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Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, February 13, 2017

शराब की भी दुकानें क्यों न हों कैशलेस?

प्रधानमंत्री पूरी ताकत लगा रहे है भारत को कैशलेस समाज बनाने के लिए। सरकार से जुड़ी हर ईकाई इस काम के प्रचार में जुटी है। यह तो प्रधानमंत्री भी जानते हैं कि सौ फीसदी भारतवासियों को रातों-रात डिजीटल व्यवस्था में ढाला नहीं जा सकता। पर कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ इस काम को प्राथमिकता पर किया जा सकता है। इसलिए भारत और राज्य सरकारों को सबसे पहले शराब की सभी दुकानों को अनिवार्यतः कैशलेस कर देना चाहिए। क्योंकि यहां प्रतिदिन हजारों लाखों रूपये की नकदी आती है। हर शराबी नकद पैसे से ही शराब खरीदकर पीता और पिलाता है। सरकार को चाहिए कि शराब खरीदने के लिए  बैंक खाता, आधार कार्ड व बीपीएल कार्ड (जिनके पास है) दिखाने की अनिवार्यता हो। बिना ऐसा कोई प्रमाण दिखाये शराब बेचना और खरीदना दंडनीय अपराध हो।

इसका सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि सरकार को ये भी पता चल जाएगा की जिन लोगों को सरकार आरक्षण, आर्थिक सहायता, सब्सिडी, फीस में छूट, नौकरियों में छूट, 2 रू.किलो गेहूं, मुफ्त आवास व बीपीएल के लाभ आदि दे रही है उनमे कितने लोग किस तरह शराब पर पैसा खर्च कर रहे हैं। कितने फर्जी लोग जो अपना नाम बीपीएल सूची में सम्मिलित करवाये बैठे हैं वो भी स्वतः ही पता चल जाएंगे । क्योंकि प्रतिमाह हजार डेढ़ हजार रुपया शराब पर खर्च करने वाला गरीबी फायदे लेने वका हकदार नहीं है।

शराब की बिक्री को कैशलेस करने के अन्य कई लाभ होंगे। जो लोग भारी मात्रा में एकमुश्त  शराब खरीदते हैं जैसे अपराधी, अंडरवलर्ड, सरकारी अधिकारी और पुलिसबल को शराब बांटने वले व्यापारी, माफिया व राजनीतिज्ञ इन सबकी भी पोल खुल जाएगी। क्योंकी इन धंधों में लगे लोगों को प्रायः भारी मात्रा में अपने कारिंदों को भी शराब बांटनी होती है। जब पैनकार्ड या आधार कार्ड पर शराब खरीदने की अनिवार्यता होगी तो थोक में शराब खरीदकर बाँटने वाले गलत धंधो में लगे लोग बेनकाब होंगे। क्योंकि तब उनसे इस थोक खरीद की वजह और हिसाब कभी भी माँगा जा सकता है। माना जा सकता है कि ऐसा करने से अपराध में कमी आयेगी।

उधर बड़े से बड़े शराब कारखानो में आबकारी शुल्क की चोरी धड़ल्ले से होती है। चोरी का ये कारोबार अरबों रुपये का होता है। मुझे याद है आज से 43 वर्ष पहले 1974 में मैं एक बार अपने चार्टर्ड अकाउंटेंट मित्र के साथ शराब कारखाने के अतिथि निवास में रुका था। शाम होती ही वहां तैनात सभी आबकारी अधिकारी जमा हो गए और उन लोगों का मुफ्त की शराब और कबाब का दौर देर रात तक चलता रहा। चलते वख्त वो लोग अपने दोस्तों और  रिश्तेदारों को बाँटने के लिए अपने साथ मुफ्त की शराब की दो-दो बोतलें भी लेते गए। जिसका कोई हिसाब रिेकार्ड में दर्ज नहीं था। पूछने पर पता चला कि आबकारी विभाग के छोटे से बड़े अधिकारी, सचिव और मंत्री को मोटी रकम हर महीने रिश्वत में जाती है। जिसकी एवज में कारखानों में तैनात आबकारी अधिकारी शराब कारखानों के मालिकों के बनाये फर्जी दस्तावेजों पर स्वीकृति की मोहर लगा देते हैं। मतलब अगर 6 ट्रक शराब कारखाने से बाहर जाती है, तो आबकारी रिकॉर्ड में केवल एक ट्रक ही दर्ज होता है। ऐसे में कैशलेस बिक्री कर देने से पूरा तंत्र पकड़ा जायेगा। 

पर सवाल है कि क्या कोई भी सरकार इसे सख्ती से लागू कर पाएगी? गुजरात में ही लंबे समय से शराबबंदी लागू है। पर गुजरात के आप किसी भी शहर में शराब खरीद और पिला सकते है। तू डाल- डाल तो वो पात-पात।

शराब के कारोबार का ये तो था उजाला पक्ष। एक दूसरा अँधेरा पक्ष भी है। पुलिस और आबकारी विभाग की मिलीभगत से देश के हर इलाके में भारी मात्रा में नकली शराब बनती और बिकती है। जब कभी नकली शराब पीने वालों की सामूहिक मौत का कोई बड़ा कांड हो जाता है तब दो चार दिन मीडिया में हंगामा होता है, धड़ पकड़ होती है, पर फिर वही ढाक के तीन पात। इस कारोबार को कैशलेस कैसे बनाया जाय ये भी सरकार को सोचना होगा।                       
 
शराब के दुर्गणों को पीने वाला भी जानता है और बेचने वाला भी। कितने जीवन और कितने घर शराब बर्बाद कर देती है। पर ये भी शाश्वत सत्य है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही शराब उसका अभिन्न अंग रही है। बच्चन की ‘मधुशाला’ से गालिब तक शराब की तारीफ में कसीदे कसने वालों की कमी नहीं रही। गम गलत करना हो, मस्ती करनी हो, किसी पर हत्या का जुनून चढ़ाना हो, दंगे करवाने हों, फौज को दुर्गम परिस्थियों में तैनात रखना हो और उनसे दुश्मन पर खूंखार हमला करवाना हो तो शराब संजीवनी का काम करती है। इसीलिये मुल्ला-संत कितने भी उपदेश देते रहें कुरान, ग्रन्थ साहिब या पुराण कितना भी ज्ञान दें, पर शराब हमेशा रही है और हमेशा रहेगी। जरूरत इसको नियंत्रित करने की होती है। फिर कैशलेस के दौर में शराब की बिक्री को क्यों न कैशलेस बना कर देखा जाय ? देखें क्या परिणाम आता है।

Monday, March 31, 2014

कोई नहीं समझा पाया कि विकास का अर्थ क्या है

चुनाव के पहले दौर के मतदान में सिर्फ दस दिन बचे हैं | विभिन्न दलों के शीर्ष नेता दिन में दो-दो तीन-तीन रैलियां कर रहे हैं | इनमे होने वाले भाषणों में, इन सब ने, किसी बड़ी बात पर बहस खड़ी करने की हरचंद कोशीश की लेकिन कोई सार्थक बहस अब तक शुरू नहीं हो पाई | चुनाव पर नज़र रखने वाले विश्लेषक और मीडिया रोज़ ही शीर्ष नेताओं की कही बातों का विश्लेषण करते हैं और यह कोशिश भी करते हैं कि कोई मुद्दा तो बने | लेकिन ज्यादातर नेता एक दूसरे की आलोचना के आगे नहीं जा पाए | जबकि मतदाता बड़ी उत्सुकता से उनके मुह से यह सुनना चाहता है कि सोलहवीं लोकसभा में बैठ कर वे भारतीय लोकतंत्र की जनता के लिए क्या करेंगे ?

यह बात मानने से शायद ही कोई मना करे कि पिछले चुनावों की तरह यह चुनाव भी उन्ही जाति-धर्म-पंथ-बिरादरी के इर्दगिर्द घूमता नज़र आ रहा है | हाँ कहने को विकास की बात सब करते हैं | लेकिन हद कि बात यह है कि मतदाता को साफ़-साफ़ यह कोई नहीं समझा पाया कि विकास के उसके मायने क्या हैं ? जबकि बड़ी आसानी से कोई विद्यार्थी भी बता सकता है कि सुख सुविधाओं में बढ़ोतरी को ही हम विकास कहते हैं | और जब पूरे देश के सन्दर्भ में इसे नापने की बात आती है तो हमें यह ज़रूर जोड़ना पड़ता है कि कुछ लोगों की सुख-सुविधाओं की बढ़ोतरी ही पैमाना नहीं बन सकता | बल्कि देश की समग्र जनता की सुख-समृधी का योग ही पैमाना बनता है | यानी देश की आर्थिक वृधी और विकास एक दुसरे के पर्याय नहीं बन सकते | अगर किसी देश ने आर्थिक वृद्धि की है तो ज़रूरी नहीं कि वहां हम कह सकें कि विकास हो गया या किसी देश ने आर्थिक वृद्धि नहीं की तो ज़रूरी नहीं कि कहा जा सके कि विकास नहीं हुआ |

मुश्किल यह है कि हमारे पास इस तरह के विश्लेषक नहीं है कि पैमाने ले कर बैठें और विकास की नापतौल करते हुए आकलन करें | हो यह रहा है कि विश्लेषक और मीडिया उन्ही लोक-लुभावन अंदाज़ में लगे हैं जिनसे अपने दर्शकों और पाठकों को भौचक कर सकें | जबकि देश का मतदाता इस समय भौचक नहीं होना चाहता | वह इस समय संतुष्ट या असंतुष्ट नहीं होना चाहता | बल्कि वह कुछ जानना चाहता है कि उसके हित में क्या हो सकता है ? यानि वह किसे वोट देकर उम्मीद लगा सकता है ? अब सवाल उठता है कि क्या कोई ऐसी बात हो सकती है कि जिसे हम सरलता से कह कर एक मुद्दे के तौर पर तय कर लें | और इसे तय करने के लिए हमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल उद्देश्य पर नज़र दौड़ानी पड़ेगी |

लोकतंत्र के लक्ष्य का अगर बहुत ही सरलीकरण करें तो उसे एक शब्द में कह सकते हैं – वह है ‘संवितरण’ | यानी ऐसी व्यवस्था जो उत्पादित सुख-सुविधाओं को सभी लोगों में सामान रूप से वितरित करने की व्यवस्था सुनिश्चित करती हो | वैसे गाहे-बगाहे कुछ विद्वान और विश्लेषक समावेशी विकास की बात करते हैं लेकिन वह भी किसी आदर्श स्तिथि को मानते हुए ही करते हैं | यह नहीं बताते कि समावेशी विकास के लिए क्या क्या नहीं हुआ है या क्या क्या हुआ है या क्या क्या होना चाहिए |

इस लेख को सार्थक बनाने की ज़िम्मेदारी भी मुझ पर है | ज़ाहिर है कि लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या या पूर्व सप्ताह में यह सुझाव देना होगा कि विभिन्न राजनितिक दल मतदाताओं से क्या वायदा करें ? इसके लिए मानवीय आवश्यकताओं की बात करनी होगी | यह बताना होगा कि मानवीय आवश्यकताओं की एक निर्विवाद सूची उपलब्ध है जिसमें सबसे ऊपर शारीरिक आवश्यकता यानी भोजन-पानी, उसके बाद सुरक्षा और उसके बाद प्रेम आता है | अगर इसी को ही आधार मान लें तो क्या यह नहीं सुझाया जा सकता कि जो सभी को सुरक्षित पेयजल, पर्याप्त भोजन, बाहरी और आंतरिक सुरक्षा और समाज में सौहार्द के लिए काम करने का वायदा करे उसे भारतीय लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल करने का वायदा माना जाना चैहिये | अब हम देख लें साफ़ तौर पर और जोर देते हुए ऐसा वायदा कौन कर रहा है | और अगर कोई नहीं कर रहा है तो फिर ऐसे वायदे के लिए हम व्यवस्था के नियंताओं पर दबाव कैसे बना सकते हैं ? यहाँ यह कहना भी ज़रूरी होगा कि जनता प्रत्यक्ष रूप से यह दबाव बनाने में उतनी समर्थ नहीं दिखती | यह काम उन विश्लेषकों और मिडिया का ज्यादा बनता है जो जनता की आवाज़ उठाने का दावा करते हैं |

चुनाव में समय बहुत कम बचा है | दूसरी बात कि इस बार चुनाव प्रचार की शुरुआत महीने दो-महीने नहीं बल्कि दो साल पहले हो गयी हो वहां काफी कुछ तय किया जा चुका है | अब हम उन्ही मुद्दों पर सोचने मानने के लिए अभिशप्त हैं जो नेताओं ने इस चुनावी वैतरणी को पार करने के लिए हमारे सामने रखे | स्तिथियाँ जैसी हैं वहां मतदाताओं के पास ताकालिक तौर पर कोई विकल्प तो नज़र नहीं आता फिर भी भविष्य के लिए सतर्क होने का विकल्प उसके पास ज़रूर है |