Friday, July 26, 2002

गुजरात में होगा तगड़ा चुनावी दंगल

गुजरात इंका प्रदेश इकाई के अध्यक्ष बनने के बाद श्री शंकर सिंह वाघेला का जिस गर्मजोशी से अहमदाबाद में स्वागत हुआ उससे भाजपा के खेमों में हड़कंप मच गया है। यूं हवा अभी भी भाजपा के पक्ष में बहती लग रही है। पर आने वाले दिनों में समीकरण तेजी से बदलने के आसार है। एक तरफ जहां इंका में नए रक्त और ऊर्जा का संचार हुआ है वहीं भाजपा के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने विधानसभा भंग करके अपनी हड़बडाहट का परिचय दिया है। अभी उनके पास पांच महीने का कार्यकाल और था जिसमें वे अपनी प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन करके लोगों का विश्वास जीत सकते थे। तब उन पर यह आरोप भी नहीं लगता कि वे साम्प्रदायिक ंिहंसा को वोटों के लिए भुना रहे हैं। पर भाजपा में ही श्री मोदी के आलोचकों का कहना है कि अपने थोड़े से विवादास्पद कार्यकाल में श्री मोदी ऐसा कुछ भी नहीं कर पाए जिससे उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता का परिचय मिलता। अपने रूखे व्यवहार और तुरंत निर्णय न लेने की कमजोरी के कारण उन्होंने न सिर्फ लोगों को हतोत्साहित किया है बल्कि प्रशासनिक मशीनरी भी उनसे ना खुश है। जानकार बताते हैं कि श्री वाघेला के नाम की घोषणा होने के बाद गांधी नगर सचिवालय में अधिकारियों के बीच मिठाई बटी। प्रदेश का औद्योगिक और व्यापारिक वर्ग यह मानता है कि निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता और प्रशासन पर कड़ी पकड़ के कारण अपने छोटे से कार्यकाल में ही श्री वाघेला गुजरात के विकास के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त मुख्यमंत्री साबित हुए हैं और अब एक बार फिर उनसे लोगों को काफी उम्मीदें बंधने लगी हैं।

भाजपा और इंका का अगर ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो स्थिति इस प्रकार सामने आती हैं। एक तरफ भाजपा है जिसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की एक लंबी फौज है। पर वे सभी कार्यकर्ता अपने नेताओं से बुरी तरह नाराज हैं उनकी शिकायत है कि उन्हें हमेशा चुनाव के पहले काम में जोत दिया जाता है। पर जब भाजपा सत्ता में आती है तो मलाई उसके नेता खाते हैं। कार्यकर्ता धक्के खाते फिरते हैं। यही कारण है कि आने वाले दिनों में भाजपा नेतृत्व के लिए अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव में जुटने के लिए प्रेरित कर पाना बहुत मुश्किल होगा। कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। दूसरी तरफ इंका के पास कार्यकर्ताओं की वैसी समर्पित फौज नहीं है। जबकि नेताओं की संख्या ज्यादा है। इसलिए उसे मतदाता को घर से निकालने में मुश्किल आ सकती है। पर गुजरात इंका के प्रवक्ता श्री हिमांशु व्यास इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर ऐसा होता तो पिछले दिनों पंचायत और नगर पालिकाओं के चुनावों में इंका को इतनी भारी विजय नहीं मिलती। इंका नेतृत्व को इस बात का पूरा विश्वास है कि पंचायतों और नगरपालिकाओं की उनकी यह फौज चुनाव को उनके पक्ष में मोड़ देगी।

वैसे भी सरकार चलाने की अपनी क्षमता और प्रशासनिक योग्यता को ही इंका मुद्दा बना रही है। गुजरात राज्य के प्रभारी व इंका के महासचिव श्री कमल नाथ ने गांधीनगर में खचा-खच भरे सम्वाददाता सम्मेलन में गुजरात के विकास को ही अपने चुनाव का मुख्य मुद्दा बताया। लोगों को पानी और बिजली की दिक्कत और भाजपा के शासन काल में गुजरात के उद्योग और व्यापार में आई भारी गिरावट का हवाला देते हुए श्री कमल नाथ ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ चुनाव में इंका की जीत का दावा किया। हिंदू कार्ड के सवाल को उन्होंने यह कह कर उड़ा दिया कि यह तो भाजपा की बड़ी पुरानी रणनीति रही है कि वह चुनावों से पहले भावनात्मक मुद्दे उछालकर लोगों का ध्यान अपनी नाकामयाबी से हटाना चाहती है। उनका दावा था कि लोग भाजपा के इस चरित्र को अच्छी तरह समझ गए हैं इसलिए वे अब उसके बहकावे में नहीं आते। इसका प्रमाण पिछले महीनों में देश भर में हुए अलग-अलग किस्म के वे तमाम चुनाव हैं जिनमें भाजपा बुरी तरह हारती जा रही है। भाजपा के खेमे में इंका की गुजरात इकाई में चल रही गुटबाजी को लेकर काफी चर्चा रही। उन्हें विश्वास था कि अमर सिंह चैधरी गुट श्री वाघेला का साथ नहीं देगा। पर सम्वाददाता सम्मेलन में श्री अहमद पटेल, श्री कमल नाथ, श्री अमर सिंह चैधरी और श्री शंकर सिंह वाघेला की साझी उपस्थिति में यह घोषणा हुई कि आगामी चुनाव प्रचार के दौरान श्री चैधरी व श्री वाघेला साथ-साथ रैलियों को संबोधित करेंगे। श्री चैधरी ने भी इसका समर्थन किया। इस तरह गुटबाजी की बात फिलहाल गौण हो गए लगती हैं।

यह सही है कि गोधरा की घटना को लेकर हिंदुओं का आक्रोश न सिर्फ मुसलमानों के प्रति भड़का बल्कि उनमें एकजुटता भी आई। पर इसका ज्यादा प्रभाव केवल दंगों से प्रभावित क्षेत्रों में ही देखने को आ रहा है। मसलन, अहमदाबाद और बड़ौदा क्षेत्र के हिंदू जितना श्री मोदी को समर्थन कर रहे हैं उतना शेष प्रांत में उन्हें समर्थन नहीं मिल रहा हैं। इसमें शक नहीं है कि श्री मोदी ने गुजरात में हिंदुओं के रक्षक के रूप में एक लड़ाकू नेता की छवि बनाई है और लोग मानते हैं कि उनकी इस छवि से गुजरात की पतनशील भाजपा में भारी जान आई है। गोधरा कांड से पहले यह माना जा रहा था कि गुजरात में भाजपा का सफाया हो जाएगा। पर गोधरा और उसके बाद के दंगों ने ऐसी हवा बनाई कि सबको लगने लगा कि अब भाजपा की सफलता को कोई नहीं रोक सकता। शायद इसीलिए विपक्ष ने भी बार-बार श्री मोदी को हटाने की मांग की। यह बात दूसरी है कि इसी तरह की हिंसा के बाद पंजाब, दिल्ली और असम में चुनाव करवाए गए थे। पर श्री मोदी इस बार पूरी दुनिया की मीडिया के आलोचना का शिकार हो गए। इसलिए उन्हें हटाए जाने की मांग ने इतना जोर पकड़ा। जिस तरह भाजपा ने उत्तर प्रदेश में श्री विनय कटियार को प्रदेश अध्यक्ष बना कर भेजा और गुजरात में श्री नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री बना कर भेजा उससे यह तो साफ भी हो गया है कि भाजपा अब हिंदू कार्ड पर ही चुनाव लड़ने जा रही है। आश्चर्यजनक रूप से राजग के सहयोगी दल अब उसका वैसा प्रखर विरोध नहीं कर रहे जैसा पिछले वर्षों में करते आए हैं। कुछ लोग इसे भारत की राजनीति के दो शिखरों पर हुए ध्रुविकरण का प्रमाण मान रहे हैं पर इस बात में संशय ही लगता है कि श्री चन्द्र बाबू नायडु और सुश्री ममता बैनर्जी, श्री नीतीश कुमार और श्री करूणानिधि जैसे लोग आंख मूंद कर भाजपा के हिंदूवादी एजेंडे को बर्दाश्त कर लेंगे।



उधर पता चला है कि विहिप के महासचिव डा. प्रदीप तोगडि़या को भारी मात्रा में आर्थिक मदद पहुंचाई जा रही है। जिसका इस्तेमाल वे आने वाले चुनावों में भाले और त्रिशूल बांटने में करेंगे ताकि वातावरण को आक्रामक बनाया जा सके। शायद वे अपने इस अभियान में सफल हो जाते अगर श्री वाघेला मैदान में नहीं कूदते। पर संघ से ही उभर कर ऊपर उठे और अपने बलबूते पर गुजरात में भाजपा को खड़े करने वाले श्री शंकर सिंह वाघेला के बारे में ऐसा विश्वास है कि वे भाजपा, संघ और विहिप की सभी कमजोरियों से बखूबी वाकिफ हैं और इन संगठनों से अपने साथ हुए सौतेले व्यवहार का हिसाब एक घायल शेर की तरह चुकता करना चाहते हैं। इसलिए वे भी हर हथकंडा अपना कर इंका की विजय सुनिश्चित कराना चाहेंगे। गुजरात के पत्रकारों का मानना है कि विहिप के तमाम प्रयासों के बावजूद गुजरात का देहाती मतदाता हिंदू कार्ड से प्रभावित नहीं होगा। आज उनके सामने पानी, बिजली, सूखे और बेरोजगारी का जो भारी संकट खड़ा है वे उसका निदान चाहते हैं। धर्म उनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही। यह सही है कि पिछले दिनों साम्प्रदायिक हिंसा को देहातों तक पहुंचाया गया। पर आज भी गुजरात का देहाती और व्यापारी समाज हिंसा की तुलना में शांति और सौहार्दपूर्ण वातावरण को ही प्राथमिकता देता है ताकि उनका कारोबार ठीक तरह से चल सके। गुजरात के दंगों के बाद वहां उद्योग और व्यापार लगभग ठप हो गए हैं। सैकड़ों करोड का माल और पैसा जगह-जगह अटक गया है। व्यापार में भारी मंदी छाई है। लोगों के भुगतान रूके पड़ें हैं। बाजार में ग्राहक नहीं हैं। ऐसे में गुजरात की व्यापारिक मानसिकता वाली जनता शांति और आर्थिक प्रगति चाहती हैं, दंगे और धर्म के भावुक नारे नहीं। उधर अहमदाबाद के उप महापौर रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता व शहर के अत्यंत सम्मानीय नेत्र विशेषज्ञ डा. सुरेन्द्र भाई पटेल एक अलग ही कहानी सुनाते हैं। उनका कहना है कि भाजपा में अच्छे और सक्षम लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। क्योंकि आरएसएस के लोग ऐसे किसी भी आदमी को भाजपा की सरकारों में काम नहीं करने देते जिस पर संघ की मोहर न लगी हो। डा. पटेल अहमदाबाद को साफ करने की भावना से राजनीति में आए। पर उनकी लाख कोशिश के बावजूद भाजपा नेतृत्व ने उनकी कर्तव्य परायणता की कद्र नहीं की और महत्वपूर्ण समितियों पर ऐसे नाकारा लोगों को बिठाया जिनकी कुल योग्यता यही थी कि वे संघ का ठप्पा लेकर आए थे। भाजपा से संबंधित रहे डा. पटेल जैसे तमाम लोग अनौपचारिक बातचीत में यह बताते नहीं थकते कि भाजपा का नेतृत्व कितना अदूरदर्शी, अकुशल और चाटुकारों से घिरा रहने वाला है। ऐसा नहीं है कि यह लोग कांग्रेस से बहुत खुश है या कांग्रेस के सर्मथन में जाने को तैयार हैं। पर यह निश्चित हैं कि इन्हें भाजपा से कोई उम्मीद नहीं। पूरे गुजरात में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने वर्षों भाजपा की खिदमत तन, मन और धन से की। पर आज निष्क्रिय होकर घरों में बैठे हैं। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व भी अब उन्हें घर से बाहर नहीं निकाल पाएगा। ऐसे में यह साफ है कि जैसा बताया जा रहा है कि गुजरात में भाजपा की हवा ह,ै वह सच नहीं है। उत्तर प्रदेश में भी ऐसे ही दावे किए गए थे। मीडिया में भाजपा ने अपनी सफलता के पक्ष में बढ़-चढ़ कर दावे करने वाले सर्वेक्षण छपवाए थे। पर विधानसभा में उसकी सीटें 80 का आंकड़ा पार नहीं कर पाईं। गुजरात में भी मुकाबला काफी कड़ा होगा और जो दल अपनी बात मतदाताओं तक तार्किक रूप से पहुंचा पाएगा वही विजयी होगा।

Friday, July 19, 2002

आखिर गाय के वैज्ञानिक महत्व को पश्चिम ने भी स्वीकारा

जबसे मुसलमान शासक भारत में आए तब से गौवंश की हत्या होनी शुरू हुई। हिन्दू लाख समझाते रहे कि गौमाता सारे संसार की जननी के समान है।उसके शरीर के हर अंश में लोक कल्याण छिपा है और तो और उसका मूत्र और गोबर तक औषधि युक्त है, इसलिये उसकी हत्या नहीं उसका पूजन किया जाना चाहिये। पर यवनों पर कोई असर नहीं पड़ा। आज भी मूर्खतावश बहुत से मुसलमान गौवंश की हत्या करते हैं। अक्सर यह दोनों धर्मों के बीच विवाद का विषय रहता है। अंग्रेज जब भारत में आए तो उन्होंने हिन्दुओं का मजाक उड़ाया। वे अपने सीमित ज्ञान के कारण यह समझने में असमर्थ थे कि हिन्दू गौवंश का इतना सम्मान क्यों करते हैं ? आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों ने भी हिन्दुओं की इस मान्यता पर ध्यान नहीं दिया। आश्चर्य तो इस बात का है कि भाजपा और शिवसेना की साझी सरकार महाराष्ट्र के थाणे क्षेत्र में स्थित पशुवधशाला को बंद नहीं कर पाई जबकि वर्षों से स्थानीय नागरिक उसका विरोध करते आए थे। पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने यह सूचना देकर कि गौमूत्र का औषधि के रूप में अमरीका में पेटेंट करवा लिया गया है, सारे देश में सनसनी पैदा कर दी। इस समाचार से निश्चय ही सनातन धर्मियों के बीच हर्ष की लहर दौड़ गयी। यह तो मात्र आगाज है। योग और आयुर्वेद की तरह अब पूरी दुनिया जल्दी ही गोमाता के महत्व को स्वीकारने लगेगी। हमेशा की तरह हम अपनी ही धरोहर को विदेशी पैकेज में कई गुना दामों में खरीदने पर मजबूर होंगे। जिस तरह पेप्सी कंपनी हमारे बाजारों से दो रुपये किलो आलू खरीद कर 250 रुपये किलो के चिप्स बेचती है वैसे ही आने वाले दिनों में गौमूत्र व गोबर सुंदर पैकेजिंग और आकर्षक विज्ञापनों के सहारे सैकड़ों रुपये कीमत पर बिकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि हम गोमाता के महत्व को समय रहते पहचानें। शास्त्रीय और वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि गौमाता के शरीर के हर हिस्से से हम पर कृपा बरसती है।

गो दूध का वैज्ञानिक महत्व

इंटरनेशनल कार्डियोलाॅजी काफं्रेस के अध्यक्ष डा. शांतिलाल शाह के मत से हृदय रोगियों के लिये गाय का दूध विशेष रूप से उपयोगी है। गाय के दूध के कण सूक्ष्म और सुपाच्य होते हैं। अतः वह मस्तिष्क की सूक्ष्मतम नाडि़यों में पहंुच कर मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करते हैं। गाय के दूध में केरोटीन (विटामिन-ए) नाम का पीला पदार्थ रहता है, जो आंख की ज्योति बढ़ाता है। चरक सूत्र स्थान 1/18 के अनसार, गाय का दूध जीवन शक्ति प्रदान करने वाले द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है। गाय के दूध में 8 प्रतिशत प्रोटीन, 8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट और 0.7 प्रतिशत मिनरल्ज (100 आई.यू) विटामिन ए और विटामिन बी, सी, डी एवं ई होता है। निघण्टु के अनुसार गाय का दूध रसायन, पथ्य, बलवर्धक, हृदय के लिये हितकारी, बुद्धिवर्धक, आयुप्रद, पुंसत्वकारक तथा त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) नाशक है।

गाय के घी का वैज्ञानिक महत्व

गोघष्त खाने से कोलेस्टरोल नहीं बढ़ता। इसे सेवेन से हृदय पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। रूसी वैज्ञानिक शिरोविच के शोधानुसार गाय के घी में मनुष्य शरीर में पहंुचे रेडियोधर्मी कणों का प्रभाव नष्ट करने की असीम शक्ति है। गोघष्त से यज्ञ करने से आक्सीजन बनती है। गाय के घी को चावल के साथ मिलाकर जलाने से (यज्ञ) ईथीलीन आक्साइड, प्रोपीलीन आक्साइड और फोरमैल्डीहाइड नाम की गैस पैदा होती है। ईथीलीन आक्साइड और फारमैल्डीहाइड जीवाणी रोधक है जिसका उपयोग आपरेशन थियेटर को कीटाणु रहित करने में आज भी होता है। प्रोपीलीन आक्साइड वर्षा करने के उपयोग में आती है- अर्थात गोघष्त द्वारा किये गये यज्ञ से वातावरण की शुद्धि और वर्षा होना दोना स्वाभाविक परिणाम हैं। भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार गो घष्त नेत्रों के लिये हितकारी, अग्निप्रदीपक, त्रिदोष नाशक, बलवर्धक, आयुवर्धक, रसायन, सुगंधयुक्त, मधुर, शीतल, सुंदर और सब घष्तों में उत्तम होता है। गो नवनीत (मक्खन) हितकारी, कांतिवर्धक, अग्निप्रदीपक, महाबलकारी, वात, पित्त नाशक, रक्त शोधक, क्षय, बवासीर, लकवा एवं श्वांस रोगों को दूर करने वाला होता है।

गोमूत्र का वैज्ञानिक महत्व

गोमूत्र में ताम्र होता है जो मानव शरीर में स्वर्ण के रूप में परिवर्तित हो जाता है। स्वर्ण सर्व रोग नाशक शक्ति रखता है। स्वर्ण सभी प्रकार का विषनाशक है। गोमूत्र में ताम्र के अतिरिक्त लोहे, कैल्शियम, फास्फोरस और अन्य प्रकार के क्षार (मिनरल्स), कार्बोनिक एसिड, पोटाश और लेक्टोज नाम के तत्व मिलते हैं। गोमूत्र में 24 प्रकार के लवण होते हैं जिनके कारण गोमूत्र से निर्मित विविध प्रकार की औषधियां कई रोगों के निवारण में उपयोगी हैं। गोमूत्र कीटनाशक होने से वातावरण को शुद्ध करता है और जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है। गोमूत्र त्रिदोष नाशक है, किन्तु पित्त निर्माण करता है। लेकिन काली गाय का मूत्र पित्त नाशक होता है। नवयुवकों के लिये गोमूत्र शीघ्रपतन, धातु का पतलापन, कमजोरी, सुस्ती, आलस्य, सिरदर्द क्षीण स्मरण शक्ति में बहुत उपयोगी है। पंचगव्य गोघृत गोमय, गोदधि, गोदुग्ध, गोमुत्र से मिलकर बनता है। उसका सेवन मिर्गी, दिमागी कमजोरी, पागलपन, भयंकर पीलिया, बवासीर आदि में बहुत उपयोगी है। कैंसर जैसे दुस्साध्य और उच्च रक्तचाप तथा दमा जैसे रोगों में भी गोमूत्र सेवन अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है।

गोबर का वैज्ञानिक महत्व

इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जी.ई. बीगेड ने गोवर के अनेक प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है कि गाय के ताजे गोबर से टी बी तथा मलेरिया के कीटाणु मर जाते हैं। आणविक विकरण से मुक्ति पाने के लिये जापान के लोगों ने गोबर को अपनाया है। गोबर हमारी त्वचा के दाद, खाज, एक्जिमा और घाव आदि के लिये लाभदायक होता है।

गाय के गोबर से पर्यावरणीय संरक्षण

सिर्फ एक गायके गोबर से प्रतिवर्ष 45000 लीटर बायोगैस मिलती है। बायोगैस के उपयोग करने से 6 करोड़ 80 लाख टन लकड़ी बच सकती है जो आज जलाई जाती है। जिससे 14 करोड़ वष्क्ष कटने से बचेंगे ओर देश के पर्यावरण का संरक्षण होगा। गोबर की खाद सर्वोत्तम खाद है। जबकि फर्टिलाइजर से पैदा अनाज हमारी प्रतिरोधक क्षमता को लगातार कम करता जा रहा है।

भारतीय अर्थव्यवसथा में गो माता का योगदान

राष्ट्रीय आय में 16 हजार करोड़ रुपये की राशि प्रतिवर्ष गौवंश से प्राप्त होती है। 30 हजार मेगावाट अश्वशक्ति गौवंश से प्राप्त होती है। गाय भैंस से पांच करोड़ टन से अधिक मूल्य का दूध हमें आज प्राप्त होता है। पशुओं से 55 करोड़ रुपये का 22 लाख टन गोबर हमें प्रतिदिन प्राप्त होता है। एक गाय अथवा बैल के गोबर से एक वर्ष में 36 बोरा यूरिया, 18 बोरा सुपर फास्फेट तथा 54 बोरा पोटाश प्राप्त होता है। सूखी गायों एवं बूढ़े बैलों के गोबर से गैस प्लांट लगाकर ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों के निर्धन परिवारों को 18500 रुपये की वार्षिक आय हो सकती है। वर्ष 1992 में लगभग 600 करोड़ रुपये मूल्य की 7.76 मिलियन टन खली निर्यात की गयी जबकि दुधारू पशुओं की यही खली खिलाने पर 38 हजार करोड़ रुपये के मूल्य का (खली से प्राप्त मूल्य का 42 गुना अधिक) 38.8 मिलियन टन दूध देश को प्राप्त हो सकता था।गोवंश से लाखों गैलन गोमूत्र (सवदेशी प्राकष्तिक कीटनाशक) प्रतिवर्ष प्राप्त होता है, जो फसलों के लिये सर्वश्रेष्ठ कीटनाशक और अनेक रोगों में औषधि है। भारत में कष्षि कार्य हेतु पशु शक्ति का सर्वाधिक 66 प्रतिशत, मनुष्य शक्ति का 20 प्रतिशत एवं जीवाश्म शक्ति का 14 प्रतिशत सहभाग है। कष्षि क्षेत्र में गाय व गौवंष भारतीय कष्षि की रीढ़ है। वेजिटेरियन सोसायटी आफ इंडिया के अनुसार, देश को मांस के निर्यात से प्राप्त होने वाले एक करोड़ रुपये के फलस्वरूप 15 करोड़ रुपये की हानि उठानी पड़ रही है।

ऐसी तमाम जानकारियों का संचय कर उसके व्यापक प्रचार प्रसार में जुटे युवा वैज्ञानिक श्री सत्यनारायण दास बताते हैं कि विदेशी इतिहासकारों और माक्र्सवादी चिंतकों ने वैदिक शास्त्रों में प्रयुक्त संस्कृत का सतही अर्थ निकाल कर बहुत भ्रांति फैलाई है। इन इतिहासकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि वैदिक काल में आर्य गोमांस का भक्षण करते थे। यह वाहियात बात है। ‘गौध्न’ जैसे शब्द का अर्थ अनर्थ कर दिया गया। श्रीदास के अनुसार वैदिक संस्कृत में एक ही शब्द के कई अर्थ प्रयुक्त होते हैं जिन्हें उनके सांस्कृतिक परिवेश में समझना होता है। इन विदेशी इतिहासकारों ने वैदिंक संस्कृत की समझ न होने के कारण ऐसी भूल की। आईआईटी से बी.टेक. और एम.टेक. करने वाले श्रीदास गोसेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। उधर गुजरात में धर्म बंधु स्वामी 80 हजार गायों की व्यवस्था में जुटे रहते हैं। ऐसे तमाम संत, समाजसेवी और भारत के करोड़ों आम लोग गोमाता की तन, मन और धन से सेवा करते हैं। अब समय आ गया है कि जब भारत सरकार और प्रांतीय सरकारें गौवंश की हत्या पर कड़ा प्रतिबंध लगायें और इनके संवर्धन के लिये उत्साह से ठोस प्रयास करें। शहरी जनता को भी अपनी बुद्धि शुद्ध करनी चाहिये। भैंस का दूध भारी ही नहीं दिमाग के लिये हानिकारक भी होता है। केवल दक्षिण एशिया के देशों में ही भैंस का दूध पिया जाता है। शेष दुनिया में आज भी केवल गाय का दूध ही पिया जाता है। गौवंश की सेवा हमारी परंपरा तो है ही आज के प्रदूषित वातावरण में स्वस्थ रहने के लिये हमारी आवश्यकता भी है। हम जितना गोमाता के निकट रहेंगे उतने ही स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे।

Friday, July 12, 2002

इंका से कुछ सीख लें भाजपाई

अंग्रेजों को भारत छोड़े 55 साल हो गए। पर पुराने लोग आज भी उनकी प्रशासनिक क्षमता को बड़े इसरार से याद करते हैं। यह कहते नहीं अघाते कि हुकुमत करना तो अंग्रेजों को आता था। ठीक यही बात आज देश में इंका के बारे में कही जा रही है। अनेक दलों की खिचड़ी सरकारों को देख लेने के बाद अब लोग यह कहने लगे हैं कि सरकार चलाना तो इंका को ही आता है। सामान्यजन हों या समाज के विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले, सब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि प्रशासनिक क्षमता में भाजपा इंका से बहुत पीछे है। हर व्यक्ति अपने-अपने अनुभव से अलग-अलग उदाहरण पेश करता है। पर कभी-कभी आलोचना का आधार जनहित न होकर, व्यक्तिगत कामों का न हो पाना होता है। ऐसी आलोचना मायने नहीं रखतीं। क्योंकि जिसका काम नहीं होगा वो तो आलोचना करेगा ही, फिर चाहे सरकार भाजपा की हो, इंका की हो या किसी और दल की ही हो। पर जिस अनुभव की बात यहां की जाने वाली है वह व्यक्तिगत फायदे के काम को लेकर नहीं बल्कि जनहित के काम को लेकर हुआ। पाठकों को याद होगा कि पिछले दिनों इसी काॅलम में हमने ब्रज प्रदेश के बरसाना गांव के पास गहवर वन की उन पहाडि़यों का जिक्र किया था जिनपर राजस्थान सीमा के भीतर खनन कार्य किया जा रहा था। चूंकि इन पहाडि़यों का वर्णन अष्टसखी पहाड़ी के रूप में भागवत् पुराण में आया है इसलिए कृष्ण भक्तों को इससे भारी पीड़ा हो रही थी। वे स्थानीय संत श्री रमेश बाबा के  नेतृत्व में वर्षों से इसका विरोध कर रहे थे। पर भाजपा की भैरोसिंह शेखावत सरकार ने लोगों की धार्मिक भावनाओं की परवाह नहीं की। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली इंका के राजस्थान में मौजूदा मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने इस लेख को पढ़ते ही जिस तेजी से कार्रवाही की उससे न केवल संत समाज और कृष्ण भक्तों में हर्ष की लहर दौड़ गई बल्कि यह भी सिद्ध हुआ कि प्रशासन पर जैसी पकड़ इंका मुख्यमंत्रियों की है, वैसी पकड़ भाजपा के मुख्यमंत्री आज तक नहीं बना पाए। श्री गहलोत ने लेख पढ़कर तुरंत राजस्थान के खान सचिव श्री राकेश वर्मा को मौके पर मुआयना करने भेजा। उनकी रिपोर्ट मिलते ही न सिर्फ स्वर्णगिरि की इन पहाडि़यों पर खनन पर स्थाई प्रतिबंध लगा दिया बल्कि सारा क्षेत्र वन विभाग को सौंप कर वहां सघन वृक्षारोपण के आदेश भी जारी कर दिए। इतना ही नहीं भविष्य में खनन न हो इसे सुनिश्चित करने  के लिए भरतपुर जिले की पुलिस व वन विभाग की पुलिस की साझी पुलिस पोस्ट की भी वहां स्थापना कर दी। इसके साथ ही जिला प्रशासन और स्थानीय नागरिकों की संयुक्त निगरानी समिति का भी गठन कर दिया। उनके इस सुकृत्य की सूचना राष्ट्रीय अखबारों में खबर पढ़कर मिली। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने यह सब काम लेख छपने के चार-पांच दिन के भीतर कर दिया। 


इस संदर्भ में यह याद दिलाना अनुचित न होगा कि 4 वर्ष पहले इसी काॅलम में एक लेख लिखा गया था जिसका शीर्षक था, ‘‘ब्रज की किसे परवाह है।इस लेख में प्रदेश और केंद्र में नवगठित भाजपा सरकार का आह्वाहन किया गया था। उन्हें स्मरण दिलाया गया था कि रामजन्म भूमि या श्रीकृष्ण जन्मभूमि जैसा विवादास्पद मुद्दा तो सुलझने में समय लेगा पर हिंदू धर्म की सेवा के लिए समर्पित भाजपा का यह नैतिक दायित्व है कि वह तीर्थ क्षेत्रों के विकास पर ध्यान दे। इसी में ब्रज प्रदेश के संरक्षण और संवर्द्धन पर विशेष ध्यान देने को कहा गया था। इस लेख में चेतावनी दी गई थी कि बनारस के विश्वविख्यात घाटों जैसे ही भव्य भवनों वाले घाट वृंदावन में यमुना तट पर बने हैं जिन पर लगातार अवैध कब्जा होता जा रहा है। इस तरह मध्ययुगीन स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने सदा के लिए अदृश्य होते जा रहे हैं। जिनके संरक्षण के लिए तुरंत कुछ किया जाना चाहिए। इस लेख का प्रभाव था या श्री वैष्णव देवी तीर्थ स्थल का, इंका के शासन काल में विकास करने वाले केंद्रिय आवास मंत्री श्री जगमोहन की अपनी प्रेरणा थी, कि वे वृंदावन आए और घाटों का निरीक्षण किया। पर उनके कुशल प्रशासन से नाराज भाजपाई नेताओं ने उनसे मंत्रालय ही छीन लिया। उधर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने कतई परवाह नहीं की। नतीजा यह हुआ कि पिछले दो-तीन वर्षों में रहे-बचे घाटों पर भी कब्जा हो गया। इतना ही नहीं लोगों की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात करते हुए, भाजपा की प्रादेशिक सरकार ने वृंदावन के चारों ओर बने परिक्रमा मार्ग को पक्का करवा दिया। जिसने न सिर्फ इन घाटों को ध्वस्त कर दिया बल्कि परिक्रमा मार्ग के चारों ओर यमुना तट में अवैध कालोनियों का निर्माण रातो-रात जोड़ पकड़ गया। परिक्रमा मार्ग पर श्रद्धालु भक्तगण, महिलाएं, बच्चे और बूढ़े सारे वर्ष नंगे पैर परिक्रमा करते हैं। पक्की सड़क के पत्थरों से उनके पांव छिल जाते हैं। गर्मी में गर्म तारकोल पैरों में चिपक जाता है, जलादेता है। इसलिए परिक्रमा मार्ग पर कच्ची सड़क और छायादार वृक्षों की आवश्यकता होती है, जिसका उल्लेख उस लेख में किया गया था। पर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने धार्मिक भावनाओं के अनुरूप विकास करना तो दूर परिक्रमा मार्ग का विनाश करके रख दिया। इसी तरह इस लेख में ब्रज की समस्याओं को लेकर कुछ ऐसे दूसरे सरल सुझाव दिए गए थे जिन्हें आसानी से लागू करके ब्रजवासियों और तीर्थयात्रियों का कल्याण किया जा सकता था। बड़े दुख की बात है कि इतने वर्षों में एक भी सुझाव पर अमल नहीं किया गया। ऐसे में मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हिंदू धर्म की वकालत करने वाले भाजपाई नेता क्या वास्तव में सनातन धर्म की विशिष्टताओं और भक्तों की भावनाओं से परिचित हैं  या केवल इसका राजनैतिक दोहन करना चाहते हैं ? प्रदेश शासन या उसमें शामिल मथुरा मंडल के मंत्री और स्थानीय विधायक अगर जरा सी भी संवेदनशीलता दिखाते तो वृंदावन या शेष ब्रज क्षेत्र में व्याप्त अव्यवस्था और विनाश पर कुछ नियंत्रण अवश्य लगता। पर ऐसा नहीं हुआ। दूसरी तरफ इंका की कार्यशैली है कि तिरूपति बाला जी का विकास हो या वैष्णो देवी का, सोमनाथ में मंदिर का निर्माण हो या अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास- इंका बिना ढि़ंढ़ोरा पीटे लोगों की भावनाओं के अनुरूप धर्मक्षेत्रों का संरक्षण और संवर्द्धन करती आई है। फिर चाहे वह हिंदुओं के धर्म क्षेत्र हों या मुसलमानों के या अन्य धर्मोंं के। इसलिए जब भी भाजपा हिंदू धर्म की बात उठाएगी हिंदू उससे यह जरूर पूछेंगे कि राज्य और केंद्र की सत्ता में रह कर जो कुछ धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए किया जा सकता था वह उसने अपने शासनकाल में क्यों नहीं किया ? लोग प्रश्न कर सकते हैं कि एक और राम मंदिर बनाने से क्या होगा जब सदियों से बने खूबसूरत मंदिर समुचित देखभाल के अभाव में खण्डहर होते जा रहे हैं  या तस्करों की लालची निगाहों का शिकार बन कर टुकड़ो-टुकड़ों में विदेशों में भेजे जा रहे हैं ?

यह सही है कि स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले लोग और दल भाजपा के हिंदू एजेंडे पर लगातार हमला करते रहते हैं। उसका मजाक उड़ाते हैं। जिस कारण भाजपा के नेतृत्व को कई बार यह कह कर जान बचानी पड़ती है कि राम मंदिर हमरा एजेंडा नहीं है या हम धर्मनिरपेक्ष दल हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि भाजपा का ऐजेंडा अगर हिंदू धर्म का संवर्द्धन करना है तो वह बिना संकोच के उस पर काम करे, लेकिन फिर ठोस काम हो, केवल बयानबाजी नहीं। लोगों को लगे कि भाजपा ने वाकई बहुजनहिताय धर्म की सेवा की है। आज ऐसा कोई नहीं मानता। बार बार लोगों को यही अनुभव होता है कि भाजपा धार्मिक मामलों में भी प्रशासनिक मामलों की तरह ही असफल रही है। अब तो उसकी धार्मिक नारेबाजी को भी जनता संशय की नजर से देखती है। जबकि इंका ऐसा कोई दावा नहीं करती पर अपनी प्रशासनिक क्षमता और तुरंत निर्णय लेने की काबलियत के बल पर लोगों का विश्वास जीत लेती है। श्री अशोक गहलोत ने गहवर वन के मामले में जिस फुर्ती से कार्रवाही की, उससे इस मान्यता की पुष्टि होती है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों इस लेखक की एक अंतरंग बैठक भाजपा के वरिष्ठतम नेता व गृहमंत्री से उनके कार्यालय में हुई। कई मुद्दों पर खुलकर चर्चा हुई। मैंने आडवाणी जी को यह बताने की कोशिश की कि इंका के नेता उनके दल के नेताओं से किन मामलों में श्रेष्ठ हैं। मसलन, यदि आप इंका के किसी नेता की आलोचना करें, उसे बुरा-भला कहें, उसके विरूद्ध कोई अभियान भी छेड़ें तो भी उनका व्यवहार नहीं बदलता। न सिर्फ वे पहले जैसी गर्मजोशी से मिलते हैं बल्कि आपके सुझावों और आलोचनाओं को गंभीरता से स्वीकार्य कर लेते हैं। जबकि भाजपा के नेता अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते हैं। वे सिर्फ प्रशस्तिगान सुनने के ही आदी हैं। वे चाहते हैं कि पत्रकार निष्पक्ष रह कर उनके कार्यों का मूल्यांकन न करें। जो पत्रकार ऐसा करते हैं उन्हें भाजपा के नेता पसंद नहीं करते। ऐसा नहीं है कि इंका के नेता रागद्वेष से मुक्त हैं और शत्रु व मित्र के बीच भेद नहीं करते। पर शायद वर्षों के प्रशासनिक अनुभव ने उन्हें सिखा दिया है कि अपने सबसे बड़े आलोचक को उसकी अपेक्षा से अधिक सम्मान देकर जीत लो। चिकमंगलूर के चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी की खुली आलोचना कर उनके विरूद्ध लड़ने वाले वीरेन्द्र पाटिल को श्रीमती गांधी ने घर से बुलाकर अपनी कैबिनेट का मंत्री बनाया। शायद इंकाई यह बात जानते हैं कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छवाय।ऐसा नहीं है कि भाजपा में कोई गुण ही नहीं है या उनके हिंदूवादी एजेंडे की इस देश के लिए कोई सार्थकता नहीं है। भाजपा भी अन्य दलों की ही भांति गुण और दोेष दोनों से युक्त है। पर उसे अभी हुकुमत करने के गुर और अपने आलोचकों से व्यवहार करने का तरीका सीखना हैं। आज आडवाणी जी सुशासन देने की बात कर रहे हैं। यही बात वाजपेयी जी ने अपने चुनाव प्रचार में कही थी। पर भाजपा को 1998 1999 में जो जन समर्थन देश में मिल रहा था उसमें इजाफा नहीं बल्कि भारी कटौती हुई है इसलिए भाजपा में आत्मचिंतन और प्राथमिकताओं के पुनःनिर्धारण की अवश्यकता है।

Friday, July 5, 2002

अब कमान आडवाणी जी के हाथ

तमिलनाडु में एक कहावत प्रचलित है कि कद्दू को चावल में नहीं छिपा सकते। भाजपा ने पिछले चार सालों में लगातार यह संदेश देने का असफल प्रयास किया कि राजग सरकार का एजेंडा हिन्दूवादी नहीं है। इसीलिये वाजपेई जी को मुखौटा बनाकर पेश किया गया। यह बात दूसरी है कि वे मात्र मुखौटा नहीं रहे और सरकार बाकायदा उनके व्यक्तित्व और उनकी टीम के इर्द गिर्द घूमती रही। पर आम भाजपाई मानते हैं कि इससे भाजपा को लाभ कम नुकसान ज्यादा हुआ। अपने मूल एजेंडे को भूलाकर, एक ओढ़़ा हुआ साझा एजेंडा भाजपा के कार्यर्काओं को रास नहीं आया। ऐसा करने का उन्हें कोई तार्किक कारण भी समझ में नहीं आया। उनके मन में यह प्रश्न लगातार उठता रहा कि आदर्शां के लिये जीने वाले दल का लक्ष्य क्या मात्र सत्ता प्राप्ति ही होना चाहिये ? या जिन आदर्शों के लिये वे संघ या दल में आये उन्हें प्राप्त करने का प्रयास होना चाहये ? अनुशासन के भय और राजनैतिक मजबूरी के चलते उन्हें चुप रह जाना पड़ा उन्हें ही क्यों भाजपा की रीढ़ और उसकी उन्नति के लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार श्री लालकष्ष्ण आडवाणी को भी ऐसे माहौल में मजबूरन चुप रहना पड़़ा । हालांकि उनके निकटस्थ लोग बराबर ये संकेत देते रहे कि सरकार के कामकाज के तरीके से वे खुश नहीं हैं। कभी कभी तो इन लोगों का विरोध सार्वजनिक रूप से मुखर भी हुआ। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं कर सके। पर पिछले कई चुनावों में लगातार भाजपा की हार ने, भाजपा के नेतष्त्व को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। उसे यह मानना पड़़ा कि अपना मूल एजेंडा छोड़ देने के कारण ही भाजपा की यह दुर्गति हो रही है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में हुआ ताजा बदलाव इस अनुभूति का परिणाम है। इससे वाजपेई मंत्रिमंडल में नई ऊर्जा आये या न आए पर यह साफ है कि अब कमान आडवाणी जी के हाथ में है।

कहने को तो वे उप प्रधानमंत्री ही बनाए गये हैं पर दल से लेकर मंत्रिमंडल तक हर ओर उनका वर्चस्व साफ दिखाई दे रहा है। वर्षों के इंतजार के बाद उनके निकटस्थ लोगों को सामरिक दष्ष्टि से महत्वपूर्ण जगहों पर बिठाया गया है। अरुण जेटली जैसे कुशल वक्ता को दल का प्रवक्ता बनाया जाना या शत्रुघ्न सिन्हा जैसे सक्षम और योग्य व्यक्ति को इतने लंबे इंतजार के बाद मंत्री बनाना इसका एक प्रमाण है। अब भाजपा वो नहीं रहेगी जो पिछले चार वर्ष में थी। नरेन्द्र मोदी से लेकर विनय कटियार तक के सामने आने से भाजपा का एजेंडा चावलों के ढेर में से कद्दू की तरह उभर कर सामने आ गया है। अब खुला खेल होगा।राजग के रहते यह हो पाया है इस पर लोगों को आश्चर्य है। इसका श्रेय राजग के संयोजक श्री जार्ज फर्नांडीज को जाता है। जिन्होंने बड़ी कुशलता से कई सारे सांडों को एक रस्सी से नाथने का काम किया और आडवाणी जी के राज्याभिषेक का मार्ग प्रशस्त किया। उधर इस बदलाव से धर्मनिरपेक्षतावादी और मुखर हो जायेंगे। अब उन्हें खुलकर भाजपा पर हमला करने का मौका मिलेगा। जिसका उन्हें पूरा हक है। ठीक वैसे ही जैसे भाजपा को भी अपने एजेंडा पर आधारित नीतियां बनाने और सरकार चलाने का पूरा हक है। यूं पूर्णतः दोष रहित कोई नहीं होता। भाजपा के शासन और नीतियों मे ंदोष ढूंढना मुश्किल नही। पर ऐसा कौन सा राजनैतिक दल है जो अपने दामन की शुद्धता का दावा कर सके? ऐसा कौन सा राजनैति दल है जो अपनी विचारधारा के प्रति ईमानदारी से और पूरी तरह समर्पित होने का दावा कर सके ? अगर पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट यह दावा करें तो तुरंत माक्र्सवादी लेनिनवादी सामने आ जायेंगें वे पूछेंगे कि अगर सब माक्र्स के चिंतन के प्रति ही समर्पित तो पश्चिमी बंगाल की सरकार नक्सलवादियों पर गोली क्यों चलाती रही ? वैसे रूस के साम्यवादियों के बारे में एक कहावत प्रचलित है। वहां के राष्ट्रपति ब्रेझनेव एक बार अपनी मां को सैरगाह, काला सागर के पास ले गए। दिन भर मां को जारशाही के अंदाज में मौज करवाई।रात में शानदार भोज दिया। अपने वैभव से अभिभत बे्रझनेव ने मां से चुपके से पूछा, ‘‘ मां मेरा वैभव तुझे कैसा लग रहा है ? ’’ मां ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया, ‘‘बहुत अच्छा’ बहुत बहुत अच्छा। पर मेरे मनमें एक डर बैठा जा रहा है’’ ब्रेझनेव ने पूछा,‘‘डर कैसा मां?’’ मां ने उत्तर दिया, ‘‘ अगर कम्युनिस्ट आ गये तो?’’

आजकल अलग थलग पड़े कम्युनिस्ट नेता श्री हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे लोगों को सोचना चाहिये कि उनकी यह दुर्गति क्यों होरही है ? जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते। पर आज राजनीति इसी का नाम है। विरोध के लिये विरोध करो।दूसरे के फटे में पैर दो। दूसरे की गलती का राजनीतिक लाभ उठाओ। आज विपक्षी दल यही कर रहे हैं। कल भाजपा भी ऐसा करती थ। पर इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा के एजेंडा को नाकारा बताकर उसका हमेशा उपहास किया जाए। दुनिया के हर देश में लोगों को अपनी धार्मिक आस्थाओं को खुलकर व्यक्त करने की छूट है। ईसाई और मुसलमान मुल्कों में तो यह पूरी तरह डंके की चोट पर किया जाता है। विडंबना देखिये कि भारत में हिन्दुओं को अपनी धार्मिक भावनाओं के अभिव्यक्त करने की वैसी छूट नहीं है। धर्मनिरपेक्षता केनाम पर उनका मजाक बनाया जाता है। उन्हें दबाया जाता है। यह जरूरी नहीं कि हिन्दु धर्म का ठेका सिर्फ भाजपा के पास हो। यह भी जरूरी नहीं कि संघ की परिभाषा में जो आता है वही हिन्दू है। पर यह भी जरूरी नहीं कि भाजपा या आडवाणी जी जैसे उसके वरिष्ठ नेता को आत्मघोषित धर्मनिरपेक्षतावादियों की अपेक्षाओं के अनुरूप आचरण करना चाहिये। वे ऐसा क्यों करें ? जब कोई भी दल दूसरों की अपेक्षा के अनुरूप आचरण नहीं करता तो भाजपा के अपने एजेंडा के मुताबिक चलने से कैसे रोका जासकता है ? खासकर तब जब लोकतंत्र में जनता का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत उनके एजेंडे पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाता रहा हो। आज आडवाणी जी राजनीैतिक दायरों में सबसे अलोकप्रिय व्यक्ति माने जाते हैं।उनके दल में भी बहुत से लोग हैं जो उनसे दूरी रखते हैं। इसका एक ही कारण है कि आडवाणी जी की चुप्पी और उनका काम का तरीका उन्हें नहीं भाता। हालांकि राजग सरकार के शुरू के दौर में उन्होंने कुछ धर्मनिरपेक्ष बयान देकर मामला संभालने की कोशश की थी। पर इससे बात नहीं बनी। सबको पता था कि यह बयानबाजी उनकी राजनैतिक मजबूरी थी। सब जानते हैं कि वे किस विचारधारा का समर्थन करते हैं। अब जबकि उन्हें साफ मैदान मिला है तो वे जाहिरन अपने एजेंडा के अनुरूप ही काम करेंगे? चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा।

इसलिये माना जा रहा है कि नये परिदष्श्य में आडवाणी जी को अपने पुराने तेवर दिखाने का मौका मिलेगा। वैसे भी भाजपा के आगे खाई खुदी है। ना तो वह हिन्दुओं को ही खुश कर पाई है और ना ही उसकी सरकार कुशल प्रशासन दे पाई है। अब बचने की एक ही उम्मीद है, अपने हिन्दूवादी एजेंडा को जोरदार तरीके से लागू करना। अगर भाजपा के समर्थकों और मतदाओं को लगा कि आडवाणी जी यह काम ईमानदारी से कर रहे हैं तब तो वे भाजपा के साथ जुड़े रहेंगे वरना साथ छोड़ भागेंगे। वाजपेयी जी भी इस हकीकत को समझ गये हैं इसीलिये दो कदम पीछे हट गये और दल और सरकार की बागडोर एक तरह से वाजपेई आडवाणी जी के हाथ सौंप दी है ताकि रामरथ यात्रा के दिनों की तरह अब फिर आडवाणी जी जुझारू तेवर अपना सकें। 

कार्यकर्ताओं में नया उत्साह फूंक सकें। मतदाताओं को विश्वास दिला सकें कि वे वाकई हिन्दूवादी एजेंडे के प्रति गंभीर हैं। इस एजेंडे का इस्तेमाल केवल सत्ता प्राप्ति के लिय ही नहीं करते वैसे भाजपा के प्रशासन का अनुभव कर चुके मतदाता आसानी से भाजपा पर विश्वास नहीं करेंगे। पर वे यह भी जानते हैं कि सरकार जो भी हो व्यवस्था ऐसी है कि कोई भी दल बुनियादी बदलाव नहीं कर पाता। पर अपनी अपनी विचारधारा के अनुरूप हर दल का एक अपना वोट बैंक होता है। भाजपा का भी है, जो इन परिवर्तनों से अवश्य उत्साहित होगा। ऐसे में आडवाणी जी को अपने कार्यक्रम और उसको जन जन तक पहंुचाने के लिये बहुत सक्षम लोगों की जरूरत होगी। जो उन्हें जनता का खोया हुआ विश्वास फिर जीतने में मदद करसके। चूंकि अपने यहां लोकतंत्र है और वोट देने वालों में अधिक तादाद गरीब और निरक्षर लोगों की है इसलिये उन तक पहंुचे बिना आडवाणी जी इस अभियान में सफल नहीं हो पायेंगें। आम लोगों को धर्म से ज्यादा रोजी रोटी और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की चिंता है। भाजपा का हिन्दूवादी एजेंडा अगर ऐसी गंभीर समस्याओं की उपेक्षा करके चलेगा और केवल भावनाओं पर ही निर्भर रहेगा तो शायद उसे पहले की तरह खण्डित जनादेश ही मिले। किन्तु आम लोगों को साथ में लेकर, जो भी कार्यक्रम बनेगा, उसकी सफलता की संभावना ज्यादा होगी। भारत की संस्कष्ति में इसकी परंपरा है। धर्म और सामाजिक सरोकार में कोई विरोधाभास नहीं है।बशर्ते हम सच्चे धर्मका आचरण करें।अपनी इस सनातन परंपरा को सबने अनदेखा किया है। इंका ने भी और भाजपा ने भी। यही वह समय है आडवाणी जी को इस छिपी धरोहर को सामने लाना होगा। अगर राष्ट्र और समाज दोनों का हित उनकी रणनीति का वास्तविक आधा रहो तो सफलता सुनिश्चित है, अन्यथा नहीं। इसलिये यह आडवाणी जी के लिये भारी परीक्षा की घड़ी है। अगर वे इसमें सफल हुए तो अगले लोकसभा चुनाव में इसे वोटों में बदल सके तो वे भारत पर राज करेंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो वे और उनका दल दोनों ही हाशिए पर सिमट कर रह जायेंगे। आने वाले दिनों में उनके नेतष्त्व में भाजपा ओर सरकार के बदले तेवरों की झलक दिखाई देगी। उसी से भाजपा के भविष्य का अनुमान लग जाएगा। इसलिये भारत की राजनीति में रुचि रखने वाले के लिये आने वाले दिन काफी रोचक होंगंे। इसका देश की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर कैसा प्रभाव पड़ेगा यह तो समय ही बताएगा। पर लगता है कि अब आडवाणी जी चुप नहीं रहेंगे, कुछ नया जरूर करेंगे।

Friday, June 28, 2002

अशोक गहलौत से तीर्थ रक्षा की गुहार


भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीला स्थलियों से जुड़े चैरासी कोस के ब्रज क्षेत्र का एक हिस्सा राजस्थान की सीमा के भीतर भी आता है। इसी क्षेत्र में स्थित है स्वर्ण गिरि पर्वत, जो भगवान कृष्ण की आठ प्रमुख सखियों से जुड़ी आठ पहाडि़यों में से एक है। इन पहाडि़यों पर स्थित है पौराणिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण वन्य प्रदेश जिसे गहवर वन कहते हैं। पुराणों में वर्णन आता है कि इस वन का श्रृंगार स्वयं राधारानी ने किया है। भक्तों और संतों के बीच यह मान्यता है कि इस वन्य प्रदेश में भगवान  अपनी सखियों सहित नित्य रास में लीन रहते हैं। अपनी इसी आस्था के कारण सदियों से अनेक संत यहां भजन साधन करते आये हैं। उन्हीं में से एक हैं श्री रमेश बाबा जो आज से पचास वर्ष पूर्व बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च स्तरीय अध्ययन करने के बाद इस वन में आये और सदा के लिये यहीं के हो गये। पिछले कुछ वर्षों में उन्हें यह देखकर भारी पीड़ा हुई कि खनन माफिया के स्वार्थों के चलते इन ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से अति महत्वपूर्ण पहाडि़यों पर खनन किया जा रहा है जिससे यहां के पर्यावरण का भी विनाश हो रहा है। खनन माफियाओं द्वारा अवैध रूप से डाइनामाइट के प्रयोग के कारण इस क्षेत्र में अनेक असहाय पशु पक्षी जैसे हिरन और मोर भी भारी संख्या में मर रहे हैं। बाबा और उनके अनुयायी हजारों ब्रजवासी ग्रामीण भक्तों से अपनी आस्था के इन प्रतीकों का ऐसा वीभत्स विध्वंस देखा नही गया। उन्होंने इसका सक्रिय विरोध शुरू किया।  खनन माफिया ने उन पर कई बार जानलेवा हमले किये। उनके लोगों के अपहरण किये पर उन्हें डिगा नहीं पाये। मीडिया ने उनका साथ दिया। सामाजिक सारोकार रखने वाले अनेक स्थानीय युवाओं, राष्ट्रीय लोकोत्थान समिति और राष्ट्रीय ख्याति के पर्यावरणविदों ने भी उनका समर्थन किया। नतीजतन उत्तर प्रदेश सरकार ने गहवर वन में खनन के पट्टे सदा के लिये रद्द कर दिये। इतना ही नहीं इस क्षेत्र में लगभग सात हैक्टेअर वन को संरक्षित वन घोषित कर दिया। भक्तों की इच्छा है कि आने वाली पीढि़यों के हित में और स्थानीय पर्यावरण के हित में 240 हैक्टैअर का जो अतिरिक्त वन प्रदेश बचा है उसे भी उत्तर प्रदेश शासन आरक्षित वन घोषित कर दे। वैसे भी यह क्षेत्र ताज ट्रेपेजियम के क्षेत्र में आता है जहां केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नई दिल्ली ने सरफसे माइनिंग एंड क्वारीजको प्रतिबन्धित किया हुआ है। कृष्ण भक्तों को दुख है कि धर्म की रक्षा के लिये समर्पित होने का दावा करने वाली भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी इस जायज मांग को आज तक अनदेखा किया है जबकि भाजपा के स्थानीय नेताओं, मंत्रियों और नानाजी देशमुख जैसे वरिष्ठ लोगों द्वारा भी इस मांग का समर्थन किया जाता रहा है। अब उनकी आशा सुश्री मायावती पर टिकी हैं। 
देश भर के कृष्ण भक्तों में फिलहाल जो गहन चिंता है वह है गहवर वन के उस क्षेत्र को लेकर जो राजस्थान के भरतपुर जिले की कामा तहसील के सुनहरा गांव क्षेत्र में आता है। मीडिया में तमाम बार शोर मचने के बावजूद यह दुख की बात है कि भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैरों सिंह शेखावत ने इस पर कतई ध्यान नहीं दिया। स्थानीय लोेगों को इस बात की बेहद नाराजगी है कि धर्म के नाम पर सत्ता में आये भाजपा के मुख्यमंत्री ने खनन माफिया के हितों को तरजीह दी। अलबत्ता राजस्थान के मौजूदा प्रशासन ने इस मामले में कहीं ज्यादा जिम्मेदार और संवेदनशील रुख अपनाया है। भरतपुर के जिलाधिकारी श्री सुबोध अग्रवाल ने 7 अगस्त, 2001 को राजस्थान शासन को भेजी अपनी संस्तुति में इस क्षेत्र में खनन के पट्टे तत्काल रद्द किये जाने की सिफारिश की है। यह उनके पत्र का ही प्रभाव था कि राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलौत ने तत्परता से एक उच्च स्तरीय जांच टीम भेजकर मौके की परिस्थितियों की पड़ताल करवाई। श्री गहलौत की इस तत्काल कार्यवाही ने कृष्ण भक्तों का दिल जीत लिया। आज बरसाना और गहवर वन के इस क्षेत्र में कृष्ण भक्त यह कहने में संकोच नहीं करते कि इंका लोगों धर्म निरपेक्ष दल होते हुए भी सभी धर्मों की रक्षा में जिस तरह की तत्परता दिखाती है वैसी तत्परता भाजपा शासन में देखने को नहीं मिलती। उन्हें बहुत उम्मीद थी कि इस जांच दल की आख्या के बाद स्वर्णांचल पहाड़ी पर हो रहा खनन रुक जाएगा। पर उन्हें अब चिंता होने लगी है। छह महीने गुजर गये। पर खनन आज भी जारी है। इतना ही नहीं कानून का उल्लंघन करके इन महत्वपूर्ण पहाडि़यों पर डाइनामाइट से विस्फोट किये जा रहे हैं जिससे क्षेत्र के पर्यावरण और वन्य जीवन को भारी खतरा हो गया है। उत्तर प्रदेश सीमा से सटा होने के कारण राजस्थान क्षेत्र में हो रहे इस निरन्तर खनन का आवरण ओढ़कर उत्तर प्रदेश सीमा के भीतर भी कुछ अवांछित तत्व खनन की अवैध कार्यवाही यदा कदा करते रहते हैं। उनकी ट्रैक्टर ट्राली या ट्रक यदि पकड़े जाते हैं तो वे यह दलील देकर छूट जाते हैं कि ये माल तो वे राजस्थान सीमा से ला रहे हैं। इसलिये यह और भी जरूरी है कि राजस्थान सीमा क्षेत्र के अंदर पड़ने वाले इस इलाके में भी उत्तर प्रदेश की तरह ही खनन पर पूरी तरह और हमेशा के लिये प्रभावी रोक लगाई जाए। ब्रज क्षेत्र के कुछ भक्तों और देश के कुछ जागरूक नागरिकों की हार्दिक इच्छा है कि श्री गहलौत इस क्षेत्र में आयें और परिस्थिति का मूल्यांकन स्वयं मौके पर करें। इससे उन्हें आध्यात्मिक लाभ भी होगा। वे भगवान राधा-कृष्ण की कृपा तो प्राप्त करेंगे ही, राजस्थान देवस्थानम् विभाग के आधीन बरसाना स्थित मंदिर की व्यवस्था का भी निरीक्षण कर सकेंगे। इस सन्दर्भ में एक प्रतिनिधि मंडल शीघ्र ही राजस्थान के मुख्यमंत्री से जयपुर जाकर मिलेगा। जब से श्री गहलौत ने राजस्थान की बागडोर संभाली है वहां के प्रशासन में चुस्ती और कार्य कुशलता आई है। कोरी बयानबाजी और प्रचार से बचने वाले श्री गहलौत काम करने में यकीन करते हैं। इसलिये वे लगातार प्रदेश के दौरे पर रहते हैं। इससे प्रशासन चैकन्ना बना रहता है। बावजूद इसके जयपुर के कुछ जानकार लोगों ने ब्रज के कृष्ण भक्तों को बहुत चिंताजनक जानकारी भेजी है। उनका कहना है कि खनन माफिया इतना संगठित और प्रभावशाली है कि उसने राजस्थान प्रशासन में अपनी पकड़ बना रखी है। शायद यही कारण है कि श्री गहलौत तक स्वर्णगिरि पहाडि़यों की दुर्दशा की असली रिपोर्ट आज तक नहीं पहंुच पाई है। वरना वे निर्णय लेने में इतनी देर न लगाते। उधर भक्तों का यह भी आरोप है कि खनिज विभाग के भरतपुर जिले स्तर के अधिकारी भारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। वरना यह कैसे संभव था कि उनकी नाक तले, तमाम कानूनों को धता बताते हुए, इस इलाके का डायनामाइट लगाकर अवैध खनन चालू रहे। जहां तक प्रशासनिक कार्य कुशलता की बात है उसमें उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री सुश्री मायावती भी कुछ कम नहीं। उत्तर प्रदेश की बागडोर संभालते ही प्रदेश की नौकरशाही में हड़कम्प मच गया था। लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश के जिला स्तरीय अधिकारी अब पिछड़ी जातियों और आम आदमी की समस्याओं के प्रति पहले से कुछ ज्यादा संवेदनशील हुए हैं, पर फिर भी प्रशासन मंे वो कार्य कुशलता नहीं दिखाई दे रही जो राजस्थान के प्रशासन में देखी जा रही है। गहवर वन के सन्दर्भ में ही यह बात महत्वपूर्ण है कि 7 हेक्टेअर का जो वन्य क्षेत्र संरक्षित घोषित किया गया था वह आज भारी उपेक्षा का शिकार हो रहा है। स्थानीय नागरिकों को सुश्री मायावती से भी अपेक्षा है कि वे इस क्षेत्र के 240 हेक्टेअर वन क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करें और इसके संरक्षण और रखरखाव के लिये कुशल वन अधिकारियों को तैनात करें। इन लोगों का कहना है कि उत्तरांचल राज्य बन जाने के बाद वैसे ही उत्तर प्रदेश में पहाड़ों और वनों का अभाव हो गया है। अगर हम रही सही धरोहर को भी बचा नहीं पाये तो प्रदेश की भावी पीढि़यां प्राकृतिक वनों और वन्य जीवन के सौन्दर्य को देखने से वंचित रह जायेंगी।  सुश्री मायावती की आस्था किसी धर्म में हो या न हो, एक प्रशासक के रूप में उनका यह नैतिक दायित्व है कि वे जन भावनाओं की कद्र करें और पर्यावरण के ऊपर मंडाराते खतरों के प्रति अपनी संवेदनशीलता और तत्परता का प्रदर्शन करें। वे आगरा मण्डल के प्रशासनिक अधिकारियों की कमर कसें ताकि गहवर वन का उचित संरक्षण हो सके।
यह देश का दुर्भाग्य है कि पर्यावरण के मामले में इतनी जागरूकता होने के बावजूद इतना कम किया जा रहा है। जिसके लिये केवल सरकारें ही दोषी नहीं जनता भी पूरी तरह जिम्मेदार है। आज भवनों में खासकर निजी भवनों में पत्थरों के बेइंतिहा प्रयोग की होड़ लग गयी है। पहले पत्थर या तो वे लोग इस्तेमाल किया करते थे जो पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे या फिर दूर दराज से पत्थर मंगाकर राज महल और किले बनाये जाते थे। आम जनता स्थानीय संसाधनों के प्रयोग से ही आवास का निर्माण करती थी। पर अब सारे देश में छोटे छोटे शहरों तक में मकानों पर पत्थर लगाने का रिवाज चल निकला है। हम पत्थर जड़ने के मामले में इतने मूर्ख हैं कि ना तो हमें स्थानीय जलवायु का ध्यान रहता है और न ही मकान के आकार प्रकार का। हर किस्म की भवन सामग्री हमेशा हर जगह इस्तेमाल नहीं की जा सकती। भवन सामग्री के चयन में उपयोगिता, उपलब्धता और सार्थकता के मानदंड होने चाहिये। इनके विवेक पूर्ण संतुलन से ही ऐसे भवन का निर्माण होता है जिसमें रहने वाले या काम करने वालों को सुख और शांति का अनुभव हो। पहाडि़यां लाखों बरसों में बनती हैं। पर लोगों की पत्थर खरीदने की भूख और खनन माफिया के पैशाचिक दोहन से कुछ ही वर्षों में इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। एक बार जो पहाड़ी खोद ली गयी वह अरबों रुपया खर्च करके भी दुबारा बनाई नहीं जा सकती। इतना ही नहीं पहाडि़यों के हट जाने से पर्यावरण पर जो विपरीत प्रभाव पड़ता है उसका नमूना आज राजस्थान और उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में देखा जा सकता है जहां आज से कुल बीस वर्ष पहले अच्छी खासी पहाडि़यां थीं। पर आज वहां धूल उड़ती है। रेगिस्तान तेजी से इन इलाकों में फैलता जा रहा है। गरमी की भयावहता बढ़ती जा रही है। जहां एक ओर जल का संकट गहराता जा रहा है वहीं दूसरी ओर वर्षा में जल की विनाश लीला भी इन इलाकों को खासी दिक्कत में डाल देती है। यह सब पहाडि़यों के अविवेकपूर्ण दोहन का परिणाम है। पर लाभ की लिप्सा हम पर इस कदर हावी है कि पर्यावरण की चिंता तो दूर हम मुनाफा कमाने के लिये अपनी आस्था की प्रतीक पहाडि़यों तक का दोहन करने में संकोच नहीं करते। ऐसे कलियुगी माहौल में भक्तों को भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि वे खनन माफिया को सद्बुद्धि दे ताकि वे अपनी लिप्सा का शिकार किसी और क्षेत्र को बना लें। जो भी हो ब्रज के ग्रामीण क्षेत्र में अपनी धरोहर के संरक्षण की जाग्रति अब तेजी से फैल रही है। यदि सम्बन्धित लोग नहीं चेते तो जनता भविष्य में स्थिति पर सीधा नियंत्रण करने में संकोच नहीं करेगी।

Friday, June 7, 2002

सांसद निधि का दुरुपयोग बंद हो

पिछले दिनों भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात करके सांसद निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की जरूरत पर जोर दिया था। सैद्धांतिक रूप से उनसे सहमति जताने के बावजूद किसी भी दल ने इस मामले में पहल नहीं की। देश के अलग-अलग हिस्सों में सांसद निधि के आवंटन और इस्तेमाल को लेकर अलग अलग तरह की रिपोर्ट आ रही हैं। जहां कुछ इलाकों में इस निधि से वाकई जन उपयोगी काम हुए हैं वहीं ज्यादातर इलाकों में इसके आवंटन और इस्तेमाल को लेकर तमाम तरह की निराशाजनक बातें सामने आ रही हैं। आज देश की राजधानी दिल्ली के अलावा अन्य हिस्सों में भी ऐसे दलाल विकसित हो गये हैं जो किसी भी योजना के लिये सांसद निधि से धन आवंटन करवाने का ठेका लेेते हैं। ये लोग सांसदों के इस कोष पर सतर्क निगाह रखते हैं। इन्हें पता होता है कि किस इलाके के कौन से सांसद का कोष इस्तेमाल नहीं हुआ। इन्हें ये भी पता होता है कि कौन से सांसद से सरलता से किसी भी प्रोजेक्ट के लिये धनराशि का आवंटन करवाया जा सकता है। ये लोग बाकायदा एक मोटे कमीशन के एवज में इस काम को करवाने के लिये तत्पर रहते हैं। चूंकि इस तरह की कमीशनबाजी का लेन-देन काले धन से गुपचुप तरीके से होता है इसलिये इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। वैसे भी इस मामले में किसी भी पक्ष के शोर मचाने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह पूरी प्रक्रिया बहुत सरल है। यदि किसी कोलोनाइजर को अपनी कालोनी में सांसद निधि से सड़क बनवानी है तो वह ऐसे दलालों को संपर्क करता है जो उस कोलोनाइजर के लिये तमाम कागजी खानापूरी करते हैं। कमीशन की रकम तय होती है और कोलोनाइजर को वांछित राशि आवंटित कराने में सफलता मिल जाती है। जिस कालोनी में सड़क, बिजली, सीवर आदि की व्यवस्था न होने से उसके प्लाॅटों की खास कीमत नहीं मिलती वही कालोनी इस तरह के अनुदान आ जाने के बाद चमक जाती है। और तब वह अपने प्लाॅट को अच्छे दामों पर बेच सकते हैं। सांसद निधि से धन आवंटन कराने वाले जानते हैं कि कोलोनाइजर के लिये यह कितने बड़े फायदे का सौदा हैं इसलिये बाकायदा मोल तोल करके कमीशन की मोटी रकम तय की जाती है। आम जानकारी की बात है कि यदि किसी छोटे समूह के निहित स्वार्थ के लिये यह धनराशि आवंटित करायी जानी है तो कमीशन की रकम 35 से 40 फीसदी तक होती है। यदि यह आवंटन वास्तव में सार्वजनिक हित के काम के लिये किया जाता है तो भी कमीशन की राशि 10 फीसदी तक मांग ली जाती है।
पिछले कुछ वर्षों से हर राजनैतिक दल अपने सांसदों को मजबूर करके ऐसी परियोजनाओं में सांसद निधि लगवा रहे हैं जिनका आम जनता को कोई लाभ मिले न मिले, उनके दल के स्वार्थ जरूर पूरे होते हैं। इस तरह अक्सर यह देखने में आ रहा है कि अनुत्पादक और महत्वहीन परियोजनाओं में सांसद निधि का एक बहुत बड़ा हिस्सा बरबाद किया जा रहा है। क्योंकि इन परियोजनाओं को चलाने में सम्बन्धित राजनैतिक दल के हित छिपे होते हैंै। यह बताना कठिन है कि कौन सा काम जनहित की श्रेणी में आता है और कौन सा नहीं। पर फिर भी मोटे तौर पर यह माना जाना चाहिये कि जिस काम से समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों का फायदा होता हो, उसे जनहित का कार्य मान लेना चाहिये। सांसद निधि के संदर्भ में इस मापदण्ड को भुला दिया गया है। छुटभैैये नेता और दलाल अपने फायदे के लिये अपने सांसदों की इस निधि को निरर्थक परियोजनाओं में लगवा रहे हैं। बिना यह सोचे कि इससे उस क्षेत्र का कुछ भी फायदा नहीं होगा।

सोचने वाली बात यह है कि सांसद निधि से धन स्वीकृत करते समय क्या सम्बन्धित सांसद को यह अहसास होता है कि जो धन वह आवंटित करने जा रहे हैं वह किसी व्यक्ति या उनकी निजी जायदाद नहीं है। किसी देश की करोड़ों गरीब जनता के खून पसीने की कमाई पर कर लगाकर जो राजकोष बनता है उसी में से सांसद निधि के लिये भी धन दिया जाता है। फिर भी ऐसा व्यवहार किया जाता है मानो कोई राजा अपने निजी राजकोष से जनता को धन लुटा रहा हो। विकास के जिन कामों को इस निधि से पूरा करके दिखाने के दावे किये जाते हैं और कई बार उस कार्य को पूरा किया भी जाता है दरअसल ये वो काम हैं जो पहले ही सरकार को कर देने चाहिये थे। चूंकि सरकारें अपनी दायित्व के निर्वहन में असफल रही हैं इसलिये जनता को कुएं और शौचालय जैसे छोटे छोटे कामों के लिये भी सांसद निधि की तरफ देखना पड़ता है। चूंकि सांसद निधि का इस्तेमाल प्रायः जिला प्रशासन की मार्फत होता है इसलिये स्थानीय प्रशासन को इस निधि में से धन खींचने की पूरी गुंजाइश रहती है। इस तरह यह भ्रष्टाचार का एक नया मोर्चा खुल गया। प्रायः सांसद और जिला प्रशासन के बीच विवाद भी हो जाते हैं और बात बाहर निकल जाती है। तब यह सुनने में आता है कि फलां प्रशासक ने फलां सांसद को उसकी अपेक्षा के अनुरूप प्रसन्न नहीं किया इसलिये यह टकराहट पैदा हुई।

सोचने वाली बात यह है कि जिस देश की आधी से अधिक आबादी बेहद गरीबी और बदहाली में जी रही है उस देश में जनता के सीमित संसाधनों का फालतू के कामों में दुरुपयोग करना कहां की बुद्धिमानी है। इसलिये इस व्यवस्था का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। तब प्रश्न यह भी उठेगा कि क्या सांसद का काम सार्वजनिक निर्माण करवाना है या कुछ और ? उत्तर ये होगा कि सांसद का काम या यूं कहें कि विधायिका का काम कानून बनाना, और उसे लागू करने वाली सरकारी एजेंसियों के काम काज पर निगरानी रखना होता है। जबकि सांसद निधि आ जाने से यहां सांसद का ‘रोल कौन्फ्लिक्ट’ हो गया है। जब वह अपनी निधि से खर्चा करेगा और तत्सम्बन्धी वित्तीय निर्णय लेगा तब वह कैसे अपने ही निर्णयों का निष्पक्ष मूल्यांकन कर पाएगा जो एक सांसद के नाते उसका कर्तव्य है ?

दरअसल लोकतंत्र में इस तरह की सांसद निधि की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिये। सरकार के लोग विशेषज्ञों की राय से देश के विभिन्न इलाकों की जरूरतों को समझते हुए विकास की जो योजनायें बनाते हैं उनका क्रियान्वयन कैसा हो रहा है यह परखना ही सांसदों का कर्तव्य होता है। पर जब वे खुद ही कार्य पालिका के रूप में कार्य करेंगे तो वे एक निष्पक्ष विधायिका के रूप में कार्य कर पायेंगे। वैसे भी इस निधि के आवंटन का निर्णय लेने की जो शक्ति एक सांसद में केन्द्रित कर दी गयी है वह भी जनतांत्रिक भावनाओं के प्रतिकूल है। सार्वजनिक धन के इस्तेमाल का निर्णय लेने का कोई अधिकार किसी एक व्यक्ति विशेष को नहीं होना चाहिये। इसके लिये एक समूह के निर्णय की आवश्यकता होती है। विशेषज्ञों के सलाहकार मंडल की सलाह पर सांसद निधि से धन आवंटित किया जाना चाहिये। विशेषज्ञों की ऐसी समिति को देश की माली हालत और लोगों की कर देने की क्षमता को ध्यान में रखकर सुझाव देने चाहिये। ऐसी परियोजनाओं में धन लगे जिनका प्रत्यक्ष लाभ जनता को मिले। फिजूलखर्ची और निहित स्वार्थों के कामों पर रोक लगे। इसके लिये हर सांसद के संसदीय क्षेत्र की जागरूक जनता को भी सक्रिय और चैकन्ना रहना होगा। ऐसे लोगों को समूह बनाकर अपने सांसद पर दबाव डालना चाहिये ताकि वह सांसद जन भावनाओं की उपेक्षा करके अपनी निधि को बरबाद न करे या उसे निहित स्वार्थों के हाथ में जाने से रोकंे। हर संसदीय क्षेत्र के जागरूक नागरिक, वकील, शिक्षक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चाहिये कि वे अपने सांसद से इस निधि के इस्तेमाल की विस्तृत आख्या मांगें और उसका अध्ययन करें। ताकि उन्हें पता चल सके कि किस काम के लिये कितने खर्चे की आवश्यकता होती है। इसके अलावा संसदीय सलाहकार समिति अपनी बैठक में ऐसे प्रस्ताव पारित कर सकती है जिनसे सांसद निधि के दुरुपयोग पर रोक लग जाए। उसके आवंटन की निर्णय प्रक्रिया और उसके खर्चे की पूरी निगरानी करना संभव हो। इसके साथ ही प्राथमिकता तय कर दी जाएं जिनकी सूची हर सांसद को दे दी जाए ताकि वे अपनी क्षेत्र में आवश्यकतानुसार इस सूची के आधार पर अपनी रुचि के कामों में धन लगायें।

यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि तमाम संसाधनों को होने के बावजूद हमारा देश इतना गरीब है। दुख की बात यह है कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति ने अब देश की अस्सी फीसदी जनता को दरकिनार कर साधन सम्पन्न लोगों को अपने कब्जे में ले लिया है ऐसे में आम आदमी के दुख दर्द अब हुक्मरानों के सभागारों की चर्चा के विषय नहीं रहे। सांसद निधि की क्या चले जब देश की बड़ी बड़ी नीतियां चंद कंपनियों के मोटे मुनाफों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। लोगों को विकास और नौकरी के सब्जबाग दिखाकर गुमराह किया जाता है। जब तक देश के जागरूक नागरिक सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन और इस्तेमाल पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं करेंगे तब तक देश की आम जनता को इन संसाधनों का लाभ नहीं मिल सकेगा। लोकतंत्र के लिये जागरूक जनता के बीच ऐसे संकल्प का होना अनिवार्य है। इस दिशा में पहला कदम यह होगा कि हर संसदीय क्षेत्र के जागरूक नागरिकों का एक संगठन इसी काम के लिये बने जो सांसदों और विधायकों के कोष पर निगरानी रखे और उसकी बरबादी होने से उसे रोके। यह शुरू में कठिन जरूर लगेगा पर इतना कठिन मामला है नहीं। अगर ऐसे संगठन में शामिल होने वाले लोग अपने निज हित को अलग करके सार्वजनिक हित में सांसदों पर एक दबाव समूह बनायेंगे तो मजबूरन उस सांसद को अपने कार्यकलापों में जवाबदेही लानी पड़ेगी। यदि ऐसा हो सके तो यह लोकतंत्र के लिये एक बहुत ही सशक्त शुरूआत होगी। कहते हैं कि बिन्दु बिन्दु से सिन्धु बना है। हर सांसद पर अगर उसके मतदाताओं की ऐसी ही कड़ी नजर लगी रहे तो कोई भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो पाएगा। चाहे वो विधायिका का सदस्य हो या कार्यपालिका का। व्यवस्था की आलोचना करना और हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना सबसे आसान काम है। मुश्किल है तो हालात को बदलना। जो लोग भी इस देश के निजाम को और अधिक जिम्मेदाराना बनाना चाहते हैं उन्हें इस तरह की ठोस पहल करनी चाहिये। इसी में सभी का कल्याण छिपा है

Friday, May 31, 2002

यूं खत्म नहीं होगा कश्मीर का आतंकवाद


एक गांव में एक ग्वाला रोज पहाड़ी पर गाय चराने ले जाता था। एक दिन उसे मजाक सूझा। उसने शोर मचा दिया बचाओ-बचाओ शेर आ गया।उसका शोर सुनकर गांव वाले लाठी-भाले लेकर पहाड़ी की तरफ दौड़ पड़े। जब उन्हें वहां कोई शेर नहीं मिला तो उन्होंने ग्वाले को तलब किया। ग्वाला हंस कर बोला मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था। ऐस्ी हरकत उस ग्वाले ने एक दो बार फिर की। हर बार गांव वालों को यही जवाब मिला कि ये एक मजाक था। एक दिन वाकई शेर ने ग्वाले की गायों पर हमला बोल दिया। वो मदद के लिए जोर-जोर से चिल्लाने लगा, पर गांव वालों ने सोचा कि यह भी मजाक ही होगा। कोई मदद को नहीं आया। शेर उसकी गाय उठा कर ले गया।
हमारे देश के प्रधानमंत्री भी पिछले कुछ महीनों से उसी ग्वाले की तरह व्यवहार कर रहे हैं। हम निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे।’ ‘आर पार की लड़ाई होगी।‘ ‘पाकिस्तान हमारे धैर्य की परीक्षा न लें।हमारा धैर्य अब खत्म होता जा रहा है।ऐसे तमाम जुमलों से प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी लोगों का समर्थन खोते जा रहे हैं। बार-बार लड़ाई की घोषाणा करना। बार-बार उत्तेजना फैलाना। बार-बार लोगों को उत्साहित करना। बार-बार फौजों को सतर्क करना और फिर दुम समेट कर बैठ जाना, कहां की अक्लमंदी है ? सेना और जनता दोनों की ही भावना यह है कि या तो आर पार की लड़ाई लड़ ली जाए। जो होगा वो देखा जाएगा। अगर नहीं लड़ना है तो ये झूठमूठ का उन्माद क्यों ? इस तरह की गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी से भाजपा के विरोधियों को यह कहने का मौका मिल रहा है कि दरअसल वाजपेयी सरकार युद्ध करने की स्थिति में नहीं हैं, केवल गीदड़ भभकी दे रही है। इंकाई याद दिलाते हैं कि किस तरह उनकी दबंग नेता श्रीमती इंदिरा गांधी ने आनन-फानन में पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनवा दिया और सिक्किम को भारत में मिला लिया। किसी के दबाव और आलोचना की कोई परवाह नहीं की। अगर वाजपेयी जी यह समझते हैं कि युद्ध लड़ना जरूरी नहीं केवल दबाव बनाए रखना जरूरी है तो यह शायद ठीक नीति नहीं। इससे कुछ भी हासल नहीं हो रहा न तो आकंतकवाद कम हो रहा है और न पाकिस्तान काबू में आ रहा है। सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना चाहिए ? यह युद्ध दस-बीस दिन से ज्यादा नहीं चलेगा। क्या इतने दिनों में इस युद्ध से निर्णायक फैसले हो सकेंगे ? क्या इस युद्ध से कश्मीर समस्या का हल निकल आएगा  और क्या इस युद्ध से कश्मीर की घाटी में शांति स्थापित होगी ? इन प्रश्नों के उत्तर यूं ही नहीं दिए जा सकते। पर एक बात साफ है कि भारत पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति में कोई दखल नहीं देना चाहता। भारत की रूचि तो पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को समाप्त करने में है। इस दिशा में अगर भारत सरकार कोई भी कड़ा कदम उठाती है तो उसी सभी दलों का पूरा समर्थन मिलेगा। ऐसा स्वयं विपक्ष की नेता श्रीमती सोनिया गांधी संसद में कह चुकी हैं। 11 सितंबर 2001 के बाद से आतंकवाद के विरूद्ध अंतर्राष्ट्रीय माहौल बना है। हर प्रमुख देश आतंकवाद के दानव से मुक्ति पाना चाहता है। ऐसे माहौल में भी अगर भारत आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाही नहीं कर रहा तो उसके लिए बार-बार पाकिस्तान को दोषी ठहराने से क्या लाभ? माना कि देश में सक्रिय आतंकवादियों को समर्थन पाकिस्तान से मिल रहा है। पर ये आतंकवादी सक्रिय तो हमारी ही भूमि पर हैं। अपने घर की रक्षा तो हम मुस्तैदी से करें नहीं और पड़ौसी पर आरोप लगाते रहें, इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं।
कश्मीर की मौजूदा आबादी को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक तो वे लोग जिनमें मुसलमान, बौद्ध और हिंदू शामिल हैं जो हर कीमत पर घाटी में शांति, विकास और व्यापार चाहते है। क्योंकि उन्हें पता है कि चाहे ज्यादा स्वायत्तता की बात हो या पूरी आजादी की, कश्मीर के लोगों को कुछ नया मिलने वाला नहीं है। असलियत तो यह है कि जो फायदे उन्हें आज मिल रहे हैं उनसे ज्यादा किसी भी हालत में उन्हें मिलने वाले नहीं है। अगर वे पाकिस्तान के साथ जाना भी चाहे तो उनकी हैसियत मुजाहिरों से ज्यादा बेहतर नहीं होगी। इसलिए उन्हें इस आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ वो भाड़े के टट्टू हैं जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ऐसे ही दूसरे जेहादी मुल्कों से आतंकवाद का प्रशिक्षण लेकर कश्मीर और शेष भारत में घुस आए हैं। इनसे निपटना मुश्किल हो सकता है पर असंभव नहीं। तकलीफ इस बात कीे है कि कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय की जो नीति चल रही है उसके कारण घाटी में आतंकवादी खत्म नहीं हो पा रहा। कश्मीर मामलों को लेकर प्रधानमंत्री की सलाहकार टीम सही काम नहीं कर रही। आज वहां गद्दारों को प्रोत्साहन मिल रहा है जबकि देशभक्त सैनिक और पुलिस वाले नाहक शहीद हो रहें हैं। एक उदाहरण से बात साफ होगी। पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर पुलिस में से दो हजार पुलिसकर्मियों को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि ये लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों की मदद कर रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर पुलिस के लोगों को संदेश गया कि उन्हें आतंकवादियों से डट कर निबटना है। वे आज फौज के साथ कंधे-से-कधा मिला कर आतंकवादियों के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह एक ठीक कदम था। पर दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर प्रशासन में चार हजार लोग ऐसे हैं जो या तो चोरी से पाकिस्तान जाकर आतंकवाद को समर्थन देने का प्रशिक्षण लेकर आए हैं या फिर आतंकवादियों को प्राश्रय देते हैं। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रशासन में संवेदनशील विभागों में ये इस तरह जमे हुए है कि सारी गोपनीय सूचनाएं आतंकवादियों को पहुंचाते रहते हैं। इन्हें नौकरी से बहुत पहले ही बर्खास्त कर देना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। इतना ही नहीं यह भी पता चला है कि जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री श्री फारूख अबदुल्ला अपनी कुर्सी पर टिकते ही नहीं हैं। साल में आधे से ज्यादा दिन वे देश या विदेश के दौरे पर रहते हैं। प्रशासन पर उनकी पकड़ बिलकुल नहीं है। इन हालातों में जम्मू-कश्मीर की सरकार को खुद ही इस्तीफा देकर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए।
जम्मू-कश्मीर राज्य को आतंकवाद से जूझने के लिए एक सक्षम, अनुभवी और फौलादी इरादे वाले उप-राज्यपाल की जरूरत हैं, जो कड़े निर्णय ले सके और जम्मू-कश्मीर की बहुसंख्यक शांतिप्रिय जनता के हितों का संरक्षण करते हुए आतंकवादियों को सबक सिखा सके। अबोध औरतों और बच्चों को रसोई घरों में घुस कर मारने वाले आतंकवादियों को कोई भी रियायत देने का प्रश्न ही नहीं उठता।  पिछले दिनो मैंने खुद गुजरात जाकर श्री केपीएस गिल के काम करने के तरीके और उसके वहां की जनता पर पड़े प्रभाव का अध्ययन किया। बहुत कम दिनों में श्री गिल ने सिर्फ गुजरात में शांति की स्थापना कर दी बल्कि अल्पसंख्यकों का भी विश्वास जीत लिया है। उनका मानना है कि कश्मीर के आतंकावाद को कानून और व्यवस्था की समस्या मान कर हल करने की जरूरत है। इसमें किसी किस्म की राजनैतिक दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। जहां तक कश्मीर के भविष्य का प्रश्न है उस पर कोई भी चर्चा तभी संभव है जब कश्मीर के नागरिकों को आतंकवाद के साए और खौफ से मुक्त कर दिया जाए। आतंकवादियों के संगीनों के साए में रहने वाले कश्मीर के मेहनतकश और हुनरमंद लोग न तो खुले दिमाग से सोच ही सकते हैं और ना ही सही फैसला कर सकते हैं।
उपराज्यपाल बना कर श्री गिल भेजे जाए या श्री जगमोहन बात एक ही है। हां यह जरूर है कि अब श्री जगमोहन पर भाजपा का ठप्पा लग चुका है इसलिए शायद उनकी तैनाती स्थानीय लोगों को स्वीकार्य न हो। जबकि ऐसी स्थिति में जिस किस्म की निष्पक्षता की आवश्यकता होती है उसकी श्री गिल के पास कोई कमी नहीं है। वे न तो हिंदू हैं और न मुसलमान। एक सिक्ख होते हुए भी सिक्खों के आतंकवाद से जूझ कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि अपने काम के आगे दूसरी बातों पर ध्यान नहीं देते। खैर जो भी फैसला हो यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी में आतंकवादियों के बढ़ते हौसलों के लिए जम्मू-कश्मीर का ढीला प्रशासन ही जिम्मेदार है। जिसे चुस्त-दुरूस्त बनाए बगैर आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। समय की मांग है कि इस मामले में अब और देरी न की जाए। कहीं ऐसा न हो कि अरबों रूपया कश्मीर पर खर्च कर चुकने के बाद भारत को कश्मीर में कुछ भी हासिल न हो। इसलिए आतंकवाद की समस्या से कश्मीर घाटी में प्रभावशाली तरीके से खुद ही निपटना है। जिसके लिए साम, दाम, दंड और भेद चारों तरीके अपनाने होंगे वरना पानी सिर के उपर से गुजर जाएगा।