Sunday, January 24, 2010

ये कैसा मजहब?

मलेशिया के उच्च न्यायालय ने ईसाइयों को गाड की जगह अल्ला शब्द के इस्तमाल की अनुमति दे दी। जिससे मलेशिया में तूफान मच गया। कट्टरपंथियों ने गिरजाघरों और गुरूद्वारों पर हिंसक हमले किये। मजबूरन सरकार को अदालत से फरियाद करनी पड़ी कि वे अपने इस फैसले को पलट दे। सवाल उठता है कि हम भगवान गाड या खुदा को मजहब के आधार पर अलग कैसे कर सकते हैं। क्या यह सही नहीं है कि लाखों हिंदू रोज बोलचाल की भाषा में भगवान को खुदा कहने में संकोच नहीं करते? तो क्या अब हिंदू तय कर लें कि वे खुदा शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे। इससे दूरियां बढ़ेंगी या घटेंगी? पेड़ से एक सेब तोड़ो और हिंदू से पूछो इसको किसने पैदा किया तो जवाब मिलेगा भगवान ने। मुसलमान कहेगा खुदा ने और ईसाई कहेगा गाड ने। पर सेब तो एक ही है, तो फिर बनाने वाले तीन कैसे हो गए? जवाब साफ है कि एक बनाने वाले को तीन अलग-अलग मजहब के लोग अपने-अपने नाम से बुलाते हैं। मलेशिया के ईसाई अगर अल्ला शब्द का इस्तमाल करते हैं तो हर्ज क्या है। हां यह बात गलत है कि ईसाई मिशनरी स्थानीय धर्म और परंपराओं का अनुसरण कर लोगों के धर्म बदलवाते हैं। जैसे झारखण्ड में गिरजाघर का रंग और पादरी का चोगा सफेद नहीं केसरिया कर दिए गए हैं। क्योंकि इस रंग का हिंदू समाज में सम्मान किया जाता है। वे अपने गिरजाघरों को प्रभु ईशु का मंदिर बताते हैं। यह ढाsaग क्यों?

अभी हाल ही में फ्रांस में महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी लगा दी है। फ्रांस की धर्म निरपेक्ष सरकार इस तरह के धार्मिक प्रतीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होने देना चाहती। उधर स्विटजरलैंड ने मस्जि़दों में मीनारों के निर्माण पर रोक लगा दी है। उदारनीतियों का वायदा कर सत्ता में आए अमरीकी बराक ओबामा खुद एक मुसलिम पिता की संतान हैं। पर वे भी अमरीका में इस्लाम के प्रति बढ़ते आक्रोश को रोक नहीं पाए। आज अमरीका में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलनों का आयोजन होना घट गया है। क्योंकि आयोजकों को इस बात का भरोसा नहीं कि दुनिया के दूसरे देशों से मुसलमानी नाम वाले लोगों को वे बुलाएंगे तो उन्हें वीजा़ मिलेगा भी या नहीं। अमरीका के आव्रजन अधिकारी इतने रूखे हो गए हैं कि हर गैर अमरीकी को अपमानित करते नजर आते हैं। पिछले दिनों बालीवुड सितारे शाहरूख खान तक इस व्यवहार के शिकार हुए। ओसामा बिन लादेन के अनुयायियों को अमरीका में घुसने से रोकने के लिए अमरीकी प्रशासन काफी गंभीर और सतर्क है। पर बाकी लोगों से ऐसा रूखा व्यवहार क्यों ?

क्या वजह है कि पूरी दुनिया में इस मजहब के लोगों के प्रति असष्णिुता लगातार बढ़ती जा रही है। जहां कट्टरपंथी इस बात से खुश होंगे कि उनकी गतिविधियों के कारण मुसलिम समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है वहh उदार मुसलमान इस्लाम के इस रूप से इत्तफाक नहीं रखते वे धर्म को निजी मामला मानते हैं और मिल-जुल कर रहने में विश्वास करते हैं। पर कट्टरपंथियों के आगे उनकी दाल नहीं गलती। हर मजहब का मकसद होता है सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति या यूं कहें कि भगवत् प्राप्ति। ऐसा जो भी सफर होगा वह द्वेष का नहीं बल्कि प्रेम और सौहार्द के रास्ते का होगा। परस्पर विश्वास का होगा। रूहानियत दिलों को जोड़ती है तोड़ती नहीं। बशर्ते हम धर्म का दिखावा न कर रूहानियत का रास्ता अपनायें। दुनियां जलवायु संकट, जल संकट, खाद्यान संकट और प्राकृतिक विपदाओं से पहले ही त्रस्त है। उस पर यह मजहबी आतंकवाद लोगों की जिंदगी में नासूर बन गया है। इसने दुनिया के हर कोने में बैठे आम आदमी को खौफ के साये में जीने को मजबूर कर दिया है।

अगर मजहब का इसी तरह दुरूपयोग होता रहा और उसके मानने वाले इस दुरूपयोग को रोकने के लिए सामने नहीं आए तो पूरी दुनिया में बहुत तबाही मचेगी। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि मजहबी कट्टरता के प्रति पढ़े लिखे युवाओं का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है। जो एक खतरनाक प्रवृति है। अमरीका के वल्र्ड-ट्रेड सेंटर पर आत्मघाती हमला करने वाला मुसलमान और लंदन की मैट्रो में बंम विस्फोट करने वाला मुसलमान युवा क्रमशः इंजीनियर व डा¡क्टर थे। साफ जाहिर है कि मजहब की घुट्टी उन्हें इस तरह पिलाई गई है कि वे आगे पीछे देखे बिना अपनी जान देने को भी तैयार हो जाते है। काश इन पढ़े लिखे नौजवानों की ताकत व दिमाग जन सेवा की तरफ मुड़ जाए तो चमत्कार हो जायेगा। इनके काम से लोगों को राहत मिलेगी और इन्हें भी आम आदमी की जिंदगी सुधारने में फक्र महसूस होगा। समय की मांग है कि हर पढ़ा-लिखा मुसलमान युवा इन बातों को समझें और मजहब को विनाश का नहीं सुख और समृद्धि का कारण बनायें। फिर उनके मजहब का भी सम्मान बढ़ेगा और उन्हें भी जीवन का सही रास्ता दिखाई देगा।

Sunday, January 17, 2010

नये नहीं हैं राजनेताओं के सैक्स स्कैंडल

पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के राज्यपाल को सैक्स स्कैंडल के मामले में बड़े बेआबरू होकर राजभवन और अपने राजनैतिक जीवन को अलविदा कहना पड़ा। पर राजनेताओं के सैक्स स्कैंडल कोई नई बात नहीं है। फ्रांस के बहुचर्चित राष्टृपति निकोलस सरकोजी साफ सरकार और मूल्य आधारित राजनीति के वायदों के साथ चुनाव जीते थे। पर आज उनके और उनके मंत्रीमण्डल के सहयोगियों के रंगीले जीवन के किस्से पेरिस की गलियों में चर्चा-ए-आम बन चुके हैं। उनके मंत्रीमण्डलीय सहयोगी फ्रैडरिक मित्रां ने खुलेआम स्वीकारा है कि वे थाईलैंड के वैश्यालयों में पैसे देकर नौजवान लड़कों के साथ सैक्स करते रहे हैं। यह अलग बात है कि फ्रांस और थाईलैंड दोनों ही सैक्स पर्यटन को हतोत्साहित करने का प्रयास कर रहे हैं। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी के सैक्स कारनामों से जनता इतनी आजि़ज आ गई कि उनकी सरेआम पिटाई कर दी गयी। उन्हें बमुश्किल लहुलुहान हालत में भीड़ से बचाया गया। बहुत दिन नहीं बीते जब अमरीका के व्हाइट हाउस में अमरीका के तत्कालीन राष्टृपति बिल क्लिंटन को मोनिका लेवांस्की के रहस्योद्घाटन के बाद अपने अवैध सैक्स सम्बन्धों को स्वीकारने पर मजबूर होना पड़ा था।

देश की राजधानी दिल्ली और प्रांतों की राजधानियों में राजनीति के उच्चस्तरीय सामाजिक दायरों में हाईक्लास का¡लगर्लभेजने का काम औद्योगिक घराने जमाने से करते आ रहे हैं। ऐसी कुछ महिलायें तो इतनी बैखौफ होती हैं कि अपने सम्बन्धों को खुलेआम स्वीकारने में संकोच नहीं करतीं। हरियाणा के पुलिस महानिदेशक एस.पी.एस. राठौर का किस्सा अभी चर्चा में चल ही रहा है। प्रशासनिक सेवाओं में महत्वपूर्ण पदों पर बैठने वाले अधिकारी प्रायः लोगों को नौकरी या फायदे देने के ऐवज में अपनी कामवासनाओं की पूर्ति करते रहते हैं। कभी-कभी ऐसे किस्से चर्चा में भी आ जाते हैं।

हर धर्म के मठाधीशों के साये तले सैक्स के गुमनाम कारोबार पर भी दुनियाभर का मीडिया बीच-बीच में रहस्योद्घाटन करता रहता है। फिल्म जगत में व उद्योग जगत में तो इसे आम बात माना जाता है। शायनी आहूजा तो सूली चढ़ गया, पर उसके जैसे कितने शायनी मुम्बई में रोज यही जिंदगी जीते हैं। शैक्षिक संस्थानों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में छात्र-छात्राओं व शोधकर्ताओं के शारीरिक शोषण के किस्से काफी आम होते हैं।

कुल मिलाकर नाजायज सैक्स सम्बन्ध कोई ऐसी अनहोनी घटना नहीं जो कभी-कभी दुर्घटना के रूप में घटती हो। यह क्रम इतना व्यापक है कि अगर सारी घटनायें प्रकाश में आयें तो मीडिया में सैक्स स्कैंडलों को उछालने के अलावा कुछ बचेगा ही नहीं। गनीमत है कि ऐसी घटनायें कभी-कभी प्रकाश में आती हैं। अगर सामाजिक सर्वेक्षण करने वालों की मानें तो दस फीसदी घटनायें भी प्रकशित नहीं होतीं। ऐसे में क्या माना जाए कि जो पकड़ा गया वही अपराधी है या जो पकड़ा गया वो बद्किस्मत है?

पिछले दिनों मैंने पुराने टी.वी. सीरियल चाणक्य के 47 एपिसोड तन्मयता से बैठकर देखे। इस सीरियल में ईसा से 300 वर्ष पूर्व के राजनैतिक भारत का काफी सटीक दर्शन कराया गया है। उस समय भी सत्ता के दायरों में और धनिकों के समाज में वैश्याओं और नर्तकियों के उपभोग का प्रचलन आम था। यह बात उन हजारों ग्रंथों में भी दर्ज है जिन्हें समय-समय पर समकालीन इतिहासकारों ने दर्ज किया। बाबर की आत्मकथा बाबरनामामें तो खुद बादशाह बाबर इस बात का दुःख प्रकट करता है कि हिन्दुस्तान में उसे खूबसूरत लौंडे दिखाई नहीं देते इसलिए उसे गजनी के लौंडों की याद सताती है।

भारत के धर्मग्रन्थों में विशेषकर महाभारत जैसे पुराणों में जिस तरह के सामाजिक जीवन का वर्णन है, उसमें भी ऐसा नहीं लगता कि सैक्स के सम्बन्धों को लेकर नैतिकता के नियम बहुत कड़े रहे हों। संस्कृत के विद्वानों का तो यह तक कहना रहा है कि क्षत्रिय आचरण करने वाले को यदि कामवासना की पूर्ति न हो तो शासन करना और अपने दिमाग का संतुलन बनाये रखना सरल न होगा। इसीलिए पुराने जमाने के राजाओं की बहुपत्नियों की प्रथा को सहजता से स्वीकारा जाता है।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राजनेताओं या प्रशासनिक पदों पर बैठे महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निजी जीवन क्या पूरी तरह पारदर्शी होना चाहिए? क्या इसे नैतिकता के सर्वोच्च मानदण्डों पर खरा उतरना चाहिए? अगर हा¡ तो क्या  ऐसे शुद्ध आचरण वाले लोग थोक में ढू¡ढे जा सकेंगे और क्या यह सम्भव होगा कि सत्ता के शिखर पर केवल वही बैठें जो अपना आचरण सिद्ध कर सकें? प्रश्न यह भी उठाया जाता है कि शासन चलाने वाले का काम देखना चाहिए, उसके काम का परिणाम देखना चाहिए, किन्तु उसकी निजी जिन्दगी में ताकझांक करने का हक किसी को भी नहीं मिलना चाहिए, चाहे वह मीडिया ही क्यों न हो। यहा¡  यह बात भी रखी जाती है कि यदि ऐसा व्यक्ति अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए अपने पद का दुरूपयोग करता है तो उसे अपराध की श्रेणी में माना जाना चाहिए। पर यह बहस शाश्वत है। इसका कोई समाधान नहीं। जब-जब राजपुरूषों के सैक्स स्कैंडल सामने आते हैं, ऐसी चर्चाऐं जोर पकड़ लेती हैं। फिर समाज में वही सब चलता रहता है और कोई कुछ नहीं कहता। 

Sunday, January 10, 2010

अनोखे सफर की अनोखी दास्तान

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल ने, चार दिन पहले उनसे मिलने आये, एक त्रिदंडी अमेरिका स्वामी से पूछा कि उन्हें भारत की संस्कृति में ऐसा क्या लगा जो वे भारत के होकर रह गए। राधानाथ स्वामी का जवाब था कि भारत की संस्कृति एक महासागर है। जिसमें सारी दुनिया की संस्कृतियों का समावेश है। यह तथ्य 1950 में शिकागो के एक सम्पन्न यहूदी परिवार में जन्में रिची को तब समझ में आया जब उसने 19 वर्ष की उम्र में गृहत्याग कर आध्यात्मिक सफर की शुरूआत की। अमरीका से यूरोप और यूरोप से पश्चिम एशिया का 6 महीने तक रोमांच, अवसाद और खतरों से भरा सफर करते हुए रिची पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रवेश करने के लिए बाघा सीमा पर पहुंचा। वहां खडे भारत के आव्रजक अधिकारी ने इस धूल-धूसरित फटेहाल अमरीकी नौजवान से कहा कि भारत में पहले ही बहुत भिखारी हैं, मैं तुम्हें प्रवेश नहीं दूंगा।कुछ घंटे बाद जब उसकी ड्यूटी बदली तो एक उम्रदार सरदार जी ड्यूटी पर आए। उन्होंने इस नौजवान की दयनीय दशा और आद्र प्रार्थना सुनकर उसे भारत में आने दिया। जिसके बाद कई वर्षों तक, बिना पैसे के, अयाचक भाव से देशभर में घम-घूम कर रिची ने पूरे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का नजदीकी से अध्ययन किया। देश के सभी बड़े संतों से सत्संग किया और अंत में भक्तियोग का मार्ग अपना लिया और उसका नाम हुआ राधानाथ स्वामी। आज राधारानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरा विश्व है। उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़ें उद्योगपति हैं। यह सब हजारों शिष्य चाहे गरीब हो या अमीर आपसी प्रेम और सहयोग के साथ एक वृहद परिवार के रूप में रहते हैं। कोई किसी की निंदा नहीं करता। दूसरे को अपनी सेवा, दीनता व प्रेम से जीतने का प्रयास करते हैं। ऐसा अद्भुत अनुभव कम स्थानों पर ही होता है।

रिची से राधानाथ स्वामी तक का अनोखा सफर बहुत रोमांचकारी था। जिसे अब 40 वर्ष बाद स्वामी जी ने द जर्नी होमया अनोखा सफरनाम से प्रकाशित अपनी पुस्तकों में लिखा है। मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली का कहना है कि, ‘यह पुस्तक पूरी युवा पीढ़ी के लिए उत्कृष्ट भेंट है। अशांति से भरे हमारे संसार में यह एक अमरीकी युवक द्वारा संतुष्टि की खोज की कथा है।आज भारत का युवा पश्चिम की चमक-दमक से चकाचैंध है। डीजे, डिस्को, ड्रग्स, सैक्स व उपभोगतावाद के जाल में उलझता जा रहा है। दूसरी तरफ रिची ने 19 वर्ष की आयु में  संपन्नता के शिखर पर बैठे अमरीकी समाज को छोड़ा था तो वहां संपन्नता से उकताये लाखाs युवा हिप्पी बन रहे थे। रिची भी बन सकता था। पर उसे तलाश थी जीवन के ध्येय की जो उसे मिला भारत की सनातन संस्कृति में। आज भारत आर्थिक सफलता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। फिर भी उसे अभी ऐसी सफलता नहीं मिली कि एक सौ दस करोड़ भारतीयों के पास वैभव के ढेर लग गए हों और भारत की युवा पीढ़ी इस वैभव से उकताने लगी हो। अभी तो भारत में मुठ्ठीभर लोगों के हाथ में अकूत दौलत आयी है। शेष भारत तो आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। ऐसे में पश्चिम की संस्कृति का अंधानुकरण आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। पर युवाओं को झकझोरने वाला, जगाने वाला और रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं। इसलिए भटकन है। इसलिए बिखराव है और इसीलिए हताशा है।

अनोखा सफरएक ऐसी सम-सामायिक पुस्तक है जिसे पढ़कर भारत के युवा, विशेषकर वे युवा जो पश्चिम से आकर्षित हैं, भारत की संस्कृति में ही अपनी कुंठाओं के हल खोज सकते हैं। 336 पेज की यह पुस्तक इतनी सरल भाषा में लिखी गयी है कि पाठक को हर क्षण लगता है कि वह रिची के साथ इस रोमांचक यात्रा को स्वयं कर रहा है। राधानाथ स्वामी ने इस्लाम, ईसायित, बौद्धधर्म, तांत्रिक व औघड़ पंरपरायें, हठयोग जैसी अनेक आध्यात्मिक धाराओं का अनुभव किया।  इस अनुभव को इतनी खूबसूरती से इस पुस्तक में जड़ दिया कि बिना किसी के प्रति नकारात्मक भाव अभिव्यक्ति किये ही भारत की सनातन संस्कृति की ही श्रेष्ठता को पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। आज से कई दशक पहले 1946 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी एक योगी की आत्मकथा।इस पुस्तक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। आज दशकों बाद भी इस पुस्तक की ढेरों प्रतियां पूरे विश्व में बिकती रहती हैं। उस पुस्तक के लेखक परमहंस योगानंद एक भारतीय स्वामी थे। जिन्होंने हठयोग और ध्यान की अपनी सिद्धि को स्थापित कर पश्चिमी जगत को चमत्कृत किया था। आज दशकों बाद एक अमरीकी स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक खोज को युवा पीढ़ी के सामने इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसे जीवन का सही रास्ता खोजने की प्रेरणा मिल सके।

स्वामी जी ने बहुत संजीदगी, संवेदनशीलता और कलात्मक आकर्षण के साथ कृष्णभक्ति और भगवान की लीलास्थली ब्रज क्षेत्र की महिमा को भी प्रस्तुत किया है और इसे ही अपने जीवन का अंतिम पड़ाव बनाया है। यही कारण है कि उनके हजारों अनुयायी ब्रज भूमि और कृष्णभक्ति के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और इस भूमि के लिए हर तरह की सेवा करने को तत्पर रहते हैं। अनोखी बात है कि एक अमरीकी युवा इतने कम समय में भारत के प्रबुद्ध और संपन्न लोगों को कृष्ण भक्ति व ब्रज भक्ति के प्रति आकर्षित करने में सफल रहा। हाल ही में जारी हुई यह पुस्तक मराठी, कन्नड़ व तेलगू भाषाओं में भी जल्दी ही जारी हो रही है। निश्चित रूप से इसकी शैली और इसमें व्यक्त की गई भावना भारत के युवाओं को कुछ सोचने पर मजबूर करेगी। बशर्ते कि वे इसे पढ़ने की जहमत उठाने को तैयार हों।

Sunday, January 3, 2010

तीन इडियट ही क्यों?

आईआईटी के छात्र रहे चेतन भगत की पुस्तक पर आधारित फिल्म थ्री इडियटखासी लोक प्रिय हो रही है। सिनेमाघरों के बाहर लंबी कतारें लगी है। फिल्म है भी बहुत बढि़या। पूरे तीन घंटे हंसते-हंसते गुजर जाते हैं। पर इस हंसी के बीच बहुत सारे सार्थक संदेश दिए गए हैं। जो  आज के युवाओं और उनके अविभावकों के बड़े काम के हैं। इस पूरी फिल्म की कहानी उन तीन युवाओं के इर्द-गिर्द घूमती है जो आईआईटी जैसे इंजीनियरिंग संस्थान में पढ़ रहे हैं और भौतिक जिंदगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए लगातार एक दबाव में जी रहे हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं का कारण भी यही तनाव बताया गया है।

फिल्म का मूल संदेश यह है कि अगर एक नौजवान अपनी दिल की आवाज सुनकर अपनी जिंदगी की राह तय करता है तो वह खुश भी होता है सही मायने में सफल भी। केवल ज्यादा पैसे कमाने के लिए पढ़ने वाले कोल्हू के बैल ही होते हैं। जिनकी जिंदगी में रस नहीं आ पाता। यही कारण है कि आईआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़कर सैकड़ों नौजवान आज देश में ऐसे काम कर रहे हैं जिसका उनकी डिग्री से कोई लेना देना नहीं है। मसलन झुग्गीयों में बच्चों को पढ़ाना, आध्यात्मिक आन्दोलनों में भगवत्गीता का प्रचारक बनना या गांव के नौजवानों के लिए छाटे-छोटे कुटीर उद्योग स्थापित करने में मदद करना। दूसरी तरफ इंजीनियरिंग की डिग्री की भूख इस कदर बढ़ गयी है कि एक-एक २kहर में दर्जनों प्राईवेट इंजीनियरिंग का¡लेज खुलते जा रहे हैं। जिनमें दाखिले का आधार योग्यता नहीं मोटी रकम होता है। इन का¡लेजों में योग्य शिक्षकों और संसाधनों की भारी कमी रहती है। फिर भी यह छात्रों से भारी रकम फीस में लेते हैं। बेचारे छात्र अधिकतर ऐसे परिवारों से होते हैं जिनके लिए यह फीस देना जिंदगी भर की कमाई को दाव पर लगा देना होता है। इतना रूपया खर्च करके भी जो डिग्री मिलती है उसकी बाजार में कीमत कुछ भी नहीं होती। तब उस युवा को पता चलता है कि इतना रूपया लगाकर भी उसने दी गयी फीस के ब्याज के बराबर भी पैसे की नौकरी नहीं पाई। तब उनमें हताशा आती है। आज हालत यह है कि एम.बी.ए. की डिग्री प्राप्त लड़के साडि़यों की दुकानों पर सेल्समैन का काम कर रहे हैं। समय और पैसे का इससे बड़ा दुरूपयोग और क्या हो सकता है?

थ्री इडियटफिल्म में आमिर खान की भूमिका एक ऐसे युवा की है जो हमेशा अपने रास्ते खुद बनाने में विश्वास करता है। लीक का फकीर बनने में नहीं। यह सलाह वह दूसरों को भी देता है। आज देश की 40 फीसदी आबादी युवाओं की है। जीवन की दिशा स्पष्ट न होने के कारण और बने बनाये रास्तों से अलग हटकर रास्ता बनाने की प्रवृत्ति न होने के कारण यह युवा भटक रहे हैं। नक्सलवाद, आतंकवाद व सामान्य अपराधों में यही युवा लिप्त होते जा रहे हैं। यह खतरनाक स्थिति है। अगर इसी तरह नौजवान हिंसा की तरफ बढ़ते गए तो इन्हें फौज और पुलिस की बंदूकों से रोकना संभव न होगा। जरूरत इस बात की है कि थ्री इडियटजैसी फिल्में दिखाकर देश के युवाओं को अपना भविष्य खुद बनाने की प्रेरणा दी जाए। अगर युवा अपने निकट के परिवेश को समझकर समाज को अपनी सेवाऐं प्रदान करेंगे और नई सोच से समस्याओं के हल ढूँढेगे तो यकीनन वे अपने मकसद में कामयाब होंगे। आज शहरी जीवन में हजारों नई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं। शहर नरक बनते जा रहे हैं। ऐसे में यह युवा अपनी नई सोच से समस्याओं के हल खोजकर अपनी जीविका कमा सकते हैं। अपनी सेवाओं के बदले समाज से खासी आमदनी पैदा कर सकते हैं। इससे देश की तरक्की भी होगी व युवाओं की भटकन दूर होगी।

सरकारी नौकरियों पर निर्भरता, नौकरियों में आरक्षण की मांग, नौकरियाँ पाने के लिए कठिन प्रतियोगिता, सिफारिश, रिश्वत, ये ऐसे झंझट हैं जो एक युवा को उसकी जिन्दगी के सबसे उत्पादक दौर में थका देते हैं। फूल सी ताजगी खत्म कर देते हैं। इस सबके बाद भी अगर नौकरी न मिले तो उसे हताशा और गलत रास्ते पर चलने को मजबूर कर देते हैं। जितनी ऊर्जा केन्द्र और प्रांत की सरकारें नौकरी का आश्वासन देने में और उसका तानाबाना बुनने में लगाती हैं, उसे कहीं कम खर्चें और प्रयास से इन युवाओं को आत्मनिर्भरता के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उसके लिए जिलों के प्रशासन को संवेदनशील बनाना होगा ताकि वे इन युवा उद्यमियों के रास्ते में आने वाली प्रशासनिक दिक्कतों को दूर कर सकें। इसके साथ ही देश के शिक्षा संस्थानों में ऐसा माहौल पैदा करने के लिए सबसे पहले शिक्षकों को अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी। रटे-रटाये कोर्स से अलग हटकर जीवन उपयोगी शिक्षा देने का अभ्यास करना होगा। छात्रों से अधिक अंक लाने की अपेक्षा करने की बजाय उन्हें एक अच्छा इंसान, खुश इंसान और संतुष्ट इंसान बनने की प्रेरणा देनी होगी। यदि शिक्षक ऐसा कर पाते हैं तो भारत की मौजूदा युवा पीढ़ी देश के लिए बहुमूल्य निधि बन जायेगी। इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल को नीतिगत ढाँचे में बदलाव करने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह मुन्नाभाई से देश के मध्यमवर्गीय शहर वालों ने गांधी गिरी सीखी उसी तरह थ्री इडियटफिल्म से शिक्षा के क्षेत्र में गैर पारंपरिक सोच को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।

Sunday, December 20, 2009

कोपेनहेगन विफल: अशोक गहलोत सफल

Rajasthan Patrika 20-Dec-2009
जो उम्मीद थी कोपेनहेगन में वही हुआ। न तो विकासशील देश दबे और न ही विकसित देशों ने उनकी मांग मानी। अब दिसम्बर 2010 में मैक्सिको में फिर यही सर्कस होगा। फिर दुनिया भर के हजारों पर्यावरणविदों का मेला जुटेगा, तर्कों की गरमी पैदा होगी पर ग्लेश्यिरों का पिघलना जारी रहेगा। मालदीव, बांग्लादेश, भारत का तटीय क्षेत्र ही नहीं दुनिया के तमाम देश जल प्रलय में डूबने की कगार पर पहुंचते जायेंगे। जैसा हमने अपने पिछले लेख में लिखा था कि जलवायु परिर्वतन को यदि रोकना है तो हमें भारतीय जीवन पद्धत्ति को अपनाना होगा। पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति ने जीने के आधार को जितनी तेजी से पिछले कुछ दशकों में खत्म किया है उतना विनाश मानव इतिहास में पिछले लाखों सालों में नहीं हुआ था।

जीवन जीने के लिए और जलवायु को दुरस्त रखने के लिए पहाड़, जंगल, नदी-पोखर, जमीन, हवा व वन्य जीवन सबकी रक्षा करना जरूरी होता है। हवा प्रदूषित होगी तो हरियाली पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। लाखों जीव-जन्तु समाप्त हो जायेंगे। वातावरण दूषित होगा और पृथ्वी सूर्य से जो गर्मी लेगी वह आकाश तक लौटा नहीं पायेगी। इससे तापक्रम बढ़ेगा। ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी। समुद्र का जल स्तर ऊंचा उठेगा और दुनिया पर जलप्रलय का खतरा मंडराने लगेगा।

जंगल कटेंगे तो वर्षा कम होगी। खेती कम होगी। जमीन की नमी कम होगी। अकाल और भूख से लोग मरेंगे। पर्वत टूटेंगे तो रेगिस्तान बढ़ेगा। चारागाह घटेंगे। दूध की कमी होगी। वर्षा कम होगी। भू-जल स्तर नीचे चला जायेगा। भू-चाल ज्यादा आयेंगे। भारी तबाही होगी। जमीन में रासायनिक उर्वरक डाले जायेंगे तो जमीन जहरीली होगी। फसल नुकसानदेह होगी। बीमारियां बढ़ेंगी। इसलिए जरूरी है कि जमीन, जंगल, पहाड़, पानी व हवा सबको हीरे-पन्ने से भी ज्यादा सावधानी से बचाकर सुरक्षित रखा जाए। कोपेनहेगन में यही तय होना था। पर हुआ नहीं। जीने का आधुनिक तरीका बदले बिना यह होगा नहीं। इसलिए कड़े निर्णय लेने की जरूरत है। पर्यावरण बचाने के बयान और नारे तो हम गत 30 वर्षों से सुन रहे हैं पर ऐसे हुक्मरान दिखाई नहीं देते जो अपनी कथनी और करनी को एक करने की कोशिश करें। पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कथनी और करनी को एक कर इतिहास रच दिया है।

उन्होंने हरित राजस्थान का नारा दिया और इसके लिए देशभर के विशेषज्ञों और स्वयंसेवी संस्थाओं को बुलाकर इस काम में जोड़ा। जब उनका ध्यान डीग और कामा के पर्वतों पर चल रहे खनन की ओर दिलाया गया तो उन्होंने चंद घंटों में समस्या की गंभीरता को समझ लिया। ब्रज क्षेत्र के बीच आने वाले इन पर्वतों को एक ही दिन में आरक्षित वन घोषित कर दिया। जिससे न सिर्फ राजस्थान और ब्रज भूमि के पर्वतों की रक्षा हो सकी बल्कि पूरे पर्यावरण की रक्षा हुई। यह एक ऐसा ऐतिहासिक कदम था जिसने राजस्थान के मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा को पूरी दुनिया की नजर में रातों-रात काफी ऊंचा उठा दिया। दुनिया भर के कृष्ण भक्त और संत ही नहीं बल्कि मुसलमान, ईसाई, चीनी और बौद्ध लोगों ने भी ई-मेल पर उनके इस कदम की वाह-वाही की। यहां तक कि संसद में विपक्ष के नेताओं ने श्री गहलोत को बधाई संदेश भेजे। इस तरह जहां एक तरफ कोपेनहेगन में दुनिया के पर्यावरणविद हताश और विफल हो रहे थे वहीं श्री गहलोत ने आशा और विश्वास की लहर का संचार किया। यह विश्वास दिलाया कि मुठ्ठी भर वोटरों के ब्लैकमेल और अवैध खनन के अवैध काले धन से उन्हें दबाया या खरीदा नहीं जा सकता। जाहिर है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी श्री गहलोत के इस कदम से बल मिलेगा और वे देश के बाकी हिस्सों में पर्यावरण की रक्षा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाईयों को इसी तरह निर्णायक स्थिति में ले जाने की गंभीर कोशिश करेंगे।

यहां यह उल्लेख करना अप्रसांगिक न होगा कि डीग और कामा के यह पर्वत पौराणिक महत्व के भी हैं। इनका सीधा संबंध भगवान श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं से है। इसलिए तमाम साधु-संत और भक्त वर्षों से इनकी रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वयं को हिंदू धर्म का रक्षक बताने वाली भाजपा की राजस्थान सरकार ने इन संतों और भक्तों को 5 वर्ष तक मानसिक, शारीरिक और आर्थिक यातना दी। उनकी एक न सुनी। जब चुनाव सिर पर आया और भाजपा के पास चुनाव के लिए कोई मुद्दा न बचा तो उसे रामसेतु का मुद्दा पकड़ना पड़ा। रामसेतु की बात करें और ब्रज के पर्वतों को तोड़े यह चल नहीं सकता था। इसलिए वसुधरा राजे ने चुनाव से पहले चुनावी स्टंट के तौर पर डीग और काॅॅमा के पर्वतों को वन विभाग को हस्तांतरित करने का नाटक किया। नाटक इसलिए कि न तो इसे आरक्षित वन घोषित किया और न ही यहां से स्टोन-के्रशर हटवाये। अगर वे गंभीर थीं तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन जनहित याचिका में शपथ पत्र दाखिल करना चाहिए था कि वह ब्रज रक्षक दल के याचिकाकर्ताओं से सहमत है और इस क्षेत्र में खनन न होने देने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसा होता तो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भी जल्दी ही आ जाता। पर श्रीमती वसुंधरा राजे को एक तीर से कई शिकार करने थे। संतों को फुसला दिया कि तुम्हारी मांग मान ली। देश में प्रचारित करवा दिया कि रामसेतु के लिए लड़ने वाले सभी पौराणिक पर्वतों की रक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध हैं। जबकि 5 वर्षों में इन्हीं पर्वतों का उन्होंने नृश्रंस विनाश करवाया। स्टोन क्रेशर वालों व खान वालों को झुनझुना थमा दिया कि फिलहाल चुप बैठो जब हम चुनाव जीत कर आयेंगे तो फिर इस निर्णय को पलट देंगे। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

अब श्री गहलोत को चाहिए कि डीग और काॅमा के इन पर्वतों की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठायें। यहां अवैध खनन रोकें। इस क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण व तीर्थाटन के लिए विशेष प्रयास करे। साथ ही भवन निर्माण उद्योग की मांग पूरी करने के लिए वैकल्पिक इलाके में खनन का इंतजाम करें। इसके लिए काॅमा से लगे पहाड़ी क्षेत्र के पर्वतों का नेशनल रिमोट सेंसिंग ऐजेंसी की मदद से उपग्रह सर्वेक्षण करवायें। इस क्षेत्र से संबंधित राजस्व खातों की पारदर्शी पड़ताल करवायें। जिससे पहाड़ी क्षेत्र में बंदर बांट किये गये खनन के पट्टों को तार्किक आधार पर फिर से बांटा जा सकें। इस तरह डीग और काॅमा से विस्थापित होने वाले खनन उद्योग को पहाड़ी क्षेत्र वैकल्पिक खान आवंटित की जाए। यदि संभव हो तो उन्हें आवश्यकतानुसार कर में रियायत दी जाए जिससे वे अपना धंधा ब्रज के बाहर चला सके। पर खनन कहीं भी हांे अवैज्ञानिक और विध्वंसकारी तरीके से न हो।

अगर राजस्थान सरकार गंभीरता और तेजी से काम करेगी तो डीग और काॅमा सजेंगे और पर्यटन से इतना रोजगार पैदा करेंगे कि लोग अवैध खनन की आमदनी को भूल जायेंगे। वैष्णों देवी के जीर्णाेद्धार से पहले वहां के उपराज्यपाल जगमोहन जी को पंडों का विरोध महीनों झेलना पड़ा। उन्होंने बाजार बंद किये, सड़कों पर लेट गये, पर जगमोहन नहीं झुके। वैष्णों देवी को अपनी योजना के अनुरूप तीर्थयात्रियों के सुख के लिए वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया। आज वही पंडे सबसे ज्यादा खुशहाल हैं। उन्ही की टैक्सियां दौड़ रही हैं। गेस्ट हाउस सोना उगल रहे हैं। बाजारों में उनके नौनिहाल बड़े-बड़े दुकानदार बन गये हैं। कल विरोध करने वाले आज यशगान कर रहे हैं। ऐसा ही डीग और कामा में भी होगा। समय का अंतर है। आज जो असंभव लग रहा है वह कल संभव होगा और तब लोग उन संतों, पर्यावरण व आन्दोलनकारियों को साधुवाद देंगे जिनके त्याग और तप से ब्रज के पहाड़ बचे हैं। इतिहास अशोक गहलोत को इस पहल के लिए सदियों तक याद रखेगा। जलवायु परिर्वतन का अगला वैश्विक संम्मेलन 2010 में मैक्सिको में जब होगा तब न जाने क्या परिणाम आये पर राजस्थान के डीग और काॅमा तब तक जलवायु संरक्षण की दिशा में बहुत आगे बढ़ चुके होंगे।

Sunday, December 13, 2009

तेलांगना राज्य किसके लिए?


         
Rajasthan Patrika 13-Dec-2009
चंद्रशेखर राव की भूख-हड़ताल ने व उस्मानिया विश्वविद्यालयके छात्रों के प्रचंड आन्दोलन ने नये तेलंगाना राज्य के निर्माण की जमीन तैयार कर दी। सवाल है कि क्या आज इस अलग राज्य की जरूरत है? क्या तेलंगाना के वही हालात हैं जो 40 वर्ष पहले 1969 में थे? जब पहली बार इस आन्दोलन का जन्म हुआ था? क्या नया राज्य बनने से आम आदमी के दुख-दर्द दूर हो जायेंगे? टीआरएस की मानें तो इन सवालों का जवाब होगा हां। वे खुश हैं कि उनके नेता चंद्रशेखर राव इस बार बाजी मार ले गए। वरना काफी लंबे समय से धोखा खा रहे थे। यूं तो 1947 में भी तत्कालीन हैदराबाद रियासत (तेलंगाना) के निज़ाम भारत के साथ विलय नहीं चाहते थे। लौह पुरूष सरदार पटेल ने 1948 में पुलिस कार्यवाही करके इसे भारत का हिस्सा बना दिया और 1953 में तेलगू-भाषी आंध्र प्रदेश का गठन हुआ। वैसे भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के लिए बनी समिति हैदराबाद रियासत और आन्ध्र प्रदेश वाले हिस्से का विलय नहीं चाहती थी। पर केंद्र सरकार ने तेलंगाना को समुचित विकास का आश्वासन देकर फुसला लिया।

इसके बाद 13 साल बीत गए। पर तेलंगाना का विकास नहीं हुआ। तब जनता का आक्रोश बढ़ने लगा। वैसे भी पं. नेहरू की तीनों पंचवर्षीय योजनाएं आम आदमी का सपना पूरा नहीं कर पाईं थीं। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं को रोक दिया गया और एक-एक वर्ष की 3 योजनाएं 1966 से 1969 के बीच चलीं। देश के हालात काफी बदल चुके थे। पाकिस्तान से युद्ध, अमरीका पर खाद्यान्न की निर्भरता, बड़ी योजनाओं में भारी विदेशी कर्ज कुछ ऐसे संकट थे जिन से देश में हताशा फैली थी। तेलंगाना वासी और ज्यादा बेचैन हो गए और 1969 में जय तेलंगाना आन्दोलनशुरू हुआ। जिसकी शुरूआत भी उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ही की थी। इस आन्दोलन में सैकड़ों लोग मारे गये। पर तेलंगाना राज्य फिर भी नहीं बना। सत्तारूढ़ कांगेस ने राजनैतिक दावपेंच खेलकर इन अलगावादी नेताओं को खरीद लिया या कांग्रेस में ले लिया। आन्दोलन विफल हो गया।

तब से आज तक हालात काफी बदल चुके हैं। आज तेलंगाना क्षेत्र में भारत का पांचवा सबसे बड़ा शहर हैदराबाद है।जो तेजी से फैलता जा रहा है और जिसने दुनिया में अपने झंडे गाढ़े हैं। विकास का फल भी कुछ सीमित मात्रा में इस इलाके में पहुंचा है। अलग राज्य बनकर ऐसा होने कुछ नहीं जा रहा जिससे आम आदमी की हालत सुधर सकेगी। अलबत्ता तेलंगाना के राजनेताओं की तकदीर जरूर चमक जायेगी। जो आज तक सत्ता का सुख भोगने का सपना देखते आए हैं। उल्लेखनीय है कि 1990 और 2004 में भाजपा और कांग्रेस ने पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाकर चुनाव लड़ा था। पर साझी केंद्रीय सरकार के सहयोगी दल तेलगूदेशम पार्टी के विरोध के कारण तब यह राज्य नहीं बनाया गया। इसी तरह 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस ने टीआरएस के साथ चुनाव लड़ा पर बाद में वायदे से मुंह मोड़ लिया। अब चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि सोनिया गांधी को उनकी जि़द के आगे झुकना पड़ा। कांग्रेस जानती है कि इस वक्त अगर तेलंगाना राज्य का गठन होता है तो राजनैतिक लाभ भी टीआरएस को ही मिलेगा। पर अगर मांग न मानती तो हालात बेकाबू हो जाते। पर इस सारे आन्दोलन के पीछे क्षेत्र के विकास की चिंता कम और अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। क्या वजह है कि एनटीआर के जमाने में यह आन्दोलन ठंडा पड़ा रहा?

दरअसल जब किसी नेता या दल को अपनी पहचान बनानी होती है या राजनैतिक फसल काटनी होती है तो उसे ऐसा  कुछ जरूर करना होता है जिससे उथल-पुथल मचे और दुनिया का ध्यान उस पर या उसके नए दल की ओर आकर्षित हो। गोरखालैंड के लिए मांग करने वाले सुभाष घीसिंग या राज ठकरे, अर्जन मुंडा हों या छत्तीस गढ़ के नेता, सब अपनी पहचान के लिए अपने राज्य की मांग करते हैं या सत्ता es अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते है। राज्य के गठन के बाद नया सचिवालय, नई विधान सभा, नई राजधानी, नई सरकारी इमारतें आदि इतना कुछ बनता है कि नए राज्य के नेताओं की मोटी कमाई होती है। फिर मंत्री पदों की बंदरबांट होती है। जनता के पैसे पर शाही ठाट-बाट जुटाये जाते हैं। अंत में जनता वहीं की वहीं रह जाती है। लुटी-पिटी और बदहाल।

तेलंगाना की आमदनी का जरिया शराब की बिक्री से प्राप्त आबकारी कर है। अलग राज्य होकर ये अपने विकास के लिए साधन कहां से लायेगा? क्या नया राज्य ज्यादा शराब बेचेगा? फिर तो जनता और लुटेगी। राज्य का विनाश होगा या विकास होगा? ऐसे सवालों की 
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पृथक राज्य की मांग करने वालों को नहीं है। इसलिए वे आज जीत का जश्न मना रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे अयोध्या में कार सेवकों पर हुए पुलिसिया खूनी हमले के बाद भाजपा नेताओं ने जश्न मनाया था कि अब हमारी गद्दी पक्की। गद्दी तो उन्हें मिली पर मंदिर आज तक नहीं बना। मंदिर बनना तो दूर अयोध्या शहर की भी गति नहीं सुधरी। खैर यह तो वक्त ही बतायेगा कि केंद्र सरकार किस सीमा तक तेलंगाना राज्य को स्वतंत्रता देगी। पर फिलहाल इतना तय है कि तेलंगाना के नेताओं ने अपने ताजा संघर्ष से वह सब हासिल कर लिया जो वे 40 वषों में नहीं कर पाये थे। अब देखना यह है कि वे तेलंगाना की जनता के लिए क्या क्रांतिकारी कार्य करते हैं।

Sunday, December 6, 2009

आईआईटी दाखिलों में धांधली


Rajasthan Patrika 6-Dec-2009
भारत के प्रोद्योगिकी संस्थानों ने गत 50 वर्षों में पूरी दुनिया में अपनी गुणवत्ता की धाक जमाई है। आज आईआईटी के पढ़े नौजवानों की दुनिया के बाजार में सबसे ऊंची बोली लगती है। जाहिर है कि ये नौजवान विश्व स्तर पर अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण स्थापित हो चुके हैं। फिर यह मानने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिले के समय किसी तरह की धांधली की जाती हो। हर साल भारत के 15 आईआईटी में 3.5 लाख छात्र इनकी प्रवेश परीक्षा में बैठते है। जिसमें से लगभग 8 हजार छात्र चुने जाते हैं। इस कठिन परीक्षा के लिए देशभर में छात्र वर्षों कड़ी मेहनत करते हैं। महंगे कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई करते है। फिर भी इनमें से अनेक ऐसे छात्र दाखिला पाने से रह जाते हैं जिनकी योग्यता के बारे में किसी को संदेह नहीं होता और दूसरी तरफ कुछ ऐसे छात्र दाखिल हो जाते हैं जिनके दाखिले पर अचंभा होता है।

ऐसी ही एक घटना 2006 के ज्वाइंट ऐन्ट्रेंस एक्ज़ाममें हुई। इस परीक्षा को आईआईटी खड़गपुर ने संचालित किया था। इसी आईआईटी के कंप्यूटर साइंस के प्रो0 राजीव कुमार को यह बइमानी नागवार गुजरी और तब से वे अपनी ही संस्थान की परीक्षा प्रणाली की बखियां उखेड़ने में जुट गए। इसके लिए पिछले 3 सालों es उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय, केंद्रीय सूचना आयोग, संसद व अदालतों में काफी भागा-दौड़ी की। उन्होंन इस परीक्षा प्रणाली के विषय में तमाम तरह का शोध किया। अपने संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों पर कानूनी दबाव डालकर उन्हें सच उगलने पर मजबूर किया। जो सच सामने आया वह चैंकाने वाला है। 2006 की इस परीक्षा में जिन विद्यार्थियों के अंक क्रमशः 231, 251 या 279 आये थे वे तो असफल रहे। पर जिन विद्यार्थियों के अंक 154, 156 या 174 आये थे वे सफल रहे। ऐसा इसलिए हुआ कि चयन कर्ताओं ने भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र व गणित में न्यूनतम अंकों की जो सीमा तय करी थी वह काफी धांधलीपूर्ण थी। उसका कोई तार्किक आधार नहीं था।

इसी खोज में यह बात भी सामने आई कि आईआईटी कानपुर और आईआईटी खड़गपुर के रसायन शास्त्र के प्रोफेसरों के साहबजादों को रसायन शास्त्र विषय में 184 में से 135, 130, 125 या 120 जैसे उच्च अंक प्राप्त हुए। जबकि उनका अन्य विषयों में प्रदर्शन काफी निम्न स्तर का था। फिर भी उनका चयन हो गया। जब बार-बार चयन कर्ताओ से केंद्रीय सूचना आयोग ने चयन की प्रक्रिया पर असुविधाजनक सवाल पूछे तो हर बार उसे विरोधाभासी उत्तर दिया गया। जाहिर है कि चयनकर्ता तथ्यों को छिपा रहे थे क्यों कि उन्हें पकड़े जाने का भय था। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात तो यह हुई कि जब सूचना आयोग का दबाव बढ़ने लगा तो आईआईटी खड़गपुर ने अपने ही नियम के विरुद्ध जाकर 2006 के परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिकाएं नष्ट कर दी, ताकि कोई प्रमाण ही न बचे। जबकि नियमानुसार उन्हें एक वर्ष तक सलामत रखना चाहिए था।

ऐसा नहीं है कि इन अधिकारियों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि यह मामला कोलकाता उच्च न्यायालय व केंद्रीय सूचना आयोग में विचाराधीन है। फिर भी उन्होंने उत्तर पुस्तिकाओं को नष्ट करने की हड़बड़ी क्यों की? जब इस मामले पर संसद में सवाल पूछा गया तो मानव संसाधान विकास राज्यमंत्री ने लीपा-पोती करके मामला टाल दिया। इसी तरह 2007 के जेईई में भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिसका संचालन मुंबई आईआईटी ने किया था। इस परीक्षा में भी ऐसे छात्र सफल हो गए जिन्हें गणित में 1 अंक, भौतिक शास्त्र में 4 अंक और रसायन शास्त्र में मात्र 3 अंक प्राप्त हुए थे। 2008 में भी कोई सुधार नहीं हुआ। गणित में 15 फीसदी और भौतिक शास्त्र में 5 फीसदी अंक पाने वाले को भी आईआईटी खड़कपुर में दाखिला मिल गया। एक छात्र को भौतिक शास्त्र में 104 अंक, गणित में 75 और रसायन शास्त्र में 52 अंक मिले। उसका कुल योग 231 था पर उसका चयन नहीं हुआ, जबकि कुल 174 अंक पाने वाले छात्र का दाखिला हो गया। ऐसा इसलिए हुआ कि इस विद्यार्थी के भौतिक शास्त्र में 50, रसायन में 73 और गणित में 51 अंक थे और चयन कर्ताओं ने इस वर्ष यह तय किया रसायन शास्त्र में 55 से कम अंक पाने वाले को दाखिला नहीं दिया जायेगा। ऐसे ही बेसिर-पैर के गोपनीय फैसलों से आईआईटी के चयनकर्ता लाखों मेधावी छात्रों के साथ वर्षों से खिलावाड़ करते आ रहे है। देश के ज्यादातर छात्र/छात्रा व अभिभावकों को इस गोरखधंधे का पता नहीं। पर पिछले कुछ महीनों से देश के अंग्रेजी मीडिया में विरोध के स्वर उभरने लगे हैं। केंद्रीय सूचना आयोग भी दबाव बनाये हुए हैं। प्रो0 राजीव कुमार जैसे योद्धा वैज्ञानिक तर्कोंं के साथ चयनकार्ताओं के छक्के छुड़ा रहे हैं। यही समय है जब मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को इस पूरे मामले की गहरी छान-बीन करवानी चाहिए और इस प्रतिष्ठित परीक्षा को पारदर्शी बनाना चाहिए। नए-नए आईआईटी खोलने की जल्दी में अगर श्री सिब्बल ने इस नासूर को दूर नहीं किया तो यह कैंसर की तरह फैल जायेगा और आईआईटी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी कीमत खो देंगे। तब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में आकर महंगी शिक्षा बेचेंगे और भारत के मेधावी किन्तु साधनहीन युवाओं को असहाय बनाकर छोड़ देगें, क्योंकि उनके माता-पिता इतनी मंहगी शिक्षा का भार वहन नहीं कर पायंगे।

इसलिए देशभर के छात्रों को भी, जिन्हे आईआईटी प्रवेश में रुचि है, जेईई को पारदर्शी बनाने के लिए ज़ोरदार आवाज़ उठानी चाहिए। अपने सांसदों, अखबारों के संपादकों को पत्र लिख कर इस मुदns पर ध्यान दिलाना चाहिए। अभिभावकों को भी जनहित याचिकाएं दाखिल करके आईआईटी को मजबूर करना चाहिए के वह जेईई को पारदर्शी बनाये। भारत की भावी वैज्ञानिक पीढ़ी के भविष्य के लिए यह एक ज़रूरी प्रयास होगा।