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Monday, November 16, 2015

बिहार के परिणामों से भाजपा में टीस भरी खुशी क्यों ?

    पूर्वोत्तर राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कि कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के हैं, ने बिहार चुनाव परिणाम पर फोन करके खुशी जाहिर की। पर फिर फौरन ही फोन आया कि यह खुशी बहुत दुखभरी है। यही विरोधाभास सारी भाजपा में दिखाई दे रहा है। यूं तो लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत सामान्य बात है। पर बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री ने जितनी रूचि ली, उसके अनुरूप परिणाम न आने पर हिंदूवादियों का खुशी मनाना सोचने पर मजबूर करता है। इसके कारण में जाने की जरूरत है। दरअसल, नरेंद्र भाई मोदी ने पिछले कुछ वर्षों में अपने दमदार वक्तव्यों में इतनी उम्मीद जगा दी थी कि हर आदमी सोच बैठा कि लोकसभा का चुनाव जीतकर मोदी के हाथ में अल्लादीन का चिराग आ गया। जबकि हकीकत इसके काफी विपरीत है। प्रधानमंत्री चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि बहुमत न होने के कारण उनके हाथ राज्यसभा में बंधे हैं। वे कोई कड़ा कानून नहीं ला सकते। दूसरी ओर संघीय ढांचा होने के कारण जनहित के जितने भी कार्यक्रम या नीतियां बनती हैं, उनका क्रियान्वयन करना प्रांतीय सरकार की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां मोदी कुछ भी नहीं कर सकते और न जबर्दस्ती करवा सकते। राज्य सरकारों की कमियों का ठीकरा प्रधानमंत्री पर फोड़ना उचित नहीं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक है। उन्होंने देशभक्तों को अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया, जिससे लगे कि भारत अपनी सनातन सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप विकसित होने जा रहा है। इसके विपरीत मोदी के वक्तव्यों से यह संदेश गया है कि वे अमेरिका के विकास माॅडल से भारी प्रभावित हैं। जिसका आम जनता के मन में कोई सम्मान नहीं है। वे इस माॅडल को शोषक और समाज में असंतुलन पैदा करने वाला मानते हैं, इसलिए उन्हें मोदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी। जो उन्हें आज देखने को नहीं मिल रहा।

    उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।

    समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।

    नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।

    जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। 

Monday, December 8, 2014

तर्क वितर्क में उलझा साध्वी का बयान

हफ्ते भर से देश की राजनीति साध्वी के जुगुप्सापूर्ण और घृणित बयान में उलझी है | भ्रष्टाचार, काला धन, मेहंगाई और बेरोज़गारी की बातें ज़रा देर के लिए पीछे हो गयी हैं | वैसे सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तकरार कालजई प्रकार की घटना है | यानी संसद के सत्र के दौरान व्यस्तता के लिए ऐसे मुद्दे से और ज्यादा सनसनीखेज़ बात मिल भी क्या सकती थी |

साध्वी ने खेद जता दिया है | प्रधानमंत्री ने सफाई भी दे दी है | सत्ताधारियों का तर्क है कि अब चर्चा बंद करो | विपक्ष का तर्क है कि यह मामला सिर्फ क्षमा मांग कर बारी हो जाने का नहीं है | बल्कि उसकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कारगार प्रतिकार होना चाहिए | इसी तर्क वितर्क में मामला जिंदा है |

आइये देखें कि एक हफ्ते से चल रहे इस काण्ड के किस पहलु पर चर्चा नहीं हुई | सिर्फ यही देखना काफी नहीं होगा बल्कि पलट कर यह भी देखना पड़ेगा की विगत में जब जब ऐसा हुआ है उसके बाद तब क्या हुआ | मसलन चुनाव के दौरान या चुनाव के पहले सत्ता के लिए जिस तरह के बयानों को सुनने की हमारी आदत पड़ गयी है उस लिहाज़ से साध्वी का ऐसा कुरुचिपूर्ण और आपत्ति जनक बयान बहुत बड़ी बात नहीं लगती | और अपनी आदत के मुताबिक़ हम प्रतिकार किये बगैर आगे भी बड़ लेते हैं | लेकिन काण्ड के उस महत्वपूर्ण पहलु को देख लें तो हो सकता है कि भविष्य में ऐसे जुगुप्सापूर्ण, घृणित, अशालीन और सांस्कृतिक कुरुचिपूर्ण माहौल को बनने से रोकने का कोई उपाय ढूंढ पायें |

इस सिलसिले में यहाँ ये बात उठाई जा सकती है कि साध्वी के मुंह से ऐसी बात किस मकसद से निकली होगी ? और अगर कोई निश्चित मकसद नहीं था यानी अगर सिर्फ जीभ फिसल जाने का मामला था तो यह देख लेना पड़ेगा कि जीभ फिसलने के बाद प्रतिकार कब और कैसे किया जाता है| पहले मकसद के बारे में सोचें | तो सभी जानते हैं कि भारतीय राजनीति में धार्मिक भावनाओं के सत्ताई पदार्थीकारण के लिए क्या क्या किया जाता है और वह किस हद तक स्वीकार भी समझा जाता है | वैसे तो यह तथ्यात्मक पड़ताल के बाद ही पता चल सकता है फिर भी पिछले तीस साल की भारतीय राजनीति में साम्प्रदाईयरकता स्वीकारीय बनाई जाती दीखती है | यानी कुछ लोग इसे उतना बुरा नहीं मानते | फिर भी उसके रूप को लेकर और उसके माध्यम को लेकर वे लोग भी संकोच बरतते हैं | लेकिन इस काण्ड में यह संकोच नहीं बरता गया | इस मामले में यही कहा जा सकता है कि राजनितिक अभीष्ट के लिए घृणा और जुगुप्सा के इस्तेमाल का प्रयोग नाकाम हुआ दीखता है | यह निष्कर्ष इस आधार पर है क्योंकि ऐसी बातों के कट्टर पक्षधरों को भी साध्वी का बचाव करने में संकोच होने लगा है |

दूसरी बात रही जीभ के फिसलने की | अगर यह वैसी कोई घटना होती तो वक्ता को तत्काल उसको बोध हो जाता है | सामान्य जनव्हार में यहाँ तक है कि किसी आपत्तिजनक या गन्दी सी बात कहने से पहले क्षमा मांगते हुए ही वह बात कही जाती है | और अगर आदत या प्रवृत्तिवश निकल जाए तो फ़ौरन माफ़ी मांग ली जाती है | और इस तरह वक्ता अपनी प्रतिष्ठा – गरिमा को बचाए रखता है | लेकिन साध्वी फ़ौरन वैसा नहीं कर पाई | शायद उन्होंने प्रतिक्रिया का अध्यन करने के लिए पर्याप्त से ज्यादा समय लगा दिया | बहराल वे पहली बार सांसद बनी और तेज़तर्रारी के दम पर पहली बार में ही केन्द्रीय मंत्री बना दी गयी | पर अब साध्वी कुलमिलाकर मुश्किल में हैं | वे ही नहीं उनकी वजह से उनकी पार्टी यानी सत्ताधारी पार्टी फिलहाल ज़रा दब के चलती दिख रही है |

जो हुआ अब उसके नफे नुक्सान की बात है | अगर बयान के मकसद की पड़ताल करें तो इस बात से कौन इनकार करेगा कि राजनीति में ऐसी बातों से मकसद पूरा हो जाता है | और नुक्सान की बात करें तो तात्कालिक नुक्सान सिर्फ इतना हुआ है कि राजनीति से निरपेक्ष रहने वाले नागरिकों के पास सन्देश पहुँचा है कि सत्ताधारी पार्टी इन बातों को पूरी तौर पर छोड़ नहीं पायी है | जबकि यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि राजनितिक सफलता के लिए ऐसी बातें बहुत ज्याद उपयोगी नहीं होती| थोड़ी बहुत उपयोगिता को मानते हुए इस हद तक जाना कुलमिलाकर नुकसानदेह ही मालूम पड़ता है|

लेकिन जहाँ हमने राजनीति का विशेषण बनाने के लिए ‘राजनैतिक’ की बजाय ‘राजनितिक’ लिखना / कहना शुरू किया है | उससे बिलकुल साफ़ है कि हम ‘नैतिक’ की बजाय ‘नीतिक’ होते जा रहे हैं | इस बात से अपने उत्थान और पतन का आकलन करने के लिए हम निजी तौर पर मुक्त हैं – स्वतंत्र हैं |

Monday, October 20, 2014

मनरेगा की सार्थकता पर सवाल

जब से यूपीए सरकार ने मनरेगा योजना चालू की, तब से ही यह कार्यक्रम विवादों में रहा है। यूपीए सरकार का मानना यह था कि आजादी के बाद से गरीबों के विकास के लिए जितनी योजनाएं बनीं, उनका फल आम आदमी तक नहीं पहुंचा। इसलिए गरीब और गरीब होता गया। खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सन् 1984 में कहा था कि दिल्ली से गया विकास का 1 रूपया गांव तक पहुंचते-पहुंचते 14 पैसे रह जाता है, यानि 86 फीसदी पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। इसलिए यह नई योजना बनायी गयी, जिसमें भूमिहीन मजदूरों को साल में न्यूनतम 200 दिन रोजगार देने की व्यवस्था की गई। अगर कहीं रोजगार उपलब्ध नहीं है, तो उसे उपलब्ध कराने के लिए कुंड खोदना, कुएं खोदना या सड़क बनाना जैसे कार्य शुरू करने की ग्राम प्रधान को छूट दी गई। उम्मीरद यह की गई थी कि अगर एक गरीब आदमी को 200 दिन अपने ही गांव में रोजगार मिल जाता है, तो उसे पेट पालने के लिए शहरों में नहीं भटकना पड़ेगा। गांव के अपेक्षाकृत सस्ते जीवन उसके परिवार का भरण-पोषण हो जायेगा। हर योजना का उद्देश्य दिखाई तो बहुत अच्छा देता है, पर परिणाम हमेशा वैसे नहीं आते, जैसे बताए जाते हैं।
मनरेगा के साथ भी यही हुआ। बहुत गरीब इलाकों के मजदूर, जो पेट पालने के लिए पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बड़ी तादाद में जाते थे, वे जब दिवाली की छुट्टी पर घर गए, तो लौटकर नहीं आए। सूरत की कपड़ा मिलों में, महाराष्ट्र के कारखानों में और पंजाब के खेतों में काम करने वाले मजदूरों का टोटा पड़ गया। हालत इतनी बिगड़ गई कि जो थोड़े बहुत मजदूर इन इलाकों में पहुंच जाते, उन्हें रेलवे स्टेशन से ही धर दबोचने को उद्योगपति और किसान स्टेशन के बाहर खड़े रहते। कभी-कभी तो उनके बीच मारपीट भी हो जाती थी। मतलब ये कि इन इलाकों में इतनी ज्यादा गरीबी थी कि थोड़ा सा रोजगार मिलते ही लोगों ने पलायन करना छोड़ दिया। पर शेष भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी।
ज्यादातर राज्यों में मनरेगा निचले स्तर पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं और सरकारी कर्मचारियों की कमाई का धंधा बन गया। ऐसी बंदरबाट मची कि मजदूरों के नाम पर इन साधन संपन्न लोगों की चांदी हो गई। मजदूरों से 200 दिन की मजदूरी प्राप्त होने की रसीद पर अंगूठे लगवाए जाते और उन्हें 10 दिन की मजदूरी देकर भगा दिया जाता। वे बेचारे यह सोचकर कि बिना कुछ करे, घर बैठे आमदनी आ रही है, तो किसी के शिकायत क्यों करे, चुप रह जाते। अंधेर इतनी मच रही है कि मनरेगा के नाम पर जो विकास कार्य चलाए जा रहे हैं, वे केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। धरातल पर कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिर भी देश-विदेश के कुछ जाने-माने अर्थशास्त्री इस बात पर आमदा है कि इतने बड़े भ्रष्टाचार का कारण बना यह कार्यक्रम जारी रखा जाए। वे चेतावनी देते हैं कि अगर मनरेगा को बंद कर दिया, तो गरीब बर्बाद हो जाएंगे, भुखमरी फैलेगी, धनी और धनी होगा। इसलिए इस कार्यक्रम को जारी रखना चाहिए। इन अर्थशास्त्रियों में ज्यादातर वामपंथी विचारधारा के हैं। जिनका मानना है कि गरीब को हर हालत में मदद की जानी चाहिए। चाहे उस मदद का अंश ही क्यों न सही जगह पहुंचे। पर सोचने वाली बात यह है कि अगर ऐसी खैरात बांटकर आर्थिक तरक्की हो पाती, तो दो दशक तक पश्चिमी बंगाल पर हावी रहे वामपंथी दलों क्यों बंगाल के गरीबों की गरीबी दूर नहीं कर पाए ?

वैसे भी यह मान्य सिद्धांत है कि भूखे को रोटी देने से बेहतर है, उसे रोटी बनाने के लायक बनाना। मनरेगा यह नहीं करता। यह तो बिना कुछ करे भी रोजी कमाने की गारंटी देता है, इसलिए यह समाज के हित में नहीं। ठीक जिस तरह अंग्रेज भारत को अंग्रेजीयत का गुलाम बनाकर चले गए और आज तक हमारा उल्लू बना रहे हैं। उसी तरह यूपीए सरकार के थिंक टैंक ने मनरेगा को पार्टी कार्यकर्ताओं की सुविधा विस्तार का उपक्रम बना लिया। इसलिए धरातल पर इसके ठोस परिणाम नहीं आ रहे हैं।
आज से 30 बरस पहले सन् 1984 में लंदन के एक विश्वविद्यालय में रोजगार विषय पर बोलते हुए मैंने भारत की खोखा संस्कृति पर प्रकाश डाला था। मैंने वहां युवाओं को बताया कि भारत के ग्रामीण बेरोजगार युवा बिना किसी कालेज या पाॅलीटैक्निक में जाए केवल अपनी जिज्ञासा से हुनर सीख लेते हैं। किसी कारीगर के चेले बन जाते हैं। कुछ महीने बेगार करते हैं। पर जब सीख जाते हैं, तो उसी हुनर की दुकान शहर के बाहर, सड़क के किनारे एक लकड़ी के खोखे में खोल देते हैं। फिर चाहे चाय की दुकान हो, स्कूटर कार मरम्मत करने की हो या फिर किसी और मशीन को मरम्मत करने की। पुलिस वाले इनसे हफ्ता वसूलते हैं। बाजार के निरीक्षक इन्हें धमकाते हैं। स्थानीय प्रशासनिक संस्था इनकी दुकान गिरवाती रहती हैं। फिर भी ये हिम्मत नहीं हारते और अपने परिवार के पालन के लिए समुचित आय अर्जित कर लेते हैं। दुर्भाग्य से इनकी समस्याओं का हल ढूढ़ने का कोई प्रयास आज तक सरकारों ने नहीं किया।
जरूरत इस बात की है कि सरकार हो या बड़े औद्योगिक घराने, इन उद्यमी युवाओं की छोटी-छोटी समस्याओं के हल ढूढ़ें। जिससे देश में रोजगार भी बढ़े और आर्थिक तरक्की भी हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाल ही में इस मुद्दे में विशेष ध्यान देना शुभ संकेत है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मनरेगा से बंटने वाली खैरात की जगह आम लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की कवायद की जाएगी। जिससे गरीबी भी दूर होगी और बेरोजगारी भी।

Monday, February 3, 2014

भाजपा में सुगबुगाहट

 देशभर में भाजपा व संघ के कार्यकर्ताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर भारी उत्साह है। वहीं भाजपा का पुराना नेतृत्व इस उत्साह के अनुरूप सक्रिय नहीं है। इसके दो कारण माने जा रहे हैं, एक तो यह कि भाजपा का पारंपरिक नेतृत्व अचानक आयी मोदी की बाढ़ से असहज है। उसे लगता है कि मोदी की सफलता का अर्थ उनका राजनीति में दरकिनार होना होगा। इसका कारण वे नरेंद्र मोदी की कार्यशैली बताते हैं। इसलिए वे स्वयं और अपने समर्थकों को उस तरह चुनाव की तैयारी में नहीं लगा रहे, जैसा भाजपा के पक्ष में बन रहे आज के माहौल में उन्हें लगाना चाहिए था। कोई भी लड़ाई आधे मन से जीती नहीं जा सकती। चाहे हम अपनी संभावित सफलता का कितना ही ढिढ़ोरा पीट लें।
 शायद नरेंद्र मोदी कैंप को इस मानसिकता का पूर्वाभास है, इसलिए मिशन मोदी के कर्णधारों ने बूथ के विश्लेषण से लेकर प्रत्याशियों के चयन तक की समानान्तर प्रक्रिया विकसित कर ली है। जिससे भाजपा के पारंपरिक नेतृत्व पर बोझ बने बिना अपनी चुनावी लड़ाई जमकर लड़ी जा सके। यह बात दीगर है कि इस लड़ाई को लड़ने के लिए मतदाता को बूथ तक लाने का जैसा मैनेजमेंट चाहिए और जैसे समर्पित युवा चाहिए, उन्हें टीम मोदी अभी सक्रिय नहीं कर पायी है। ऐसे युवाओं का कहना है कि उनके जैसे लाखों युवा मोदी के अभियान में सक्रिय होना चाहते हैं, पर उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिल रहे। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के स्वयंसेवी लोग जगह-जगह मलिन और निर्धन बस्तियों में मेज-कुर्सी लगाकर सदस्यता अभियान चला रहे हैं और तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बावजूद इसके कि अरविंद केजरीवाल का रेलभवन के सामने का धरना मध्यम वर्ग और पढ़े-लिखे समाज को पसंद नहीं आया। इसलिए दिल्ली में जैसा लोकप्रियता का ग्राफ चढ़ रहा था, वह गिरने लगा है। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार की नीतियों से अप्रभावित अन्य राज्यों के आम आदमी केजरीवाल की कारगुजारियों से उत्साहित हैं और भारी तादाद में सदस्य बन रहे हैं। टीम मोदी के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए।
 जुड़ने के प्रति जो आकर्षण है, उसका मूल कारण है कि राजनैतिक सोच रखने वाले देश के अनेकों लोगों को यह लगता है कि पारंपरिक राजनैतिक दलों में नए व्यक्तियों और नए विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वहां तो पुराने थके हुए गुटबाज नेताओं का ही वर्चस्व रहता है। जबकि (आआपा) में फिलहाल हर व्यक्ति को अपनी भूमिका नजर आ रही है। भविष्य में आम आदमी पार्टी (आआपा) की परिणति पारंपरिक दलों की तरह होगी या नहीं होगी, नहीं कहा जा सकता। पर आज तो पढ़े-लिखे लोग भी यह मान रहे हैं कि अन्य दलों का नेतृत्व अहंकारी है और वहां किसी की कोई सुनवाई नहीं होती।
 इस सबके बावजूद भाजपा में टिकटार्थियों की लाइनें लगना शुरू हो गई हैं। जिन राज्यों में हाल ही में भाजपा को प्रभावशाली सफलता मिली, वहां लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए बहुत से लोग इच्छुक हैं। उन्हें लगता है कि मोदी की बहती गंगा में वह भी हाथ धो लें। पर मोदी की टीम उम्मीदवारों के चयन में बहुत सचेत है। वह झूठे दावे करने वालों और वफादारी का नाटक करने वालों को पसंद नहीं करते। उन्हें तलाश है ऐसे चेहरों की जो मोदी के भारत निर्माण अभियान में ठोस और सक्रिय भूमिका निभा सकें। जो गुटबाजी से दूर हों और जिन्हें मोदी के नेतृत्व पर पूरा यकीन हो। ऐसे लोगों का चयन आसान नहीं होगा, क्योंकि ऐसे लोगों को समाज के निहित स्वार्थ कोई न कोई षडयंत्र चलाकर मुख्य धारा से दूर रखते हैं। जिससे उनकी दुकान फीकी न पड़ जाये। पर यह तो जौहरी की योग्यता पर है कि वह गुदड़ी में से भी हीरे पहचान कर ले आये।
 जहां तक आआपा के प्रभाव का प्रश्न है, यह सही है कि आआपा ने अपनी जमीनी पहचान बनाकर सभी प्रमुख राजनैतिक दलों में सुगबुगाहट पैदा कर दी है। पर वैचारिक अस्पष्टता और अराजक तौर तरीकों के कारण आआपा बदनाम भी कम नहीं हुई है। अपने सामने नेपाल का उदाहरण स्पष्ट है। वहां के माओवादी नेता अरविंद केजरीवाल की भाषा और तेवर में बोला करते थे। किस्मत से उन्हें सरकार भी बनाने का मौका मिला, पर उनके राज में नेपाल का जो बंटाधार हुआ कि वह खुद भी मैदान छोड़कर भागते नजर आये और नेपाल को पहले से बदतर हालत में लाकर खड़ा कर दिया। इसी तरह आआपा के नेताओं की अनुभवहीनता, अपरिपक्वता, अहंकार और आत्मश्लाघा से यह स्पष्ट हो गया है कि इनके पास नारों के अलावा देने को कुछ भी नहीं है। इस सबके बावजूद भारत का मतदाता किस ओर बैठेगा, नहीं कहा जा सकता।
 

Monday, January 20, 2014

कब तक चलेगी राहुल गांधी की दुविधा

17 जनवरी को एक बार फिर कांग्रेस की आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं को निराश किया। कुछ दिन पहले बंगाल के एक अंग्रेजी दैनिक में प्रमुखता से खबर छपी थी कि राहुल गांधी को जल्दी ही प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है। उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 10 साल के कार्यकाल में तीसरे संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए इस खबर को और पक्का कर दिया जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले चुनाव के बाद अगर यूपीए की सरकार आती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे। राहुल गांधी पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि हमारे पास बहुत काबिल युवा नेतृत्व है, जो देश की बागडोर संभाल सकता है। इस के बाद सत्ता के गलियारों में चर्चा जोरों पर थी कि 17 जनवरी के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित करके राहुल गांधी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाएगा और मनमोहन सिंह अपना इस्तीफा सौंप देंगे। इस खबर के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बनकर राहुल गांधी अच्छा चुनाव प्रचार कर पाएंगे। पर 17 जनवरी के अधिवेशन में श्रीमती सोनिया गांधी ने ऐसी सब अटकलों पर विराम लगा दिया।
 
भाजपा को इससे एक बड़ा हथियार मिल गया यह कहने के लिए कि नरेंद्र मोदी के कद के सामने राहुल गांधी का कद खड़ा नहीं हो पा रहा था, इसलिए वे मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। पर कांग्रेस के प्रवक्ता का कहना था कि उनके दल में  चुनाव परिणामों से पहले प्रधानमंत्री पद का कोई नया दावेदार का नाम तय करने की परंपरा नहीं रही है, इसलिए राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की गई। कारण जो भी हो राहुल गांधी की छवि आज तक एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन पायी है। फिर वो चाहे उनकी संकोचपूर्ण निर्णय प्रक्रिया हो, या ढीला ढाला परिधान। कभी लंबी दाढ़ी बढ़ी हुई, कभी क्लीन शेव। जो आज तक यह भी तय नहीं कर पाये कि उन्हें देश के सामने कैसा व्यक्तित्व पेश करना है। उनके नाना गुलाब का फूल, जवाहर कट जैकेट, शेरवानी और गांधी टोपी से जाने जाते थे। सुभाषचंद्र बोस फौजी वर्दी से, सरदार पटेल अपनी चादर से, मौलाना आजाद अपनी दाढ़ी व तुर्की टोपी से, इंदिरा गांधी अपने बालों की सफेद पट्टी व रूद्राक्ष की माला से पहचानी जाती थीं। पर राहुल गांधी ने अपनी ऐसी कोई पहचान नहीं बनाई। उनके भाषणों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई हड़बड़ाहट में बोल रहा हो। इससे न तो वे वरिष्ठ नागरिकों को प्रभावित कर पाते हैं और न ही युवाओं को।
 
कायदे से तो राहुल गांधी को यूपीए-2 में शुरू से ही उपप्रधानमंत्री का पद ले लेना चाहिए था। जिससे उन्हें अनुभव भी मिलता, गंभीरता भी आती और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी अपने आप बन जाती। लगता है कि राहुल गांधी इस भ्रम में रहे कि अपने पिता की तरह 1984 के चुनाव परिणामों की तर्ज पर वे भी पूर्ण बहुमत पाने के बाद ही प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। अब तो इसकी संभावना और भी कम हो गई है। ऐसे में राहुल गांधी लगता है कि अब तक बहुत घाटे में रहे। अगर ऐसा ही होना था तो शुरू से ही सोनिया गांधी को प्रियंका गांधी को आगे कर देना चाहिए था। प्रियंका गांधी काफी हद तक इस कमी को पूरा कर लेती। क्योंकि लोग उनके व्यक्तित्व में इंदिरा गांधी कि झलक देखते हैं। पर राबट वडेरा के विवाद उठाये जाने के बाद अब वह सम्भावना भी कम हो गयी। वैसे तो यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। हां यह जरूर है कि राहुल गांधी की दुविधा से नरेंद्र मोदी के लिए राह आसान बनी रही। अब उनके विरोध में कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं खड़ा है। आज तो हालत यह है कि देश में काफी तादाद में लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। इनमें वे लोग भी हैं, जो आम आदमी पार्टी जैसे दलों की तरफ टिकट की आस में भाग रह हैं।
 

कांग्रेस की नैय्या डांवाडोल दिखती रही है। और अब तक की स्तिथि की समीक्षा करें तो उसके पार लगने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। वैसे एक अनुभव सिद्ध तथ्य यह भी है कि आज की तेज़ रफतार राजनीति में कब क्या स्तिथियां बनती हैं इसका पूर्वानुमान लगाना भी जोखिम भरा होता है। लोकसभा चुनावों में अभी 4-5 महीने बाकी हैं इस बीच कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष अपनी ऊर्जा कैसे बनाये रखेगा सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है।

Monday, August 26, 2013

आसाराम कांड से बाबा लोग बेचैन

आसाराम कांड ने देश के बाबा लोगों को बेचैन कर दिया है। हफ्ते भर से आसाराम के बहाने मीडिया में बहस जारी है। लेकिन यह बहस हमेशा की तरह फौरी तौर पर उस सनसनी तक ही सीमित है जिसकी उम्र आम तौर पर चार छह दिन से ज्यादा नहीं होती। फिर भी यह कांड इसलिए गंभीर विचार विषयों की मांग कर रहा है। क्योंकि यह धर्म, व्यापार, अपराध और राजनीति के दुश्चक्र का भी मामला है। वैसे धर्म का मामला तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता। किसी पंच या धार्मिक संगठन से भी कोई बात नहीं बनती। जो थोड़ा बहुत समाज सुधारक का प्रचार था वह भी जाता रहा।
 
रही बात व्यापार की तो यह सबके सामने है कि ऐसे कथित धार्मिक साम्राज्य बिना व्यापार के खड़े ही नहीं हो सकते और एक बार यह व्यापार चल पड़ता है तो दूसरी ताकतें खुद व खुद आने लगती हैं। इन्हीं में एक ताकत कानून की फिक्र न करने की भी ताकत है। आसाराम इसी की वजह से पकड़ में आते जा रहे हैं। बेखौफ होना हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता। पिछले सात दिनों में आसाराम के प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने आसाराम की छवि को जिस तरह से खौफनाक बनाया है उससे आसाराम का बचाव कम हुआ है और उन्हें मुश्किल में ड़ालने में काम ज्यादा हुआ है। आसाराम के प्रतिष्ठान के पास प्रशिक्षित प्रबंधकों की भी कमी है। वरना वे प्रबंधक जरुर सोच लेते कि एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के लिए छवि का क्या महत्व होता है। यानि इस कांड में आसाराम की छवि को जिस तरह खौफनाक बनाया है। उससे उसके प्रतिष्ठान के व्यापार पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा ? इसलिए उनके अनुयायी श्रद्धालु कम और ग्राहक ज्यादा थे।
 
तीसरा तत्व अपराध का है। मौजूदा मामला सीधे सीधे अपराधों का ही है। जैसा मीडिया पर दिखता है उससे साफ है कि उन्होंने हद ही कर दी है। एक के बाद एक होते कांड उनके अनुयायी भी सहन नहीं कर पायेंगे और फिर भारतीय मानस आत को बिल्कुल पंसद नहीं करता। अपराधों के मामले में तो वह तुरन्त प्रक्रिया करने लगते हैं। देश के लोगों के इस स्वभाव को आसाराम समझ नहीं रहे हैं। उन्हें अपने अनुयायियों की संख्या पर भ्रमपूर्ण घमंड है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि अन्ना कहां से कहां आ गए हैं और उनके अनुयायी कहां चले गये हैं।

रही बात राजनीति की तो आसाराम राजनीति से भी बाज नहीं आते। हो सकता है कि अनुयायियों की संख्या की बात का जिक्र करके वे राजनीतिक व्यवस्था भी इसलिए धमकाते रहते हो ताकि उनके काम में अड़चन डालने से कोई जरूरत न करे। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र के अनुयायियों की संख्या के बल पर ही बनी होती है। हालांकि आसाराम ने राजनीतिकों पर मखौल जैसी टिप्पणीयां करके एक कवच बनाने की कोशिश की थी। यानि उन्होंने आम तौर पर की जाने वाली प्रेपबद्धी की थी। अभी कुछ महीनों पहले उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसी खिल्लियां इसलिए उड़ायी जाती हैं कि अगर कानूनी तौर पर आसाराम जैसे लोगो पर कोई कार्यवाही हो तो कहा जा सके ये तो बदले की कार्यवाही है। खैर यह कोई नयी या बड़ी बात नहीं है।
 
नयी बात यह है आसाराम कांड ने उन जैसे तमाम बाबाओं को बेचैन कर दिया है। और शायद इसलिए दूसरे ऐसे बाबाओं का धु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। वरना साम्प्रदायिकता, धर्म या आस्था जैसे मामलों में प्रभावित पक्ष एक दम इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन आसाराम कांड के मामले में वे आसाराम से बचते नजर आ रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि आसाराम कांड को लेकर विज्ञाननिष्ठ और अंधविश्वास विरोधी शक्तियां काफी मजबूती से अपना पक्ष रखती नजर आ रही हैं। इसे सामाजिक व्यवस्था के लिए शुभ लक्षण माना जाना चाहिए। लेकिन वहां भी दिक्कत यह है कि तर्कशास्त्री अभी कोई अकादमिक पाक्य नही बना पाये है जो अंधविश्वास पर सीधे चोट कर सके और आम आदमी को आसानी से बता सके कि चमत्कार या इन्द्रीअतीत शक्तियों की बातों से वै कैसे ठगे जाते है या आम जन के जीवन पर कैसा बुरा प्रभाव पडता है। ये सारी बाते भले ही हमे साफ साफ न दिखती हो लेकिन इतना तो हो ही गया है कि अब समाज प्रतिवाद के लिए तैयार हो गया है बस अब जरूरत है ऐसे मामलों मे एक सार्थक संवाद की है।

Monday, December 24, 2012

मोदी की जीत से कॉंग्रेस को सबक

गुजरात के 47 फीसदी मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेण्डे पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। मोदी के दावों के विरूद्ध काँग्रेस का प्रचार उसे मात्र 38 फीसदी वोट दिला पाया। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी मोदी को मिले वोट ने यह सिद्ध कर दिया कि गुजरात का मतदाता जाति और धर्म के दायरों से बाहर निकलकर विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। मोदी ने मुसलमानों की प्रतीकात्मक टोपी भले ही न ओढ़ी हो, पर गुजरात की सड़कों पर अवैध रूप से बने मन्दिर और मस्जिद गिराकर यह संदेश साफतौर पर दे दिया था कि उनकी सरकार विकास के रास्ते में धर्मान्धता को प्राश्रय नहीं देगी। यह बात दूसरी है कि मोदी की इस पहल से विहिप और संघ दोनों मोदी से नाराज हो गऐ और उनके खिलाफ अन्दर ही अन्दर माहौल भी बनाने की कोशिश की। पर इस परिणाम ने उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया। संघ के नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा संदेश है। अब तक संघ ने कभी भी मजबूत नेतृत्व को खड़ा नहीं होने दिया। जो उनके दरबार में हाजिरी दे, वही उनके लिए योग्य नेता होता है। चाहे फिर वो नितिन गडकरी ही क्यों न हो? कल्याण सिंह को विफल करने में संघ की यही मानसिकता जिम्मेदार रही।
रही बात मोदी के भविष्य की तो इस पर अनेक टी0वी0 चर्चा में चल ही रही है और अब 2014 तक चलेंगी भी। सबका यही मानना है कि मोदी को अपना तेवर और भाषा दोनों बदलनी पड़ेगी। फिर भी गारण्टी नहीं कि राजग के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लें। उससे पहले भाजपा के अन्दर भी संघर्ष कम नहीं होगा। पर अगर भाजपा मोदी के नेतृत्व का लाभ उठाना चाहती है, तो एक रास्ता है। वह अपने सहयोगी दलों से एक गुप्त समझौता कर ले। जिसका आधार यह हो कि भाजपा मोदी को अपना उम्मीदवार बनाकर आक्रामक प्रचार में जुटे और वो सहयोगी दल जो इससे सहमत न हों, अलग-अलग रहकर चुनाव लड़ें। जहाँ दोनों के बीच सीधा मुकाबला हो, वहाँ नूरा-कुश्ती लड़ ली जाए। मतलब जनता की निगाह में लड़ाई हो और वास्तव में मिलकर खेल खेला जाए। जैसे बड़े राजनेताओं के परिवारजनों को जिताने के लिए प्रायः विरोधी राजनैतिक दल भी कमजोर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। इससे राजग के सभी दलों को अपनी ताकत अजमाने का मौका मिलेगा। लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद जिसके सांसद ज्यादा हों, वो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकता है। पर यह निर्णय इतने आसान नहीं होते। अनेक तरह के बाहरी दबाव दलों को और उनके नेताओं को झेलने पड़ते हैं। वैसे आज की तारीख में पूरा कॉरपोरेट जगत और व्यापारी समाज यह मानता है कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। जबकि देहात से जुड़ा तबका मोदी के इस स्वरूप से प्रभावित नहीं है।
इसका सीधा प्रमाण गुजरात के 49 फीसदी मतदाताओं ने दिया है। जिन्होंने मोदी के खिलाफ वोट दिया है। साफ जाहिर है कि विकास के दावों का भारी भरकम प्रचार और मोदी को मिला मीडिया का अतिउत्साही समर्थन भी गुजरात की 49 फीसदी मतदाताओं को आश्वस्त नहीं कर पाया। मतलब यह कि मोदी का विकास का दावा आम जनता ने नहीं स्वीकारा। यह बात दूसरी है कि अपने उसी टेंपो में मोदी ने जीत के बाद पहले हिंदी भाषण में पूरे देश के मतदाताओं को सम्बोधित किया और उन्हें रोजगार के लिए गुजरात आने का न्यौता दिया। यानि वे एक बार फिर इसी आक्रामक प्रचार शैली से देश के सामने अपनी नयी भूमिका के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले हैं।
काँग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है। उस तरह नहीं, जिस तरह राजनैतिक विश्लेषक मीडिया पर बता रहे हैं। जो कि यह मान बैठे हैं कि मोदी का विकास का नारा चल गया। वे इस हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं कि 49 फीसदी मतदाता मोदी के दावे से सहमत नहीं हैं। काँग्रेस इस बात का पूरा फायदा नहीं उठा पायी। अब उसके सामने चुनौती यह है कि वह देश के सामने इन तथ्यों को कैसे रखे कि जनता प्रचार के प्रभाव से बचकर निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके। बाकी देश की जनता गुजरातियों की तरह न तो उद्यमी है और न ही व्यापारी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात को छोड़कर पश्चिमी भारत से असम तक आम हिन्दुस्तानी अभी भी कृषि, छोटे कारोबार और सेवा सैक्टर से जुड़ा है। जिसके लिए न तो मोदी की भाषा और न तेवर का ही कोई महत्व है। मतदाताओं का यह वह विशाल वर्ग है जिसके लिए विकास का मतलब है छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा होना। उसके जल, जंगल, जमीन का बचना। उसके लिए रोजगार का सृजन होना। ऐसे सभी कामों में तमाम आलोचनाओं के बावजूद काँगे्रस मोदी से पहले भी आगे थी और आज भी आगे है।
आम आदमी के हक में भाजपा के मुकाबले काँगे्रस ने हमेशा ही ज्यादा ठोस और जोखिम भरे फैसले लिए हैं। चाहें वो इन्दिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या पंचायत राज या सीधे नकद सब्सिडी। काँग्रेस के सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो यह कि वह अपनी इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने में जी-जान से जुट जाए। कोई कोताही न होने दे। अफसरशाही पर अपनी नकेल कसे। प्रशासन को जनोन्मुखी बनाऐ। दूसरी चुनौती यह है कि मोदी की तरह ही वह अपनी उपलब्धियों का आक्रामक तरीके से प्रचार करें।
ये चुनावी दंगल का वर्ष है। राजग और सप्रंग दोनों अपने खम्भ ठोकेंगे। कमजोरियों और उपलब्धियों में दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है। जनता इस तमाशे को देखेगी और जिसका सन्देश उसके दिल में उतरेगा, उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठा देगी।

Monday, December 10, 2012

देश में हलचल क्यूँ मची हुई है

देश में हलचल मची है। खासतौर पर सरकारी नीतियों को लेकर मीडिया और विपक्ष सक्रिय हो उठा है। लेकिन मुद्दे जल्दी जल्दी आ और जा रहे हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा मुख्य मुद्दा है क्या? ऐसे हालात में मीडिया की तरफ से एक शब्द आया है- पॉलिसी पैरालिसिस! इसकी हिन्दी करना भी मुश्किल हो रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि पिछले तीन-चार महीनों में इस शब्द का चलन अचानक बढ़ गया है।
दरअसल इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर कॉरपोरेट जगत कर रहा है। जिसका आरोप है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सोच और नीतियों को लेकर एकरूपता नहीं है। अवसरशाही नाहक निर्णयों को लम्बा खींच रही है। देश में विनियोग करने का वातावरण खत्म होता जा रहा है। मजबूरन भारत के बड़े औघोगिक घरानों को दूसरे देशों में विनियोग की संभावनाऐं तलाशनी पड़ रही हैं।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में सरकार की जबावदेही आमजनता के प्रति ज्यादा होती है। इसलिए कॉरपोरेट जगत की इस शिकायत को सही मानते हुए भी हमे देखना होगा कि क्या वाकई सरकार हर मामले में इतनी ढीली पड़ गयी है कि उसके लिए ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का नामकरण किया जाऐ?
ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि ‘नीतिगत फॉलिश’ मारा जाना या ‘नीतिगत पक्षाघात’ से कोई अर्थचित्र नहीं बन पा रहा है। नीति में दोष तो हो सकता है, लेकिन नीति को ‘फॉलिश’ मारने की कोई स्थिति समझ में नहीं आती। जितने भी लोगों के बीच इस शब्द को लेकर अनौपचारिक बातचीत हो रही है, वे कहना तो यही चाह रहे हैं कि सरकार की नीतियाँ समझ में नहीं आ रही हैं। यदि उन्हें यही कहना है तो वे सरलता से कह सकते हैं कि नीतियों में ‘स्पष्टता’ नहीं है। लेकिन यह बात कही इसलिए नहीं जा सकती क्योंकि आजादी के बाद देश में पहली बार सरकार की नीतियों को लेकर इतनी तीव्रता और सघनता से बहस हो रही है और नीतियों का विरोध हो रहा है - इसलिए कोई नहीं कह सकता कि नीतियाँ समझ में नहीं आ रहीं। खासतौर पर सब्सिडी को सीधे लाभार्थी को दिए जाना और खुदरा में एफ.डी.आई. को शुरू किए जाना, ऐसी नीतियाँ या उपाय हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन नीतियों के कार्यान्वयन में अब कानूनी तौर पर कोई अड़चन नहीं दिखती। बस वे अन्देशे दिखते हैं जिन्हें मीडिया और नीति विरोधी शक्तियाँ दिखा रही हैं। इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है।
गांवों तक सब्सिडी के रूप में हर जरूरतमंद को सीधे धन पहुँचाने की नीति को लेकर सबसे ज्यादा हलचल है। इसके विरोध में आमतौर पर एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश के बहुत बड़े तबके (आम मतदाता) को घूस देने की कोशिश है। विपक्ष के इस आरोप के जबाव में सरकारी विशेषज्ञों का कहना है कि आजादी के बाद से आज तक हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि अन्तिम व्यक्ति तक मदद कैसे पहुँचे? जितनी नीतियां और कार्यक्रम अन्तिम व्यक्ति के लिए बने, उन सबको नौकरशाही और बिचैलिए खा गए। यह पहली बार है कि अब इन सबकी कोई भूमिका नहीं रही। आम आदमी सीधे लाभ उठा सकेगा। इसी से विरोधियों में घबराहट है कि अगर ऐसा हो गया तो फिर इसकी टक्कर में उनके पास क्या बचा? इससे यह तो साफ है कि सरकार की नीति में कोई शैथिल्य नहीं है। वह जो चाह रही है, धड़ल्ले से कर रही है। हां, यह बात जरूर है कि जैसा दावा सरकार कर रही है, वैसा लाभ क्या वाकई आम आदमी को मिल पाऐगा? तो फिर यह तो क्रियान्वयन की संभावनाओं पर संशय वाली स्थिति हुई। इसमें नीतिगित शैथिल्य कहाँ से आया?
एफ.डी.आई. ऐसी दूसरी नीति है। संसद में लगातार चार दिन की बहस में इस नीति के लगभग हरेक पक्ष पर खूब बातचीत हुई है। कुल मिलाकर इसके विरोध में एक ही तर्क दिया गया कि किराना या खुदरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लगभग 20-25 करोड़ लोगों का क्या होगा? लेकिन यह बात किसी ने नहीं उठाई, सरकार ने भी नहीं, कि अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है तो आज खुदरा व्यापार में शोषित हो रहे श्रमिकों और कर्मचारियों की दशा में कितना गुणात्मक सुधार आ जाऐगा? वैसे भी हैरत की बात यह है कि शुरूआत में यह सिर्फ 10 लाख से ज्यादा आबादी के 53 शहरों तक ही सीमित थी और बाद में राजनीतिक परिस्थितियों में निकलकर यह आया कि शुरूआती तौर पर इसका प्रयोग या क्रियान्वयन सिर्फ 15 शहरों में हो पाऐगा। यानि 15 शहरों से प्रायोगिक तौर पर शुरू की जा रही इस नीति का कार्यान्वयन होना है। जिसे लेकर कोई भी कह सकता है कि इसके नतीजों को देखकर ही इसके आगे जाने की सम्भावनाऐं बनेंगी। हाँ, यह तय हो गया है कि ये दोनों नीतियां जल्दी ही शुरू होनी हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि बगैर ज्यादा शोर मचे ये दोनों काम शुरू हो चुके हैं। यानि ‘नीतिगत शैथिल्य’ का प्रश्न अब प्रासंगिक हुआ नहीं दिखता।
जहाँ तक औघोगिक जगत का आरोप है, वहाँ वाकई सरकार की जबावदेही बनती है। पर केन्द्र की ही क्यों, राज्यों की सरकारें भी कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाई हैं। पिछले दशक में केवल तीन मुख्यमंत्री ऐसे रहे हैं, नरेन्द्र मोदी, शीला दीक्षित और मायावती जिन्होंने अपनी नौकरशाही पर पकड़ बनाई है। वर्ना राज्य हों या केन्द्र, नौकरशाही आज भी इतनी ताकतवर है कि वो जनता और नेता दोनों को मूर्ख बना रही है। नेता राजनैतिक निर्णय ले या भ्रष्ट आचरण करे तो माना जा सकता है कि यह चुनावी व्यवस्था की मजबूरी है, जहाँ उसका भविष्य अनिश्चित रहता है। पर सुरक्षित वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार का स्थायी अंग बनी नौकरशाही क्यों गलत होने देती है? क्यों सही का समर्थन नहीं करती? क्यों अपने से बेहतर विचारों ओैर कार्यक्रमों को स्वीकारने में उसके अहम को चोट लगती है? जब सबकुछ मिला है तो वो क्यों भ्रष्ट हो जाती है? आज देश में इस झंझट में से निकलकर प्रगति के रास्ते पर चलने का माहौल बनना चाहिए। जिसका एक बड़ा हिस्सा होगा कि जनता नौकरशाही की जबावदेही के लिए पूरा दबाव बनाऐ। फिर जनता में चाहें रतन टाटा हों या मध्यम वर्ग या आम इंसान।

Monday, November 19, 2012

बाला साहब के भगवा स्वरूप को क्यों भूल रहा है अंगे्रजी मीडिया

महाराष्ट्र के दिवंगत नेता बाला साहब ठाकरे को श्रृद्धान्जलि देने में अंगे्रजी टी वी और प्रिन्ट मीडिया पीछे नहीं रहा। उनकी भडकाऊ राजनीति, तानाशाही और हिंसक बयानबाजी का आलोचक रहा देश का अंगे्रजी मीडिया बाला साहब की मौत पर उनका गुणगान करता नजर आया। इसमें कोई अस्वभाविक बात नहीं है। मरणोपरान्त हर जाने वाले की प्रशस्ति में कसीदे काढ़े जाते हैं । पर महत्वपूर्ण बात यह है कि केसरिया चोगा पहनकर, गले में रूद्राक्ष की माला लटकाकर, छत्रपति शिवाजी महाराज की वैदिक ध्वजा फहराकर और सिंह के चित्र को दर्शाते हुए सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले बाला साहब देवरस ने एक प्रखर हिन्दूवादी छवि का निर्माण किया और उसे अन्त तक निभाया। इस छवि के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति को अपने इशारों पर नचाया। सत्ता में हों या बाहर अपना रूतबा कम नहीं होने दिया। पर उनके व्यक्तित्व के इस हिन्दूवादी पक्ष को अंग्रेजी मीडिया ने दिखाने की कोशिश नहीं की।
 
अंग्रेजी मीडिया अमूमन अपनी छवि धर्मनिरपेक्षता की बनाकर रखता है। इसलिए जब-जब बाला साहब ने  प्रखर हिन्दूवादी तेवर अपनाया तब तब मुख्यधारा का मीडिया बाला साहब के पीछे पड़ गया। पर अब उनकी मौत पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष क्यों भुला दिया गया ? यह सही है कि बाला साहब का व्यक्तित्व व वक्तव्य विरोधाभासों से भरे होते थे। पर उनकी इस हिन्दूवादी छवि ने उन्हें देशभर के उन हिन्दुओं का  चहेता बनाया जो प्रखर हिन्दुवादी नेतृत्व देखना चाहते हैं। छोटी छोटी घटनाओं से बाला साहब ने ऐसे कई संदेश दिये ।  जब मुंबई के मुसलमान जुम्मे की नमाज अदा करने के लिए हर शुक्रवार मुंबई की सड़कों पर मुसल्ला बिछाने लगे और मुंबई पुलिस इस नई मुसीबत से निपट नहीं पा रही थी तो बाला साहब ने हर शाम, हर मन्दिर के सामने, सड़क पर भीड़ जमा कर महाआरती करने का ऐलान कर दिया। नतीजतन दोनों पक्षों ने बिना हीलहुज्जत किये अपना फैलाव समेट लिया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के आकर बसने पर सबसे पहला विरोध बाला साहब ने ही किया था।
 
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व रहा है जिसने हिन्दु वोट बैंक को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन हमेशा इस तरह के सख्त कदम उठाने से परहेज किया। इतना ही नहीं पूरे देश में रामजन्मभूमि मुक्ति आंन्दोलन चलाने के बाद जब अयोध्या में विवादास्पद ढाँचा गिरा तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इसे शर्मनाक हादसा कहा। जबकि बालासाहब से जब पूछा गया कि इस ढ़ांचे को गिराने में शिवसैनिकों का हाथ था, तो उन्होंने तपाक से कहा कि उन्हें अपने सैंनिको पर गर्व है। दूसरी तरफ हिन्दू हक के हर मुद्दे पर कड़े तेवर अपनाने वाले बाला साहब ने आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव तक के मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़े रहने में संकोच नहीं किया। इंका के वरिष्ठ नेता सुनील दत के फिल्मी सितारे बेटे संजय दत को रिहा कराने में वे आगे आये। इससे यह तो साफ है कि बाला साहब ने जो ठीक समझा उसे ताल ठोक कर किया़। चाहें किसी को ठीक लगे या गलत। इसलिए उनकी छवि एक प्रखर हिन्दुवादी नेता की बनी।
 
मुसलमानों को लुभाने की नाकाम कोशिशों में जुटा भाजपा नेतृत्व आज भी ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हैं। इसलिए दुविधा कायम हैं ? दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काफी हद तक बाला साहब का अनुसरण करने की सफल कोशिश की है और उसका फल भी उन्हें मिला है। नरेन्द्र मोदी को भी मुख्यधारा के मीडिया ने धर्मनिरपेक्षता के तराजू में तोलकर बार-बार अपराधी करार दिया है। पर हर बार मीडिया के आंकलन से बेपरवाह मोदी ने अपना रास्ता खुद तय किया है।
 
बाला साहब को श्रद्धान्जली देने गये भाजपा के नेताओं को इस मौके पर आत्म मंथन करना चाहिए। क्या वे इसी तरह भ्रम की स्थिति में रहकर आगे बढ़ेंगें या अपनी विचारधारा में स्पष्टता लाकर अपनी रणनीति साफ करेंगे। आज तो वे कांग्रेस की दसवीं कार्बन कॉपी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते। उधर मीडिया को भी यह सोचना पडेगा कि इस लोकतांत्रिक देश में समाज के हर हिस्से और विभिन्न विचारधाराओं को एक रंग के चश्मों से देखना सही नहीं है। धर्मनिरपेक्ष से लेकर सांम्प्रदायिक लोगो तक और गांधीवादियों से लेकर नक्सलवादियों तक को अपनी बात कहने और अपनी तरह जीने का मौका भारत का लोकतंत्र देता है। इसलिए मीडिया की निष्पक्षता तभी स्थापित होगी जब वो समाज के विभिन्न रंगों की प्रस्तुति पूरी ईमानदारी से करे। एक कार्टून पत्रकार से महाराष्ट्र के शेर बनने तक की बाला साहब की यात्रा हममें से बहुतों की विचारधारा के अनुरूप नहीं थी पर इस यात्रा के ऐसे आयामों के महत्व को कम करके आंका नहीं जा सकता।

Monday, October 8, 2012

क्या होगा रॉबर्ट वाड्रा के खुलासे का असर

पिछले दो सालों से एसएमएस और इंटरनेट पर यह संदेश बार-बार प्रसारित किये जा रहे थे कि रॉबर्ट वाड्रा ने डीएलएफ के मालिक, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा व अन्य भवन निर्माताओं से मिलकर दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्जित कर ली है। पर जो खुलासा शुक्रवार को दिल्ली में किया गया उसमें मात्र 300 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का ही प्रमाण प्रस्तुत किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में बाकी की सम्पत्ति का भी खुलासा होगा। अगर नहीं होता है तो यह चिन्ता की बात है कि बिना प्रमाणों के आरोपों को इस तरह पूरी दुनिया में प्रचारित कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर राबर्ट वाड्रा ने अपनी सास श्रीमती सोनिया गांधी के सम्बंधों का दुरुपयोग करके अवैध सम्पत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच होनी चाहिए। पर यहां कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहली बात, पिछले दस सालों में हर शहर में प्रापर्टी डीलरों की हैसियत खाक से उठकर सैंकड़ों करोड की हो चुकी है। दूसरी बात यह है कि राजनेता ही नहीं हर नागरिक कर चोरी के लिए अपनी सम्पत्ति का पंजीकरण बाजार मूल्य से कहीं कम कीमत पर करवाता है। इस तरह सम्पत्ति के कारोबार में भारी मात्रा में कालेधन का प्रयोग हो रहा है। तीसरी बात रोबर्ट वाड्रा इस धंधे में अकेले नहीं। किसी भी राज्य के किसी भी राजनैतिक दल के नेता के परिवारजन प्रायः सम्पत्ति के कारोबार में पाये जायेंगे। अरबों रुपयों की अकूत दौलत नेता अफसर और पूँजीपति बनाकर बैठे हैं। सम्पत्ति का कारोबार कालेधन का सबसे बडा माध्यम बन गया है। इसलिए इसका राजनीति में दखल बढ़ गया है। इसलिए एक रॉबर्ट वाड्रा का खुलासा करके समस्या का कोई हल निकलने नहीं जा रहा।

दरअसल पिछले बीस वर्षों में भ्रष्टाचार के इतने काण्ड उजागर हुए हैं कि जनता में इससे भारी हताशा फैल गई है। इस हताशा की परिणिति अराजकता और सिविल वार के रूप में हो सकती है। क्योंकि सनसनी तो खूब फैलायी जा रही है पर समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं। अन्ना के आन्दोलन ने समाधान की तरफ बढने का कुछ माहौल बनाया था। पर उनकी कोर टीम की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं ने सारे आन्दोलन को भटका दिया।

अरविन्द केजरीवाल जो अब कर रहे हैं वो एक राजनैतिक दल के रूप में शोहरत पाने का अच्छा नुस्खा है। पर इससे भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं होगा। बल्कि हताशा और भी बढ़ेगी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे हैं वो काम अब तक मीडिया का हुआ करता था। घोटाले उजागर करना और आगे बढ़ जाना। समाधान की तरफ कुछ नहीं करना। अब जब मीडिया टीआरपी के चक्कर में या औद्योगिक घरानों के दबाव में जोखिम भरे कदम उठाने से संकोच करता है तो उस खाई को पाटने का काम केजरीवाल जैसे लोग कर रहे हैं। मगर यहीं इस टीम का विरोधाभास सामने आ जाता है। अगर सनसनी फैलाना मकसद है तो समाज को क्या मिलेगा और अगर समाज को फायदा पहुंचाना है तो इस सनसनी के आगे का कदम क्या होगा घ् आप हर हफ्ते एक घोटाला उजागर कर दीजिए और भ्रष्टाचार के कारणों को समझे बिना जनलोकपाल बिल का ढिढ़ोरा पीटते रहिए। तो आप जाने अजनाने कुछ राजनैतिक दलों या लोगों को फायदा पहुंचाते रहेंगे। पर देश के हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि जिन्हें आप फायदा पहंुचायेंगे वे भी कोई बेहतर विकल्प नहीं दे पायेंगे।

तो ऐसे में क्या किया जाए ? भ्रष्टाचार कोई नया सवाल नहीं है। सैकड़ों सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। सोचा भी गया है प्रयोग भी किये गये हैं पर हल नहीं निकले। अब नये हालात में फिर से सोचने की ज़रूरत है और सोचे कौन यह भी तय करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार को नैतिकता का प्रश्न माना जाये या अपराध का। अगर हम नैतिकता का प्रश्न मानते हैं तो समाधान होगा सदाचार की या अध्यात्म की शिक्षा देना। व्यक्ति के सात्विक गुणों को प्रोत्साहित करना और तामसी गुणों को दबाना। अगर भ्रष्टाचार को हम अपराध मानते हैं तो उसका समाधान कौन देगा ? इतिहास बताता है कि अपराध के विरूद्ध जब-जब कोई व्यवस्था बनाई गई है तब-तब उसको बनाने वाला अपराधी से भी बडा खौफनाक तानाशाह सिद्ध हुआ है। दरअसल भ्रष्टाचार का मामला नैतिकता के और अपराध के बीच का है। इतिहास यह भी बताता है कि कोई एक जनलोकपाल या उससे भी कड़ा कानून इसका समाधान नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरत है कि इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ बैठकर अध्ययन करें और समाधान खोजें। उदाहरण के तौर पर ऐसा कैसे होता है कि त्याग, बलिदान और सादगी की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता जब भाजपा में मंत्री बनते हैं तो नैतिकता के सारे पाठ भूल जाते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेकर कांग्रेस में घुसने वाले मंत्री पद पाकर गांधी की आत्मा को दुःख पहुंचाते हैं। मजदूरों के हक की लडाई लडने वाले साम्यवादी नेता चीन और रूस में सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए बिखरी टीम अन्ना मीडिया में छाये रहने के लिए हर हफ्ते जो नये शगूफे छोड़ रही है या छोड़ने वाली है उससे हंगामा तो बरपाये रखा जा सकता है पर भ्रष्टाचार का इलाज नहीं कर पायेंगे। नतीजतन रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ऐसे विचारों को पढ़कर या टीवी चैनल पर सुनकर कुछ भावुक पाठक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं इन लोगों के प्रयासों का विरोध कर रहा हूं। जबकि हकीकत यह है कि शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने बीस वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लडाई में अगर गद्दारी न की होती तो शायद हालात आज इतने न बिगडते। इसलिए इनकी कमजोरियों को समझकर और यथार्थ को देखते हुए परिस्थितयों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भावना में बहकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लें।

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।