Showing posts with label pollution. Show all posts
Showing posts with label pollution. Show all posts

Monday, December 3, 2018

प्रकृति से खिलवाड़ कब रूकेगा?


दिल्ली का दम घुट रहा है। दिल्ली के कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, अब हरियाणा से पराली जालाने का धुंआ भी उड़कर दिल्ली आ जाता है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट गई है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेप्सीसाइट, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना बहुत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़-पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।

पर्यावरण के विनाश से सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ रहा है। इससे पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछली सरकारों ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आते जा रहे हैं। सरकार द्वारा पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू गई है। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित है। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व है कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनायें। यह आसान काम नहीं है।

एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए सरकार की योजना विफल हो रही है। आज से सैंतीस बरस पहले सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा था। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। आज हालत यह है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनके कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। अब ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी है। पर अब तक इसमें राज्य सरकारें विफल रही हैं। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ है और उनमें जल संचय हुआ है। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।

देश की आर्थिक प्रगति के हम कितने ही दावे क्यों न करें, पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

Monday, November 7, 2016

जहरीली धुंध का चैंबर बन गया एनसीआर

राष्टीय राजधानी क्षेत्र में जहरीली धुंध ने होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। केंद्र और दिल्ली सरकार किम कर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। सत्रह साल पहले ऐसी ही हालत दिखी थी।  तब  क्या सोचा गया था? और अब क्या सोचा जाना है? इसकी जरूरत आन पड़ी है।

पर्यावरण विशेषज्ञ और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर पिछले 48 घंटों से सिर खपा रहे हैं। उन्होंने अब तक के अपने सोचविचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन जब सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश हो रही है।

दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम दो तीन साल से सुनते आ रहे थे। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि पूरा का पूरा यह कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा चारा क्या बचता होगा। इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है? इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।

सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में अचानक 17 साल का रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दसियों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।

इस आपात बैठक के सोच विचार का बड़ा रोचक नतीजा निकला है। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि पांच दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर आड ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी लेकिन हाल का अनुभव है कि यह कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के ससोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकताा था लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।

बहरहाल व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और जहरीलरी धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठाया जा रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी। और आगे भी करती रहेंगी।

वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब खामियां जानने से बचेंगे तो समाधान ढूंढेंगे कैसे?

Monday, December 7, 2015

भयावह होता जल संकट

चेन्नई अतिवृष्टि से जूझ रहा है और हरियाणा के एक बड़े क्षेत्र में भूजल स्तर दो हजार फीट से भी नीचे चला गया है। भारत का अन्नदाता कहे जाने वाला पंजाब भी जल संकट से अछूता नहीं रहा। यहां भी भूजल स्तर 6-700 फीट नीचे जा चुका है। यह तो हम जानते ही है कि देश में 80 फीसदी बीमारियां पेयजल के प्रदूषित होने के कारण हो रही हैं। फिर भी हमारे नीति निर्धारकों को अक्ल नहीं आ रही।
 
अरबों-खरबों रूपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। उसके बावजूद हालत ये है कि भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है।
 
दरअसल, ये सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीकि अपनाने के कारण हुआ है। वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे। हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है। जिसमें वर्षा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानि 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए कि आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है। जिसके अनेकों नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है। इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है। लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बनकर खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ इस बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेजी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था। आज सैकड़ों-हजारों फीट नीचे पानी चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रूपए का बिकेगा। क्योंकि रोका न गया, तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेजी से गिरता चला जाएगा।
 
आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि केंद्रीयकृत टंकियों से पाइपों के जरिये भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है। पर यह दावा अपने आपमें जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जबकि वर्षा का जल जब कुंडों, कुंओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो वह सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। साथ ही इन सबके भर जाने से भूजल स्तर ऊंचा बना रहता था। जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्चकोटि के पैदा होते थे। पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पाश्विक दोहन ने यह सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दी। पोखर और कुंड सूख गए, क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए है। वृक्ष काट दिए गए। जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक व रासायनिक कचरा व सीवर लाइन का गंदा पानी बिना रोकटोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है। जिससे ये नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जलसंकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा जल से भरा है। पर इसका 97.3 फीसदी जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसदी है। जिसमें से केवल 22.5 फीसदी जमीन पर है, शेष धु्रवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसदी खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानि दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसदी मीठे जल का भी केवल एक फीसदी हमारे लिए उपलब्ध है और उसका भी संचय और प्रबंधन अक्ल से न करके हम उसका भारी दोहन, दुरूपयोग कर रहे हैं और उसे प्रदूषित कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास माॅडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
 
जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देखकर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी के संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।

Monday, September 1, 2014

कुण्ड ही हैं सूखे से राहत का कारगर तरीका

 
इस साल भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखे की मार पड़ रही है। किसान हाहाकार कर रहे हैं। मीडिया अपना काम ही समस्या को बताना ही समझता है, लिहाजा सूखे की तीव्रता को बताने का काम वह गंभीरता से  करता रहता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि इसके समाधान या इस सूखे की मार से बचाव के उपायों पर उतनी गंभीरता से कुछ भी होता नहीं दिखता। सरकारें और सरकारी एजेंसियां ऐसे मौकों पर समस्या की गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंकने के अलावा कुछ खास करती नहीं दिखती। कुछ करती दिखती हैं, तो बस इतना कि पीड़ित इलाकों को सूखाग्रस्त घोषित करती हैं और सांकेतिक मुआवजे का मरहम लगाकर अपने फर्ज की इतिश्री समझती हैं।
 
सूखे या बाढ़ की समस्या का एक बड़ा ही शातिराना पहलू यह है कि इस समस्या के कारणों को आसमानी  या सुल्तानी मार बताकर बड़ी चतुराई से आसमानी साबित कर दिया जाता है। लेकिन क्या सूखे को महज प्राकृतिक विपदा कहकर यूं ही छोड़ सकते हैं ? 2 दिन पहले ब्रज क्षेत्र में चैरासी कोसीय परिक्रमा मार्ग पर इनोवेटिव इंडियन फाउण्डेशन की टीम कुछ गांवों में कुण्डों और जलाशयों का जायजा ले रही थी। संस्था के निदेशक संकर्षण कुण्ड पर पुनर्रोद्धार कार्य का जायजा लेने भी रूके थे। वहां जमा पास के आन्यौर गांव वालों ने उन्हें परिक्रमा मार्ग से 2 किलोमीटर भीतर ले जाकर अपने खेतों की हालत दिखाई। आईआईएफ के विशेषज्ञों को देखकर बड़ी हैरानी हुई कि सरकार की भरी-पूरी प्रणालियों की मौजूदगी के बावजूद बिना पानी के उनकी धान की फसलें तबाह हो चुकी थीं।
 
इसी दौरान इन विशेषज्ञों ने महाजलप्रबंधन और ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की लीलास्थलियों को संवारने में जुटी संस्था द ब्रज फाउण्डेशन के परियोजना निदेशक से भी बात की। उनसे ब्रज क्षेत्र के इन कुण्डों के उपयोगिता की भी चर्चा की। एक खास बात यह है कि आसमानी आफत से निपटने के लिए प्राचीनकाल से ही कुण्ड, तालाब और जलाशय बनते आए हैं। लेकिन आज शहरीकरण और भवन निर्माण की अपनी रोज बढ़ती जरूरतों के कारण नए कुण्ड और तालाब बनाना तो दूर पुरानी धरोहरों को भी हम बेदर्दी से मिटाने में लगे हैं। ऐसे कुण्ड और तालाब मैट्रोलॉजिकल ड्राउट यानी मौसमी सूखे के दौरान राहत देने के काम आते थे। अगर आधुनिक जलविज्ञान से किए गए उपाय यानी सिंचाई के प्रबंध को देखें, तो उसकी सीमाओं के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या यानी हाइड्रोलिक ड्राउट के दौरान भी कुण्डों में जल होने से एग्रीकल्चरल ड्राउट के अंदेशे कम हो जाते हैं। अगर इस बात को सरलता से कहें, तो कुछ इस तरह से कहा जाएगा कि अगर पानी न बरसे और हमारी जलप्रबंध प्रणाली में जमा पानी भी न बचे, तो ये कुण्ड और तालाब खेतों में न्यूनतम पानी या नमी बनाए रखकर प्राणदायक की भूमिका निभाते थे।
 
फिलहाल निर्माणाधीन संकर्षण कुण्ड अगर अपनी मूल स्थिति में आता है, तो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में बसे गांव आन्यौर के खेतों में भूमिगत जलस्तर आश्चर्यजनक रूप से खुद-ब-खुद उपर आ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि पूरे उ0प्र0 के 9 लाख से ज्यादा तालाबों, पोखरों और कुण्डों का हिसाब लगाएं, तो इनकी क्षमता 10 हजार करोड़ रूपये की लागत वाले किसी भी बड़े से बड़े बांध की क्षमता से कम नहीं होगी। एक मोटा अनुमान है कि इन कुण्डों और तालाबों के जीर्णोद्धार, पुनरोद्धार या पुर्ननिर्माण पर आधी से कम रकम खर्च करके वहां गिरा पानी वहीं जमा किया जा सकता है। बाढ़ की विभीषिका कम की जा सकती है और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि आसमानी हो या सुल्तानी हो, सूखे जैसे समस्या से निपटने का एक स्वचालित प्रबंध बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
 
लगे हाथ यह कह लेना भी जरूरी लगता है कि सूखे की समस्या भले ही कालजयी साबित हो रही हो, लेकिन आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का काम उसके समाधान के लिए उपाय ढूढ़ना है। जब हमारे पास पारंपरिक ज्ञान उपलब्ध हो, ऐतिहासिक निर्माण कार्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हों, और चिंतनशील विशेषज्ञ हों, तो सूखे जैसी आसमानी आफत से बचाव के उपाय हम क्यों नहीं कर सकते ? इसके लिए प्रबल राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। 
 

Monday, July 8, 2013

उत्तराखंड का सबक: मीडिया अपना रवैया बदले

उत्तराखंड की तबाही और मानवीय त्रासदी पर देश के मीडिया ने बहुत शानदार रिर्पोटिंग की है। दुर्गम स्थितिओं में जाकर पड़ताल करना और दिल दहलाने वाली रिर्पोट निकालकर लाना कोई आसान काम नहीं था। जिसे टीवी और प्रिंट मीडिया के युवा कैमरामैनों व संवादाताओं ने पूरी निष्ठा से किया। जैसा कि ऐसी हर दुर्घटना के बाद होता है, अब उत्तराखंड से ध्यान धीरे-धीरे हटकर दूसरे मुद्दों पर जाने लगा है। जो एक स्वभाविक प्रक्रिया है। पर यहीं जरा ठहरकर सोचने की जरुरत है। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर टीवी मीडिया में, ऐसा कवरेज हो रहा है जिससे सनसनी तो फैलती है, उत्तेजना भी बढ़ती है, पर दर्शक कुछ सोचने को मजबूर नहीं होता। बहुत कम चैनल हैं जो मुद्दों की गहराई तक जाकर सोचने पर मजबूर करते हैं। इस मामले में आदर्श टीवी पत्रकारिता के मानदंडों पर बीबीसी जैसा चैनल काफी हद तक खरा उतरता है। जिन विषयों को वह उठाता है, जिस गहराई से उसके संवाददाता दुनिया के कोने-कोने में जाकर गहरी पड़ताल करते हैं, जिस संयत भाषा और भंगिमा का वे प्रयोग करते हैं, उसे देखकर हर दर्शक सोचने पर मजबूर होता है।
 
जबकि हमारे यहां अनेक संवाददाता और एंकरपर्सन खबरों पर ऐसे उछलते हैं मानो समुद्र में से पहली बार मोती निकाल कर लाये हैं। इस हड़बड़ी में रहते हैं कि कहीं दूसरा यश न ले ले। फिर भी वही सूचना और वाक्य कई-कई बार दोहराते हैं। इस हद तक कि बोरियत होने लगे। अनेक समाचार चैनल तो ऐसे हैं जिनकी खबरें सुनकर लगता हैं कि धरती फटने वाली हैं और दुनियां उसमें समाने वाली है। जबकि खबर ऐसी होती है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। इस देश में खबरों का टोटा नहीं है। पहले कहा जाता था कि अगर कहीं खबरें न मिले तो बिहार चले जाओ, खबरें ही खबरें मिलेंगी। अब तो पूरे देश की यह हालत है। हर जगह खबरों का अम्बार लगा है। उन्हें पकड़ने वाली निगाहें चाहिए।
 
हत्या, बलात्कार, चोरी और फसाद की खबरें तो थोक में मिलती भी हैं और छपती भी हैं। पर विकास के नाम पर देश में चल रहे विनाश के तांडव पर बहुत खबरें देखने को नहीं मिलती। फ्लाईओवर टूटकर गिर गया, तब तो हर चैनल कवरेज को भागेगा ही, पर कितने चैनल और अखबार हैं जो देश में बन रहे फ्लाईओवरों के निर्माण में बरती जा रही कोताही और बेईमानी को समय रहते उजागर करते हैं ? ऐसी कितनी खबरें टीवी चैनलों पर या अखबारों में आती हैं जिन्हें देख या पढ़कर ऐसे निर्माण अधर में रोक देना सरकार की मजबूरी बन जाये। सांप निकलने के बाद लकीर पर लठ्ठ बजाने से क्या लाभ ?
 
आज देश में विकास की जितनी योजनाएं सरकारी अफसर बनवाते हैं, उनमें से ज्यादातर गैर जरूरी, फिजूल खर्चे वाली, जनविरोधी और पर्यावरण के विपरीत होती है। जिससे देश के हर हिस्से में रात- दिन उत्तराखंड जैसा विनाशोन्मुख ‘विकास‘ हो रहा है। इन योजनाओं को बनाने वालों का एक ही मकसद होता है, कमीशनखोरी और घूसखोरी। इसलिए ऐसे कन्सलटेन्ट रखे जाते है जो अपनी प्रस्तावित फीस का 80 फीसदी तक काम देने वाले अफसर या नेता को घूस में दे देते हैं। बचे बीस फीसदी में वे अपने खर्चे निकालकर मुनाफा कमाते हैं, इसलिए काम देने वाले कि मर्जी से उटपटांग योजनाएं बनाकर दे देते हैं। इस तरह देश की गरीब जनता का अरबों-खरबों रुपया निरर्थक योजनाओं पर बर्बाद कर दिया जाता है। जिसका कोई लाभ जनता को नहीं मिलता। हां नेता, अफसर और ठेकेदारों के महल जरूर खड़े हो जाते हैं। देश में दर्जनों समाचार चैनल और सैकड़ों अखबार हैं। उनकी युवा टीमों को सतर्क रहकर ऐसी परियोजनाओं की असलियत समय रहते उजागर करनी चाहिए। पर यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि ऐसे मुद्दें आज के युवा संवाददाताओं को ग्लैमरस नहीं लगते। वे चटपटी, सनसनीखेज खबरों और विवादास्पद बयानों पर आधारित खबरें ही करना चाहते हैं। कहते है इससे उनकी टीआरपी बढ़ती है। उन्हें लगता है कि जनता विकास और पर्यावरण के विषयों में रुचि नहीं लेगी।
 
जबकि हकीकत कुछ और है। अगर उत्तराखंड की वर्तमान त्रासदी पर पूरा देश सांस थामें पन्द्रह दिन तक टीवी के परदे के आगे बैठा रहता है, तो जरा सोचिए कि ऐसी त्रासदियों की याद दिलाकर देश की जनता और हुक्मरानों को उनकी विनाशकारी नीतियों और परियोजनाओं के विपरीत चेतावनी क्यों नहीं दी जा सकती ? जनता का ध्यान उनसे होने वाले नुकसान की तरफ क्यों नही आकृष्ट किया जा सकता ? जब जनता को ऐसी खबरें देखने को  मिलेंगी तो उसके मन में आक्रोश भी पैदा होगा और सही समाधान ढूंढने की ललक भी पैदा होगी। आज हम टीवी बहसों में या अखबार की खबरों में भ्रष्टाचार के आरोप-प्रत्यारोपों वाली बहसें तो खूब दिखाते हैं पर किसी परियोजना के नफे -नुकसान को उजागर करने वाले विषय छूते तक नहीं। पौराणिक कहावत है- कुछ लोग दूसरों की गलती देखकर सीख लेते हैं। कुछ लोग गलती करके सीखते हैं और कुछ गलती करके भी नहीं सीखते। मीडिया को हर क्षण ऐसा काम करना चाहिए कि लोग त्रासदियों के दौर में ही संवेदनशील न बनें बल्कि हर क्षण अपने परिवेश और पर्यावरण के विरुद्ध होने वाले किसी भी काम को, किसी भी हालत में होने न दें। तभी मीडिया लोकतंत्र का चैथा खम्बा कहलाने का हकदार बनेगा और तभी उत्तराखंड जैसी त्रासदियों को समय रहते टाला जा सकेगा। 

Monday, July 1, 2013

प्राकृतिक आपदा के बहाने क्या-क्या ?

उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका की खबरें आना जारी हैं। इस आपदा की तीव्रता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2 हफ्ते बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि विभीषिका में कितनी जानें गयी। लेकिन हद की बात यह है कि उत्तराखंड की इस आपदा को लेकर कुछ लोग राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
 
राजनीति के अलावा मीडिया का रुख और रवैया दूसरा पहलू है। तबाही के तीन दिन बाद से यानि 10 दिन से मीडिया भी उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की करुण व्यथा के चित्र दिखा रहा है। इन वीभत्स और भयानक दृश्यों के जरिये कुल मिलाकर एक ही बात बतायी जाती है कि इस आपदा की विभीषिका के असर को कम करने में प्रशासन नाकाम रहा। शुरु में जिला स्तर के प्रशासन की लाचारी की बातें उठीं और बाद में प्रदेश स्तर पर शासन और प्रशासन की बेबसी की बातें होने लगीं। आज यानि 2 हफ्ते बाद भी उत्तराखंड में राजनीतिक विपक्ष और मीडिया सरकार को कटघरे में खडा कर रहा है। वैसे इस आपदा के विश्वसनीय आंकडे अभी तक किसी के पास नहीं है। सरकारी स्तर पर यानि दस्तावेजों की जानकारी के मुताबिक अब तक 1 हजार लोगों के मारे जाने का अनुमान है। उधर विपक्ष और मीडिया इससे 10 गुना ज्यादा लोगों की मौत का अंदाजा बता रहा है। इसके साथ ही 3 से 7 हजार लोगो की लापता होने की भी जानकारियां दी जा रहीं हैं। इस आपदा को लेकर टीवी चैनलों और अखबारों में खूब बहस और नोंक-झोंक हो रहीं हैं। क्या हमें इन बहसों के मकसद पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए ? इस आपदा के बारे में सोचें तो तीन बातें सामने आतीं हैं। पहली ये कि हम इस प्रकृतिक आपदा से कुछ सबक ले सकें और भविष्य में आपदा से बचने के लिए कोई विश्वसनीय व्यवस्था कर सकें। यानि ऐसा कुछ कर पायें जो आपदा प्रबंधन व्यवस्था को सुनिश्चित कर सके। दूसरी बात यह है कि प्रशासन को कटघरे में लाकर उसे जबाबदेह बनाने का इंतजाम कर सकें। और तीसरी बात यह है कि शासन को घेरकर जनता को यह बताने की कोशिश करें कि आपदा के बाद की स्थिति से निपटने में आपकी सरकार नाकाम रही। लेकिन यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या विगत में ऐसी आपदाओं से हमने कोई सबक नहीं लिया था? इस बारे में कहा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन को लेकर पिछले 2 सालों से जिला स्तर तो क्या बल्कि तहसील स्तर पर भी जोर-शोर से कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। लेकिन ये कोशिशें जागरूकता अभियान चलाने के आगे जाती नहीं दिखीं। अब सवाल यह है कि क्या देश के 600 जिलों के लिए हम 2 लाख करोड़ रुपये का अलग से इंतजाम करने की स्थिति में हैं ? उत्तराखंड की इस विभीषिका का पूर्वानुमान करते हुए क्या कोई आपदा प्रबंधन व्यवस्था बनाने में हम आर्थिक रुप से समर्थ हैं ? सवाल यहीं नहीं खत्म होते क्योंकि ऐसी प्राकृतिक आपदा के खतरे के दायरे में उत्तराखंड के अलावा 100 से ज्यादा इलाके आते हैं।
 
जलवायु विशेषज्ञांे को पता होता है कि विलक्षण जलवायु विविधता वाले भारत वर्ष में कैसी संभावनाएं और अंदेशे हैं। उन्हें यह भी पता होता है कि जलवायु संबधी अध्ययनों मे 75 साल के आंकडों के आधार पर ही हमें अपना नियोजन करना चाहिए। लेकिन देश भर में यह स्थिति है कि 25 साल के आंकडों के आधार पर ही नियोजन होने लगा है। बाढ़, सूखा, भूकम्प के लिहाज से अंदेशों वाले इलाकों में नदियों के किनारे की जमीन पर निर्माण हो रहे हैं। तालाबों को पाटकर वहां बस्तियां बसायी जा रही हैं। यानि बारिश के पानी को वहीं रोककर रखने की पारम्परिक व्यवस्था भी टूट रही है। अगर इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता तो हमें ऐसी विपत्तियों से कौन बचा सकता है।
 
जब हम प्रकृति के स्वभाव को बदलने का कोई उपाय कर ही नहीं सकते तो हमारे पास एक ही उपाय बचता है कि हम अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का प्रबंध और नियोजन प्रकृति की इच्छा के अनुरुप करना सीखें। हमें फौरन 75 या 100 साल के पिछले आंकडों के हिसाब से नियोजन करना होगा। नदियों के किनारे बनाए गये निर्माणों और वहां बसायी गयी बस्तियों पर फौरन गौर करना होगा। उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा से हमें यह साफ संदेश मिल रहा है, कि हम अपनी छोटी-बडी नदियों के पाटों का पुनःनिर्धारण कर लें। देश में उत्तराखंड की इस आपदा से हमें यह सबक भी मिल रहा है कि वर्षा के जल का स्थानीय तौर पर ही प्रबंधन करना बुद्धिमत्तापूर्ण है। इसके लिए यह सुझाव भी दिया जा सकता है, कि देश में पारम्परिक तौर पर मौजूद 10-12 लाख तालाबों की जलधारण क्षमता की बहाली करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। लगे हाथ यह भी याद दिलाया जा सकता है, कि टिहरी बाध की जलधारण क्षमता के कारण ही उत्तराखंड की विभीषिका के और ज्यादा भयानक हो जाने की स्थिति से हम बच गये हैं। इन सब बातों के मद्देनजर हमें अपनी नीतिओं और नियोजन के तरीके पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।