहाँ से भी आशा की किरण दिखती है, वहीं लग लेती है। पर ऐसी स्थिति में जन आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। अगर उनमें राजनैतिक परिपक्वता, जन आन्दोलनों का अनुभव और सŸााधीशों की प्रवृतिŸा की समझ नहीं है, तो वे जनता को गड्डे में गिरा सकते हैं। इससे इतनी हताशा फैलेगी कि वर्षों दूसरे जन आन्दोलनों को खड़ा करना आसान न होगा। वैसे भी देश के तमाम अनुभवी वकील, न्यायविद् व सर्वोच्च पदों पर रहने के बावजूद पूरी तरह ईमानदार रहे अधिकारियांे को भी जनलोकपाल विधेयक से सहमति नहीं है। उन्हें लगता है कि यह विधेयक बहुत बचकाना, धरातल की सच्चाई से दूर और शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा है। जिसका कोई परिणाम सामने आने वाला नहीं है। वे इस पूरे मामले पर भिन्न राय रखते हैं। चिन्ता की बात यह है कि न तो टीम अन्ना ने और न ही देश के मीडिया ने ऐसे अनुभवी लोगों की राय जानने की कोशिश की, जिन्होंने सŸाा में रहते हुए भ्रष्टाचार से लड़ाई की और बिना समझौता किए अपना कार्यकाल पूरा किया। इन लोगों का दावा है कि जनलोकपाल बिल न तो भ्रष्टाचार को दूर कर पाएगा और न ही भ्रष्टाचारियों को पकड़ पाएगा। इसलिए पूरे देश में इस मुद्दे पर एक खुली बहस की आवश्यकता है, जिसके बाद ही संसद को कोई निर्णय लेना चाहिए।

Sunday, October 16, 2011

मृग-तृष्णा हैं प्रथक राज्य

Rajasthan Patrika 16 Oct 2011
पृथक तेलांगना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आन्दोलन के कारण आन्ध्र प्रदेश की सरकार ठप्प पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबाद वासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। एक-एक करके हर वर्ग के लोग इस आन्दोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित्य नये धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलांगना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। यह केवल मृग तृष्णा है।

देश में जहाँ-जहाँ पृथक राज्य बने, वहाँ-वहाँ यही नारा दिया गया कि अलग राज्य बन जाने से क्षेत्र का विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। झारखण्ड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि खनिज संपदा से प्रचुर मात्रा में संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊँचाई को पार कर गया है। यहाँ के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। इनके जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि इनके मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैंकड़ों-हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।

मुझे याद है गोरखालैंड का वह आन्दोलन जब वहाँ 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। मैं उसका कवरेज करने वहाँ गया था। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आये दिन दार्जलिंग में बन्द हो रहे थे। बन्द की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आन्दोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुँचा। मेरे चारों ओर एल.एम.जी. का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने श्री घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किक आधार क्या है? उत्तर मिला, ‘‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चैकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की सम्पत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनायेगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गयी। बाद में उसी इलाके में काउंसिल के नेताओं के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।

हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण को देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास सम्भव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि अलग राज्य बनना, मतलब आम जनता की जेब पर डाका डालना। क्योंकि अलग राज्य बनेगा तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाईकोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमण्डल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इस सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर। जिसे झूठे आश्वासनों, लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
 
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनैतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की सम्भावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाऐं तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं। पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था।

जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आन्दोलन चलता है, जैसा आजकल तेलांगना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहाँ की जनता के अनुभव अखबारों और टी.वी. में प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाऐं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था। पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला। उन आन्दोलनों के दौर की खबरों के कोलाज और फिल्में दिखानी चाहिएं ताकि स्थानीय लोग अपने आन्दोलन से उस आन्दोलन की साम्यता देख सके और उन्हें समझ में आ जाए कि यह नाटक बहुत पुराना है। दूसरी तरफ आन्दोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। मीडिया में इतनी ज्यादा प्रतिस्पर्धा है कि किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता। क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।

Sunday, October 9, 2011

चौपट होते पर्यटन स्थल

Rajasthan Patrika 09 Oct 2011
केरल की राजनीति हमेशा चर्चा में रहती है। केरल के लोग जब राष्ट्रीय क्षितिज पर आते हैं, तो भी तरंगें पैदा करते हैं। पर आज बात केरल की राजनीति की नहीं, केरल के समुद्र तट पर उठने वाली तरंगों की करनी है। इन तरंगों की कोई सुध भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय नहीं ले रहा। नतीजतन आय का बहुत बड़ा स्रोत बेकार गंवाया जा रहा है।

हजारों साल से दुनियाभर के लोगों को भारत आकर्षित करता रहा है। तीर्थाटन, व्यापार या पर्यटन के लिए सैलानी दुनिया के हर कोने से भारत आते रहे हैं। उदारीकरण के दौर में जब भारत के झण्डे दुनिया में गढ़ रहे हैं, तो भारत के प्रति उत्सुकता और भी बढ़ रही है। पर ऐसा लगता है कि भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय आज भी बेसुध पड़ा सो रहा है। उसे देश के पर्यटन को बढ़ाने की कोई चिंता नहीं है।

मैं इन दिनों केरल के दौरे पर हूँ। मुझे यह जानकर भारी तकलीफ हुई कि भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय या जहाजरानी मंत्रालय ने आज तक केरल के खूबसूरत समुद्री तट का अन्तर्राष्ट्रीय सैलानियों के लिए रास्ता नहीं खोला है। दुनिया के छोटे-छोटे देशों में पानी के जहाज पर पर्यटकों को ले जाने के लिए क्रूज के अनेको विकल्प प्रस्तुत किए गये हैं, जिनसे इन देशों को अच्छा-खासा मुनाफा हो रहा है। केरल के समुद्र तट पर मुम्बई, गोवा से कोचीन और तिरूवंतपुरम होते हुए कन्याकुमारी जाने तक का समुद्री मार्ग इतना आकर्षक है कि अगर इस पर क्रूज की व्यवस्था की जाती, तो अब तक सैंकड़ों करोड़ रूपये का मुनाफा हो जाता। लोग केरल के तट से लक्षद्वीप या मालद्वीप जैसी जगह तो जाते ही, तट पर ही रूके रहने का भी आनन्द लेते। कोचीन पोर्ट ट्रस्ट पर आकर पता चला कि भारत का अपना कोई भी क्रूज नहीं है। जिससे स्थानीय लोगों में भी भारी आक्रोश है। क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी आमदनी और रोजगार को बढ़ाने वाला यह काम सरकार की अदूरदर्शिता के कारण आज तक नहीं किया गया।

विदेशी ही क्यों, देशी पर्यटक भी कोई कम उत्साही और साधन सम्पन्न नहीं हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत से यूरोप, दक्षिण पूर्वी एशिया, ईजिप्ट और तुर्की व चीन घूमने जाने वाले पर्यटकों की तादाद में पिछले कुछ वर्षों में भारी इजाफा हुआ है। एक उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। स्विट्जरलैंड के पर्यटन स्थल ‘इंटरलाकेन’ में दस वर्ष पहले हिन्दुस्तानी इक्के-दुक्के दिखाई देते थे। आज इस ‘हिल स्टेशन’ पर ऐसा लगता है, मानो यह शिमला हो। क्योंकि हर तरफ हिन्दुस्तानी ही नजर आते हैं। जब भारत के लोग इतना खर्चा करके विदेशों में नये-नये पर्यटन स्थलों की खोज में भटक रहे हैं, तो क्यों नहीं देश के पर्यटन स्थलों को तेजी से विकसित किया जाता? इससे न सिर्फ रोजगार बढ़ेगा, बल्कि देश का पैसा, विदेश जाने से रूकेगा और विदेशी पर्यटकों के आने से आमदनी भी बढ़ेगी। जितनी विविधता भारत में है, उतनी दुनिया के दो-चार देशों में ही है। एक तरफ कश्मीर के बर्फ से ढके पहाड़, दूसरी तरफ तट से टक्करें मारतीं समुद्री लहरें; पश्चिम में रेगिस्तान की खूबसूरत संस्कृति और पूर्वोत्तर भारत में जनजातीय संस्कृति के अनूठे नमूने किसी भी पर्यटक को विभोर करने में सक्षम हैं। पर पर्यटन की दृष्टि से हमारे यहाँ आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी है। जो कुछ अच्छा है, उसे निजी क्षेत्र ने विकसित किया है। स्थानीय नगरपालिकाऐं व प्रांतीय सरकारें अपने पर्यटन स्थलों को चैपट करने में कसर नहीं छोड़ते। राजनैतिक दखलअंदाजी के चलते, इन पर्यटन स्थलों पर अवैध निर्माण, प्रकृति से खिलवाड़, कूड़े के अम्बार, यात्री सुरक्षा की नाकाफी सुविधाऐं, कुछ ऐसे कारण हैं जो भारी मात्रा में पर्यटकों को हमारे देश की ओर आकर्षित नहीं कर पाते।

एक समग्र दृष्टि की जरूरत है। ऐसी पहल हो कि क्षेत्रीय प्रशासन से केन्द्रीय सरकार तक, निजी क्षेत्र से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र तक के लोग मिल-बैठकर भारत के पर्यटन स्थलों को समयबद्ध कार्यक्रम के तहत विकसित करने की योजनाऐं बनाऐं और उन्हें समय से पूरा करें, तो भारत की अर्थव्यवस्था में काफी लाभ हो सकता है।

मेरा खुद का अनुभव इस विषय में बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा से लगे ‘ब्रज क्षेत्र’ को सुन्दर स्वरूप देने के लिए मैं स्वंयसेवी स्तर पर गत् 7 वर्षों से सक्रिय हूँ। पर व्यवस्था का सहयोग इतना धीमा और थका देने वाला होता है कि कभी-कभी लगता है कि हमारे पर्यटन क्षेत्र विकसित होने से पहले ही अनियोजित विस्तार के कारण कूड़े के ढेर में बदल जाऐंगे। जैसा आज हो रहा है। इस तरह हम न सिर्फ वर्तमान को नष्ट कर रहे हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ी को भी निराश कर रहे हैं।

Monday, October 3, 2011

जापान में नाभिकीय ऊर्जा को ‘सायोनारा’ ?

Punjab Kesari 03Oct 2011
जापान ने सुनामी की जो त्रासदी भोगी, उसका सबसे खतरनाक पहलू था, फूकुशिमा, दाई-ईची ‘न्यूक्लीयर पॉवर प्लांट’ का आपे से बाहर होना। इसकी गरमी से सुरक्षा कवच फट गए और नाभिकीय विकिरण ने दूर-दूर तक के इलाके खाली करवाने पर प्रशासन को मजबूर कर दिया। आज तक 86 हजार लोग बेघर शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं और उन्हें पता नहीं हैं कि वे अपने घर कभी लौट पाऐंगे भी कि नहीं। क्योंकि नाभिकीय विकिरण का असर अभी खत्म नहीं हुआ है। उधर ये पाॅवर प्लांट भी अभी तक पूरी तरह स्थिर नहीं हो पाया है। यानि खतरा बना हुआ है।

पिछले दिनों जापान ने 51 साल में पहली बार एक विशाल जन प्रदर्शन देखा। 60 हजार लोग नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। ये लोग नाभिकीय ऊर्जा का विरोध कर रहे थे। इनकी मांग थी कि इस ऊर्जा का प्रयोग यथाशीघ्र बन्द किया जाए। ताकि भविष्य में फिर नाभिकीय विकिरण का खतरा न झेलना पड़े। उल्लेखनीय है कि जापान ही दुनिया का वह अकेला देश है जिसने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अपने शहर हिरोशिमा व नागासाकी में परमाणु बम के भयावह असर को झेला था। इसलिए उसके नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर यह भी सही है कि 1960 से आज तक जापान में कोई जनप्रदर्शन नहीं हुआ। एक तो जापानी स्वभाव से ही शांतिप्रिय और मध्यमार्गीय हैं, दूसरे वे भारी देशभक्त और अपने कार्य के प्रति निष्ठावान हैं। इसलिए वे कभी हड़ताल या जनप्रदर्शन कर अपना समय और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाते। नाभिकीय ऊर्जा के विरूद्ध हुए इस प्रदर्शन में 60 हजार प्रदर्शनकारियों ने एक ही गन्तव्य पर जाने के लिए तीन मार्ग पकड़े। ताकि यातायात को असुविधा न हो। पूरा प्रदर्शन संगीतमय और बैनरों को लिए हुए था। कहीं तोड़-फोड़, गुण्डागर्दी या सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने की रिपोर्ट नहीं मिली। प्रदर्शन भी पूरे अनुशासन के साथ किया गया। इससे भारत के लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए।

ऐसा नहीं कि सारा जापान नाभिकीय ऊर्जा को फौरन तिलांजली देना चाहता है। ऐसे लोग बहुत कम हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर एकदम से नाभिकीय ऊर्जा संयत्र बन्द कर दिए जाऐं, तो जापान में बिजली का भारी संकट पैदा हो जाएगा। इसलिए वे क्रमशः इन संयत्रों को बन्द करने के पक्ष में हैं। इसका एक कारण यह भी है कि मित्सुबिसी, तोशिबा जैसी ऊर्जा उत्पादक कम्पनीयाँ लाखों लोगों को रोजगार देती हैं। अगर इन कम्पनियों के वि़द्युत उत्पादन संयत्र बन्द कर दिए गए तो भारी बेरोजगारी फैल जाएगी। इसलिए प्रदर्शनकारी परमाणु ऊर्जा के विरोध में होते हुए भी उसे एकदम नकारने के पक्षधर नहीं हैं। वे ये चाहते हैं कि सरकार तेजी से वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को विकसित करे। दरअसल 1960 के पहले जापान में जो वामपंथी ट्रेड यूनियन वगैरह थीं, वे सब आपसी झगड़ों और सरकारी दबाव में लगभग मृत प्रायः हो चुकी हैं और अब जो ट्रैड यूनियन हैं उनके सदस्य मूलतः इन्हीं विद्युत कम्पनियों के मुलाजिम हैं। इसलिए भी वे ज्यादा आक्रामक रवैया नहीं अपनाते। वैसे भी जापान के प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि सन् 2048 से पहले इन संयत्रों को बन्द करना संभव नहीं होगा।

पर इन सब घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि जापान जैसे विकसित देश की पढ़ी-लिखी और समझदार जनता नाभिकीय ऊर्जा के पक्ष में नहीं है। यह अनुभव भारत के लिए सबक सीखने का होना चाहिए। हाल ही में आये भूचाल ने जो तबाही सिक्किम राज्य में मचाई है, उसके बाद कई भू-गर्भ वैज्ञानिक उत्तर भारत में भारी भंूकम्प की संभावनाओं को लेकर काफी चिंतित हैं। उन्हें डर है कि उत्तर भारत की पोली मिट्टी, गगनचुंबी इमारतों को तो लील ही जाएगी, साथ ही नरौरा जैसे परमाणु संयत्र भी खतरे से अछूते नहीं रहेंगे। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण और जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य की चिंता करने वाले देश के सामाजिक कार्यकर्ता भारत सरकार की परमाणु नीति का लगातार विरोध करते आये हैं। उन्हें लगता है कि भारत सरकार, चाहें वह किसी भी दल की क्यों न हो, नाभिकीय ऊर्जा के मामले में देश का हित नहीं कर रही।

अमरीका से परमाणु ईधन संधि पर संसद में हुई बहस में वामपंथी दलों के अलावा भी बहुत से दलों ने सरकार का विरोध किया था। वामपंथी दलों ने तो सरकार का दामन ही छोड़ दिया। परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर सरकार अल्पमत में आ गई थी और उस पर आरोप है कि उसने अपनी गद्दी बचाने के लिए लम्बी-चैड़ी खरीद-फरोख्त की। जिसकी एक कड़ी अमर सिंह और दूसरी कड़ी सुधीन्द्र कुलकर्णी थे, जो फिलहाल तिहाड़ जेल में बन्द हैं। फिर भी सरकार के समान, इस मुद्दे पर विचार रखने वाले राजनैतिक दल गंभीरता से सोच नहीं रहे हैं। यह आत्मघाती स्थिति है।

Sunday, September 18, 2011

अन्ना हजारे फिर महात्मा गाँधी के खिलाफ बोले

Rajasthan Patrika 18 Sep
दिल्ली के रामलीला में जितने दिन अन्ना हजारे का अनशन चला, उतने दिन मंच पर उनके पीछे महात्मा गाँधी का एक बड़ा भारी फोटो लगा रहा। हजारे जी के मीडिया मैनेजरों ने उन्हें दूसरा महात्मा गाँधी बताकर खूब प्रचारित किया। नारे भी लगाए गए कि ‘अन्ना नहीं आंधी है, दूसरा महात्मा गाँधी है।’ टीम अन्ना का उत्साह इस कदर बढ़ गया कि देश में कई जगह उन्होंने महात्मा गाँधी की मूर्ति पर ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी भी पहना दी। कुल मिलाकर बात यह थी कि किसी तरह अन्ना हजारे को महात्मा गाँधी के बराबर खड़ा कर दिया जाए। पर हजारे जी की बातों को देखें तो असलियत कुछ और ही बयान कर रही है।

हजारे जी महात्मा गाँधी की शिक्षाओं और आचरण के विपरीत बोल रहे हैं। जिसका उन्हें पूरा हक है। पर फिर कम से कम गाँधी के समकक्ष उन्हें न रखा जाए। ताजा उदाहरण हजारे जी का वह बयान है, जो उन्होंने अपने गाँव रालेगण सिद्धि से जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। सुनने में यह बड़ा दमदार लगता है। पर क्या यह गाँधी की भाषा है? गाँधी जी जोर देकर बार-बार कहते थे कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’

अब हम हजारे जी के उस वक्तव्य का विश्लेषण करें, जो वे देश की अबोध और कुछ भावुक जनता को खुश करने के लिए बार-बार दे रहे हैं कि, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।’ जाहिर है कि यह महात्मा गाँधी के सिद्धांत और शिक्षाओं के विपरीत है। रही बात फाँसी के प्रभाव की, तो इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि तानाशाहों के राज्यों में, मसलन फ्रांस में, जब जेबकतरों को सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी जाती थी, तो वहाँ खड़ी भीड़ में दर्जनों जेबें कट रही होती थीं। इसलिए अपराध शास्त्र में फांसी की सजा को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। अदालत भी जब फांसी की सजा सुनाती है, तो केवल उन्हीं मामलों में, जहाँ यह महसूस करती है कि अपराधी ने इतना निकृष्ट अपराध किया है कि उसका जीना समाज के लिए अभिशाप बन सकता है। ऐसा दुर्लभ मामलों में भी दुर्लभतम मामलों में किया जाता है। पूरी दुनिया के सभी देशों में, जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं हैं, फांसी की सजा कई वर्षों में एकाध-बार दी जाती है। हजारे जी ऐसी अव्यवहारिक, भड़काऊ और गैर गाँधीवादी बात कहकर आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

आजादी की लड़ाई के दौरान जब देश के बड़े-बड़े नेता बार-बार वर्षों तक जेलों में रहे, तो उन्होंने जेल की अन्दर की दशा को देखा। कैदियों के मनोविज्ञान को समझा और इसलिए आजादी के बाद वर्षों तक सभी राजनेता अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जेल सुधार की बात करते रहे। अपराध शास्त्री सुधीर जैन बताते हैं कि आजादी से पहले अंगे्रजी हुकूमत का सोचना था कि किसी अपराधी को तीन उद्देश्यों से सजा दी जाए। (1) प्रतिशोध - उसने समाज के विरूद्ध जो अपराध किया है, उसका बदला उससे लिया जाए। (2) प्रतिरोध - उसे भविष्य में यह अपराध करने से रोका जाए। प्रतिरोध के भी दो भाग थे। एक था-वैयक्तिक प्रतिरोध और दूसरा-सामान्य प्रतिरोध। वैयक्तिक प्रतिरोध का मतलब था कि वह अपराधी दुबारा ऐसा जुर्म करने की हिम्मत न करे और सामान्य प्रतिरोध था कि उसकी सजा देखकर दूसरे डर जाएं और सबक सीखें। (3) प्रायश्चित - उसे कारागार में डालकर ऐसे हालात में रखा जाए कि वह बार-बार अपने अपराध का चिंतन करे और उसके मन में पश्चाताप पैदा हो।

आजादी के बाद इस सोच में बदलाव आया और जेल सुधार के कार्यक्रम में दो आयाम और जोड़े गए। एक था अपराधी का सुधार करना और दूसरा था उनका पुर्नवास करना। पहले के तहत अपराधी को अनेक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक उपायों से सुधरने और बेहतर इन्सान बनने का मौका देना। अपराधी सुधार का यह आयाम महात्मा गाँधी के उन्हीं विचारों से प्रेरित था कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ पुर्नवास के तहत अपराधी को समाज में फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि एक बार जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लग जाता है, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए ऐसे कार्यक्रम बनाए गए और ऐसी प्रचार सामग्री तैयार की गई, जिससे समाज की सोच को बदला जा सके। इसी प्रयास का परिणाम था कि जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चंबल के दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तो दस्युओं को ससम्मान समाज में पुनर्वासित किया गया। हालांकि ये दस्यु भ्रष्टाचार से भी कई गुना जघन्य हत्या और लूट जैसे बर्बर अपराधों में शामिल रहे थे, फिर भी इन्हें इनके प्रायश्चित का सम्मान करते हुए यथोचित सत्कार के साथ न सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बल्कि शासन व्यवस्था ने भी इनके पुर्नवास में तत्परता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि चंबल के क्षेत्र से दस्युओं का आतंक कमोबेश समाप्त हुआ और यह पूर्व दस्यु अपने रूतबे के कारण अपने ग्रामीण समाजों में अपराध रोकने और विवाद निपटाने में प्रमुख भूमिका निभाने लायक हुए। मुझे याद है, जब मेरे एक मित्र ठाकुर मुकुट सिंह जो इंग्लैंड से पढ़कर लौटे और अपने गाँव में ग्रामीण विकास के स्वंयसेवी कार्य में जुट गए थे, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने पुत्र की बारात लेकर चंबल गए और एक दस्यु परिवार की कन्या से उसका विवाह किया। अपराधियों के पुर्नवास का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है?

हम पहले भी लिख चुके हैं कि राजघाट पर जब हजारे जी 8 जून को एक दिन के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे, तो जिस तरह का नाच-गाना वहाँ हुआ और जैसा मजमा जुड़ा, उससे महात्मा गाँधी की समाधि की गरिमा कम हुई। माहौल ऐसा था, जैसे आई.पी.एल. का क्रिकेट मैच हो रहा हो और दर्शक मजा ले रहे हों।

रामलीला मैदान से भी अन्ना और टीम अन्ना के जो तेवर थे, उनमें दूर-दूर तक कहीं भी गाँधीवाद दिखाई नहीं दे रहा था। जिस तरह की भाषा वहाँ प्रयोग की गई, उसे सुनकर यही लगा कि अन्ना गाँधी कम शिवाजी ज्यादा लग रहे थे। इसका उल्लेख हमने इसी काॅलम में उस सप्ताह किया था।

कड़ी सजा तो भ्रष्टाचारियों को मिलनी ही चाहिए, परन्तु फांसी की बात से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं। उसी तरह जैसे ‘जनलोकपाल’ कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है।

Sunday, September 11, 2011

प्रियंका गाँधी का राजनैतिक भविष्य


Rajasthan Patrika 11 Sep

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक और रथयात्रा शुरू करने का ऐलान कर चुके हैं। वे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के प्रयासों से बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल को भुनाने की फिराक में हैं। उधर दिल्ली की राजनीति के गलियारों में इंका के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। श्रीमती सोनिया गाँधी का अस्वस्थ होना, पार्टी को भारी पड़ा है। इन लोगों का मानना है कि अन्ना के अनशन से उपजी स्थिति का सही इस्तेमाल करने में राहुल गाँधी असफल रहे हैं। राहुल गाँधी का मंत्री मण्डल में शामिल न होने के भी दो अलग मायने लगाये जा रहे हैं। कुछ मानते हैं कि राहुल उत्तर प्रदेश में सफल हुए बिना सत्ता का हिस्सा नहीं बनना चाहते। वे बनेंगे तो सीधे प्रधानमंत्री या फिर संगठन के लिए काम करते रहेंगे। दूसरा पक्ष मानता है कि राहुल में आत्मविश्वास की कमी है। शायद उन्हें लगता है कि मंत्री बनकर वे ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पायेंगे, जिससे उनका जनाधार बढ़े और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी मजबूत हो। इंका से बाहर के दलों में और राजनैतिक विश्लेषकों में यह बात काफी समय से चल रही है कि राहुल गाँधी का व्यक्तित्व, जमीन की समझ और आम लोगों के बारे में अनुभव इस स्तर का नहीं कि वे देश को नेतृत्व दे सकें। अभी उन्हें बहुत सीखना है, खासकर राजनीति के मामलों में। ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी प्रचारित करके इंका को बहुत लाभ नहीं मिलने वाला है। 

Punjab Kesari 12 Sep
इन परिस्थितियों में इंका के बड़े नेता भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी का व्यक्तित्व, समझ और लोगों पर प्रभाव राहुल गाँधी से कहीं ज्यादा अच्छा पड़ता है। पर खुलकर कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। दबी जुबान से ही काफी नेता यही चर्चा करते हैं। जहाँ तक प्रियंका का सवाल है, उन्होंने अपनी सीमित प्रेस मुलाकातों में बार-बार यही दोहराया है कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहतीं। अपने भाई व माँ की मदद भर करना चाहती हैं। पर इंका के रणनीतिकार, जो आज कई खेमों में बंटे हैं, दावा करते हैं कि अगले चुनाव से पहले प्रियंका गाँधी को सामने लाना पार्टी की मजबूरी होगा। क्योंकि सरकार के विरूद्ध आज बने माहौल में प्रियंका का ही व्यक्तित्व ऐसा है जो आम जनता को आकर्षित कर सकता है। 

उधर प्रियंका गाँधी को निजी तौर पर जानने वालों का दावा है कि वे अपने परिवार और छोटे बच्चों के साथ ही समय बिताना चाहती है। राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहतीं। अगर यह सच है तो भी प्रियंका के राजनीति में पदार्पण की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। उल्लेखनीय है कि जब राजीव गाँधी हवाई जहाज उड़ाते थे और 7 रेसकोर्स पर अपनी मम्मी के सरकारी आवास में सपरिवार रहते थे, तब यह चर्चा देश में बार-बार उठी कि राजीव गाँधी राजनीति में नहीं आना चाहते। इसलिए संजय गाँधी को सामने आना पड़ा। पर अन्त में अपने भाई की आकस्मिक मृत्यु व  माँ की हत्या के बाद उन्हें बे-मन से ही सही, राज-काज संभालना पड़ा। ठीक इसी तरह प्रियंका गाँधी कितना भी ना-नुकुर कर लें, अगर इंका के कार्यकर्ताओं ने और चुनाव के समय की देश की परिस्थिति ने उन्हें ऐसा मौका दिया तो वे शायद पीछे नहीं हटेंगी। 

Hind Samachar 12 Sep 11
इसमें एक ही अड़चन है। गत् गई महीनों से भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने देशभर में करोड़ो एस.एम.एस. भेज-भेजकर इंका और उसके नेतृत्व के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चला रखा है। जिसमें नेहरू परिवार के प्रति काफी विष-वमन किया जा रहा है। तमाम तरह के आरोपों के एस.एम.एस. ये लोग दिनभर भेजते रहते हैं। यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की बीमारी पर भी इनके एस.एम.एस. ये सन्देश दे रहे थे कि वे इलाज कराने नहीं, अपनी अकूत दौलत को ठिकाने लगाने गईं हैं। इसी क्रम में इन एस.एम.एस. के माध्यम से प्रियंका गाँधी के पति रॉबर्ट वढेरा पर अनेक घोटालों में लिप्त होने के भी आरोप लगातार लगाये जा रहे हैं। इन सब आरोपों का आधार है या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, पर इतना स्पष्ट है कि इनका मकसद प्रियंका गाँधी के राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना है। सच्चाई क्या है, प्रियंका गाँधी बेहतर जानती होंगी। अगर वे मन के किसी कोने में भी दबी हुई राजनैतिक महत्वकांक्षा पाले हुए हैं, तो वे इस सम्भावित परिस्थिति के प्रति सचेत होंगी। 

राहुल गाँधी हों या प्रियंका गाँधी, इंका सत्ता में हो या विपक्ष में, पर मूलभूत सवाल यह है कि इन दोनों की समझ देश की बुनियादी समस्याओं के बारे में कितनी गहरी है? जिस तरह की अपेक्षा और आक्रोश देश की आम जनता में अब पैदा हो चुका है, उनकी मांगे ढेर सारी होंगी और वे किसी भी छलावे में आने को तैयार नहीं होंगे। 122 करोड़ लोगों की महत्वकांक्षा को पश्चिमी विकास मॉडल से पूरा नहीं किया जा सकता। उनकी उपभोक्तावादी संस्कृति ने दुनिया का औपनिवेशिक शोषण कर, अपने देशों को बनाया। नव उपनिवेशवाद के दौर में बिना गुलाम बनाए भी दुनिया के देशों का जमकर आर्थिक दोहन किया। जिससे उनके देशों की प्रजा भोग-विलास का जीवन जी सकें। जबकि भारत के अधीन ऐसा कोई उपननिवेश नहीं है जो भारत की बढ़ती मांगों की तेजी से पूर्ति कर सके। ऐसे में अमीर गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। बढ़ रहा है आक्रोश और हिंसा और लोगों की अधीरता। जिसे पूरा करने के लिए विकास का देशी गाँधीवादी मॉडल ही फिर से अपनाना होगा। कागजों पर नहीं, जमीन पर। क्या प्रियंका गाँधी ने इस बारे में कोई अध्ययन, कोई यात्रा या कोई अन्य प्रयास किया है? जिससे उनकी समझ इन मुद्दों पर विकसित हो सके। अगर किया है तो उन्हें जनता के बीच विकास का नया मॉडल लेकर जाने में कोई संकोच नहीं होगा। तब जनता उनसे जुड़ा हुआ अनुभव करेगी। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें और समाज को दिक्कत आएगी। पर यह स्पष्ट है कि प्रियंका गाँधी अपने भाई के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द करके सत्ता पर काबिज नहीं होना चाहेंगी। जो कुछ नेहरू-गाँधी परिवार करेगा, सामूहिक सोच और समन्वय के साथ करेगा।

Sunday, September 4, 2011

जनक्रांति या मीडिया क्रांति


Rajasthan Patrika 4Sep2011
विश्वविख्यात लेखिका अरूंधति राय ने टीम अन्ना के आन्दोलन पर जो आक्रामक लेख लिखा है, उसके समर्थन में देशभर से लाखों ईमेल आये हैं। उल्लेखनीय है कि अरूंधती राय आज तक टीम अन्ना वाली सिविल सोसाईटी की ही सदस्या रही हैं। इस आन्दोलन के तौर-तरीकों और जनलोकपाल बिल के खिलाफ उनका इतना तीखा हमला करना, टीम अन्ना पचा नहीं पा रही है। उधर पूरे देश में यह चर्चा चल पड़ी है कि यह अन्ना की जनक्रांति थी या मीडिया की बनायी हुई क्रांति?

पिछले सप्ताह दिल्ली के ‘इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर’ में इस विषय पर तीखी बहस हुई। आठ वक्ताओं में से उन टी.वी. चैनलों के प्रमुख लोग थे जिन्होंने टीम अन्ना के समर्थन में रात-दिन एक कर दिया। इसके साथ ही अन्य वक्ताओं में प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, अरूणा रॉय और मैं स्वंय शामिल थे। श्रोताओं में पाँच सौ से अधिक पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र थे। वहाँ प्रशांत भूषण और टी.वी. चैनलों के मुखियाओं ने यह बात रखी कि जनलोकपाल बिल के समर्थन में यह आन्दोलन पूरी तरह से आत्मप्रेरित था और मीडिया ने उसमें केवल दृष्टा की ही भूमिका निभायी। उन्होंने यह भी दावा किया कि यह आन्दोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से बड़ा था और इसमें उस आन्दोलन की तरह राजनेताओं का कोई समर्थन नहीं था तथा मीडिया ने पूरी तटस्थता बरती। पर इसे सुनकर श्रोता आक्रामक हो गये। उन्होंने जे.पी. आन्दोलन को बिना संचार माध्यमों व राजनेताओं की मदद से हुआ कहीं बड़ा आन्दोलन बताया।

 
यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतने प्रबुद्ध श्रोताओं में से आधे से अधिक, टीम अन्ना के भारी विरोध में खड़े थे। उनके तेवर इतने हमलावर थे कि आयोजकों को उन्हें संभालना भारी पड़ रहा था। इससे यह संकेत साफ मिला कि टीम अन्ना जो यह दावा कर रही है कि देश के 122 करोड़ लोग उसके साथ हैं, वह सही नहीं है। वक्ताओं और लोगों का आरोप था कि मीडिया ने कृत्रिम रूप से आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाया। ‘टी.वी. एंकरपर्सन’ रिपोर्टर की भूमिका में कम और ‘एक्टिविस्ट’ की भूमिका ज्यादा निभा रहे थे। स्टूडियो में होने वाली वार्ताओं में टीम अन्ना के समर्थकों को सबकुछ बोलने की छूट थी और उनके विरोध के स्वर उठने नहीं दिए जाते थे।

एक प्रश्न यह भी पूछा गया कि जो टी.वी. चैनल गंभीर से गंभीर टॉक शो में हर दस मिनट बाद कॉमर्शियल ब्रेक लेते हैं, उन्होंने इस आन्दोलन के दौरान बिना कॉमर्शियल ब्रेक लिए कवरेज कैसे किया? यह कैसे सम्भव हुआ कि ओम पुरी का भाषण हो, किरण बेदी का मंच पर नाटक हो या प्रशांत भूषण की प्रेस कॉन्फरेंस हो, सब बिना किसी अवरोध के घण्टों सीधे प्रसारित होते रहे? इस दौरान इन टी.वी. चैनलों को विज्ञापन न दिखाने की एवज में जो सैंकड़ों करोड़ की राजस्व हानि हुई, उसकी इन्होंने कैसे भरपाई की? क्या किसी ने यह धन इन्हें पेशगी में दे दिया था? जैसे अक्सर लोग अपने कार्यक्रमों को कवर कराने के लिए टी.वी. चैनलों से ‘एयर टाइम’ खरीदते हैं या यह माना जाए कि इस आन्दोलन का धुंआधार कवरेज करने वालों ने इतना मुनाफा कमा लिया कि उन्होंने भ्रष्टाचार के इस मुद्दे पर अपने मोटे घाटे की भी परवाह नहीं की? अगर यह सही है तो क्या यह माना जाए कि भविष्य में जब ऐसे दूसरे मुद्दे उठेंगे, तब भी ये टी.वी. चैनल अपने व्यवसायिक हितों को ताक पर रखकर इसी तरह, बिना कॉमर्शियल ब्रेक के, लगातार प्रसारण करेंगे? वक्ताओं ने एक चेतावनी यह भी दी कि अगर भविष्य में इन टी.वी. चैनलों ने, पहाड़, जमीन, जल, नदी, खनन आदि से जुड़े मुद्दों पर जनआन्दोलनों के संघर्षशील लोगों के साथ ऐसी ही उदारता न बरती, जैसी टीम अन्ना के साथ दिखाई दी, तो वे आन्दोलनकारी आक्रामक होकर टी.वी. संवाददाताओं के साथ हिंसक भी हो सकते हैं और उनके कैमरे आदि भी तोड़ सकते हैं। क्योंकि उनकी अपेक्षाऐं अब टी.वी. मीडिया से काफी बढ़ चुकी हैं।

अब जबकि टी.वी. मीडिया ने ‘प्रो-एक्टिव’ होकर, सामाजिक सारोकार को टी.आर.पी. बढ़ाने का जरिया मान लिया है, तो यह माना जाना चाहिए कि भविष्य में पाँच सितारा जिन्दगी, उपभोक्तावाद, भौंडे और अश्लील नृत्य या काॅमेडी शो जैसे कार्यक्रमों पर जोर न देकर ये टी.वी. चैनल समाज और आम आदमी से जुड़े मुद्दों को ही प्राथमिकता देंगे और उसके लिए अपने व्यवसायिक लाभ को भी छोड़ देंगे। अगर ऐसा होता है तो वास्तव में यह मानना पड़ेगा कि भारत में क्रांति की शुरूआत हो गयी है। जैसा कि ये टी.वी. चैनल पिछले कुछ हफ्तों से दावा कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो देशवासियों के मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि केवल टीम अन्ना के लिए ही कुछ टी.वी. चैनलों ने इतना उत्साह क्यों दिखाया? इसके पीछे क्या राज है, इसे जानने और खोजने की उत्सुकता बढ़ेगी।

उधर देश में भ्रष्टाचार के प्रति जो आक्रोश था, उसे संगठित करने का अभूतपूर्व कार्य बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने किया है। पर इस जागृति से उत्पन्न ऊर्जा को स्वार्थी तत्व, अपने राजनैतिक लाभ के लिए उपयोग न कर सकें, इसके लिए देशवासियों को सचेत रहना होगा। वरना आशा को हताशा में बदलने में देर नहीं लगेगी और वह अच्छी स्थिति नहीं होगी।