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Monday, June 30, 2014

मोदी सरकार का मूल्यांकन करने में जल्दबाजी न करें

    महंगाई कुछ बढ़ी है और कुछ बढ़ने के आसार हैं। इसी से आम लोगों के बीच हलचल है। जाहिर है कि सीमित आय के बहुसंख्यक भारतीय समाज को देश की बड़ी-बड़ी योजनाओं से कोई सरोकार नहीं होता। उसे तो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में राहत चाहिए। थोड़ी-सी हलचल उसे विचलित कर देती है। फिर कई छुटभइये नेताओं को भड़काने का मौका मिल जाता है। यह सही है कि जब-जब महंगाई बढ़ती है, विपक्षी दल उसके खिलाफ शोर मचाते हैं। पर इस बार परिस्थितियां फर्क हैं। नरेंद्र मोदी को सत्ता संभाले अभी एक महीना भी नहीं हुआ। इतने दिन में तो देश की नब्ज पकड़ना तो दूर प्रधानमंत्री कार्यालय और अपने मंत्रीमंडल को काम पर लगाना ही बड़ी जिम्मेदारी है। फिर दूरगामी परिणाम वाले नीतिगत फैसले लेने का तो अभी वक्त ही कहां मिला है।
    वैसे भी अगर देखा जाए तो आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी है। अब तक जितनी भी सरकारें बनीं, वे या तो कांग्रेस की थीं या कांग्रेस से निकले हुए नेताओं की थी। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार भी उन बैसाखियों के सहारे टिकी थी, जिनके नेता कांग्रेस की संस्कृति में पले-बढ़े थे। इसलिए उसे भी गैर कांग्रेसी सरकार नहीं माना जा सकता। जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार पूरी तरह गैर कांग्रेसी है और संघ और भाजपा की विचारधारा से निर्देशित है। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सरकार अपनी नीतियों और कार्यशैली में कुछ ऐसा जरूर करेगी, जो पिछली सरकारों से अलग होगा, मौलिक होगा और देशज होगा। जरूरी नहीं कि उससे देश को लाभ ही हो। कभी-कभी गलतियां करके भी आगे बढ़ा जाता है। पर महत्वपूर्ण बात यह होगी कि देश को एक नई सोच को समझने और परखने का मौका मिलेगा।
    नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर सबसे बड़ा आरोप यह लग रहा है कि इसके मंत्रिमंडल में नौसिखियों की भरमार है। इसलिए इस सरकार से कोई गंभीर फैसलों की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह सोच सरासर गलत है। आज दुनिया के औद्योगिक जगत में महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका में नौजवानों की भरमार है। जाहिर है कि ये कंपनियां धर्मार्थ तो चलती नहीं, मुनाफा कमाने के लिए बाजार में आती हैं। ऐसे में अगर नौसिखियों के हाथ में बागडोर सौंप दी जाए, तो कंपनी को भारी घाटा हो सकता है। पर अक्सर ऐसा नहीं होता। जिन नौजवानों को इन औद्योगिक साम्राज्यों को चलाने का जिम्मा सौंपा जाता है। उनकी योग्यता और सूझबूझ पर भरोसा करके ही उन्हें छूट दी जाती है। परिणाम हमारे सामने है कि ऐसी कंपनियां दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रही हैं। मोदी मंत्रिमंडल में जिन्हें नौसिखिया समझा जा रहा है, हो सकता है वे अपने नए विचारों और छिपी योग्यताओं से कुछ ऐसे बुनियादी बदलाव करके दिखा दें, जिसका देश की जनता को एक लंबे अर्से से इंतजार है।
    रही बात महंगाई की तो विशेषज्ञों का मानना है कि सब्सिडी की अर्थव्यवस्था लंबे समय तक नहीं चल सकती। लोगों को परजीवी बनाने की बजाय आत्मनिर्भर बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए कुछ कड़े निर्णय तो लेने पड़ेंगे। जो शुरू में कड़वी दवा की तरह लगंेगे। पर अंत में हो सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था को निरोग कर दें। हां, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण सवाल कालेधन को लेकर है। कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के लिए भाजपा ने विदेशों में जमा कालाधन भारत लाने की मुहिम शुरू की थी। जिसे बड़े जोरशोर से बाबा रामदेव ने पकड़ लिया। बाबा ने सारे देश में हजारों जनसभाएं कर और अपने टी.वी. पर हजारों घंटे देशवासियों को भ्रष्टाचार खत्म करने और विदेशों में जमा कालाधन वापिस लाने के लिए कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। बाबा मोदी सरकार से आश्वासन लेकर फिर से अपने योग और आयुर्वेद के काम में जुट गए हैं। अब यह जिम्मेदारी मोदी सरकार की है कि वह यथासंभव यथाशीघ्र कालाधन विदेशों से भारत लाएं। क्योंकि जैसा कहा जा रहा था कि ऐसा हो जाने पर हर भारतीय विदेशी कर्ज से मुक्त हो जाएगा और अर्थव्यवस्था में भारी मजबूती आएगी। इसके साथ ही देश में भी कालेधन की कोई कमी नहीं है। चाहे राजनैतिक गतिविधियां हों या आर्थिक या फिर आपराधिक, कालेधन का चलन बहुत बड़ी मात्रा में आज भी हो रहा है। इसे रोकने के लिए कर नीति को जनोन्मुख और सरल बनाना होगा। जिससे लोगों में कालाधन संचय के प्रति उत्साह ही न बचे। जिनके पास है, वे बेखौफ होकर कर देकर अपने कालेधन को सफेद कर लें।
    जैसा कि हमने मोदी की विजय के बाद लिखा था, राष्ट्र का निर्माण सही दिशा में तभी होगा, जब हर भारतीय अपने स्तर पर, अपने परिवेश को बदलने की पहल करे। नागरिक ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित हो, इसके लिए प्रधानमंत्री को जनता का विशेषकर युवाओं का राष्ट्रव्यापी आह्वान करना होगा। उन्हें आश्वस्त करना होगा कि अगर वे जनहित में सरकारी व्यवस्था से जवाबदेही या पारदर्शिता की अपेक्षा रखते हैं, तो उन्हें निराशा नहीं मिलेगी। इसकी शुरूआत नरेंद्र भाई ने कर दी है। दिल्ली की तपती गर्मी में ठंडे देशों में दौड़ जाने वाले बड़े अफसर और नेता आज सुबह से रात तक अपनी कुर्सियों से चिपके हैं और लगातार काम में जुटे हैं। क्योंकि प्रधानमंत्री हरेक पर निगाह रखे हुए हैं। उनका यह प्रयास अगर सफल रहा, तो राज्यों को भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। साथ ही नरेंद्र भाई को अब यह ध्यान देना होगा कि जनता की अपेक्षाओं को और ज्यादा न बढ़ाया जाए। जितनी अपेक्षा जनता ने उनसे कर ली हैं, उन्हें ही पूरा करना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए हम सबको थोड़ा सब्र रखना होगा और देखना होगा कि नई सरकार किस तरह बुनियादी बदलाव लाने की तरफ बढ़ रही है।

Monday, January 20, 2014

कब तक चलेगी राहुल गांधी की दुविधा

17 जनवरी को एक बार फिर कांग्रेस की आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं को निराश किया। कुछ दिन पहले बंगाल के एक अंग्रेजी दैनिक में प्रमुखता से खबर छपी थी कि राहुल गांधी को जल्दी ही प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है। उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 10 साल के कार्यकाल में तीसरे संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए इस खबर को और पक्का कर दिया जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले चुनाव के बाद अगर यूपीए की सरकार आती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे। राहुल गांधी पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि हमारे पास बहुत काबिल युवा नेतृत्व है, जो देश की बागडोर संभाल सकता है। इस के बाद सत्ता के गलियारों में चर्चा जोरों पर थी कि 17 जनवरी के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित करके राहुल गांधी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाएगा और मनमोहन सिंह अपना इस्तीफा सौंप देंगे। इस खबर के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बनकर राहुल गांधी अच्छा चुनाव प्रचार कर पाएंगे। पर 17 जनवरी के अधिवेशन में श्रीमती सोनिया गांधी ने ऐसी सब अटकलों पर विराम लगा दिया।
 
भाजपा को इससे एक बड़ा हथियार मिल गया यह कहने के लिए कि नरेंद्र मोदी के कद के सामने राहुल गांधी का कद खड़ा नहीं हो पा रहा था, इसलिए वे मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। पर कांग्रेस के प्रवक्ता का कहना था कि उनके दल में  चुनाव परिणामों से पहले प्रधानमंत्री पद का कोई नया दावेदार का नाम तय करने की परंपरा नहीं रही है, इसलिए राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की गई। कारण जो भी हो राहुल गांधी की छवि आज तक एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन पायी है। फिर वो चाहे उनकी संकोचपूर्ण निर्णय प्रक्रिया हो, या ढीला ढाला परिधान। कभी लंबी दाढ़ी बढ़ी हुई, कभी क्लीन शेव। जो आज तक यह भी तय नहीं कर पाये कि उन्हें देश के सामने कैसा व्यक्तित्व पेश करना है। उनके नाना गुलाब का फूल, जवाहर कट जैकेट, शेरवानी और गांधी टोपी से जाने जाते थे। सुभाषचंद्र बोस फौजी वर्दी से, सरदार पटेल अपनी चादर से, मौलाना आजाद अपनी दाढ़ी व तुर्की टोपी से, इंदिरा गांधी अपने बालों की सफेद पट्टी व रूद्राक्ष की माला से पहचानी जाती थीं। पर राहुल गांधी ने अपनी ऐसी कोई पहचान नहीं बनाई। उनके भाषणों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई हड़बड़ाहट में बोल रहा हो। इससे न तो वे वरिष्ठ नागरिकों को प्रभावित कर पाते हैं और न ही युवाओं को।
 
कायदे से तो राहुल गांधी को यूपीए-2 में शुरू से ही उपप्रधानमंत्री का पद ले लेना चाहिए था। जिससे उन्हें अनुभव भी मिलता, गंभीरता भी आती और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी अपने आप बन जाती। लगता है कि राहुल गांधी इस भ्रम में रहे कि अपने पिता की तरह 1984 के चुनाव परिणामों की तर्ज पर वे भी पूर्ण बहुमत पाने के बाद ही प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। अब तो इसकी संभावना और भी कम हो गई है। ऐसे में राहुल गांधी लगता है कि अब तक बहुत घाटे में रहे। अगर ऐसा ही होना था तो शुरू से ही सोनिया गांधी को प्रियंका गांधी को आगे कर देना चाहिए था। प्रियंका गांधी काफी हद तक इस कमी को पूरा कर लेती। क्योंकि लोग उनके व्यक्तित्व में इंदिरा गांधी कि झलक देखते हैं। पर राबट वडेरा के विवाद उठाये जाने के बाद अब वह सम्भावना भी कम हो गयी। वैसे तो यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। हां यह जरूर है कि राहुल गांधी की दुविधा से नरेंद्र मोदी के लिए राह आसान बनी रही। अब उनके विरोध में कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं खड़ा है। आज तो हालत यह है कि देश में काफी तादाद में लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। इनमें वे लोग भी हैं, जो आम आदमी पार्टी जैसे दलों की तरफ टिकट की आस में भाग रह हैं।
 

कांग्रेस की नैय्या डांवाडोल दिखती रही है। और अब तक की स्तिथि की समीक्षा करें तो उसके पार लगने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। वैसे एक अनुभव सिद्ध तथ्य यह भी है कि आज की तेज़ रफतार राजनीति में कब क्या स्तिथियां बनती हैं इसका पूर्वानुमान लगाना भी जोखिम भरा होता है। लोकसभा चुनावों में अभी 4-5 महीने बाकी हैं इस बीच कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष अपनी ऊर्जा कैसे बनाये रखेगा सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है।

Monday, August 26, 2013

आसाराम कांड से बाबा लोग बेचैन

आसाराम कांड ने देश के बाबा लोगों को बेचैन कर दिया है। हफ्ते भर से आसाराम के बहाने मीडिया में बहस जारी है। लेकिन यह बहस हमेशा की तरह फौरी तौर पर उस सनसनी तक ही सीमित है जिसकी उम्र आम तौर पर चार छह दिन से ज्यादा नहीं होती। फिर भी यह कांड इसलिए गंभीर विचार विषयों की मांग कर रहा है। क्योंकि यह धर्म, व्यापार, अपराध और राजनीति के दुश्चक्र का भी मामला है। वैसे धर्म का मामला तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता। किसी पंच या धार्मिक संगठन से भी कोई बात नहीं बनती। जो थोड़ा बहुत समाज सुधारक का प्रचार था वह भी जाता रहा।
 
रही बात व्यापार की तो यह सबके सामने है कि ऐसे कथित धार्मिक साम्राज्य बिना व्यापार के खड़े ही नहीं हो सकते और एक बार यह व्यापार चल पड़ता है तो दूसरी ताकतें खुद व खुद आने लगती हैं। इन्हीं में एक ताकत कानून की फिक्र न करने की भी ताकत है। आसाराम इसी की वजह से पकड़ में आते जा रहे हैं। बेखौफ होना हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता। पिछले सात दिनों में आसाराम के प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने आसाराम की छवि को जिस तरह से खौफनाक बनाया है उससे आसाराम का बचाव कम हुआ है और उन्हें मुश्किल में ड़ालने में काम ज्यादा हुआ है। आसाराम के प्रतिष्ठान के पास प्रशिक्षित प्रबंधकों की भी कमी है। वरना वे प्रबंधक जरुर सोच लेते कि एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के लिए छवि का क्या महत्व होता है। यानि इस कांड में आसाराम की छवि को जिस तरह खौफनाक बनाया है। उससे उसके प्रतिष्ठान के व्यापार पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा ? इसलिए उनके अनुयायी श्रद्धालु कम और ग्राहक ज्यादा थे।
 
तीसरा तत्व अपराध का है। मौजूदा मामला सीधे सीधे अपराधों का ही है। जैसा मीडिया पर दिखता है उससे साफ है कि उन्होंने हद ही कर दी है। एक के बाद एक होते कांड उनके अनुयायी भी सहन नहीं कर पायेंगे और फिर भारतीय मानस आत को बिल्कुल पंसद नहीं करता। अपराधों के मामले में तो वह तुरन्त प्रक्रिया करने लगते हैं। देश के लोगों के इस स्वभाव को आसाराम समझ नहीं रहे हैं। उन्हें अपने अनुयायियों की संख्या पर भ्रमपूर्ण घमंड है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि अन्ना कहां से कहां आ गए हैं और उनके अनुयायी कहां चले गये हैं।

रही बात राजनीति की तो आसाराम राजनीति से भी बाज नहीं आते। हो सकता है कि अनुयायियों की संख्या की बात का जिक्र करके वे राजनीतिक व्यवस्था भी इसलिए धमकाते रहते हो ताकि उनके काम में अड़चन डालने से कोई जरूरत न करे। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र के अनुयायियों की संख्या के बल पर ही बनी होती है। हालांकि आसाराम ने राजनीतिकों पर मखौल जैसी टिप्पणीयां करके एक कवच बनाने की कोशिश की थी। यानि उन्होंने आम तौर पर की जाने वाली प्रेपबद्धी की थी। अभी कुछ महीनों पहले उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसी खिल्लियां इसलिए उड़ायी जाती हैं कि अगर कानूनी तौर पर आसाराम जैसे लोगो पर कोई कार्यवाही हो तो कहा जा सके ये तो बदले की कार्यवाही है। खैर यह कोई नयी या बड़ी बात नहीं है।
 
नयी बात यह है आसाराम कांड ने उन जैसे तमाम बाबाओं को बेचैन कर दिया है। और शायद इसलिए दूसरे ऐसे बाबाओं का धु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। वरना साम्प्रदायिकता, धर्म या आस्था जैसे मामलों में प्रभावित पक्ष एक दम इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन आसाराम कांड के मामले में वे आसाराम से बचते नजर आ रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि आसाराम कांड को लेकर विज्ञाननिष्ठ और अंधविश्वास विरोधी शक्तियां काफी मजबूती से अपना पक्ष रखती नजर आ रही हैं। इसे सामाजिक व्यवस्था के लिए शुभ लक्षण माना जाना चाहिए। लेकिन वहां भी दिक्कत यह है कि तर्कशास्त्री अभी कोई अकादमिक पाक्य नही बना पाये है जो अंधविश्वास पर सीधे चोट कर सके और आम आदमी को आसानी से बता सके कि चमत्कार या इन्द्रीअतीत शक्तियों की बातों से वै कैसे ठगे जाते है या आम जन के जीवन पर कैसा बुरा प्रभाव पडता है। ये सारी बाते भले ही हमे साफ साफ न दिखती हो लेकिन इतना तो हो ही गया है कि अब समाज प्रतिवाद के लिए तैयार हो गया है बस अब जरूरत है ऐसे मामलों मे एक सार्थक संवाद की है।

Monday, June 17, 2013

एफटीआईआई सुधारों के लिए मनीष तिवारी प्रयास करें

सूचना और प्रसारण मंत्रालय में कभी इन्दिरा गांधी मंत्री हुआ करती थीं। आज उसी मंत्रालय का भार प्रखर वक्ता, वकील व युवा नेता मनीष तिवारी के कंधों पर है। जाहिर है कि इस मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं को मनीष तिवारी से कुछ नया और ऐतिहासिक कर गुजरने की उम्मीद है। ऐसी ही एक संस्था पुणे का भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) है, जो देश-विदेश में अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद नौकरशाही की कोताही के कारण पिछले 6 दशकों से लावारिस संतान की तरह उपेक्षित पड़ा है। इस संस्थान की गणना विश्व के 12 सर्वश्रेष्ठ फिल्म संस्थानों में से की जाती है। संस्थान के छात्रों ने जहां फिल्म जगत मे सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय अवार्ड जीते हैं। वही इसके छात्रों ने चाहे, वे फिल्मी कलाकार हों अन्य विधाओं के माहिर हों, सबने अपनी सृजनात्मकता से कामयाबी की मंजिले तय की हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्र बहुत गंभीरता से अध्ययन करते हैं और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक देश का सर्वश्रैष्ठ ज्ञान इन्हें देते हैं । बावजूद इसके यहां के प्राध्यापकों को न तो किसी विश्वविद्यालय केसमान दर्जा प्राप्त है। न ही वेतनमान। इतना ही नही इतने मेधावी छात्र 3 वर्ष का पोस्ट-ग्रेजुएट पाठयक्रम पूरा करने के बावजूद केवल 1 डिप्लोमा सर्टिफिकेट पाकर रह जाते हैं। उन्हे स्नातकोत्तर (मास्टर) की डिग्री तक नहीं दी जाती, जो इनके साथ सरासर नाइंसाफी है।
 
यह बात दूसरी है कि एफटीआईआई के छात्रों को डिग्री के बिना भी व्यवसायिक क्षेत्र में कोई नुकसान नहीं होता। क्योंकि जैसा शिक्षण वे पाते हैं और उनकी जो ‘ब्रांड वैल्यू‘ बनती है, वो उन्हें बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक काम दिलाने के लिए काफी होती है। यही कारण है कि यहां के छात्र वर्षों तक अपना डिप्लोमा सर्टिफिकेट तक लेने नहीं आते। पर जो छात्र देश के अन्य विश्वविद्यालयों में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देना चाहते हैं या इस क्षेत्र मं रिसर्च करना चाहते हैं, उन्हे काफी मुश्किल आती है। क्योंकि इस डिप्लोमा को इतनी गुणवत्ता के बावजूद विश्वविद्यालयों मे किसी भी में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री की मान्यता प्राप्त नहीं है। इससे यह छात्र शिक्षा जगत में आगे नहीं बढ़ पाते ।
 
आज जब फिल्मों और टेलीविजन का प्रचार प्रसार पूरे देश और दुनिया में इतना व्यापक हो गया है तो जाहिर है कि फिल्म तकनीकी की जानकारी रखने वाले लोगों की मांग भी बहुत बढ़ गयी है। किसी अच्छी शैक्षिक संस्था के अभाव में देश भर में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देने वाली निजी संस्थाओं की बाढ़ आ गयी है। अयोग्य शिक्षकों के सहारे यह संस्थायें देश के करोड़ों नौजवानों को मूर्ख बनाकर उनसे मोटी रकम वसूल रही हैं। इनसे कैसे उत्पाद निकल रहे हैं, यह हमारे सामने है। टीवी चैनलों की संख्या भले ही सैंकड़ों में हो पर उनके ज्यादातर कार्यक्रमों का स्तर कितना भूफड और सड़कछाप है यह भी किसी से छिपा नहीं।
 
समयबद्ध कार्यक्रम के तहत डिग्री हासिल करने की अनिवार्यता न होने के कारण एफ टी आई आई के बहुत से छात्र वहां वर्षों पडे़ रहकर यूं ही समय बरबाद करते हैं। इससे संस्थान के शैक्षिक वातावरण पर विपरीत प्रभाव पडता है। वहां वर्षों से अकादमिक सत्र अनियमित चल रहे हैं । 1997 से आज तक वहां दीक्षांत समारोह नहीं हुआ। एफ टी आई आई की अव्यवस्थाओं पर सूचना प्रसारण मंत्रालय की अफसरशाही हर बार एक नई समिति बैठा देती है। जिसकी रिपोर्ट धूल खाती रहती है। पर सुधरता कुछ भी नहीं। कायदे से तो एफ टी आई आई को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्व संस्था होना चाहिए और इसे आईआईटी या एआईआईएमएस जैसा दर्जा प्राप्त होना चाहिए। पर सूचना प्रसारण मंत्रालय इसे छोड़ने को तैयार नहींहैं । वही हाल है कि एक मां अपने लाड़ले को से गोद से उतारेगी नहीं तो उसका विकास कैसे होगा? अच्छी मां तो कलेजे पर पत्थर रखकर अपने लाड़ले को दूर पढ़ने भेज देती है, जिससे वह आगे बढ़े।
 
एफटीआईआई के सुधारों के लिए एक विधेयक तैयार पड़ा है। केन्द्रीय मंत्री मनीष तिवारी को इस विधेयक को केबिनेट मे पास करावकर संसद मे प्रस्तुत करना है। यह एक ऐसा विधेयक है, जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्ती नहीं है। सबका समर्थन उन्हें मिलेगा और इस तरह मनीष तिवारी अपने छोटे से कार्यकाल में भारतीय सिनेमा जगत में एक इतिहास रच जायेंगे। वैसे भी यह अजीब बात है कि देश में तमाम छोटी बड़ी धार्मिक व सामाजिक शैक्षिक संस्थाओं को संसद में विधेयक पारित कर ‘डीम्ड यूनीवर्सिटी‘ का दर्जा दिया जाता
रहा है तो फिर एफटीआईआई जैसी अतंराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्था के साथ यह उपेक्षा क्यों ?

Tuesday, April 30, 2013

Once again it has been proved that CBI is an instrument in the hands of govt. to settle its political scores


“Once again it has been proved that CBI is an instrument in the hands of govt. to settle its political scores. I have been boldly saying so since 1993, when I exposed the Jain Hawala Case. It is unfortunate that the 1998 SC judgement (Vineet Narain Vs. Union of India) in this case, which gave clear directions for the autonomy of CBI under CVC and not under Govt control has not been implemented by the successive governments. It should now be accepted by the nation that CBI is not an independent agency to investigate high profile cases. Hence, it is an opportunity for the opposition parties and the vigilant section of media to come up with an alternate model of creating a new agency which can function without fear, prejudice, pressure or temptations. There should be a national debate on such alternative, if available, so to pressurize the govt. to act.”

Monday, January 21, 2013

नेता ही नहीं नीति बदलनी चाहिए

बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है। 
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।

Monday, December 31, 2012

वीरांगना दामिनी की शहादत क्या बेकार जाऐगी ?

आखिरी दम तक दामिनी रानी झाँसी की तरह मौत से पंजा लड़ाती रही। न तो उसने हिम्मत हारी और न ही जीने की आस छोड़ी। उसकी तीमारदारी कर रहे डॉक्टर हैरान थे उसके आत्मविश्वास को देखकर। पर जंग लगी लोहे की छड़ ने उसके जिस्म में जो इन्फेक्शन छोड़ा, वही उसके लिए जानलेवा बन गया। छः पिशाचों के हमले के बाद दामिनी को लेकर युवाओं और मध्यमवर्गीय लोगों का जो सैलाब दिल्ली और देश की सड़कों पर उतरा, वह इस देश के लोकतंत्र के परिपक्व होने की दिशा में एक सही कदम था। सरकार भी सकते में आ गयी कि इस आत्मस्फूर्त जनाक्रोश से कैसे निपटें? पर दूसरे ही दिन राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं और असामाजिक तत्वों ने प्रदर्शनकारियों के बीच चुपके से घुसपैठ कर सारा माहौल बिगाड़ दिया। हिंसा हुई और पुलिस की बर्बरता भी सामने आई। बस यहीं से राजनीति शुरू हो गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार ठहराने लगीं। आन्दोलनकारी बलात्कारियों की फाँसी की मांग पर अड़े रहे। सरकार तय नहीं कर पाई कि कितना और कैसा कदम उठाये? आन्दोलन की आग देश के अन्य महानगरों तक भी फैल गयी। काँग्रेस के दो मंत्रियों ने बयान दिया कि इस तरह के जनाक्रोश से निपटने में अभी हमारी राजनैतिक व्यवस्था तैयार नहीं है। इस पूरी स्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की जरूरत है।
कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोŸोजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।
पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी0आई0पी0 बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी0आई0पी0 अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।
इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी0वी0 चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।
बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो वह दामिनी की शहादत को हिन्दुस्तान के आवाम की सच्ची श्रद्धांजली होगी।

Monday, December 24, 2012

मोदी की जीत से कॉंग्रेस को सबक

गुजरात के 47 फीसदी मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेण्डे पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। मोदी के दावों के विरूद्ध काँग्रेस का प्रचार उसे मात्र 38 फीसदी वोट दिला पाया। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी मोदी को मिले वोट ने यह सिद्ध कर दिया कि गुजरात का मतदाता जाति और धर्म के दायरों से बाहर निकलकर विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। मोदी ने मुसलमानों की प्रतीकात्मक टोपी भले ही न ओढ़ी हो, पर गुजरात की सड़कों पर अवैध रूप से बने मन्दिर और मस्जिद गिराकर यह संदेश साफतौर पर दे दिया था कि उनकी सरकार विकास के रास्ते में धर्मान्धता को प्राश्रय नहीं देगी। यह बात दूसरी है कि मोदी की इस पहल से विहिप और संघ दोनों मोदी से नाराज हो गऐ और उनके खिलाफ अन्दर ही अन्दर माहौल भी बनाने की कोशिश की। पर इस परिणाम ने उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया। संघ के नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा संदेश है। अब तक संघ ने कभी भी मजबूत नेतृत्व को खड़ा नहीं होने दिया। जो उनके दरबार में हाजिरी दे, वही उनके लिए योग्य नेता होता है। चाहे फिर वो नितिन गडकरी ही क्यों न हो? कल्याण सिंह को विफल करने में संघ की यही मानसिकता जिम्मेदार रही।
रही बात मोदी के भविष्य की तो इस पर अनेक टी0वी0 चर्चा में चल ही रही है और अब 2014 तक चलेंगी भी। सबका यही मानना है कि मोदी को अपना तेवर और भाषा दोनों बदलनी पड़ेगी। फिर भी गारण्टी नहीं कि राजग के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लें। उससे पहले भाजपा के अन्दर भी संघर्ष कम नहीं होगा। पर अगर भाजपा मोदी के नेतृत्व का लाभ उठाना चाहती है, तो एक रास्ता है। वह अपने सहयोगी दलों से एक गुप्त समझौता कर ले। जिसका आधार यह हो कि भाजपा मोदी को अपना उम्मीदवार बनाकर आक्रामक प्रचार में जुटे और वो सहयोगी दल जो इससे सहमत न हों, अलग-अलग रहकर चुनाव लड़ें। जहाँ दोनों के बीच सीधा मुकाबला हो, वहाँ नूरा-कुश्ती लड़ ली जाए। मतलब जनता की निगाह में लड़ाई हो और वास्तव में मिलकर खेल खेला जाए। जैसे बड़े राजनेताओं के परिवारजनों को जिताने के लिए प्रायः विरोधी राजनैतिक दल भी कमजोर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। इससे राजग के सभी दलों को अपनी ताकत अजमाने का मौका मिलेगा। लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद जिसके सांसद ज्यादा हों, वो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकता है। पर यह निर्णय इतने आसान नहीं होते। अनेक तरह के बाहरी दबाव दलों को और उनके नेताओं को झेलने पड़ते हैं। वैसे आज की तारीख में पूरा कॉरपोरेट जगत और व्यापारी समाज यह मानता है कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। जबकि देहात से जुड़ा तबका मोदी के इस स्वरूप से प्रभावित नहीं है।
इसका सीधा प्रमाण गुजरात के 49 फीसदी मतदाताओं ने दिया है। जिन्होंने मोदी के खिलाफ वोट दिया है। साफ जाहिर है कि विकास के दावों का भारी भरकम प्रचार और मोदी को मिला मीडिया का अतिउत्साही समर्थन भी गुजरात की 49 फीसदी मतदाताओं को आश्वस्त नहीं कर पाया। मतलब यह कि मोदी का विकास का दावा आम जनता ने नहीं स्वीकारा। यह बात दूसरी है कि अपने उसी टेंपो में मोदी ने जीत के बाद पहले हिंदी भाषण में पूरे देश के मतदाताओं को सम्बोधित किया और उन्हें रोजगार के लिए गुजरात आने का न्यौता दिया। यानि वे एक बार फिर इसी आक्रामक प्रचार शैली से देश के सामने अपनी नयी भूमिका के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले हैं।
काँग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है। उस तरह नहीं, जिस तरह राजनैतिक विश्लेषक मीडिया पर बता रहे हैं। जो कि यह मान बैठे हैं कि मोदी का विकास का नारा चल गया। वे इस हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं कि 49 फीसदी मतदाता मोदी के दावे से सहमत नहीं हैं। काँग्रेस इस बात का पूरा फायदा नहीं उठा पायी। अब उसके सामने चुनौती यह है कि वह देश के सामने इन तथ्यों को कैसे रखे कि जनता प्रचार के प्रभाव से बचकर निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके। बाकी देश की जनता गुजरातियों की तरह न तो उद्यमी है और न ही व्यापारी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात को छोड़कर पश्चिमी भारत से असम तक आम हिन्दुस्तानी अभी भी कृषि, छोटे कारोबार और सेवा सैक्टर से जुड़ा है। जिसके लिए न तो मोदी की भाषा और न तेवर का ही कोई महत्व है। मतदाताओं का यह वह विशाल वर्ग है जिसके लिए विकास का मतलब है छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा होना। उसके जल, जंगल, जमीन का बचना। उसके लिए रोजगार का सृजन होना। ऐसे सभी कामों में तमाम आलोचनाओं के बावजूद काँगे्रस मोदी से पहले भी आगे थी और आज भी आगे है।
आम आदमी के हक में भाजपा के मुकाबले काँगे्रस ने हमेशा ही ज्यादा ठोस और जोखिम भरे फैसले लिए हैं। चाहें वो इन्दिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या पंचायत राज या सीधे नकद सब्सिडी। काँग्रेस के सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो यह कि वह अपनी इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने में जी-जान से जुट जाए। कोई कोताही न होने दे। अफसरशाही पर अपनी नकेल कसे। प्रशासन को जनोन्मुखी बनाऐ। दूसरी चुनौती यह है कि मोदी की तरह ही वह अपनी उपलब्धियों का आक्रामक तरीके से प्रचार करें।
ये चुनावी दंगल का वर्ष है। राजग और सप्रंग दोनों अपने खम्भ ठोकेंगे। कमजोरियों और उपलब्धियों में दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है। जनता इस तमाशे को देखेगी और जिसका सन्देश उसके दिल में उतरेगा, उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठा देगी।

Monday, December 10, 2012

देश में हलचल क्यूँ मची हुई है

देश में हलचल मची है। खासतौर पर सरकारी नीतियों को लेकर मीडिया और विपक्ष सक्रिय हो उठा है। लेकिन मुद्दे जल्दी जल्दी आ और जा रहे हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा मुख्य मुद्दा है क्या? ऐसे हालात में मीडिया की तरफ से एक शब्द आया है- पॉलिसी पैरालिसिस! इसकी हिन्दी करना भी मुश्किल हो रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि पिछले तीन-चार महीनों में इस शब्द का चलन अचानक बढ़ गया है।
दरअसल इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर कॉरपोरेट जगत कर रहा है। जिसका आरोप है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सोच और नीतियों को लेकर एकरूपता नहीं है। अवसरशाही नाहक निर्णयों को लम्बा खींच रही है। देश में विनियोग करने का वातावरण खत्म होता जा रहा है। मजबूरन भारत के बड़े औघोगिक घरानों को दूसरे देशों में विनियोग की संभावनाऐं तलाशनी पड़ रही हैं।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में सरकार की जबावदेही आमजनता के प्रति ज्यादा होती है। इसलिए कॉरपोरेट जगत की इस शिकायत को सही मानते हुए भी हमे देखना होगा कि क्या वाकई सरकार हर मामले में इतनी ढीली पड़ गयी है कि उसके लिए ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का नामकरण किया जाऐ?
ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि ‘नीतिगत फॉलिश’ मारा जाना या ‘नीतिगत पक्षाघात’ से कोई अर्थचित्र नहीं बन पा रहा है। नीति में दोष तो हो सकता है, लेकिन नीति को ‘फॉलिश’ मारने की कोई स्थिति समझ में नहीं आती। जितने भी लोगों के बीच इस शब्द को लेकर अनौपचारिक बातचीत हो रही है, वे कहना तो यही चाह रहे हैं कि सरकार की नीतियाँ समझ में नहीं आ रही हैं। यदि उन्हें यही कहना है तो वे सरलता से कह सकते हैं कि नीतियों में ‘स्पष्टता’ नहीं है। लेकिन यह बात कही इसलिए नहीं जा सकती क्योंकि आजादी के बाद देश में पहली बार सरकार की नीतियों को लेकर इतनी तीव्रता और सघनता से बहस हो रही है और नीतियों का विरोध हो रहा है - इसलिए कोई नहीं कह सकता कि नीतियाँ समझ में नहीं आ रहीं। खासतौर पर सब्सिडी को सीधे लाभार्थी को दिए जाना और खुदरा में एफ.डी.आई. को शुरू किए जाना, ऐसी नीतियाँ या उपाय हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन नीतियों के कार्यान्वयन में अब कानूनी तौर पर कोई अड़चन नहीं दिखती। बस वे अन्देशे दिखते हैं जिन्हें मीडिया और नीति विरोधी शक्तियाँ दिखा रही हैं। इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है।
गांवों तक सब्सिडी के रूप में हर जरूरतमंद को सीधे धन पहुँचाने की नीति को लेकर सबसे ज्यादा हलचल है। इसके विरोध में आमतौर पर एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश के बहुत बड़े तबके (आम मतदाता) को घूस देने की कोशिश है। विपक्ष के इस आरोप के जबाव में सरकारी विशेषज्ञों का कहना है कि आजादी के बाद से आज तक हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि अन्तिम व्यक्ति तक मदद कैसे पहुँचे? जितनी नीतियां और कार्यक्रम अन्तिम व्यक्ति के लिए बने, उन सबको नौकरशाही और बिचैलिए खा गए। यह पहली बार है कि अब इन सबकी कोई भूमिका नहीं रही। आम आदमी सीधे लाभ उठा सकेगा। इसी से विरोधियों में घबराहट है कि अगर ऐसा हो गया तो फिर इसकी टक्कर में उनके पास क्या बचा? इससे यह तो साफ है कि सरकार की नीति में कोई शैथिल्य नहीं है। वह जो चाह रही है, धड़ल्ले से कर रही है। हां, यह बात जरूर है कि जैसा दावा सरकार कर रही है, वैसा लाभ क्या वाकई आम आदमी को मिल पाऐगा? तो फिर यह तो क्रियान्वयन की संभावनाओं पर संशय वाली स्थिति हुई। इसमें नीतिगित शैथिल्य कहाँ से आया?
एफ.डी.आई. ऐसी दूसरी नीति है। संसद में लगातार चार दिन की बहस में इस नीति के लगभग हरेक पक्ष पर खूब बातचीत हुई है। कुल मिलाकर इसके विरोध में एक ही तर्क दिया गया कि किराना या खुदरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लगभग 20-25 करोड़ लोगों का क्या होगा? लेकिन यह बात किसी ने नहीं उठाई, सरकार ने भी नहीं, कि अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है तो आज खुदरा व्यापार में शोषित हो रहे श्रमिकों और कर्मचारियों की दशा में कितना गुणात्मक सुधार आ जाऐगा? वैसे भी हैरत की बात यह है कि शुरूआत में यह सिर्फ 10 लाख से ज्यादा आबादी के 53 शहरों तक ही सीमित थी और बाद में राजनीतिक परिस्थितियों में निकलकर यह आया कि शुरूआती तौर पर इसका प्रयोग या क्रियान्वयन सिर्फ 15 शहरों में हो पाऐगा। यानि 15 शहरों से प्रायोगिक तौर पर शुरू की जा रही इस नीति का कार्यान्वयन होना है। जिसे लेकर कोई भी कह सकता है कि इसके नतीजों को देखकर ही इसके आगे जाने की सम्भावनाऐं बनेंगी। हाँ, यह तय हो गया है कि ये दोनों नीतियां जल्दी ही शुरू होनी हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि बगैर ज्यादा शोर मचे ये दोनों काम शुरू हो चुके हैं। यानि ‘नीतिगत शैथिल्य’ का प्रश्न अब प्रासंगिक हुआ नहीं दिखता।
जहाँ तक औघोगिक जगत का आरोप है, वहाँ वाकई सरकार की जबावदेही बनती है। पर केन्द्र की ही क्यों, राज्यों की सरकारें भी कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाई हैं। पिछले दशक में केवल तीन मुख्यमंत्री ऐसे रहे हैं, नरेन्द्र मोदी, शीला दीक्षित और मायावती जिन्होंने अपनी नौकरशाही पर पकड़ बनाई है। वर्ना राज्य हों या केन्द्र, नौकरशाही आज भी इतनी ताकतवर है कि वो जनता और नेता दोनों को मूर्ख बना रही है। नेता राजनैतिक निर्णय ले या भ्रष्ट आचरण करे तो माना जा सकता है कि यह चुनावी व्यवस्था की मजबूरी है, जहाँ उसका भविष्य अनिश्चित रहता है। पर सुरक्षित वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार का स्थायी अंग बनी नौकरशाही क्यों गलत होने देती है? क्यों सही का समर्थन नहीं करती? क्यों अपने से बेहतर विचारों ओैर कार्यक्रमों को स्वीकारने में उसके अहम को चोट लगती है? जब सबकुछ मिला है तो वो क्यों भ्रष्ट हो जाती है? आज देश में इस झंझट में से निकलकर प्रगति के रास्ते पर चलने का माहौल बनना चाहिए। जिसका एक बड़ा हिस्सा होगा कि जनता नौकरशाही की जबावदेही के लिए पूरा दबाव बनाऐ। फिर जनता में चाहें रतन टाटा हों या मध्यम वर्ग या आम इंसान।

Monday, November 19, 2012

बाला साहब के भगवा स्वरूप को क्यों भूल रहा है अंगे्रजी मीडिया

महाराष्ट्र के दिवंगत नेता बाला साहब ठाकरे को श्रृद्धान्जलि देने में अंगे्रजी टी वी और प्रिन्ट मीडिया पीछे नहीं रहा। उनकी भडकाऊ राजनीति, तानाशाही और हिंसक बयानबाजी का आलोचक रहा देश का अंगे्रजी मीडिया बाला साहब की मौत पर उनका गुणगान करता नजर आया। इसमें कोई अस्वभाविक बात नहीं है। मरणोपरान्त हर जाने वाले की प्रशस्ति में कसीदे काढ़े जाते हैं । पर महत्वपूर्ण बात यह है कि केसरिया चोगा पहनकर, गले में रूद्राक्ष की माला लटकाकर, छत्रपति शिवाजी महाराज की वैदिक ध्वजा फहराकर और सिंह के चित्र को दर्शाते हुए सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले बाला साहब देवरस ने एक प्रखर हिन्दूवादी छवि का निर्माण किया और उसे अन्त तक निभाया। इस छवि के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति को अपने इशारों पर नचाया। सत्ता में हों या बाहर अपना रूतबा कम नहीं होने दिया। पर उनके व्यक्तित्व के इस हिन्दूवादी पक्ष को अंग्रेजी मीडिया ने दिखाने की कोशिश नहीं की।
 
अंग्रेजी मीडिया अमूमन अपनी छवि धर्मनिरपेक्षता की बनाकर रखता है। इसलिए जब-जब बाला साहब ने  प्रखर हिन्दूवादी तेवर अपनाया तब तब मुख्यधारा का मीडिया बाला साहब के पीछे पड़ गया। पर अब उनकी मौत पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष क्यों भुला दिया गया ? यह सही है कि बाला साहब का व्यक्तित्व व वक्तव्य विरोधाभासों से भरे होते थे। पर उनकी इस हिन्दूवादी छवि ने उन्हें देशभर के उन हिन्दुओं का  चहेता बनाया जो प्रखर हिन्दुवादी नेतृत्व देखना चाहते हैं। छोटी छोटी घटनाओं से बाला साहब ने ऐसे कई संदेश दिये ।  जब मुंबई के मुसलमान जुम्मे की नमाज अदा करने के लिए हर शुक्रवार मुंबई की सड़कों पर मुसल्ला बिछाने लगे और मुंबई पुलिस इस नई मुसीबत से निपट नहीं पा रही थी तो बाला साहब ने हर शाम, हर मन्दिर के सामने, सड़क पर भीड़ जमा कर महाआरती करने का ऐलान कर दिया। नतीजतन दोनों पक्षों ने बिना हीलहुज्जत किये अपना फैलाव समेट लिया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के आकर बसने पर सबसे पहला विरोध बाला साहब ने ही किया था।
 
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व रहा है जिसने हिन्दु वोट बैंक को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन हमेशा इस तरह के सख्त कदम उठाने से परहेज किया। इतना ही नहीं पूरे देश में रामजन्मभूमि मुक्ति आंन्दोलन चलाने के बाद जब अयोध्या में विवादास्पद ढाँचा गिरा तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इसे शर्मनाक हादसा कहा। जबकि बालासाहब से जब पूछा गया कि इस ढ़ांचे को गिराने में शिवसैनिकों का हाथ था, तो उन्होंने तपाक से कहा कि उन्हें अपने सैंनिको पर गर्व है। दूसरी तरफ हिन्दू हक के हर मुद्दे पर कड़े तेवर अपनाने वाले बाला साहब ने आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव तक के मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़े रहने में संकोच नहीं किया। इंका के वरिष्ठ नेता सुनील दत के फिल्मी सितारे बेटे संजय दत को रिहा कराने में वे आगे आये। इससे यह तो साफ है कि बाला साहब ने जो ठीक समझा उसे ताल ठोक कर किया़। चाहें किसी को ठीक लगे या गलत। इसलिए उनकी छवि एक प्रखर हिन्दुवादी नेता की बनी।
 
मुसलमानों को लुभाने की नाकाम कोशिशों में जुटा भाजपा नेतृत्व आज भी ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हैं। इसलिए दुविधा कायम हैं ? दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काफी हद तक बाला साहब का अनुसरण करने की सफल कोशिश की है और उसका फल भी उन्हें मिला है। नरेन्द्र मोदी को भी मुख्यधारा के मीडिया ने धर्मनिरपेक्षता के तराजू में तोलकर बार-बार अपराधी करार दिया है। पर हर बार मीडिया के आंकलन से बेपरवाह मोदी ने अपना रास्ता खुद तय किया है।
 
बाला साहब को श्रद्धान्जली देने गये भाजपा के नेताओं को इस मौके पर आत्म मंथन करना चाहिए। क्या वे इसी तरह भ्रम की स्थिति में रहकर आगे बढ़ेंगें या अपनी विचारधारा में स्पष्टता लाकर अपनी रणनीति साफ करेंगे। आज तो वे कांग्रेस की दसवीं कार्बन कॉपी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते। उधर मीडिया को भी यह सोचना पडेगा कि इस लोकतांत्रिक देश में समाज के हर हिस्से और विभिन्न विचारधाराओं को एक रंग के चश्मों से देखना सही नहीं है। धर्मनिरपेक्ष से लेकर सांम्प्रदायिक लोगो तक और गांधीवादियों से लेकर नक्सलवादियों तक को अपनी बात कहने और अपनी तरह जीने का मौका भारत का लोकतंत्र देता है। इसलिए मीडिया की निष्पक्षता तभी स्थापित होगी जब वो समाज के विभिन्न रंगों की प्रस्तुति पूरी ईमानदारी से करे। एक कार्टून पत्रकार से महाराष्ट्र के शेर बनने तक की बाला साहब की यात्रा हममें से बहुतों की विचारधारा के अनुरूप नहीं थी पर इस यात्रा के ऐसे आयामों के महत्व को कम करके आंका नहीं जा सकता।

Monday, October 8, 2012

क्या होगा रॉबर्ट वाड्रा के खुलासे का असर

पिछले दो सालों से एसएमएस और इंटरनेट पर यह संदेश बार-बार प्रसारित किये जा रहे थे कि रॉबर्ट वाड्रा ने डीएलएफ के मालिक, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा व अन्य भवन निर्माताओं से मिलकर दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्जित कर ली है। पर जो खुलासा शुक्रवार को दिल्ली में किया गया उसमें मात्र 300 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का ही प्रमाण प्रस्तुत किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में बाकी की सम्पत्ति का भी खुलासा होगा। अगर नहीं होता है तो यह चिन्ता की बात है कि बिना प्रमाणों के आरोपों को इस तरह पूरी दुनिया में प्रचारित कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर राबर्ट वाड्रा ने अपनी सास श्रीमती सोनिया गांधी के सम्बंधों का दुरुपयोग करके अवैध सम्पत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच होनी चाहिए। पर यहां कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहली बात, पिछले दस सालों में हर शहर में प्रापर्टी डीलरों की हैसियत खाक से उठकर सैंकड़ों करोड की हो चुकी है। दूसरी बात यह है कि राजनेता ही नहीं हर नागरिक कर चोरी के लिए अपनी सम्पत्ति का पंजीकरण बाजार मूल्य से कहीं कम कीमत पर करवाता है। इस तरह सम्पत्ति के कारोबार में भारी मात्रा में कालेधन का प्रयोग हो रहा है। तीसरी बात रोबर्ट वाड्रा इस धंधे में अकेले नहीं। किसी भी राज्य के किसी भी राजनैतिक दल के नेता के परिवारजन प्रायः सम्पत्ति के कारोबार में पाये जायेंगे। अरबों रुपयों की अकूत दौलत नेता अफसर और पूँजीपति बनाकर बैठे हैं। सम्पत्ति का कारोबार कालेधन का सबसे बडा माध्यम बन गया है। इसलिए इसका राजनीति में दखल बढ़ गया है। इसलिए एक रॉबर्ट वाड्रा का खुलासा करके समस्या का कोई हल निकलने नहीं जा रहा।

दरअसल पिछले बीस वर्षों में भ्रष्टाचार के इतने काण्ड उजागर हुए हैं कि जनता में इससे भारी हताशा फैल गई है। इस हताशा की परिणिति अराजकता और सिविल वार के रूप में हो सकती है। क्योंकि सनसनी तो खूब फैलायी जा रही है पर समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं। अन्ना के आन्दोलन ने समाधान की तरफ बढने का कुछ माहौल बनाया था। पर उनकी कोर टीम की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं ने सारे आन्दोलन को भटका दिया।

अरविन्द केजरीवाल जो अब कर रहे हैं वो एक राजनैतिक दल के रूप में शोहरत पाने का अच्छा नुस्खा है। पर इससे भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं होगा। बल्कि हताशा और भी बढ़ेगी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे हैं वो काम अब तक मीडिया का हुआ करता था। घोटाले उजागर करना और आगे बढ़ जाना। समाधान की तरफ कुछ नहीं करना। अब जब मीडिया टीआरपी के चक्कर में या औद्योगिक घरानों के दबाव में जोखिम भरे कदम उठाने से संकोच करता है तो उस खाई को पाटने का काम केजरीवाल जैसे लोग कर रहे हैं। मगर यहीं इस टीम का विरोधाभास सामने आ जाता है। अगर सनसनी फैलाना मकसद है तो समाज को क्या मिलेगा और अगर समाज को फायदा पहुंचाना है तो इस सनसनी के आगे का कदम क्या होगा घ् आप हर हफ्ते एक घोटाला उजागर कर दीजिए और भ्रष्टाचार के कारणों को समझे बिना जनलोकपाल बिल का ढिढ़ोरा पीटते रहिए। तो आप जाने अजनाने कुछ राजनैतिक दलों या लोगों को फायदा पहुंचाते रहेंगे। पर देश के हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि जिन्हें आप फायदा पहंुचायेंगे वे भी कोई बेहतर विकल्प नहीं दे पायेंगे।

तो ऐसे में क्या किया जाए ? भ्रष्टाचार कोई नया सवाल नहीं है। सैकड़ों सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। सोचा भी गया है प्रयोग भी किये गये हैं पर हल नहीं निकले। अब नये हालात में फिर से सोचने की ज़रूरत है और सोचे कौन यह भी तय करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार को नैतिकता का प्रश्न माना जाये या अपराध का। अगर हम नैतिकता का प्रश्न मानते हैं तो समाधान होगा सदाचार की या अध्यात्म की शिक्षा देना। व्यक्ति के सात्विक गुणों को प्रोत्साहित करना और तामसी गुणों को दबाना। अगर भ्रष्टाचार को हम अपराध मानते हैं तो उसका समाधान कौन देगा ? इतिहास बताता है कि अपराध के विरूद्ध जब-जब कोई व्यवस्था बनाई गई है तब-तब उसको बनाने वाला अपराधी से भी बडा खौफनाक तानाशाह सिद्ध हुआ है। दरअसल भ्रष्टाचार का मामला नैतिकता के और अपराध के बीच का है। इतिहास यह भी बताता है कि कोई एक जनलोकपाल या उससे भी कड़ा कानून इसका समाधान नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरत है कि इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ बैठकर अध्ययन करें और समाधान खोजें। उदाहरण के तौर पर ऐसा कैसे होता है कि त्याग, बलिदान और सादगी की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता जब भाजपा में मंत्री बनते हैं तो नैतिकता के सारे पाठ भूल जाते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेकर कांग्रेस में घुसने वाले मंत्री पद पाकर गांधी की आत्मा को दुःख पहुंचाते हैं। मजदूरों के हक की लडाई लडने वाले साम्यवादी नेता चीन और रूस में सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए बिखरी टीम अन्ना मीडिया में छाये रहने के लिए हर हफ्ते जो नये शगूफे छोड़ रही है या छोड़ने वाली है उससे हंगामा तो बरपाये रखा जा सकता है पर भ्रष्टाचार का इलाज नहीं कर पायेंगे। नतीजतन रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ऐसे विचारों को पढ़कर या टीवी चैनल पर सुनकर कुछ भावुक पाठक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं इन लोगों के प्रयासों का विरोध कर रहा हूं। जबकि हकीकत यह है कि शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने बीस वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लडाई में अगर गद्दारी न की होती तो शायद हालात आज इतने न बिगडते। इसलिए इनकी कमजोरियों को समझकर और यथार्थ को देखते हुए परिस्थितयों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भावना में बहकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लें।

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।

Tuesday, July 17, 2012

मनरेगा योजना कितनी सफल, कितनी विफल ?

सिक्के के दो पहलू की तरह मनरेगा के भी दो पहलू हैं: एक तरफ तो गरीबों के लिए रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिली ऐतिहासिक सफलता और दूसरी तरफ योजना के क्रियान्वन में अनेक कमियां और भ्रष्टाचार। हम दोनों की निष्पक्ष चर्चा करेंगे। पहले प्रधानमंत्री के उस दावे का मूल्यांकन किया जाये जिसमें उन्होंने मनरेगा को गरीबों के हक में आजादी के बाद की सबसे सफल योजना बताया है। ये दावा कहां तक सही है ?
मनरेगा की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण गुजरात में मिलता हैं। कपड़े की मिलों के लिए भारत का मैनचैस्टर माना जाने वाला गुजरात का शहर सूरत मनरेगा से धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। यहां बिहार के हजारों मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते थे। पिछले साल दीपावली पर वे घर गये, फिर लौटे नहीं। क्योंकि मनरेगा के चलते अब उन्हें अपने गांव में ही इतना रोजगार मिलने लगा है कि उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

एक समय हरित क्रान्ति का अग्रणी रहा पंजाब गरीब प्रान्तों के मजदूरों के लिए बहुत बड़ा रोजगार देने वाला था। ढोल की थाप पर नाचने वाले सम्पन्न सिख और जाट किसानों के खेतों का काम ये मजदूर किया करते थे। अब हालात बदल गये हैं। अब बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से आने वाली जनता रेल गाड़ियों में मजदूरों की खेप नहीं आती। नतीजतन बड़े किसान अपनी मोटर गाड़ियां लेकर रोज सुबह रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं। इस उम्मीद में कि जिन मजदूरों पर भी हाथ लग जाये, उन्हें झपट लिया जाये। इस चक्कर में कई बार इन बड़े किसानों के आपस में झगड़े और मारपीट भी हो जाती है। यह है मनरेगा की सफलता का एक और नमूना।

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर विचारने का बिन्दु जरूर है। अगर हम नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार अमीरों की अमीरी उनसे छीनकर गरीबों में नहीं बांट सकते, तो क्यों ना गरीबी का देशभर में समान बंटवारा कर दिया जाये। मतलब ये कि ऐसा ना हो कि एक जगह के गरीब तो बच्चे बेचकर और पेड़ों की जड़े पकाकर पेट भरें और दूसरी तरफ देश में गरीबी का मापदंड बढ़ते जीवन स्तर से मापा जाये। मनरेगा ने यही किया है। राष्ट्रीय संसाधनों का इस योजना ने इस तरह बंटवारा किया है कि देश के हर हिस्से में रहने वाले गरीब मजदूरों को साल मंे कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारंटी मिल गई है। इसका सीधा असर कस्बों के स्तर तक देखने को मिल रहा है। पहले कस्बों और छोटे शहरों में दिहाड़ी मजदूर 80 रूपये रोज में मिल जाते थे। अब ढाई सौ रूपये से कम का मजदूर नहीं मिलता। इतना ही नहीं अब हर क्षेत्र में रोजगार मांगने वालांे की अपेक्षाएं और वेतन बढ़ गये हैं। जाहिरन इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है। 

इस तरह मनरेगा के कारण देशभर में दैनिक मजदूरी में औसतन 81 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है। क्योंकि जब मजदूरों की मजदूरी बढ़ी तो अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले निचले दर्जे के कर्मचारियों की वेतन वृद्वि की मांग भी बढ़ गई। कुल मिलाकर पूरे देश में गरीबों और निम्न वर्ग को मनरेगा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आंका जा सकता। रोजगार की मंडी का मजदूरों के हक में हो जाना किसी क्रान्ति से कम नहीं। यह क्रान्ति विचारधारा की या व्यवस्था के विरूद्व बगावत की घुट्टी पिलाकर नहीं आई। यह आई है मनरेगा की सोची समझी कार्य योजना के कारण निश्चित तौर पर सरकार ने जिससे भी यह योजना बनवाई उसने अब तक की ऐसी सभी योजनाओं को पीछे छोड़ दिया, जिनमें गरीबी दूर करने का लक्ष्य रखा जाता था। इसीलिए सरकार के इस कार्यक्रम का आज पूरी दुनियां में अध्ययन किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री या कांग्रेस सरकार का अपनी पीठ ठोकना नाजायज नहीं है।

पर ऐसा नहीं है कि मनरेगा में सब कुछ सोने की तरह चमक रहा है। अनेक खोट भी है। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा के तहत जो कार्य योजनाएं बनाई जा रही हैं इनकी उपयोगिता और सार्थकता पर कई जगह प्रश्न चिन्ह लगाये जा रहे हैं। वेतन के भुगतान में देरी। करवाये जा रहे काम की गुणवत्ता में स्थान-स्थान पर अन्तर होना। मनरेगा के क्रियान्वन में ग्राम प्रधान से लेकर जिलाधिकारी तक का अक्सर घपले घोटालों में फंसा होना। मजदूरों के पंजीकरण में फर्जीवाड़ा। खर्च का सही हिसाब न रखना। कुछ ऐसे दोष हैं जो मनरेगा के क्रियान्वन के काफी मामलों में सामने आये हैं। जिन की सरकार को जानकारी है और इनका निराकरण किया जाना चाहिए। यह बात दूसरी है कि मनेरगा का क्रियान्वन प्रान्तीय सरकारों के हाथ में है। जिन राज्यों में आम लोगों में जागरूकता है और प्रशासन में जिम्मेदारी का माद्दा ज्यादा है, वहां यह योजना ज्यादा सफल हुई है। जहां ऐसा नहीं है और ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और कोताही का बोलबाला है वहां मनरेगा मुह के बल गिरी है। पर इसके लिए केन्द्र सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना भी गलत होगा कि यह योजना कारगर नहीं है।
विपक्षी दल मनरेगा को नकारते हैं। उनका आरोप है कि यह कागजी योजना है। जमीनी हकीकत इससे कोसो दूर है। वे यह भी कहते हैं कि अगर पांच करोड़ लोगों को इससे लाभ मिलने का जो दावा किया जा रहा है, उसे सही भी मान लिया जाये, तो इससे गरीबी तो दूर नहीं हुई। बाकी 10 करोड़ लोगों को तो कुछ नहीं मिला। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि गिलास को आधा भरा देखें या आधा खाली। एक तिहाई गरीब लोगों को अगर फायदा मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सौ फीसदी लोग इसके लाभ के घेरे में आ जायेंगे। सिर्फ इसलिए कि सबकों एक साथ लाभ नहीं मिल सकता, क्या जिन्हें मिल सकता है उन्हें भी न दिया जाये ?

जरूरत है इस योजना के सही और गहरे मूल्यांकन की। इसमें सामाजिक आडिट को बढ़ाने की भी जरूरत है। आधुनिक सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके मनरेगा के काम में पारदर्शिता और पर्यवेक्षण को बढ़ाना चाहिए। देश में पेन्शनयाफ्ता लोगों की एक लम्बी फौज बेकार पड़ी है। स्वास्थ के क्षेत्र में सुधार के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। ऐसे लाखों लोगों को मनरेगा जैसी जनहित की योजनाओं के क्रियान्वन में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने के काम में लगाया जा सकता है। उधर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षा सोनिया गांधी इस कार्यक्रम को लेकर बहुत सतक्र हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि आम जनता के हित का यह कार्यक्रम अगर पूरी तरह सफल हो गया तो सामाजिक आर्थिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार भी दबाव में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनरेगा का अगला संस्करण इन कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान देगा।

Monday, July 16, 2012

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस क्यों पिट रही है ?

हाल ही में उत्तर प्रदेश की महापलिकाओं और नगरपालिकाओं के चनावों के नतीजे आये हैं। एक बार फिर कांग्रेस का सूपणा साफ हो गया है। विधानसभ चुनाव के बाद कांग्रेस के नेताओं को प्रान्त में अपनी दुर्दशा की तरफ ध्यान देना चाहिए था। पर लगता है कि आपसी गुटबाजी और राष्ट्रीय स्तर पर किसी स्पष्ट दिशानिर्देश के अभाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी लावारिस हो गये हैं। न तो उनका संगठन दुरूस्त है और न ही उनमें जनहित के मुद्दों पर लड़ने का उत्साह है। जब स्थानीय कार्यकर्ता और नेता ही उत्साहित नहीं हैं, तो फिर वो नये लोगों को अपने दल की ओर कैसे आकर्षित कर पायेंगे। यानी न तो नेतृत्व चुस्त है और न ही कार्यकर्ता दुरूस्त। ऐसे में कांग्रेस 2014 का चुनाव कैसे लड़ेगी ? क्या उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं, या फिर मुलायम सिंह यादव से कोई गुप्त समझौता हो गया है ? जिसके तहत उत्तर प्रदेश सपा को थाली में परोसकर पेश किया जा रहा है।

सरकार चाहें मायावती की हो, अखिलेश यादव की हो या किसी और की, इतनी कार्यकुशल नहीं होती कि प्रदेश की पूरी जनता को संतुष्ट कर सके। बिजली पानी, कानून व्यवस्था जैसे सामान्य मुद्दे ही नहीं बल्कि तमाम ऐसे दूसरे मसले होते हैं, जिन पर जनता का गुस्सा अक्सर उबलता रहता है। कोई भी विपक्षी दल बुद्विमानी से जनता के आक्रोश को हवा देकर और उसकी समस्याओं के लिए सड़कों पर उतर कर जन समर्थन बढ़ा सकता है। लोकतन्त्र में जमीन से जुड़ा जुझारूपन ही किसी राजनैतिक दल को मजबूत बनाता है। लगता है कि दो दशकों से सत्ता के बाहर रहकर उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी हताश और निराश हो गये है। उनमें न तो जुझारूपन बचा है और न ही सत्ता हासिल करने का आत्मविश्वास। ऐसे माहौल में राहुल गांधी के आने से जो उम्मीद जगी थी, वो भी विधानसभा के नतीजों के बाद धूमिल हो गई। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में महनत तो बहुत की, पर न तो उनके सलाकारों ने उन्हें जमीनी हकीकत से रूबरू कराया और न ही उनके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज थी, जो मतदाताओं को तैयार कर पाती। ऐसे में राहुल गांधी का अभियान रोड-शो तक निपटकर रह गया।
अगर कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी सीटंे उत्तर प्रदेश में बढ़ाना चाहती है तो उसे पूरे प्रदेश के ढांचे में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। हर जिले में नेतृत्व क्षमता, साफ छवि और जुझारू तेवर के लोगों को जिले की बागडोर देनी होगी। इसी तरह प्रदेश का नेतृत्व कुछ ऐसे नये चेहरों को सौंपना होगा, जो प्रदेश में दल को जमीन से खड़ा कर सकें। पर कांग्रेस दरबारी संस्कृति और गणेश प्रदक्षिणा के माहौल में दिल्ली में बैठे बड़े मठाधीश ऐसे नेतृत्व को स्वीकरेंगें के नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि वे प्रान्त में दल का भला चाहते है या अपना।
पूरा उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा है। फिर भी उद्योगपति यहां निवेश करने को तैयार नहीं है। उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश के नेताओं की पैसे की भूख व जातिगत मानसिकता किसी भी आर्थिक विकास में बहुत बड़ा रोड़ा है। इसलिए वे उत्तर प्रदेश में आने से बचते हैं। ऐसे में ’’मुर्गी पहले हो या अण्डा पहले’’ उत्तर प्रदेश की छवि सुधरे या पहले विनियोग आय। दोनों एक दूसरे का इन्तजार नहीं कर सकते। इसका समाधान यही है कि दोनों तरफ साथ-साथ प्रयास किये जाये। छवि भी सुधरे और निवेशकों का विश्वास भी बढ़े। जिस उत्तर प्रदेश जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री देश को दिये हों, उस प्रदेश में क्या नेतृत्व का इतना बड़ा अकाल पड़ गया है कि कांग्रेस प्रदेश का सही नेता भी नहीं चुन सकती ? प्रदेश में एक से एक मेधावी प्रतिभायें हैं। तो सपा, बसपा व भाजपा से मन न मिलने के कारण राजनैतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं। ऐसी व्यक्तियों को प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें छूट देनी होगी संगठन को अपनी तरह से खड़ा करने की। वैसे भी कौन सा जोखिम है  ऐसा कौन सा बड़ा साम्राज्य है जो नये नेतृत्व के प्रयोग से छिन जायेगा ? जो कुछ होगा वो बेहतर ही होगा। ऐसा विश्वास करके चलना पड़ेगा। राजनीति में असम्भव कुछ भी नहीं है। ’’जहां चाह वहां राह’’ अब यह तो कांग्रेस आला कमान के स्तर की बात है। क्या वे उत्तर प्रदेश में मजबूत कांग्रेस खड़ा करना चाहती है या उसके मौजूदा हालात से संतुष्ट है।

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का खुलासा और सोनिया गाँधी

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक टर्निंग पाइंट्स में 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम का खुलासा करके एक बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा उठा दिया है। उस समय श्रीमती सोनिया गाँधी ने अपनी पार्टी के सभी सांसदों के भावुक अनुरोधों को ठुकराते हुए प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने का फैसला किया था। जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, तो भाजपा व संघ से जुड़े संगठनों ने पूरे देश में यह अफवाह फैलाई कि राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनने से रोका। अफवाह यह फैलाई गई कि सोनिया गाँधी अपने समर्थन के सांसदों की सूची लेकर जब राष्ट्रपति भवन पहुंची तो डॉ. कलाम ने उन्हें संविधान का हवाला देकर उनके विदेशी मूल के आधार पर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाने से मना कर दिया। इस घटना को 8 वर्ष बीत गये पर न तो श्रीमती गाँधी ने इसका खंडन किया और न ही संघ परिवार ने इसके तर्क में कभी कोई प्रमाण प्रस्तुत किए। आम आदमी को यही कहकर बहकाया गया कि सोनिया गाँधी तो प्रधानमंत्री का पद हड़पने को अधीर थीं किन्तु उन्हें बनने नहीं दिया गया। अब जब डॉ. कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक में यह साफ कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था बल्कि अफवाह के विपरीत डॉ. कलाम ने तो यह लिखा है कि वे श्रीमती गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलावाने के लिए तैयार थे पर वे ही तैयार नहीं थीं। जब वे डॉ. मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति से मिलीं तो डॉ. कलाम उनके इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर हतप्रभ रह गये।
यह पहली बार नहीं जब भाजपा व संघ परिवार अपनी संकुचित मानसिकता के चलते श्रीमती गाँधी के मामले में इस तरह बेनकाब हुआ है । राजीव गाँधी के जीवन में जबसे सोनिया आईं हैं इसी मानसिकता से उनके खिलाफ निराधार प्रचार किया जा रहा है। हर बार अफवाह फैलाने वालों को मुंह की खानी पड़ी है। जब 1977 में श्रीमती गाँधी चुनाव हारीं तो इसी समूह ने यह अफवाह फैलाई थी कि सोनिया गाँधी तो केवल श्रीमती गाँधी की सत्ता का सुख भोगने तक उनकी बहू थीं। उनका माल-टाल से भरा हवाई जहाज दिल्ली के हवाई अड्डे पर तैयार खड़ा है और चुनाव परिणाम आते ही वे अपने बच्चों और पति को लेकर इटली भाग जायेंगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सोनिया यहीं रहीं। राजीव गाँधी की दर्दनाक हत्या के बाद विदेशी मूल की कही जाने वाली सोनिया गाँधी के लिए भारत में रहने का कोई औचित्य नहीं था। उनका जीवन असुरक्षित था। उनके बच्चे छोटे थे। भारत की राजनीति में उनकी कोई जगह नहीं थी। उस वक्त भी यही प्रचारित किया गया कि वे अब इटली चली जायेंगी। पर वे यहीं रहीं। एक आदर्श विधवा की तरह अपने गम को पीती रहीं और समाज और राजनीति से लम्बे समय तक कटी रहीं।
अब यह तीसरी बार है जब एक बड़े आरोप से उन्हें अनायास ही मुक्ति मिल गई है। डॉ. कलाम अगर यह खुलासा न करते तो देश के बहुत से लोगों को यह गलतफहमी रहती कि सोनिया प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं। किन्तु उन्हें डॉ. कलाम ने बनने नहीं दिया। यह गम्भीरता से सोचने की बात है कि संघ और भाजपा नेतृत्व की सोच इतनी संकुचित क्यों है ? अक्सर मेरे पाठक या टी.वी. पर चर्चाओं में मुझे सुनने वाले यह सवाल करते हैं कि आप भ्रष्टाचार या अन्य मुद्दों पर तो बड़ी सख्ती से सभी दलों पर हमला करते हैं पर आपके हमले की धार भाजपा पर ज्यादा क्यों रहती है। क्या आप भी छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हो गये हैं ? उत्तर साफ है मैं सनातन धर्म में गहरी आस्था रखता हुआ भगवान श्री राधाकृष्ण के भक्तों की चरण रज का आकांक्षी हूँ। पर मेरा गत 30 वर्ष का पत्रकारिता का अनुभव बताता है कि संघ और भाजपा ने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर समाज में विद्वेश को ही भड़काया है। विभिन्न धर्मों के मानने वालों से बना भारतीय समाज उदारता की भावना रखता है और सनातन संस्कृति में विश्वास रखता है । उसको विगत 50 वर्षों में ऐसी मानकिसता के लोगों ने बार-बार नष्ट भ्रष्ट किया है। इसका जवाब जनता उन्हें अब दे रही है।
इस मानसिकता के ज्यादातर लोग अफवाहें फैलाने में उस्ताद हैं। ऐसा मैंने बार-बार अनुभव किया। 1993 में जब मैंने आतंकवाद और भ्रष्टाचार से जुड़े जैन हवाला काण्ड को उजागर किया तो उसमें भाजपा के 4-5 नेता ही फंसे थे जबकि कांग्रेस के दर्जनों नेताओं के राजनैतिक जीवन दांव पर लग गये थे। पर देश और धर्म की दुहाई देने वाले संघ और भाजपाईयों ने इस लड़ाई में मेरा साथ देना तो दूर मेरे खिलाफ देश विदेश में यह प्रचार किया कि मैं कांग्रेस के हाथ में खेलकर भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूँ। मेरे खिलाफ संघ के एक बड़े नेता ने अंग्रेजी पुस्तिका छपवाकर पूरी दुनिया में बंटवाई। ये बात दूसरी है कि उस पुस्तिका में झूठ का सहारा लेकर आडवाणी जी को बचाने का जो तानाबाना बुना गया था उसे मैं देश विदेश की अपनी जन सभाओं में बड़े तार्किक रूप से ध्वस्त करता चला गया। पर यह टीस मेरे मन में हमेशा रहेगी कि 1993 में ही जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और अफसरों के विरुद्ध शंखनाद किया था तो संघ और भाजपा ने एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपने संगठन और राष्ट्रहित की बलि दे दी।
पिछले वर्ष जब टीम अन्ना के दो स्तम्भ वही सामने आए जो इस ऐतिहासिक संघर्ष को विफल करने के देशद्रोही कार्य में संलग्न थे तो मुझे मजबूरन टी.वी. चैनलों पर जाकर टीम अन्ना को आड़े हाथों लेना पड़ा। चूंकि भाजपा व संघ टीम अन्ना के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी राजनीति कर रही है इसलिए मुझे इन सभी टी.वी. चर्चाओं में मजबूरन भाजपा व संघ को फिर कटघरे में खड़ा करना पड़ा। भगवत कृपा से भाजपा के जो भी बड़े नेता इन चर्चाओं में मेरे विरुद्ध बैठते रहे हैं वे मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे पाये। अब 2014 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर फिर संघ और भाजपा सोनिया गाँधी की नैतिकता पर लगातार चोट कर रहे हैं। देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। मैं टीम अन्ना की तरह किसी को चरित्र प्रमाण पत्र देने का दंभ नहीं पालता। मैं यह मानता हूँ कि आज की राजनीति में भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है और कोई दल इससे अछूता नहीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि भाजपा और संघ की कमीज दूसरों से ज्यादा सफेद है। सोनिया गाँधी पर उनका लगातार परोक्ष और सीधा हमला जनता को गुमराह करने के लिए है। जैसे उन्होंने पिछले 40 वर्षों में किया है। विरोध मुद्दों और आर्थिक या अन्य नीतियों का विचारधारा के आधार पर हो तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है। पर तंग दिल और दिमाग से झूठा प्रचार करने वाले देश के हित में कोई बड़ा काम कभी नहीं कर पायेंगे।

Monday, April 30, 2012

सचिन बने सांसद! हंगामा क्यों है बरपा?

सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में लाकर कांग्रेस आलाकमान ने राजनैतिक हलकों में हड़कम्प मचा दिया। किसी को उम्मीद न थी कि क्रिकेट के अपने कैरियर के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोत्तम दौर में सचिन इस तरह रातों-रात सांसद बन जाऐंगे। वो भी तब जब उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। जहाँ कांग्रेस के लोगों के बीच में इस बात को लेकर उत्साह है कि सचिन कांग्रेस के लिए युवाओं के मन में जगह बनाएंगें, वहीं कांग्रेस के आलोचक मानते हैं कि इन शगूफों से कांग्रेस की छवि बदलने वाली नहीं। अगर ऐसा है तो क्यों आलोचक सचिन के सांसद बनने पर इतने बौखलाऐं हुए हैं? एक टी.वी. चर्चा में तो सचिन को ‘डेमोगोग’ तक बता दिया गया। जबकि ‘डेमोगोग’ वो होता है जो समाज के एक असंतुष्ट वर्ग की भावनाऐं भड़काकर व्यवस्था ध्वस्त करने की अवैध कोशिश करता है। ‘डेमोगोग’ की इससे भी तीखी परिभाषा मशहूर दार्शनिक अरस्तू ने दी थी। जिसने समाज में ऐसी तथाकथित क्रांति करने वाले को अवैध नेता करार दिया था। इस परिभाषा से सचिन तेंदुल्कर ‘डेमोगोग’ दूर-दूर तक नजर नहीं आते। एक सीधा-साधा क्रिकेट खिलाड़ी अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर अन्तर्राष्ट्रीय खेल जगत का सितारा बन गया, उससे जनता को भड़काने या व्यवस्था के खिलाफ क्रांति करवाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पर आलोचकों का सचिन तेंदुलकर पर इस तरह हमला करना यह जरूर दर्शाता है कि उन्हें डर है कि कहीं कांग्रेस 2014 के चुनाव में सचिन से फायदा न उठा ले। इधर कांग्रेस में इस बात की पूरी तैयारी की जा रही है कि धीरे-धीरे ऐसे कई कदम उठाए जाऐं, जिनसे कांग्रेस की छवि चुनाव तक सुधरती चली जाए।
पर सवाल उठता है कि राज्यसभा में किसी को मनोनीत कर भेजे जाने का क्या उद्देश्य होता है? संविधान निर्माताओं ने यह प्रावधान समाज के उन विशिष्ट लोगों के लिए रखा था, जो अपने कार्यकलापों से राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा योगदान करते हैं, किंतु किसी राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पाते। ऐसे लोगों के अनुभव और ज्ञान का उपयोग कानून के निर्माण की प्रक्रिया में किया जा सके। इसलिए उनके मनोनयन की व्यवस्थ की गई है। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो सचिन का व्यक्तित्व और रूचि दूर-दूर तक कानून की प्रक्रिया में नहीं है। ऐसी भी संभावना है कि पूर्ववर्ती सितारे सांसदों की तरह सचिन भी या तो संसद में आयें ही न और या उनका योगदान शून्य रहे। ऐसा होता है तो यह मनोनयन निरर्थक रहेगा।
दरअसल आजादी के बाद से हर सत्तारूढ़ दल ने मनोनयन के इस प्रावधान का ठीक उपयोग नहीं किया। अपने चाटुकारों या अपने अनुग्रह पात्रों को राज्यसभा में भेजकर इस प्रावधान का मखौल उड़ाया है। कोई दल इसमें अपवाद नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र को ही लें तो कभी ऐसे पत्रकार का राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन नहीं हुआ जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी और समाज के प्रति योगदान की राष्ट्रीय ख्याति हो। ऐसे पत्रकार और संपादक जो अपनी नौकरी के दौरान दलविशेष की छवि बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें ही वह राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद राज्यसभा में भेजता है। एक लम्बी सूची है ऐसे नामों की, जो चाहे फिल्म क्षेत्र से हों, साहित्य से हों, संस्कृति से हों, कला से हों, शिक्षा से हों या किसी अन्य कार्यक्षेत्र से हों, उन्हें जब राज्यसभा में भेजा गया, तो उनका योगदान नगण्य रहा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि या तो इस प्रावधान को समाप्त किया जाए और या मनोनयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए। कहने को तो हमारे देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पर दल के कार्यकर्ताओं को चुनाव में टिकट देने से लेकर किसी भी स्तर पर भेजना हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निर्वाहन कभी भी नहीं किया जाता। ऐसे फैसले दल के नेता द्वारा अपने रागद्वेष और राजनैतिक लाभ के मकसद से लिए जाते हैं। यही कारण है कि हमारी संसद में बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। बहस का स्तर ही नहीं गिर रहा, सांसदों का आचरण भी कई बार देश की जनता को उद्वेलित कर देता है। 
सारे विवाद को एकतरफ रखकर अगर कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले का भावना के स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो यह कहना गलत न होगा कि टैस्ट और वनडे में मिलकर सौ शतक बनाने वाले सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में भेजकर कांगे्रेस आलाकमान ने देश के करोड़ों क्रिकेटप्रेमी युवाओं के हृदय को जीत लिया है। इतना ही नहीं इससे देश के श्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान भी हुआ है। जिसके वे सर्वथा सुपात्र हैं। बहुत दिनों बाद ऐसा लगा कि राजनैतिक हानि-लाभ से हटकर कांग्रेस आलाकमान ने एक पारदर्शी फैसला लिया है। जिसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है।