Friday, April 27, 2001

भारत बंग्लादेश सीमा काण्ड केवल मानसूनी देशभक्ति ही काफी नहीं


भारत के रहमोकरम पर आज़ादी हासिल करने वाला आमार सोनार बंग्लादेश आज वो कर रहा है जो दुश्मन भी नहीं करता। उसके अर्द्धसैनिक संगठन बंग्लादेश रायफल्स ने न सिर्फ मेघालय सीमा पर बसे गांव परडीवाह पर कब्ज़ा ही किया बल्कि सत्रह भारतीय सिपाहियों को अमानवीय यातनाएं देकर बड़ी क्रूरता से मार भी डाला। इतनी क्रूरता से कि उनके शव तक पहचानना मुश्किल था। नतीजतन बंग्लादेश की सीमा पर मारे गए सत्रह शहीदों के परिवारों को अपने सपूतों की अंतिम झलक भी नसीब नहीं हुई। उनके शरीरों की ज़जऱ्र हालत देखते हुए यही बेहतर समझा गया कि उन्हें अपने परिवारजनों और घर से दूर सीमा पर ही अग्नि को समर्पित कर दिया जाए। सेनानायकों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुहाग का सिन्दूर माथे पर सज़ाए कुछ पत्नियां अभी भी इन्तज़ार में हैं कि उने पति लौट आएंगे। मातम का माहौल और तमाम अंतिम रिवायतें पूरी होने के बावजूद वो अपना सिन्दूर मिटाने के लिए तैयार नहीं हैं। ताउम्र पति का साथ निभाने के लिए वचनबद्ध भारतीय नारी पति की लाश अपनी आंखों से देखे बिना माने भी तो कैसे माने कि अब वो विधवा हो गई है। उन सिपाहियों के नौनिहाल पिता को मुखाग्नि देने के अपने अधिकार से भी वंचित रह गये। कोई दुश्मन भी हमारे जवानों के साथ ऐसा घिनौना सलूक नहीं करता जैसा हमारे दोस्त बांग्लादेश ने किया।
आखिर ऐसा हुआ क्यों ? सत्ता के गलियारों में डोलने वाले अलग अलग बातें कह रहे हैं। कुछ लोग यह खबर फैला रहे हैं कि यह इंकाईयों की साजिश का परिणाम है। तहलका के बाद यह काण्ड करवाकर वे भारत सरकार की नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाना चाहते हैं। इन लोगों का दावा है कि अब से अगले संसदीय चुनाव तक इंकाई देश के सामने भाजपा सरकार की छवि बिगाड़ने में जुटे रहेंगे। ऐसा दावा करने वाले यह बताना चाहते हैं कि शेख हसीना पर इंदिरा गांधी परिवार के जो एहसानात हैं उनके चलते वे नेहरू खानदान के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती हैं। इंकाई इसे कोरी बकवास बताते हैं। वे पलटकर आरोप लगाते हैं कि तहलका के बाद उठे विवाद से देश का ध्यान बटाने के लिए भाजपा सरकार ने ही यह चाल चली है। सच्चाई जो भी हो, जो कुछ हुआ वह बहुत दर्दनाक है। इसके सही कारणों की निष्पक्षता से खोज की जानी चाहिए। ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं न हों। फिलहाल इस घटना ने एकबार फिर देशभर में मानसूनी देशभक्तों को सक्रिय कर दिया है। वे देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी देशभक्ति का सबूत सड़कों पर प्रदर्शन करके दे रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। पर सवाल है कि हमारी देशभक्ति पिटने के बाद ही क्यों जागृत होती है ? भारत-चीन युद्ध हो या भारत-पाक युद्ध हम बरसाती मेंढकों की तरह अचानक एक ही रात में चारों तरफ से देशभक्ति की टर्र-टर्र शुरू कर देते हैं। तनाव के बादल छंटते ही हम या तो उदासीन होकर बैठ जाते हैं या खुद ही गद्दारी के कामों में जुट जाते हैं। एक बार फिर मानसूनी देशभक्तों का देशपे्रम उफान लेने लगा है। आज हर कोई बयानबाजी करने में जुटा है। कोई बंग्लादेश को मुंहतोड़ जवाब देने की बातें कर रहा है तो कोई भारत में घुसपैठ करके जीवनयापन करने वाले करोड़ों बंग्लादेशियों को उखाड़ फेंकने की मांग कर रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसी दुर्घटनाएं क्यों होती हैं ? कहीं ये हमारी ढुलमुल नीतियों और कमजोरी का नतीजा तो नहीं। 1999 में लद्दाख सीमा पर पाकिस्तानी सेना की बर्बरता का शिकार हुए छः जवानों के बाद हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए थे। पर ऐसा नहीं हुआ और शायद इसीलिए हमें नीचा दिखाने की मंशा रखने वालों के हौसले इतने बढ़ गये कि उन्होंने फिर ऐसा कांड कर डाला। यह कांड अबकी बार हमारे पारम्परिक शत्रु देश पाक सीमा पर नहीं बल्कि मित्र देश बंग्लादेश की सीमा पर हुआ। मई 1999 में जम्मू-कश्मीर की लद्दाख सीमा पर हमारे छः जवानों को ऐसी ही क्रूर यातनाएं देकर मार डाला गया था। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि देश के नेतृत्व में ऐसी दुखद घटनाओं को रोकने के लिए कौन से कड़े कदम उठाए ? वैसे कारगिल की घटनाओं को बीते अभी बहुत समय नहीं हुआ कि यह नया कांड हो गया।
ऐसी दुर्घटनाओं में सिपाहियों और स्थानीय जनता के मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि प्रायः सीमा पर तैनात जवानों के साथ ऐसी घटनाऐं स्थानीय आक्रोश का विस्फोट बन कर सामने आती हैं। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि किसी भी देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सिपाही क्यों न हों वे सब अपने घरों से दूर रहते-रहते इतने उकता जाते हैं कि स्थानीय जनता से अपने व्यवहार में शालीनता की सीमाऐं लांघ जाते हैं। जिन देशों की सीमाओं पर बसने वाले नागरिक दब्बू किस्म के होते हैं वे अपने माल, अस्मिता और स्वाभिमान की कीमत पर भी सिपाहियों की अनुचित मांगों का शिकार बनते रहते हैं। पर जिन सीमाओं पर रहने वाले स्थानीय लोग स्वभाव से ही आक्रामक प्रवृत्ति के होते हैं वे सिपाहियों की अनुचित मांगों का डटकर विरोध करते हैं और कभी-कभी क्रोध के अतिरेक में वे सीमाओं पर तैनात सिपाहियों को अकेले में घेर कर उसके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ताजा घटना में परडीवाह गांव में हुई हिंसा के पीछे ऐसे कोई कारण नहीं हैं। पर प्रायः ऐसी दुर्घटनाओं के पीछे यह काफी महत्वपूर्ण कारण होता है। ताजा घटनाओं के तथ्य तो केवल निष्पक्ष जांच के बाद ही सामने आयेंगे।
इस घटनाक्रम से देश की जनता में काफी उत्तेजना है। उसे देश के नेतृत्व की क्षमता पर शक हो रहा है। वह सवाल पूछ रही है कि अखण्ड भारत की बात करने वाले विखंडित भारत की रक्षा तो कर नहीं पा रहे फिर अखंड राष्ट्र कैसे बनायेंगे। देश की जनता राजनेताओं की ढुलमुल नीतियों से नाखुश है। आज तिब्बत और चीन के मामले में पंडित नेहरू की तथाकथित उदारता के खामियाजे को भी याद किया जा रहा है। लोग अब वह भी घटना याद कर रहे हैं जब पंडित नेहरू ने 1963 में पड़ौस के देश बर्मा (म्यांमार) को सर्वदीप हथेली पर रखकर भेंट कर दिया था। 1972 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसी तरह विवाद के बाद श्रीलंका को कच्चटीब नाम का टापू उपहार स्वरूप दे दिया था। 1971 में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने के बाद जिस तरह श्रीमती गांधी ने जीता हुआ इलाका लौटाया उससे देश में कोई भी सहमत नहीं था, न तो नागरिक ही न ही रक्षा सेनाऐं। 1971 में ही बांग्लादेश में भारत का अरबों रूपया और हजारों शहादतें देने के बाद भी बंग्लादेश को आजाद छोड़ देने की बात किसी हिन्दुस्तानी के गले नहीं उतरी। 1974 में इन्हीं शेख हसीना के वालिद साहब शेख मुजीबुर्रहमान को बचाने के प्रयासों में 21 सेना नायकों और तीन हेलिकाप्टरों को भारत ने बलि चढ़ा दिया था। 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद भारत ने शेख हसीना को वर्षों शाही मेहमान की तरह पलकों पर बिठा कर रखा। वही शेख हसीना आज बंग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं और गृह मंत्रालय उनके ही अधीन है। यानी हमारे सिपाहियों के साथ ऐसा बर्बरतापूर्ण वीभत्स व्यवहार करने वाली बंग्लादेश रायफल्स सीधे बेगम शेख हसीना के अधीन है। फिर भी वे बड़ी मासूमियत से कह रही हैं कि जो कुछ हुआ उसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है। बंग्लादेश रायफल्स के महा निदेशक या अन्य उच्च अधिकारी अगर इतने उदण्ड हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कूटनीतिज्ञ संवेदनशीलता को समझे बिना मनमाने आदेश दे देते हैं जिनकी जानकारी बेगम साहिबा को नहीं होती तो ऐसे अधिकारियों को एक क्षण भी अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है। फिर क्या वजह है कि बेगम शेख हसीना सब कुछ देख सुनकर भी इतनी भोली बन रही हैं कि अभी भी वे मात्र जांच कराने की बात ही कर रही हैं, क्या वजह है कि वे बंग्लादेश रायफल्स के महानिदेशक को हटाने में संकोच कर रही हैं। वे इसे अपना अन्दरूनी मामला बताकर भारत को इस सबसे दूर रखना चाहती है। दूसरी तरफ हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों का दावा है कि उल्फा और नागा आतंकवादियों को मदद बांग्लादेश से ही मिल रही है। जहां बाकायदा आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं। फिर हमारा नेतृत्व इतना ढीला क्यों है ?
इंका से लेकर भाजपा तक देश के उदारवादी नेता भले ही अपने पड़ौसी देशों को उपहार स्वरूप दिए गए इलाकों को भूल जाएं पर बंग्लादेश वाले इतनी जल्दी कैसे भूल गए कि भारत ने उन्हें कितनी कुर्बानी करके आजाद करवाया था ? लम्बे विवाद के बाद 1998 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने बंग्लादेश को गंगा के पानी और पेट्रोलियम उत्पादों की नियामतें भी बख्शी थीं। कल अगर भारत में नौकरी का अधिकार प्राप्त नैपाली लोग भी ऐसा करने लगें तो हम क्या करेंगे ? श्रीलंका की मदद करने गये राजीव गांधी खुद लिट्टे के बम का शिकार हो गये। यही सिलसिला चला आ रहा है। हम पिटते भी जाते हैं और गुर्राते तक नहीं। एक तरफ ऐसा ढीलापन है तो दूसरी तरफ देश में मानसूनी देशभक्ति का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। बहुत अर्सा नहीं बीता जब कारगिल घटनाक्रम के बाद देश में तमाम तरह की देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा था। छोटे-बड़े नेता ही नहीं अभिनेता तक भी खुद को दूसरे से ज्यादा बड़ा देशभक्त साबित करने में जुट गये थे। चूहा देखकर भी डर जाने वाले लोग दावा करने लगे थे कि अगर सरकार उन्हें शस्त्र मुहैया कराए तो वे सीमा पर जाकर लड़ने को तैयार हैं। यही नहीं दाल में कंकड़, गर्म मसाले में लीद, आटे में गन्ने की खोई का बुरादा और पेट्रोल में सस्ता केमिकल मिलाने वाले भी शहीदों के परिवारों को लाख-लाख रूपये देने की घोषणा करने लगे। भले ही युद्ध के बाद अपने धंधों कों और ज्यादा दो नम्बरी बनाना पड़े पर किसी भी तरह मुनाफा कमाने के लिए तत्पर रहने वाले बहुत से लोग भी देशभक्ति का दावा करने से नहीं चूकते।
दरअसल भारतीय राजनेताओं की सहृदयता और लोगों की मानसूनी देशभक्ति ही ऐसी समस्याओं का मूल कारण है। भारत के लोगों में देशभक्ति भी मानसून की तरह युद्ध के मौसम में ही फूटती है। देशभक्ति एक ज़ज़्बा है, एक जुनून है जिसे हर दिन, हर पल जिन्दा रखना होता है। वैसे ही जैसे जापान के लोग जिन्दा रखते हैं। कारगिल के घुसपैठिये लौट गये तो देशभक्तों के बरसाती बादल भी लौट गये। बंग्लादेशी भी लौट गये हैं। कुछ दिन में फिलहाल पनपी देशभक्ति भी ठंडी पड़ जायेगी। पर देश की आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा से जुड़े तमाम प्रश्न अनसुलझे ही रह जाऐंगे। आज मुल्क जिस चैराहे पर खड़ा है उस पर से उसे आगे ले जाने के लिए हिम्मत वाले जांबाज़ देशभक्तों की हर स्तर और हर क्षेत्र में जरूरत है। ऐसे देशभक्त जो केवल भावावेष में बन्द मुट्ठियां ही हवा में न लहरायें बल्कि कुर्बानी की हद तक जाने को तत्पर हों। तभी देश मौजूदा मकड़जाल से निकल पायेगा। वर्ना देश की राजनीति पर विभिन्न रंगों और नामों के बैनर लेकर छाये रहने वाले लोग ही ताश के पत्तों की तरह आपस में फिटते रहेंगे। कुछ नहीं बदलेगा। क्योंकि अन्धे अपनों को ही रेवड़ी बांटते रहेंगे और मुल्क बेइन्तहा समस्याओं की आग में झुलसता रहेगा।

Friday, April 13, 2001

तहलका के बाद संघ परिवार और इंका में आत्मनिरीक्षण


पिछले दिनांे तहलका हमले से निपटने की रणनीति के तहत भाजपा ने देश भर में जनसभाएं आयोजित करने का फैसला किया। कुछ नगरों में यह जनसभाऐं आयोजित की भी गईं। पर अपने ही कार्यकत्र्ताओं में जोश की कमी और जनता की तरफ से उदासीनता के कारण फिलहाल इन रैलियों का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया है। जनसभाओं की जगह अब अपने कार्यकत्र्ताओं का मन टोहने के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा स्थानीय स्तरों पर अनेक गोष्ठियां गोपनीय रूप से आयोजित की जा रही हैं। इन गोष्ठियों में कई नई बातें देखने में आई हैं। मसलन अब इन गोष्ठियों में कार्यकत्र्ताओं को खुलकर बोलने और अपने मन की बात बिना संकोच कहने की छूट दी जा रही है। इतना ही नहीं वर्षों बाद संघ के उन कार्यकत्र्ताओं को भी बुलावा भेजा गया जिनकी लम्बे समय से ऐसी गोष्ठियों में उपेक्षा की जा रही थी। उनकी उपेक्षा का कारण था उनकी स्पष्टवादिता। सत्ता प्राप्ति के उत्साह में लगे संघ के प्रचारकों को ऐसी आलोचनात्मक शैली झेलने की फुर्सत नहीं थी। उन्हें सत्ता जितनी निकट आती दिख रही थी उतनी ही अपने पारम्परिक मूल्यों से उनकी दूरी बढ़ती जा रही थी। तर्क यह था कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिये छोटे-मोटे समझौते तो करने ही पड़ते हैं। एक बार सत्ता मिल जाये और दूसरों से बेहतर काम करके दिखा दिया जाए फिर जनता हमेशा हमारा ही वरण करेगी। इस प्रक्रिया में नतीजा यह हुआ कि जिस तरह आजादी के बाद समर्पित और त्यागी प्रवृत्ति के कांगे्रस जनों को दरकिनार करके सत्तालोलुप लोग कांगे्रस पर हावी हो गये थे, ठीक उसी तरह सत्ता प्राप्ति के इस दौर में भाजपा के उन कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दिया गया जिनका पूरा जीवन डा. हेडगेवार के विचारों और उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहा था। जिन्होंने न सिर्फ त्यागमय जीवन से बल्कि अपने आचरण से अपने वोट बैंक को स्वर्णिम भविष्य के लिये आश्वस्त किया था। पर जिन हालातों में राजग की सरकार बनी उसमें संघ की विचारधारा को पीछे हट जाना पड़ा। पीछे हटने का यह क्रम इस कदर आगे बढ़ गया कि भाजपा के ज्यादातर नेताओं के आचरण में ऐसा कुछ भी शेष न रहा जिसके सपने लोगों को दिखाये गये थे। सत्ता का भी जो रूप सामने आया वह वही था जो देश की जनता पिछले पचास वर्षों से देखती आ रही है। सरकारी धन की बर्बादी, सामन्ती ठाटबाट, भाई-भतीजावाद, आपसी कलह और गुटबन्दियां, किराये की भीड़, नारे, झूठे आश्वासन, कड़वी सच्चाई पर पर्दा डालना, राग-रंग और उत्सवों में जनता का ध्यान बंटाकर असली मुद्दों की अपेक्षा कर देना, गरीब के हक के लिए काम करने का नाटक करके केवल अति सम्पन्न वर्ग के हितों में नीतियों का निर्धारण करना, हर स्तर पर बुरी तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के कोई ठोस और क्रांतिकारी कदम न उठाना, चुनाव घोषणा-पत्र के मुद्दों को पूर्ववर्ती दलों की तरह ही भूल जाना, कुछ ऐसे काम हैं जो यह भाजपा के कार्यकत्ताओं को यह बताते हैं कि देश की मौजूदा सरकार पूर्ववर्ती सरकारों से किसी भी मायने मे भिन्न नहीं है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म और संस्कृति से जुड़े जिन मुद्दों के लिए भाजपा का एक समर्पित वोट बैंक था, उन मुद्दों को भी फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इसलिए भाजपा के समर्थकों को यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर इस सरकार में ऐसा क्या नया है जो पहले की सरकारों में नहीं था। शायद यही कारण है कि तहलका के प्रकरण से सबसे ज्यादा आहत और क्रोधित भाजपा का कार्यकत्र्ता ही हुआ है। जब उससे कहा गया कि वह जनता को यह बताए कि कांगे्रस की सरकारें इससे कहीं ज्यादा भ्रष्ट थीं तो उसके मन में कोई उत्साह पैदा नहीं हुआ। इसीलिए भाजपा की रैलियां फ्लाप हो गईं। कार्यकत्र्ता ये सोच रहा है कि कहां तो हमने पारदर्शी और दूसरों से कहीं बेहतर सरकार देने का वायदा किया था और कहां अब हमें ये कहना पड़ रहा है कि हम भ्रष्ट तो हैं पर दूसरों से कम। यह बात किसी के गले नहीं उतर रही। इसीलिए संघ को कार्यकत्र्ताओं का मन टोहने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन बैठकों में जो बात उभर कर आई वह इस प्रकार थी। स्वयंसेवकों का कहना था कि बंगारू लक्ष्मण कोई अपवाद नहीं है। हर जिले में संघ और भाजपा के वरिष्ठ लोगों के बीच यही बंगारू संस्कृति पनप चुकी है। सत्ता की दलाली करने वालों, चाटुकारों या पदलोलुपों को ही प्रोसाहन मिल रहा है। संघ के पारम्परिक कार्यक्रमों और नीतियों की मात्र रस्म अदायगी की जा रही है। देश के ज्यादातर हिस्सों में शाखाएं प्रतीकात्मक रूप में चल रही है। कहने को तो संघ का राजग सरकार में काफी दखल है पर इस दखल का कोई लाभ संघ के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नहीं मिल रहा है। बल्कि इसका लाभ निहित स्वार्थों के आगे बढ़ने में ही दिखाई दे रहा है। स्वयंसेवकों का यह भी कहना था कि भाजपा के सत्ताधारी लोग अब संघ के असली कार्यकत्र्ताओं से कन्नी काटने लगे हैं और उनके इर्दगिर्द वही लोग देखे जाते हैं जो किसी भी दल की सरकार के समय सत्ताधीशों के चारों तरफ नज़र आते हैं। प्रान्तीय प्रचारकों की मौजूदगी में चल रही इन बैठकों में इस किस्म के तमाम तीखे हमले किये गये। जिनका संतुष्टिजनक उत्तर किसी के पास नहीं है। हां यह जरूर है कि देश भर में जब इन बैठकों का चक्र पूरा हो जाएगा तब संघ और भाजपा में शायद आत्मविश्लेषण हो।

राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। अब भाजपा की छवि वो नहीं रही जो सत्ता में आने से पहले थी। इससे निपटने का एक ही तरीका हो सकता है और वह है कि भाजपा के वे सदस्य जो सत्ता में हैं अपनी कार्यशैली और आचरण मे ऐतिहासिक रूप से क्रान्तिकारी परिवर्तन लायें। तब कहीं कार्यकत्र्ताओं में यह विश्वास जगेगा कि अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। ऐसा हो पायेगा, कहना मुश्किल है। दूसरी तरफ यह विडम्बना ही है कि तीन बार सत्ता में आने का मौका मिलने के बावजूद इंका सरकार बनाने की दावेदारी नहीं कर पा रही है। तहलका को लेकर इंकाइयों ने देश भर में माहौल तो खूब बनाया पर उसका राजनैतिक लाभ वे फिर भी नहीं ले पाये। कारण स्पष्ट है कि इंका में आज संगठनात्मक शक्ति क्षीण पड़ चुकी है। उत्तर प्रदेश को ही लें आज भाजपा की जो छवि है उसके चलते इंका के लिए उत्तर प्रदेश में अपना वोट बैंक बढ़ाना कतई असंभव नहीं है। बशर्ते कि इंका का संगठन और प्रादेशिक नेतृत्व कार्यकत्र्ताओं को विश्वास दिला सकें। आज सब बिखरा पड़ा है। हर जिले में नेतृत्व विहीन इंकाई हताश हैं। वे नहीं समझ पा रहे कि किन कारणों से उनका राष्ट्रीय नेतृत्व उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य को ठीक से नहीं संभाल पा रहा है। क्या वजह है कि इतनी आसान परिस्थितियों में भी इंका उत्तर प्रदेश में अपना वजूद कायम नहीं कर पा रही है। क्या पूरे प्रदेश में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इंका को सही नेतृत्व और दिशा दे सके। उत्तर प्रदेश ही क्यों जिन राज्यों में भी गैर इंकाई सरकारें हैं उन राज्यों में इंकाइयों के जो तेवर होने चाहिए वे नहीं हैं। पार्टी के भीतर इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए इंका के संगठन में जिला और प्रान्तीय स्तरों पर क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जाएं। हर जिले में उन कांगे्रसियों को ढूंढ कर सामने लाया जाए जिन्होंने पिछले पचास वर्षों में अपने आचरण से अपने नाम को बट्टा नहीं लगने दिया। ऐसे कांगे्रसी जिलों में ही नहीं कस्बों और गांवों तक फैले हैं। पूरे देश में कार्यकत्र्ताओं का इतना बड़ा जाल किसी भी राजनैतिक दल के पास नहीं है। फिर भी इंका की हालत इतनी खस्ता है। दरअसल इन समर्पित बुजुर्गों को पिछले बीस वर्षों में दरकिनार कर प्रापर्टी डीलरों, ठेकेदारों, गुण्डों और दलालों ने इंका पर कब्जा कर लिया है। जिनके लिए राजनीति समाज के हित साधने का नहीं बकि अवैध लाभ कमाने का जरिया है। इसलिए कांगे्रस अपना गांभीर्य खो चुकी है। सत्ता से बाहर कर दिए जाने से पहले कांगे्रस कितनी गिर चुकी थी, इसकी स्वीकारोक्ति मुम्बई अधिवेशन के दौरान खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने की थी। जब उन्होंने कांगे्रस को दलालों की पार्टी बताया था। भाजपा के सत्ता में आने से पहले लोगों में आशा की एक किरण थी कि शायद भाजपा औरों से बेहतर राजनैतिक दल सिद्ध होगी। पर आज यह आशा धूमिल हो चुकी है। इसलिए जनता में सभी राजनैतिक दलों को लेकर चिन्तन चल रहा है। पर आम आदमी तब तक कांगे्रस से नहीं जुड़ेगा जब तक कि वह इसके स्थानीय नेतृत्व में जुझारूपन न देखे। राजनैतिक विश्लेषकों के बीच आजकल एक मजाक प्रचलित है कि इंकाई सत्ता का सुख भोगकर इतने आलसी हो चुके हैं कि अब उनके सड़कों का संघर्ष नहीं किया जाता। लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति के लिये सड़क का संघर्ष अनिवार्य शर्त होती है। चूंकि इंका का स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर पारम्परिक नेतृत्व उन लोगों के हाथ में है जिनका सड़क के संघर्ष से पिछले बीस-तीस वर्षों में कोई अनुभव नहीं रहा। इसलिए इंका राजनैतिक रूप में पकी फसल काटने का साहस नहीं बटोर पा रही है। इन हालातों में इंका के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए यह जरूरी होगा कि वह लीक से हटकर निर्णय लें और हर जिले और प्रान्त स्तर पर उन लोगों को सामने लाये जो न सिर्फ इंका से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं बल्कि जो आम जनता के हक के लिए सड़कों पर लड़ने में विश्वास रखते हैं। इस क्रम में सबसे ज्यादा जरूरी होगा युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करना। बढ़ती बेरोजगारी और भाजपा से हुए मोहभंग के कारण देश की युवा आबादी दिशाहीन है और उसे नेतृत्व की तलाश है। इंका के कार्यकर्ता मानते हैं कि उसके खजाने में एक तुरूप का पत्ता है। जिसका नाम है प्रियंका गांधी। इंकाइयों को यह पूरा विश्वास है कि यदि प्रियंका गांधी को भारतीय युवक कांगे्रस का अध्यक्ष बना कर हर जिले स्तर पर युवाओं को जोड़ने के काम में लगा दिया जाए तो कुछ महीनों के भीतर ही इंका का एक बहुत मजबूत संगठन देश में खड़ा हो जाएगा। यह संगठन हिंसक, विध्वंसक और मूल्यहीन न बने इसके लिए इंका को कुछ ऐसे चेहरों की तलाश होगी जिनकी विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता। ऐसे दस-बीस मशहूर चेहरों को प्रियंका गांधी के साथ जोड़कर कार्यक्रम बनाए जायें और युवाओं को साथ जोड़ने का अभियान चलाया जाए तो इंका को आशातीत सफलता मिलेगी। सावधानी यह बरतनी होगी कि इस अभियान में इंका के घिसेपिटे चेहरे जनता के सामने न आयें। वरना नुकसान ही होगा फायदा नहीं। अगर इंका कुछ मशहूर और साफ लोगों को जिले से राष्ट्रीय स्तर तक नई पीढ़ी का नया नेतृत्व बताकर पेश करती है तो उसके लिये सत्ता हासिल करना असंभव नहीं होगा। ऐसा उसके कार्यकर्ताओं का विश्वास है।

इन लोगों का यह भी कहना है कि जिस तरह दत्तात्रेय के 24 गुरू थे। सबसे उन्होंने शिक्षा ली। ठीक उसी तरह इंका को भी चाहिए कि वह नरसिंह राव से लेकर अर्जुन सिंह तक हर उस वरिष्ठ इंकाई नेता को समुचित आदर और महत्व दे जिससे आंतरिक कलह न हो। अपने संगठन में वे पात्र हैं। इन सब दिग्गजों को युवा अभियान को समय-समय पर अनुभव जन्य सलाह देने का काम सौंपे। इससे दो लाभ होंगे। एक तो नई पीढ़ी का पुरानी पीढ़ी से टकराव नहीं होगा बल्कि दोनों के बीच सेतुबन्धन होगा। दूसरा पुरानी पीढ़ी उपेक्षित और अपमानित महसूस नहीं करेगी। साथ ही नई पीढ़ी को नई परिस्थितियों, नये मूल्यों के साथ, नये कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ने की छूट हो तो इंका भारतीय लोकतंत्र में अपनी ज्यादा सार्थक भूमिका निभा पायेगी। देखना यह है कि मौजूदा परिस्थितियों में भाजपा या इंका में से कौन-सा राष्ट्रीय दल अपने संगठन में पहले क्रांतिकारी बदलाव लाता है।

Friday, March 23, 2001

तहलका का शोर और कानूनी असलियत


तहलका के टेप क्या जारी हुए पूरे देश में तूफान मच गया।  निःसन्देह रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की प्रक्रिया को जिसतरीके से इन वीडियो टेपों में उतारा गया है उन्हें देखकर हर दर्शक हैरान  रह जाता है। रक्षा सौदों में दलाली ली और दी जाती है। यह बात वर्षों से सबको पता है। पर उसका प्रसार इतना व्यापक है यह आम जनता को पहली बार देखने को मिला । जिसके लिए तहलका की टीम बधाई की पात्र है। इसके साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का प्रकरण भी आम दर्शक को झकझोर देता है। जबसे तहलका का तहलका मचा है, तब से टेलीवीजन पर जो बहस हो रही है उसमें अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को जानबूझ कर दबा दिया गया। पूरी बहस बड़े सतहीय मुद्दों को लेकर चैंचें लड़ाने की मुद्रा में हो रही है। जिसे देखकर आम दर्शक के मन में बहस के करने वाले राजनैतिक दलों के प्रति घृणा बड़ ही रही है। चाहे वो आरोप लगाने वाले विपक्षी दल हों या सत्तारूढ़ दल। इस शोर के पीछे की असलियत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसपर समझदार पाठकों का ध्यान जाना जरूरी है।

बंगारू लक्ष्मण के खिलाफ केवल एक ही सबूत बनता है वह है एक लाख रूपये खुले आम स्वीकार करना, पर यह रूपया लेते वक्त रूपया देने वाला और लेने वाला दोनों ही मान रहे हैं कि यह पैसा पार्टी फण्ड में जा रहा है। गया या नहीं वह अलग बात है, पर कानून की नजर में इससे ज्यादा सबूत उस प्रकरण में नहीं है। चूँकि पार्टी के लिए चन्दा जमा करना एक आम रिवाज है इसलिए बंगारू लक्ष्मण की पैरवी करने वाले वकील उन्हें किसी मुकदमे में फंसने नहीं देंगे। जहाँ तक बंगारू लक्ष्मण से रक्षा सौदों की चर्चा की बात है, तो उसे कोरी गप्पबाजी मानकर अदालत खारिज कर देगी। क्योंकि उसमें कोई भी तथ्य या सबूत ऐसा नहीं है जिसपर सजा दी जा सकें। यही स्थिति जया जेटली के साथ भी है, श्रीमती जेटली ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि जो पैसा उन्हें दिया जा रहा है। वह पार्टी के सम्मेलन के इंतजाम में काम आयगा। हा, रक्षामंत्री के घर में बैठकर हथियारों के सौदागरों से एक गैर-सरकारी व्यक्ति का बात करना कानून की नजर में आपŸिाजनक जरूर हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तहलका टेप में जो दिखाया गया है। उससे उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता। बात कानूनी आधार की है जिसपर तहलका की खोज बहुत सतही स्तर पर समाप्त हो जाती है। जिसके कोई दूरगामी परिणाम सामने नहीं आयेंगे। तहलका के निर्माता का यह दावा करना कि उनके पास गृहमंत्री के खिलाफ 350 करोड़ के घोटाले का सबूत है और फिर अगले ही दिन इससे मुकर जाना व श्री आडवाणी से लिखित मांफी मांगना अनेक सन्देहों को जन्म देता है। इतना ही नहीं तहलका टेप जारी करते समय यह भी कहा गया था कि कुल फुटेज 100 से भी ज्यादा घण्टे का है और उसमें संचार मंत्री रामविलास पासवान व वित्तमंत्री यशवन्त सिन्हा के विरूद्ध भी काफी सबूत हैं पर बाद में तहलका वाले इससे भी मुकर गये। पत्रकारिता से जुड़े लोग समझते हैं कि इस किस्म की घटनाओं का क्या मतलब होता है? शायद इसलिए भाजपाई तहलका के पूरे प्रकरण को लेकर तमाम सवाल खड़े कर रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो राजधानी के गलियारों में पूछा जा रहा है वह यह कि जब पूरी दुनिया में ज्यादातर डाटकाॅम कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं या बन्द होती जा रही है तो तहलका डाट काॅम को इस रिपोर्ट को करने के लिए लाखों रूपया खर्च करने को किसने दिया? 11 लाख रूपया तो केवल रिशवत में बांटा गया फिर आठ महीना जांच की भागादौड़ी, पांच सितारा होटलों में दावतें और कमरों की बुकिंग जैसे लाखों रूपये के खर्चे और भी किये गये। हालांकि तहलका के निर्माताआंे ने अपनी कम्पनी की वित्तीय स्थिति को प्रेस में जारी किया है। फिर भी लोग यह गले नहीं उतार पा रहे हैं कि घाटा उठाकर भी कोई इतनी बड़ी रकम बिना स्वार्थ के क्यों खर्च करेगा? इसके साथ ही जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह यह है कि तहलका के टेपों में ज्यादातर बयान गपबाजी के स्तर के हैं। पत्रकार का धर्म है कि वह किसी के ऊपर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की पड़ताल कर लें और जिसके विरूद्ध आरोप लगाये जा रहे हैं उसे भी सफाई का मौका दें। तहलका की टीम ने पत्रकारिता के यह दोनों ही बुनियादी सिद्धान्त भुला दिये। आर. के. जैन या गुप्ता ने रक्षा सौदों को लेकर जो लम्बी-लम्बी डींग हांकी उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने से पहले तहलका के निर्माताओं को परख लेना चाहिए था। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें यह न कहना पड़ता कि आप हमारी रिपोर्ट की विषय वस्तु पर न जाय केवल उसके सन्दर्भ पर ध्यान दें। तरूण तेजपाल का ऐसा बयान यह सिद्ध करता है कि उनकी इस रिपोर्ट के तथ्यों को लेकर जब भाजपा के नेताओं ने आक्रामक रूख अपनाया तब उन्हें बचाव की मुद्रा में यह कहना पड़ा किसी पत्रकार के लिए यह स्थिति बहुत प्रशन्सनीय नहीं होती कि वह अपने आरोपों से मुकर जाय और क्षमा मांगे। खासकर जबकि रिपोर्ट किसी दैनिक अखबार के लिए कुछ घण्टों में तैयार नहीं की गयी बल्कि बड़ी गम्भीरता से आठ महीने लगाकर तैयार की गयी बताते हैं। फिर ऐसी तथ्यात्मक भूलेें क्यों? यहां जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो वह है कि एक खोजी रिपोर्ट की कई खूबियों के बावजूद तहलका की इस रिपोर्ट पर जितना बड़ा तूफान एकदम देश में मचा क्या वह स्वाभाविक तूफान था? या उसके पीछे भी कुछ राजनैतिक निहित स्वार्थ छिपे थे। इस सन्दर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि 2 सितम्बर, 1993 को जब जैन हवाला काण्ड  को उजागर करने वाली कालचक्र वीडियो पत्रकारों को दिखाई गयी थी, तो महीनों तक देश के मीडिया में इस घोटाले पर सन्नाटा छाया रहा। जब कि कालचक्र की वीडियो कैसेट में जो कुछ कहा गया वह शत प्रतिशत तथ्यों पर आधारित था। उसमें भी शरद यादव और देवीलाल ने सुरेन्द्र जैन से रकम स्वीकारने की बात मानी थी। भारतीय टी.वी.पत्रकारिता के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। इतना ही नहीं जो दस्तावेज कालचक्र ने इस वीडियो में दिखाये थे उनकी वैद्यता को आजतक कोई चुनौती नहीं दे पाया। इतना ही नहीं उन्हीं दस्तावेजों के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय को हवाला काण्ड की जांच अपनी निगरानी में करवानी पड़ी। यह दूसरी बात है कि भ्रष्टाचार में लिप्त और राजनैतिक दबाव से जकड़ी सी.बी.आई. ने हवाला काण्ड की जांच नहीं की और राजनेताओं के छूटने के रास्ते खोल दिये। पर कालचक्र के निर्माताओं को इस पूरी प्रक्रिया में एक बार भी यह नहीं कहना पड़ा कि हमारे तथ्यों पर न जाय सन्दर्भों को देखें या हमने गलत दावा किया था हम आडवाणीजी से क्षमा मांगते हैं। कालचक्र में उठाये गये तथ्य आज भी सच्चाई की कसौटी पर खरे खड़े हैं। कालचक्र की उस रिपोर्ट के बाद दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्री व राज्यपालों को गद्दी छोड़नी पड़ी। फिर क्या वजह है कि तहलका की रिपोर्ट जारी होते ही तो मीडिया और विपक्ष में आसमान सिर पर उठा लिया जबकि कालचक्र की हवाला काण्ड वाली वीडियो कैसेट के जारी होते ही पूरे राजनैतिक हलके में सन्नाटा छा गया था। एक दिन भी संसद का बहिष्कार नहीं किया गया। एक दिन भी सांसदों ने खड़े होकर जांच की मांग में शोर नहीं मचाया। महीनों तक टी.वी. और अखबार के मीडिया के ज्यादातर लोग हवाला को लेकर गूंगे और बहरे हो गये, क्यों? क्या इसलिए कि हवाला काण्ड में देश के 115 बड़े राजनेताओं और अफसरों के नाम शामिल थे। जो हर प्रमुख राजनैतिक दल के सदस्य थे इसलिए शोर कौन मचाए? कौन किसके विरूद्ध जांच की मांग करें? कौन किसके विरूद्ध संसद का बहिष्कार करें? कौन किससे इस्तीफे मांगे? जब सभी उस घोटाले में शामिल हैं तो भलाई इसी में थी कि सब खामोश रहें। तहलका के टेप में जो आरोप लगे हैं वे सत्ताधारी दलों के लोगों को लेकर हैं। इसलिए विपक्ष इतना उत्तेजित है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स, चारा घोटाला और बैंक घोटाले जैसे काण्डों को लेकर भाजपाई, या समता पार्टी वाले उत्तेजित रहे हैं। आज अगर इंकाई बोफोर्स का बदला चुकाने के लिए तहलका के नाम पर देश की गलियों और गांवों में प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो इसमें गलत क्या है? जैसे को तैसा। जो कल तक भाजपा ने किया आज इंकाई करेंगे। पर इससे निकलना कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरेगी और न ही देश की जनता को राहत मिलेगी। दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोशियों को सजा मिलें। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों का इन्तजाम कर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस हवाला काण्ड में आज भी हजारों सबूत मौजूद हैं उसकी जांच की मांग के नाम पर आपका हलक क्यों सूख जाता है, आपको तहलका के शोर की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।

Friday, March 16, 2001

सांसद ध्यान दें जार्ज फर्नाडीज़ ने ऐसा क्यों किया ?


पिछले दिनों भारत और रूस के बीच हुए रक्षा समझौते को लेकर कुछ रक्षा विशेषज्ञों मे भारी नाराजगी है। इनका मानना है कि इस समझौते में जानबूझ कर एक भारी गलती की गई है। नई संधि के अनुसार अब भारत किसी खतरे या हमले की स्थिति में रूस की सलाह नहीं ले पायेगा। जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1971 में जो  भारत रूस मैत्री संधि की थी उसमें इसका पूरा ध्यान रखा था। तब उस संधि को चीन और अमेरिका ने भारत की आणविक ढाल माना था। इन विशेषज्ञों को लगता है कि शायद बाजपेयी सरकार की याददाश्त कमजोर है। तभी तो वह हिमालय के उत्तर में चीन से बने रक्षा दबाव या दियागो गार्शिया के कब्जे और उस पर आणविक आधार तैयार करने की अमरीकी  कार्रवाई को भूल गई। यह कार्रवाई अमरीका ने भारत-पाक युद्ध के दौरान की थी। चूंकि सोवियत यूनियन का विघटन हो चुका है और रूसी संघ में विशेष उत्साह नहीं है। इसीलिए जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के दौरान नई संधी की गई तो रूस  संधी की उस पुरानी शर्त को बनाए रखने के लिए बहुत उत्साही नहीं था। उधर अमरीका इस फिराक में था ही कि किसी तरह से भारत और रूस के बीच युद्ध के दौरान पारस्परिक सलाह लेने के इस प्रावधान को खत्म कराया जा सके। ऐसा रक्षा विशेषज्ञों का मानना है। इनका आरोप है कि अमरीका ने भारत के रक्षा मंत्रालय में खूब लाबिंग करवा कर नई संधी से उस महत्वपूर्ण प्रावधान को हटवा दिया। इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अमरीका ने पहले तो भारत को आणविक शक्ति बनने से रोका, फिर कारगिल युद्ध में भारत की आणविक क्षमता की कलई खुलवा दी। इस तरह भारत के आणविक कार्यक्रम को बन्द करके भारत को आणविक युग में रक्षाहीन कर दिया।दूसरी तरफ अमरीका ने पाकिस्तान को जो इसी तरह का रक्षा कवच दे रखा है उसे आजतक समाप्त नहीं किया। बल्कि अपने ही आणविक बमों का पाकिस्तान मे परीक्षण करवा कर पाकिस्तान को मिली हुई सुरक्षा की यह गारन्टी बरकरार रखी है। यदि भारत के सांसद इस गम्भीर मामले को समझे होते तो उन्होंने संसद में शोर जरूर मचाया होता। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस मामले में कुछ सवालों पर गौर करने की जरूरत है।

हम सबको यह बताया गया और प्रचारित भी किया गया कि हमने अपने सैकड़ों जवानों और अफसरों को कारगिल युद्ध में भले ही बलि कर दिया हो किन्तु हमारी विजय शानदार रही। अलबत्ता कारगिल युद्ध के बारे में के. सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट बहस के लिए संसद में प्रस्तुत किए जाने का इन्तजार कर रही है। जबकि इस गंभीर मुद्दे में सांसदों की शायद कोई रुचि नहीं हैं। हालांकि यह रिपोर्ट बहुत उच्च कोटि की नहीं है, फिर भी इसका सारांश पढ़ने से कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं। क्या इस समिति ने राॅ के प्रमुख श्री अरविन्द दवे को ठीक से तलब किया था। यह सर्वविदित है कि कारगिल के मामले में ख्ुाफिया ऐजेंसी राॅ अनजान थी और इस अचानक हमले से हड़बड़ा गयी थी। जबकि इस तरह की सम्भावना की उसे पूर्व जानकारी होनी चाहिए थी। बावजूद इस बड़ी विफलता के, क्या वजह है कि श्री दवे को बजाए अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के अरुणाचल प्रदेश का उप राज्यपाल बना दिया गया ?

जानकारों का यह भी कहना है कि जिस समय कारगिल युद्ध चरम पर था उस दौरान अमरीका की सरकारी रक्षा संस्था सेंटकाॅमके एक अधिकारी पाकिस्तान यात्रा पर आये थे। पर हमारी खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक न पड़ी। क्या हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों ने रक्षामंत्री श्री फर्नाडीज़ को यह बताया था या नहीं कि उक्त अमरीकी सैनिक अधिकारी को भेजने की मांग पाकिस्तान ने ही की थी। शायद श्री फर्नाडीज़ को पता हो कि पाकिस्तान ने सेंटकाॅमके साथ पारस्परिक रक्षा की संधि कर रखी है जिसके तहत पाकिस्तान की सुरक्षा को ज़रा सा भी खतरा होते ही यह ऐजेंसी दौड़कर उसकी मदद को आयेगी। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि कारगिल युद्ध के दौरान अमरीका से आए सैनिक अधिकारियों ने पाकिस्तान को यह समझाया कि चूंकि उसकी वायु सेना भारत के इलाके में बहुत प्रभावशाली नहीं हो पायेगी जिससे पाकिस्तान की थल सेना को भारत से जीतना मुश्किल होगा। इन अमरीकी अधिकारियों ने पाकिस्तान को सलाह दी कि किसी भी कीमत पर भारत को हवाई हमले करने से रोका जाए। यदि यह भी न हो सके तो कम से कम अमरीका इतना तो करे कि जब पाकिस्तान अचानक दिल्ली और मुम्बई पर परमाणु हथियारों से हमला कर चुके तब भारत को ऐसा जवाबी हमला करने से रोका जाए। हालांकि अमरीका के इन अधिकारियों को यह बताया गया था कि भारत के पास सुरक्षित तरीके से आणविक हथियारों को ले जाने और उनके प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। पर साथ ही यह भी आशंका व्यक्त की गई कि यदि भारत हवाई हमला करता है तो पाकिस्तान के भारी आबादी वाले इलाकों को ध्वस्त कर देगा। इसलिए कुछ ऐसी चाल चली जाए कि भारत की वायु सेना को नियंत्रण रेखा को पार न करने दिया जाए। भारत के रक्षा विशेषज्ञों को इस बात पर आश्चर्य है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कारगिल युद्ध में हमारी थल सेना को दुर्गम पहाडि़यों पर मरते खपते हुए आगे भेजा गया । जबकि परम्परा यह है कि पहले वायु सेना आगे के इलाके में जाकर बमबारी करके दुश्मन के ठिकाने को ध्वस्त करती है तब थल सेना आगे बढ़ती है। पर कारगिल में ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन हमारी थल सेना को भारी मात्रा में नौजवान अधिकारियों और जवानों को खोना पड़ा।

इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि कारगिल युद्ध के दौरान इस तरह एक तरफ बिठा कर रखी गई भारतीय वायु सेना इस व्यवस्था से प्रसन्न ही थी । सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट के अनुसार उसकी तैयारी कारगिल जैसे दुर्गम ऊंचे पहाड़ों वाले क्षेत्र में युद्ध करने की नहीं थी। इन विशेषज्ञों के अनुसार इस पूरे युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना ने औसत से भी बेहद कम संख्या में उड़ाने भरींए जोकि राष्ट्र के हित में नहीं था।

इन विशेषज्ञों का सवाल है कि क्या भारतीय वायु सेना और भारत सरकार को इस प्रकार नियंत्रण रेखा को पार न करने का श्रेय लेना चाहिए ? जबकि नियंत्रण रेखा भारत की सीमा के भीतर ही पड़ती है। यह रक्षा विशेषज्ञ सवाल पूछते हैं कि भारत की सीमाओं की रक्षा में इस तरह लापरवाही कर देने के लिए क्या रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडीज़ व संघ सरकार का मंत्रीमंडल संविधान का उल्लंघन करने के दोषी नहीं हैं ? अगर ऐसा नहीं है और यह निर्णय किन्हीं अन्य कारणों से लिया गया तो क्या रक्षामंत्री देश को यह बताऐंगे कि क्या वजह है कि सैकड़ों करोड़ रूपए खर्च करके जो उपग्रह भारत के भूखण्ड पर निगाह रखने के लिए तैनात किए गए हैं उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया ? भारतीय वायु सेना, ‘राॅसर्वे आॅफ इण्डियाके हवाई जहाज 1997-98 में क्या कर रहे थे जो उन्होंने सीमापार की हलचल को अनदेखा कर दिया ? कारगिल युद्ध में थल सेना के जवानों को मौत के मुंह में भेजने से पहले वायु सेना का प्रयोग  क्यों नहीं किया गया ? क्या रक्षामंत्री बताऐंगे कि दुनिया के किस युद्ध में ऐसी गलती की गई ? ऐसी दूसरी कौन सी आणविक शक्ति दुनिया में है जिसने अपने पड़ौसी से अघोषित युद्ध में अपने 500 से ज्यादा अफसरों और जवानों को शहीद कर दिया ? ऐसी कौन सी आणविक शक्ति वाला देश है जो सीमापार से होने वाले हमलों में अपने नागरिकों और सैनिकों की लगातार हत्या करवाता रहे और कड़े कदम न उठाए ? इन विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास प्रयोग में लाए जा सकने योग्य परमाणु हथियार नहीं हैं और इसीलिए भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान की धमकी और अमरीकी दबाव के आगे घुटने टेक दिए।

विडम्बना यह है कि इस युद्ध के बाद भी जो टास्कफोर्स बनी उसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं लिया गया। जबतक नौकरशाही और राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ऐसी गल्तियां करते रहेंगे तब तक हम अपनी गल्तियों से कोई सबक नहीं सीख पाऐंगे। इसलिए इन विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत को वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को लेकर ही टास्कफोर्स का गठन करना चाहिए। कम से कम यह लोग ऐसी परिस्थितियों में समुचित निर्णय लेने की स्थिति में तो होंगे।

चूंकि सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट फिलहाल ठन्डे बस्ते में पड़ी है और उस पर संसद के चालू सत्र में बहस होने की संभावना नहीं दिखाई दे रही इसलिए इन मुद्दों पर विपक्ष के सांसदों का ध्यान देना देश हित में रहेगा।

Friday, February 23, 2001

राहत की रकम पर ऐश


ये बड़े शर्म की बात है कि देश की मशहूर संस्थाएं और कुछ नामी अखबार प्राकृतिक आपदाओं के मारे लोगों की लाश पर तिजारत कर रहे हैं। 14 फरवरी के अखबारों में खबर छपी कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने लाटूर में आए भूकंप के बाद जो राहत कोश बनाया था उसमें पैसा आज तक पड़ा है। यह पैसा लाटूर के मुसीबतजदा लोगों तक नहीं पहुंचा। जबकि इस पैसे को शिक्षकों, छात्रों, कर्मचारियों व अभिभावकों से यह कह कर लिया गया था कि इसे लाटूर के लाचार लोगों तक भेजा जाएगा। दुख की बात तो यह है कि देश की एक मशहूर अंग्रेजी अखबार श्रृंखला ने भी लाटूर के भूकंप की राहत के नाम पर अपने पाठकों से 18 करोड़ रूपया जमा किया और उसे 7 वर्ष तक बैंक में जमा कर उस पर ब्याज खाया। इस ब्याज की रकम बाजार की दर से 25 करोड़ रूपया बैठती है। जब ब्याज की यह रकम कमा ली गई तब बडे बेमन से इस अखबार समूह ने 18 करोड़ रूपए को प्रधानमंत्री राहत कोश में जमा करवाया। इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जब लोग भूकंप के प्रकोप से तबाह हो चुके हों जब उनकी बदहाली के चित्र छापकर पाठकों के मन में करूणा पैदा की जाए और जब पाठक द्रवित होकर दान भेजें तो उस पर ब्याज कमाया जाए ? यह अत्यंत गंभीर मामला है। केवल घोटाला ही नहीं बल्कि संवेदनशून्यता और मानवीय बर्बरता का जीवंत उदाहरण है। कौन जाने कितने संगठन और कितनी कंपनियां इस धंधे में लगी हों ? कौन जाने कितने सफेदपोश लोग एैसे पाश्विक घोटालों के खलनायक हों ? कौन जाने उड़ीसा के चक्रवात के बाद भी ऐसा ही हुआ हो ? कौन जाने कारगिल के शहीदों के नाम पर जमा किए गए पैसे भी किसी ऐसे ही सफेदपोश  अपराधी की आमदनी का जरिया बने हों ? यह एक गहरी जांच का विषय है। यह कांड कई सवाल भी खड़े करता है।

गुजरात में जो विनाश हुआ उसकी भरपाई राहत की सामग्री कभी नहीं कर पाएगी। कितनी भी बड़ी राहत क्यों न हो वह अनाथ बच्चों को फिर से मां-बाप का प्यार भरा साया नहीं दे पाएगी। किसी नववधु के भूचाल में दब कर मर गए पति को कोई भी राहत सामग्री लौटा नहीं पाएगी। जिनके बुढ़ापे का सहारा उनका जवान बेटा इस हादसे का शिकार हो गया उनकी शेष जिंदगी आंसू बहाते ही बीतेगी। राहत इन जख्मों को भर नहीं पाएगी। राहत कच्छ के खंडहर हो चुके पुराने मकानों को फिर उन यादों के साथ लौटा नहीं पाएगी जो सदियों से इनके साथ जुड़ी थीं। फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि 26 जनवरी के भूकंप के बाद चारो तरफ से राहत की बरसात हो रही है। जिस दरियादिली से देश और विदेश के लोगों ने राहत भेजी उससे गुजरात के घायल मन को मरहम जरूर लगा है। यह वक्त सेवा में जुटने का है। पर भूचाल से हुए विनाश के बाद जैसे गुजरात में जिंदगी फिर लौटने लगी है वैसे ही आपदा के इस दौर में कुछ बुनियादी सवालों पर चिंतन करना निरर्थक न होगा। क्योंकि उससे भविष्य की ऐसी स्थिति में निपटने और निर्णय लेने की बेहतर समझ पैदा होगी।

जबसे देश में मीडिया का प्रसार तेजी से हुआ है तब से सूचनाएं आशातीत गति से एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचने लगी हैं। कारगिल का युद्ध हो या गुजरात का विनाश लोग हर क्षण किसी न किसी टीवी चैनल पर मौकाए-वारदात की जीती जागती तस्वीर देखते रहते हैं। टीवी के सक्रिय कैमरों के सामने अब असलियत छिपाना स्थानीय प्रशासन के लिए भी संभव नहीं होता। इसलिए हर आपदा या दुर्घटना से पूरे देश के दर्शकों का प्रशिक्षण होता है। वे ऐसी अप्रत्याशित स्थितियों से निपटने के लिए मानसिक रूप से तैयार होते जाते हैं। मसलन, गुजरात के भूकंप के बाद दिल्ली और मुंबई जैसे नगरों के लोग अब बहुमंजिली इमारतों की मजबूती को लेकर काफी चिंतित हैं और इस दिशा में सुधार के प्रयास कर रहे हैं। तो यह तो हुआ मीडिया के प्रसार का सकारात्मक पक्ष। पर इसका एक दूसरा पक्ष भी है, वह यह कि मीडिया पर हर घटना और दुर्घटना का इतना ज्यादा चित्रण, वर्णन, मूल्यांकन व विवरण दिया जाने लगा है कि लोग उब जाते हैं। इस प्रक्रिया का पहला अनुभव तब हुआ था जब 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्राी श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दूरदर्शन कई दिनों तक उनके शव और अंतिम क्रियाओं को विस्तार से दिखाता रहा था। कारिगल के दौरान भी ऐसा ही हुआ और अब गुजरात के भूकंप के बाद भी। लोगों में मीडिया की मार्फत उत्सुकता जगाना और उन्हें सूचना देना तो ठीक है पर उनकी भावनाओं को उभार कर उनकी जेब से पैसे निकलवाना और फिर उस पैसे को सही पात्रों तक न पहुंचाना धोखाधड़ी है, फर्रेब है, जघन्य अपराध है। चूंकि मीडिया का प्रसार तेजी से हो रहा है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया का इस तरह से दुरूपयोग भविष्य में बढ़ेगा नहीं। इससे पहले कि लोग इस कटु सत्य को जान कर हिल जाएं या उनकी संवेदनशीलता समाप्त हो जाए या वे विपदा की ऐसी स्थिति में भी मदद करने को आगे न बढ़े तो दोष किसका होगा  लोगों का या उन्हें मूर्ख बनाने वाली संस्थाओं का ? इसलिए जरूरी है कि इस नई उपजती परिस्थिति को इसके अंकुरण के समय ही नष्ट कर दिया जाए। इसके कई तरीके हो सकते हैं।

यह तय कर दिया जाए कि ऐसी असमान्य हालत में जो भी संस्थाएं धन संग्रह करेंगी वह सब प्रधानमंत्री राहत कोष के नाम पर ही लिया जाएगा और उसी खाते में जमा करा दिया जाएगा। यह भी किया जा सकता है कि धन संग्रह करने वालों पर कानूनी पाबंदी हो कि वे इस तरह से इकट्ठा किया गया धन तीस दिन से ज्यादा अपने खाते में नहीं रख पाएंगे। उन्हें हर तीस दिन बाद यह धन अपने खाते से प्रधानमंत्री राहत कोष या ऐसे ही दूसरे प्रतिष्ठित कोष में अनिवार्य रूप से जमा करवाना होगा। ऐसा न करने पर कड़े आर्थिक व आपराधिक दंड का प्रावधान भी बनाया जाए। इसके अलावा भी कई तरीके हो सकते हैं राहत के धन को संभाल कर रखने और बांटने के लिए।

जैसाकि हमने पिछले दिनों इसी स्तंभ में चर्चा की थी कि सरकार के बस का ही नहीं है राहत को ठीक से अंजाम देना। क्यों न राष्ट्रीय स्तर पर योग्य, अनुभवी और विशेषज्ञ लोगों का एक आपदा प्रबंधन बोर्ड बनाया जाए। इस तरह की व्यवस्था की जाए कि किसी भी आपदा की स्थिति में राहत लेने और उसे बांटने का काम यही बोर्ड करे। इसके कई लाभ होंगे। एक तो अनुभवी लोगों के नेतृत्व में राहत सामग्री को लेकर दुर्घटनाग्रस्त क्षेत्र में अफरा-तफरी नहीं फैलेगी। दूसरा हर आपदा के समय देशवासियों को और विदेशों में रहने वाले लोगों को यह पता होगा कि राहत कहां और किसे भेजी जानी है। अनेक किस्म की समस्याओं से घिरे प्रधानमंत्री कार्यालय के राजनैतिक माहौल से भिन्न यह आपदा प्रबंधन बोर्ड ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर राहत कार्यों को अंजाम देगा। चूंकि राहत कार्य का इस बोर्ड को लगातार अनुभव होगा इसलिए इसे पता होगा कि कहां, कितनी, कैसी राहत भेजी जानी है, न ज्यादा न कम। इससे आपातकालिक स्थितियां नियंत्रण में रह सकेंगी और राहत सामग्री की बर्बादी और लूट भी नहीं होगी। इतना ही नहीं एक आपदा के लिए इकट्ठा हुए राहत धन में से जो राशि बच जाएगी वह बोर्ड के अधीन सुरक्षित रहेगी और अगली आपदा के समय तेजी से उपलब्ध होगी।

ऐसा नहीं है कि राजनेता और अफसर यह सब जानते समझते नहीं हैं। पर सत्ता को अपने हाथों में रखकर उसमें से अपने फायदे ढूंढना इनके खून में इतना रच-बस गया है कि इन्हें स्वार्थ के आगे  जनहित सूझता ही नहीं। इसीलिए भारत संपन्नता के बावजूद विपन्नता का देश है। इसलिए यह उम्मीद करना कि हुक्मरानों की यह जमात ऐसे व्यवहारिक निर्णय लेगी ख्याली पुलाव पकाने से ज्यादा कुछ नहीं होगा। अगर ऐसा कोई बोर्ड बनाने का सरकार ने निर्णय लिया भी तो उसके सदस्य बनने के लिए एक से एक बढ़कर भ्रष्ट राजनेता और अफसर लाबिंग करेंगे, पैरवी करेंगे और अपने मकसद में कामयाब भी हो जाएंगे। देश में खेलों की दुर्दशा हो या सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की बद्दइंतजामी, उसकी जड़ में है यही  दूषित प्रवृत्ति। इससे पार पाए बिना जनता का भला नहीं हो सकता।

देश में सेवानिवृत्त लोगों की एक लंबी फौज खाली बैठी है। यह उनका फर्ज है कि वे हर स्तर पर संगठित होकर सरकार पर दबाव बनाएं ताकि सरकार अपने कामकाज के तरीके में बुनियादी बदलाव लाए। सत्ता में बैठने वाले राजनैतिक दलों के बदलने से समस्याओं के हल नहीं निकल रहे यह हमने पिछले दो दशकों में खूब देखा है। क्रांति की भारत में कोई संभावना नजर नहीं आती। ऐसे में समस्याओं का हल निकले तो कैसे निकले ? इसलिए जरूरी है कि जो लोग देश और जनता के हित में सोचते हैं वे ये मान कर चलें कि सत्ता में जो भी होगा ऐसा ही करेगा। अगर हमें उनसे कुछ अच्छा करवाना है तो उसके लिए हमें अपनी साझी ताकत लगा कर उन्हें मजबूर करना होगा। एक बार करने से काम नहीं चलेगा हर बार उसी तरह से दबाव बनाना होगा क्योंकि नकारात्मक शक्यिां आसानी से निर्मूल नहीं होतीं। रावण के सिर की तरह बार बार उभर कर आती हैं। राहत के धन को पचा जाने की यह दुष्प्रवृत्त् िभी आसानी से मरेगी नहीं। इसका जितना खुलासा होगा और जितनी ज्यादा इसकी सार्वजनिक चर्चा व भत्र्सना होगी उतना ही इस पर अंकुश लगेगा।

Friday, February 16, 2001

क्या थे सीबीआई निदेशक के चयन में खोट ?


सीबीआई के निदेशक आरके राघवन की नियुक्ति को कैटने निरस्त कर दिया। भारत सरकार इस निर्णय के विरूद्ध कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दर्ज करने जा रही है। जब तक न्यायालय का फैसला आएगा तक तब श्री राघवन अपना कार्यकाल पूरा कर चुके होंगे। इसलिए कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक श्री सी. दिनाकर की मेहनत का वांछित फल देश को नहीं मिलेगा। पर इस पूरे विवाद ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े कर दिए हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में हमने पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि सार्वजनिक महत्व के महत्वपूर्ण पदों पर लोगों को चुनने की मौजूदा प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। इसीलिए लोकतंत्र की महत्वपूर्ण संस्थाओं का तेजी से पतन होता जा रहा है। राजनैतिक प्राथमिकताओं के मद्देनजर जब नियुक्तियां की जाएंगी तो कम योग्यता वाले, चापलूस या भ्रष्ट लोग ही वरियता पाएंगे। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि ऐसे पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया चंद लोगों के हाथ में सीमित न रहे। चाहे वे लोग प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और केंद्रीय सतर्कता आयुक्तनुमा लोग ही क्यों न हों। मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्त ,भारत के महालेखाकार, भारत के महालेखा नियंत्रक, सेबी के निदेशक, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के जज कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पद हैं जिन पर बैठने वाले व्यक्ति से पूरी पारदर्शिता की अपेक्षा की जाती है। इसलिए ऐसे पदों के लिए चयन करने का वही तरीका सर्वश्रेष्ठ होगा जिसमें प्रस्तावित व्यक्ति के नाम व योग्यता का व्यापक प्रचार मीडिया पर किया जाना चाहिए। उसके व्यक्तित्व और आचरण को लेकर अगर किसी को भी कोई भी आपत्ति हो तो उसे यह छूट होनी चाहिए कि वह अपनी आपत्ति को चयनकर्ताओं तक दर्ज करा सके। चयनकर्ताओं का यह फर्ज होना चाहिए कि वे इन आपत्तियों की पूरी पड़ताल करवाए बिना उस व्यक्ति के नाम की संस्तुति न करें। कई लोकतांत्रिक देशों में यह प्रक्रिया पहले से ही चल रही है और सफल है। भारत में जब चालीस से ज्यादा टीवी चैनल चल रहे हैं। दर्जनों किस्म के समाचार आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं तो फिर इस व्यवस्था को बनाने में क्या दिक्कत हो सकती है ? जब देश के हर कोने में बैठे दर्शक किसी व्यक्ति का चेहरा टीवी पर देखकर और उसका बाॅयोडेटा जानकर यह उद्घोषणा सुनेंगे तो जाहिरन उनमें से कुछ तो ऐसे लोग होंगे ही जो उस व्यक्ति को अच्छी तरह जानते होंगे। उसकी अच्छाइयां और बुराइयां उन्हें पता होंगी। नतीजतन ऐसे लोग किसी गलत व्यक्ति के नाम प्रचारित होते ही उसका विरोध करेंगे। वे बता देंगे कि फलां व्यक्ति ने किस राज्य में जमीन घोटाले किए या अन्य बड़े कांड किए। तथ्यों पर आधारित ऐसे आरोपों की फिर उपेक्षा करना चयनकर्ताओं के लिए सरल न होगा। इसलिए विनीत नारायण व अन्य बनाम भारत सरकार व अन्यनामक मुकदमे के दौरान जब सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई के निदेशक के चयन की प्रक्रिया निर्धारित की जा रही थी तब भी इस मुकदमे का मुख्य याचिकाकर्ता होने के नाते मैंने सर्वोच्च अदालत को लिखकर विरोध किया था। मेरा तर्क था कि बड़े पदों पर बैठे लोगों की जांच के लिए जिम्मेदार व्यक्ति का चयन अगर उसी जमात के लोगों द्वारा होगा तो यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे लोग अपने लिए खतरे की घंटी बांध लें ? खैर सर्वोच्च न्यायालय ने 18 दिसंबंर 1997 को उक्त मुकदमे का फैसला सुना दिया, जिसे हवाला कांडका ऐतिहासिक फैसला कहा गया। पर इस तथाकथित ऐतिहासिक फैसले के आने के बाद ही इसकी धज्जियां उड़ा दी गई हैं। चाहे वह केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के कर्तव्यों या अधिकार का निर्धारण हो या सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति का।

इसीलिए जब जनवरी 1999 में श्री आरके राघवन की नियुक्ति सीबीआई के निदेशक के पद पर की गई तो मैंने इसका डट कर विरोध किया। यहां तक कि मैंने ही मार्च 1999 में सर्वोच्च न्यायालय में इस नियुक्ति के विरूद्ध एक जनहित याचिका भी दायर की थी। जिसे दुर्भाग्यवश सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। अलबत्ता इस याचिका में जिन मुद्दों को लेकर मैंने यह याचिका दायर की थी उन्हीं के आधार पर कैटकी बंग्लूर ईकाई ने पिछले हफ्ते सीबीआई के मौजूदा निदेशक श्री आरके राघवन की नियुक्ति को निरस्त किया है। कैटमें यह मुकदमा श्री दिनाकर ले गए थे। जब कैटने इतना बड़ा निर्णय दिया है तो जाहिर है कि कैटको इस नियुक्ति में खोट नजर आया। श्री राघवन की चयन प्रक्रिया में मुख्यतः तीन लोग शामिल थे। भारत सरकार के गृह सचिव, सचिव (कार्मिक) व इस समिति के अध्यक्ष केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल। इस लेख में आगे प्रस्तुत किए गए तथ्यों को जानने के बाद आप स्वयं ही समझ जाएंगे कि श्री राघवन की नियुक्ति में किस किस्म का पक्षपात और गैर-जिम्मेदाराना आचरण किया गया ?

सबसे पहली बात तो यह है कि श्री राघवन को आपराधिक जांच का अनुभव नग्णय था। भारतीय पुलिस सेवा के अपने कार्यकाल में ज्यादातर समय उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरोया खुफियागिरी में ही गुजारा। जबकि सीबीआई देश की सर्वोच्च आपराधिक जांच एजेंसी है जो न सिर्फ छोटे अपराधों की जांच करती है बल्कि बड़े-बड़े घोटालों और देशदा्रेह के कांडों की भी जांच करती है। इसलिए इसे विशेष रूप से प्रशिक्षित अधिकारियों की जरूरत होती है। श्री राघवन एक भले आदमी बेशक हों पर वे सीबीआई निदेशके के पद लिए उपयुक्त पात्र नहीं हैं। जैसा सबको मालूम है कि राजग की केंद्र में बनी वाजपेयी सरकार के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में एआईडीएमके की नेता सुश्री जयललिता भी थीं। जिनपर तमाम तरह के मुकदमें सीबीआई में लंबित थे। उनसे निपटने के लिए उन्हें सीबीआई के निदेशक के पद पर अपने प्रति वफादार अधिकारी की  जरूरत थी। चुकी श्री राघवन दक्षिण भारत के ही हैं और उन्होंने एक लंबा अरसा तमिलनाडु में ही बिताया है, जहां जाहिरन उनके राजनैतिक संपर्क काफी गहरे हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति के समय इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि उनकी नियुक्ति सुश्री जयललिता ने दबाव डाल कर करवाई है।

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस आदेश के तहत श्री राघवन को चुनने का नाटक किया गया उस आदेश को देने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री जेएस वर्मा ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने राजीव गांधी हत्या कांड की जांच के लिए बने वर्मा आयोग की अध्यक्षता की थी। इस आयोग की रिपोर्ट में न्यायमूर्ति वर्मा ने श्री आरके राघवन की कार्यक्षमता पर गंभीर आपत्ति जताते हुए उनके खिलाफ कई टिप्पणियां दर्ज की थीं। जिनसे श्री राघवन के अकुशल, लापरवाह व कर्तव्य के प्रति सजग न होने का प्रमाण मिलता है। वर्मा आयोग की इस रिपोर्ट के बाद भारत सरकार ने तमिलनाडु सरकार को यह सुझाव भेजा था कि वह श्री राघवन के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाही करे। पर तमिलनाडु की सरकार ने ऐसा नहीं किया बल्कि श्री राघवन का नाम राष्ट्रपति के पास इस सिफारिश के साथे भेज दिया कि उन्हें राष्ट्रपति द्वारा शौर्य पदक दिया जाए। गनीमत है कि भारत के राष्ट्रपति ने यह पदक देना स्वीकार नहीं किया। जिस व्यक्ति के खिलाफ भारत सरकार के पास सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ऐसी कठोर टिप्पणी रिकार्ड में थीं और जिसके खिलाफ खुद भारत सरकार ने अनुशासनात्मक कार्रवाही की सिफारिश की थीं उस व्यक्ति में अचानक ऐसी कौन सी योग्यता रातो-रात पैदा हो गई कि उसे इतने महत्वपूर्ण पद पर बिठा दिया गया?

ऐसा लगता है कि श्री राघवन के चयन में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी ने राष्ट्र के हित से ज्यादा तमिलनाडु के नेताओं के हित को तरजीह दी। क्योंकि उन्हें अपनी सरकार बचानी थी। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि तमिलनाडु की सरकार ने उनकी तमाम कमजोरियों के बावजूद श्री आरके राघवन का अनेक बार अंधा समर्थन किया। उन्हें पुलिस महानिदेशक बनाना हो या राजीव गांधी हत्या कांड में सजा देने से बचाना हर जगह यह स्पष्ट होता है कि श्री राघवन पर सुश्री जयललिता की कृपा हमेशा बनी रही। सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक के पद पर नियुक्ति के लिए जो मापदंड स्थापित किए थे उनमें योग्यता व वरियता दोनों को महत्व देना था। इस बात के अनेक प्रमाण है कि श्री राघवन कहीं अधिक काबिल और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की उपेक्षा करके श्री राघवन को यह महत्वपूर्ण पद सौंपा गया। शायद इसके पीछे मंशा राजनैतिक रूप से संवेदनशील कई मामलों को रफा-दफा करवाने की रही होगी। क्यांेकि श्री राघवन को यह पद बड़े ही महत्वपूर्ण दौर में दिया गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्टल ने इन सब तथ्यों को जानते हुए भी श्री राघवन की नियुक्ति की। दोनों ही तमिलनाडु राज्य से हैं। क्या यह भी इसकी वजह थीं ? यहां यह महत्वपूर्ण है कि 28 मार्च 1999 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक साक्षात्कार में श्री राघवन ने स्वयं स्वीकारा है कि सीबीआई के निदेशक के पद पर नियुक्ति के प्रस्तावित नामों की सूची में उनका नहीं था, पर उसे बाद में जोड़ा गया, क्यों ? कर्नाटक उच्च न्यायालय में जाने से पहले भारत सरकार को ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर देश को देने चाहिए। मेरी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने तब ध्यान भले ही न दिया हो पर कैटके निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि अपनी इस याचिका में मैंने गंभीर प्रश्न उठाए थे। जिनकी अगर उपेक्षा न की गई होती तो एक अयोग्य व्यक्ति तीन वर्ष तक सीबीआई का निदेशक न रह पाता। क्या श्री एन. विट्टल व भारत सरकार भविष्य के लिए जागने को तैयार है ?