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Monday, November 28, 2016

नोटबंदी का आगा पीछा सोचकर रखने की जरूरत



नोटबंदी से पूरे देश में मची अफरातफरी की बात बार-बार दोहराने की जरूरत अब नहीं है। यह बात भी उजागर हो चुकी है कि कालेधन, आतंकवाद और भ्रष्टाचार का खात्मा करने का उद्देश्य लेकर जो नोटबंदी की गई है उसका क्या असर हो रहा है, यह काम अभी प्रक्रिया में है सो अभी कोई अच्छा या बुरा असर कहना मुश्किल है। इसे काफी देर तक देखते रहना पड़ेगा। तब इसका पता चार-छह महीने बाद ही चल पाएगा। हां, नोटबंदी की इस कार्रवाई का आगा पीछा जरूर सोचा जा सकता है। खासतौर पर यह बात कि पहले हमने क्या देखा है, क्या किया है और उसका क्या असर हुआ?
 
जिन उद्देश्यों को लेकर यह काम किया जा रहा है, उनमें कालेधन को उजागर करके अर्थव्यवस्था में शामिल किया जाना तो बहुत ही जटिल विषय है। इसके खात्मे के लिए कोई कार्रवाई तो क्या, किसी निरापद और निर्विवाद योजना को दुनिया में अभी तक कोई नहीं सोच पाया। सब कुछ भूल सुधार पद्धति से ही होता आया है और यह वैश्विक समस्या आज भी बनी हुई है। नोटबंदी का जो साहसी तीर मोदी जी ने चलाया है अगर वह थोड़ा बहुत भी निशाने पर लग गया तो उसका अनुभव अर्थशास्त्र में नया शोध होगा।

अब रही आतंकवाद और भ्रष्टाचार की बात, तो आतंकवाद पर चोट करने के लिए 23 साल पहले हवाला कारोबार के खिलाफ मैंने जो मुहिम छेड़ी थी उसके अनुभव देश के पास हैं। हवाला की मुहिम से देश दुनिया मे उठे तूफान के बावजूद देश की कोई भी सरकार आज तक हवाला के खिलाफ कोई व्यवस्था नहीं बना सकी। यह तथ्य ये निष्कर्ष निकालने के लिए काफी है कि नीयत का होना, नीति का बनाना और नीति का कार्यान्वयन होना, तीनों ही एक साथ चाहिए। नोटबंदी की मौजूदा कार्रवाई का क्रियान्वयन भी हमें यह अनुभव दे रहा है कि नीयत और नीति जरूरी तो होते हैं लेकिन काफी नहीं होते। क्रियान्वयन का भी तरीका माकूल होना चाहिए। तभी बात बन पाएगी।

अब बचती है भ्रष्टाचार की बात। यह भी जटिल विषय है। भ्रष्टाचार खासतौर पर अपनी-अपनी सत्ताओं का दुरूपयोग करके घूस खाना, टैक्स चोरी के लिए झूठे खाते बनाना, अपने मुनाफे के लिए मजदूर यानी श्रम का शोषण करना जैसे कई रूप हैं जिन्हें हम भ्रष्टाचार के ही रूप मान चुके हैं। इसके खात्मे के लिए हम तरह तरह की राजनीतिक प्रणालियां और राजनेता आजमा चुके हैं। लेकिन आज तक यह समझ में नहीं आया कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए कारगर तरीका है कौन सा? पांच साल पहले की ही बात है कि देश में कानूनी उपाय से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए तूफान मचा दिया गया था। कहां तो वह तूफान गया और कहां गए वे 125 करोड़ लोग जो भ्रष्टाचार के लिए उठ बैठे बताए जा रहे ? नोटबंदी के इस गर्म महौल में हमें वे पुराने अनुभव भी क्या याद नहीं करने चाहिए? यह बात किसी निराशा के कारण नहीं बल्कि पुरानी बातों से सीख लेकर आगे बढ़ने के इरादे से कही जा रही है। चाहे इसे आज मान लें और चाहे आठ साल बाद मानें, लेकिन इसे देखना तो पड़ेगा ही।

अब एक बात और है, नोटबंदी को अपनी अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखने की। एक शिक्षित अर्थशास्त्री होने के नाते मेरी इच्छा है कि भारतीय समाज की एक सुंदर प्रवृत्ति का जिक्र कर दूं। वह ये कि भारतीय समाज की सबसे मजबूत इकाई भारतीय परिवार में महिला आज भी खर्च और आमदनी का हिसाब रखने में सबसे बड़ी भूमिका निभाती है। परिवार के अर्थशास्त्र में सरप्लस या बचत पर नजर रखने वाली वह एक अकेली ताकत है। परिवार की आमदनी में से कुछ छुपा के या दबा के वह जो बूंद-बूंद धन या सोना जमा करती है, उस पर उसे बड़ी आफत आ गई जान पड़ रही है। यह धन ठोस धन है। भावना के लिहाज से इस धन की पवित्रता पर चोट होने लगे तो यह सिर्फ भावनात्मक मुददा ही नहीं समझा जाना चाहिए। क्योंकि आड़े वक्त में यह धन ही अर्थव्यवस्था को सांस लेने लायक बनाय रखता  है। इसीलिए जब-जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं ने गोता खाया तो भारत डूबने से बच गया। आज हमारी सरकार को रोज-रोज नए-नए उपायों का एलान करना पड़ रहा है तो क्या भारतीय गृहस्वामिनी के इस धन के बारे में कोई उपाय नहीं सोचना चाहिए?

गौरतलब है कि यह वैश्विक मंदी का दौर है। आठ साल पहले की भयावह वैश्विक मंदी में उस समय के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने देशवासियों से किफायत की बात कह दी थी। जबकि मंदी से निपटने के लिए सरकारों को खर्च बढ़ाने पर जोर देना होता है। उस मंदी को हम सिर्फ झेल ही नहीं ले गए थे बल्कि हमने पूरी दुनिया में अपना झंडा उंचा कर दिया था। वह चमत्कार कैसे हुआ? इसे आज तक विस्तार से समझा नहीं गया। लेकिन आठ साल बाद पूरी दुनिया में एक बार फिर से मंडराई मंदी में उस चमत्कार को समझने की जरूरत पड़ने वाली है। 

जागरूकता की बात करने वाले अर्थशास्त्र के विद्वानों को खासतौर पर यह बताने और समझाने की जरूरत है कि देश का सारा धन बाजार में ला देने से आर्थिक विकास का पहिया थोड़ी देर के लिए तेजी से तो घूम सकता है लेकिन आड़े वक्त को लेकर निश्चितता नहीं पाई जा सकती। हां अगर देश की अर्थव्यवस्था किसी भारी संकट में फंस चुकी हो और उसके बारे में हमें बताया न जा रहा हो तो बात और है। कुल मिला कर मोदी जी के इस साहसी कदम के निष्पक्ष मुल्यांकन की जरूरत है।

Monday, November 14, 2016

क्या बैंकों में जमा धन सुरक्षित है ?

 500 व 1000 के नोट निरस्त करके प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कई मोर्चो पर विजय हसिल की है। जिसकी चर्चा टीवी चैनलों और अखबारों में खूब हो रही है। नकली मुद्रा, तस्करी, आतंकवाद और कालेधन पर प्रहार करके मोदी जी ने बडे़ साहस का परिचय दिया है। अब आम लोगों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे अपनी सारी आमदनी बैकों में जमा करें। पर इसमें एक खतरा है। फिलहाल इस बात को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें कि देश जे 20-30 औद्योगिक घराने बैकों से लगभग 1.14 लाख करोड़ रूपये कर्ज लिये बैठे हैं, जिसे लौटाने का नाम नहीं लेते। विजय माल्या जैसे कुछ तो आम जनता की मेहनत की कमाई हड़पकर देश छोड़कर ही भाग गये। जबकि छोटा किसान थोड़ा सा भी कर्जा न दे पाने पर आत्महत्या कर लेता है। तो प्रश्न उठता है कि क्या बैंकों में जमा करने से हमारा धन सुरक्षित है?

आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ ने गहन शोध के बाद एक सरल हिंदी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘बैंकों का मायाजाल’। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को एक हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगाकर गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना/चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

 यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जाॅन. एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति, ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

 जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।

Monday, August 29, 2016

गौरक्षक आहत क्यों ?


जिस तरह मीडिया ने गौरक्षकों के खिलाफ शोर मचाया था, उसे यह साफ हो गया था कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी भारत में गौमाता की रक्षा नहीं होने देगी। इस लॉबी ने प्रधानमंत्री को इस तरह घेर लिया कि उन्हें मजबूरन गौरक्षकों को चेतावनी देनी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं कि गौरक्षा के नाम पर जातीय संघर्ष या खून-खराबे को होने दिया जाए। जिन लोगों ने इस तरह की हिंसा इस देश में कहीं भी की, उन्होंने उत्साह के अतिरेक में गौवंश को हानि पहुंचाई।

दरअसल गौरक्षा का मुद्दा बिल्कुल धार्मिक नहीं है। यह तो शुद्धतम रूप में लोगों की कृषि, अर्थव्यवस्था और उनके स्वास्थ्य से जुड़ा है। हजारों साल पहले भारत के ऋषियो ने गौवंश के असीमित लाभ जान लिए थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में गौवंश को इतना महत्व दिया।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासकों ने बाकायदा रणनीति बनाकर भारतीय गौवंश को पूरी तरह नष्ट करने का अभियान चलाया, जो आज तक चल रहा है। क्योंकि वह जानते थे कि हजारों साल से भारत की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत गौ आधारित कृषि रहा था। बिना गौवंश की हत्या किए भारत और भारतीयों को कमजोर नहीं किया जा सकता था। आजादी के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इसमें बड़ी होशियारी से पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई। उन्होंने इस तरह की मानसिकता तैयार की कि घर-घर में पलने वाली गाय हमारी उपेक्षा और हीनभावना का शिकार हो गयी। जिससे गाय का दूध, दही, मक्खन, घी और छाछ सेवन करके हर भारतीय परिवार स्वस्थ, सुखी और संस्कारवान रहता था। आज आम भारतीयों को जीवन के लिए पोषक तत्व प्राप्त नहीं हैं। दूध, दही, घी के नाम पर जो बड़े ब्रांडो के नाम से बेचा जा रहा है, उसमें कितने कीटनाशक, रासायनिक खाद्य और नकली तत्व मिले हैं, इसका अब हिसाब रखना भी मुश्किल है। नतीजा सामने है कि मेडीकल का व्यवसाय हर गली व शहर में तेजी से पनप रहा है।

चिंता और दुख की बात ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन पर जीने वाले कैसे देश के हित में सोच सकते हैं ? वह तो वही लिखेंगे और बोलेंगे, जो उनके कॉरपोरेट आका उन्हें लिखने को कहेंगे। इस लॉबी के खिलाफ देशभक्तो को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। पर हिंसा से नहीं तर्क और प्रमाण के साथ। भारतीय गौवंश की श्रेष्ठता को भारतीय जनमानस के सामने लगातार हर मंच पर इस तरह रखना होगा कि एक बार फिर भारतीय परिवार गौवंश को अपने आंगन में स्थान दे।

गांवों में तो यह आसानी से संभव है, पर दुख की बात है कि वहां भी आज गौवंश की उपेक्षा हो रही है। हमने हमेशा कहा है कि गाय गौशाला में नहीं, बल्कि जब हर घर के आंगन में पलेंगी, तब गौवंश की रक्षा होगी। जिनके पास स्थान का अभाव है, उनकी तो मजबूरी है। पर वह भी भारतीय गौवंश के उत्पादों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन देकर अपने परिवार और समाज का भला कर सकते है।

गौरक्षकों के आक्रोश का भी कारण समझना होगा। सदियों से हिंदू समाज गौवंश के ऊपर हो रहे अत्याार को सहता आ रहा है। क्योंकि उसकी पकड़ सत्ताधीशों पर नहीं रही। नरेंद्र भाई मोदी के सत्ता में आने से हर हिंदू को लगा कि एक हजार वर्ष बाद भारत की सनातन संस्कृति को संरक्षक मिला है। जिसे अपने को हिंदू कहने में कोई झिझक नहीं है। ऐसे में जब मोदीजी लाल मांस के निर्यात को बढ़ाने की बात करते है, तो जाहिर है कि हिंदू समाज आहत महसूस करता है।

मोदीजी भूटान में देखकर आए है कि उस देश में हर व्यक्ति सुखी है, क्योंकि उनका जीवन गौ और कृषि आधारित है। उन्हें दुनिया के साथ दौड़ने की इच्छा नहीं है। क्योंकि वह तीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणामों से परिचित हैं।

फिर भारत क्यों उस अंधी दौड़ में भागना चाहता है, जिसका फल भौतिक प्रगति तो हो सकता है, पर उससे समाज सुखी नहीं होता। बल्कि समाज और ज्यादा असुरक्षित होकर तनाव में आ जाता है। भारत की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय समाज हजारों साल से निरंतर जिंदा रहा है। जबकि पश्चिमी समाज ने एक शताब्दी के अंदर ही औद्योगीकरण के नफे और नुकसान, दोनों का अनुभव कर लिया है। अब वह भारतीय जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है। ऐसे में भारत को फिर से विश्वगुरू बनना होगा। जो गौ आधारित जीवन और वेद आधारित ज्ञान से ही संभव है। इसमें न तो कोई अतिश्योक्ति है और न ही कोई धर्मांधता। कहीं ऐसा न हो कि ‘सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया।’

Monday, February 15, 2016

आधुनिक विकास के असली मायने

आज चारों ओर देश में दो तरह का माहौल है। एक तरफ तो विकास के लंबे-चैड़े लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे है और दूसरी ओर राष्ट्रवादी सनातन चिंतन से जुड़े लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि हम इतना कुछ खोकर भी विकास के पश्चिमी माॅडल को पकड़े बैठे हैं। जिससे विकास होना तो दूर आम हिंदुस्तानी के नैसर्गिक अधिकार तक छिनते जा रहे हैं। आज साफ पानी, हवा और जमीन सपने की बात हो गई है।
 
पिछले 60 वर्षों से या यूं कहिए कि जब से रूस में समाजवादी क्रांति हुई है, तब से दुनिया में योजनाबद्ध विकास का एजेंडा तय हो गया है। भारत ने भी पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास का कार्यक्रम तय किया। पर तीसरी योजना आते-आते 1966 में ये महसूस हुआ कि इस माॅडल से वांछित परिणाम नहीं आ रहे। इसलिए तीन वर्ष का विकास अवकाश कर दिया गया। चैथी योजना 1969 में कृषि पर जोर देते हुए शुरू हुई। पर यहां भी हरित क्रांति का नारा देकर भारत की देशी कृषि को मटियामेट कर दिया गया। आज इसी का परिणाम है कि कृषि न तो पेट भरने का माध्यम रह गई और न ही आर्थिक प्रगति का।
 
दरअसल विकास की आधुनिक अवधारणा ही भ्रामक है। वुल्फगांग झेकस की अंग्रेजी पुस्तक ‘द आर्कियोलाॅजी आॅफ डेवलपमेंट आइडिया’ (विकास के खंडहर) में इस अवधारणा की बड़ी रोचक व्याख्या की गई। उसका अवलोकन करना हम सबके हित में रहेगा। झेकस कहते हैं कि विकास का अर्थ है - प्राकृतिक संपदा के सर्जनहार के विरूद्ध युद्ध का शंखनाद। प्राकृतिक संपदा के उपयोग के लिए ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित तर्कपूर्ण व न्यायिक विश्व व्यवस्था को भंग करना। अपने स्वार्थ के लिए हिंसा और शोषण के तौर-तरीके और घातक हथियारों को बनाना और उनकी मदद से दुनियाभर की प्राकृतिक संपदाओं की दैत्यकारी लूट करना। जिससे पूरी दुनिया की प्राकृतिक संपदा का तेजी से विनाश हो रहा है।
 
झेकस आधुनिक विकास की परिभाषा देते हुए आगे कहते हैं कि इस विकास में आध्यात्मिक गुणों के विकास के लिए कोई भी संभावना नहीं है। इतना ही नहीं जो कुछ आध्यात्मिक ताना-बाना किसी भी समाज में उपलब्ध है, चाहे वह हिंदू समाज हो, मुसलमान समाज हो या बौद्ध समाज हो, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देना और उसकी जगह हिंसा, सेक्स और शोषण का विस्तार करना। ताकि आम जनता इन्हीं मकड़जालों में उलझकर रह जाए और क्रमशः महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी एवं दुराचारिता की चक्की में पिसती चली जाए।
 
इसके साथ ही आधुनिक विकास का एक और घिनौना चेहरा है कि वह झूठ के प्रचार प्रसार को मान्यता देता है। वह भी इतने कलात्मक और रोचक तरीके से कि आपको जहर भी अमृत बताकर बेच दिया जाए। यह सारा विज्ञापन जगत इसी का सहारा लेकर हम सबके जीवन में विष घोल रहा है। अब से 50 वर्ष पहले भी प्रजा के सामने राजा का झूठ बोलना घोर अनैतिकता माना जाता था। चाहे वो गांव का प्रधान हो, सूबे का मुख्यमंत्री हो या देश का राजा हो। उसे अपने आचरण में नैतिक मूल्यों को सम्मान देना होता था। पर आधुनिक विकास तकनीकि और संचार के आधुनिक माध्यमों का सहारा लेकर प्रजा को मूर्ख बनाने की छूट देता है। आप टेलीविजन के माध्यम से झूठे भाषण भी इस तरह दे सकते हैं कि सामने वाला आपकी बात पर विश्वास कर ले। इसलिए अब हमारे नेताओं को सामाजिक स्वीकृति की चिंता नहीं होती।
 
संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के गठन के बावजूद आधुनिक विकास विश्वशांति के नाम पर विश्व अशांति का कारोबार करता है। क्योंकि इन सब संस्थाओं का नियंत्रण अप्रत्यक्ष रूप से हथियार निर्माताओं के हाथ में रहता है, जो दुनिया में सैकड़ों जगह युद्ध कराने का कारण हैं। लड़े कोई, हारे-जीते कोई, मुनाफा इनका ही होता है और उन देशों की संपदा और मानव हानि ऐसे युद्धों में कई गुना बढ़ जाती है।
 
आधुनिक विकास का एक और छद्म चेहरा है पूरी दुनिया को एक करना। एक-सा शासन, एक-सा कानून, एक-सी मुद्रा और एकीकृत व्यापार की स्थापना। इस प्रक्रिया में स्थानीय परंपराओं, सामाजिक ताने-बाने, सदियों से संजोया गया अनुभवजन्य ज्ञान, धार्मिक विश्वास, नैतिक व्यवस्थाएं और भौगोलिक विभिन्नता, सबको तिलांजलि दी जा रही है। सारी दुनिया एक-सी विद्रूप और घुटनभरी बनती जा रही है। विकास की इस व्यवस्था में न्याय की भी बलि दे दी जाती है।
 
न्यायिक संस्थाओं के नाम पर अन्यायपूर्ण कानूनों की स्थापना की जाती है और न्याय केवल पैसे से खरीदा जा सकता है। इसलिए कितना भी विनाश एवं अत्याचार दुनिया में क्यों न हो, पर इसको करने वाले बड़े लोग कभी पकड़े नहीं जाते। जबकि मजबूरी में छोटी-मोटी आपराधिक गतिविधि करने वाले आम आदमी इस कानून की बलि चढ़ा दिए जाते हैं।
 
आधुनिक विकास में सबसे बड़ी दानवीय यह आधुनिक बैकिंग व्यवस्था है, जो छद्म संपत्ति का सृजन कर पूरी दुनिया को मूर्ख बना रही है और आम आदमी को प्लास्टिक के कार्ड पकड़ाकर कर्जे में फंसाती जा रही है। इस हद तक कि गरीब किसान ही नहीं, व्यापारी और उद्योगपति तक इस जाल में फंसने के बाद आत्महत्या के अलावा और कोई विकल्प नहीं सोच पाता। इस सबसे स्पष्ट है कि आधुनिक विकास धर्म का विनाश कर अधर्म का विकास कर रहा है।
 
विकास के इस नाटक को केवल भारत की सनातन संस्कृति और शिक्षा पद्धति के माध्यम से तोड़ा जा सकता है। ऐसे ही विषयों पर आगामी 27-28 फरवरी को अहमदाबाद के हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला (गुरूकुलम) में देशभर के 500 विद्वान इकट्ठा हो रहे हैं। मुझे इस महासंगम में विद्वानों के विचार सुनने की बहुत उत्सुकता है। इस संगम के बाद उन विचारों के मंथन से जो माखन प्राप्त होगा, उसे आकर आप सबसे बांटूंगा।

Monday, February 8, 2016

हम क्यों कर रहे हैं उपजाऊ भूमि का विनाश ?

 एक तरफ तो हम बढ़ती आबादी का रोना रोते हैं। दूसरी तरफ हम अपनी खेती योग्य जमीन को दैत्यों की तरह बर्बाद कर रहे हैं। इस आत्मघाती विकास से हम अपने भविष्य के लिए भीषण खाद्य संकट पैदा होने के हालात बना रहे हैं। यूं तो आजादी के बाद देश में कृषि, ग्रामीण विकास व जल संसाधन जैसे मंत्रालय बने, जिनके मंत्री और अफसर विदेशों में ज्ञान लेने के बहाने भागते रहे। पर क्या वजह है कि इन सबके होते हुए भी देश में कुल 33 करोड़ हेक्टेयर की तिहाई भूमि बंजर है और लगातार बढ़ रही है। जैसे गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया के उपजाऊ मैदानों को ढक रही है, उसी तरह थार मरुस्थल की रेत उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है। अरावली पर्वत काफी हद तक धूल भरी आंधियों को रोकने का काम करता है, लेकिन अंधाधुंध खनन की वजह से इस पर्वतमाला को नुकसान पहुंच रहा है, जिससे यह धूल भरी आंधियों को पूरी तरह नहीं रोक पा रही है। उधर हर साल 84 लाख टन भूमि के पोषक तत्व बाढ़ आदि की वजह से बह जाते हैं। कीटनाशक भी हर साल 1.4 करोड़ वर्ग किमी भूमि की उर्वरकता खत्म कर रहे हैं। इसी तरह लवणीयता और क्षारपन भी हर साल 270 हजार वर्ग किमी क्षेत्र को बंजर बना रहे हैं। 
 
अणुबम से भी घातक कैमिकल्स, कीटनाशक दवाएं, रासायनिक खाद व जहरीली दवाओं के अमर्यादित प्रयोग से भूमि बंजर बन रही हैं। साथ ही साथ उद्योगों से निकला प्रदूषित जल वाष्पित होकर ऊपर जाता है। फिर प्रदूषित एवं क्षारीय जल की वर्षा से भूमि पूर्णतया बंजर बन रही है। इसी प्रकार इन दवाओं का प्रयोग होता रहा तो अगले 50 वर्षों में सारे देशवासी भयानक रोगों से ग्रस्त जाएंगे। 
 
हाल के वर्षों में औद्योगिक कचरे से भी भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। उद्योगों से निकले कचरे और प्रदूषित जल को नदियों में छोड़े जाने से भूतलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है। इस तरह के प्रदूषित जल का सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने से जमीन भी खराब हो गई है। ताजा अनुमानों के अनुसार इस सबसे 34,500 हेक्टेयर भूमि बुरी तरह प्रभावित हुई है। इसके साथ ही भारी मात्रा में पाॅलीथिन और प्लास्टिक का कचरा पृथ्वी की उर्वरकता को तेजी से खत्म कर रहा है, क्योंकि यह कचरा गलता नहीं है। इसलिए यह जमीन के लिए बहुत ही घातक है। जिस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगना चाहिए, लेकिन न तो केंद्र सरकार ऐसा कर पा रही हैं और न राज्य सरकारें। 
 
जमीन में बोरिंग करके अंधाधुंध पानी खींचने से पृथ्वी के भीतर भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आई है। जिससे जमीन की नमी खत्म हुई है और रेगिस्तान बढ़ता जा रहा है। फिर भी हमें अक्ल नहीं आ रही। 1947 में देश में एक हजार ट्यूबवेल थे, जिनकी तादाद अब 2.10 करोड़ है। इससे भूमिगत पानी की सतह तेजी से नीचे होती जा रही है। इसी तरह औद्योगिकरण के इस दौर में समुद्री तटों के आसपास मनुष्यों के रहने लायक स्थिति नहीं बची है। क्योंकि आए दिन समुद्री पानी से भूमि का कटाव होकर खारा पानी आबादी क्षेत्र में 30 से 100 किमी तक प्रवेश करने लगा है। गुजरात के जामनगर, द्वारिका, जूनागढ़, भावनगर और अमरैली के तटीय गांव उजड़ने की कगार पर हैं। जिसका एक मात्र कारण तटीय जमीन का अत्यधिक कटाव किया जाना है। इतना ही नहीं बल्कि देश में हो रहे बेरोकटोक अंधाधुंध खनन से जमीन पोली हो रही है। भूचाल के खतरे बढ़ रहे हैं और इससे होने वाले प्रदूषण से भूमि बंजर हो रही है। 
 
खानों का कचरा खुले में फैलने से व सीमेंट उद्योग के लिए चूना-पत्थर और चीनी मिट्टी उद्योग के लिए
कैल्साइट और खडि़या पत्थर की पिसाई से जो धूल उड़ती है, वह आसपास की उपजाऊ जमीन को बर्बाद कर देती है। नब्बे फीसदी खान मालिकों द्वारा खुली खदान प्रणाली के जरिये खनन कार्य किया जा रहा है। खनन पूरा हो जाने के बाद उस क्षेत्र को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इसे फिर सही करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता। जिससे पूरा क्षेत्र हमेशा के लिए बर्बाद होकर रेगिस्तान बन जाता है। 
 
वनस्पतियों का विनाश भी जमीन को बंजर बनाने का कारण है। मरुस्थलीयकरण का सबसे पहला शिकार पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ होती हैं। जमीन पर बढ़ते दबाव से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के हृास में खतरनाक वृद्धि हो रही है। गाँवों के आस-पास चरागाहों की जमीन बुरी तरह बर्बाद हुई है, क्योंकि उसकी सबसे अधिक उपेक्षा और सबसे ज्यादा दोहन हुआ है। इस प्रकार उपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान बनती जा रहे है। 
 
हमारे प्रधानमंत्री को भारत के किसानों और उनकी जमीनों की गिरती उर्वरकता की गहरी चिंता रही है। ऐसा वे अपने वक्तव्यों से संकेत देते रहे हैं, लेकिन अभी तक इस समस्या का कोई ठोस समाधान भारत सरकार आजादी के बाद से नहीं दे पाई है। नतीजतन, यह विनाश बेरोकटोक जारी है। जिस पर प्रधानमंत्री और उनके संबंधित मंत्रालयों को गंभीरता से सोचना चाहिए और कृषि योग्य भूमि के संरक्षण को प्रोत्साहित करते हुए उसका विनाश करने वालों से कड़ाई से निपटना चाहिए। 

Monday, February 1, 2016

दूध के नाम पर फरेब बंद हो

    इसी हफ्ते गुजरात उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिकाकर्ता ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह बताने की कोशिश की है कि देशी गाय के मुकाबले जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसलिए दूध विक्रेताओं को दूध के पैकेट या बोतलों पर यह साफ-साफ लिखना चाहिए कि जो दूध बेचा जा रहा है, वह देशी गाय का है या जर्सी गाय का। याचिकाकर्ता चिंतन गोहेल ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि जर्सी गाय का दूध ए/1 श्रेणी का होता है। जबकि देशी गाय का दूध ए/2 श्रेणी का होता है। यह दूध स्वास्थ्यवर्धक और पाचक होता है। जबकि ए/1 श्रेणी का दूध न केवल पाचन में तकलीफ देता है, बल्कि कई रोगों का कारण भी बनता है। याचिकाकर्ता ने यूरोप, अमेरिका और आस्टेªलिया में हुए कई अनुसंधानों का हवाला देते हुए अपनी बात रखी है। उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिक लेखक कीथ वुडफोर्ड ने अपनी पुस्तक ‘डेविल इन द मिल्क’ (दूध में राक्षस) में बताया है कि किस तरह जर्सी गाय का दूध पीने से मधुमेह, शीजोफर्निया, हृदय रोग और मंदबुद्धि जैसी बीमारियां पनपती हैं। विशेषकर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को जर्सी गाय का दूध बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए। चिंता का बात यह है कि मदर डेयरी से लेकर सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विभिन्न नगरों के दूध विक्रेता खुलेआम जर्सी गायों का दूध बेच रहे हैं और हमारी पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर रहे हैं। जिन पर कोई रोकटोक नहीं है। इतना ही नहीं गाय का शुद्ध घी नाम से जो घी देशभर में बेचा जा रहा है, वो भी देशी गाय का नहीं है। याचिकाकर्ता की मांग बिल्कुल जायज है कि दूध और घी विक्रेताओं को डिब्बे पर साफ-साफ लिखना चाहिए कि ‘देशी गाय का दूध’ है या ‘देशी गाय का घी’ है। अगर ऐसा नहीं है, तो साफ लिखना चाहिए कि ‘जर्सी गाय का दूध’ या ‘जर्सी गाय का घी’। साथ ही यह चेतावनी भी छापनी चाहिए कि जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

    पिछले दिनों दादरी में जो गौहत्या को लेकर सांप्रदायिक तनाव बना था और जिसके विरोध स्वरूप कुछ मशहूर लोगों ने मुद्दे को अनावश्यक रूप से धार्मिक असहिष्णुता का मुद्दा बना दिया, उस वक्त ही हमने यह बात कही थी कि देशी गाय कोई धार्मिक या भावनात्मक मुद्दा नहीं है। शुद्ध रूप से वैज्ञानिक और आर्थिक मुद्दा है।
भारत के ऋषियों ने हजारों साल के वैज्ञानिक प्रयोगों के बाद योग, आयुर्वेद, गौसेवा, यज्ञ, संस्कृत पठन-पाठन, मंत्रोच्चारण आदि व्यवस्थाओं को व्यापक समाज के हित में स्थापित किया था। उनकी सोच और उनका दिया ज्ञान आज भी विज्ञान की हर कसौटी पर खरा उतरता है। पर इन मुद्दों को धार्मिक या भावनात्मक बनाकर हिंदू समाज का ही एक हिस्सा अपनी जग हंसाई करवाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इन सब चीजों के वैज्ञानिक व आर्थिक आधार को जोर-शोर से प्रचारित किया जाय। अगर किसी को यह समझ में आ जाए कि देशी गाय उसके गौरस से बने पदार्थ और उसके गोबर और मूत्र से उस परिवार की संपन्नता, स्वास्थ्य, चेतना और आनंद में वृद्धि होती है, तो कोई क्यों गाय बेचे और काटेगा ? ठीक ऐसे ही अगर देशवासियों को पता चल जाए कि जर्सी गाय का दूध पीने के कितने नुकसान है, तो दूध और घी का धंधा करने वाले ज्यादातर लोगों की दुकानें बंद हो जाएगी।

अब सवाल उठता है कि दूध की तो वैसे ही देश में कमी है और अगर यह बवंडर खड़ा कर दिया जाए, तो हाहाकार मच जाएगा। ऐसा नहीं है। हमारे कत्लखाने उस औपनिवेशिक सोच का परिणाम है, जिसने साजिशन गौमाता का उपहास कर भारत के हुक्मरानों के दिमाग में गौवंश का सफाया करने का माडल बेच दिया है। सरकार किसी की भी हो, देशी गायों और उनके बछड़ों और बेलों की नृशंसा हत्या और मांस का कारोबार दिन दूना और रात चैगुना पनप रहा है। इस पर अगर प्रभावी रोक लगा दी जाए, तो पूरे भारत के समाज को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बनाया जा सकता है।

चिंता की बात तो यह है कि परंपराओं और देशी इलाज की पद्धतियों का प्रचार-प्रसार करने वाली कंपनियां भी भारत की परंपराओं से खिलवाड़ कर रही हैं। उनके उत्पादों में आयुर्वेद के शुद्ध सिद्धांतों का पालन नहीं होता। पूरी दुनिया जानती है कि प्लास्टिक और प्लास्टिक से बने पदार्थ पर्यावरण के ऊपर आधुनिक समाज का आणविक हमला जैसा है। पर हर आयुर्वेदिक कंपनी प्लास्टिक के लिए डिब्बों और बोतलों में अपना माल बेचने में लगी है। बिना इस बात की परवाह किए कि यह प्लास्टिक देशभर के गांवों, जंगलों और शहरों में नासूर की तरह बढ़ती जा रही है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि देशी गाय, गौवंश, बिना घालमेल के शुद्ध आयुर्वेदिक परंपरा और भारत की पुरातन प्राकृतिक कृषि व्यवस्था की स्थापना ही भारतीय समाज को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बना सकती है। इसके लिए हर समझदार व्यक्ति को जागरूक और सक्रिय होना पड़ेगा। ताकि हम मुनाफे के पीछे भागने वाली कंपनियों के मकड़जाल से छूटकर भारत के हर ग्राम को गोकुल बना सकें।

Monday, October 5, 2015

भारत सरकार ही बनाए देश का पैसा

    बैंकों के मायाजाल पर जो दो तथ्यपरक लेख पिछले हफ्तों में हमने लिखे, उन पर देशभर से जितनी प्रतिक्रियाएं आईं हैं, उतनी आज तक किसी लेख पर नहीं आईं। हर पाठक अब इस समस्या का समाधान पूछ रहा है। इसलिए इस कड़ी का यह तीसरा और अंतिम लेख समाधान के तौर पर है। ऐसा समाधान जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत बनें और हर भारतीय कर्ज के दबाव से मुक्त होकर सम्मानजनक जीवन जी सके। इसके लिए जरूरी होगा कि भारत सरकार देश का पैसा खुद बनाए और इन व्यवसायिक बैंकों को देश लूटने की छूट न दे। इसे हम विस्तार से आगे समझाएंगे। पहले देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति पर एक नजर डाल लें। 2015-16 वित्तीय वर्ष के लिए जो बजट सरकार ने बनाया, उसमें 14,49,490 करोड़ रूपए एकत्रित किए। इसमें से 5,23,958 करोड़ रूपए राज्यों को उनके हिस्से के रूप में दे दिए। इस प्रकार जो बचा, उसमें सरकार ने अपनी आमदनी 2,21,733 करोड़ रूपए जोड़ ली और उसकी कुल आय हो गई 11,41,575 करोड़ रूपए। इस आय में से शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, विद्युत, संचार, परिवहन, विज्ञान व प्रौद्योगिकी जैसे जनकल्याण कार्यों में मात्र 58,127 करोड़ रूपए खर्च करने का प्रावधान किया। जबकि इसमें से 6,81,719 करोड़ रूपया बैंकों को ब्याज और किस्त के रूप में दे दिया। अब आप स्वयं ही देख लीजिए कि भारत सरकार अपने हिस्से के बजट का 60 फीसदी केवल बैंकों को दे देती है, फिर क्या खाक विकास होगा और हम कभी इस कर्जे के मकड़जाल से मुक्त नहीं हो पाएंगे। आप चाहे जितनी मेहनत कर लो। जितना उत्पादन कर लो। जितना कर दे दो सरकार को। सबका सब ये बैंक हजम कर जाते हैं, तो कैसे होगा आपका विकास ?

   
शोध से यह निकलकर आ रहा है कि लगभग 25 लाख करोड़ रूपया सालाना भारत की सरकार, राज्य सरकारों और जनता से लूटकर ये बैंक ले जा रहे हैं और अपनी तिजोरी भर रहे हैं। इस तरह हमारे रूपए की कीमत लगातार तेजी से गिरती जा रही है। इस व्यवस्था के पहले अगर हमारे पास 100 रूपए होते थे, तो उसका मतलब था 100 तौला यानि 1 किलो चांदी। पर आज अगर हमारे पास 100 रूपए हैं, तो उसकी कीमत रह गई मात्र 25 पैसे। 99.75 रूपए इस बैकिंग व्यवस्था ने डकार लिए और हमें और हमारे देश को कंगाल कर दिए, केवल खातों में कर्जे दिखाकर।

    समाधान के रूप में हमें अपनी इस पिरामिड वाली बैकिंग व्यवस्था को पलटना होगा। इंग्लैंड के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति और बैंक आॅफ इंग्लैंड के डायरेक्टर सर जोशिया स्टाम्प ने टैक्सास विश्वविद्यालय में 1927 को भाषण देते हुए कहा था कि, ‘आधुनिक बैंकिंग प्रणाली जादुई तरीके से पैसा बनाती हैं। यह प्रक्रिया शायद जादू का अभी तक सबसे बड़ा अविष्कार है। बैकिंग की कल्पना में अन्याय है और यह पाप से जन्मा है। बैंकर पृथ्वी के मालिक हैं। अगर इसे तुम उनसे छीन भी लो, पर उन्हें पैसे बनाने की शक्ति देकर रखो, तो वे कलम के एक झटके के साथ, सारी धरती को फिर से खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे बना लेंगे। उनसे यह भारी ताकत छीन लो। फिर ये दुनिया ज्यादा खुशहाल और रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। परंतु अगर आप बैंकरों के गुलाम बने रहना चाहते हो और अपनी खुद की ही गुलामी की लागत का भुगतान देना जारी रखना चाहते हों, तो बैंकरांे को पैसे बनाने और उसे नियंत्रित करने की शक्ति उन्हीं के पास रहने दो।’

    अगर भारत सरकार अपना पैसा खुद बनाए, तो उसे ब्याज देने की जरूरत नहीं होगी। आज की व्यवस्था के अनुसार कुल बजट का 40 फीसदी ही सरकार खर्च कर पाती है, शेष कर्जे में चला जाता है। अगले आर्थिक वर्ष से अगर सरकार ये 40 फीसदी पैसा खुद बना लें, तो पुराना कर्ज तो चुकाती रहे, पर नया कर्ज उस पर कुछ नहीं चढ़ेगा और जब नया कर्ज नहीं चढ़ेगा, तो उसे कर बढ़ाने की भी आवश्यकता नहीं होगी और इसके तुरंत प्रभाव से सरकार का बजट 3 गुना बढ़ जाएगा। ऐसा करने से सरकार अपनी आवश्यकता का पैसा खुद बना लेगी और उसे विकास योजनाओं के लिए कोई कर्ज नहीं लेना पड़ेगा। धीरे-धीरे पुराना कर्ज खत्म हो जाएगा और कुछ ही वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाएगी कि उसका अपना बजट चीन के बजट से भी ज्यादा हो जाएगा और तब भारत दुनिया के अर्थव्यवस्थाओं में पहले नंबर पर पहुंच जाएगा, जैसा सन् 1700 में था।

दरअसल, ये कोई अजीब बात नहीं है। 1969 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इस ओर एक मजबूत कदम बढ़ाया था। जिससे बैकिंग उद्योग में खलबली मच गई और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किंसिजर ने इंदिरा गांधी को और भारतीयों को भद्दी गालियां दीं और भारत पर पाकिस्तान से हमला करवाकर हमें जबर्दस्ती युद्ध में धकेल दिया। 1971 में की गई उनकी यह निजी बातचीत अमेरिकी सरकार के दस्तावेजों के 2005 में सार्वजनिक होने पर प्रकाश में आई। ये बात दूसरी है कि भारत ने पाकिस्तान को 1971 के युद्ध में हरा दिया। इस तरह इंदिरा गांधी ने देश को बैंकरों के शिकंजे से छुड़ाने में एक मजबूत और सफल कदम बढ़ाया। ये बात आगे जाती, पर इंदिरा गांधी कुछ भ्रष्टाचार में फंस गईं। जिसकी आड़ में बैंकिंग समुदाय ने उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका। बाद की सरकारों ने बैंकों को फिर से निजी हाथों में देना शुरू कर दिया और हम फिर इनके मायाजाल में फंस गए। अब अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पैसा खुद बनाने का छोटा, लेकिन कड़ा निर्णय लेते हैं, तो जनता और व्यापारी वर्ग को कर और कर्ज से मुक्त कर सकते हैं, देश को कर्जमुक्त कर सकते हैं और अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ कर सकते हैं। तब देश को कभी भी महंगाई और मंदी का मुंह नहीं देखना पड़ेगा और तब फिर से बनेगा भारत सोने की चिड़िया।

Monday, September 28, 2015

बैंकों को न मिले देश लूटने की छूट

पिछले सप्ताह ‘बैंकों का मायाजाल’ पर इस काॅलम में लिखे गए लेख पर पूरे देश से पाठकों के बहुत सारे फोन आए हैं, जो इस विषय को विस्तार से जानना चाहते हैं। इसलिए इस विषय को फिर ले रहे हैं। आज से लगभग तीन सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानि ‘बैंक आॅफ इग्लैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहें वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंग्लैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंग्लैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ, तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाउंड उधार मांगे। उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापिस नहीं करना था - (1) मनी चेंजर्स को इंग्लैंड के पैसे छापने के लिए एक केंद्रीय बैंक ‘बैंक आफ इंग्लैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा। जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे। पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानि महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया। जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वे इन केंद्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनायी और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमेरिका की तरफ पसारने शुरू किए। 

उस समय अमेरिका के प्रांतों की सरकारें अपनी-अपनी मुद्राएं बनाती थीं। परंतु इन बैंकरों ने इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वितीय पर दबाव डालकर इंग्लैंड के उपनिवेश अमेरिका पर दबाव डाला कि वहां की प्रांतीय सरकारें अपनी मुद्राएं न बनाएं और उन्हें जितना रूपया चाहिए, वे बैंकों से कर्ज के रूप में लें। इस शोषक व्यवस्था की स्थापना से अमेरिका में तरक्की की रास्ता रूक गया। प्रजा में अशांति हो गई और अमेरिका के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ दी और 1776 में अमेरिका आजाद हो गया।

      आजादी के बावजूद इन बैंकरों ने हार नहीं मानीं और नए हथकंड़े अपनाकर अमेरिका में एक के बाद एक दो केंद्रीय बैंकों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली और अपनी मुद्रा छापकर उसे अमेरिका में वैध मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया। इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैक्सन ने इस केंद्रीयकृत बैकिंग व्यवस्था को बंद करने की घोषणा कर दी और केंद्रीय बैंक बंद हो गया। लेकिन अपने जमा सोने के आधार पर प्रांतों के बैंक थोड़ा-थोड़ा पैसा जरूरत के हिसाब से बनाते रहे और अपने राज्यों में चलाते रहे। 1863 में जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा, तो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को पैसे की जरूरत पड़ी और वो इन बैंकरों से पैसा मांगने गए, तो इन्होंने बहुत ज्यादा ब्याज दर की मांग की। जिसको देने पर अब्राहम लिंकन राजी नहीं थे। उन्होंने अपने सचिव के सुझाव पर स्वयं ही मुद्रा छापने का निर्णय लिया और युद्ध जीत लिया। उनकी इस कामयाबी से तिलमिलाये बैंकरों ने 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या करवा दी। कुछ वर्षों तक अशांति रही और इस मामले में कोई स्पष्ट नीति नहीं आयी। पर 1907 तक इन बैंकरों ने एक अफवाह फैलाकर अमेरिका के छोटे बैंकों को असफल करवा दिया और समाधान के रूप में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की मांग की, जो 1913 में ‘फेडरल रिजर्व‘ के नाम से स्थापित हो गया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका पर कब्जा कर लेने के बाद इन लोगों ने पिछले 100 वर्ष में धीरे-धीरे दुनिया के सभी देशों में इसी तरह के केंद्रीय रिजर्व बैंक की स्थापना करवा दी और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा लिया। 

इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही। क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक आॅफ इंटरनेशनल सैटलमेंट’ बनाकर सारी दुनिया के केंद्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वो इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है, तो वे कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है। जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट। क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वो भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है, यानि सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और उद्योगपति। सब इस मकड़जाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं, जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं। यानि हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केंद्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रहे हैं। सरकारें कर्जें पर डूब रही हैं। गरीब आत्महत्या कर रहा है। महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है।