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Monday, June 24, 2019

मोदी इफैक्ट के फायदे?

जब से  नरेन्द्र मोदी ब्रांड को हर मतदाता के मन में बसाकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा को अप्रत्याशित विजय दिलाई है, तब से मोदी जी के आलोचकों और विपक्षी दलों को एक भय सता रहा है कि अब मोदी यथाशीघ्र भारत को राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ ले जाऐंगे। उन्हें दूसरा डर इस बात का है कि अब मोदी जी खुल्ल्मखुल्ला अधिनायकवाद की स्थापना करेंगे। उनका ये भी कहना है कि भाजपा के जीते हुए सांसद ये मानते है कि उनकी विजय उनके अपने कृतित्व के कारण नहीं बल्कि मोदी जी के नाम के कारण हुई है। इसलिए उनका तीसरा भय इस बात का है कि ये सभी सांसद संसद में केवल हाथ उठाऐंगे या नारे लगायेंगे। इनसे संसद की बहसों को कोई, गरिमा प्रदान नहीं होगी। इस तरह संसद का स्तर लगातार गिरता जायेगा। हम इन तीनों मुद्दों का विवेचन करेंगे।

जहाँ तक देश को राष्ट्रपति प्रणाली की ओर ले जाने की बात है, तो यह कोई गलत विचार नहीं है। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति प्रणाली है और कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक-ठाक काम कर रही है। आयाराम-गयाराम की संस्कृति में सांसदों की खरीद-फरोख्त से बनी सरकारें ब्लैकमेल का शिकार होती है। छोटे-छोटे दल अल्पमत की सरकार को समर्थन देने की एवज में कमाऊ मंत्री पद हड़पना चाहते हैं। कैबिनेट की  सामूहिक जिम्मेदारी की बजाय हर सहयोगी दल अपने क्षेत्रीय दल, नेता व क्षेत्र के लिए ही सक्रिय रहता है, बाकी देश के प्रति गंभीर नहीं रहता। ‘हवाला कांड’ के बाद राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को लेकर पूरी रात संसद का अधिवेशन चला, पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जिन दलों और लोगों को आज मोदी जी की मंशा पर संदेह है, उन्होंने पिछले 23 वर्षों में राजनीति की दशा सुधारने के लिए कितने गंभीर प्रयास किये? जब वो ढर्रा देश 72 साल तक ढोता रहा, तो अब एकबार अगर मोदी जी राष्ट्रपति प्रणाली लाकर नया प्रयोग करना चाहें, तो इससे इतनी घबराहट क्यों होनी चाहिए?

राष्ट्रपति प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि पूरे देश की जनता अपनी पंसद के नेता को 5 साल के लिए देश की बागडोर सौंप देती है। ऐसे चुना गया राष्ट्रपति, बिना किसी दबाव के, अपने मंत्रीमंडल का गठन कर सकता है। जाहिरन तब वह अपनी पसंद के और अनुभवी लोगों को किसी भी क्षेत्र से उठाकर मंत्री बना सकता है। जैसा- इस बार मोदी जी ने विदेश मंत्री के संदर्भ में प्रयोग किया। फिर वो व्यक्ति चाहे प्रोफेसर हो, वैज्ञानिक हो, उद्योगपति हो, पत्रकार हो, समाजसेवी हो या रणनीति विशेषज्ञ हो। अमरीका में आज ऐसा ही होता है। इससे कैबिनेट की योग्यता, कार्यक्षमता और निर्णंय लेने की स्वतंत्रता बढ़ जाती है। हां एक नुकसान हो सकता है, अगर राष्ट्रपति अहंकारी हो, अनैतिक आचरण वाला हो या लालची हो, तो वह देश को मटियामैट भी कर सकता है। पर जिसे पूरा देश अपने विवेक से चुनेगा, उससे ऐसे आचरण की उम्मीद कम ही की जा सकती है।

मोदी जी के आलोचकों को डर है कि वे हिटलर या मुसौलनी की तरह धीरे-धीरे अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहे हैं। चुनाव के दौरान व्हाट्सएप्प समूहों में हिटलर की आदतों को लेकर ऐसे कई संदेश प्रचारित किये गये, जिनमें मोदी जी की तुलना हिटलर से की गई। यहां एक बुनियादी फर्क है। हिटलर प्रजाति के अहंकार से ग्रस्त एक गैर आध्यात्मिक व्यक्ति था। जिसकी मंशा विश्व विजेता बनने की थी। जबकि मोदी जी ने योग को विश्वस्तर पर मान दिलाकर, राष्ट्राध्यक्षों को श्रीमद्भगवत्गीता भेंटकर और देश के सभी प्रमुख देवालयों में पूजा अर्चन कर अपने-अपने सनातनी होने का प्रमाण दिया है। निश्चित तौर पर उन्होंने श्रीमद्भागवत् के राजा रहुगण व जड़ भरत संवाद को पढ़ा होगा। जो कल राजा था, वो आज पालकी उठाने वाला बन गया और जो आज सड़क के पत्थर तोड़ता है, वो कल भारत का राष्ट्रपति बन सकता है। जिसने वैदिक दर्शन के इस मूल सिद्धांत को समझ लिया, वह राजा अधिनायकवादी नहीं, राजऋषि बनेगा। अब यह तो समय ही बतायेगा कि मोदी जी स्वान्तः सुखाय अधिनायकवादी बनेंगे या बहुजन हिताय?

मोदी जी की एक शिकायत आम है, जो उनके आलोचक नहीं, बल्कि चाहने वालों के बीच है। उनका नौकरशाही पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होना। जबकि इस देश के तमाम ईमानदार और चरित्रवान व उच्च पदासीन रहे नौकरशाहों ने अपने स्मरणों में बार-बार इस बात पर दुखः प्रगट किया है कि नौकरशाही के तंत्र में उलझ कर वे कुछ भी ठोस और सार्थक नहीं कर पाये। एक घिसीपिटी मशीन का पुर्जा बनकर रह गऐ। यह पीड़ा मेरी भी है। गत 5 वर्षों से बार-बार स्मरण दिलाने के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय में ब्रज को लेकर मेरी अनुभवजन्य व स्वयंसिद्ध उपलब्धियों पर आधारित चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया और आज भी ब्रज का विकास नये पुराने नौकरशाहों पर छोड़ दिया है, जो 5 वर्ष में भी एक भी काम उल्लेखनीय या प्रशंसनीय नहीं कर पाये। अमरीका की प्रगति के पीछे सबसे बड़ा कारण वहां मिलने वाला वो सम्मान है, जो अमरीकी सरकार और समाज हर उस व्यक्ति को देता है, जो अपनी योग्यता सिद्ध कर देता है।

रही बात संसद की। यह सही है कि भाजपा के अधिकतर सांसद अपने काम और नाम की बजाय मोदी जी के नाम पर जीतकर आये हैं। पर इसका अर्थ ये नहीं कि वो किसी गड़रिये की भेडे़ हैं। लाखों लोगों ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है। उनकी बहुत अपेक्षाऐं हैं। जनता से जुड़ाव के बिना कोई नेता बहुत लंबी दूरी तक नहीं चल सकता। न सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर पकड़ जरूरी है, बल्कि राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करने की अपेक्षा देशवासी हर सांसद से करते हैं। ‘निंदक नियरे राखिये’ वाले सिद्धांत में आस्था रखते हुए मोदी जी को चाहिए कि वे अपने सांसदों को यह निर्देश और शिक्षा दें कि वे संसद की बहसों में सक्रिय रहकर अपना योगदान करें और जहाँ आवश्यक हो, अपनी ही सरकार की कमियों की ओर इशारा करने से न चूकें। इससे सरकार की विश्वसनीयता व लोकप्रियता दोनों बढ़ती है। आशा की जानी चाहिए कि मोदी जी अपने आलोचकों की शंकाओं के विरूद्ध एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाऐंगे।

Monday, June 17, 2019

मोदी जी हम टैक्स चोर नहीं हैं!


जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हमारी सहपाठी रहीं भारत की वर्तमान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश की जनता से आगामी बजट के लिए रचनात्मक सुझाव मांगे है। इसकी प्रतिक्रिया में एक डॉक्टर ने भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी जी को एक रोचक पत्र लिखा है। जिसमें डॉक्टर का कहना कि मोदी जी हम टैक्स चोर नहीं हैं। फिर हम क्यों टैक्स चोरी करते हैं? ये पत्र उन्होंने हर उस व्यापारी या प्रोफेश्नल की तरफ से लिखा है, जिसकी क्षमता आयकर देने की है।

वे लिखते हैं कि हमें अपने घर, दफ्तर और कारखानों में जेनरेटर चलाकर बिजली पैदा करनी पड़ती है, क्योंकि सरकार 24 घंटे बिजली नहीं दे पाती। हमें सबमर्सिबल पंप लगाकर अपनी जलापूर्ति करनी पड़ती है, क्योंकि जल विभाग हमें आवश्यकतानुसार पानी नहीं दे पाता। हमें अपनी सुरक्षा के लिए सिक्योरिटी गार्ड भी रखने पड़ते हैं, क्योंकि पुलिस हमारी रक्षा नहीं करती। हमें अपने बच्चों को मंहगे प्राइवेट स्कूलों में पढाना पड़ता है, क्योंकि सरकारी स्कूलों की हालत बहुत खराब है। हमें अपना इलाज भी मंहगे प्राइवेट अस्पतालों में करवाना पड़ता है, क्योंकि सरकारी अस्पताल खुद ही आई.सी.यू. में पड़े हैं। हमें आवागमन के लिए अपनी कारें खरीदनी पड़ती हैं, क्योंकि सरकारी ट्रांस्पोर्ट व्यवस्था की हालत खस्ता है।

सेवानिवृत्त होने के बाद एक आयकरदाता को इज्जत से जिंदा रहने के लिए सरकार से मिलता ही क्या है? कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। बल्कि उसकी जिंदगीभर की मेहनत की कमाई से सरकार जो कर उघाती है, वह राजनेता वोटों के लालच में बड़ी-बड़ी खैरात बांटकर लुटा देते हैं। प्रश्न ये है कि हमारे कर की आय से सरकार क्या-क्या करती है? अदालत चलाती है? जहां वर्षों न्याय नहीं मिलता। थाने बनाये गए हैं? जहां केवल राजनेताओं और आला-अफसरों की सुनी जाती है। आम आदमी की तो शिकायत भी रिश्वत लेने के बाद दर्ज होती है। स्कूल और अस्पतालों के भवनों को बनाने पर सरकार खूब खर्च करती है, जो कुछ सालों में खंडहर हो जाते हैं। सरकार सड़के बनवाती है, जिसमें 40 फीसदी तक कमीशन खाया जाता है। यह सूची बहुत लंबी है।

पश्चिमी देशों में जिस तरह की सामाजिक सुरक्षा सरकार देती है, उसके बाद वहां के नागरिक टैक्स चोरी क्यों करें ? जब हर सुविधा उन्हें सरकार से ही मिल जाती है, तो उन्हें चिंता किस बात की? जबकि हमारे यहां अरबों-खरबों रूपया केवल नेताओं और अफसरों के ठाट-बाट, सैर-सपाटों और ताम-झाम पर खर्च होता है। जनता पर खर्च होने के लिए बचता ही क्या है?

एक कारखानेदार 2 से 10 फीसदी मुनाफे पर उत्पादन करता है। जबकि सरकार को अपनी आय का 30 फीसदी अपनी व्यवस्था चलाने पर ही खर्च करना होता है। ये कहां तक न्याय संगत है?

यही कारण है कि भारत में कोई सरकार को कर अदा नहीं करना चाहता। हम टैक्स बचाते हैं, अपने परिवार की परवरिश के लिए और बुढ़ापे में अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए। जबकि ये सब जिम्मेदारी अगर सरकार लेती, तो हमें इसकी चिंता नहीं करनी पड़ती।

दूसरी तरफ अगर सरकार ये घोषणा करे कि उसे सेना के लिए या बाढ़ व तूफान में राहत पहुंचाने के लिए 1000 करोड़ रूपये चाहिए, तो हम सब देशवासी इतना धन 2 दिन में जमा करवा सकते हैं और करवाते भी हैं। सरकार की ऐसी किसी भी मांग पर हम सभी करदाता खुले दिल से सहयोग करने में आगे बढ़ेंगे। इससे स्पष्ट है कि हम सरकार का सहयोग करना चाहते हैं। हम सरकार की उन रणनीतियों और कार्यक्रमों के लिए धन देने को भी तैयार हैं, जिनसे देश की सुरक्षा हो, गरीबों को न्याय मिले और हम सबका जीवन आराम से गुजरे। पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। इसलिए आम करदाता कर देने से बचता है।

जरूरत इस बात की है कि इन सरकारी सेवाओं को सुधारा जाऐ और हमें चोर बताने से पहले जिले से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों और नेताओं की कड़ाई से नकेल कसी जाए। जो अभी तक नहीं हो पाया है। चाहे वह राज्य किसी भी दल द्वारा शासित क्यों न हो, आम आदमी को तो हर जा-बेजा बात के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। इससे जनता में सरकार की छवि खराब होती है।

जब भ्रष्टचारी अधिकारियों, नेताओं और मंत्रियों पर लगाम कसी जायेगी, तो इसके तीन लाभ होंगे। एक तो भ्रष्टाचार और कालेधन पर प्रभावी रोक लग सकेगी। दूसरा आम जनता के बीच मोदी जी इतने लोकप्रिय हो जाऐंगे कि अगली बार दुगने मतों से जीतेंगे। तीसरा इस देश का आम व्यक्ति ईमानदारी से इतना कर देगा कि सरकार का खजाना कभी खाली न हो। बशर्ते जनता के इस धन का पारदर्शिता से सार्थक उपयोग हो, उसको एय्याशी में बर्बाद न किया जाए।

पिछले 5 वर्षों में मोदी जी ने भारत सरकार में भ्रष्टाचार को रोकने में भारी सफलता हासिल की है। अब दिल्ली के 5 सितारा होटलों में आपको हाई प्रोइफल दलाल कहीं दिखाई नहीं देते। क्योंकि अब कोई ये दावा नहीं कर सकता कि तुम मुझे इतना रूपया दो, तो मैं तुम्हारा काम करवा दूंगा। अब इससे एक कदम और आगे जाने की जरूरत है। प्रांतों और जिलों में भी इसी संस्कृति का अविलंब परिचय मिलना चाहिए। तभी जनता को लगेगा कि ‘मोदी है, तो मुमकिन है’।

Monday, May 27, 2019

विपक्ष क्यों हारा? मोदी क्यों जीते?

विपक्ष के किसी नेता को इतनी बुरी हार का अंदाजा नहीं था। सभी को लगता था कि मोदी आर्थिक मोर्चे पर और रोजगार के मामले में जिस तरह जन आंकाक्षाओं पर खरे नहीं उतरे, तो आम जनता में अंदर ही अंदर एक आक्रोश पनप रहा है, जो विपक्ष के फायदे में जाऐगा। मोदी के आलोचक राजनैतिक विश्लेषक मानते थे कि मोदी की 170 से ज्यादा सीटें नहीं आऐंगी। हालांकि वे ये भी कहते थे कि मोदी लहर, जो ऊपर से दिखाई दे रही है, अगर वह वास्तविक है, तो मोदी 300 से ज्यादा सीटें ले जाऐंगे।
उनके मन में प्रश्न है कि मोदी क्यों जीते? कुछ नेताओं ने ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। जबकि ज्यादातर लोग ऐसा मानते हैं कि इस आरोप में कोई दम नहीं है। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं। पर यह भी सही है कि दुनिया के ज्यादतर देश ईवीएम से चुनाव नहीं करवाते। इसलिए विपक्षी दलों की मांग है कि पुरानी व्यवस्था के अनुरूप मत पत्रों से ही मतदान होना चाहिए।
पर जो सबसे महत्वपूर्णं बात विपक्ष नहीं समझा, वो ये कि मोदी ने चुनाव को एक महाभारत की तरह लड़ा और हर वो हथियार प्रयोग किया, जिससे इतनी भारी विजय मिली। सबसे पहले तो इस बार का चुनाव सांसदों का चुनाव नहीं था। अमरीका की तरह राष्ट्रपति चुनने जैसा था। देशभर में लोगों ने अपने संसदीय प्रत्याशी को न देखकर मोदी को वोट दिया। ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ का नारा चरितार्थ हुआ। हर मतदाता के दिलोंदिमाग पर केवल मोदी का चेहरा था। यह अमित शाह और मोदी की रणनीति का सबसे अहम पक्ष था। दूसरी तरफ मोदी को टक्कर देने वाला एक भी नेता, उनके कद का नहीं था। जिससे पूरा देश नेतृत्व करने की अपेक्षा रखता।
यूं तो उ.प्र. में गठबंधन कोई विशेष सफलता हासिल नहीं कर पाया। पर सभी राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर सारे विपक्षी दल एक झंडे और एक नेता के पीछे लामबंद हो जाते, तो उन्हें आज इतनी अपमानजनक पराजय का मुंह न देखना पड़ता। पर ऐसा नहीं हुआ। इससे मतदाता में यह साफ संदेश गया कि जो विपक्ष अपना नेता तक नहीं चुन सकता, जो विपक्ष एक साथ एक मंच पर नहीं आ सकता, वो देश को क्या नेतृत्व देगा। इसलिए जो लोग मोदी की नीतियों से अप्रसन्न भी थे, उनका भी यह कहना था कि ‘विकल्प ही कहाँ है’। इसलिए उन्होंने भी मोदी को वोट दिया।
मोदी की सफलता का एक अन्य कारण यह भी था कि मोदी ने विकास के मुद्दों को छोड़कर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को चुनाव अभियान का मुख्य लक्ष्य बनाया। जब देश की सीमाओं की सुरक्षा की बात आती है, तब हर भारतीय भावुक हो जाता है। ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष हर घर में होने लगता है। इसलिए मतदाता मंहगाई, रोजगार, सामाजिक लाभ की न सोचकर, केवल देश की सुरक्षा पर सोचने लगा और उसे लगा कि इन हालातों में मोदी ही उनकी रक्षा कर सकते हैं।
हिंदू-मुस्लिम का कार्ड भी बेखटक खेला गया। जिससे हिंदूओं का मोदी के पक्ष में क्रमशः झुकाव बढ़ता चला गया और पाकिस्तान को अपनी दुश्मनी का लक्ष्य बनाकर, मतदाताओं के बीच देशभक्ति का जज्बा पैदा किया गया। ऐसा कोई ऐजेंडा विपक्ष नहीं दे पाया, जिस पर समाज का इतना बड़ा झुकाव उनकी तरफ हो पाता। विपक्ष ने भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उठाया, उस पर वह मतदाताओं को आंदोलित नहीं कर पाया। क्योंकि एक तो वे उनसे सीधे जुड़े नहीं थे, दूसरा मुद्दा उठाने वाला विपक्ष ही हमेशा से भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा रहा है।
जहां एक तरफ नीरव मोदी, विजय माल्या, अनिल व मुकेश अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपतियों पर मोदी राज में देश लूटने का आरोप लगाया गया, वहीं विपक्ष यह भूल गया कि मोदी ने बड़ी होशियारी से गांवों में अपनी पैठ बनाकर, कुछ ऐसे सीधे लाभ ग्रामवासियों को दिलवा दिए, जिससे उनकी लोकप्रियता गरीबों के बीच बहुत तेजी से बढ़ गई। मसलन गांवों में बिजली और सड़क पहुंचाना, निर्धन लोगों के घर बनवाना और लगभग घर-घर में शौचालय बनवाना। जिन्हें ये मदद मिली, उनका मोदी से खुश होना लाजमी है। पर जिन्हें यह लाभ नहीं मिल पाए, वे इसलिए मोदी का गुणगान करने लगे जिससे कि जल्द ही उनकी बारी भी आ जाऐ। ऐसा एक भी आश्वासन विपक्ष इन गरीब मतदाताओं को नहीं दे पाया।
मोदी या भाजपा की जीत का एक सबसे बड़ा कारण इनकी संगठन क्षमता है। आज भाजपा जैसा संगठन, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसा समर्पित कार्यकर्ता किसी भी राजनैतिक दल के पास नहीं है, जो मतदाताओं को बूथ स्तर तक प्रभावित कर सके। जहां तक संसाधनों की बात है, आज भाजपा के पास अकूत दौलत है। जिससे उसने इन चुनावों को एक महाभारत की तरह लड़ा और जीता।
ये पहला मौका है, जहां संघ प्रेरित भाजपा, अपने आप पूर्णं बहुमत में है। निश्चय ही हर हिंदू को मोदी से अपेक्षा है कि वे अविलंब राम मंदिर का निर्माण करवाऐंगे, धारा 370 और 35 ए समाप्त करेंगे, कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बसाऐंगे, बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर निकालेंगे और देश के करोड़ों नौजवानों को रोजगार देंगे, जिसका वे जोरदारी से दावा करते आऐ हैं। भारी बहुमत से मोदी को जिताने वाली जनता इनमें से कुछ लक्ष्यों की प्राप्ति अगले 6 महीनों में पूरी होती देखना चाहती है। अब यह बात निर्भर करेगी, परिस्थतियों पर और मोदी जी की इच्छा शक्ति पर, कि वे कितनी जल्दी इन लक्ष्यों की पूत्र्ति कर पाते हैं।

Monday, October 15, 2018

सुब्रमनियन स्वामी: गिरगिटिया या हिंदुत्ववादी ?

हैदराबाद के ‘मदीना एजुकेशन सेंटर’ में 13 मार्च 1993 को भाषण देते हुए स्वनामधन्य डा. सुब्रमनियन स्वामी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। उन्होंने इन तीनों संगठनों को ‘आतंकवादी’ बताया और प्रधानमंत्री नरसिंह राव से इन तीनों संगठनों को प्रतिबंधित करने की मांग भी की थी।जबकि मैने 1990 में  जोखिम उठाकर अपनी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन में 'अयोध्या नरसंहार'  पर सशक्त वीडियो फ़िल्म बनाकर प्रसारित की थी, जिसकी विहिप, संघ और भाजपा ने हज़ारों प्रतियां बनवाकर देशभर में दिखाई थीं। 1990 से मैँ अयोध्या, मथुरा और काशी में मंदिरों के समर्थन में लिखता और बोलता रहा हूँ। जबकि स्वामी जैसे अवसरवादी केवल निजी लाभ के लिए मौके के अनुसार उछलते रहते हैं।



आज वहीं डा. स्वामी अपना रंग और चोला बदलकर, पूरी दुनिया के हिंदुओं को मूर्ख बना रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे अयोध्या में राम मंदिर बनवाकर ही दम लेंगे। युवा पीढ़ी चाहे भारत में हो या अमरिका में रहने वाले अप्रवासी भारतीय, डा. स्वामी के लच्छेदार भाषणों के सम्मोहन में आकर, इन्हें हिंदू धर्म का सबसे बड़ा नेता मान रही है। क्योंकि उन्हें इनका अतीत पता नहीं है।



आजकल डा. स्वामी दावा करते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्णं समर्थन प्राप्त है। अब ये स्पष्टीकरण तो आदरणीय मोहन भागवत जी को देश को देना चाहिए कि क्या डा. स्वामी का दावा सही है? जो व्यक्ति संघ और उससे जुड़े संगठनों को ‘‘आतंकवादी’’ करार देता आया हो, उसे संघ अपना नेता कैसे मान सकता है?



इतना ही नहीं दुनियाभर में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्हें डा. स्वामी ने यह झूठ बोलकर कि वे राम जन्मभूमि के लिए सर्वोच्च अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं, उनसे कई तरह की मदद ली है। कितना रूपया ऐंठा है, ये तो वे लोग ही बताऐंगे। पर हकीकत ये है कि डा. स्वामी का राम जन्मभूमि विवाद में कोई ‘लोकस’ ही नहीं है। पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने ये साफ कर दिया है कि राम जन्मभूमि विवाद में वह केवल उन्हीं लोगों की बात सुनेंगी, जो इस मामले में भूमि स्वामित्व के दावेदार हैं। यानि डा. स्वामी जैसे लोग अकारण ही बाहर उछल रहे हैं और तमाम तरह के झूठे दावे कर रहे हैं कि वे राम मंदिर बनवा देंगे। जबकि उनकी इस प्रक्रिया में कोई कानूनी भूमिका नहीं है।



एक आश्चर्य कि बात ये है कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद जिस भारतीय जनता पार्टी की मान्यता रद्द करने के लिए डा. स्वामी ने चुनाव आयोग से मांग की थी, उसी भाजपा ने किस दबाब में डा. स्वामी को ‘राज्यसभा’ में मनोनीत करवाया? राजनैतिक गलियारों में ये चर्चा आम है कि इन्हें संघ के दबाव में लेना पड़ा। वरना इनके गिरगिटिया स्वभाव के कारण कोई इन्हें लेने तैयार नहीं था। सुनते हैं कि डा. स्वामी ने प्रधानमंत्री मोदी को यह आश्वासन दिया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओें को जेल भिजवा देंगे और ये दावा ये हर कुछ महीनों में दोहराते रहते हैं। जबकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ‘नेशनल हेराल्ड’ केस में कोई दम ही नहीं है।



भारतीय जनता पार्टी के नेता अमित शाह को सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति के संबंध कुख्यात हथियार कारोबारी अदनान खशोगी, विजय मल्ल्या और दूसरे ऐसे लोगों से रहे हों, उसे भाजपा अपने दल में रखकर क्यों अपनी छवि खराब करवा रही है। इतना ही नहीं बिना किसी खतरे के बावजूद डा. स्वामी को ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है। इस पर इस गरीब देश का लाखों रूपया महीना बर्बाद हो रहा है। मजे की बात तो ये है कि डा. स्वामी आऐ दिन अखबारों में बयान देकर मोदी सरकार के मंत्रियों और अन्य नेताओं पर हमला बोलते रहते हैं और उन्हें नाकारा और भ्रष्ट बताते रहते हैं। तो क्या ये माना जाऐ कि डा. स्वामी को उनकी धमकियों से डरकर राज्यसभा की सदस्यता और जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है? पुरानी कहावत है कि ‘मूर्ख दोस्त से बुद्धिमान दुश्मन भला’। डा. स्वामी वो बला हैं, जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे अविश्वसनीय और बेलगाम व्यक्ति को राज्यसभा और भाजपा में रखकर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है?



डा. स्वामी खुलेआम झूठ बोलते हैं और इतनी साफगोई से बोलते हैं कि सामने वाले शक भी न हो। एक रोचक उदाहरण है कि 80 के दशक में जब पंजाब में सिक्ख आतंकवाद अपने चरम पर था, तो डा. स्वामी ने भिंड्रावाला के खिलाफ आक्रामक टिप्पणी कर दी। जब इन्हें सिक्ख संगठनों से धमकी आई, तो ये भागकर अमृतसर गए और स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाए हुए भिंड्रावाला के पैरों में पड़ गऐ। अंदर का वातावरण छावनी जैसा था। हर ओर निहंग बंदूके और शस्त्र ताने हुए थे। यह सब खुलेआम देखकर भी डा. स्वामी की हिम्मत नहीं हुई कि वे भारत सरकार को अंदर की सच्चाई बता दें। डा. स्वामी ने भिड्रावाला से मिलने के बाद बाहर आकर झूठा बयान दिया कि,‘‘अंदर कोई हथियार नहीं हैं।’’




डा. स्वामी के डीएनए में दोष है। ये नाहक हर बात में टांग अड़ाते हैं और अपने ‘उच्च’ विचारों से देश के मीडिया को गुमराह करते रहते हैं। सारा मकसद अपनी ओर मीडिया का ध्यान आकर्षित करना होता है, देश, धर्म और समाज जाए गड्ढे में। ऐसे गिरिगिटिया, झूठे और ब्लेकमेलर स्वामी को संध नेतृत्व क्यों अपने कंधे पर ढो रहा है?

Monday, January 15, 2018

सर्वोच्च न्यायालय में तूफान: तस्वीर का दूसरा पक्ष


सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में पहली बार 4 वरिष्ठतम् न्यायाधीशों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की कार्य प्रणाली पर संवाददाता सम्मेलन कर न्यायपालिका में हलचल मचा दी। उनका मुख्य आरोप है कि राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों में उनकी वरिष्ठता को नजरअंदाज कर, मनचाहे तरीके से केसों का आवंटन किया जा रहा है। इस अभूतपूर्व घटना पर देश की न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग, राजनैतिक दल और मीडिया अलग-अलग खेमो में बटे हैं। भारत सरकार ने तो इसे न्यायपालिका का अंदरूनी मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस पर टिप्पणी की है। उधर सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता इस पर खुली बहस की मांग कर रहे है। जबकि उक्त चार न्यायाधीशों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महाअभियोग चलाने की मांग की है।

जाहिर है कि बिना तिल के ताड़ बनेगा नहीं। कुछ तो ऐसा है , जिसने इन न्यायाधीशों को 70 साल की परंपरा को तोड़कर इतना क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। चूंकि हमारी न्याय व्यवस्था में सबकुछ प्रमाण पर आधारित होता है। इसलिए इन न्यायाधीशों के मुख्य न्यायाधीश पर लगाये गये आरोपों की ‘सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल’ को निष्पक्षता से जांच करनी चाहिए। अगर यह सिद्ध हो जाता है कि उनसे जाने-अंजाने कुछ ऐसी गलती हुई है, जो सर्वोच्च न्यायालय की स्थापित परंपराओं और मर्यादा के विरूद्ध है, तो मुख्य न्यायाधीश को बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए, उसका सुधार कर लेना चाहिए।

पर इस तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर मर्यादा के विरूद्ध आचरण करने का यह पहला मौका नहीं है। सन् 2000 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डा. ए.एस. आनंद के 6 जमीन घोटाले मयसबूत मैंने ‘कालचक्र’ अखबार में प्रकाशित किये थे। उन दिनों भी केंद्र में राजग की सरकार थी। पर सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश ने, किसी राजनैतिक दल के नेता ने और दो-तीन को छोड़कर किसी वकील ने डा. आनंद से सफाई नहीं मांगी। बल्कि अभिषेक सिंघवी व कपिल सिब्बल जैसे वकीलों ने तो टीवी चैनलों पर डा. आनंद का बचाव किया। मजबूरन मैंने भारत के राष्ट्रपति डा. के.आर नारायणन से मामले की जांच करने की अपील की। उन्होंने इसे तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी को सौंप दिया। जब कानून मंत्री ने मुख्य न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगा, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जेठमलानी से स्तीफा मांग लिया और उनकी जगह अरूण जेटली को देश का नया कानून मंत्री नियुक्त किया। जेटली ने भी इस मामले में डा. आनंद का ही साथ दिया। क्या अपने पद का दुरूपयोग कर जमीन घोटाले करने वाले मुख्य न्यायाधीश डा. आनंद को यह नैतिक अधिकार था कि वे दूसरों के आचरण पर फैसला करे? क्या उनके ऐसे आचरण से सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा कम नहीं हुई?

इससे पहले जुलाई 1997 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने भरी अदालत में यह कहकर देश हिला दिया था कि उन पर हवाला कांड को रफा-दफा करने के लिए भारी दबाव है और आरोपियों की तरफ से एक ‘जेंटलमैन’ उनसे बार-बार मिलकर दबाव डाल रहा है। पर न्यायमूर्ति वर्मा ने सर्वोच्च अदालत की इतनी बड़ी अवमानना करने वाले अपराधी का न तो नाम बताया, न उसे सजा दी। जबकि बार काउंसिल, मीडिया और सांसदों ने उनसे ऐसा करने की बार-बार मांग की। चूंकि मुझे इसका पता चल चुका था कि न्यायमूर्ति वर्मा और न्यायमूर्ति एस.सी. सेन, हवाला कांड के आरोपियों से गोपनीय रूप से मिल रहे थे। इसलिए मैंने सीधा पत्र लिखकर सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों से इस मामले में कार्यवाही करने की मांग की। पर कोई नहीं बोला। उपरोक्त दोनों ही मामलों में अनैतिक आचरण करने वाले ये दोनों मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के बाद भारत के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बना दिये गये। चूंकि ये नियुक्तियां सत्त पक्ष और विपक्ष की सहमति से होती हैं, इसलिए यह और भी चिंता की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश या विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर लगे इस कलंक को धोने सामने नहीं आये।

इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रामास्वामी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उनके खिलाफ संसद में महाअभियोग प्रस्ताव लाया गया। पर कांग्रेस के सांसदों ने सदन से बाहर जाकर महाअभियोग प्रस्ताव को गिरवा दिया और रामास्वामी को बचा लिया। मौजूदा घटनाक्रम के संदर्भ में ये तीनों उदाहरण बहुत सार्थक है। अगर सर्वोच्च न्यायालय के इन चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने मौजूदा मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाअभियोग चलाने का प्रस्ताव रखा है, तो उन्हें यह भी बताना चाहिए के उपरोक्त दो मामलों में, जो चुप्पी साधी गई, उसके लिए जिम्मेदार लोगों को दोषी ठहराने के लिए, ये चारो न्यायाधीश, कानून के दायरे में, क्या पहल करने को तैयार हैं? अगर वे इसे पुराना मामला कहकर टालते हैं, तो उन्हें ये मालूम ही होगा कि आपराधिक मामले कभी भी खोले जा सकते हैं। यह बात दूसरी है कि श्री वर्मा और डा. आनंद, दोनों ही अब शरीर त्याग चुके हैं। पर जिन जिम्मेदार लोगों ने उनके अवैध कारनामों पर चुप्पी साधी या उन्हें बचाया, वे अभी भी मौजूद हैं। सर्वोच्च न्यायपालिका में सुधार के लिए मैं 1997 से जोखिम उठाकर लड़ता रहा हूं। क्या उम्मीद करूं कि सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को लेकर, जो चिंता आज व्यक्त की गई है, उसे बिना पक्षपात के हर उस न्यायाधीश पर लागू किया जायेगा, जिसका आचरण अनैतिक रहा है? जिससे देश की जनता को यह आश्वासन मिल सके कि उसके आचरण पर फैसला देने वाला न्यायाधीश अनैतिक नहीं है।

Monday, December 25, 2017

मोदी जी उत्तर प्रदेश को संभालें

भाजपा के शिखर नेतृत्व के मन में गत तीन महीनों में यह प्रश्न कई बार आया होगा कि गुजरात के चुनाव में इतनी मश्शकत क्यों करनी पड़ी? विपक्ष ने गुजरात मॉडल को लेकर बार-बार पूछा कि इस चुनाव में इसकी बात क्यों नहीं हो रही? विपक्ष का व्यंग था कि जिस गुजरात मॉडल को मोदी जी ने पूरे देश में प्रचारित कर केंद्र की सत्ता हासिल की, उस मॉडल का गुजरात में ही जिक्र करने से भाजपा क्यों बचती रही? क्या उस मॉडल में कुछ खोट है? क्या उस मॉडल को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया? क्या उस मॉडल का गुजरात की आम जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा? वजह जो भी रही हो भाजपा अध्यक्ष व प्रधानमंत्री को काफी पसीना बहाना पड़ा गुजरात का चुनाव जीतने के लिए। एक और फर्क ये था कि पहले चुनावों में मोदी जी के नाम पर ही वोट मिल जाया करते थे, लेकिन इस बार केंद्र के अनेक मंत्रियों, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों, प्रांतों के मंत्रियों और पूरे देश के संघ के कार्यकर्ताओं को लगना पड़ा गुजरात की जनता को राजी करने के लिए, कि वे एक बार फिर भाजपा को सत्ता सौंप दें।
इन स्टार प्रचारकों में सबसे ज्यादा आकर्षक नाम रहा, उ.प्र. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का। जिनके केसरिया बाने और प्रखर संभाषणों ने गुजरात के लोगों को आकर्षित किया। अब चर्चा है कि भाजपा लोकसभा के चुनाव में योगी जी का भरपूर उपयोग करेगी। पर इस सब के बीच मेरी चिंता का विषय उ.प्र. का विकास है।

उ.प्र. में जो तरीका इस वक्त शासन का चल रहा है, उससे कुछ भी ऐसा नजर नहीं आ रहा कि बुनियादी बदलाव आया हो। लोग कहते है कि सुश्री मायावती के शासनकाल में नौकरशाही सबसे अनुशासित रही। अखिलेश यादव  को लोग एक सद्इच्छा रखने वाला ऊर्जावान युवा मानते हैं, जिन्होंने उ.प्र. के विकास के लिए बहुत योजनाऐं चालू की और कुछ को पूरा भी किया। लेकिन पारिवारिक अंतर्कलह और राजनीति पर परिवार के प्रभाव ने उन्हें काफी पीछे धकेल दिया। योगी जी का न तो कई परिवार है और न ही उन्हें आर्थिक असुरक्षा। एक बड़े सम्प्रदाय के महंत होने के नाते उनके पास वैभव की कमी नहीं है। इसलिए यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपना शासन पूरी ईमानदारी व निष्ठा से करेंगे। लेकिन केवल निष्ठा और ईमानदारी से लोगों की समस्याऐं हल नहीं होती। उसके लिए प्रशासनिक सूझ-बूझ, योग्य, पारदर्शी और सामथ्र्यवान लोगों की बड़ी टीम चाहिए। जिसे अलग-अलग क्षेत्रों का दायित्व सौंप सकें।

क्रियान्वन पर कड़ी नजर रखनी होती है। जनता से फीडबैक लेने का सीधा मैकेनिज्म होना चाहिए। जिनका आज उ.प्र. शासन में नितांत अभाव है। श्री नरेन्द्र मोदी और श्री अमित शाह को उ.प्र. के विकास पर अभी से ध्यान देना होगा। केवल रैलियां, नारे व आक्रामक प्रचार शैली से चुनाव तो जीता जा सकता है, लेकिन दिल नहीं। उ.प्र. की जनता का यदि दिल जीतना है, तो समस्याओं की जड़ में जाना होगा। लोग किसी भी सरकार से बहुत अपेक्षा नहीं रखते। वे चाहते हैं कि बिजली, सड़के, कानून व्यवस्था ठीक रहे, पेयजल की आपूर्ति हो, सफाई ठीक रहे और लोगों को व्यापार करने करने की छूट हो । किसानों को सिंचाई के लिए जल और फसल का  वाजिव दाम मिले, तो प्रदेश संभल जाता है।

इतना बड़ा सरकारी अमला, छोटे-छोटे अधिकारी के पास गाड़ी, मकान, तन्ख्वाह व पेंशन। फिर भी  रिश्वत का मोह नहीं छूटता। आज कौन सा महकमा है उ.प्र. में जहां काम कराने में नीचे से ऊपर रिश्वत या कमीशन नही चल रहा? और कब नहीं चला? यदि पहले भी चला और आज भी चल रहा है, तो फिर योगी जी के आने का क्या अंतर पड़ा? मोदी जी की इस बात का क्या प्रभाव पड़ा कि ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’?  मैं बार बार अपने लेखों के माध्यम से कहता आया हूं कि दो तरह का भ्रष्टाचार होता है। एक क्रियान्वन का और दूसरा योजना का। क्रियान्वन का भ्रष्टाचार व्यापक है, कोई भी इंजीनियरिंग विभाग ऐसा नहीं है, जो बिना कमीशन के काम करवाये या बिल पास करे। लेकिन इससे बड़ा भ्रष्टाचार यह होता है कि योजना बनाने में ही आप एक ऐसा खेल खेल जाऐं कि जनता को पता ही न चले और सैंकड़ों करोड़ के वारे-न्यारे हो जाऐं।

मुझे तकलीफ के साथ मोदी जी, योगी जी और अमित शाह जी को कहना है कि  आज उ.प्र. में सीमित साधनों के बीच जो कुछ भी योजनाऐ बन रही है, उनमें पारदर्शिता, सार्थकता और उपयोगिता का नितांत अभाव है। कारण स्पष्ट है कि योजना बनाने वाले वही लोग हैं, जो पिछले 70 साल से योजना बनाने के लिए ही योजना बनाते आऐ हैं। केवल मोटी फीस लेने के लिए योजनाऐं बनाते हैं। बात बार-बार हुई कि जमीन से विकास की परिकल्पना आऐ।  लोगों की भागीदारी हो। गांव और ब्लॉक स्तर पर समझ विकसित की जाए। योजना आयोग का भी नाम बदलकर नीति आयोग कर दिया गया। लेकिन इसका असर लोगों को जमीन पर नहीं दिखाई दे रहा। फिर भी देश की जनता यह मानती है कि साम्प्रायिकता, पाकिस्तान, चीन और कई ऐसे बड़े सवाल हैं, जिन पर निर्णय लेने के लिए एक सशक्त नेतृत्व की जरूरत है और वो नेतृत्व नरेन्द्र मोदी दे रहे हैं। उन्होंने अपनी छवि भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी बनाई है, जहां इंदिरा गांधी के बाद उन्हीं को सबसे ज्यादा सुना और समझा जा रहा है। परिणाम अभी आने बाकी है। फिर भी उ.प्र. के स्तर पर यदि ठोस काम करना है, तो समस्याओं के हल करने की नीति और योजनाओं को भी ठोस धरातल से जुड़ा होना होगा।

समस्याओं के हल उन लोगों के पास है, जिन्होंने उन समस्याओं को ईमानदारी से हल करने की कोशिश की है। कोशिश ही नहीं की, बिना सरकारी मदद के सफल होकर दिखाया है। क्या कोई भी प्रांत या कोई भी सरकार ऐसे लोगों को बुला कर उनको सुनने को तैयार है ? अगर नही तो फिर वही रहेंगे  ‘ढाक के तीन पात’। उ.प्र. में आने वाला लोकसभा चुनाव तो मोदी जी जीत जाऐंगे। लेकिन उसके लिए गुजरात से कहीं ज्यादा मश्शकत करनी पड़ेगी। अगर अभी से स्थितयां सुधरने लगे, त्वरित परिणाम दिखने लगे तो जनता भी साथ होगी और काम भी साथ होगा। फिर बिना किसी बड़े संघर्ष से वांछित फल प्राप्त किया जा सकता है।

Monday, October 17, 2016

हाकिमों की मौज पर पाबंदी


हाल ही में मोदी सरकार ने प्रशासनिक सुधारों की तरफ एक और कड़ा कदम उठाया है जिसके तहत केंद्र सरकार के ऊँचे पदों पर रहे आला अधिकारियों को मिल रही वो सारी सुविधाएं वापिस ले ली हैं जो वे सेवानिवृत होने के बावजूद लिए बैठे थे | मसलन चपरासी, ड्राइवर, गाड़ी आदि | इस तरह एक ही झटके में मोदी सरकार ने जनता का करोड़ों रुपया महीना बर्बाद होने से बचा लिया | इतना ही नहीं भिवष्य के लिए इस प्रवृति पर ही रोक लग गई | वरना होता ये आया था की हिन्दुस्तान की नौकरशाही किसी न किसी बहाने से सेवानिवृत होने के बाद भी अनेक किस्म की सुविधाएँ अपने विभाग से स्वीकृत करा कर भोगते चले आ रहे थे | ज़ाहिर है कि जो रवैया बन गया था वो रुकने वाला नहीं था | बल्कि और भी बढने वाला था | जिस पर मोदी सरकार ने एक झटके से ब्रेक लगा दिया | पर अभी तो ये आगाज़ है अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है |

केंद्र की पूर्वर्ती सरकारों ने पूर्व राष्ट्रपतियों, उपराष्ट्रपतियों, प्रधान मंत्रियों, उप प्रधान मंत्रियों व अन्य ऐसे ही राजनैतिक परिवारों को बड़े बड़े बंगले अलॉट करने की नीति चला रखी है | ये बहुत आश्चर्य की बात है कि जिस देश में आम आदमी को रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनयादी जरूरतों को हासिल करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ता हो, उसमे जनता के अरबों रुपयों को क्यूँ इनपे खर्च किया जाता है ? जबकि दुनिया के किसी सम्पन्न देश में भी कार्यकाल पूरा होने के बाद ऐसी कोई भी सुविधा राजनेताओं को नहीं दी जाती | नतीजतन भारत के राजनेता दोहरा फायदा उठाते हैं | एक तरफ तो अपने पद का दुरूपयोग करके मोटी कमाई करते हैं और दूसरी तरफ सरकारी सम्पत्तियों पर ज़िन्दगी भर कब्जा जमे बैठे रहते हैं | जबकी उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं होती | डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने रष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा होने के बाद सरकारी बंगला लेने से इनकार कर दिया | पर उन्हें भी किसी क़ानून का हवाला देकर उनकी इच्छा के विरुद्ध बंगला आवंटित किया गया |

इसी तरह कई प्रदेशों की राजधानियों में भी यही प्रवृति चल रही है | हर पूर्व मुख्यमंत्री एक न एक सरकारी बंगला दबाए बैठा है | इस पर भी रोक लगनी चाहिए | मोदी जी और अमित भाई शाह कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं की भाजपा शासित राज्यों में इस नीति की प्रवृति को खत्म करें | जैसे सरकार के अन्य विभागों में होता है कि सेवानिवृत होने के बाद ऐसी कोई सुविधा नहीं मिलती | इससे सरकार के खजाने की फ़िज़ूल खर्ची रोकी जा सकेगी और उस पैसे से जन कल्याण का काम होगा | वैसे भी यह वृत्ति लोकतंत्र के मानकों के विपरीत है | इस नीति के चलते समाज में भेद होता है | जबकि कायदे से हर व्यक्ति को प्राकृतिक संसाधन इस्तेमाल करने के लिए समान अधिकार मिलना चहिये | वैसे भी निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को ऐसी कोई रियातें नहीं मिलती |

समाजवादी विकास मॉडल के जुनून में पंडित नेहरु ने अंग्रेजों की स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने की कोई कोशिश नहीं की | नतीजतन हर आदमी सरकार से नौकरी और सुविधाओं की अपेक्षा करता है | जबकि होना यह चाहिए कि हर व्यक्ति सरकार पर निर्भर होने की कोशिश करे, अपने पैरों पर खड़ा हो और अपनी जरूरत के साधन अपनी मेहनत से जुटाय | तब होगा राष्ट्र का निर्माण | सेवानिवृत होने पर ही क्यों, सेवा काल में ही सरकारी अफसर जन सेवा के लिए मिले संसाधनों का जमकर दुरूपयोग अपने परिवार के लिए करते हैं |

आज़ादी के 70 साल बाद भी देश की नौकरशाही अंग्रेजी हुक्मरानों की मानसिकता से काम कर रही है | जिस जनता का उसे सेवक होना चाहिए उसकी मालिक बन कर बैठी है | इन अफसरों के घर सरकारी नौकरों की फौज अवैध रूप से तैनात रहती है । सरकारी गाडि़यां इनके दुरुपयोग के लिये कतारबद्ध रहती हैं। इनकी पत्नियाँ अपने पति के अधीनस्थ अधिकारियों पर घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिये ऐसे हुक्म चलाती हैंमानो वे उनके खरीदे गुलाम हों। ये अधीनस्थ अधिकारी भी फर्शी सलाम करने में पीछे नहीं रहते। अगर मैडम खुश तो साहब के नाखुश होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। ये लोग निजी यात्रा को भी सरकारी यात्रा बनाकर सरकारी तामझाम के साथ चलना पसंद करते हैं। जन सेवा के नाम पर सरकारी तामझाम का पूरे देश में एक ऐसा विशाल तन्त्र खड़ा कर दिया गया है जिसमे केवल अफसरों और नेताओं के परिवार मौज लेते हैं | किसी विकसित देश में भी ऐसा तामझाम अफसरों के लिए नहीं होता | इस पर भी मोदी सरकार को नजर डालनी चाहिए | ऐसे तमाम बिंदु हैं जिन पर हम जैसे लोग वर्षों से बेबाक लिखते रहे हैं | पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी | अब लगता है कि ऐसी छोटी लेकिन बुनयादी बातों की ओर भी धीरे धीरे मोदी सरकार का ध्यान जायेगा | भारत को अगर एक मजबूत राष्ट्र बनना है तो उसके हर नागरिक को सम्मान से जीने का हक होना चाहिए | वो उसे तभी मिलेगा जब सरकारी क्षेत्र में सेवा करने वाले अपने को हाकिम नहीं बल्कि सेवक समझें जैसे निजी क्षेत्र में सेवा करने वाला हर आदमी, चाहे कितने बड़े पद पर क्यों न हो अपने को कम्पनी का नौकर ही समझता है |