Sunday, April 26, 2009

सुधरना चाहिए चुनाव अभियान


पिछले सप्ताह इसी का¡लम में हमने डा¡. मनमोहन सिंह पर आडवाणी जी के लगातार चल रहे व्यक्तिगत हमले और डा¡. सिंह के पलटवार की सम्भावना को लेकर जो लेख लिखा था, उसका असर तीसरे दिन ही देखने में आया। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने यह तय किया कि अब आडवाणी जी और उनका दल डा¡. सिंह पर व्यक्तिगत हमला नहीं करेगा। दरअसल राजनीति में क्या जायज है और क्या नाजायज, इसका फर्क करना आसान नहीं होता। पश्चिमी देशों की कहावत है कि ऐवरी थिंग इज फेयर इन वा¡, लव एण्ड पालिटिक्सयानि युद्ध, प्रेम और राजनीति में सबकुछ जायज होता है। शायद इसीलिए हमारे देश के चुनावों में दलों ने अपने अभियानों को इस नीचाई तक गिरा दिया कि कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति इस कीचड़ में गिरना नहीं चाहता। कहते हैं कि अगर अपनी दस पीढि़यों तक की पोटली चैराहे पर खुलवानी हो तो राजनीति में जाओ। लोकतंत्र के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति है।

अगर अपनी किसी पिछली गलती या पूर्वजों की कमजोरी के डर से अच्छे लोग राजनीति से परहेज करते रहेंगे तो एक से एक गुण्डे, बकैल और लोफर राजनीति में हावी होते जायेंगे। वोरा समिति की रिपोर्ट हो या सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ, मीडिया में आये दिन छपने वाले घोटाले हों या एक आम आदमी की राय, राजनीतिज्ञों की छवि लगातार गिरने का ही प्रमाण देती है। एक मत यह भी हो सकता है कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का कोई निजी जीवन नहीं होता। इसलिए उसकी और उसके परिवार की हर कमजोरी जनता के सामने आनी ही चाहिए। तभी मतदाता यह निर्णय कर पायेगा कि वह किसे अपना प्रतिनिधि चुने। यूं यह बात बहुत तार्किक लगती है पर इसकी अपनी सीमाऐं हैं। सार्वजनिक जीवन जीने वाले का भी एक निजी जीवन होता है। अगर उसके निजी जीवन का हर पक्ष गली मौहल्लों की चर्चा का विषय बन जायेगा तो उस बिचारे का जीना दूभर हो जायेगा। वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठेगा। उसका परिवार इस त्रासदी को भोगने में अपना चैन गंवा बैठेगा। इसलिए एक सीमा निर्धारण करने की जरूरत होती है।

खोजी पत्रकार के रूप में अपने शुरू के वर्षों में मैंने उत्साह के अतिरेक में अनेक बार बहुत तीखे वार राजनेताओं पर किये। हाँलाकि उन सब का तथ्यात्मक आधार सुदृढ़ था और ऐसा करते वक्त मेरे मन में कोई राग द्वेष की भावना भी नहीं थी, फिर भी मेरा वह अनुभव अच्छा नहीं रहा। बाद के वर्षों में तो समझ बढ़ी और तरीका बदला। पर सबसे अच्छा पाठ उस दिन सीखने को मिला जिस दिन न्यूयाZक के वल्र्ड ट्रेड सsटर व वाशिंगटन के पेण्टागाॅन पर आतंकवादी हमले हुए और पूरा अमरीका दहल गया। तब सी.एन.एन. का एक वरिष्ठ संवाददाता जो गत दो दशक से व्हाईट हाउस की रिपोर्टिंग करता रहा था, उससे एंकर पर्सन्स ने बार-बार जानना चाहा कि इस समय व्हाईट हाउस के भीतर क्या घट रहा है? जार्ज बुश की मानसिक हालत कैसी है? आदि। उस संवाददाता ने कहा कि ये सही है कि मैं व्हाईट हाउस के अंदर घट रही हर हलचल से वाकिफ हूँ, पर जो कुछ मैं जानता हूँ वह पूरी दुनिया के सामने नहीं रख सकता। ऐसा करना देश और उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी है। उसका यह कथन मेरे दिल को छू गया। मैंने मनन किया और सोचने लगा कि हममें से कितने पत्रकार ऐसे हैं जो पत्रकारिता के जुनून में इस सीमा का ध्यान रखते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि बढि़या रिपोर्ट यानि सनसनीखेज रिपोर्ट फाइल करने के चक्कर में हम अपनी हद तोड़ देते हों? आज ज्यादातर यही हो रहा है। इसलिए पाठकों और दर्शकों की रूचि ऐसी पत्रकारिता से हटती जा रही है। यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। चुनाव लड़ना है तो अपने को बेहतर साबित करना होगा। अपने प्रतिद्विंदी को कमजोर साबित करना होगा। ऐसा करने में कुछ भावनाऐं तो आहत होंगी ही पर इसके बिना आपका अभियान सिरे नहीं चढ़ सकता। लेकिन विरोधी को नीचा दिखाने के लिए गरिमा से नीचा गिरकर गली-मौहल्ले के वाक्युद्ध के स्तर पर उतर आना, लोकतंत्र के कर्णधारों को शोभा नहीं देता। कानून के निर्माताओं से गम्भीर आचरण की अपेक्षा की जाती है। ऐसा आचरण न रखने वाले प्रतिनिधि ही सदन में कुर्सियाँ और माइक तोड़कर विरोधियों पर फैंका करते हैं और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का भौंडा प्रदर्शन करते हैं।

चुनाव अभियान मुद्दों पर आधारित हो। मुद्दे चाहें स्थानीय हों, प्रांतीय हों, राष्ट्रीय हों या अन्तर्राष्ट्रीय हों। इन मुद्दों पर प्रत्याशी या उसके दल की राय क्या है? उनकी नीति क्या रही है? वे यदि विपक्ष में हैं तो सत्ता पक्ष की किन नीतियों से उन्हें मतभेद है और अगर वे सत्ता में आयेंगे तो उनकी नीति क्या होगी? यह ऐसे बिन्दु हैं जिन पर अपनी बात रखनी चाहिए। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोपों के माहौल में कोई गम्भीर मुद्दा सामने आ ही नहीं सकता। दुर्भाग्यवश इस बार भारत की लोकसभा का चुनाव बिल्कुल मुद्दा विहीन चल रहा है। किसी भी दल को नहीं पता कि वो चाहता क्या है? विरोध किस का कर रहा है? जिस बिन्दु पर विरोध कर रहा है, अपने शासनकाल में उसकी भी यही नीति थी। तो फिर विरोध किस बात का? ऐसे भ्रामक माहौल में मतदाता समझ नहीं पा रहा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावा ठोंकने वाले नेता और उनके दल कौन सा ठोस कार्यक्रम लेकर जनता के सामने आयें हैं? जब वे सत्ता में रहे तब इनमें से कितने कार्यक्रम उन्होंने लागू किये? अगर नहीं किये तो अब किस मुँह से दूसरों की आलोचना करते हैं? ऐसे बुनियादी सवालों का उठना और उन पर मीडिया में व जनसभाओं में सार्वजनिक बहस होना एक शुभ लक्षण होगा। उससे हमारी राजनीति परिपक्व होगी। उसमें गाम्भीर्य आयेगा और उस राजनीति से जनता को दिशा मिलेगी। फैसला प्रत्याशियों को करना है कि वे राजनीति में राजऋषि बनना चाहते हैं या सड़कछाप मवाली?

Sunday, April 19, 2009

मतदाता को दल से नहीं अच्छी सरकार से मतलब है

मनमोहन सिंह और आडवाणी के वाक्युद्ध के बीच फंसा मतदाता हैरान है कि आखिर ये कहना क्या चाहते हैं? अखबारों की मानें तो आडवाणी जी मनमोहन सिंह को कमजोर और कठपुतली प्रधानमंत्री मानते हैं और अपने मजबूत और निर्णायक होने का दावा करते हैं। उधर मनमोहन सिंह आडवाणी को राजनैतिक बयानवाजी से ज्यादा कुछ न करने वाला बताते हैं। दोनों की बात में दम है। अगर आडवाणी जी डाॅ0 मनमोहन सिंह को खुली बहस की चुनौती बार-बार देकर ये जताना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह उनके सामने आने से कतरा रहे हैं तो मनमोहन सिंह भी आडवाणी जी से पूछ सकते हैं कि हवाला कांड के संदर्भ में कालचक्र पत्रिका ने जो सवाल आपसे पूछे थे, उनके जवाब आप आज तक नहीं दे पाये तो मुझे क्यों उलाहना देते हैं? इस पर आडवाणी जी कोई उत्तर नहीं दे पायेंगे। क्योंकि हाल में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में भी आडवाणी जी ने हवाला कांड से सम्बन्धित तथ्यों को इस तरह तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है कि उनके दावों को एक आम आदमी तक प्रमाण प्रस्तुत करके झूठा सिद्ध कर सकता है। आश्चर्य की बात है कि आडवाणी जी के प्रतिद्वदिंयों ने आज तक इस ओर ध्यान नहीं दिया।

दूसरी तरफ मनमोहन सिंह अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का चाहे जितना बखान करें, इस बात का कोई उत्तर नहीं दे सकते कि जब वे भारत के वित्त मंत्री थे और नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो सबसे ज्यादा बड़े घोटाले उनकी नाक के नीचे हुये। कैसे होने दिया ऐसा उन्होंने, इसका क्या कोई जवाब उनके पास है? क्या यह सच नहीं है कि डाॅ. सिंह को सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री ही इसलिए बनाया कि वे जनाधार न होने के कारण कभी भी नेहरू खानदान को चुनौती नहीं दे पायेंगे और एक विश्वासपात्र मुलाजिम की तरह नेहरू परिवार की सरपरस्ती में हुकूमत चलाते रहेंगे? यही उन्होंने आज तक किया भी है। जितनी कमजोरी उनके व्यक्तित्व में भाजपा को दिखाई दे रही है, उससे ज्यादा लम्बी फेहरिस्त आडवाणी जी की कमजोरियों की भी प्रकाशित की जा सकती है। इसलिए भाजपा का बार-बार चुनौती देना एक चुनावी स्टंट से ज्यादा कुछ भी नहीं है।


पर इसका मतलब ये नहीं कि आडवाणी जी या डा¡ सिंह में कोई गुण ही नहीं है। जीवन के छः दशक सार्वजनिक जीवन में जीने वाले इन दोनों नेता-अफसर-नेता के व्यक्तित्व में अनेक ऐसे गुण हैं, जिनके कारण वे आज यहाँ तक पहुँचे हैं। यहाँ उद्देश्य इन दो नेताओं के व्यक्तित्वों का मूल्यांकन कर जनता के सामने परिणाम घोषित करना नहीं है। यह तो इसलिए लिखना पड़ा कि पिछले दो हफ्ते से लोकसभा चुनाव में असली मुद्दों को छोड़कर व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों का जो दौर चल रहा है, वो कोई बहुत अच्छा संदेश नहीं दे रहा। देश का मतदाता इन दो नेताओं की शख्सियत का मोहताज नहीं है। उसे इंका, भाजपा, सपा, बसपा, जेडीयू, वामपंथी दल या दूसरे दलों के बैनरों, नारों, विचारधाराओं, आश्वासनों में कोई रूचि नहीं है। ऐसे तमाम मुद्दे संसद के सामने आते रहे हैं जिनमें ये सब दल अपनी घोषित नीतियों के विरूद्ध अनैतिकता का निर्लज्जता से साथ देते रहे हैं। इसलिए दलों की दलदल अब लोगों को पसन्द नहीं आती। जनता अच्छी और असरदार सरकार चाहती है। लोकतंत्र में उसकी आस्था है। वह अपने प्रतिनिधि से संवेदनशील होने और उनकी समस्याओं का हल ढूंढने की अपेक्षा रखती है। दुर्भाग्य से कुछ अपवादों को छोड़कर हमारे नेता, चाहे किसी दल के क्यों न हों, अपनी उपलब्धियों की कोई उल्लेखनीय छाप जनता के मानस पटल पर नहीं छोड़ पाये हैं। उनकी छवि विदू्रप की बनकर रह गयी है। इसीलिए अब गुड गवर्नेंसकी बात की जाती है। पढ़े-लिखे समाज में भी और आमलागों के बीच भी। अन्तर इतना है कि पढ़े-लिखे लोग जब गुड गवर्नेंसकी बात करते हैं तो उन्हें सिविल सोसाइटी, एन.जी.ओ. या सोशल एक्टिविस्ट का खिताब दे दिया जाता है। पर जब ऐसे ही सवाल देहात का कोई साधारण आदमी नेताओं की जनसभा में, दबंगाई से उठाता है तो उसे कोई नाम नहीं दिया जाता। पर अपने हक की माँग करना और नकारा नेतृत्व को सबक सिखाना हिन्दुस्तान के देहातियों को शहरियों के मुकाबले ज्यादा अच्छी तरह से आता है।

दरअसल 1980 में जब विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष ने यह देखा कि सरकारें अपने नकारापन, भ्रष्टाचार और गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते विकास के धन का सदुपयोग नहीं कर पा रही है तो उन्होंने गुड गवर्नेंसकी बात कहनी शुरू की। अब तो यह पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशंसके पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। इस विषय पर दुनिया के अनेक नामी विद्वानों ने लम्बे-चैड़़े साहित्य का सृजन कर डाला है। इन विद्वानों का मत है कि अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ही सर्वाधिक स्वीकार्य व्यवस्था है, तानाशाही या सैन्य हुकूमत नहीं। सोशल एक्टिविस्टसमाज के एक छोटे से हिस्से को जगा तो सकते हैं। बागी तो बना सकते हैं। उनकी आवाज तो बुलंद करवा सकते हैं। पर देश का निजाम नहीं बदल सकते। सरकार नहीं चला सकते। इसलिए सत्ता परिवर्तन की बात करना ख्याली पुलाव लगता है। चीन और रूस का उदाहरण सामने है, जहाँ जनक्रांति के बावजूद वह सबकुछ हासिल नहीं हुआ जिसकी लोगों को उम्मीद थी। क्यांेकि देश चलाने के अपने मापदण्ड, अपनी समझ और अपना अनुभव होता है जो सामाजिक कार्यकर्ता दो, चार, पाँच गाँवों को बदलने में जीवन खपा देते हैं और कुछ बुनियादी बदलाव भी नहीं ला पाते, वे देश की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक जटिलताओं को कैसे समझ सकते हैं? कैसे उसके निदान खोज सकते हैं? इसलिए इसी लोकतंत्र में से गुड गवर्नेंसका रास्ता निकालना होगा। सिर्फ ऐसा नेतृत्व चाहिए जो अपने मतदाताओं से कहे कि मैं तुम्हारे कष्ट दूर नहीं करूँगा पर उन्हें दूर करने के तुम्हारे प्रयास में आने वाले रोड़ों को हटाऊँगा और तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को उपलब्ध रहूँगा। बस इतना सा अगर हमारे राजनेता कर सकें तो न तो तंत्र बदलने की जरूरत रहेगी और न राज ही। इसी राजनैतिक व्यवस्था से कल्पनातीत उपलब्धियाँ हासिल की जा सकती हैं, बशर्ते कोई यह करना चाहता हो! दुख की बात है कि इतनी छोटी पर दूरगामी परिणाम लाने वाली बात तो कोई दल नहीं कह रहा बस सब एकदूसरे पर कीचड़ उछालने में जुटे हैं।

Sunday, April 12, 2009

आर्थिक पैकेज या अपराधियों को ईनाम

भारत में हर दल का नेता वोटों के लिए देश की जनता को सपने दिखाने में जुटा है। जबकि हालत यह है कि नये सपने पूरे होना तो दूर मौजूदा हालात में अर्थव्यवस्था को चलाये रखना ही एक बड़ी चुनौती बन चुका है। अभी हमारे देश के लोगों को इस मंदी के कारणों का पूरी तरह से अंदाजा नहीं है। पर जैसे-जैसे दुनिया के समझदार लोग समझते जा रहे हैं, जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। अब यह साफ हो चुका है कि पिछली दशाब्दी की आर्थिक प्रगति एक बहुत बड़ा धोखा था, जालसाजी थी और आम जनता की लूट का सामान था। लोगों को यह समझ में आ रहा है कि अपने अधिकारियों को करोड़ो रूपये महीने के वेतन देने वाली कम्पनियाँ जनता के साथ कैसा धोखा कर रही थीं। भारत में हुआ सत्यम घोटाला तो एक झलक मात्र है। आजकल ई-मेल के माध्यम से पूरी दुनिया में इस खेल के जानकार लोग तमाम तरह की सूचनाऐं एक दूसरे को भेज रहे हैं। जिनमें दुनिया के प्रमुख औद्योगिक घरानों के सत्यम जैसे घोटालों के समाचार फ्लैश किये जा रहे हैं। ये ई-मेल भेजने वाले सवाल कर रहे हैं कि तमाम तथ्य मौजूद होने के बावजूद क्या वजह है कि सरकारें इन कम्पनियों के विरूद्ध जाँच नहीं करवा रही?

क्या वजह है कि भारत में सरकार पर दोष मढ़ने वाले विपक्ष के नेता भी इन मामलों पर खामोश रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनाव के दौर में इन कम्पनियों के मालिकों ने विपक्षी राजनेताओं को भी मोटी थैलियाँ देकर खामोश कर दिया है? इसलिए भ्रष्टाचार की बात तो हर दल का नेता कर रहा है पर अपने वक्तव्यों में सत्यम जैसे घोटाले की जाँच की माँग करने की हिम्मत इनमें से किसी की नहीं है। शायद उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया में कहीं उनका औद्योगिक जगत से नाता न बिगड़ जाये।

पर दुनिया के जागरूक नागरिक और चार्टर्ड एकांटेट, जो वित्तीय बाजार के खेल को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस सबसे बहुत उद्वेलित हैं। इनका आरोप है कि पिछली दशाब्दि में जितने भी लोग खरबों रूपये के लाभ कमाकर बड़े पैसे वाले बने हैं, उन्होंने अपने-अपने देश में वित्तीय व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर आम जनता को लूटा है। जनता को शेयर बेचकर उसके खून-पसीने की गाढ़ी कमाई बटोरना और उसके ही पैसे से कम्पनियाँ खड़ी करना और ऐशो-आराम की जिंदगी में पैसे को धुएँ में उड़ाना, ये इन रईसों का पेशा रहा है। इसलिए इन वर्षों में शेयर बाजारों में हवाई किले बनाये गये। मसलन अमरीका में पिछले दशक में औद्योगिक जगत का मुनाफा कुल सकल घरेलू मुनाफे का 41 प्रतिशत था। इस तरह आम लोगों में शेयर मार्केट की ललक पैदा की गयी। आम जनता अपने मेहनत की, खून पसीने की कमाई इनके शेयरों में लगाती रही और उसके बैंकर और सलाहकार उसे गुमराह कर शेयरों का तेजी से हस्तांतरण करते और करवाते रहे। इस तरह इन वित्तीय सलाहकारों ने अपने आम निवेशकों को जमकर उल्लू बनाया और अपना उल्लू सीधा किया। अब जब गुब्बारा फूटा तो अर्थव्यवस्था का काल्पनिक रूप से उठना और इतनी नीचाई तक जाकर गिर जाना कितने ही युवाओं और काबिल लोगों को बर्बाद कर चुका है। उनके जीवन भर की कमाई डूब चुकी है। हताशा में ऐसे लोग आत्महत्यायें कर रहे हैं।

दुनिया के कई देशों की जनता में आक्रोश है कि उनकी सरकारों ने ऐसा क्यों होने दिया? क्यों नहीं आम जनता के हक की रक्षा की? बात इतनी सी नहीं है। अब इन घोटालेबाज कम्पनियों की जाँच करने की बजाये या दोषियों को सजा देने की बजाये सरकारें इन कम्पनियों को मोटे-मोटे आर्थिक पैकेज देकर नव जीवन प्रदान कर रही है। इसमें गलत कुछ भी नहीं था अगर ये सामान्य स्थिति में किया जाता। क्योंकि डूबती अर्थव्यवस्था को उबारना सरकार का कर्तव्य होता है। पर अगर आपराधिक रूप से आर्थिक साजिशें करके अर्थव्यवस्था का नकली महल खड़ा किया गया हो और वो धराशायी हो जाये तो इसे अपराध ही माना जाना चाहिए। फिर अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए। क्योंकि अगर ऐसे आर्थिक अपराधियों को आर्थिक पैकेज देकर बचाया जायेगा तो दो बाते होंगी। एक तो भविष्य के लिए कोई सबक नहीं सीखेगा। दूसरा इन बड़े लोगों के आर्थिक घोटालों और अपराधों का खामियाजा भी आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। क्योंकि जो मोटी रकम इन्हें पैकेज के तौर पर इन्हें बैंकों से मिल रही है वह भी दरअसल छोटे व मझले लोगों की जीवन भर की कमाई है। अब अगर बैंकों में या सरकार के बाॅण्डों में लगा उनका यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विनियोग भी डूब जाता है तो उनकी रही-सही बचत भी हाथ से निकल जायेगी। देश कंगाली के रास्ते पर चल पड़ेंगे।

इस चुनाव में बहुत सारे टी.वी. चैनल जनता की आवाज उठाने का दावा कर रहे हैं। पर आश्चर्य की बात है कि इन सवालों को पूछने के लिए न तो वे वित्तीय जानकारों को बुला रहे हैं और न ही उनका सामना बड़े राजनेताओं से करवा रहे हैं। केवल बयानों की राजनीति और टी.वी. स्टूडियो में बुलाकर नूरा कुश्ती करवाकर ये चैनल जनता का कोई भला नहीं कर रहे। पर यह मुद्दा आज उतना ही गम्भीर है जितना भ्रष्टाचार और आतंकवाद का। चुनाव के दौर में इस पर बहस हो या न हो, पर चुनाव के बाद यही मुद्दा सबके गले की फांस बनने वाला है। कमजोर और मिली जुली सरकार अगर केन्द्र में काबिज होती है तो वह सहयोगी दलों की ब्लैकमेलिंग के आगे कुछ भी ठोस करने में सक्षम नहीं होगी। ऐसे में हालात बद से बदतर होंगे। देश के निष्पक्ष अर्थशास्त्रियों और वित्त विशेषज्ञों को इन सवालों पर जनता के बीच एक बहस खड़ी करनी चाहिए। जनता को सच्चाई बतानी चाहिए। उसे भविष्य के लिए आगाह करना चाहिए। उन्हें ही इस भंवर से निकलने का रास्ता सुझाना चाहिए।

Sunday, April 5, 2009

स्विस बैंकों के गोपनीय खातों पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव


आर्थिक मंदी और ओबामा की ऐतिहासिक सफलता ने दुनिया का एक भला कर दिया। अमरीका ने स्विस बैंकों पर दबाब डालकर अपने देश के ढाई सौ ऐसे धनाढ्य लोगों के गोपनीय खाते खुलवा लिये जिन्होंने अवैध रूप से स्विटजरलैंड के यू.बी.एस. बैंक में 3120 करोड़ रूपया जमा कर रखा था। दुनिया के पाँच देशों का नाम काला धन जमा करने वालों में सबसे ऊपर है। ये हैं: भारत, रूस, इंग्लैंड, यूक्रेन व चीन। आश्चर्य की बात ये है कि इस सूची में न सिर्फ भारत का नाम सबसे ऊपर है बल्कि भारत की स्विस बैंकों में अवैध रूप से कुल जमाराशि शेष दुनिया के देशों के  कुल काले धन से भी ज्यादा है। एक आंकलन के अनुसार भारत का 70 लाख करोड़ रूपया इन बैंकों में जमा है। अमरीका की तरह अगर यह धन भारत में वापिस आ जाता है तो भारत के हर गरीब परिवार को 10 लाख रूपये मिलेंगे। यह धन आने से न सिर्फ भारत की गरीबी भी मिट जायेगी बल्कि  भारत विदेशी ऋण से भी मुक्त हो जायेगा।

इतनी बड़ी रकम का अवैध रूप से बाहर जाना यह सिद्ध करता है कि आजादी के बाद भारत के नेताओं, अधिकारियों, उद्योगपतियों, क्रिकेट और फिल्म सितारों, ड्रग माफियाओं आदि ने भारत को लूट-लूटकर ही यह अकूत दौलत विदेशों में जमा की है। दरअसल स्विस बैंकों का काम करने का तरीका इतना गोपनीय है कि दाहिने हाथ को पता नहीं चलता कि बाँया हाथ क्या कर रहा है? इसलिए भारत के ये भ्रष्ट धनाढ्य भाग-भाग कर अपना अवैध धन स्विस बैंकों में जमा करवाते रहे हैं। इन बैंकों में खाता खोलने का तरीका बड़ा जटिल है। बैंक के मैनेजर और कर्मचारियों तक को नहीं पता होता कि किस खाते में किस व्यक्ति की रकम है। इस व्यवसाय के जानकार बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपनी अकूत दौलत स्विस बैंक में जमा करने आता है तो वह बैंक के मैनेजर से संपर्क करता है। यदि मैनेजर को लगता है कि यह ग्राहक ठीक-ठाक है तो वह उसे बैंक के दो ऐसे अधिकारियों से मिलवा देता है जो उस व्यक्ति का खाता खुलवाने का काम करते हैं। ये दो या तीन व्यक्ति उन अधिकारियों में से होते हैं जिनकी विश्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इन्हें नए खाताधारी का बैंकिंग सचिव कहा जाता है। खाता खोलने की सब औपचारिकताएं ये ही पूरी करवाते हैं और सब कागजात पूरे हो जाने के बाद खाताधारी को स्विस बैंक का एकाउंट नंबर दे देते हैं। किंतु अपनी फाइल में असली खाता नंबर न डालकर एक कोड नाम डाल देते हैं। मसलन अगर खाता खोलने वाले का नाम राजकुमार लालवानी है तो उसके खाते का नंबर हो सकता है प्रिंस रेड 98। खाते का नंबर ग्राहक को बताने के बाद उसका कोड फिर बदल दिया जाता है और अब संबंधित बैंकिंग सचिव इस खाते से संबंधित फाइल को बंद करके एक ऐसे कक्ष में ले जाते हैं जहाँ काउंटर के ऊपर धुंधले कांच की दीवार बनी होती है। इस दीवार की तली में जो बारीक-सी झिरि होती है उसमें से होकर नए खातेदार की यह गोपनीय फाइल दूसरी तरफ सरका दी जाती है। दूसरी तरफ जो व्यक्ति उस फाइल को लेता है उसे यह नहीं पता होता कि यह फाइल किसकी है और शीशे के बाहर से फाइल देने वाले बैंकिंग सचिवों को यह नहीं पता होता कि शीशे के दीवार के पीछे इस फाइल को किसने लेकर लाॅकर में रखा है। इस तरह नए खातेदार के खाते से संबंधित जो पाँच-छह लोग होते हैं उनमें से किसी को भी पूरी जानकारी नहीं होती।

इस काम में जो कर्मचारी लगे होते हैं वे बैंक के विश्वसनीय अधिकारी होते हैं और इस बात के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है कि गोपनीय जानकारी बाहर नहीं जाएगी। मजे की बात तो यह है कि स्विस बैंक में धन जमा करने वालों को ब्याज मिलना तो दूर इस धन के संरक्षण के लिए उन्हें नियमित फीस देनी होती है। इस तरह स्वीट्जरलैंड में अथाह धन जमा हो गया है। आबादी थोड़ी सी, जीवन स्तर में ज्यादा तड़क-भड़क की गुंजाइश नहीं इसलिए उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा धन उनके लिए उपलब्ध है। स्विस नागरिक अब तक यह मानते आए थे कि धन कहाँ से आ रहा है इसका उनसे कोई सारोकार नहीं। उनके लिए हर तरह के धन का रंग समान था और वे किसी का भी धन लेने में संकोच नहीं करते थे। वे बैंकिंग को शुद्ध आर्थिक व्यवसाय के रूप में देखते थे। पर फिर स्थिति बदली।

उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि दुनिया भर मे गरीबी, कुपोषण व भूख बढ़ती जा रही है। दुनिया के तमाम देशों के भ्रष्ट नेता और नौकरशाह अपने भ्रष्ट आचरण के कारण जनता को दुख दे रहे हैं। नशीली दवाओं के सेवन से समाज और बचपन प्रदूषित हो रहे हैं। ऐसे माहौल में स्वीट्जरलैंड दुनिया के प्रति सारोकार से उदासीन होकर नहीं रह सकता। मानवीय संवेदनाओं से शून्य होकर भी नहीं रह सकता। जब दुनिया भर के अपराधी स्वीट्जरलैंड में चोरी का धन छुपाएंगे तो स्वीट्जरलैंड इस अनैतिकता के पाप का भागीगार बने बिना नहीं रह सकता। ऐसे विचारों ने स्वीट्जरलैंड के नागरिकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया। इसके साथ ही दुनियाभर में स्विसबैंकों के खातों के प्रति जागरूकता और उनमें अवैध रूप से जमा अपने देश का धन वापस देश में लाने की माँग कई देशों में उठने लगी।

इस सबका नतीजा यह हुआ कि स्विस नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन किया। चूंकि स्वीट्जरलैंड दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतंत्र है इसलिए वहाँ हर कानून बनने के पहले जनता का आम मतदान कराया जाता है। बहुमत मिलने पर ही कानून बन पाता है। इसलिए जब स्विस नागरिकों को नैतिक दायित्व का एहसास हुआ तो उन्होंने एक कानून बनाया जिसके अनुसार अब स्विसबैंकों में खोले गए खाते गोपनीय नहीं रहे। स्वीट्जरलैंड की या अन्य किसी भी देश की सरकारें इन खातों की जानकारी प्राप्त कर सकती हंै। इसके लिए करना सिर्फ यह होगा कि संबंधित देश को उस व्यक्ति के खिलाफ, जिसके स्विस खाता होने का संदेह है, एक आपराधिक मामला दर्ज करना होगा। इसके बाद उस देश की सरकार स्वीट्जरलैंड की सरकार को आधिकारिक पत्र लिखेगी जिसमें उस व्यक्ति के विरूद्ध दर्ज आपराधिक मामले का हवाला देते हुए स्वीट्जरलैंड की सरकार से अनुरोध करेगी कि वह पता करके बताए कि उस व्यक्ति का कोई गोपनीय खाता स्वीट्जरलैंड के बैंकों में तो नहीं है ? इस पत्र के प्राप्त हो जाने के बाद स्वीट्जरलैंड की सरकार सभी बैंकों इस पत्र की प्रतिलिपियाँ भेजेगी और उन बैंकों से यह जानकारी मांगेगी। अगर किसी बैंक में संबंधित व्यक्ति का गोपनीय खाता चल रहा होगा तो बैंक को उसकी पूरी जानकारी अपनी सरकार को देनी होगी। स्वीट्जरलैंड की सरकार यह जानकारी संबंधित देश में भेज देगी। आवश्यकता पड़ने पर वह गोपनीय खाते में जमा रकम को भी उस देश को लौटा देगी। ऐसा कई मामलों में हो चुका है। इसलिए अब स्विस बैंकों में जमा अवैध धन गोपनीय नहीं रह सकता। बशर्तें कि खाताधारक के विरूद्ध उसके देश में आपराधिक मामला दर्ज हो। 

यह आश्चर्य की बात है कि ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले हमारे पिछले कई प्रधानमंत्रियों ने स्विस बैंकों से यह जानकारी माँगने की पहल नहीं की। जबकि अन्य कई देश ये पहल कर चुके हैं। भारत से लगभग 80 हजार लोग हर वर्ष स्विट्जरलैंड जाते हैं। इनमें 25 हजार लोग ऐसे हैं जो स्विट्जरलैंड का दौरा साल में कई बार करते हैं। ऐसे लोगों पर खुफिया जाँच करके इनके चाल-चलन से इनके बैंकों तक पहुँचा जा सकता है। बशर्ते कि सरकार यह करना चाहे। ओबामा की पहल से पे्ररित होकर इस चुनाव के पहले भारत में स्विस बैंकों से काला धन वापिस लाने के लिए एक माहौल बनाया जा रहा है। जो एक शुभ लक्षण है। पर चिंता की बात यह है कि यह माहौल वे लोग बना रहे हैं जो सीधे संघ और भाजपा से जुड़े हैं और इनका लक्ष्य कालाधन वापिस लाना नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर हमला बोलना है। ये सिद्ध करना चाहते हैं कि व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार रहने वाले मनमोहन सिंह इतने बड़े मुद्दे पर बेईमानों को संरक्षण दे रहे हैं। इससे ज्यादा गम्भीरता इस अभियान की नहीं है। अगर वाकई आडवाणी जी को या वाजपेयी जी को भारत के काले धन की इतनी फिक्र थी तो एन.डी.ए. के 6 साल के शासन के दौरान उन्होंने यह पहल क्यों नहीं की? जबकि स्विट्जरलैंड बैंकों की गोपनीयता से सम्बन्धित अपने कानून में तभी संशोधन कर चुका था। जो भी हो यह मुद्दा भारत के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पर इसको तभी उठाना उचित होगा जब यह आन्दोलन जनता की तरफ से हो और जनता किसी भी राजनैतिक दल को इस आन्दोलन का नेतृत्व न करने दे। पर यह आन्दोलन चुनावों के बाद शुरू हो और तब तक चले जब तक हम अपने देश की इस दौलत को वापिस नहीं ले आते। चुनाव से पहले यह गम्भीर मुद्दा राजनीति का शिकार बनकर रह जायेगा।

Sunday, March 29, 2009

गांधी का ग्राम स्वराज्य वैश्विक चर्चा में

Rajasthan Patrika 29 Mar 2009
अमरीका और यूरोप की अर्थव्यवस्था के स्तम्भ धराशाही हो रहे हैं। फ्रैडीमाई लेहमैन ब्रदर्स, मैरिल लिंच  जैसी बीमा कंपनियां चित्त पड़ी हैं। अमरीका में केवल पिछले महीने में 6 लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं। रूस में भी लाखों बेरोजगार अपराध की तरफ बढ़ रहे हैं। उधर जापान की भी हालत बिगड़नी शुरू हो गयी। जपान की कारों और इलैक्ट्रोनिक उपकरणों का सबसे बड़ा बाजार अमरीका था। पर आज के हालात में जब आम अमरीकी अपनी नौकरी ही नहीं बचा पा रहा तो कार कहां से खरीदेगा ? इसलिए इनके निर्यात में 30 फीसदी तक गिरावट आ चुकी है। चूंकि चीन में श्रम सस्ता होने के कारण पश्चिमी देशों के सभी मशहूर ब्राण्डों का उत्पादन चीन में ही हो रहा था। इसलिए आर्थिक मंदी की इस मार का सीधा असर चीन पर पड़ा है। जहां हजारों कारखानें बन्द हो चुके हैं और करोड़ों लोग बेरोजगार हो चुकें है। भारत में मंदी का असर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है। पर भारत की ज्यादातर जनता सौभाग्यवशाली है क्योंकि वह आज भी कृषि पर आधारित जीवन जीती है। इसलिए उस पर इस मंदी का वैसा असर नहीं पड़ेगा जैसा विकसित देशों में पड़ रहा है। अलबत्ता भारत के शहरों में रोजगार तेजी से गिरते जा रहे हैं। लगता तो यह भी है कि चुनाव का बुखार उतरते ही अर्थ व्यवस्था का नग्न चेहरा देश के सामने आएगा।

इन हालातों में महात्मा गांधी की लघु पुस्तिका ग्राम स्वराज्यकी सार्थकता और मांग पूरी दुनिया में फिर बढ़ रही है। देखने में तो यह लघु पुस्तिका एक राजनैतिक पर्चे से ज्यादा नहीं है। भाषा भी सरल है। विचार भी सीधे सपाट हैं। पर इसमें जो बातें कहीं गयी हैं वे इतनी सटीक हैं कि आज आठ दशक बाद भी खरी की खरी हैं। लोगों को ही नहीं बल्कि नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को यह साफ दिख रहा है कि उदारीकरण, औद्यौगिक साम्राज्यों का केन्द्रीय कृतनियंत्रण और वैश्वीकरण आर्थिक संकट से उबारने में सक्षम नहीं है। अब फिर सार्वजनिक क्षेत्रों, कम खर्चीली प्रशासनिक व्यवस्थाओं और अनावश्यक उपभोग पर कटौती करने की जरूरत महसूस की जा रही है। साथ ही यह भी समझ में आ रहा है कि पर्यावरण के साथ भी संतुलन बनाए बिना बेड़ा पर नहीं होगा। इसलिए दशकों बाद गांधी की छोटी सी पुस्तिका ग्राम स्वराज को धूल के ढेर से निकाल कर फिर चाव से पढ़ा जा रहा है। दुनिया भर के अर्थशास्त्री गांधी को समझने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें से रास्ता खोज रहे हैं। उधर दुनिया भर के पर्यावरणविद् प्रकृति के साथ किये जा रहे खिलवाड़ को लेकर बहुत चिंतित है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर दुनिया के देशों के हुक्मरान नहीं सुधरे तो आने वाले वर्षों में हर देश मंे गृह युद्ध छिड़ जाएगा। क्योंकि अस्तित्व के लिए आवश्यक खेत, हवा, पानी और जंगल पर भारी संकट छाया है। तकलीफ की बात तो यह है कि इतनी भयावह स्थिति के द्वार पर खड़े होकर भी हमारे हुक्मरान न तो जाग रहे हैं। न सोच रहे हैं और  न कुछ ऐसा नीतिगत बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे भारत पश्चिमी मकड़जाल से निकल कर अपनी क्षमता और अपनी सीमाओं के साथ एक मजबूत राष्ट्र बन सके।

स्वयंसेवी संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और जागरूक युवाओं के स्तर पर देशभर में सैकड़ों प्रयास चल रहे हैं। जो गंभीर भी हैं और सार्थक भी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि टीवी और प्रिंट मीडिया इन प्रयासों को नजर अंदाज कर रहा है। यह सही है कि गत दस वर्षों में मीडिया की जो भारी तरक्की हुई है वह इस वैश्वीकरण का ही एक हिस्सा है। पर अब जब यह तिलिस्म टूट रहा है तो मीडिया को भी अपना रवैया बदलना पड़ेगा। उसे जमीनी हकीकत को समझना होगा और उसके अनुरूप अपने को ढालना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो हालात उसे मजबूर कर देंगे। प्रमाण सामने है। देश के सर्वाधिक सफल टीवी समाचार चैनलों को आज अपने खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ रही है। उनके स्टाॅफ के पांच सितारा जीवन पर लगाम कस रही  है। यहां तक कि घटनाओं का कवरेज करने अब पहले की तरह ओ बी वैन नहीं दौड़ रही। नई भर्तियां बन्द है। वेतन वृद्धि का तो कोई मामला ही नहीं बनता। चुनाव की गर्मी में गाड़ी दो महीने खिंच जाऐगी। पर चुनाव के बाद तो काफी चैनलों के बंद होने के हालात पैदा होने जा रहे हैं।

ऐसे माहौल में समाज के हर क्षेत्र में आत्म विश्लेशण की जरूरत है। क्या हम तीसा की महामंदी से भी बुरे हालात में जाकर ही संभलेंगे ? क्या हमारा समाज सामूहिक आत्म हत्याओं के लिए तैयार हैं या भारत के सनातन सिद्धांत को फिर से समझ कर अपनाने के लिए हम अपना दिमाग खोलने को तैयार हैं ? वे सिद्धांत जो हमें इस भंवर से निकाल कर वास्तविक सुख दे सकते हैं। वो सिद्धांत जो हम सुनते तो बचपन से आए थे पर आचरण नहीं किया। जैसे सादा जीवन उच्च विचार, अगर प्रकृति से जो कुछ  लो तो प्रकृति को वापिस करो, जल, जमीन, जंगल, वायु को भगवान मान इनकी पूजा करो। इनका विवेकपूर्ण दोहन करो, इन्हें बिगाड़ों मत, मौसम और प्रकृति के अनुरूप भोजन करो और श्रम आधारित जीवन जीकर शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखो। हाथी-घोड़े, सोना, चांदी आदि असली धन नहीं हैं। असली धन तो है संतोष धन जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समानइन सिद्धांतों पर चलकर दुनिया का कोई भी देश सुखी हो सकता है। पर यह ज्ञान दुनिया को भारत के सिवाय कौन देगा ? दुख की बात तो यह है कि टीवी चैनलों पर इन सिद्धांतों को रात-दिन बखान करने वाले हमारे धर्माचार्य ही इन सिद्धांतो के विपरीत जीवन जी रहे हैं। पांच सितारा भोगवादी जिंदगी जीने वाले तथा कथित संत-महंत लोगों को सनातन धर्म की क्या शिक्षा देंगे ? इसलिए लोगों को हकीकत बताने वाला कोई नहीं। अब तक पश्चिमी विकास माॅडल की चकाचैंध हमें अपने आकर्षण से खींचे लिए जा रही थी। पर अब वहां अंधेरा है। किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा। रास्ता मिलेगा तो भारत के इन्हीं सनातन मूल्यों में से। गांधी के ग्राम स्वराज्य में से। दादी-नानियों के उपदेशों में से। पर कोई सुनने वाला तो हो। अगर नेता, मीडिया, धर्माचार्य व बुद्धिजीवी इन बातों को समझ लेंगे तो सही दिशा की तरफ लौटना सरल हो जाएगा। अगर हम अभी भी पश्चिम के मोह में फंसे रहेंगे तो हालात हमें और हमारे हुक्मरानों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर देंगे।

Sunday, March 22, 2009

पैट्रोल में घाटा नहीं मुनाफे का खेल जनता की आँखों में धूल झौंक रही है सरकार

Rajasthan Patrika 22 Mar 2009
लोग ये समझ नहीं पा रहे थे कि दुनिया में पैट्रोल और डीजल की कीमतें गिर रही हैं तो भारत में क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और तेल मंत्री यही कहते रहे कि तेल कम्पनियाँ घाटे में चलती रहे भले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड आॅयल की कीमतें कम हों परन्तु भारत की तेल कम्पनियों का घाटाबरकरार है। इसलिए पैट्रोल और डीजल की कीमतें कम नहीं की जा सकतीं। उधर सरकार ने उड्डयन टरवाइन फ्यूल (ए.टी.एफ.) जो हवाई जहाज का ईंधन है, उसकी कीमत अगस्त 2008 से जनवरी 2009 के बीच 55 प्रतिशत कम कर दी। किन्तु डीजल पैट्रोल आदि की कीमतें इसी दर से कम करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जवाब ये था कि इसमें ‘‘घाटा’’ आड़े आ रहा है। 24 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा कि पैट्रोल, डीजल, किरासिन तेल और एल.पी.जी. की कीमत सरकार आम उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण करते हुए तय करती है किन्तु अन्य पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें आॅयल मार्केटिंग कम्पनियाँ बाजार के व्यापारिक हालत को मद्देनजर रखकर स्वंय तय करती हैं। यहाँ एक रोचक विरोधाभास है, जो कीमत व्यापारिक हालत के आधार पर तय होती है वह तो 55 प्रतिशत कम हो गई और जो उपभोक्ता के हित के संरक्षण के लिये तय की जाती है, उनकी कीमतें केवल 5 रूपया पैट्रोल पर कम की गईं और 2 रूपया डीजल पर कम की गईं। यानि 10 प्रतिशत ही घटाई गईं। क्या यही आम उपभोक्ता के हित संरक्षण का नमूना है?

सरकार की जनहित नीतियों का एक और उदाहरण यह है कि उसने तय किया है कि तेल कम्पनियाँ अपने अर्जित लाभ का 2 प्रतिशत सामाजिक सुधार कार्यों पर व्यय करे। जबकि ये कम्पनियाँ मात्र 0.75 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक ही इस मद में खर्च कर पायी है। यानि जनता को दोहरी मार। लगता है कि सरकार को देश के डीजल व पैट्रोल उपभोक्ताओं से कुछ विशेष ही लगावहै। तभी तो सरकार इन उत्पादों की कीमतें कम करने से सदैव कतराती रही है। ट्रेड पैरिटी प्राइजिंग सिस्टम जिसे खुद सरकार ने ही बनाया था, उसके अनुसार डीजल का दाम 31.83 रूपये प्रति लीटर आंका गया था। फिर भी दिल्ली में डीजल इससे कहीं ज्यादा कीमत पर बेचा जाता रहा। आखिर क्यों?

आश्चर्य है कि केन्द्र सरकार पैट्रोल के मामले में कितनी बहादुरी से झूठ बोलती है फिर वो चाहंे यूपीए की हो चाहें एनडीए की। सारे देश ने अखबारों में पढ़ा कि गत महीनों में देश के प्रधानमंत्री से लेकर पैट्रोलियम मंत्रालय के मंत्री व सचिव तक ने तेल कम्पनियों के घाटे में जाने की बात बार-बार कही। संसद में भी सरकार ने इस झूठ को सच बनाने में कसर नहीं छोड़ी। दिसम्बर, 2008 मंे लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में भी बतलाया गया कि आई.ओ.सी., बी.पी.सी., एस.पी.सी. को अप्रैल से सितम्बर, 2008 के बीच क्रमशः रूपये 6632.00, 3691.96, 4107.04 करोड़ रूपये का कुल घाटा हुआ है। जबकि फरवरी में एक अन्य प्रश्न के उत्तर में सरकार ने इसके बिल्कुल विपरीत बात कही क्योंकि उसे एक जागरूक सांसद ने आंकड़ों के आधार पर कटघरे में खड़ा कर दिया।

यह तो मानी हुई बात है कि पैट्रोलियम क्षेत्र विश्व में उन उद्योगों में से एक है जो अधिकतम लाभकारी उद्योग है। इसलिए देश में भारी अनियमिततायें, भ्रष्टाचार और अकुशलता और सरकारी लूट होते हुए भी यह उद्योग लाभकारी बना हुआ है। शायद इसीलिए इसमें बर्बादी ंभी ऊँचे दर्जे की होती है। गत सात वर्षों के दौरान 2001-2002 से 2007-2008 तक ओ.एन.जी.सी. ने देश में क्रूड आॅयल उत्पादन बढ़ाने के लिए 38,000.72 करोड़ रूपये का विनियोग किया। किन्तु उत्पादन के नाम पर बढ़ोत्तरी मात्र 1.237 मिलियन मीट्रिक टन ही हुई। 2001-2002 के दौरान देश में 24,708 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ था। सरकार की कार्यकुशलताका इससे बेहतर नमूना और क्या होगा कि 38,000 करोड़ रूपये का निवेश करने के बाद मात्र एक मिलियन मीट्रिक टन की ही बढ़ोत्तरी हुई। 

जनता की हितैषी सरकार जनता को मूर्ख बनाकर पैट्रोलियम क्षेत्र से किस प्रकार कर आदि के माध्यम से धन एकत्रित करती है यह भी देखने की बात है। बीते साल को ही हम देखें तो वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 8 प्रकार से कर व उपकर आदि जनता पर लादकर 1,04,134 करोड़ रूपया वसूला। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी जनता को लूटने में केन्द्र सरकार से पीछे नहीं रहीं। उन्होंने 5 तरह के कर जनता पर थोप कर 63,445 करोड़ रूपया इकट्ठा किया है। इतना ही नहीं केन्द्र सरकार ने डेवलपमेंट फंड के नाम से प्रति टन क्रूड उत्पादन पर 2500 रूपया कर लगा रखा है। यदि इसे भी केन्द्र सरकार के पैट्रोलियम राजस्व में जोड़े तो यह राशि और भी बढ़ जायेगी। वित्तीय वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार का कुल राजस्व लगभग 6,00,000 करोड़ रूपये का था। उसमें से करीब 25 प्रतिशत पैट्रोलियम क्षेत्र पर कर थोप कर ही वसूला गया है। जबकि दूसरी ओर प्रचार जारी है कि हमारे देश की तेल कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं। अतः पैट्रोल और डीजल की कीमत कम नहीं की जा सकती।

अब जरा वास्तविक उत्पादन मूल्य का अनुमान भी लगा लें। अभी 17 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में बतलाया कि एक बैरल क्रूड आॅयल के प्रसंस्करण से 17 लीटर पैट्रोल और 65 लीटर डीजल का उत्पादन होता है। यह उत्पादन की औसत दर है जो निम्नतम है। इसे तकनीकि में सुधार लाकर तथा क्रूड आॅयल की गुणवत्ता के आधार पर और बढ़ाने की जरूरत है। इस सरकारी कथन का विश्लेषण करना बहुत जरूरी है। एक बैरल में 159 लीटर क्रूड आॅयल होता है। सरकारी दावे के अनुसार इसमें से 17 लीटर पैट्रोल निकलता है व 65 लीटर डीजल। पर बाकी बचे 77 लीटर क्रूड आॅयल का क्या होता है? अगर 10 से 20 प्रतिशत की हानि भी मान ली जाए तो शेष 60 लीटर क्रूड आॅयल में क्या-क्या उत्पाद पैदा होते हैं इस पर सरकार मौन क्यों है? क्या यह सही नहीं है कि इस बचे क्रूड आॅयल से  प्राकृतिक गैस, किराॅसिन, नेप्त्था, कोलतार एवं अन्य अनेक पैट्रोलियम उत्पाद पैदा होते हैं। यदि इन सभी उत्पादों की कीमत का सही-सही आंकलन किया जाये तो यह साफ हो जायेगा कि पैट्रोल और डीजल की कीमतों में और भी कमी करनी पड़ेगी। यही वह वजह है जिसके कारण पूरी दुनिया ने अरब देशों पर निशाना साधा और उन्हें क्रूड आॅयल के दाम कम करने पर मजबूर किया। भारत सरकार का पैट्रोलियम मंत्रालय इस मामले में हमेशा चुप्पी साधे रहा है।

सरकार के काम में पारदर्शिता होनी चाहिए। प्रश्न उठता है कि यह आयात समता और व्यापार समता मूल्य क्या-क्या हैं? देश में किरासिन और गैस की कीमतें आयात समता अर्थात आयात मूल्य के आधार पर तय की जाती हैं और डीजल व पैट्रोल की कीमतें व्यापार समता के आधार पर तय की जाती हैं। मतलब ये कि आयात$निर्यात का क्रमशः 80 प्रतिशत व 20 प्रतिशत अनुपात के आधार पर इन्हें तय किया जा रहा है। इसके अलावा भी उपभोक्ता को पैट्रोल और डीजल की खरीद पर अतिरिक्त मूल्य देना पड़ता है। क्योंकि व्यापार समता के आधार पर जो मूल्य रिफाइनरियों को दिया जाता है, उसे देने के बाद भी देश में पैट्रोलियम उत्पादों का ढुलाई भाड़ा, व्यापारिक लाभ, फुटकर विक्रेताओं का कमीशन, सरकार का उत्पाद शुल्क तथा मूल्यवर्धक कर व अन्य स्थानीय कर देने पड़ रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश का उपभोक्ता पैट्रोल और डीजल के वह मूल्य देने के लिये विवश है जो वास्तविक उत्पादन लागत से बेतहाशा बढ़ा हुआ है।

पैट्रोल और डीजल के मूल्यों का यह मकड़जाल अभी जनता को पता नहीं है। जब वो समझ जायेगी तो सरकार को दौड़ा देगी। क्योंकि केन्द्र में जो भी सरकार हो मुनाफा पैट्रोलियम कम्पनियों को ही करवाती है, जनता को तो केवल उल्लू बनाया जाता है।