Sunday, May 1, 2011

लोकपाल विधेयक ही काफी नहीं

  भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तFkk¡el की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि Fkk¡मस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थामस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो Fkk¡मस को जाना पड़ेगा।
वही प्रशांत भूषण, Fkk¡मस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट vk¡फ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।
 
समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।
 
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।
 
प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।
 
इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।
 
अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।
 
प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।
 
इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।

Tuesday, April 26, 2011

अन्ना बदनाम हो रहे हैं भूषण के लिए!

Punjab Kesari 25April2011
भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि ‘मुख्य सतर्कता आयुक्त’ पी.जे. थॉमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण ‘संदेह से परे’ होना चाहिए। अलबत्ता प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थॉमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ उनकी याचिका के सहयाचिकाकर्ता भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थॉमस के सच्चरित्र होने का वक्तव्य जारी किया था। यानि सच्चरित्र होने पर भी यदि जनता को संदेह है तो उस व्यक्ति को पद पर नहीं रहना चाहिए। ऐसा आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने इस केस में दिया। जिसके बाद थॉमस को जाना पड़ा।

वही प्रशांत भूषण थॉमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल और संतोष हेगडे़ इससे सहमत हैं। बेदी का तो एक टी.वी. चैनल पर कहना था कि भूषण बंधु अगर भ्रष्ट भी हैं तो हम केवल उनकी कानून में दक्षता का लाभ ले रहे हैं। इसी तरह की बात एक राष्ट्रीय अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कही। मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो और जो अतीत में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े गये युद्धों में निहित स्वार्थों के कारण रोड़े अटकाता रहा हो, ऐसे व्यक्ति से पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। ज़ाहिर है इस पूरी प्रक्रिया में किसी दूरगामी षडयंत्र की गन्ध आती है। जिसका खुलासा आने वाले दिनों में हो जायेगा। समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढ़िया और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। वैसे इस विधेयक को तैयार करने के लिए न्यायविदों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अपराध विज्ञान के विशेषज्ञों की होगी। जो भ्रष्टाचार की मानसिकता को समझते हैं और उससे निपटने के लिए कानून बना सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी व जे.एस.वर्मा की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।

समिति के सदस्य विरोध कर रहे हैं कि जो हो रहा है उसे रोकने की कोशिश की जा रही है। पर लोग जानना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों पर आघात करने की इस समिति की क्या योजना है? तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान लागू करना चाहती है, लेकिन यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो थोड़ी रिश्वत देकर बड़ा मुनाफा कमाते हैं। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने का लोकपाल विधेयक में क्या प्रावधान है? इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। क्या समिति इस पर विचार करेगी? सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है।

अन्ना हज़ारे के आन्दोलन की सबसे अच्छी बात यह है कि इससे शहरी युवा जुड़ गया है। जिसके लिए अरविन्द केजरीवाल की मेहनत को बधाई देनी चाहिए। पर साथ ही यह बात समझ में नहीं आती कि केजरीवाल और उनके बाकी साथी भूषण पिता-पुत्र के अनैतिक आचरण को क्यों अनदेखा कर रहे हैं? लोकपाल विधेयक तो अभी बनेगा। फिर लोकपाल चुना जायेगा। फिर वो जाँच करेगा। फिर कुछ नेता और अफसर पकड़े जायेंगे। यानि इस प्रक्रिया को पूरा होने में कम से कम दो साल तो लगेंगे ही। 2013 में जाकर कहीं परिणाम आयेगा, अगर आया तो? पर यह काम तो 20 साल पहले 1993 में ही मैंने कर दिया था। देश के 115 बड़े राजनेताओं, केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, विपक्ष के नेताओं व बड़े अफसरों को, बिना लोकपाल के ही, ‘जैन हवाला काण्ड’ में भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वा दिया था। सबको जमानतें लेनी पड़ी थीं। भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। फिर इस सफलता को विफलता में बदलने का काम प्रशांत भूषण-शांति भूषण, उनके गुरू रामजेठमलानी और उनकी मण्डली के साथी जस्टिस जे.एस.वर्मा ने क्यों किया? मुझे डर है कि जिस तरह उन्होंने ‘हवाला केस’ में घुसपैठ कर उसे पटरी से उतार दिया, उसी तरह ये लोकपाल बिल के आन्दोलन को भी अपने निहित स्वार्थों के लिए कभी भी पटरी से उतार सकते हैं और तब अन्ना हजारे जैसे लोग ठगे से खड़े रह जायेंगे। पर कान के कच्चे अन्ना हजारे को भी यह बात समझ में नहीं आ रही। वे बिना तथ्य जाने ही बयान देते जा रहे हैं या उनसे दिलवाये जा रहे हैं। ऐसे में लोकपाल विधेयक समिति कितनी ईमानदारी से काम कर पायेगी, कहा नहीं जा सकता? फिर इस विधेयक से देश का भ्रष्टाचार दूर हो जायेगा, ऐसी गारण्टी तो इस समिति के सदस्य भी नहीं ले रहे। फिर भी धरने के दौरान टी.वी. चैनलों पर इन्होंने जोर-जोर से यह घोषणा की कि, ‘यह आजादी की दूसरी लड़ाई है और यह विधेयक पारित होते ही भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जायेगा।’ ऐसा हो, तो हम सबके लिए बहुत शुभ होगा। पर ऐसा होगा इसके प्रति देश के गम्भीर लोगों में बहुत संशय है। उनका कहना है कि जब इस विधेयक को बनाने वाले कुछ सदस्य ही दागदार हैं तो वे देश के दाग कैसे मिटायेंगे?

Sunday, April 17, 2011

जनलोकपाल विधेयक की सीमाऐं

Rajasthan Patrika 17 Apr 2011
जनलोकपाल विधेयक को तैयार करने वाली समिति की बैठकें होना शुरू हो गयीं हैं। साथ ही इस समिति के सदस्यों और उनके विचारों पर कई ओर से सवाल खड़े किए जा रहे हैं। जहाँ आन्दोलनकारी इस विधेयक को पारित कराने के लिए दृढ़ संकल्प लिये हुए हैं, वहीं राजनैतिक माहौल इसके विरूद्ध बन रहा है। हमें इन दोनों ही पक्षों का निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिए। 

जहाँ तक जनलोकपाल विधेयक को लाने की बात है तो इस पर देशव्यापी बहस की जरूरत है। 40 बरस पहले जब आजादी नई-नई मिली थी, तब सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का अंश नगण्य था। उच्च पदों पर बैठने वाले लोग चरित्रवान थे और समाज में भ्रष्टाचार के प्रति घृणा का भाव था। इसलिए तब अगर लोकपाल विधेयक पारित हो जाता तो हालात शायद इतने न बिगड़ते। पर आज यह विधेयक अपनी सार्थकता खो चुका है। जब देश की न्यायपालिका, सी.बी.आई., आयकर विभाग, पुलिस तंत्र आदि मिलकर भी भ्रष्टाचारियों को पकड़ नहीं पाते, उन्हें सजा नहीं दिलवा पाते तो एक अकेला लोकपाल कौन-सा तीर मार लेगा? लोकपाल क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश से ज्यादा ताकतवर होगा? भारत के मुख्य न्यायाधीश को आज भी यह शक्ति प्राप्त है कि वह देश के प्रधानमंत्री को जेल भेज सकता है। उसका आदेश कानून बन जाता है जबकि लोकपाल को ऐसा कोई अधिकार नही होगा।

पर चिंता की बात यह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर भी एक के बाद एक कई भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति बैठ चुके हैं। फिर लोकपाल कौन-से वैकुण्ठ से ढूंढ कर लाया जायेगा? ऐसी कौन-सी चयन समिति होगी जो इस बात की गारण्टी कर सके कि उनके द्वारा चुना गया व्यक्ति गलत आचरण नहीं करेगा? फिर लोकपाल शिकायत भी लेगा, जाँच भी करायेगा और सजा भी देगा, ऐसी मांग जन लोकपाल विधेयक में की जा रही है। क्या ऐसी व्यवस्था बनाना सम्भव है, जिसमें एक व्यक्ति को इतने सारे अधिकार दे दिए जायें?

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भ्रष्टाचार केवल राजनेताओं, अफसरों और न्यायपालिका तक ही सीमित नहीं, इसकी जड़ें काफी फैल चुकी हैं। जन लोकपाल विधेयक कैंसर का इलाज सिरदर्द की गोली से करने जैसा है। ऐसा काफी लोगों का मानना है।

जनलोकपाल विधेयक पर बहस हो, यह तो इस विचार के हित की बात है। पर अटपटी बात यह है कि अन्ना हजारे के धरने को अचानक मिली इस आशातीत सफलता से देश की राजनैतिक बिरादरी में हड़कम्प मच गया है। यू.पी.ए. के नेताओं से लेकर विपक्ष के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी तक अन्ना के विरूद्ध कड़ी प्रतिक्रियाऐं व्यक्त कर रहे हैं। राजनेताओं का यह व्यवहार उचित और समय के अनुकूल नहीं है। इस तरह की घटनाऐं जब बिना किसी पूर्व सूचना के होती हैं, तो उसे दैव इच्छा मानना चाहिए। परमशक्ति या प्रकृति, जो भी कहंें, समय पर ऐसी चेतावनियाँ देती रहती हैं। जिसे समझना चाहिए। सुनामी, भूकम्प, टोरनाडो और मौसम में तीखे बदलाव, इस बात की चेतावनी है कि हम अपनी पृथ्वी, सागर और आकाश से अविवेकपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। इसी तरह देशभर के लोगों का अन्ना के समर्थन में एक साथ जुट जाना और शोर मचाना, इस बात की चेतावनी है कि देश की जनता भ्रष्टाचार को अब और बर्दाश्त नहीं करना चाहती। अगर हमारे राजनेता इस पर तीखी प्रतिक्रिया करेंगे तो जनता और नेतृत्व के बीच संघर्ष बढ़ेगा, टकराव होगा और अराजकता भी फैल सकती है। अगर वे संजीदगी से इस चेतावनी को समझने का प्रयास करेंगे और जनता के आक्रोश का समाधान ढूढेंगे तो उन्हें किसी तरह का भय भी नहीं रहेगा और समाज और देश भी ठीक रास्ते पर आगे बढ़ेगा। इसलिए अन्ना का विरोध नहीं, सम्मान करना चाहिए।

महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धि के एक वयोवृद्ध गाँधीवादी, निष्काम सेवी अन्ना हजारे जो कल तक केवल महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल फूंकते रहे थे, आज रातों-रात पूरे भारत के सितारे बन गये हैं। देश के हर कोने से अन्ना हजारे के समर्थन में शहरी मध्यम वर्ग ने आवाज उठायी है। यही वो वर्ग है जो मीडिया से प्रभावित होता है और मीडिया प्रायः इसी वर्ग को ध्यान में रखकर मुद्दे उठाता है।

जबसे अन्ना का धरना सफल हुआ है, तबसे दिल्ली के गलियारों में यह चर्चा है कि अन्ना को यू.पी.ए. सरकार ने प्रायोजित करके धरने पर बैठाया। क्योंकि वह गत् दो वर्षों से बाबा रामदेव के हमलों से तिलमिला गयी थी। इसलिए वह अन्ना हजारे को सामने लाकर बाबा रामदेव के आन्दोलन की हवा निकालनी चाहती थी। जो कुछ लोगों की नजर में निकल भी गयी है। बाबा रामदेव के अनुयायियों को भी इस बात पर आश्चर्य है कि धरने के शुरू के तीन दिन भारत माता के चित्र के सामने वन्दे मात्रम के नारे लगाने वाली भीड़ अचानक हट गई और मंच व जनता के बीच साम्यवादी नारे ‘इंक्लाब जिंदाबाद’ लगने लगे। उनका भी यह आरोप है कि इस धरने ने बाबा रामदेव के आन्दोलन का मंच छीन लिया।

इस विवाद में न पड़कर, जो देश के लिए आवश्यक है, उस पर ध्यान देने की जरूरत है। बाबा रामदेव हों, अन्ना हजारे हों या भ्रष्टाचार से लड़ने वाले देश के दूसरे योद्धा हों, समय की माँग है कि सब एकजुट होकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक जंग छेड़ें और समाज को इस हद तक बदलें कि हमारा बाकी जीवन और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भ्रष्ट आचरण करने के लिए मज़बूर न हों।

जरूरत इस बात की है कि न्यायपालिका और पुलिस तंत्र में आ गयी खामियों और गिरावट को दूर करवाने का माहौल बनाया जाये। भ्रष्टाचार से लड़ने वाले सभी लोग साझे मंच से देशवासियों को बतायें कि वे अपने इर्द-गिर्द हो रहे भ्रष्टाचार पर कैसे निगाह रखें और जाँच एजेंसियों और न्यायपालिका पर कैसे दबाव बनायें कि भ्रष्ट आचरण करने वाले बच न सकें? यह ठोस और स्थायी प्रक्रिया होगी। इससे समाज में बदलाव आयेगा। एक लोकपाल लाकर बैठा देने से समाज नहीं बदलेगा। इस बात की पूरी सम्भावना है कि इस नई प्रस्तावित संस्था का भी वही हश्र हो, जो केन्द्रीय सतर्कता आयोग का हुआ। हमें सही दिशा में सोचना और आगे बढ़ना है व जनता के आक्रोश को उस दिशा में ले जाना है, जहाँ भ्रष्टाचार रूपी कैंसर का हल निकल सके।

Sunday, April 10, 2011

अरब देशों में क्या जे़हाद का परचम लहरायेगा ?


Rajasthan Patrika 10 Apr 2011
अरब देशों में जो हलचल इस वक्त मची हुई है, उसे दुनिया, खासकर यूरोप और अमरीका दिल थामकर देख रहे हैं। क्योंकि इस बात के साफ संकेत मिल रहे हैं कि अगर इन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होती है तो मज़हबी मानसिकता वाले दल, जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड या हमास हावी रहेंगे। उस स्थिति में ट्यूनिशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया व यमन में क्या जेहादी मानसिकता का बोलबाला हो जायेगा? क्योंकि इन संगठनों की, इन देशों की आवाम पर अच्छी पकड़ है। हमास ने तो कभी इज़रायल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं किया और लगातार वहाँ आत्मघाती हमले करता रहा है। ऐसी हालत में लोकतंत्र की स्थापना की यह कवायद बेमानी हो जायेगी। जैसाकि पाकिस्तान में हो रहा है। जहाँ पिछले कुछ वर्षों में लगभग 40 हजार लोग आतंकी हमलों में मारे जा चुके हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि अगर ऐसी हुकूमतें इन देशों में काबिज़ होती हैं तो वे सभी गैर इस्लामी देशों के लिए खतरा बन जायेंगी। इसलिए पश्चिमी देशों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर ज़मीनी हकीकत कुछ और भी बयान कर रही है। जन आन्दोलनों की जो बात इन देशों में आयी है। उसकी पृष्ठभूमि में युवा पीढ़ी का आक्रोश, जो अपने तानाशाह हुक्मरानों या तेल निर्यातक देशों के शेखों के विलासितापूर्ण जीवन से बेहद नाराज हैं। इन युवाओं ने फेसबुक और इण्टरनेट का सहारा लेकर इन आन्दोलनों की ज़मीन तैयार की है। ये वो पीढ़ी है जो कट्टरपंथी इस्लाम की ज़ेहादी मानसिकता से इŸाफाक नहीं रखती। दुनिया की अपनी समझ और आगे बढ़ने की महŸवकांक्षा ने इनके मन में यह बात बैठा दी है कि जे़हादी मानसिकता ने इस्लाम की छवि पूरी दुनिया में खराब की है। यह पीढ़ी मज़हब के खिलाफ नहीं है, पर मज़हब को राजनीति और आर्थिक प्रगति पर हावी होने भी नहीं देना चाहती। इस पीढ़ी ने कठमुल्ला मानसिकता वाले सामाजिक या राजनैतिक नेताओं से भी तीखी बहस छेड़ दी है। यह बहस उनके मुल्कों के राजनैतिक ढाँचे के प्रारूप और उसके भविष्य को लेकर है। इसलिए यह मानना कि अरब देशों की क्रांति दुनिया में जे़हाद बढ़ा देगी, सही नहीं होगा। क्योंकि ये युवापीढ़ी ऐसा आसानी से होने नहीं देगी।

दूसरी तरफ, जहाँ तक मुस्लिम ब्रदरहुड की बात है, उसका रवैया भी बदला हुआ है। दशकों बाद फिर से अपनी राजनैतिक ज़मीन तलाशता हुआ यह बड़ा संगठन मौजूदा हालातों का आंकलन कर रहा है और इसके नेता बार-बार दुनिया की मीडिया के सामने यह बात रख रहे हैं कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो उनका स्वरूप शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का होगा। जिसमें दूसरे मज़हबों, खासकर ईसाइयों और यहूदियों के प्रति कोई द्वेष भावना नहीं होगी। वे ज़ेहाद को समर्थन नहीं देंगे। वे लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करेंगे। वे शरीयत के कानून को उस हद तक ही लागू करेंगे, जिसमें आदमी के मौलिक अधिकारों का हनन न हो। वे शरीयत के कानून के अनुसार महिलाओं को दबायेंगे नहीं, बल्कि उन्हें अपने हक के साथ खुलकर जीने और आगे बढ़ने का मौका देंगे।

पर जैसा हम सब अनुभव से जानते हैं कि इस्लाम के मानने वाले समाज में व्यापक अशिक्षा के कारण कठमुल्ले नेतृत्व का प्रभाव और पकड़ कहीं ज्यादा गहरी और व्यापक होती है। यह वह वर्ग है जो किसी भी धर्म का हो, धर्मान्धता के बाहर न निकल पाता है और न ही सोच पाता है। धर्म के नाम पर दुनिया में पिछले दो हजार सालों में जो हजारों युद्ध हुए हैं और जिनमें करोड़ों लोग मारे गये हैं, औरते बेवा हुयी हैं और बच्चे यतीम हुए हैं, संस्कृतियाँ नष्ट हुयी हैं और खून की नदियाँ बही हैं, वह सब इस धर्मान्धता के कारण ही हुआ है। मज़हब इन लोगों के कारण आदमी को रूहानी नहीं, हैवान बना देता है। फिर भी यह हर मज़हब में बकायदा अपना वजू़द रखते हैं और मौका मिलते ही हावी हो जाते हैं। अरब देशों में अगर नयी राजनैतिक व्यवस्था बनती है तो यह वर्ग निज़ाम और रियाया पर हावी होने की पुरज़ोर कोशिश करेगा। पर दूसरी ओर हमारे सामने मलेशिया, इण्डोनेशिया और तुर्की का उदाहरण है। जहाँ सत्तारूढ़ दल और सरकार दोनों ही इस्लाम को मानते हैं। पर उनकी हुकूमत में हर मज़हब के लोग खुलकर जीते हैं और बराबरी का दर्जा हासिल किये हैं। एक दूसरे के प्रति नफरत नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द का सम्बन्ध है। यह आदर्श स्थिति है। जिसे अरब देशों की आवाम को अपनाना चाहिए। इस जियो और जीने दोके माहौल में पूरी दुनिया में अमनचैन और तरक्की होगी।

उधर पश्चिमी दुनिया के देशों को भी यह समझना होगा कि यूरोप और अमरीका की तरह धर्मनिरपेक्ष सत्ता की स्थापना पूर्वी देशों में सम्भव नहीं है। फिर वो अरब हो या दक्षिण एशिया या दक्षिण-पूर्व एशिया। यहाँ का समाज धर्म, संस्कृति और राजनीति के घालमेल में भेद नहीं करता। पश्चिमी देशों में मध्य युग में चर्च की हुकूमत और दखलअंदाजी के खिलाफ जो जनान्दोलन हुए थे, उन्होंने धर्म संस्कृति को राजनीति से अलग करके ही दम लिया। इसलिए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना विकसित की। जबकि हमारे समाजों में धर्म को सत्ता का मार्गदर्शक माना गया है। फिर वो चाहे इस्लाम हो, हिन्दू धर्म हो या बौद्ध धर्म हो। हाँ, इस सम्बन्ध में बड़ी नाज़ुकता होती है। इसलिए संतुलन बनाकर चलना होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इण्टरनेट के मार्ग पर दुनिया से जुड़ी अरब देशों की युवापीढ़ी इस ऐतिहासिक और सामाजिक तथ्य को संजीदगी से समझेगी और ऐसी व्यवस्था कायम करवायेगी जिससे दुनिया में अमन चैन कायम हो।

Monday, April 4, 2011

रामभरोसे सेहत


Amar Ujala 4 Apr 2011
इस साल जमकर बारिश हुयी, कड़ाके की सर्दी पड़ी और उतनी ही भीषण गर्मी पड़ने की आशंका है। उधर जापान के परमाणु विकिरणों का भी भूमण्डल की जलवायु पर खतरनाक प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसी परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश वालों का स्वास्थ्य रामभरोसे है। उन्हें गम्भीर बीमारियों और तकलीफ भरे दिनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। क्योंकि भीषण गर्मी में ही बीमारी के बैक्टीरिया और कीटाणु तेजी से पनपते और फैलते हैं। वो चाहें हैजा हो, मलेरिया हो, डेंगू हो, चिकुनगुनिया हो या पीलिया हो। गर्मी की मार से आदमी बच सकता है, अगर उसका परिवेश स्वस्थ व साफ हो और उसे शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो। ये दोनों ही न होने की स्थिति में गर्मी की मार दोगुनी हो जाती है।

अब जरा उत्तर प्रदेश के नगरों और गाँवों की तरफ नजर डालिये। क्या ये आपको साफ-सुथरे और सजे-संवरे नजर आते हैं? या हर शहर, कस्बा और गाँव हर किस्म के विदू्रप कूड़े के अम्बारों से पटा पड़ा है? आप अपने चारों ओर नजर उठाकर देखिए तो आपको हफ्तों और महीनों से बेतरतीब पड़े कूड़े के ढेर ही ढेर नजर आयेंगे। जिनमें हर तरह की बीमारियाँ जन्म ले रही हैं और जो वायुमण्डल को 24 घण्टे प्रदूषित कर रहा है। इतना ही काफी न था। उत्तर प्रदेश के लगभग हर शहर की सीवर व्यवस्था ध्वस्त पड़ी है। नगरों के बढ़ते आकार की तुलना में न तो सीवर का जाल बढ़ा है और न ही उसकी चैड़ाई। सीवर के इन पाइपों में प्लास्टिक और रासायनिक कचरे ठोस अवयव के रूप में अटके पड़े हैं। नतीज़तन पानी रूक-रूककर आगे बढ़ता है। सीवरों के इस जाल को नियमित साफ रखने की भी कोई माकूल व्यवस्था नगर पालिकाओं के पास नहीं है। चाहें वह साधनों की कमी हो या व्यक्तियों की। नतीज़तन इन शहरों, कस्बों और गाँवों की नालियों में भीषण बदबूदार दूषित जल बुदबुदाता रहता है और उफनकर सड़कों पर बहता रहता है।

वर्तमान सीवरेज व्यवस्था हमें यूरोप से भेंट में मिली थी। वरना भारतीय संस्कृति में शहर की गंदगी को नदियों में डालने की प्रथा कभी न थी। यूरोप में सीवर का पानी नदी में डालने से पहले पूरी तरह साफ, यहाँ तक कि पीने योग्य बनाया जाता है। इसलिए उनके यहाँ यह व्यवस्था सफलतापूर्वक चल रही है। पर हमारे यहाँ सीवर का पानी ज्यों का त्यों नदियों में डाल दिया जाता है। इसका ट्रीटमेंट करने के जितने प्लांट, जिस भी जगह लगे हैं, वे या तो बन्द पड़े हैं या क्षमता से कहीं कम काम कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की नदियाँ खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो चुकी हैं। इतना ही नहीं प्रदेश के रजवाहे और लघु सिंचाई योजना के तहत खोदी गई नालियाँ (माइनर) प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड व जिम्मेदार अधिकारियों के भ्रष्टाचार के कारण औद्योगिक गन्दा पानी ढोने पर मजबूर हैं। जिससे किसान, खेती और पशु तीनों को भारी नुकसान हो रहा है। इस सबका सीधा असर हमारी पेयजल आपूर्ति पर पड़ रहा है।

प्रदेश का भूजल न सिर्फ प्रदूषित हो चुका है बल्कि अविवेकपूर्ण दोहन के कारण उसका स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। गर्मी शुरू होने दीजिए और फिर देखिए पेयजल के लिए कैसा हाहाकार मचता है। हमारे पर्यटन की नाक माने जाने वाली ताजमहल की नगरी आगरा तक पेयजल के भारी संकट से बेहाल हो जाती है। जब संकट सिर पर आ जाता है, तब प्रशासन के सामने प्रदर्शन करने, घड़े फोड़ने, धरने देने और बयान देने की बाढ़ आ जाती है। पर क्या इस सबसे समस्या हल हो जाती है? वर्षों से सरकारों की अविवेकपूर्ण नीतियों ने प्रदेश को किस खस्ता हालत में लाकर खड़ा कर दिया है। आप ये सब सह लेते अगर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत अच्छी होती। पर इनकी क्या हालत है और इनमें कैसा इलाज होता है, यह आप बखूबी जानते हैं। कुल मिलाकर इधर कुँआ तो उधर खाई। अब तो वही फिल्मी गाना याद आता है ‘तैयार हो जाओ वतन की आबरू (प्रदेश की सेहत) खतरे में है, तैयार हो जाओ तुम्हारे इम्तिहान का वक्त है’।

यह सब लिखने का उद्देश्य अपने प्रदेश की बदहाली पर आँसू बहाना नहीं है। मकसद है, ‘पीर पर्वत सी हो चुकी अब तो पिघलनी चाहिए। इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ कब तक बैठे रहेंगे सरकार के आसरे हम? कब तक नगर पालिकाओं के नकारापन का रोना रोते रहेंगे? हमारे आसपास की गन्दगी से खतरा हमें और हमारे बच्चों को है। तो फिर कबूतर की तरह आँख मंूद लें या फिर कुछ करें? समाजसेवा के नाम पर फोटो खिंचवाने वाले क्लब, किटी पार्टी में ताश के पत्तेे फैंटने वाली कुलीन महिलाऐं, स्कूल-काॅलेजों के शिक्षक व छात्र तथा हर बात पर बयान देने को आतुर छुटभैये नेता अगर गम्भीर हो जाये ंतो हम अपने शहर के कूड़े से निजात पा सकते हैं। यह सारे समूह अलग-अलग संगठनों के माध्यम से और सब संगठनों के एक सामूहिक मंच के माध्यम से यह फैसला करें कि अपने नगर को साफ रखना हमारी जिम्मेदारी है। तो दो काम करने होंगे। एक तो हमें यह तय करना होगा कि हम अपने घर से बाहर जो कूड़ा फैंकते हैं, उसका आकार तेजी से घटायें और उसके प्रकार में ऐसा परिवर्तन लायें कि वह कूड़ा हमारे पर्यावरण पर बोझ न बने। मसलन प्लास्टिक, थर्मोकोल, रासायनिक पदार्थ व पैंकिग मेटिरियल जैसा कचरा जब तक फैंकना बन्द नहीं करेंगे, इस समस्या से छुटकारा नहीं मिलेगा। यह अभ्यास करना मुश्किल जरूर है, असम्भव नहीं। मेरी पीढ़ी के लोगों को अपना बचपन याद होगा, तब इस तरह का कूड़ा न तो गाँवों में होता था और न ही शहरों में। नलों में चैबीस घण्टे पानी आता था। बिना आर. ओ. या बिसलरी के हम टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीते थे। हमने सबमर्सिबल पम्प लगाकर पानी की ऐसी बर्बादी शुरू की कि आज पीने के पानी को प्रदेश तरस जाता है।

इन सामाजिक संगठनों और उनके सामूहिक मंच को दूसरा काम यह करना होगा कि शहर के कूड़े को उठाकर निर्धारित जगह डालने के लिए जिम्मेदार इकाईयों और प्रशासन पर तगड़ा दबाव बनाकर व उनके साथ सक्रिय सहयोग करके इस काम को युद्ध स्तर पर करना होगा। इन सब प्रयास के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था नगर और गाँवों के सम्पन्न लोगों को उदारता से करनी चाहिए। जैसाकि जर्मनी के चांसलर विली ब्रांट ने एक बार कहा था, ‘‘गरीबी कहीं भी हो, अमीरी के लिए हर जगह खतरा बन जाती है’’। इस सन्दर्भ में हमें कहना होगा, ‘‘गन्दगी कहीं भी हो, अमीरों के लिए भी खतरा है।’’ एक बार लखनऊ में उत्तर प्रदेश बाॅर एसोसिएशन के प्रांतीय सम्मेलन को मंच से सम्बोधित करते हुए मैंने अपने साथ बिराजे मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को बधाई दी कि आपका यह प्रदेश गाँधी जी के आत्मनिर्भरता के आदर्शों का पालन कर रहा है। बिजली, पानी और अपनी सुरक्षा के लिए आपने जनता को पूरी तरह आत्मनिर्भर बना दिया है। इस पर पूरे सम्मेलन में जोर का ठहाका लगा। मुलायम सिंह जी को बात बुरी लगी होगी। पर कमोबेश यही हाल देश के ज्यादातर शहरों का होता जा रहा है। इसलिए यह हंसी का नहीं चिंता का विषय है। पुरानी कहावत है, ‘आप काज-महाकाज’। फैसला आपको करना है।

शुंगलु समिति की रिपोर्ट बेमानी


Punjab Kesari 4Apr2011
राष्ट्रकुल खेलों में हुए घोटालों को जाँचने के लिए प्रधानमंत्री ने 24 अक्टूबर, 2010 को शुंगलू समिति गठित की थी, जिसे 3 महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी। समिति ने पिछले हफ्ते अपनी अन्तरिम रिपोर्ट दी, जिसमें दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व दिल्ली के उपराज्यपाल तजेन्द्र खन्ना पर पैसे की बर्बादी का आरोप लगाया गया है। भारत के पूर्व महालेखाकार शुंगलु की इस रिपोर्ट को मुद्दा बनाकर भाजपा शीला दीक्षित का इस्तीफा मांग रही है। जबकि श्रीमती दीक्षित ने इस समिति के तौर-तरीके पर ही प्रश्न खड़े किये हैं। दरअसल शुंगलु समिति अपने गठन से ही विवादों में है। इसको बनाने का क्या औचित्य था जबकि सी.बी.आई. और सी.वी.सी. जैसी सक्षम जाँच एजेंसियाँ भ्रष्ट आचरण के विरूद्ध जाँच करने के लिए पहले से उपलब्ध हैं? उधर सर्वोच्च न्यायालय भी राष्ट्रकुल खेलों में हुए घोटालों की जाँच अपनी निगरानी में करवा रहा है। लगता है कि प्रधानमंत्री ने विपक्ष के हमले को शांत करने के लिए यह राजनैतिक फैसला लिया। वरना सोचने वाली बात यह है कि बिना कानूनी या संवैधानिक अधिकार के यह जाँच समिति इतने बड़े घोटाले की जाँच कैसे कर सकती है? जबकि इसे तीन महीने में लाखों दस्तावेजों की जाँच करनी थी। यह दस्तावेज उन परियोजनाओं से सम्बन्धित हैं, जिन्हें राष्ट्रकुल खेलों के लिए दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिका, दिल्ली विकास प्राधिकरण, लोक निर्माण विभाग, केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, राइट्स, खेल मंत्रालय, शहरी विकास मंत्रालय व खेल आयोजन समिति जैसी इन एजेंसियों ने अंजाम दिया था।

शुंगलु ने शुरू में ही यह शिकायत की थी कि ये एजेंसियाँ जाँच में सहयोग नहीं कर रहीं और उन्हें आवश्यक दस्तावेज मुहैया नहीं करा रहीं। साफ ज़ाहिर है कि इन सीमाओं के साथ व बिना किसी अनुभवी और योग्य जाँच अधिकारियों की मौजूदगी के, इस तरह की आपराधिक जाँच करना सम्भव नहीं था। यह काम तो सी.बी.आई. जैसी पेशेवर जाँच एजेंसी का ही है और जब सी.बी.आई. व सी.वी.सी. जाँच कर ही रहे हैं तो उन्हें अपनी प्रक्रिया के अनुसार जाँच करने देनी चाहिए थी। इस तरह शुंगलु समिति बनाकर प्रधानमंत्री ने नाहक समय, साधन और पैसे की बर्बादी की है। बिना आपराधिक जाँच के किसी एजेंसी को सम्भावित आरोपियों के खिलाफ कुछ कहने का अधिकार नहीं होता। वैसे भी शुंगलु समिति ने जिन पर आरोप लगाये हैं, वे उसके आरोपों को नकारने के लिए आजा़द हैं और उन्होंने ऐसा करा भी है। जबकि सी.बी.आई. अगर ईमानदारी से जाँच करती है तो पहले प्रमाण इकठ्ठा करेगी और फिर आरोपपत्र दाखिल करेगी। इस प्रक्रिया से ही यह तय होगा कि प्रथम दृष्टया राष्ट्रकुल घोटाले में कौन शामिल है। प्रमाण सहित लगाये गये इन आरोपों की कानूनी वैधता भी होगी। सूत्र बताते हैं कि शुंगलु ने अपनी रिपोर्ट में दूसरी जाँच एजेंसियों की रिपोर्ट को उदारता से लेकर अपनी रिपोर्ट में समाहित कर लिया है। वैसे इतने कम समय में शुंगलु समिति के लिए लाखों दस्तावेज पढ़ना तो दूर, पन्ने पलटना भी सम्भव नहीं था।

यह राष्ट्रकुल खेलों की ही समस्या नहीं है। किसी भी घोटालें की जाँच करने की एक मान्य प्रक्रिया होनी चाहिए। जिसके बाद ही किसी को आरोपित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेताओं को चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ जाँच करने वाली एजेंसियों केा स्वायŸाता प्रदान करवायें। जिससे घोटालों की कम से कम समय में ईमानदारी से जाँच हो सके। वरना घोटाले होते रहेंगे, समितियाँ और जाँच आयोग बनते रहेंगे, सुधरेगा कुछ भी नहीं।

पर लगता है कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटने में गंभीर नहीं है। भ्रष्टाचार की जाँच पर निगरानी रखने वाली एजेंसी ‘केन्द्रीय सतर्कता आयोग’ एक बार फिर सिरविहीन हो गया है। क्योंकि जबसे पी.जे. थाॅमस ने इस्तीफा दिया है, तबसे सी.वी.सी. का पद रिक्त पड़ा है। जिसे भरने की सरकार को कोई जल्दी नहीं है। इतना ही नहीं सी.वी.सी. एक्ट के अनुसार ऐसी परिस्थिति में बाकी बचे सदस्यों में से एक को मुख्य सतर्कता आयुक्त का कार्यभार अस्थायी रूप से सौंप देना चाहिए था, पर इसका भी नोटिफिकिशेन अभी तक सरकार की तरफ से नहीं आया। इससे पहले भी नवम्बर 2009 में जब इस आयोग के दो सदस्यांे का कार्यकाल समाप्त हुआ था, तो सरकार ने अगले 9 महीनों तक ये पद नहीं भरे। इस काॅलम में हमारे शोर मचाने के बाद नियुक्ति की यह प्रक्रिया शुरू हुई। फिर भी थाॅमस की नियुक्ति का विवाद खड़ा हो गया। ऐसा लगता है कि सरकार केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पंगु बनाने में जुटी है। इससे प्रधानमंत्री की छवि तेजी से बिगड़ रही है। समय की मांग है कि प्रधानमंत्री हर दबाव से मुक्त होकर कुछ ठोस निर्णय लें और जाँच एजेंसियों की स्वायŸाता सुनिश्चित करवायें व घोटालों की जाँच तीव्रता से पूरी कराने के लिए जाँच एजेंसियों पर दबाव बनायें। तब भ्रष्टाचार के स्थायी समाधान निकालना सम्भव हो सकेगा। शुंगलु जैसी जाँच समिति से कुछ हासिल होने वाला नहीं।

Sunday, March 27, 2011

संसद में असली बहस तो हुयी नहीं !

Rajasthan Patrika 27 Mar 11
विकिलीक्स के बाद देश की राजनीति में आये भूचाल का सीधा असर यह हुआ कि संसद में इस पूरे मुद्दे पर काफी तीखी और लम्बी बहस छिड़ गयी। जिसकी अन्तिम परिणति प्रधानमंत्री के बयान से हुयी। पर इस पूरी बहस में असली मुद्दा कहीं खो गया। जिस पर अब भी बहस होनी चाहिए। संसद न करे तो देश के मीडिया और जनता को करनी चाहिए। असली मुद्दा है, विकिलीक्स का वह अंश जिसमें उसने यह खुलासा किया है कि अमरीका के राज़दूत भारत सरकार के मंत्रियों से मिलकर सरकार की खैर-खबर लेते रहे और किस व्यक्ति को कौन सा पद दिया जाए, इसकी भी चर्चा करते रहे। मसलन यह बात साफ हुयी है कि अमरीका चाहता था कि मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भारत का विŸामंत्री बनाया जाये।

यह बहुत चिंता की बात है। यह देश की अस्मिता और 110 करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ा सवाल है। क्या हमारी सरकार का चाल-चलन, उसकी नीतियाँ और उसमें कौन, कहाँ बैठे, इसका फैसला व्हाइट हाउस में बैठने वाले करते हैं? इसका मतलब तो यह हुआ कि अपनी सरकारें जिनके द्वारा चुनी जाती हैं, उनके हित नहीं साधतीं, बल्कि अमरीकी हितों को ध्यान में रखकर बनायी और चलायी जाती हैं। जो ज़ाहिरन देशवासियों के हित से मेल नहीं खाते। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। खेसरी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला हो या भारत की दवा नीति बनाने का, परमाणु नीति बनाने का मामला हो या रक्षा नीति, सबमें अमरीकी दखल या उससे पहले रूसी दखल रहा है। यह बात वे सब जानते हैं जो सŸाा में रहे हैं या सŸाा के नज़दीक रहे हैं। चाहें वे राजनेता हों, अफसर हों या मीडियाकर्मी भी हों। जिस देश में 80 फीसदी लोग प्रदूषित पेयजल के कारण बीमार पड़ते हों, उस देश में एड्स जैसी निरर्थक बीमारी पर सरकार का इतना ध्यान देना दर्शाता है कि जीवन के हर क्षेत्र में देशवासियों का हित ताक पर रखकर अमरीका या बहुराष्ट्रिय कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं।

Punjab Kesari 28.03.11
यह बात अगर विकिलीक्स के खुलासे तक ही सीमित रहती तो इसकी सच्चाई को लेकर संशय बना रहता। पर ऐसा नहीं हुआ। विपक्ष के हमले का जबाव देते हुए भारत सरकार के संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल ने, जो कि काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में बोले, साफ कहा कि विदेशी राजदूतों का काम अपनी तैनाती वाले देश में सूचना एकत्रित करना होता है। पर बंसल जी इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाये कि राजदूत के साथ मंत्रियो ंकी मुलाकात और उसमें सरकार की कार्यविधि और नीतियों की चर्चा करना कूटनीतिज्ञ गुप्तचरी के दायरे में कैसे आता है? यह तो सीधा-सीधा सरकारी कामकाज में बाहरी दखलअंदाजी का मामला बनता है। जिसके लिए ऐसे राजदूतों से मिलकर इस तरह की चर्चाऐं करने वाले सभी मंत्री दोषी हैं। सही मायने में तो ऐसा आचरण देशद्रोह की श्रेणी में आता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दौरान बंगाल में इस तरह का आचरण करने वाले मीरज़ाफर को इतिहास ने कभी माफ नहीं किया।

रोचक बात यह है कि पवन बंसल जहाँ सफाई देते-देते अपने ही जाल में फंस गये, वहीं किसी को अहसास भी नहीं हुआ कि विपक्ष भी अनजाने में ही ऐसी भूल कर बैठा। विपक्ष की तरफ से बोलते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने यह स्वीकारा कि भारत की ‘सरकारों’ पर अमरीकी प्रभाव रहा है। यह महत्वपूर्ण बात है। विपक्ष के हमले का निशाना यू.पी.ए. की वर्तमान सरकार है। पर डाॅ. जोशी ने ‘सरकार’ न कहकर ‘सरकारों’ कहा। जिसका साफ मतलब है कि एन.डी.ए. की सरकार भी अमरीकी प्रभाव से अछूती नहीं रही। अगर यह बात है तो अब सŸाापक्ष को विपक्ष पर हावी हो जाना चाहिए और डाॅ. जोशी से पूछना चाहिए कि एन.डी.ए. की सरकार किस तरह से अमरीकी प्रभाव में थी? ऐसी कौन सी नियुक्तियाँ और फैसले थे जो वाजपेयी सरकार ने अमरीकी दबाव में लिये? क्योंकि तभी यह साफ होगा कि अमरीका का भारत पर कितना और कैसा दबदबा बन चुका है।

Jag Baani 28.03.11
डाॅ. जोशी को ईमानदारी और साफगोई से इन तथ्यों को देश की संसद, लोगों और मीडिया के सामने रखना चाहिए। जहाँ इस सारी बहस से यह सिद्ध हो जाऐगा कि संसद में वोट खरीदने का मामला कहीं कम गंभीर मुद्दा है, बमुकाबले इस बात के कि हमारी सरकारें ही अमरीका के हाथ बिकी हुयी हैं। मतलब ये कि पिछले हफ्ते संसद में जो हंगामा मचा और जनता के पैसे की बर्बादी हुयी उसका कोई लाभ देश को नहीं मिला। सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने और बिगाड़ने में देश का कोई प्रमुख दल कभी पीछे नहीं रहा। यह बात हर राजनैतिक व्यक्ति जानता है। रिश्वत के प्रमाण अक्सर मिला नहीं करते क्योंकि रिश्वत या सांसदों और विधायकों की खरीद रजिस्ट्रार कार्यालय में जाकर स्टाम्प पेपर के ऊपर रजिस्ट्री करवाकर नहीं होती। यह सौदे तो पर्यटक सैरगाहों, उद्योगपतियों के ड्राईंगरूमों, सŸाा के दलालों के फार्म हाउसों और पाँच सितारा होटलों के कमरों में छिपकर किये जाते हैं। इसलिए जो असली मुद्दा बहस का होना चाहिए था, वो यह कि आखिर हमारी ‘सरकारें’ अमरीका के आगे किस सीमा तक घुटने टेक चुकी हैं? देखना होगा कि आने वाले दिनों में देश में कितने महत्वपूर्ण लोग इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखाते हैं?