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Monday, January 14, 2019

मकड़जाल में सीबीआई

सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को बड़ी राहत देते हुए 77 दिन बाद पुनः अपने पद पर बिठा दिया। यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘विनीत नारायण फैसले’ के तहत सीबीआई निदेशक का 2 वर्ष का निधार्रित कार्यकाल ‘हाई पावर्ड कमेटी’ जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, की अनुमति के बिना न तो कम किया जा सकता है, न उसके अधिकार छीने जा सकते हैं और न ही उसका तबादला किया जा सकता है। इस तरह मोदी सरकार के विरूद्ध आलोक वर्मा की यह नैतिक विजय थी। पर अपनी आदत से मजबूर आलोक वर्मा ने इस विजय को अपने ही संदेहास्पद आचरण से पराजय में बदल दिया।

सीबीआई मुख्यालय में पदभार ग्रहण करते ही उन्हें अपने अधिकारियों से मिलना-जुलना, चल रही जांचों की प्रगति पूछना और नववर्ष की शुभकामनाऐं देने जैसा काम करना चाहिए। पर उन्होंने किया क्या? सबसे विवादास्पद व्यक्ति डा. सुब्रमनियन स्वामी से अपने कार्यालय में दो घंटे तक कमरा बंद करके गोपनीय वार्ता की और कमरे के बाहर लालबत्ती जलती रही। जिसके तुरंत बाद उन्होंने उन सभी अधिकारियों के तबादले रद्द कर दिये, जिन्हें 23 अक्टूबर और उसके बाद सरकार ने सीबीआई से हटाया था। जबकि श्री वर्मा को अदालत का स्पष्ट आदेश था कि वे कोई भी नीतिगत फैसला नहीं लेंगे, जब तक कि ‘हाई पावर्ड कमेटी’ उनके खिलाफ लगे भ्रष्टाचार आरोपों की जांच नहीं कर लेती। इस तरह श्री वर्मा ने सर्वोच्च अदालत की अवमानना की।

इससे भी महत्वपूर्णं बात ये है कि देश के 750 से ज्यादा सांसदों में से अकेले केवल डा. सुब्रमनियन स्वामी ही क्यों आलोक वर्मा को चार्ज मिलते ही उनसे मिलने पहुंचे। इससे दिल्ली के सत्ता और मीडिया के गलियारों में पिछले कई महीनों से चल रही इस चर्चा को बल मिलता है कि आलोक वर्मा डा. स्वामी के नेतृत्व में सरकार के विरूद्ध चलाये जा रहे षड्यंत्र का हिस्सा हैं। इतना ही नहीं इससे यह भी संदेह होता है कि श्री वर्मा ने उन दो घंटों में डा. स्वामी को सीबीआई की गोपनीय फाईलें अवैध रूप से दिखाई होंगी। उनके इस आचरण का ही परिणाम था कि सलैक्ट कमेटी ने उन्हें अगले दिन ही फिर से कार्यमुक्त कर दिया।

इससे पहले प्रधानमंत्री कार्यालय को सूचित किया गया था कि डा. सुब्रमनियन स्वामी, आलोक वर्मा, ईडी के हटाऐ गए सह निदेशक राजेश्वर सिंह व ईडी के सेवामुक्त हो चुके तत्कालीन निदेशक करनेल सिंह मिलकर प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध कोई बड़ी साजिश रच रहे हैं। डा. स्वामी दावा तो यह करते हैं कि वे भ्रष्टाचार से लड़ने वाले योद्धा हैं, पर उनके आचरण ने बार-बार यह सिद्ध किया है  कि वे घोर अवसरवादी व्यक्ति हैं, जो अपने लाभ के लिए कभी भी किसी को भी धोखा दे सकते हैं। इतना ही नहीं उन्हें यह अहंकार है कि वे किसी को भी ईमानदार या भ्रष्ट होने का सर्टिफिकेट दे सकते हैं। इन अधिकारियों के विषय में ऐसे तमाम प्रमाण हैं, जो उनकी नैतिकता पर प्रश्न चिह्न खड़े करते हैं। पर डा. स्वामी गत 6 महीनों से इन्हें भारत का सबसे ईमानदार अफसर बताकर देश को गुमराह करते रहे। इसका कारण इन सबकी आपसी सांठ-गांठ है। जिसका उद्देश्य न जनहित है और न राष्ट्रहित, केवल स्वार्थ है। इस आशय के तमाम प्रमाण पिछले 6 महीनों में मैं ट्विटर्स पर देता रहा हूं।

अब आता है मामला राफेल का । आलोक वर्मा के बारे में यह हल्ला मच रहा है  कि वे राफेल मामले में प्रधानमंत्री को चार्जशीट करने जा रहे थे। इसलिए उन्हें आनन-फानन में हटाया गया। जब तक इस मामले के तथ्य सामने न आऐ, तब तक इस पर कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर एक बात तो साफ है कि अगर किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह का भ्रष्ट आचरण किया जाता है, जो कानून की नजर में अपराध है, तो उसके प्रमाण कभी नष्ट नहीं होते और न ही वह केस हमेशा के लिए दफन किया जा सकता है। इसलिए अगर वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध राफेल मामले में सीबीआई के पास कोई प्रमाण है, तो वे आज नही तो कल सामने आ ही जाऐंगे।

सवाल है आलोक वर्मा को अगर ऐसी ही कर्तव्यनिष्ठा थी, तो उन्होंने राकेश अस्थाना के खिलाफ मोर्चा क्यों खोला? उन्हें चाहिए था कि वे प्रधानमंत्री को ही अपना निशाना बनाते। तब देश इस बात को मानता कि वे निष्पक्षता से राष्ट्रहित में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उधर सीबीआई के सह निदेशक राकेश अस्थाना ने एक वर्ष पहले ही भारत के कैबिनेट सचिव को आलोक वर्मा के कुछ भ्रष्ट और अनैतिक आचरणों की सूची दी थी। जिसकी जानकारी मिलने के बाद आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना की तरफ अपनी तोप दागनी शुरू कर दी। उधर वे डा. स्वामी के नेतृत्व में एक बड़ी साजिश को अंजाम देने में जुटे ही थे। कुल मिलाकर सारा मामला सुलझने के बजाए और ज्यादा उलझ गया। नतीजतन उन्हें समय से तीन महीने पहले घर बैठना पड़ गया। जहां तक राकेश अस्थाना के विरूद्ध आरोपों की बात है, तो उनकी जांच पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से होनी चाहिए। तभी देश का विश्वास सीबीआई पर  टिका रह पाऐगा। आज तो सीबीआई की छबि अपने न्यूनतम स्तर पर है।

चलते-चलाते मैं अपनी बात फिर दोहराना चाहता हूं कि लगातार सीबीआई के तीन निदेशकों  का भ्रष्ट पाऐ जाना, यह सिद्ध करता है कि ‘ विनीत नारायण फैसले’ से जो चयन प्रक्रिया सर्वोच्च् अदालत ने तय की थी, वह सफल नहीं रही। इसलिए इस पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को पुनर्विचार करना चाहिए। दूसरी बात सीबीआई को लगातार केंद्र सरकारे अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को ब्लैकमेल करने का हथियार बनाती रही हैं।। इसलिए अदालत को इस पर विचार करना चाहिए कि कोई भी केंद्र सरकार विपक्षी दलों के नेताओं के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामलों में जो भी जांच करना चाहे, वह अपने शासन के प्रथम चार वर्षों में पूरी कर ले। चुनावी वर्ष में तेजी से कार्यवाही करने के पीछे, जो राजनैतिक द्वेष की भावना होती है, उससे लोकतंत्र कुंठित होता है।  इसलिए सीबीआई में अभी  बहुत सुधार होना बाकी है।

Monday, December 31, 2018

‘हृदय’ को हृदयाघात


मोदी जी ने ‘हृदय योजना’ इसलिए शुरू की थी कि हेरिटेज सिटी में डिजाइन की एकरूपता बनी रहे। ये न हो कि उस शहर में आने वाला हर नया नेता और नया अफसर अपनी मर्जी से कोई भी डिजाइन थोपकर शहर को चूं-चूं का मुरब्बा बनाता रहे, जैसा मथुरा-वृन्दावन सहित आजतक देश के ऐतिहासिक शहरों में होता रहा है। यह एक अभूतपूर्व सोच थी, जो अगर सफल हो जाती, तो मोदी जी को ऐतिहासिक शहरों की संस्कृति बचाने का भारी यश मिलता। पर दशकों से कमीशन खाने के आदी नेता और अफसरों ने इस योजना को विफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी क्योंकि उन्हें डर था कि अगर ये योजना सफल हो गई, तो फर्जी नक्शे बनाकर, फर्जी प्रोजेक्ट पास कराने और माल खाने के रास्ते बंद हो जाएंगे। चूंकि मथुरा-वृंदावन में ‘हृदय’ के ‘सिटी एंकर’ के रूप में भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने ‘द ब्रज फाउंडेशन’ को चुना था, इसलिए उसी अनुभव को यहां साझा करूंगा।

दुनिया के खूबसूरत पौराणिक शहर वृन्दावन का मध्युगीन आकर्षक चेहरा एमवीडीए. के अफसरों के भ्रष्टाचार और लापरवाही से आज विद्रूप हो चुका है। आज भी भोंडे अवैध निर्माण धड़ल्ले से चालू हैं। इस विनाश के लिए जिम्मेदार रहे अफसर ही अब योगी राज  में बनाऐ गऐ ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद् के कर्ता-धर्ता बनकर ब्रज का भारी विनाश करने पर तुले हैं।

ऊपर से दुनिया भर के मीडिया में हल्ला ये है कि ब्रज का भारी विकास हो रहा है। योगी जी ने खजाना खोल दिया है। अब ब्रज अपने पुराने वैभव को फिर पा लेगा। जबकि जमीनी हकीकत ये है कि वृन्दावन, गोवर्धन और बरसाना सब विद्रूपता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। ब्रज के संत, भक्त व ब्रज संस्कृति प्रेमी सब भारी दुखी हैं। मोदी सरकार द्वारा इसी वर्ष पद्मश्री से सम्मानित ब्रज संस्कृति के चलते-फिरते ज्ञानकोश डा. मोहन स्वरूप भाटिया भी 'ब्रजतीर्थ विकास परिषद्' के इन कारनामों से भारी दुखी हैं और बार-बार इसका लिखकर विरोध कर रहे हैं, पर कोई सुनने वाला नहीं।

जयपुर व मैसूर दो सर्वाधिक सुन्दर शहरों में ‘मिर्जा इस्माईल रोड’ उस वास्तुकार के नाम पर हैं, जिसने इन शहरों का नक्शा बनाया था। पेरिस की ‘एफिल टावर’ किसी नेता के नाम पर नहीं बल्कि उसका डिजाइन बनाने वाले इंजीनियर श्री एफिल के नाम पर है। पर योगी सरकार को इतनी सी भी समझ नहीं है कि मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के लिए उन लोगों की सलाह लेती जिनका इन प्राचीन नगरों की संस्कृति से गहरा जुड़ाव है, जिनके पास इस काम का ज्ञान और अनुभव है। पर ऐसा नहीं हुआ। हमेशा की तरह नौकरशाही ने घोटालेबाज या फर्जी सलाहकारों को इन प्राचीन शहरों पर थोपकर, इनका आधुनीकरण शुरू करवा दिया। अब इनका रहा-सहा कलात्मक स्वरूप भी नष्ट हो जाऐगा। बंदर को उस्तरा मिले तो वो क्या करेगा ?

उदाहरण के तौर पर मोदी जी की प्रिय ‘हृदय योजना’ में जब व्यवाहरिक, सुंदर व भावानुकूल वृन्दावन परिक्रमा मार्ग 2.5 किमी० बन ही रहा है, तो शेष 8 किमी. परिक्रमा पर एक नया डिजाइन बनाकर लाल पत्थर का भौंडा काम कराने का क्या औचित्य है ? पर ये पूछने वाला कोई नहीं।

योगी जी के मंत्रियों और अफसरों ने अपने अहंकार और मोटे कमीशन के लालच में, ब्रज में ऐतिहासिक जीर्णोद्धार करती आ  रही ‘द ब्रज फाउंडेशन’ की महत्वपूर्ण भूमिका को नकार कर, विकास के नाम पर, पैसे की बर्बादी का तांडव चला रखा है। जबकि ब्रज फाउंडेशन के योगदान को मोदी जी से लेकर हरेक ने आजतक खूब सराहा है।

उल्लेखनीय है कि योगी सरकार के आते ही 9 पौराणिक कुंडों के जीर्णोद्धार का 27 करोड़ रुपये के काम का ठेका 77 करोड़ रुपये में दिया जा रहा था। गोवर्धन क्षेत्र के विकास का काम जयपुर के मशहूर घोटालेबाज अनूप बरतरिया को सौंपा जा रहा था। द ब्रज फाउंडेशन ने जब इसका विरोध किया, तो सब एकजुट होकर गिद्ध की तरह उस पर टूट पड़े । जिससे ये सब मिलकर ब्रज विकास के नाम पर खुली लूट कर सकें।

उधर सभी संतगण व भक्तजन गत 15 वर्षों से द ब्रज फाउंडेशन के कामों को पूरे ब्रज में देखते व सराहते आये हैं। मोदी जी के खास व भारत के  नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत का कहना है कि, ‘जैसा काम बिना सरकारी पैसे के 15 वर्षों में ब्रज में ब्रज फॉउंडेशन ने  किया है वैसा काम 80 प्रतिशत प्रान्तों के पर्यटन विभागों ने पिछले 71 वर्ष में नहीं किया’।

सारी दुनिया के श्री राधाकृष्ण भक्तों, संतगणों व ब्रजवासियों के लिए ये चिंता और शोभ की बात होनी चाहिए कि 71 वर्षों से आश्रम के नाम पर केवल अपने लिए गेस्ट हाउस बनाने वाले राजनैतिक लोग आज ब्रज की सेवा व विकास के नाम हम सबका खुलेआम उल्लू बना रहे हैं । ब्रज विकास के नाम पर इनकी बनाई हर योजना एक धोका है। इससे न तो ब्रज के कुंड, सरोवर, वन सुधरेंगे और न ही आम ब्रजवासियों को कोई लाभ होगा। ब्रज को ‘डिज्नी वर्ल्ड’ बनाकर बाहर के लोग यहां कमाई करेंगे।

गत 4 वर्षों से मैं इन सवालों पर केंद्र और राज्य सरकार का ध्यान इसी कालम के माध्यम से और पत्र लिखकर भी आकर्षित करता रहा हूं, पर किसी ने परवाह नहीं की। अब मैंने प्रधानमंत्री जी से समय मांगा है, ताकि उनको जमीनी हकीकत बताकर आगे की परिस्थितियां सुधारने का प्रयास किया जा सके। बाकी हरि इच्छा।

Monday, December 24, 2018

राज्यसभा की याचिका समिति करे कार्यवाही

राज्यसभा का सदस्य भारतीय राजनीति का सबसे वरिष्ठ और परिपक्व व्यक्तित्व होना चाहिए। क्योंकि भारत के लोकतंत्र में इससे बड़ी कोई विधायिका नहीं है। अगर राज्यसभा का कोई सदस्य झूठ बोले, भारत के नागरिकों को धमकाऐ और राज्यसभा द्वारा प्रदत्त सरकारी स्टेशनरी का दुरूपयोग इन सब अवैध कामों के लिए करें, तो क्या उस पर कोई कानून लागू नहीं होता है? कानून के तहत ऐसा करने वाले पर बाकायदा आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है और उसे 2 वर्ष तक की सजा भी हो सकती है। पर इससे पहले की कोई कानूनी कार्यवाही की जाऐ, राज्यसभा की अपनी ही एक ‘याचिका समिति’ होती है। जिसके 7 सदस्य हैं। इस समिति से शिकायत करके दोषी सदस्य के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है।
पिछले दिनों ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर ने इस समिति के सातों सदस्यों को और राज्यसभा के सभापति व भारत के माननीय उपराष्ट्रपति श्री एम. वैंकेया नायडू जी को एक लिखित प्रतिवेदन भेजकर राज्यसभा के सदस्य डा. सुब्रमनियन स्वामी के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की मांग की।
जून 2018 में रजनीश कपूर ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर प्रवर्तन निदेशालय के उपनिदेशक राजेश्वर सिंह की आय से अधिक सम्पत्ति की जांच की मांग की थी। क्योंकि सत्ता के गलियारों में छोटे से पद पर तैनात द्वितीय श्रेणी के इस अधिकारी का संपर्क जाल और कारोबार दूर-दूर तक फैला हुआ है, ऐसी बहुत शिकायतें आ रही थी। सर्वोच्च न्यायालय ने रजनीश कपूर की याचिका को गंभीरता से लेते हुए, इस जांच के आदेश दे दिए। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के कैबिनेट सचिव की ओर से भी एक गोपनीय दस्तावेज भेजकर अदालत में रजनीश कपूर की याचिका का समर्थन किया गया था।
इस पहल से भाजपा के राज्यसभा सांसद और विवादास्पद डा. सुब्रमनियन स्वामी तिलमिला गऐ और उन्होंने रजनीश कपूर को डराने के मकसद से अपनी सरकारी स्टेशनरी का दुरूपयोग करते हुए, एक पत्र भेजा। जिसमें लिखा था कि, ‘उन्हें अदालत ने आदेश दिया है कि वे श्री कपूर सूचित करे और उनका अदालत में उपस्थित रहना सुनिश्चित करे।’ यह सरासर झूठ था। न तो सर्वोच्च अदालत ने श्री कपूर के लिए ऐसा कोई आदेश दिया था और न ही डा. स्वामी से ऐसा करने को कहा था। गाहे-बगाहे हरेक के काम में टांग अड़ाने वाले डा. स्वामी ने ये पत्र राज्यसभा की सरकारी स्टेशनरी पर भेजा था। जबकि अदालत में वे राजेश्वर सिंह के पक्ष में निजी हैसियत से खड़े हुए थे। उसका राज्यसभा से कोई लेनादेना नहीं था। इस तरह यह पत्र सीधे-सीधे ब्लैकमेलिंग की श्रेणी में आता है। जिसका उद्देश्य श्री कपूर को धमकाना था। इसके पहले भी डा. स्वामी मुझे और रजनीश को इस मामले से हट जाने के लिए दबाव डाल रहे थे।
यह रोचक बात है कि एक द्वितीय श्रेणी के अधिकारी, जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप हो, उसकी मदद के लिए राज्यसभा के सांसद डा. स्वामी क्यों इतने बैचेन थे? इस मामले में जो तथ्य प्रकाश में आऐ हैं, वे किसी भी कानूनप्रिय नागरिक को विचलित करने के लिए काफी है।
इन घटनाओं के बाद श्री कपूर ने उपराष्ट्रपति व राज्ससभा की याचिका समिति को उक्त प्रतिवेदन भेजा है। जिसमें उन्हें घटनाओं ब्यौरा देते हुए, सर्वोच्च न्यायालय के उस दिन के आदेश की प्रति व डा. स्वामी के पत्र की प्रति संलग्न की है। जिससे कि समिति के माननीय सदस्य स्वयं देख लें कि डा. स्वामी ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को किस तरह तोड-मरोड़कर रजनीश कपूर को धमकाने के उद्देश्य से भेजा और इसके लिए राज्यसभा की स्टेशनरी का दुरूपयोग किया। जोकि सीधा-सीधा कानूनन अपराध है।
अब ये राज्यसभा समिति के सदस्यों के ऊपर है कि वे कितनी जल्दी इस याचिका पर अपना निर्णंय देते हैं। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि डा. स्वामी राजनैतिक पाले बदलने में माहिर हैं। ये सारा देश जानता है। कभी वो राजीव गांधी के साथ खड़े होते हैं। तो फिर कभी उन्हें धोखा देकर अटलबिहारी बाजपेयी के साथ आ जाते हैं। फिर उन्हीं अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार गिराने में जयललिता का साथ लेते हैं। फिर उन्हीं जयललिता के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। बाबरी मस्ज़िद गिरने पर डॉ स्वामी ने देशभर में बयान दिये थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे़ सभी संगठनों को आतंकवादी घोषित कर प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। साथ ही उन्होंने चुनाव आयोग से लिखकर मांग की थी कि भाजपा की मान्यता रद्द कर देनी चाहिए। आज वे राम मंदिर के अगुआ बनकर भोले-भाले धर्मप्रेमियों को भ्रमित कर रहे हैं। कहाँ तो वे स्वयं को मोदी जी का शुभचिंतक बताते हैं और कहां वे रोज़ मोदी जी के नियुक्त अधिकारियों को रोजाना भृष्ट घोषित करते रहते हैं। वैसे अपने राजनैतिक दल ‘जनता पार्टी’ के उपाध्यक्ष पद पर 7 वर्ष तक उन्होंने विवादास्पद  विजय माल्या को पदासीन रखा था। विवादास्पद तांत्रिक चंद्रास्वामी और हथियारों के कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी अदनान खशोगी  के भी वे घनिष्ठ मित्र रहे हैं। राजीव गांधी हत्या कांड में चंद्रास्वामी व डा. सुब्रमनियन स्वामी की संलिप्तता की सच्चाई्र जानने वाली जांच अभी तक नहीं हुई है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध स्वयं को मसीहा घोषित करने वाले डा. स्वामी अपनी जनता पार्टी में काले धन को कैसे जमा करते आऐ हैं, इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय कड़ी टिप्पणी कर चुका है। इसलिए राज्यसभा की याचिका समिति के माननीय सदस्यों को इस बे-लगाम घोड़े की लगाम कसने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।

Monday, December 17, 2018

फिरकापरस्तों से बचें हिंदुस्तानी

तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद सोशल मीडिया पर दो बड़े खतरनाक संदेश आये। एक में हरा झंडा लेकर कुछ नौजवान जुलूस निकाल रहे थे कि ‘बाबरी मस्ज़िद’ वहीं बनाऐंगे। दूसरे संदेश में केसरिया झंडा लेकर एक जुलूस निकल रहा था, जिसमें नारे लग रहे थे, ‘एक धक्का और दो, ज़ामा मस्ज़िद तोड़ दो’’। ये बहुत खतरनाक बात है। इससे हिंदू और मुसलमान दोनों बर्बाद हो जाऐंगे और मौज मारेंगे वो सियासतदान जो इस तरह का माहौल बना रहे हैं।
1980 के पहले मुरादाबाद का पीतल उद्योग निर्यात के मामले में आसमान छू रहा था। यूरोप और अमरीका से खूब विदेशी मुद्रा आ रही थी।लोगों की तेजी से आर्थिक उन्नति हो रही थी। तभी किसी सियासतदान ने ईदगाह में सूअर छुड़वाकर ईद की नमाज में विघ्न डाल दिया। उसके बाद जो हिंदू-मुसलमानों के दंगे हुए, तो उसमें सैंकड़ों जाने गईं। महीनों तक कर्फ्यू लगा और पीतल उद्योग से जुड़े हजारों परिवार तबाह हो गऐ। कितने ही लोगों ने तो आत्महत्या तक कर ली। पर इस त्रासदी का ऐसा बढ़िया असर पड़ा कि मुरादाबाद के हिंदू-मुसलमानों ने गांठ बांध ली कि अब चाहे कुछ हो जाऐं, अपने शहर में कौंमी फसाद नहीं होने देंगे। 1990 के दौर में जब अयोध्या विवाद चरम पर था और जगह-जगह साम्प्रदायिकता भड़क रही थी तब भी मुरादाबाद में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ।
जो राजनेता ये कहते हैं कि मुसलमान पाकिस्तान चले जाऐं, वो मूर्ख हैं। इतनी बड़ी आबादी को धक्के मारकर पाकिस्तान में घुसाया नहीं जा सकता और न ही उनका कत्लेआम किया जा सकता। ठीक इसी तरह मुसलमानों के मजहबी नेता, जो ख्वाब दिखाते हैं कि वे हिंदूओं को बदलकर, भारत में इस्लाम की हुकूमत कायम करेंगे, वो उनसे भी बड़े मूर्ख हैं। ये जानते हुए कि 1000 साल तक भारत पर यवनों की हुकूमत रही  और फिर भी भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं। तो अब ये कैसे संभव है ?
ये तय बात है कि नेता चाहे हिंदू धर्म के हों, चाहे मुसलमान, ईसाई या सिक्ख धर्म के, उनके भड़काऊ भाषण आवाम के हक के लिए नहीं होते, बल्कि आवाम को लड़वाकर अपने राजनैतिक आंकाओं के हित साधने के लिए होते हैं। इन धार्मिक नेताओं के प्रवचनों में अगर आध्यात्म और रूहानियत नहीं है और राजनीति हावी है, तो स्पष्ट है कि वे सत्ता का खेल रहे हैं। उनका मजहब से कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ महीनों में लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं। हर राजनैतिक दल की ये पुरजोर कोशिश होगी कि वे हिंदू और मुसलमान के बीच खाई पैदा कर दे। जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो जाऐ और ऐसे ध्रुवीकरण के बाद, जिनके हाथों में सत्ता जाऐगी, वे फिर जनता की कोई परवाह नहीं करेंगे। धर्म और संस्कृति के नाम पर छलावे, दिखावे और आडंबर किये जाऐंगे जिनमें हजारों करोड़ रूपया खर्च करके भी आम जनता को कोई लाभ नहीं होगा। न तो उससे गांवों के सरोवरों में जल आएगा, न उजड़े बागों में फल लगेंगे, न उनकी कृषि सुधरेगी, न उसके बच्चों को रोजगार मिलेगा। तब आप किसके आगे रोयेंगे क्योंकि जो भी सत्ता के सिंहासन पर बैठ जाऐंगे, वो केवल अपना और दल का खजाना बढ़ायेंगे और जनता त्राही-त्राही करेगी।
अगर हम ऐसी घुटन भरी जिंदगी से निजात पाना चाहते हैं, तो हमें अपने इर्द-गिर्द के माहौल को देखकर समझना चाहिए कि आजतक इतने वायदे सुने पर क्या हमारी जिंदगी में कोई बदलाव आया या नहीं? ये बदलाव किसी सरकार के कारण आया या आपके अपने कठिन परिश्रम का परिणाम हैं ? आप निराश ही होंगे। अखबारों के विज्ञापनों में सरकारें सैकड़ों करोड़ों रूपया खर्च करके अपनी कामियाबी के जो दावें करती हैं, वो सच्चाई से कितने दूर होते हैं आप जानते हैं। हुक्मरान या जानना नहीं चाहते या उन्हें जमीनी हकीकत बताने वाला कोई नहीं। क्योंकि बीच के लोग सही बात ऊपर जाने नहीं देते। राजा को लगता है कि मेरे राज्य में सब खुशहाल हैं और अमन चैन है।
दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहां-जहां साम्प्रदायिक दंगे हुए, वहां संस्कृतियां नष्ट हो गई। कौमें तबाह हो गईं। ये सही है कि मध्य युग के यवन आक्रांताओं ने हिंदूओं के धर्मस्थलों को तोड़ा-फोड़ा। पर ये भी सही है कि यवनों से पहले जो हिंदू राजा देश में थे, वे भी आक्रमण के बाद अपने शत्रु के साम्राज्य में ऐसी ही तबाही मचाते थे। शिव भक्त राजा द्वारा भगवान विष्णु के मंदिर तोड़े जाने के और विष्णु भक्त राजा द्वारा शिवजी के मंदिर तोड़े जाने के अनेक प्रमाण हैं। इतना ही नहीं बाद की सदियों में बौद्धों ने हिंदू मंदिर तोड़े और हिदूंओं ने बौद्ध  विहार। आज भी सत्ता के अहंकार में हिंदूवादी सत्ताएं हिंदुधर्म क्षेत्रो का कैसा वीभत्स औऱ  कितना विनाश करती है इस पर फिर कभी लिखूंगा।
भड़काऊ नारों और भाषणों से   साम्प्रदायिकता फैलती है और  दोनों पक्षों की हानि होती है। इसलिए जो वास्तव में मजहबी लोग हैं, जिनकी अपने धर्म में आस्था है, उन्हें धार्मिक उन्माद फैलाने वाले वक्ताओं से ऐसे परहेज करना चाहिए, जैसे विष मिले दूध से। जिसे कोई पीएगा नहीं।
आज भी देश के करोड़ों लोग  बुनियादी सुविधाओं के लिए तड़़प रहे हैं और बडे़-बड़े उद्योगपति बैंकों का लाखों-करोड़ रूपया कर्ज लेकर फरार हो गऐ हैं। जबकि 5000 रूपये कर्ज लेने वाला किसान आत्महत्या कर रहा है। खेती अब फायदे का सौदा नहीं रही। हवा, पानी, दूध, फल और अनाज सबमें जहर घोला जा रहा है। पर कोई सरकार आज दिन तक इसे रोक नहीं पाई। अगर हम विकास चाहते हैं तो हमारी धार्मिक आस्था हमारे स्वयं के नैतिक उत्थान के लिए हो, दूसरे का विनाश करने के लिए नहीं। यह बात सबको सोचनी है, चाहे वे किसी धर्म के क्यों न हो।

Monday, November 26, 2018

ब्रजवासियों के साथ धोखा क्यों?

जब से ‘ब्रजतीर्थ विकास परिषद्’ का गठन हुआ है, ये एक भी काम ब्रज में नहीं कर पाई है। जिन दो अधिकारियों को योगी आदित्यनाथ जी ने इतने महत्वूपर्णं ब्रजमंडल को सजाने की जिम्मेदारी सौंपी हैं, उन्हें इस काम का कोई अनुभव नहीं है। इससे पहले उनमें से एक की भूमिका मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष के नाते तमाम अवैध निर्माण करवाकर ब्रज का विनाश करने में रही है। दूसरा सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी है, जिसने आजतक ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण पर कोई काम नहीं किया। इन दोनों को ही इस महत्वपूर्णं, कलात्मक और ऐतिहासिक काम की कोई समझ नहीं है। इसलिए इन्होंने अपने इर्द-गिर्द फर्जी आर्किटैक्टों, भ्रष्ट जूनियर अधिकारियों और सड़कछाप ठेकेदारों का जमावाड़ा कर लिया है। सब मिलकर नाकारा, निरर्थक और धन बिगाड़़ू योजनाऐं बना रहे हैं। जिससे न तो ब्रज का सौंदर्य सुधरेगा, न ब्रजवासियों को लाभ होगा और न ही संतों और तीर्थयात्रियों को। केवल कमीशन खोरों की जेबें भरी जाऐंगी।
इनकी मूर्खता का ताजा उदाहरण है भगवान श्रीकृष्ण की 40 करोड़ रूपये की विशाल मूर्ती, जिसे ये दिल्ली-आगरा के बीच सुश्री मायावती द्वारा बनावाऐं गये यमुना एक्सप्रेस वे के उस बिंदु पर लगवाने जा रहे हैं, जहां से गाड़ियां वृंदावन के लिए मुड़ती है। 40 करोड़ की मूर्ती में कितना कमीशन खाया जाऐगा, इसका अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए, कि ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार का ठेका, ये सरकारी लोग 77 करोड़ में पिछले वर्ष दे चुके थे। जिसे ‘द ब्रज फाउंडेशन’ के शोर मचाने और बेहतर कार्य योजना देने के बाद अब मात्र 27 करोड़ रूपये में करवाया जायेगा। इस तरह 50 करोड़ रूपये की बर्बादी रोकी गई है। क्योंकि द ब्रज फाउंडेशन गत 15 वर्षों से अपने तन-मन-धन से भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीलास्थलियां सजा रही है। इसलिए उससे कोई चोरी छिप नहीं सकती। 77 करोड़ रूपये में 50 करोड़ रूपये का घोटाला, यानि 66 फीसदी कमीशन। इस अनुपात से 40 करोड़ रूपये की मूर्ती में 27 करोड़ रूपया कमीशन में जाएगा।
मूर्ति लगवाने के पीछे इनका तर्क है कि वाहन चालकों को दूर से ही पता चल जाएगा कि वृंदावन आ गया। कितनी हास्यास्पद बात है, बिना मूर्ती लगे ही जब हजारों गाड़ियां रोज वृंदावन आ रही है, तो उन्हें  रास्ता कौन बता रहा है? जिसे वृंदावन आना है, उसे सब रास्ते पता हैं। वैसे जो तीर्थयात्री रोज आ रहे हैं, उनसे ही वृंदावन की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। गत दो वर्षों में ब्रज तीर्थ विकास इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नही कर पाया। तो अब विशाल मूर्ती लगवाकर और मजमा क्यों जोड़ना चाहता है?
उधर ब्रज में 85 फीसदी भू जल खारा है। प्राचीन कुंडों के जीर्णोंद्धार जल संचयन भी होता है और खारापन भी क्रमशः कम होता है। सर्वोच्च न्यायालय के 2001 के ‘हिंचलाल तिवारी आदेश’ के तहत शासन को ब्रज के उपेक्षित पड़े 800 से भी अधिक कुंडों का जीर्णोंद्धार कराना चाहिए था। जबकि उसने आजतक लगभग 40 करोड़ रूपया खर्च करके 40 कुंडों का जीर्णोंद्धार करवाया है, जिनकी दशा पहले से भी ज्यादा दयनीय हो गई हैं। उनके नऐ बने घाट टूट रहे हैं, कूड़े और मलबे के ढेर जमा हो गऐ हैं और उनमें कुत्ते और सूअर डोलते हैं।
इस मूर्ती को लगवाने से बेहतर होता कि ब्रजतीर्थ विकास परिषद् ब्रज के कुछ कुंडों का जीर्णोंद्धार करवा देता, तो ब्रज में जल की समस्या के समाधान की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ते। साथ ही इससे ब्रज के गांवों में रहने वाले गोधन, ब्रजवासियों और संतों को प्रसन्नता होती। पर वहां भी इनकी गर्दन फंसी है। क्योंकि द ब्रज फाउंडेशन ने बेहद कम लागत पर वृंदावन के ब्रह्म कुंड, गोवर्धन के ऋणमोचन कुंड, रूद्र कुंड व संकर्षण कुंड, जैंत का जयकुंड, चौमुहा  का ब्रह्म सरोवर आदि दर्जनों पौराणिक कुंडों का मनोहारी जीर्णोंद्धार कर मथुरा जिले की जलधारण क्षमता को 5 लाख क्यूबिक मीटर बढ़ा दिया है। अब अगर ब्रज तीर्थ विकास परिषद् कुंडों का जीर्णोंद्धार करेगी, तो उसे भी द ब्रज फाउंडेशन की लागत के बराबर कीमत पर काम करना पड़ेगा। तिगुने दाम की योजना बनाने वाली ब्रजतीर्थ विकास परिषद् फिर कमीशन कैसे खा पाऐगीा? इसलिए विशाल मूर्ती लगवाने जैसी फालतू परियोजनाऐं बनाई जा रही है, जिससे कोई हिसाब भी न मांग सके और ढ़िढोरा भी पीट दिया जाऐ कि 40 करोड़ रूपये की मूर्ती लगवा दी गई।
योगी जी से उद्घाटन करवाने की जल्दी में ब्रजतीर्थ विकास परिषद् ने सड़कछाप आर्किटैक्टों को पकड़कर बड़े बजट की परियोजनाऐं बनवा ली हैं, जिससे मोटा कमीशन खाया जा सके। इस तरह हर ओर ब्रज का विनाश किया जा रहा है। भाजपा योगी महाराज को हिंदू धर्म का पुरोधा बनाकर चुनावों में घुमा रही है। पर योगी महाराज की सरकार के भ्रष्ट और निकम्मे अधिकारी ब्रज जैसे कृष्ण भक्ति के पौराणिक धाम की महत्ता और संवेदनशीलता को समझे बिना शहरी लोगों के मनोरंजन के लिए बड़ी-बड़ी खर्चीली योजनाऐं बनवा रहे हैं। जिनसे ब्रज का विकास होना तो दूर, विनाश की गति तेजी से बढ़ गई है। चुनाव में वोट मांगे जाऐंगे आम ब्रजवासी से, जो गांवों में रहता है। जिसने कान्हा से संग गाय चराई। जिनके घरों से कान्हा ने माखन चुराया। उन सब ब्रजवासियों की उपेक्षा कर बाहर से आने वाले सैलानियों के मनोरंजन की योजनाऐं बनाकर ब्रजतीर्थ विकास परिषद् क्यों योगी महाराज की छवि खराब करने में जुटी है? ये ब्रजवासियों के साथ सरासर धोखा है।

Monday, October 29, 2018

सीबीआई में घमासान क्यों?

पिछले एक हफ्ते से सभी टीवी चैनलों, अखबारों, सर्वोच्च आदालत और चर्चाओं में सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच चल रहे घमासान की चर्चा है। लोग इसकी वजह जानने को बैचेन हैं। सरकार ने आधी रात को सीबीआई भवन को सीलबंद कर इन दोनों को छुट्टी पर भेज दिया। तब से हल्ला मच रहा है कि सरकार को सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने का कोई हक नहीं है। क्योंकि 1997 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ में सीबीआई निदेशक और प्रवर्तन निदेशालय निदेशक के कार्यकाल को दो वर्ष की सीमा में निर्धारित कर दिया गया था, चाहे उनकी सेवा निवृत्ति की तारीख निकल चुकी हो। ऐसा करने के पीछे मंशा यह थी कि महत्वपूर्णं मामलों में सरकार दखलअंदाजी करके अचानक किसी निदेशक का तबादला न कर दे। 
पर इस बार मामला फर्क है। यह दोनों सर्वोच्च अधिकारी आपस में लड़ रहे थे। दोनों एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे और दोनों पर अपने-अपने आंकाओं के इशारों पर काम करने का आरोप लग रहा था। स्थिति इतनी भयावह हो गई थी कि अगर सख्त कदम न उठाऐ जाते, तो सीबीआई की और भी दुर्गति हो जाती। हालांकि इसके लिए सरकार का ढीलापन भी कम जिम्मेदार नहीं।

एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर बोलते हुए सरकारी फैसले से कई दिन पहले मैंने ही यह सुझाव दिया था कि इन दोनों को फौरन छुट्टी पर भेजकर, इनके खिलाफ जांच करवानी चाहिए। तब उसी पैनल में प्रशांत भूषण मेरी बात से सहमत नहीं थे। इसलिए जब ये फैसला आया, तो प्रशांत भूषण और आलोक वर्मा दोनों ने इसे चुनौती देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश और उनके सहयोगी जजों ने जो फैसला दिया, वो सर्वोत्तम है। दोनों के खिलाफ दो हफ्तों में जांच होगी और नागेश्वर राव, जिन्हें सरकार ने अंतरिम निदेशक नियुक्त किया है, वो कोई नीतिगत निर्णंय नहीं लेंगे। अब अगली सुनवाई 12 नवंबर को होगी।

दरअसल 1993 में जब ‘जैन हवाला कांड’ की जांच की मांग लेकर मैं सर्वोच्च न्यायालय गया था, तो मेरी शिकायत थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के इस आंतकवाद से जुड़े घोटाले को राजनैतिक दबाब में सीबीआई 1991 से दबाये बैठी है। पर 1997 में जब हवाला केस प्रगति कर रहा था, तब प्रशांत भूषण और इनके साथियों ने, अपने चहेते कुछ नेताओं को बचाने के लिए, अदालत को गुमराह कर दिया। मूल केस की जांच तो ठंडी कर दी गई और सीबीआई को स्वायतता सौंप दी गई और सीवीसी का विस्तार कर दिया। इस उम्मीद में कि इस व्यवस्था से सरकार का हस्तक्षेप खत्म हो जाऐगा।

आज उस निर्णय को आए इक्कीस बरस हो गए। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने राजनैतिक लाभ के लिए सीबीआई का दुरूपयोग नहीं करते? क्या सीबीआई के कई निदेशकों पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे? क्या सीबीआई में ‘विनीत नारायण फैसले’ या ‘सीवीसी अधिनियम’ की अवहेलना करके पिछले दरवाजे से बडे़ पदों अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की? अगर इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में हैं, तो यह स्पष्ट है कि जो अपेक्षा थी, वैसी पारदर्शिता और ईमानदारी सीबीआई का नेतृत्व नहीं दिखा पाया। इसलिए मेरा मानना है कि इस पूरे फैसले को पिछले 21 वर्षों के अनुभव के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुनः परखा जाना चाहिए और जो विसंगतियां आ गईं हैं, उन्हें दूर करने के लिए एक संवैधानिक बैंच का गठन कर ‘विनीत नारायण फैसले’ पर पुर्नविचार करना चाहिए । ऐसे नये निर्देश देने चाहिए, जिनसे ये विसंगतियां दूर हो सके।

मैं स्वयं इस मामले में पहल कर रहा हूं और एक जनहित याचिका लेकर जल्दी ही सर्वोच्च अदालत में जाऊंगा। पर उससे पहले मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों, जागरूक वकीलों और चिंतकों को संदेश भेजा है कि सीबीआई और प्रर्वतन निदेशालय के सुधार के लिए वे मुझे mail@vineetnarain.net पर अपने सुझावों को ईमेल से भेजें। जिन्हें इस याचिका में शामिल किया जा सके। मुझे उम्मीद है कि माननीय न्यायालय राष्ट्रहित में और सीबीआई की साख को बचाने के उद्देश्य से इस याचिका पर ध्यान देगा।

वैसे भारत के इतिहास को जानने वाले अपराध शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा कोई समय नहीं हुआ, जब पूरा प्रशासन और शासन पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो गया हो। भगवत् गीता के अनुसार भी समाज में सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण का हिस्सा विद्यमान रहता है। जो गुण विद्यमान रहता है, उसी हिसाब से समाज आचरण करता है। प्रयास यह होना चाहिए कि प्रशासन में ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका, मीडिया, धर्मसंस्थानों, शिक्षा संस्थानों व निजी उद्यमों में ज्यादा से ज्यादा सतोगुण बढ़े और तमोगुण कम से कम होता जाऐ। इसलिए केवल कानून बना देने से काम नहीं चलता, ये सोच तो शुरू से विकसित करनी होगी। सीबीआई भी समाज का एक अंग है और उसके अधिकारी इसी समाज से आते हैं। तो उनसे साधु-संतों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
पर लोकतंत्र की रक्षा के लिए और आम नागरिक का सरकार में विश्वास कायम रखने के लिए सीबीआई जैसी संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी होना पड़ेगा। अन्यथा इनसे सबका विश्वास उठ जाऐगा।

Monday, October 22, 2018

सुरक्षा पुलिसकर्मियों को चपरासी न समझें!

पिछले हफ्ते एक जज की पत्नी और बेटे को हरियाणा पुलिस सुरक्षाकर्मी ने दिन दहाड़़े बाजार में गोली मार दी। जज की पत्नी ने मौके पर ही दम तोड़़ दिया। लड़के को गंभीर हालत में अस्पताल दौड़ाया गया। तमाशबीन बड़ी तादाद में तमाशा देखते रहे, पर किसी की हिम्मत उसे रोकने की नहीं हुई। हत्या करने के बाद सिपाही ने जज को और अपने घर फोन करके घरवालों और मित्रों को कहा कि उसने यह कांड कर दिया है। बाद में गिरफ्तार हाने पर उसने पुलिस को बताया कि उसने जज की पत्नी और बेटे के दुव्र्यवहार से तंग आकर यह जघन्य कांड किया।
उल्लेखनीय है कि उस पुलिस वाले की ड्यूटी जज महोदय की सुरक्षा के लिए लगाई गई थी। जबकि घटना के समय जज साहब ने उसे अपनी निजी गाड़़ी का ड्राइवर बनाकर, अपनी पत्नी और बेटे को शॉपिंग करा लाने को कहा था । जोकि उसकी वैधानिक ड्यूटी कतई नहीं थीं। अगर इस बीच कोई घर में घुसकर जज की हत्या कर देता, तो इस पुलिस वाले की नौकरी चली जाती। इस पर ड्यूटी में लापरवाही करने का आरोप लगता। जबकि वो इसका अपराध नहीं होता।
यह पहली घटना नहीं है। देशभर में राजनेता, विशिष्ट व्यक्तियों, अधिकारियों और न्यायाधीशों की सुरक्षा में सरकार की ओर से समय- समय पुलिस सुरक्षा दी जाती है। इन सुरक्षाकमिर्यों का काम ‘पीपी’
(प्रोटेक्टेड पर्सन) की सुरक्षा करना होता है, नकि उसका बैग उठाना या उसके मेहमानों को चाय पिलाना या उसकी गाड़ी चलाना या दूसरे घरेलू नौकरों की तरह काम करना। पर देखने में यह आया है कि बहुत कम ‘पीपी’ ऐसे होते हैं, जो सरकार द्वारा प्रदत्त सुरक्षाकर्मियों को उनकी ड्यूटी पूरी करने देते हैं। प्रायः सभी ‘पीपी’ और उनके परिवार इन सुरक्षा पुलिसकर्मियों से बेगार करवाते हैं।
इसके कई पहलू हैं। सुरक्षा ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी चाहे तो ऐसी बेगार करने को मना कर सकता है। उन्हें कोई ‘पीपी’ इसके लिए बाध्य नहीं कर सकता। पर ताली एक हाथ से नहीं बजती। होता ये है कि पहले तो ‘पीपी’ इन सुरक्षाकर्मियों का अनुचित लाभ उठाते हैं और फिर ये सुरक्षाकर्मी अपने वरिष्ठ अधिकारियों की जानकारी के बिना ‘पीपी’ की सहमति से अपनी ड्यूटी में फेर बदल करते रहते हैं। उनसे सिफारिश करवाकर कभी अपने निजी काम भी करवा लेते हैं। जब कभी ‘पीपी’ कोई बहुत अधिक साधन संपन्न या भ्रष्ट नेता होता है, तो उसकी ओर से इन सुरक्षाकर्मियों की खूब खिलाई-पिलाई होती है। यानि इनके बढिया खाने-पीने, आराम से रहने और खर्चे के लिए भी अतिरिक्त धन उस ‘पीपी’ द्वारा मुहैया कराया जाता है। ऐसे ‘पीपी’ के संग प्रायः सुरक्षाकर्मी बहुत खुश रहते हैं। क्योंकि उनके भत्ते खर्च नहीं होते, उल्टा उनकी आमदनी बढ़ जाती है। पर सब पुलिस सुरक्षाकर्मी ऐसे नहीं होते। वे अपनी ड्यूटी मुस्तैी से करना चाहते हैं और इस तरह की बेगारी को अपने मन के विरूद्ध मजबूरी में करते हैं।
जैन हवाला कांड’ उजागर करने के दौरान मुझ पर 1993-96 के बीच कई बार प्राण घातक हमले हुए। उसके बाद कहीं जाकर भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने मुझे ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की। जिसमें एक प्लस चार की गार्ड मेरे घर की रखवाली करती थी या जिस शहर में मैं जाता था, मेरे शयन कक्ष की रखवाली करती थी। पिस्टल और बंदूक लेकर दो सुरक्षाकर्मी मेरे साथ रहते थे । एक जीप में कुछ पुलिसकर्मी मेरी गाड़ी के आगे एस्कॉर्ट करके चलते थे। उन दिनों लगभग रोजाना देशभर में मेरे व्याख्यान और जनसभाऐं हुआ करती थीं। इसलिए राज्य सरकारें भी इसी तरह सुरक्षा की व्यवस्था करती थी। ये व्यवस्था मेरे साथ कई वर्ष तक रही। पर मुझे याद नहीं कि मैंने कभी इतने सारे सुरक्षाकर्मियों के साथ दुव्र्यवहार किया हो या उनसे बेगार करवाई हो। इसलिए उन सबसे आज तक स्नेह संबंध बना हुआ है।
ये उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि वह सुरक्षा व्यवस्था मेरी जान की रक्षा के लिए तैनात की गई थी। जिस पर लाखों रूपया महीना देश का खर्च होता था। ये सब सुरक्षाकर्मी मेरे निजी कर्मचारी नहीं थे और न ही मेरे परिवार के लिए बेगार करने को तैनात किये गये थे। चलिए हम तो पत्रकार हैं, इसलिए संवेदनशीलता के साथ उनसे व्यवहार किया । पर सत्ता, पद और पैसे के मद में रहने वाले ‘पीपी’ और उनके परिवार इन सुरक्षाकर्मियों को अपना निजी स्टाफ समझते हैं, जो एक घातक प्रवृत्ति है।
जिस तरह गुड़गांव के पुलिसकर्मी ने एक खतरनाक कदम उठाया और ‘पीपी’ के परिवार को ही खत्म कर डाला, उसी तरह कब किस सुरक्षाकर्मी को ‘पीपी’ के परिवार के ऐसे गलत व्यवहार की बात बुरी लग जाऐ और वो ऐसा घातक कदम उठा ले, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
इसलिए गुड़गांव की इस घटना से सभी को सबक लेना चाहिए और जिन की सुरक्षा में पुलिसकर्मी तैनात हैं, उन्हें इनको अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करने देना चाहिए। इनसे बेगार लेकर इनका दोहन और अपमान नहीं करना चाहिए।

Monday, October 15, 2018

सुब्रमनियन स्वामी: गिरगिटिया या हिंदुत्ववादी ?

हैदराबाद के ‘मदीना एजुकेशन सेंटर’ में 13 मार्च 1993 को भाषण देते हुए स्वनामधन्य डा. सुब्रमनियन स्वामी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। उन्होंने इन तीनों संगठनों को ‘आतंकवादी’ बताया और प्रधानमंत्री नरसिंह राव से इन तीनों संगठनों को प्रतिबंधित करने की मांग भी की थी।जबकि मैने 1990 में  जोखिम उठाकर अपनी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन में 'अयोध्या नरसंहार'  पर सशक्त वीडियो फ़िल्म बनाकर प्रसारित की थी, जिसकी विहिप, संघ और भाजपा ने हज़ारों प्रतियां बनवाकर देशभर में दिखाई थीं। 1990 से मैँ अयोध्या, मथुरा और काशी में मंदिरों के समर्थन में लिखता और बोलता रहा हूँ। जबकि स्वामी जैसे अवसरवादी केवल निजी लाभ के लिए मौके के अनुसार उछलते रहते हैं।



आज वहीं डा. स्वामी अपना रंग और चोला बदलकर, पूरी दुनिया के हिंदुओं को मूर्ख बना रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे अयोध्या में राम मंदिर बनवाकर ही दम लेंगे। युवा पीढ़ी चाहे भारत में हो या अमरिका में रहने वाले अप्रवासी भारतीय, डा. स्वामी के लच्छेदार भाषणों के सम्मोहन में आकर, इन्हें हिंदू धर्म का सबसे बड़ा नेता मान रही है। क्योंकि उन्हें इनका अतीत पता नहीं है।



आजकल डा. स्वामी दावा करते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्णं समर्थन प्राप्त है। अब ये स्पष्टीकरण तो आदरणीय मोहन भागवत जी को देश को देना चाहिए कि क्या डा. स्वामी का दावा सही है? जो व्यक्ति संघ और उससे जुड़े संगठनों को ‘‘आतंकवादी’’ करार देता आया हो, उसे संघ अपना नेता कैसे मान सकता है?



इतना ही नहीं दुनियाभर में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्हें डा. स्वामी ने यह झूठ बोलकर कि वे राम जन्मभूमि के लिए सर्वोच्च अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं, उनसे कई तरह की मदद ली है। कितना रूपया ऐंठा है, ये तो वे लोग ही बताऐंगे। पर हकीकत ये है कि डा. स्वामी का राम जन्मभूमि विवाद में कोई ‘लोकस’ ही नहीं है। पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने ये साफ कर दिया है कि राम जन्मभूमि विवाद में वह केवल उन्हीं लोगों की बात सुनेंगी, जो इस मामले में भूमि स्वामित्व के दावेदार हैं। यानि डा. स्वामी जैसे लोग अकारण ही बाहर उछल रहे हैं और तमाम तरह के झूठे दावे कर रहे हैं कि वे राम मंदिर बनवा देंगे। जबकि उनकी इस प्रक्रिया में कोई कानूनी भूमिका नहीं है।



एक आश्चर्य कि बात ये है कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद जिस भारतीय जनता पार्टी की मान्यता रद्द करने के लिए डा. स्वामी ने चुनाव आयोग से मांग की थी, उसी भाजपा ने किस दबाब में डा. स्वामी को ‘राज्यसभा’ में मनोनीत करवाया? राजनैतिक गलियारों में ये चर्चा आम है कि इन्हें संघ के दबाव में लेना पड़ा। वरना इनके गिरगिटिया स्वभाव के कारण कोई इन्हें लेने तैयार नहीं था। सुनते हैं कि डा. स्वामी ने प्रधानमंत्री मोदी को यह आश्वासन दिया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओें को जेल भिजवा देंगे और ये दावा ये हर कुछ महीनों में दोहराते रहते हैं। जबकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ‘नेशनल हेराल्ड’ केस में कोई दम ही नहीं है।



भारतीय जनता पार्टी के नेता अमित शाह को सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति के संबंध कुख्यात हथियार कारोबारी अदनान खशोगी, विजय मल्ल्या और दूसरे ऐसे लोगों से रहे हों, उसे भाजपा अपने दल में रखकर क्यों अपनी छवि खराब करवा रही है। इतना ही नहीं बिना किसी खतरे के बावजूद डा. स्वामी को ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है। इस पर इस गरीब देश का लाखों रूपया महीना बर्बाद हो रहा है। मजे की बात तो ये है कि डा. स्वामी आऐ दिन अखबारों में बयान देकर मोदी सरकार के मंत्रियों और अन्य नेताओं पर हमला बोलते रहते हैं और उन्हें नाकारा और भ्रष्ट बताते रहते हैं। तो क्या ये माना जाऐ कि डा. स्वामी को उनकी धमकियों से डरकर राज्यसभा की सदस्यता और जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है? पुरानी कहावत है कि ‘मूर्ख दोस्त से बुद्धिमान दुश्मन भला’। डा. स्वामी वो बला हैं, जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे अविश्वसनीय और बेलगाम व्यक्ति को राज्यसभा और भाजपा में रखकर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है?



डा. स्वामी खुलेआम झूठ बोलते हैं और इतनी साफगोई से बोलते हैं कि सामने वाले शक भी न हो। एक रोचक उदाहरण है कि 80 के दशक में जब पंजाब में सिक्ख आतंकवाद अपने चरम पर था, तो डा. स्वामी ने भिंड्रावाला के खिलाफ आक्रामक टिप्पणी कर दी। जब इन्हें सिक्ख संगठनों से धमकी आई, तो ये भागकर अमृतसर गए और स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाए हुए भिंड्रावाला के पैरों में पड़ गऐ। अंदर का वातावरण छावनी जैसा था। हर ओर निहंग बंदूके और शस्त्र ताने हुए थे। यह सब खुलेआम देखकर भी डा. स्वामी की हिम्मत नहीं हुई कि वे भारत सरकार को अंदर की सच्चाई बता दें। डा. स्वामी ने भिड्रावाला से मिलने के बाद बाहर आकर झूठा बयान दिया कि,‘‘अंदर कोई हथियार नहीं हैं।’’




डा. स्वामी के डीएनए में दोष है। ये नाहक हर बात में टांग अड़ाते हैं और अपने ‘उच्च’ विचारों से देश के मीडिया को गुमराह करते रहते हैं। सारा मकसद अपनी ओर मीडिया का ध्यान आकर्षित करना होता है, देश, धर्म और समाज जाए गड्ढे में। ऐसे गिरिगिटिया, झूठे और ब्लेकमेलर स्वामी को संध नेतृत्व क्यों अपने कंधे पर ढो रहा है?