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Monday, August 29, 2016

गौरक्षक आहत क्यों ?


जिस तरह मीडिया ने गौरक्षकों के खिलाफ शोर मचाया था, उसे यह साफ हो गया था कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी भारत में गौमाता की रक्षा नहीं होने देगी। इस लॉबी ने प्रधानमंत्री को इस तरह घेर लिया कि उन्हें मजबूरन गौरक्षकों को चेतावनी देनी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं कि गौरक्षा के नाम पर जातीय संघर्ष या खून-खराबे को होने दिया जाए। जिन लोगों ने इस तरह की हिंसा इस देश में कहीं भी की, उन्होंने उत्साह के अतिरेक में गौवंश को हानि पहुंचाई।

दरअसल गौरक्षा का मुद्दा बिल्कुल धार्मिक नहीं है। यह तो शुद्धतम रूप में लोगों की कृषि, अर्थव्यवस्था और उनके स्वास्थ्य से जुड़ा है। हजारों साल पहले भारत के ऋषियो ने गौवंश के असीमित लाभ जान लिए थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में गौवंश को इतना महत्व दिया।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासकों ने बाकायदा रणनीति बनाकर भारतीय गौवंश को पूरी तरह नष्ट करने का अभियान चलाया, जो आज तक चल रहा है। क्योंकि वह जानते थे कि हजारों साल से भारत की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत गौ आधारित कृषि रहा था। बिना गौवंश की हत्या किए भारत और भारतीयों को कमजोर नहीं किया जा सकता था। आजादी के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इसमें बड़ी होशियारी से पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई। उन्होंने इस तरह की मानसिकता तैयार की कि घर-घर में पलने वाली गाय हमारी उपेक्षा और हीनभावना का शिकार हो गयी। जिससे गाय का दूध, दही, मक्खन, घी और छाछ सेवन करके हर भारतीय परिवार स्वस्थ, सुखी और संस्कारवान रहता था। आज आम भारतीयों को जीवन के लिए पोषक तत्व प्राप्त नहीं हैं। दूध, दही, घी के नाम पर जो बड़े ब्रांडो के नाम से बेचा जा रहा है, उसमें कितने कीटनाशक, रासायनिक खाद्य और नकली तत्व मिले हैं, इसका अब हिसाब रखना भी मुश्किल है। नतीजा सामने है कि मेडीकल का व्यवसाय हर गली व शहर में तेजी से पनप रहा है।

चिंता और दुख की बात ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन पर जीने वाले कैसे देश के हित में सोच सकते हैं ? वह तो वही लिखेंगे और बोलेंगे, जो उनके कॉरपोरेट आका उन्हें लिखने को कहेंगे। इस लॉबी के खिलाफ देशभक्तो को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। पर हिंसा से नहीं तर्क और प्रमाण के साथ। भारतीय गौवंश की श्रेष्ठता को भारतीय जनमानस के सामने लगातार हर मंच पर इस तरह रखना होगा कि एक बार फिर भारतीय परिवार गौवंश को अपने आंगन में स्थान दे।

गांवों में तो यह आसानी से संभव है, पर दुख की बात है कि वहां भी आज गौवंश की उपेक्षा हो रही है। हमने हमेशा कहा है कि गाय गौशाला में नहीं, बल्कि जब हर घर के आंगन में पलेंगी, तब गौवंश की रक्षा होगी। जिनके पास स्थान का अभाव है, उनकी तो मजबूरी है। पर वह भी भारतीय गौवंश के उत्पादों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन देकर अपने परिवार और समाज का भला कर सकते है।

गौरक्षकों के आक्रोश का भी कारण समझना होगा। सदियों से हिंदू समाज गौवंश के ऊपर हो रहे अत्याार को सहता आ रहा है। क्योंकि उसकी पकड़ सत्ताधीशों पर नहीं रही। नरेंद्र भाई मोदी के सत्ता में आने से हर हिंदू को लगा कि एक हजार वर्ष बाद भारत की सनातन संस्कृति को संरक्षक मिला है। जिसे अपने को हिंदू कहने में कोई झिझक नहीं है। ऐसे में जब मोदीजी लाल मांस के निर्यात को बढ़ाने की बात करते है, तो जाहिर है कि हिंदू समाज आहत महसूस करता है।

मोदीजी भूटान में देखकर आए है कि उस देश में हर व्यक्ति सुखी है, क्योंकि उनका जीवन गौ और कृषि आधारित है। उन्हें दुनिया के साथ दौड़ने की इच्छा नहीं है। क्योंकि वह तीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणामों से परिचित हैं।

फिर भारत क्यों उस अंधी दौड़ में भागना चाहता है, जिसका फल भौतिक प्रगति तो हो सकता है, पर उससे समाज सुखी नहीं होता। बल्कि समाज और ज्यादा असुरक्षित होकर तनाव में आ जाता है। भारत की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय समाज हजारों साल से निरंतर जिंदा रहा है। जबकि पश्चिमी समाज ने एक शताब्दी के अंदर ही औद्योगीकरण के नफे और नुकसान, दोनों का अनुभव कर लिया है। अब वह भारतीय जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है। ऐसे में भारत को फिर से विश्वगुरू बनना होगा। जो गौ आधारित जीवन और वेद आधारित ज्ञान से ही संभव है। इसमें न तो कोई अतिश्योक्ति है और न ही कोई धर्मांधता। कहीं ऐसा न हो कि ‘सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया।’

Monday, January 4, 2016

पाकिस्तानी क्यों बना हिंदुस्तानी ?

प्रसिद्ध गायक अदनान सामी 1 जनवरी को पाकिस्तान की नागरिकता छोड़कर भारत के नागरिक बन गए। यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है और उन सब लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो भारत में असहिष्णुता का हल्ला मचाए हुए थे। जिनमें फिल्मी सितारे शाहरूख खान से लेकर सत्ता के गलियारों से खैरात बटोरने वाले कितने ही नामी कलाकार, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। जिन्होंने अपने राजनैतिक आकाओं के इशारे पर बिहार चुनाव से पहले इतना तूफान मचाया कि लगा भारत में कोई मुसलमान सुरक्षित ही नहीं है। जबकि अगर ऐसा होता तो एक मशहूर गायक साधन संपन्न पाकिस्तानी अदनान सामी पाकिस्तान की अपनी नागरिकता छोड़कर भारत का नागरिक क्यों बनता ? साफ जाहिर है कि भारत में उनको पाकिस्तान से ज्यादा सुरक्षा, अमन, चैन, शोहरत और पैसा मिल रहा है। कोई अपना वतन छोड़कर दूसरे वतन में दो ही स्थितियों में पनाह लेता है। पहला तो जब उसके मुल्क में हालात रहने के काबिल न हों और दूसरा तब जब दूसरे मुल्क में हालात और आगे बढ़ने के अवसर अपने मुल्क से ज्यादा बेहतर हों, जैसे तमाम एशियाई लोग अमेरिका की नागरिकता ले लेते हैं। जाहिर है कि अपनी जिंदगी का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा पाकिस्तान में ऐश-ओ-आराम के साथ गुजार चुके अदनान सामी को पाकिस्तानी बने रहने में कोई तकलीफ नहीं थी। वहां भी उनको इज्जत और शोहरत मिल रही थी। फिर भी उन्होंने हिंदुस्तान को अपना घर बनाया और नागरिकता का आवेदन दिया, तो इसलिए कि हिंदुस्तान के हालात और यहां आगे बढ़ने का मौका उन्हें पाकिस्तान से बेहतर लगा।

 अब हर उस हिंदुस्तानी से सवाल पूछना चाहिए, जिसने अवार्ड लौटाने से लेकर तमाम तरह के प्रदर्शन और बयानबाजियां करके भारत की छवि पूरी दुनिया में खराब करने की हरकत की। उनसे पूछना चाहिए कि बिहार चुनाव के पहले देश के हालात में ऐसा क्या हो गया था कि शाहरूख खान जैसे राजसी जीवन जीने वाले को भी हिंदुस्तान में रहना खतरनाक लगने लगा था ? बिहार चुनाव के बाद अचानक ये सारे मेढ़क खामोश क्यों हो गए ? हिंदुस्तान के हालात में ऐसा क्या बदल गया कि अब इन्हें हिंदुस्तान फिर से रहने लायक लगने लगा है ? क्योंकि अब न तो असहिष्णुता के नाम पर कोई बयान आ रहा है, न कोई प्रदर्शन हो रहा है और न ही कोई अवार्ड लौटाए जा रहे हैं।


हमने इस कालम में तब भी लिखा था और आज फिर दोहरा रहे हैं कि जिन लोगों ने ऐसा शोर मचाया, उनके जीवन को भारत में कोई खतरा नहीं था। बस उन्हें तो अपने राजनैतिक आकाओं का हुक्म बजाना था। उन आकाओं का, जिन्होंने इन लोगों को अपने वक्त में तमाम फायदों और तमगो से नवाजा था। इसलिए नहीं कि ये अपने क्षेत्र के अव्वल दर्जे के लोग थे। इनसे भी ज्यादा काबिल और हुनरमंद लोगों की देश में एक लंबी फेहरिस्त तब भी मौजूद थी और आज भी मौजूद है। पर उन्हें कभी कोई अवार्ड नहीं दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपने हुनर को बढ़ाने में जिंदगी खपा दी, पर सत्ताधीशों के तलवे नहीं चाटे। अक्सर ऐसे अवार्ड तो तलवा चाटने वालों को ही मिला करते हैं और जब इतने सालों तक आकाओं के रहमो-करम पर पर ऐश लूटा हो, तो उनकी राजनैतिक मजबूरी के वक्त ‘फर्ज चुकाना’ तो इनके लिए जायज था। इसीलिए नाहक शोर मचाया गया। हिंदुस्तान से ज्यादा सहिष्णुता दुनिया के किसी देश में आज भी नहीं मिलती। गंगा-जमुनी तहजीब का ये वो देश है, जो पिछले 2 हजार साल से दुनिया के हर कोने से आकर यहां बसने वालों को इज्जत से जीने के हक देता आया है। उन्हें न सिर्फ उनके मजहब को मानने और उसका खुला प्रदर्शन करने की छूट देता है, बल्कि उन्हें यहां अपने धर्म का प्रचार करने से भी नहीं रोका जाता। इन अवार्ड लौटाने वालों से पूछो कि मस्जिदों के ऊपर सुबह 5 बजे लाउडस्पीकर जिस तरह से गैरमुस्लिम इलाकों में नमाज का शोर मचाते हैं, वैसा क्या गैरमुसलमान किसी भी मुसलमानी देश में कहीं भी कर सकते हैं ?

 अदनान सामी ने भारत की नागरिकता लेते हुए इस बात को पुरजोर तरीके से कहा कि भारत से ज्यादा सहिष्णु देश कोई दूसरा नहीं है। इस बात के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार को बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने एक ऐसे पाकिस्तानी को भारत की नागरिकता दी, जिसकी परवरिश पाकिस्तान की फौज के उस आलाअफसर के घर हुई, जिसने भारत-पाक युद्ध में भारत की सेना को अच्छी खासी क्षति पहुंचाई थी। जाहिर है कि अदनान की परवरिश भारत विरोधी माहौल में हुई होगी, जैसे कि आज हर पाकिस्तानी बच्चे की होती है। पर जब वो बड़ा होता है और बिना कठमुल्ले दबाव के खुली नजर से हिंदुस्तानी की तरफ देखता है, तो उसे एहसास होता है कि हिंदुस्तान के खिलाफ जो जहर उसे घुट्टी में पिलाया गया, उसमें कोई हकीकत नहीं थी, वह झूठ का अंबार था। अब जबकि भारत के प्रधानमंत्री ने अचानक लाहौर जाकर भारत की सहृदयता का एक और परिचय दिया है, तो कम से कम भारत के मुसलमानों को तो इस बात का बीड़ा उठा ही लेना चाहिए कि असहिष्णुता की बात करने वालों को आईना दिखा दें, ताकि फिर कोई भारत की छवि खराब करने की देशद्रोही हरकत न सके।
 

Monday, December 21, 2015

सरकार का काम नहीं मंदिर चलाना

वृंदावन के बांकेबिहारी मंदिर के सरकारी अधिग्रहण की खबर से वृंदावन उबाल पर है। 500 वर्ष पुराने बांकेबिहार मंदिर पर आश्रित गोस्वामियों के परिवार, संतगण और वृंदावन वासी मंदिर का उत्तर प्रदेशा शासन द्वारा अधिग्रहण किए जाने के खिलाफ धरने-प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं। पिछले 3 दर्शकों से यह मंदिर ब्रज का सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिर है। जिसके दर्शन करने हर कृष्णभक्त एक-न-एक बार वृंदावन अवश्य आता है। संकरी गलियों और मध्युगीन भवन के कारण मंदिर पहुँचने का मार्ग और इसका प्रांगण हमेशा भीड़ से भरा रहता है। जिसके कारण काफी अव्यवस्थाएं फैली रहती है। यही कारण है कि व्यवस्थित  रूप से सार्वजनिक स्थलों पर जाने के अभ्यस्त लोग यहां की अव्यवस्थाएं देखकर उखड़ जाते हैं। ऐसे ही बहुत से लोगों की मांग पर उ.प्र. शासन ने इस मंदिर को व मिर्जापुर के विन्ध्यावासिनी मंदिर को सरकारी नियंत्रण में लेने का फैसला किया है। जिसका काफी विरोध हो रहा है।

मंदिर की व्यवस्था सुधरे, दर्शनार्थियों को कोई असुविधा न हो व चढ़ावे के पैसे का सदुपयोग हो, ऐसा कौन नहीं चाहेगा ? पर सवाल है कि क्या अव्यवस्थाएं सरकारी उपक्रमों में नहीं होती? जितने भी सरकारी उपक्रम चलाए जा रहे हैं, चाहे वह राज्य सरकार के हों या केन्द्र सरकार के प्रायः घाटे में ही रहते हैं। कारण उनको चलाने वाले सरकारी अधिकारी और नेता भ्रष्ट आचरण कर इन उपक्रमों का जमकर दोहन करते हैं। तो कैसे माना जाए कि मंदिरों का अधिग्रहण होने के बाद वही अधिकारी रातो-रात राजा हरीशचन्द्र के अनुयायी बन जाएंगे ? यह संभव नहीं है। पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के राज्यपाल जोकि तिरूपति बालाजी ट्रस्ट के अध्यक्ष थे, अपनी पीड़ा मुझसे हैदराबाद के राजभवन में व्यक्त करते हुए कह रहे थे कि भगवान के काम में भी ये लोग भ्रष्टाचार करते हैं, यह देखकर बहुत दुःख होता है। वे स्वयं बड़े भक्त हैं और राजभवन से कई किलोमीटर दूर नंगे पांव पैदल चल कर दर्शन करने जाते हैं।

हो सकता है कि उ.प्र. सरकार की इच्छा वाकई बिहारी जी मंदिर और बिन्ध्यावासिनी मंदिर की दशा सुधारने की हो पर जनता यह सवाल करती है कि सीवर, सड़क, पानी, बिजली, यातायात और प्रदूषण जैसी विकराल समस्याओं के हल तो कोई सरकार दे नहीं पाती फिर मंदिरों में घुस कर कौन सा करतब दिखाना चाहती है ? लोगों को इस बात पर भी नाराजगी है कि हिन्दुओं के धर्मस्थालों के ही अधिग्रहण की बात क्यों की जाती है? अन्य धर्मों के स्थलों पर सरकार की निगाह क्यों नहीं जाती ? चाहे वह मस्जिद हो या चर्च। दक्षिण भारत में मंदिरों का अधिग्रहण करके सरकारों ने उसके धन का अन्य धर्मावलंबियों के लिए उपयोग किया है, इससे हिन्दू समाज में भारी आक्रोश है।

बेहतर तो यह होगा कि मंदिरों का अधिग्रहण करने की बजाय सभी धर्मों के धर्मस्थलों के प्रबंधन की एक सर्वमान्य रूपरेखा बना दी जाए। जिसमें उस धर्म स्थल के रख-रखाव की बात हो, यात्रियों की सुविधाओं की बात हो, उस धर्म के अन्य धर्मस्थलों के जीर्णोंद्धार की बात हो और उस धर्म के मानने वाले निर्धन लोगों की सेवा करने के व्यवहारिक नियम बनाए जाएं। साथ ही उस मंदिर पर आश्रित सेवायतों के रखरखाव के भी नियम बना दिए जाएं जिससे उनके परिवार भी सुख से जी सकें। इसके साथ ही धर्मस्थलों की आय का एक निर्धारित फीसदी भविष्य निधि के रूप में जमा करा दिए जाएं। इस फार्मूले पर सभी धर्म के लोगों को अमल करना अनिवार्य हो। इसमें कोई अपवाद न रहे। जो धर्म स्थल इस नियम का पालन न करे उसके अधिग्रहण की भूमिका तो बनाई जा सकती हैं पर जो धर्मस्थल इस नियमावली को पालन करने के लिए तैयार हो उसे छेड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मंदिरों के साथ उनके उत्सवों और सेवापूजा की सदियों पुरानी जो परंपरा है उसे कोई सरकारी मुलाजिम नहीं निभा सकता। इसलिए भी मंदिरों का अधिग्रहण नहीं होना चाहिए।

आज से 12 वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मा. न्यायाधीशों के अनुरोध पर मैं 2 वर्ष तक बांकेबिहार मंदिर वृंदावन का अवैतनिक रिसीवर रहा था। उस दौरान मंदिर की व्यवस्थाओं का गहराई से देखने और समझने का मौका मिला। जितना बन पड़ा उसमें सुधार करने की कोशिश की। जिसे सभी ने सराहा। पर जो सुधार करना चाहता था उस पासंग भी नहीं कर पाया क्योंकि गोस्वामीगणों के बीच यह विवाद, मुकद्दमेबाजी और आक्रामक रवैए ने कोई बड़ा सुधार होने नहीं दिया। हार कर मैंने बिहारीजी और दानघाटी गोवर्द्धन मंदिर के रिसीवर पद से इस्तीफा दे दिया। मेरा मन स्पष्ट था कि मुझे ब्रज में भगवान के लीलास्थालीयों के जीर्णोद्धार का काम करना है और मंदिरों की राजनीति या उनके प्रबंधन मंे नहीं उलझना है। आज भी मैं इसी बात पर कायम हूं। इसलिए बांकेबिहारी मंदिर के इस विवाद में मेरी कोई रूची नहीं है। पर जनता की भावना की हरेक को कद्र करना चाहिए। यह सही है कि मंदिर का अधिग्रहण होने से वृंदावन के समाज को बहुत तकलीफ होगी। पर दूसरी तरफ मंदिर की व्यवस्था में सुधार भी उतना ही जरूरी है। जिस पर संतों, गोस्वामीगणों को मिल-बैठकर समाधान खोजना चाहिए। गोस्वामियों को चाहिए कि मंदिर की व्यवस्थाओं का फार्मूला तैयार करें और उन सुधारों को फौरन लागू करके दिखाएं और तब सरकार को यह सोचने पर मजबूर करें कि मंदिर का अधिग्रहण करके वह क्या हासिल करना चाहती है। तब इस अधिग्रहण विरोधी आंदोलन की धार और भी तेज होगी
 

Monday, June 22, 2015

बहुसंख्यक मुसलमान आक्रामक क्यों हो जाते हैं

 धर्मांधता किसी की भी हो, हिंदू, सिक्ख, मुसलमान या ईसाई, मानवता के लिए खतरा होती है। जिस-जिस धर्म को राजसत्ता के साथ जोड़ा, वही धर्म जनविरोधी अत्याचारी और हिंसक बन गया। गत दो-तीन दशकों से इस्लाम धर्म के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। 2005 में समाजशास्त्री डा.पीटर हैमण्ड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टेररिज्म एण्ड इस्लाम - द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट’। इसके साथ ही द हज के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकलकर आए हैं, वह न सिर्फ चैंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।

 उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमेरिका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, ऑस्ट्रेलिया में 1.5 प्रतिशत, कनाडा में 1.9 प्रतिशत, चीन में 1.8 प्रतिशत, इटली में 1.5 प्रतिशत और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना धर्मप्रचार शुरु कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क में उनकी संख्या 2 प्रतिशत है, जर्मनी में 3.7 प्रतिशत, ब्रिटेन में 2.7 प्रतिशत, स्पेन मे 4 प्रतिशत और थाईलैण्ड में 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहाँ ‘हलाल’ का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं। इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है। जिन देशों में ऐसा हो चुका वह है, वे फ्रांस, फिलीपीन्स, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी ‘आर्थिक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फिर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 फीसदी), इजराइल (16 फीसदी), केन्या (11 फीसदी), रूस (15 फीसदी) में हो चुका है।
 जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखायें’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 फीसदी) और भारत (मुसलमान 22 फीसदी) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 फीसदी), चाड (मुसलमान 54.2 फीसदी)  और लेबनान (मुसलमान 59 फीसदी) में देखा गया है। शोधकर्ता और लेखक डॉ पीटर हैमण्ड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 फीसदी), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 फीसदी) में देखा गया है।
 किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 फीसदी हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बांग्लादेश (मुसलमान 83 फीसदी), मिस्त्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 फीसदी), ईरान (98 फीसदी), ईराक (97 फीसदी), जोर्डन (93 फीसदी), मोरक्को (98 फीसदी), पाकिस्तान (97 फीसदी), सीरिया (90 फीसदी) व संयुक्त अरब अमीरात (96 फीसदी) में देखा जा रहा है।
 ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बिना धर्मांधता के चश्मे के हर किसी को देखना और समझना चाहिए। चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों। अब फर्ज उन मुसलमानों का बनता है, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, वे संगठित होकर आगे आएं और इस्लाम धर्म के साथ जुड़ने वाले इस विश्लेषणों से पैगंबर साहब के मानने वालों को मुक्त कराएं, अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही बाकी दुनिया का।

Monday, January 12, 2015

चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या

आज से लगभग 15 वर्ष पहले अमेरिका की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने दुनियाभर के व्यवसायों का सर्वेक्षण करके यह रिपोर्ट छापी थी कि दुनिया में सबसे तनावपूर्ण पेशा पत्रकारिता का है। फौजी या सिपाही जब लड़ता है, तो उसके पास हथियार होते हैं, नौकरी की गारंटी होती है और शहीद हो जाने पर उसके परिवार की परवरिश की भी जिम्मेदारी सरकारें लेती हैं। पर, एक पत्रकार जब सामाजिक कुरीतियों या समाज के दुश्मनों या खूंखार अपराधियों या भ्रष्ट शासनतंत्र के विरूद्ध अपनी कलम उठाता है, तो उसके सिर पर कफन बंध जाता है।

यह सही है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकारिता के स्तर में भी गिरावट आयी है और निष्ठा और निष्पक्षता से पत्रकारिता करने वालों की संख्या घटी है, जो लोग ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता करते हैं, उनके साथ अगर कोई हादसा हो, तो यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। पर कोई निष्ठा के साथ ईमानदारी से अगर अपना पत्रकारिता धर्म निभाता है और उस पर कोई आंच आती है, तो जाहिर सी बात है कि न केवल पत्रकारिता जगत को, बल्कि पूरे समाज को ऐसे पत्रकार के संरक्षण के लिए उठ खड़े होना चाहिए।

फ्रांस की मैंगजीन चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या ने पूरे दुनिया के पत्रकारिता जगत को हिला दिया है। फिर भी जैसा विरोध होना चाहिए था, वैसा अभी नहीं हुआ है। सवाल उठता है कि इस तरह किसी पत्रिका के कार्यालय में घुसकर पत्रकारों की हत्या करके आतंकवादी क्या पत्रकारिता का मुंह बंद कर सकते हैं ? वो भी तब जब कि आज सूचना क्रांति ने सूचनाओं को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाने में इतनी महारथ हासिल कर ली है और इतने विकल्प खड़े कर दिए हैं कि कोई पत्रिका न भी छपे, तो भी ई-मेल, एसएमएस, सोशल-मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से सारी सूचनाएं मिनटों में दुनियाभर में पहुंचायी जा सकती हैं।

शायद, ये आतंकवादी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि जो भी कोई इस्लाम के खिलाफ या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करेगा, उसे इसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाएगा। आतंकवादियों का तर्क हो सकता है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें कोई कमी नहीं। उनका यह भी तर्क हो सकता है कि दूसरे धर्म के अनुयायियों को, चाहें वे पत्रकार ही क्यों न हों, उनके धर्म के बारे में टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। पर सच्चाई यह है कि दुनिया का कोई धर्म और उसको मानने वाले इतने ठोस नहीं हैं कि उनमें कोई कमी ही न निकाली जा सके। हर धर्म में अनेक अच्छाइयां हैं, जो समाज को नैतिक मूल्यों के साथ जीवनयापन का संदेश देती हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि हर धर्म में अनेकों बुराइयां हैं। ऐसे विचार स्थापित कर दिए गए हैं कि जिनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे ही विचारों को मानने वाले लोग ज्यादा कट्टरपंथी होते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों न हों। इसलिए उस धर्म के अनुयायियों को इस बात का पूरा हक है कि वे अपने धर्मगुरूओं से सवाल करें और जहां संदेह हो, उसका निवारण करवा लें। उद्देश्य यह होना चाहिए कि उस धर्म के मानने वाले समाज से कुरीतियां दूर हों। ऐसी आलोचना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिसके ताकतवर धर्मगुरू अपनी कार्यप्रणाली के आचरण पर कोई टिप्पणी सुनना बर्दाश्त करते हों। जो भी ऐसी कोशिश करता है, उसे चुप कर दिया जाता है और फिर भी नहीं मानता, तो उसे आतंकित किया जाता है और जब वह फिर भी नहीं मानता, तो उसकी हत्या तक करवा दी जाती है। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि जिन धर्मों में मान्यताओं और विचारों के निरंतर मूल्यांकन की छूट होती है, वे धर्म बिना किसी प्रचारकों की मदद के लंबे समय तक पल्लवित होते रहते हैं और समयानुकूल परिवर्तन भी करते रहते हैं। सनातन धर्म इसका सबसे ठोस उदाहरण है। जिसमें मूर्ति पूजा से लेकर निरीश्वरवाद व चार्वाक तक के सिद्धांतों का समायोजन है। इसलिए यह धर्म हजारों साल से बिना तलवार और प्रचारकों के जोर पर जीवित रहा है और पल्लवित हुआ है। जबकि प्रचारकों और तलवार के सहारे जो धर्म दुनिया में फैले, उसमें बार-बार बगावत और हिंसा की घटनाओं के तमाम हादसों से इतिहास भरा पड़ा है।
 
रही बात फ्रांस के पत्रकारों की, तो देखने में यह आया है कि यूरोप और अमेरिका के पत्रकार आमतौर पर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पक्षों पर टिप्पणी करने में कोई कंजूसी नहीं बरतते। उन्हें जो ठीक लगता है, वह खुलकर हिम्मत से कहते हैं। ऐसे में यह मानने का कोई कारण नहीं कि फ्रांस के पत्रकारों ने सांप्रदायिक द्वेष की भावना से पत्रकारिता की है, क्योंकि यही पत्रकार अपने ही धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप तक का मखौल उड़ाने में नहीं चूके थे। इसलिए इनकी हत्या की भत्र्सना की जानी चाहिए और पूरी दुनिया के पत्रकारिता जगत को और निष्पक्ष सोच रखने वाले समाज को ऐसी घटनाओं के विरूद्ध एकजुट होकर खड़े होना चाहिए।

Monday, August 25, 2014

आस्था के कवच में शोर



पर्यावरण में प्रदूषण पर चिंता कुछ कम हो गयी दिखती है | पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जतायी जा रही थी | अब ऐसा नहीं दीखता या तो हमने ठीक ठाक कर लिया है या आँखें फेर ली हैं | नज़र डालने से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए | यानी कि हमने आँखे मूँद ली हैं | एसा क्यों करना पड़ा इसकी चर्चा आगे करेंगे लेकिन फिलहाल यह मुद्दा तात्कालिक तौर पर भले ही ज्यादा परेशान न करे लेकिन इसके असर प्राण घातक समस्याओं से कम नहीं हैं |
हाल ही मैं ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ सक्रियता दिखी है | खास तौर पर धार्मिक स्थानों पर लाउडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता बढ़ती जा रही है | मनोवैज्ञानिक और स्नायुतन्त्रिकाविज्ञान के विशेषग्य प्रायोगिक तौर पर अध्ययन ज़रूर कर रहे हैं लेकिन उनके शोध अध्ययन सामजिक स्तर पर जागरूकता या राजनैतिक स्तर पर दबाव पैदा करने में बिलकुल ही बेअसर हैं | कुछ स्वयमसेवी संस्थाएं ज़रूर हैं जो गाहेबगाहे आवाज़ उठाती हैं लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता | हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती | और शायद इसलिए नहीं समझी जाती क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं |
80 और 90 के दशक में जब अंधाधुंध विकास के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई थी तब उद्योगीकरण, बड़े बाँध, रासायनिक खाद और मिलावट जैसे मुद्दों पर बड़ी तीव्रता के साथ विरोध के स्वर उठे थे | लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि प्रदूषण पर चिंता हलकी पड़ गयी | तब इस मुद्दे पर बहसों के बीच प्रदूषण विरोधियों को यह समझाया गया कि विकास के लिए प्रदूषण अपरिहार्य है | यानी निरापत विकास की कल्पना फिजूल की बात है | साथ ही जीवन की सुरक्षा के लिए विकास के इलावा और कोई विकल्प सूझता नहीं है | विकास के तर्क के सहारे आज भी हम नदियों के प्रदूषण और वायु प्रदूषण को सहने के लिए अभिशप्त हैं |
जब तक हमें कोई दूसरा उपाय ना सूझे तब तक आर्थिक विकास के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है | लेकिन धार्मिक स्थानों से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि प्रदूषण तक ही नहीं बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे – यह स्वीकारना मुश्किल है |
क़ानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है लेकिन इस क़ानून का पालन कराने में सरकारी एजंसियां बिलकुल असहाय नज़र आती हैं | धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिलकुल बेखौफ बैठी हुई है | और इसके बेख़ौफ़ हो पाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के लिए कुछ भी करने की छूट देती है |
जहाँ तक सवाल आस्था या धार्मिक विश्वास का है तो समाज के जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या द्रढता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दिन रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही नहीं है | ये विद्वान क्या मजबूती के साथ यह नहीं कह सकते कि इसका आस्था या धर्म से कोई लेना देना नहीं है | आस्था बिलकुल निजी मामला है | धार्मिक विश्वास नितांत व्यक्तिगत बात है | उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिलकुल ही नाजायज़ है |
चलिए जागरूक समाज हो विद्वत समाज हो या क़ानून पालन करने वाली संस्थाएं हों या फिर राजनितिक दल ये सब अपनी सीमाओं और दबावों का हवाला देकर मूक दर्शक बनीं रह सकती हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है | आस्था और धार्मिक विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखरी उपाय दीखता है | यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि अदालतों को भी साक्ष के तौर पर समाज के जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए | आस्ता और धार्मिक क्षेत्र की जटिल समस्याओं के निवारण के लिए न्यायपालिका को दार्शनिकों की भी ज़रूरत पड़ सकती है |