Sunday, March 29, 2009

गांधी का ग्राम स्वराज्य वैश्विक चर्चा में

Rajasthan Patrika 29 Mar 2009
अमरीका और यूरोप की अर्थव्यवस्था के स्तम्भ धराशाही हो रहे हैं। फ्रैडीमाई लेहमैन ब्रदर्स, मैरिल लिंच  जैसी बीमा कंपनियां चित्त पड़ी हैं। अमरीका में केवल पिछले महीने में 6 लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं। रूस में भी लाखों बेरोजगार अपराध की तरफ बढ़ रहे हैं। उधर जापान की भी हालत बिगड़नी शुरू हो गयी। जपान की कारों और इलैक्ट्रोनिक उपकरणों का सबसे बड़ा बाजार अमरीका था। पर आज के हालात में जब आम अमरीकी अपनी नौकरी ही नहीं बचा पा रहा तो कार कहां से खरीदेगा ? इसलिए इनके निर्यात में 30 फीसदी तक गिरावट आ चुकी है। चूंकि चीन में श्रम सस्ता होने के कारण पश्चिमी देशों के सभी मशहूर ब्राण्डों का उत्पादन चीन में ही हो रहा था। इसलिए आर्थिक मंदी की इस मार का सीधा असर चीन पर पड़ा है। जहां हजारों कारखानें बन्द हो चुके हैं और करोड़ों लोग बेरोजगार हो चुकें है। भारत में मंदी का असर धीरे-धीरे फैलता जा रहा है। पर भारत की ज्यादातर जनता सौभाग्यवशाली है क्योंकि वह आज भी कृषि पर आधारित जीवन जीती है। इसलिए उस पर इस मंदी का वैसा असर नहीं पड़ेगा जैसा विकसित देशों में पड़ रहा है। अलबत्ता भारत के शहरों में रोजगार तेजी से गिरते जा रहे हैं। लगता तो यह भी है कि चुनाव का बुखार उतरते ही अर्थ व्यवस्था का नग्न चेहरा देश के सामने आएगा।

इन हालातों में महात्मा गांधी की लघु पुस्तिका ग्राम स्वराज्यकी सार्थकता और मांग पूरी दुनिया में फिर बढ़ रही है। देखने में तो यह लघु पुस्तिका एक राजनैतिक पर्चे से ज्यादा नहीं है। भाषा भी सरल है। विचार भी सीधे सपाट हैं। पर इसमें जो बातें कहीं गयी हैं वे इतनी सटीक हैं कि आज आठ दशक बाद भी खरी की खरी हैं। लोगों को ही नहीं बल्कि नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों को यह साफ दिख रहा है कि उदारीकरण, औद्यौगिक साम्राज्यों का केन्द्रीय कृतनियंत्रण और वैश्वीकरण आर्थिक संकट से उबारने में सक्षम नहीं है। अब फिर सार्वजनिक क्षेत्रों, कम खर्चीली प्रशासनिक व्यवस्थाओं और अनावश्यक उपभोग पर कटौती करने की जरूरत महसूस की जा रही है। साथ ही यह भी समझ में आ रहा है कि पर्यावरण के साथ भी संतुलन बनाए बिना बेड़ा पर नहीं होगा। इसलिए दशकों बाद गांधी की छोटी सी पुस्तिका ग्राम स्वराज को धूल के ढेर से निकाल कर फिर चाव से पढ़ा जा रहा है। दुनिया भर के अर्थशास्त्री गांधी को समझने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें से रास्ता खोज रहे हैं। उधर दुनिया भर के पर्यावरणविद् प्रकृति के साथ किये जा रहे खिलवाड़ को लेकर बहुत चिंतित है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर दुनिया के देशों के हुक्मरान नहीं सुधरे तो आने वाले वर्षों में हर देश मंे गृह युद्ध छिड़ जाएगा। क्योंकि अस्तित्व के लिए आवश्यक खेत, हवा, पानी और जंगल पर भारी संकट छाया है। तकलीफ की बात तो यह है कि इतनी भयावह स्थिति के द्वार पर खड़े होकर भी हमारे हुक्मरान न तो जाग रहे हैं। न सोच रहे हैं और  न कुछ ऐसा नीतिगत बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे भारत पश्चिमी मकड़जाल से निकल कर अपनी क्षमता और अपनी सीमाओं के साथ एक मजबूत राष्ट्र बन सके।

स्वयंसेवी संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और जागरूक युवाओं के स्तर पर देशभर में सैकड़ों प्रयास चल रहे हैं। जो गंभीर भी हैं और सार्थक भी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि टीवी और प्रिंट मीडिया इन प्रयासों को नजर अंदाज कर रहा है। यह सही है कि गत दस वर्षों में मीडिया की जो भारी तरक्की हुई है वह इस वैश्वीकरण का ही एक हिस्सा है। पर अब जब यह तिलिस्म टूट रहा है तो मीडिया को भी अपना रवैया बदलना पड़ेगा। उसे जमीनी हकीकत को समझना होगा और उसके अनुरूप अपने को ढालना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो हालात उसे मजबूर कर देंगे। प्रमाण सामने है। देश के सर्वाधिक सफल टीवी समाचार चैनलों को आज अपने खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ रही है। उनके स्टाॅफ के पांच सितारा जीवन पर लगाम कस रही  है। यहां तक कि घटनाओं का कवरेज करने अब पहले की तरह ओ बी वैन नहीं दौड़ रही। नई भर्तियां बन्द है। वेतन वृद्धि का तो कोई मामला ही नहीं बनता। चुनाव की गर्मी में गाड़ी दो महीने खिंच जाऐगी। पर चुनाव के बाद तो काफी चैनलों के बंद होने के हालात पैदा होने जा रहे हैं।

ऐसे माहौल में समाज के हर क्षेत्र में आत्म विश्लेशण की जरूरत है। क्या हम तीसा की महामंदी से भी बुरे हालात में जाकर ही संभलेंगे ? क्या हमारा समाज सामूहिक आत्म हत्याओं के लिए तैयार हैं या भारत के सनातन सिद्धांत को फिर से समझ कर अपनाने के लिए हम अपना दिमाग खोलने को तैयार हैं ? वे सिद्धांत जो हमें इस भंवर से निकाल कर वास्तविक सुख दे सकते हैं। वो सिद्धांत जो हम सुनते तो बचपन से आए थे पर आचरण नहीं किया। जैसे सादा जीवन उच्च विचार, अगर प्रकृति से जो कुछ  लो तो प्रकृति को वापिस करो, जल, जमीन, जंगल, वायु को भगवान मान इनकी पूजा करो। इनका विवेकपूर्ण दोहन करो, इन्हें बिगाड़ों मत, मौसम और प्रकृति के अनुरूप भोजन करो और श्रम आधारित जीवन जीकर शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखो। हाथी-घोड़े, सोना, चांदी आदि असली धन नहीं हैं। असली धन तो है संतोष धन जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समानइन सिद्धांतों पर चलकर दुनिया का कोई भी देश सुखी हो सकता है। पर यह ज्ञान दुनिया को भारत के सिवाय कौन देगा ? दुख की बात तो यह है कि टीवी चैनलों पर इन सिद्धांतों को रात-दिन बखान करने वाले हमारे धर्माचार्य ही इन सिद्धांतो के विपरीत जीवन जी रहे हैं। पांच सितारा भोगवादी जिंदगी जीने वाले तथा कथित संत-महंत लोगों को सनातन धर्म की क्या शिक्षा देंगे ? इसलिए लोगों को हकीकत बताने वाला कोई नहीं। अब तक पश्चिमी विकास माॅडल की चकाचैंध हमें अपने आकर्षण से खींचे लिए जा रही थी। पर अब वहां अंधेरा है। किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा। रास्ता मिलेगा तो भारत के इन्हीं सनातन मूल्यों में से। गांधी के ग्राम स्वराज्य में से। दादी-नानियों के उपदेशों में से। पर कोई सुनने वाला तो हो। अगर नेता, मीडिया, धर्माचार्य व बुद्धिजीवी इन बातों को समझ लेंगे तो सही दिशा की तरफ लौटना सरल हो जाएगा। अगर हम अभी भी पश्चिम के मोह में फंसे रहेंगे तो हालात हमें और हमारे हुक्मरानों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर देंगे।

Sunday, March 22, 2009

पैट्रोल में घाटा नहीं मुनाफे का खेल जनता की आँखों में धूल झौंक रही है सरकार

Rajasthan Patrika 22 Mar 2009
लोग ये समझ नहीं पा रहे थे कि दुनिया में पैट्रोल और डीजल की कीमतें गिर रही हैं तो भारत में क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और तेल मंत्री यही कहते रहे कि तेल कम्पनियाँ घाटे में चलती रहे भले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड आॅयल की कीमतें कम हों परन्तु भारत की तेल कम्पनियों का घाटाबरकरार है। इसलिए पैट्रोल और डीजल की कीमतें कम नहीं की जा सकतीं। उधर सरकार ने उड्डयन टरवाइन फ्यूल (ए.टी.एफ.) जो हवाई जहाज का ईंधन है, उसकी कीमत अगस्त 2008 से जनवरी 2009 के बीच 55 प्रतिशत कम कर दी। किन्तु डीजल पैट्रोल आदि की कीमतें इसी दर से कम करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। जवाब ये था कि इसमें ‘‘घाटा’’ आड़े आ रहा है। 24 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा कि पैट्रोल, डीजल, किरासिन तेल और एल.पी.जी. की कीमत सरकार आम उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण करते हुए तय करती है किन्तु अन्य पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें आॅयल मार्केटिंग कम्पनियाँ बाजार के व्यापारिक हालत को मद्देनजर रखकर स्वंय तय करती हैं। यहाँ एक रोचक विरोधाभास है, जो कीमत व्यापारिक हालत के आधार पर तय होती है वह तो 55 प्रतिशत कम हो गई और जो उपभोक्ता के हित के संरक्षण के लिये तय की जाती है, उनकी कीमतें केवल 5 रूपया पैट्रोल पर कम की गईं और 2 रूपया डीजल पर कम की गईं। यानि 10 प्रतिशत ही घटाई गईं। क्या यही आम उपभोक्ता के हित संरक्षण का नमूना है?

सरकार की जनहित नीतियों का एक और उदाहरण यह है कि उसने तय किया है कि तेल कम्पनियाँ अपने अर्जित लाभ का 2 प्रतिशत सामाजिक सुधार कार्यों पर व्यय करे। जबकि ये कम्पनियाँ मात्र 0.75 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक ही इस मद में खर्च कर पायी है। यानि जनता को दोहरी मार। लगता है कि सरकार को देश के डीजल व पैट्रोल उपभोक्ताओं से कुछ विशेष ही लगावहै। तभी तो सरकार इन उत्पादों की कीमतें कम करने से सदैव कतराती रही है। ट्रेड पैरिटी प्राइजिंग सिस्टम जिसे खुद सरकार ने ही बनाया था, उसके अनुसार डीजल का दाम 31.83 रूपये प्रति लीटर आंका गया था। फिर भी दिल्ली में डीजल इससे कहीं ज्यादा कीमत पर बेचा जाता रहा। आखिर क्यों?

आश्चर्य है कि केन्द्र सरकार पैट्रोल के मामले में कितनी बहादुरी से झूठ बोलती है फिर वो चाहंे यूपीए की हो चाहें एनडीए की। सारे देश ने अखबारों में पढ़ा कि गत महीनों में देश के प्रधानमंत्री से लेकर पैट्रोलियम मंत्रालय के मंत्री व सचिव तक ने तेल कम्पनियों के घाटे में जाने की बात बार-बार कही। संसद में भी सरकार ने इस झूठ को सच बनाने में कसर नहीं छोड़ी। दिसम्बर, 2008 मंे लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में भी बतलाया गया कि आई.ओ.सी., बी.पी.सी., एस.पी.सी. को अप्रैल से सितम्बर, 2008 के बीच क्रमशः रूपये 6632.00, 3691.96, 4107.04 करोड़ रूपये का कुल घाटा हुआ है। जबकि फरवरी में एक अन्य प्रश्न के उत्तर में सरकार ने इसके बिल्कुल विपरीत बात कही क्योंकि उसे एक जागरूक सांसद ने आंकड़ों के आधार पर कटघरे में खड़ा कर दिया।

यह तो मानी हुई बात है कि पैट्रोलियम क्षेत्र विश्व में उन उद्योगों में से एक है जो अधिकतम लाभकारी उद्योग है। इसलिए देश में भारी अनियमिततायें, भ्रष्टाचार और अकुशलता और सरकारी लूट होते हुए भी यह उद्योग लाभकारी बना हुआ है। शायद इसीलिए इसमें बर्बादी ंभी ऊँचे दर्जे की होती है। गत सात वर्षों के दौरान 2001-2002 से 2007-2008 तक ओ.एन.जी.सी. ने देश में क्रूड आॅयल उत्पादन बढ़ाने के लिए 38,000.72 करोड़ रूपये का विनियोग किया। किन्तु उत्पादन के नाम पर बढ़ोत्तरी मात्र 1.237 मिलियन मीट्रिक टन ही हुई। 2001-2002 के दौरान देश में 24,708 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ था। सरकार की कार्यकुशलताका इससे बेहतर नमूना और क्या होगा कि 38,000 करोड़ रूपये का निवेश करने के बाद मात्र एक मिलियन मीट्रिक टन की ही बढ़ोत्तरी हुई। 

जनता की हितैषी सरकार जनता को मूर्ख बनाकर पैट्रोलियम क्षेत्र से किस प्रकार कर आदि के माध्यम से धन एकत्रित करती है यह भी देखने की बात है। बीते साल को ही हम देखें तो वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 8 प्रकार से कर व उपकर आदि जनता पर लादकर 1,04,134 करोड़ रूपया वसूला। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी जनता को लूटने में केन्द्र सरकार से पीछे नहीं रहीं। उन्होंने 5 तरह के कर जनता पर थोप कर 63,445 करोड़ रूपया इकट्ठा किया है। इतना ही नहीं केन्द्र सरकार ने डेवलपमेंट फंड के नाम से प्रति टन क्रूड उत्पादन पर 2500 रूपया कर लगा रखा है। यदि इसे भी केन्द्र सरकार के पैट्रोलियम राजस्व में जोड़े तो यह राशि और भी बढ़ जायेगी। वित्तीय वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार का कुल राजस्व लगभग 6,00,000 करोड़ रूपये का था। उसमें से करीब 25 प्रतिशत पैट्रोलियम क्षेत्र पर कर थोप कर ही वसूला गया है। जबकि दूसरी ओर प्रचार जारी है कि हमारे देश की तेल कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं। अतः पैट्रोल और डीजल की कीमत कम नहीं की जा सकती।

अब जरा वास्तविक उत्पादन मूल्य का अनुमान भी लगा लें। अभी 17 फरवरी, 2009 को सरकार ने संसद में बतलाया कि एक बैरल क्रूड आॅयल के प्रसंस्करण से 17 लीटर पैट्रोल और 65 लीटर डीजल का उत्पादन होता है। यह उत्पादन की औसत दर है जो निम्नतम है। इसे तकनीकि में सुधार लाकर तथा क्रूड आॅयल की गुणवत्ता के आधार पर और बढ़ाने की जरूरत है। इस सरकारी कथन का विश्लेषण करना बहुत जरूरी है। एक बैरल में 159 लीटर क्रूड आॅयल होता है। सरकारी दावे के अनुसार इसमें से 17 लीटर पैट्रोल निकलता है व 65 लीटर डीजल। पर बाकी बचे 77 लीटर क्रूड आॅयल का क्या होता है? अगर 10 से 20 प्रतिशत की हानि भी मान ली जाए तो शेष 60 लीटर क्रूड आॅयल में क्या-क्या उत्पाद पैदा होते हैं इस पर सरकार मौन क्यों है? क्या यह सही नहीं है कि इस बचे क्रूड आॅयल से  प्राकृतिक गैस, किराॅसिन, नेप्त्था, कोलतार एवं अन्य अनेक पैट्रोलियम उत्पाद पैदा होते हैं। यदि इन सभी उत्पादों की कीमत का सही-सही आंकलन किया जाये तो यह साफ हो जायेगा कि पैट्रोल और डीजल की कीमतों में और भी कमी करनी पड़ेगी। यही वह वजह है जिसके कारण पूरी दुनिया ने अरब देशों पर निशाना साधा और उन्हें क्रूड आॅयल के दाम कम करने पर मजबूर किया। भारत सरकार का पैट्रोलियम मंत्रालय इस मामले में हमेशा चुप्पी साधे रहा है।

सरकार के काम में पारदर्शिता होनी चाहिए। प्रश्न उठता है कि यह आयात समता और व्यापार समता मूल्य क्या-क्या हैं? देश में किरासिन और गैस की कीमतें आयात समता अर्थात आयात मूल्य के आधार पर तय की जाती हैं और डीजल व पैट्रोल की कीमतें व्यापार समता के आधार पर तय की जाती हैं। मतलब ये कि आयात$निर्यात का क्रमशः 80 प्रतिशत व 20 प्रतिशत अनुपात के आधार पर इन्हें तय किया जा रहा है। इसके अलावा भी उपभोक्ता को पैट्रोल और डीजल की खरीद पर अतिरिक्त मूल्य देना पड़ता है। क्योंकि व्यापार समता के आधार पर जो मूल्य रिफाइनरियों को दिया जाता है, उसे देने के बाद भी देश में पैट्रोलियम उत्पादों का ढुलाई भाड़ा, व्यापारिक लाभ, फुटकर विक्रेताओं का कमीशन, सरकार का उत्पाद शुल्क तथा मूल्यवर्धक कर व अन्य स्थानीय कर देने पड़ रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश का उपभोक्ता पैट्रोल और डीजल के वह मूल्य देने के लिये विवश है जो वास्तविक उत्पादन लागत से बेतहाशा बढ़ा हुआ है।

पैट्रोल और डीजल के मूल्यों का यह मकड़जाल अभी जनता को पता नहीं है। जब वो समझ जायेगी तो सरकार को दौड़ा देगी। क्योंकि केन्द्र में जो भी सरकार हो मुनाफा पैट्रोलियम कम्पनियों को ही करवाती है, जनता को तो केवल उल्लू बनाया जाता है।

Sunday, March 15, 2009

भाजपा को झटका: जिम्मेदार उसका नेतृत्व


Rajasthan Patarika 15 Mar 2009
11 साल की दोस्ती को नवीन पटनायक ने एक झटके में तोड़ दिया। भाजपा के खेमे में मायूसी छा गयी। उधर तीसरा मोर्चा अपने पर फड़फड़ा रहा है। ऐसा लगता है कि आडवाणी जी का सपना पूरा होने में काफी दिक्कतें हैं। सोचने वाली बात यह है कि एन.डी.ए. में शामिल 24 दलों में से 18 दल भाजपा से पल्ला क्यों झाड़ चुके हैं? क्या वजह है कि सरकार बनाते समय तो इन दलों को भाजपा से कोई परहेज नहीं होता पर चुनाव आते-आते सब कन्नी काटने लगते हैं? सबका कहना होता है कि वे साम्प्रदायिक ताकतों से समझौता नहीं करेंगे। कल तक जो हमसफर थे वो रातों रात साम्प्रदायिक कैसे हो जाते हैं? देखने वाला यही समझेगा कि ये सब दल अवसरवादी हैं। चुनाव में अपने अल्पसंख्यक वोटों को सुनिश्चित करने के लिए भाजपा से कन्नी काट लेते हैं। चुनाव जीतने के बाद चार-पाँच वर्ष उसी भाजपा के साथ सरकार चलाने में कोई खतरा नहीं होता इसलिए फिर साथ हो लेते हैं। पर हकीकत कुछ और भी है। अपनी इस दुर्दशा के लिए भाजपा भी कम जिम्मेदार नहीं है। 

कहने को तो भाजपा हिन्दुओं की हिमायती पार्टी है। जिसका मूल एजेंडा भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना था और दबे स्वर में उसके समर्थक आज भी यही मानते हैं। पर वास्तव में भाजपा का नेतृत्व काफी भ्रमित है। राम जन्मभूमि आन्दोलन के बाद से भाजपा का नेतृत्व अपनी दृष्टि और नीति स्पष्ट नहीं कर पाया है। कभी हिन्दुत्व की तरफ झुकता है तो कभी धर्मनिरपेक्षता की भाषा बोलता है। अपने ही बयानों को बार-बार बदलता है। इससे दोनों पक्ष नाराज होते हैं। हिन्दुओं को लगता है कि भाजपा का नेतृत्व ईमानदार नहीं है और धर्मनिरपेक्षतावादियों को लगता है कि यह उसका छद्म रूप है। असली चेहरा तो वही है जो रामजन्मभूमि आन्दोलन के समय दिखा था। बजरंग दल, विहिप और संघ से जुड़े दूसरे कई संगठन अक्सर देश में हिन्दुत्व के नाम पर जो हंगामे खड़े करते हैं उससे न तो हिन्दुत्व का भला होता है और न ही भाजपा का। इसके विपरीत भाजपा की छवि हर बार बदरंग हो जाती है। संदेश यही जाता है कि इन सब हंगामों के पीछे भाजपा नेतृत्व की मूक सहमति है। 

दरअसल भाजपा नेतृत्व ने कभी भी हिन्दुत्व की मूल भावना और वैदिक सिद्धांतों का न तो गहराई से पालन किया और न ही उनके प्रति उसके मन में कोई आस्था है। क्या वजह है कि जिस वैदिक सिद्धांत को रूस के कम्यूनिस्ट, अमरीका के यहूदी और यहाँ तक कि मुस्लिम देशों के भी तमाम पढ़े-लिखे नौजवान सहजता से स्वीकार लेते हैं और कुछ तो उनका आचरण भी करने लगते हैं, फिर वही सिद्धांत इतने सतही कैसे हो जाते हैं कि उन पर देश में हिंसा और बवेला मच जाए। पिछले दिनों मेरी चर्चा कोयम्बटूर में रहने वाले फ्रांसीसी मूल के यहूदी भारतविद् श्री मिशेल से हो रही थी। श्री मिशेल अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी से 1977 से जुड़े हैं और भारत के अतीत के प्रति उनकी गहरी आस्था है, गहरा शोध है। उनका भी यह मानना था कि भाजपा वैदिक मूल्यों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत न कर पाने के कारण बार-बार आलोचना का शिकार होती है। भारत की सनातन परंपरा को पुनस्र्थापित करने के लिए कुछ ठोस नहीं कर पाती। अगर सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों को सहजता से आगे बढ़ाया जाये तो सारी दुनिया उनका पालन करने लगेगी। 

क्या वजह है कि बिना तलवार, बिना प्रचार व बिना मिशनरी भावना के अमरीका के पाँच करोड़ लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं? यूरोप के हर शहर में योग की कक्षायें चलती हैं? बाबा रामदेव के प्रवचनों को पाकिस्तान के लाखों नागरिक सुनते और पालन करते हैं? आयुर्वेद हो, खगोलशास्त्र हो, पाकशास्त्र हो या विज्ञान के अनेक अन्य क्षेत्र, अमरीका, जर्मनी, जापान, रूस, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देश दशाब्दियों से इनके गहन अध्ययन में जुटे हैं? धीरे-धीरे सनातन धर्म की अवधारणाओं और सिद्धांतों को विश्व स्वीकार करता जा रहा है? यहाँ तक कि आज विश्वभर में फैली आर्थिक मंदी का समाधान भी वैदिक जीवन पद्धति में उपलब्ध है। अगर इस ज्ञान को राजनैतिक महत्वकांक्षा से अलग रखकर बहुजन हिताय समाज के आगे प्रस्तुत किया जाता तो भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों का जनाधार देश की भौगोलिक और राजनैतिक सीमाओं से पार भी पहुँच जाता। 

भाजपा कहेगी कि वे समाज सुधारक नहीं हैं, राजनैतिक दल हैं। राजनीति का उद्देश्य सत्ता हासिल करना होता है। जिसके लिए हर हथकंडा जायज है। तो फिर प्रश्न उठेगा कि सत्ता उसे मिल कहाँ पाती है? बड़ी मुश्किल से 1998 में सत्ता मिली तो ऐसी कि कुछ भी करने की आजादी नहीं थी। अबकी बार चुनाव में वैसे हालात भी नजर नहीं आते। फिर तो वही हाल हुआ कि दुविधा में दोउ गये, माया मिली न राम! 

जो बात भाजपा पर लागू होती है, वही इस देश के बुद्धिजीवियों और मीडिया पर भी लागू होती है। जो कुछ सनातन है, वह पोंगापंथी है, साम्प्रदायिक है और आधुनिक भारत के लिए निरर्थक है। अंग्रेजों की दी इस सोच से भारत का बुद्धिजीवी आजादी के 60 वर्ष बाद भी मुक्त नहीं हो पाया है। हाँ इतना अंतर जरूर आया है कि जैसे-जैसे पश्चिम भारतीय परंपराओं पर स्वीकृति की मोहर लगाता जा रहा है, यह वर्ग उन परंपराओं केे प्रति क्रमशः आकर्षित हो रहा है। दस वर्ष पहले के साम्यवादियों या धर्मनिरपेक्षवादियों के लेखों को ढूंढकर पढि़ये और आज उन्हीं के द्वारा उन्हीं मुद्दों पर लिखे जा रहे लेख पढि़ये तो आपको यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देगा। मुझे याद है, गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव से पहले धर्मनिरपेक्ष टी.वी. चैनलों का सुर क्या था और चुनाव के बाद इन चैनलों के संपादकों ने किस तरह अपने का¡लमों में स्वीकारा कि वे जमीनी हकीकत का सही आंकलन नहीं कर पाये। पाठकों को याद होगा कि इसी का¡लम में हमने जो इस चुनाव से पहले कहा था, वही चुनाव के बाद भी सही निकला। दरअसल जब हम अपने राग द्वेष के चश्मे से हालात को देखने लगते हैं तो आंकलन गलत होता ही है। जरूरत इस बात की है कि बुद्धिजीवी हों, राजनैतिक दल हों या खुद भाजपा का नेतृत्व भारत के सनातन मूल्यों का खुले दिमाग से मूल्यांकन करे और जो कुछ समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हो, उसे अपनाने में कोई संकोच नहीं करे। 

पर शायद यह हमारी सद्इच्छा से बढ़कर कुछ नहीं है। क्योंकि यदि राजनेता वास्तव में समाज की चिंता करते तो सोने की चिडि़या बनने की क्षमता रखने वाला यह देश विकास के नाम पर आत्मघाती विनाश की ओर इस तेजी से न बढ़ता। इस होली पर देश के अनेक शहरों में गरीब ही नहीं अमीरों ने भी पानी की होली नहीं खेली। क्योंकि पानी उपलब्ध ही नहीं था। यह कैसा विकास है कि हम पानी, साफ जमीन और साफ हवा के लिए मोहताज होते जा रहे हैं? जो पश्चिम अपने ही मकड़जाल में फंसकर त्राहि-त्राहि कर रहा है, उसके विकास का मा¡डल अपनाकर हम अपने गाँव और कस्बों की सदियों से चली आ रही आत्मनिर्भर अर्थ व्यवस्था को तोड़कर बेरोजगारी, हताशा और संताप पैदा करते जा रहे हैं। भाजपा इसलिए दोषी है कि अपने ही संस्थापकों के सपनों के विपरीत इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर भी वह नहीं कर पा रही जो इस देश और संस्कृति के लिए कर सकती थी। कुर्सी की जोड़तोड़ में उसने अपनी अस्मिता को खो दिया है। विडम्बना ये कि कुर्सी भी उसे मिलती नहीं दिखती।

Sunday, March 8, 2009

पाकिस्तान की जम्हूरियत खतरे में

श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर लाहौर में हुए फिदायीन हमले ने पाकिस्तान के अन्दरूनी हालात की कलई खोलकर रख दी है। खुफिया एजेंसियाँ पिछले कुछ दिनों से ये बताने में जुटी थीं कि कट्टरपंथी अब पाकिस्तान के अन्दरूनी इलाकों तक फैल चुके हैं। इस हद तक कि भारत की सीमा पर भी खतरा पैदा हो गया है। उधर अमरीका की खुफिया एजेंसियाँ इस बात से खौफजदा हैं कि तालिबान की निगाह पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र पर है। किसी भी कीमत पर वे इसे हासिल करना चाहते हैं। चाहें इसके लिए उन्हें पाकिस्तान की हुकूमत पर ही कब्जा क्यों न करना पड़े। नेपाल के माओवादी संगठनों की तरह पाकिस्तान के तालिबान भी अब हुकूमत का मजा चखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह उनके अपने कारनामों के लिए एक कानूनी मोहर मिल जायेगी।

जिस तेजी से और जिस व्यापकता से तालिबान पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान में फैले हैं, उससे दो बातें साफ होती हैं। एक तो ये कि पाकिस्तान की मौजूदा हुकूमत की मुल्क के निजाम पर कोई पकड़ नहीं है। दूसरा ये कि फौज जानबूझकर मौजूदा हुकूमत को कमजोर करने में जुटी है। फौज और आई.एस.आई. पाकिस्तान में जम्हूरियत देखना नहीं चाहती। उनकी कोशिश जरदारी को नाकारा सिद्ध करने की है। जिससे वे हालात का तकाजा बताते हुए पाकिस्तान के निजाम पर काबिज हो जायें और दुनिया को ये बता दें कि उनके बिना पाकिस्तान को सम्हाला नहीं जा सकता। इसलिए पाकिस्तान में पिछले कुछ महीनों में तालिबान ज्यादा हावी होते जा रहे हैं। साफ है कि फौज जरदारी को हटाकर ही दम लेगी।

ये पाकिस्तान की बद्किस्मती है कि वहाँ जम्हूरियत या लोकतंत्र कभी चल नहीं पाया। पाकिस्तान और भारत दोनों 1947 में एक ही दिन आजाद हुए थे। 1958 तक 11 सालों में भारत में एक ही प्रधानमंत्री रहे: पं0 जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान में इस दौरान 7 प्रधानमंत्री बदल गये। लियाकत अली खाँ, ख्वाजा निजामुद्दीन, मौ0 अली बोगरा, चैधरी मोहम्मद अली, एस.एस.सुहारवर्दी, आई.आई. चंदीगार व मलिक फिरोज खान। फिर आ गयी फौजी हुकूमत। जिसका लम्बा दौर चला। बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ जैसे प्रधानमंत्री बने। पर इन्हें अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। जुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी चढ़ा दिया। बेनजीर को भ्रष्टाचार में फंसकर हटना पड़ा और नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर दिया गया। अगर कोई हुकूमत लम्बे दौर तक चली तो वह थी फौजी हुक्मरानों की। चाहे वो जनरल अयूब हों या जनरल याहिया खान या जनरल जिया-उल-हक या जनरल परवेज मुशर्रफ। जबकि भारत में लगातार लोकतंत्र चल रहा है और बिना खून-खराबे के सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। नेहरू, इंदिरा गाँधी ने तो लम्बी हुकूमत की। पर बीच-बीच में शास्त्री, देसाई, वाजपेयी या मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री भी आये जो अनुभवी और असरदार लोग थे। इसलिए हमारा लोकतंत्र सफलता से चल रहा है। अगर आपके पड़ोस के घर या पड़ोस के मुल्क अशांति हो तो आप भी चैन से जी नहीं सकते। हमारी चिंता का यही विषय है। पाकिस्तान की अशांति हमारी अशांति का कारण बनती है। भारत में कोई आतंकवाद नहीं है। जो है वो पाकिस्तान की जमीन पर पैदा होता है।

ठीक इसी तरह के हालात बांग्लादेश में भी पैदा हो रहे हैं। 1971 में शेख मुजीबुर्रहमान की लोकप्रियता चरम पर थी। पर पाकिस्तान की फौज को यह गले नहीं उतरा। शेख मुजीबुर्रहमान को कत्ल करवा दिया गया। लम्बे दौर के बाद उनकी बेटी शेख हसीना बांग्लादेश की गद्दी पर काबिज हुई हैं। बांग्लादेश की फौज में जो तत्व उस समय सक्रिय थे, वे खत्म नहीं हुये। पिछले दिनों हुयी बगावत के लिए वही जिम्मेदार हैं। बगावत तो कुचल दी गयी, पर खतरा टला नहीं है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयीं शेख हसीना को ये तत्व बर्दाश्त नहीं कर रहे। उन्हें मारकर या हटाकर ही दम लेंगे। बांग्लादेश की यह परिस्थिति भारत के लिए ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पाकिस्तान से तो भारत को कश्मीर वाले हिस्से की सीमा पर ही खतरा रहता है। जबकि बांग्लादेश के साथ भारत के अनेक राज्यों की सीमा जुड़ी है। सीमा में अनेक छेद हैं। दोनों हिस्सों के लोगों का आवागमन कोई बहुत नियन्त्रित नहीं है। वहाँ भारी आबादी और भारी गरीबी है। बांग्लादेश में पैदा हुयी अशांति भारतीय सीमा और सेनाओं के लिए ज्यादा सिरदर्द पैदा कर सकती है। दोनों तरफ कुंआ और खाई है। इसलिए भारत की चिंता स्वाभाविक है। भारत के हक में तो यही है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में जम्हूरियत बनी रहे और इन मुल्कों की आर्थिक प्रगति हो। जिससे वहाँ खुशहाली आये। क्योंकि जब खुशहाली आती है तो आवाम अमन चैन चाहता है, दंगे-फसाद नहीं। चँूकि इन दोनों मुल्कों में कोई तरक्की नहीं हो रही है इसलिए युवाओं में भारी बेरोजगारी है और हताशा है। आतंकवादी संगठन नौजवानों की इस तकलीफ का फायदा उठाकर उन्हें अपने जाल में फंसा लेते हैं। जब रोजगार होगा तो नौजवान अपने परिवार के साथ आनंद लेंगे, न कि जान हथेली पर लेकर बीहड़ों और बर्फीले दर्रों में भटकेंगे।

जहाँ तक क्रिकेट का प्रश्न है, लाहौर में हुए हमले से यह तो साफ हो गया कि अब कोई भी टीम पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं होगी। न्यूजीलैंड ने मना कर ही दिया। भविष्य में भी अब कोई टीम पाकिस्तान की जमीन पर क्रिकेट नहीं खेलेगी। जिसका खामियाजा पाकिस्तान की सरकार, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और क्रिकेट प्रेमियों को उठाना पड़ेगा। दक्षिण एशिया के क्रिकेट प्रेमियों के लिए भी यह दुःखद समाचार है। क्रिकेट के इतिहास में यह पहली ऐसी घटना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी देशों की सरकार भविष्य में खिलाडि़यों की सुरक्षा को लेकर ज्यादा सतर्क रहेंगी। इससे ज्यादा इसका असर क्रिकेट पर नहीं पड़ेगा। पर पाकिस्तान के लिए यह जरूर खतरे की घंटी है। पहले से ही आतंकवाद से जूझ रहा यह मुल्क इस तरह की घटनाओं से और भी मकड़जाल में फंसता जायेगा। जिसमें से निकलना आसान नहीं होगा।

Sunday, February 22, 2009

क्या संत करेंगे राजनीति की धुलाई ?

देश की राजनीति को सुधारने के लिए आजकल कुछ नामी संत सक्रिय हैं। जिनमें बाबा रामदेव प्रमुख हैं। वे अपनी राजनैतिक जमीन तलाशने में लगे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। तीन दशक पहले महर्षि महेश योगी को भी राजनीति सुधारने का जुनून चढ़ा था। काफी रूपया भी खर्च किया पर कोई सफलता नहीं मिली तो वह मार्ग छोड़ दिया। दरअसल धन, यश और सत्ता का गहरा नाता है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति तीनों चाहता है। एक भी कम हो तो उसकी तरफ दौड़ता है। बाबा के पास धन और यश दोनों हैं शायद इसलिए उन्हें अब सत्ता की तलब लग रही है। स्वामी रामदेव ने भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की स्थापना भी कर डाली है। जिसका जीवन दर्शन एक 80 पेज की पुस्तिका में देश भर में भेजा जा रहा है। इस पुस्तिका को पढ़ने से स्वामी जी की विचार धारा और भी स्पष्ट होती है। हालांकि इसमें वही विचार हैं जो स्वामी जी रोजाना सुबह टेलीविजन पर व्यक्त करते हैं। पर इस तरह इन विचारों को एक ही जगह संकलित कर उन्हें पुस्तक रूप में छापकर स्वामी जी ने माओ की लाल किताब या गद्दाफी की हरी किताब या लेनिन की किताब जैसी पहल की है।

वे देश को वैकल्पिक राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था देना चाहते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं। सद्इच्छा से किया गया कोई भी प्रयास वंदनीय है। पर प्रश्न उठता है कि क्या केवल सद्इच्छा से ही देश की राजनीति को धोया-पांेछा जा सकता है ? अगर ऐसा होता तो महात्मा गांधी अपने सपनों का भारत बनवा लेते। सुभाष चन्द्र बोस भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। करपात्री जी महाराज 70 के दशक में भारत के नेता होते। जयप्रकाश नारायण को हताशा में शरीर नहीं छोड़ना पड़ता। दरअसल सद्इच्छा और जमीनी हकीकत में बहुत दूरी होती है।

अपनी पुस्तक में आठ पेजों में रामदेव जी ने भ्रष्टाचार पर अपने विचार विस्तार से रखें हैं और भ्रष्टाचार को ही देश की अधिकतर समस्याओं की जड़ बताया है। रामदेव जी ही नहीं देश में तमाम सुप्रसिद्ध संत ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार के मामले में युवाओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे समझौता नहीं करेंगे।  पर अनुभव यह बताता है कि जब भी कोई युवा बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करता है तो इनमें से एक भी संत उसकी मदद को सामने नहीं आता। सामने न भी आयें पर पीछे से भी मदद नहीं करते। अगर कोई योद्धा सीधा इनसे टकरा जाए और केवल नैतिक सहयोग ही मांगे तो भी ये सामाने आने की हिम्मत नहीं करते। कोई बयान तक जारी नहीं करते। कारण बड़ा साफ है। यश और धन आने के बाद कोई उसे खोना नहीं चाहता। चाहें वो संत के ही भेष में क्यों न हों। उसे डर लगता है कि अगर मैं ऐसे सीधे संघर्ष में उतरूंगा तो सत्ताधीश मेरा जीना मुश्किल कर देंगे। मेरा साम्राज्य खतरे में पड़ जाएगा। उसे यह भी पता होता है कि उसकी तरक्की में तमाम ऐसे लोगों का धन लगा है जिनके पास बेशुमार दौलत है और यह दौलत उन्होंने उन्हीं तरीकों से कमाई है जिनसे देश में भ्रष्टाचार पनपता है। अगर वह संत इस लड़ाई में कूदेगा तो उसके ऐसे ठोस समर्थक कन्नी काट लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि ‘‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरही ते नर न घनेरे’’

इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाए या कोई प्रयास कभी सफल ही नहीं होता। पर सच्चाई यह है कि प्रयास करने वाला इतना ठोस नहीं होता कि विपरीत परिस्थितियों को झेलकर अपनी जमीन पर टिका रहे। अगर टिका रहता है तो भी सफलता नहीं मिलती जैसा प्रायः क्रूसेडरों के साथ होता है तो फिर यही मानना चाहिए कि ईश्वर या प्रकृति बदलाव नहीं चाहती। अभी बदलाव का समय नहीं है।

अक्सर देखने में आता है कि शोहरत मिलते ही आदमी को यह गुमान हो जाता है कि वो देश में क्रान्ति ला देगा। जो लोग 1994 से 1997 तक देश के हालात पर नजर रखे थे उन्हें याद होगा कि तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन कैसे तूफान की तरह उठे थे और मध्यम वर्गीय जनता ने उन्हें हाथों हाथ कंधों पर बिठा लिया था। पर वे जल्दी ही गर्द की तरह बैठ गए। उस दौर में मैंने उनके साथ देश के हर कोने में सैकड़ों जनसभाएं संबोधित की थी। उनके द्वारा स्थापित देशभक्त ट्रस्ट के चार ट्रस्टियों में से मैं भी एक था। बाकी दो वे पति-पत्नी और चैथी एक फिल्म निर्माता महिला। इसलिए मुझे उनकी असफलता के कारणों की गहरी समझ है। जिसका उल्लेख यहाँ जरूरी नहीं है। पर यह सच है कि बदलाव की हर लड़ाई कुर्बानी मांगती है। जो अपना यश, धन और सुख त्यागने को तैयार हों वे ही बदलाव ला सकते हैं। हम भौतिक सुख छोड़ना न चाहें और बदलाव की बात करें तो सफलता नहीं मिलेगी। क्योंकि सत्ता का सुख भोग रहे निहित स्वार्थ उन्हें  भला क्यों सफल होने देंगे? क्योंकि ऐसी तथाकथित क्रांति से उन्हें अपने भौतिक सुखों के समाप्त होने का खतरा होगा। 

रामदेव जी ने टी.वी. देखने वाले देश के लोगों पर अच्छी पकड़ बनायी है। आयुर्वेदिक दवाओं का विशाल कारोबार खड़ा कर अपना आर्थिक पक्ष भी मजबूत किया है। संयासी होने के कारण उन पर कोई पारिवारिक दायित्व भी नहीं है। फिर भी मुझे लगता है कि उनकी ये मुहीम शायद बहुत दूर तक नहीं जाये। अगर वे कामयाब हो जाते हैं तो ये हम सब के लिए अपार सुख और शांति की बात होगी कि देश की राजनीति को मजे हुए संत मार्ग निर्देशन करें। ऐसा नहीं है कि संत अपने मिशन में कभी कामयाब नहीं हुए। मराठा सम्राट शिवाजी महान को प्रेरणा देने वाले उनके गुरू संत रामदास ही थे। चन्द्रगुप्त को ज्ञान देने वाले विष्णु पंडित या चाणाक्य किसी संत से कम न थे। तो जो मध्य युग या प्राचीन युग में हुआ वह अब भी हो सकता है। बशर्तें कि देश को सुधारने का संकल्प लेने वाले संत निष्काम हांे और हर त्याग के लिए तैयार हों। यह तो वक्त ही बताएगा कि बाबा रामदेव किस श्रेणी के संत हैं और कहां तक अपने राजनैतिक मिशन में सफल होते हैं। हमें तो ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सद्मार्ग बताने वाले संत इस तपोभूमि पर भेजता रहे और हम ऐसे संतों के मार्ग निर्देशन में अपना जीवन और राष्ट्र का जीवन सुधारते रहें।

Sunday, February 15, 2009

सीबीआई के बस का नहीं

निठारीकांड के अभियुक्तों को अदालत ने सजा -ए- मौत सुना दी। मारे गए मासूमों के सीने की आग पर कुछ ठंडक पड़ी। अयुक्त अन्ततः फांसी के फंदे पर लटकेगें या नहीं यह तो भविष्य की कानूनी लड़ाई बताएगी पर एक बात साफ है कि सीबीआई की विश्वसनीयता पर एक बार फिर सवाल खड़ा किया गया है। यह सवाल खुद न्यायालय ने किया है। उसे सबूत छिपाने के आरोप में फटकार पड़ी है। 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सीबीआई को फटकार लगाते हुए कहा था कि ’’एक थानेदार तुमसे बेहतर काम कर लेता है।’’ राजनीतिक्यों के घोटालों के मामले में सीबीआई को अकसर फटकार पड़ती रहती है। यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि सीबीआई घोटालों का कब्रगाह है। जहां हजारों घोटाले बिना जांच के दफन कर दिए गए हैं। पर इसके लिए सीबीआई के अधिकारी ही जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि सरकार ने सीबीआई को पंगु बना कर रखा है। केन्द्रीय सत्ता में काबिज दल सीबीआई को अपना हथियार बनाकर विरोधियों की नकेल कसते रहते हैं। इसलिए सीबीआई को स्वायत्ता देना कोई नहीं चाहता।

दूसरी तरफ सीबीआई के जिम्मे इतना सारे मामले हैं कि मानवीय स्तर पर उनसे निपटना सीबीआई के बस की बात नहीं। क्योंकि उसके पास जितने अधिकारी और इंस्पेक्टर हैं वे सब पहले से ही काम के बोझ में दबे हुए हैं। इसलिए हजारों केस जांच के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते। सीबीआई को जरूरत है एक लंबी चैड़ी फौज की जो हर छोटे बड़े केस को सुलझाने में सक्षम हो।

आर्थिक मंदी के दौर में सरकारें अपने खर्चे घटा रही हैं। ऐसे में सीबीआई के लिए दर्जनों अफसर नए तैनात करना सरकार के बस की बात नहीं है। उधर देश में सैकड़ों ऐसे आईपीएस अधिकारी और उनसे नीचे के पुलिस अधिकारी हैं जो सेवा निवृत्त होकर घर पर खाली बैठंे हैं। उनका समय काटे नहीं कटता। इन्होंने पूरा जीवन पुलिस में रहकर जांच करने के की काम किए हैं। इनसे बेहतर समझ और अनुभव किसके पास होगा ? वैसे भी ये लोग सरकार से पेंशन पा रहे हैं। इसलिए इन सेवा निवृत्त अधिकारियों को जांच के काम में लगाया जा सकता है। इससे सीबीआई के ऊपर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार भी नहीं पड़ेगा और उसका काम बांटने वाले दर्जनों सेवा निवृत्त अधिकारी उसके लिए उपलब्ध रहेंगे। जिससे जांच में तेजी आएगी।

ऐसे अधिकारियों को ढूढंना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस विषय में मैंने एक बार केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सदस्यों को भी प्रस्ताव भेजा था। उन्होंने इस संभावना पर सहमति जताई थी। पर लगता है कि उनकी इस सलाह को गृहमंत्रालय ने अभी तक स्वीकार नहीं किया है। इसलिए मामला अटका हुआ है। देश में अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सीबीआई के पास शिकायतों के पुलंदे बढ़ते जा रहे हैं। सरकार नए अधिकारी नियुक्त करने में समर्थ नहीं है। एक बेचारी सीबीआई किस-किस मोर्चे पर दौड़े। ऐसे में दृढ़ निश्चय लेने वाले नेतृत्व की आवश्यकता होती है। सरकार को चाहिए कि इस दिशा में तेजी से पहल करे। उदारीकरण के दौर में जब सरकार अपने सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य प्रशासनिक कार्यों तक में बाहर से सलाहकार नियुक्त कर रही है और उन्हें मोटी फीस भी दे रही है तो अपने ही सेवा निवृृत्त पुलिस अधिकारियों की मदद लेने में उसे कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।

दरअसल हमारी पूरी व्यवस्था अनिर्णय की स्थिति में रहती है। जबकि  ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए सही समय पर सही निर्णय लेना होता है। अविश्वास व संक्षय की स्थिति में निर्णय लेना संभव नही ंहोता। व्यवस्था में लगे लोगों का आत्मविश्वास तभी बढ़ता है जब उनके लिए निर्णयों का सम्मान हो। सीबीआई को निर्णय लेने की छूट नहीें है। सीबीआई की मौनीटरिंग करने वाले केन्द्रीय सतर्कता आयोग तक के दांत पहले ही तोड़ दिए गए हैं। उधर सरकार निर्णय लेगी नहीं । नतीजतन सीबीआई गलती करती रहेगी और डांट खाती रहेगी और सत्ता पक्ष के हाथों में कठपुतली की तरह नाचती रहेगी। जनता को इससे कोई राहत नहीं मिलेगी और निठारी जैसे कांड होते रहेंगे, सीबीआई इसी तरह अधकचरी जांच करके केसों को उलझाती रहेगी जैसा उसने आरूषि के मामले में भी किया। यह गंभीर समस्या है। जिससे अनदेखा करना सरकार को भारी पड़ेगा।

Sunday, February 8, 2009

चुनाव आयोग में घमासान

चुनाव आयुक्त नवीन चावला को लेकर चुनाव आयोग में घमासान मचा है। मुख्य चुनाव आयुक्त के गोपनीय पत्र ने भाजपा को इंका पर हमला करने का एक और शस्त्र दे दिया है। लोगों के मन में शंका है कि इस तरह आपस में उलझा चुनाव आयोग क्या आगामी लोकसभा चुनाव ठीक से करवा पायेगा? क्या नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर इंका को मदद नहीं पहुँचायेंगे? क्या चुनाव आयोग की छवि इस विवाद से धूमिल नहीं पड़ेगी? ये सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सब पर विचार करने की जरूरत है।

जहाँ तक चुनाव आयोग की चुनाव संचालन क्षमता का सवाल है, उसमें कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ने वाला। टी.एन.शेषन के पहले तो चुनाव आयोग का वजूद तक आम आदमी नहीं जानता था। शेषन ने चुनाव आयोग को काफी विस्तृत रूप दे दिया। पर अनुभव बताता है कि मतदाता इन बातों से प्रभावित नहीं होता। अगर चुनाव आयोग को मैनेज किया जा सकता तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी 1977 का आम चुनाव कभी न हारतीं। ऐसा इसलिए है कि चुनाव करवाने के कायदे-कानून काफी स्पष्ट और पारदर्शी हैं। चुनाव लड़ने वाला हर दल सजग रहता है। अधिकारी भी अपने काम से काम रखना चाहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर आज किसी एक दल को फायदा पहुँचायेंगे तो दूसरा दल जब सत्ता में आयेगा तो उनकी काफी दुर्गति हो सकती है। इसमें अपवाद होते हैं। लेकिन जिस तरह लालू यादव बिहार विधानसभा का चुनाव हारे, वसुन्धरा राजे राजस्थान में हारीं, जयललिता तमिलनाडु में हारीं उससे यह स्पष्ट है कि सरकारी मशीनरी सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के भी कब्जे में नहीं रहती।

चुनाव आयोग के पास यह ताकत नहीं है कि वो मनमोहन सिंह का कार्यकाल बढ़ा दे या चुनाव समय से आगे टाल दे या चुनाव को इस तरह करवाये कि उसकी पसन्द का दल सत्ता में आ जाये। जब ऐसी कोई ताकत चुनाव आयोग के पास नहीं है तो नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर भी क्या कर लेंगे? एक उदाहरण एस.वाई. कुरैशी का है जिन्हें इंका सरकार ने अपना आदमी समझकर आयोग में भेजा था। पर कर्नाटक के चुनाव में श्री कुरैशी ने इंका की अपेक्षाओं के विरूद्ध निर्णय दिया। क्यांेकि वे साफ आदमी हैं और चुनाव आयोग में जाने का मतलब ये नहीं कि उन्होंने अपना ईमान गिरवी रख दिया हो। इसलिए भाजपा का डर पूरी तरह से बेबुनियाद न भी हो तो भी कोई उसका खास बिगाड़ नहीं सकता। भाजपा के डर की वजह यह है कि नवीन चावला पूरी तरह से इंका के आदमी हैं। वे आपातकाल में संजय गाँधी के दाहिने हाथ हुआ करते थे। जनता सरकार ने उन्हें कालापानी भेज दिया। पर फिर 1980 में वे केन्द्र में लौट आये और तब से लगातार महत्वपूर्ण पदों पर तैनात रहे। श्री चावला की काबिलियत पर किसी को शक हो न हो, पर इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि उनका झुकाव इंका की तरफ हमेशा रहेगा। ऐसा व्यक्ति मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर कई बार चुनावी नतीजों सम्बन्धि विवादों में कुछ खेल कर सकता है। पर उसकी भी ज्यादा सम्भावना नहीं है। क्योंकि चुनाव आयोग में दो सदस्य और भी होते हैं। फिर ऐसे फैसले चुनाव अधिकारी यानि जिलाधिकारी पर ज्यादा निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है जिसके कारण इंका को तगड़ा लाभ और शेष दलों को महत्वपूर्ण नुकसान हो जाए।

अलबत्ता ये नैतिक प्रश्न जरूर है। चुनाव आयोग के सदस्य का पद संवैधानिक पद है। इस पद पर बैठने वाले में इतनी गरिमा अवश्य होनी चाहिए कि देशवासी उसका सम्मान करें। अगर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के आचरण पर उंगली उठती है तो अपेक्षा की जाती है कि वह न्यायाधीश उस मुकदमें से हट जायेगा। या फिर अपने पद से इस्तीफा दे देगा ताकि वादी और प्रतिवादियों की आस्था न्याय व्यवस्था में बनी रहे। पर अनेकों उदाहरण हैं जब इस अलिखित और अघोषित स्वाभाविक नियम की अवहेलना की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के मामले समय-समय पर कालचक्र ने प्रकाशित किए। पर उन्होंने इस्तीफे नहीं दिए। आजकल भी कोलकोता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आ चुके हैं। पर न तो वे इस्तीफा दे रहे हैं और न ही संसद उन पर महाभियोग चला रही है। कुछ ऐसी ही बात श्री चावला पर भी लागू होती है। कानूनन उनको हटाया नहीं जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन याचिका का जो भी परिणाम आये, नतीजा काफी विवादास्पद रहेगा। अगर अपने विरूद्ध फैसला आने के बाबजूद श्री चावला अपने पद पर बने रहने के लिए अड़े रहे तो उन्हें हटाना आसान नहीं होगा। पर नैतिकता का तकाजा यही होता कि वे इस विवाद के उठने से पहले ही इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील पद से इस्तीफा दे देते।

श्री चावला अकेले अपवाद नहीं हैं। एन.डी.ए. की सरकार में अनेक नेता ऐसे थे जिन्हें उनके आपराधिक रिकाॅर्ड के कारण सत्ता में नहीं होना चाहिए था। पर न सिर्फ उन्होंने सत्ता हासिल की बल्कि सारे कानूनों को धता बताकर और जनता की भावनाओं की उपेक्षा करते हुए सत्ता में बने रहे। दरअसल अब नैतिकता देश में कोई मुद्दा बचा ही नहीें। इसलिए नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा देने के दिन लद गए। नवीन चावला इन्हीं बदले दिनों का सहारा लेकर अगर सारी टीका-टिप्पणी से कान और आँख बंद करलें तो उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा। हाँ इस सब विवाद से कुछ समय के लिए चुनाव आयोग चर्चा में जरूर रहेगा और चुनाव में हारे हुए प्रत्याशी इस विवाद का सहारा जरूर लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि चुनाव आयोग के मौजूदा घमासान से चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। पर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और छवि पर देश के मीडिया में टिप्पणियाँ जरूर होंगी। अब ये तो श्री चावला और भारत सरकार को सोचना है कि उनके लिए क्या प्राथमिकता है? चावला की स्वामीभक्ति या चुनाव आयोग की छवि?