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Monday, December 4, 2017

उ. प्र. के निकायों के चुनाव से संदेश

उ.प्र. के नगर निकायों के चुनावों के नतीजे आ गये हैं। लोकतंत्र की ये विशेषता है कि नेता को हर पाँच साल में मतदाता की परीक्षा में खरा उतरना होता है। ऐसा कम ही होता है कि एक व्यक्ति लगातार दो या उससे ज्यादा बार उसी क्षेत्र से चुनाव जीते। अगर ऐसा होता है, तो स्पष्ट है कि उस व्यक्ति ने अपने क्षेत्र में काम किया है और उसकी लोकप्रियता बनी हुई है। अलबत्ता अगर कोई माफिया हो और वो अपने बाहुबल के जोर से चुनाव जीतता हो, तो दूसरी बात है।

उ.प्र. के अधिकतर महापौर भाजपा के टिकट पर जीते हैं। इसके दो कारण है। एक तो केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार होने के नाते मतदाता को ये उम्मीद है कि अगर जिले से केंद्र तक एक ही दल की सत्ता होगी, तो विकास कार्य तेजी से होंगे और साधनों की कमी नहीं आयेगी। दूसरा कारण यह है कि योगी सरकार को बने अभी 6 महीने ही हुए हैं। उ.प्र. के मतदाताओं को अपेक्षा है कि सरकार व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करेगी। इसलिए उसको इतना भारी समर्थन मिला है।

पर साथ ही जिन सीटों पर कार्यकर्ताओं की छवि और क्षमता को दरकिनार कर किन्हीं अन्य कारणों से सिफारशी उम्मीदवारों को टिकट मिले, वहां उनकी पराजय हुई है। ये चुनावी गणित का एक पेचीदा सवाल होता। दल के नेता का लक्ष्य होता है कि किसी भी तरह चुनाव जीता जाए। इसीलिए अक्सर ऐसे उम्मीदवारों को भी टिकट दे दिये जाते हैं, जिन्हें बाहरी या ऊपर से थोपा हुआ मानकर, कार्यकर्ता गुपचुप असहयोग करते हैं। जबकि इन्हें टिकट इस उम्मीद में दिया जाता है कि वे जीत सुनिश्चित करेंगे। नैतिकता का तकाजा है कि जिसने दल के सामान्य कार्यकर्ता बनकर, लंबे समय तक, समाज और दल के हित में कार्य किया हो, जिसकी छवि साफ हो और जिसमें नेतृत्व की क्षमता हो, उसे ही टिकट दिया जाए। पर अक्सर ऐसा नहीं होता और इससे कार्यकर्ताओं में हताशा फैलती है और वे बगावत कर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े होकर, कड़ी चुनौती देते हैं। जो भी हो अब तो चुनाव हो गये। हर दल अपने तरीके से परीणामों की समीक्षा करेगा।

सवाल है कि स्थानीय निकायों की प्रमुख भूमिका क्या है और क्या जीते हुए उम्मीदवार अब जन आकांक्षाओं को पूरा करने में जी जान से जुटेंगे? देखने में तो ये आता है कि चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर उम्मीदरवार उन कामों में ही रूचि लेते हैं, जिनमें उन्हें ठेकेदारों से अच्छा कमीशन मिल सके। चूंकि स्थानीय निकायों का काम सड़क, नाली, खड़जे, पार्क, रोशनी आदि की व्यवस्था करना होता है और इन मदों में आजकल केंद्र सरकार अच्छी आर्थिक मदद दे रही है, इसलिए छोटे-छोटे ठेकेदारों के लिए काफी काम निकलते रहते हैं। पर इस कमीशन खोरी की वजह से इन कार्यों की गुणवत्ता संदेहास्पद रहती है। इसीलिए उ.प्र. के ज्यादातर नगरों में आप सार्वजनिक सुविधाओं को भारी दुर्दशा में पाऐंगे। टूटी-फूटी सड़के, अवरूद्ध और उफनती नालियां, बिजली के खम्भों से लटकते तार, हर जगह कूड़े के अंबार और गंदे पानी के पोखर,उ.प्र. के नगरों के चेहरों पर बदनुमा दाग की तरह हर ओर दिखाई देते हैं। फिर वो चाहे प्रदेश की राजधानी लखनऊ हो या प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बनारस या तीर्थराज प्रयाग हो और या राम और कृष्ण की भूमि अयोध्या व मथुरा। हर ओर आपको इन नगरों की ऐसी दयनीय दशा दिखाई देगी कि आप यहां आसानी से दोबारा आने की हिम्मत न करें।

नगरों की साफ सफाई के लिए एक कुशल ग्रहणी की मानसिकता चाहिए। एक की घर की दो बहुऐं अपने-अपने कमरों को अलग-अलग तरह से रखती हैं। एक का कमरा आपको 24 घंटे सजा-संवरा दिखेगा। जबकि दूसरी के कमरे में जहां-तहां कपड़े और सामान बिखरे मिलेगें। ठीक इसी तरह जिस वार्ड का प्रतिनिधि अपने वार्ड की साफ-सफाई और रख-रखाव को लेकर लगातार सक्रिय रहेगा, उसका वार्ड हमेशा चमकता रहेगा। जो निन्यानवे के फेर में रहेगा, उसका वार्ड दयनीय हालत में पड़ा रहेगाा। अब ये जिम्मेदारी मतदाताओं की भी है कि वो अपने पार्षद पर कड़ी निगाह रखे और उसे वह सब करने के लिए मजबूर करें, जिसके लिए उन्होंने वोट दिया था।

एक समस्या और आती है, वह है विकास के धन का दुरूपयोग। चूंकि अनुदान मिल गया है और पैसा खर्च करना है, चाहे उसकी जरूरत हो या न हो, तो ऐसे-ऐसे काम करवाये जाते, जिनमें सीधे जनता के धन की बरबादी होती है। इसलिए मैने हाल ही अपनी दो बैठकों में मुख्यमंत्री योगी जी से साफ कहा कि महाराज एक तो काम करवाने में भ्रष्टाचार होता ही है और दूसरा योजना बनाने में उससे बड़ा भ्रष्टाचार होता है। उदाहरण के तौर पर आपके वार्ड की सड़क अच्छी-खासी है। अचानक एक दिन आप देखते हैं कि उस कॉन्क्रीट की सड़क को ड्रिल मशीन से काट-काटकर उखाड़ा जा रहा है। फिर कुछ दिन बाद वहां रेत बिछाकर इंटरलॉकिंग के टाइल्स लगावाये जा रहे हैं। जिनको लगवाने का उद्देश्य केवल अनुदान को ठिकाने लगाना होता है। लगने के कुछ ही दिनों बाद ये टाइल्स जगह-जगह से उखड़ने लगते हैं। फिर कभी कोई उन्हें ठीक करने या उनका रखरखाव करने नहीं आता। इस तरह एक अच्छी खासी सड़क बदरंग हो जाती है। मतदाता तो अपनी रोजी-रोटी में मशगूल हो जाता है और प्रतिनिधि पैसे बनाने में। अगर उ.प्र. के नगरों की हालत को सुधारना है, तो इन जीते हुए प्रतिनिधियों, महापौरों और योगी सरकार को कमर कसनी होगी कि कुछ ऐसा करके दिखायें कि संसदीय चुनाव से पहले उ.प्र. के नगर बिना फिजूल खर्चे के दुल्हन की तरह सजे दिखे। हां इस काम में नागरिकों को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी। तभी इन चुनावों की उपलब्धि सार्थक हो पायेगी।

Monday, July 24, 2017

पुराने तरीकों से नहीं सुधरेंगी धर्मनगरियाँ


योगी सरकार उ.प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं।



धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतिृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना।



इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़जे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं।



माना कि विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शाहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बुद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ.प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?



पिछले हफ्ते जब मैंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को ब्रज के बारे में पावर पाइंट प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईनकरप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये  जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।



पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी भले इंसान हैं, संत हैं और पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। ऐसे में भगवान ही मालिक है कि क्या होगा?



चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी उद्देश्य रहा है, इसलिए संघ नेतृत्व को चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतिओं में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि चैबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आऐ, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी ऐसा कर पायेंगे, ये आसान नहीं। क्योंकि रांड सांड, सीढी संयासी, इनसे बचे तो सेवे काशी

Monday, July 10, 2017

योगी आदित्यनाथ जी हकीकत देखिए !

ऑडियो विज्युअल मीडिया ऐसा खिलाड़ी है कि डिटर्जेंट जैसे प्रकृति के दुश्मन जहर को ‘दूध सी सफेदी’ का लालच दिखाकर और शीतल पेय ‘कोला’ जैसे जहर को अमृत बताकर घर-घर बेचता है, पर इनसे सेहत पर पड़ने वाले नुकसान की बात तक नही करता । यही हाल सत्तानशीं होने वाले पीएम या सीएम का भी होता है । उनके इर्द-गिर्द का कॉकस हमेशा ही उन्हें इस तरह जकड़ लेता है कि उन्हें जमीनी हकीकत तब तक पता नहीं चलती, जब तक वो गद्दी से उतर नहीं जाते ।


टीवी चैनलों पर साक्षात्कार, रोज नयी-नयी योजनाओं के उद्घाटन समारोह, भारतीय सनातन पंरपरा के विरूद्ध महंगे-महंगे फूलों के बुके, जो क्षण भर में फेंक दिये जाते हैं, फोटोग्राफरों की फ्लैश लाईट्स की चमक-धमक में योगी आदित्यानाथ जैसा संत और निष्काम राजनेता भी शायद दिग्भ्रमित हो जाता है और इन फ़िज़ूल के कामों में उनका समय बर्बाद हो जाता है । फिर उन्हें अपने आस-पास, लखनऊ के चारबाग स्टेशन के चारों तरफ फैला नारकीय साम्राज्य तक दिखाई नहीं देता, तो फिर प्रदेश में दूर तक नजर कैसे जाएगी? जबकि प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का शोर हर तरफ इतना बढ़-चढ़कर मचाया जा रहा है ।

35 वर्ष केंद्रीय सत्ता की राजनीति को इतने निकट से देखा है और देश की राजनीति में अपनी निडर पत्रकारिता से ऐतिहासिक उपस्थिति भी कई बार दर्ज करवाई है । इसलिए यह सब असमान्य नहीं लगता । पर चिंता ये देखकर होती है कि देश में मोदी जैसे सशक्त नेता और उ.प्र. में योगी जैसे संत नेता को भी किस तरह जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होने दिया जाता ।

हाँ अगर कोई ईमानदार नेता सच्चाई जानना चाहे तो इस मकड़जाल को तोड़ने का एक ही तरीका हैं, जिसे पूरे भारत के सम्राट रहे देवानामप्रियदस्सी मगध सम्राट अशोक मौर्य ने अपने आचरण से स्थापित किया था । सही लोगों को ढू़ंढ-ढू़ंढकर उनसे अकेले सीधा संवाद करना और मदारी के भेष में कभी-कभी घूमकर आम जनता की राय जानना ।

देश के विभिन्न राज्यों में छपने वाले मेरे इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले, मैंने प्रधानमंत्री जी से गोवर्धन पर्वत को बचाने की अपील की थी । मामला यह था कि एक ऐसा हाई-फाई सलाहकार, जिसके खिलाफ सीबीबाई और ई.डी. के सैकड़ों करोड़ों रूपये के घोटाले के अनेक आपराधिक मामले चल रहे हैं, वह बड़ी शान शौकत से ‘रैड कारपेट’ स्वागत के साथ, योगी महाराज और उनकी केबिनेट को गोवर्धन के विकास के साढ़े चार हजार करोड़ रूपये के सपने दिखाकर, टोपी पहना रहा था । मुझसे यह देखा नहीं गया, तो मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, लेख लिखे और उ.प्र. के मीडिया में शोर मचाया । प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री ने लगता है उसे गम्भीरता से लिया । नतीजतन उसे लखनऊ से अपनी दुकान समेटनी पड़ी । वरना क्या पता गोवर्धन महाराज की तलहटी की क्या दुर्दशा होती ।

इसी तरह पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक बड़ी-बड़ी घोषाणाऐं ब्रज के लिए कर रहा था । हाई-फाई सलाहकारों से उसके लिए परियोजनाऐं बनवाई गईं, जो झूठे आंकड़ों और अनावश्यक खर्चों से भरी हुई थी । भला हो उ.प्र. पर्यटन मंत्री रीता बहुगुणा और प्रमुख सचिव पर्यटन अवनीश अवस्थी का, कि उन्होंने हमारी शिकायत को गंभीरता से लिया और फौरन इन परियोजनाओं का ठेका रोककर  हमसे उनकी गलती सुधारने को कहा । इस तरह 70 करोड़ की योजनाओं को घटाकर हम 35 करोड़ पर ले आये । इससे निहित स्वार्थों में खलबली मच गई और हमारे मेधावी युवा साथी को अपमानित व  हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया । संत और भगवतकृपा से वह षड्यंत्र असफल रहा, पर उसकी गर्माहट अभी भी अनुभव की जा रही है।

हमने तो देश में कई बड़े-बड़े युद्ध लड़े है । एक युद्ध में तो देश का सारा मीडिया, विधायिका, कानूनविद् सबके सब सांस रोके, एक तरफ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे, जब सं 2000 में मैंने अकेले भारत के मुख्य न्यायाधीश के 6 जमीन घोटाले उजागर किये । मुझे हर तरह से प्रताड़ित करने की कोशिश की गई। पर कृष्णकृपा मैं से टूटा नहीं और यूरोप और अमेरिका जाकर उनके टीवी चैनलों पर शोर मचा दिया । इस लड़ाई में भी नैतिक विजय मिली ।

मेरा मानना है कि, यदि आपको अपने धन, मान-सम्मान और जीवन को खोने की चिंता न हो और आपका आधार नैतिक हो तो आप सबसे ताकतवर आदमी से भी युद्ध लड़ सकते हैं। पर पिछले 15 वर्षों में मै कुरूक्षेत्र का भाव छोड़कर श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम के माधुर्य भाव में जी रहा हूं और इसी भाव में डूबा रहना चाहता हूँ। ब्रज विकास के नाम पर अखबारों में बड़े-बड़े बयान वर्षों से छपते आ रहे हैं। पर धरातल पर क्या बदलाव आता है, इसकी जानकारी हर ब्रजवासी और ब्रज आने वालों को है। फिर भी हम मौन रहते हैं।

लेकिन जब भगवान की लीलास्थलियों को सजाने के नाम पर उनके विनाश की कार्ययोजनाऐं बनाई जाती हैं, तो हमसे चुप नहीं रहा जाता । हमें बोलना पड़ता है । पिछली सरकार में जब पर्यटन विभाग ने मथुरा के 30 कुण्ड बर्बाद कर दिए तब भी हमने शोर मचाया था । जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता । पर ऐसी सरकारों के रहते, जिनका ऐजेंडा ही सनातन धर्म की सेवा करना है, अगर लीलास्थलियों पर खतरा आऐ, तो चिंता होना स्वभाविक है ।
आश्चर्य तो तब होता है, जब तखत पर सोने वाले विरक्त योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री को घोटालेबाजों की प्रस्तुति तो ‘रैड कारपेट’ स्वागत करवा कर दिखा दी जाती हो, पर जमीन पर निष्काम ठोस कार्य करने वालों की सही और सार्थक बात सुनने से भी उन्हें बचाया जा रहा हो । तो स्वभाविक प्रश्न उठता है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए, उन्हें जो ऐसी दुर्मति सलाह देते हैं या उन्हें, जो अपने मकड़जाल तोड़कर मगध के सम्राट अशोक की तरह सच्चाई जानने की उत्कंठा नहीं दिखाते?

Monday, July 3, 2017

नौकरशाही की बदलती भूमिका

पिछले दिनों उ.प्र. में एक अजीब वाकया हुआ। एक युवा महिला आईएएस अधिकारी ने, जो कि मुख्य विकास अधिकारी के पद पर तैनात है, एक संस्कारवान युवा को अकारण 4 घंटे के लिए अवैध रूप से अपमानित करके थाने में बिठवाया और जब थाने ने बाइज्जत उस युवा को जाने दिया, तो इस महिला अधिकारी ने एक झूठी एफआईआर लिखवाकर मीडिया में बयान दिये कि इस युवा ने उसको धमकाया, उस पर चीखा चिल्लाया, उसे आक्रामक अंगुली दिखाई और सरकारी काम में बाधा पैदा की।

अगले दिन जब अखबारों से उस युवा को यह पता चला कि उसके खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज हो गयी है। तो उसने सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा लिखकर उसी जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को ईमेल से अपनी काउंटर एफआईआर भेजी। जिसका एक मुख्य बिंदु यह भी था कि उस अधिकारी के कमरे में उस सुबह के 11 बजे उस वक्त सामान्य वीडियो रिकॉडिंग चल रही थी। युवक ने मांग की पुलिस इस विडियो रिकॉर्डिंग को अपने कब्जे में ले ले, तो दूध का दूध और पानी का पानी समाने आ जायेगा। इस पर वह महिला अधिकारी समझौते की मुद्रा में आ गयी और जिलाधिकारी की पहल पर दोनों पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता हो गया। हालांकि इस प्रक्रिया में उस युवक और उसकी प्रतिष्ठित संस्था को मीडिया में बदनाम करने का असफल प्रयास किया गया, जो तथ्यों के अभाव में टिक नहीं पाया।

उल्लेखनीय है कि वह युवा आईआईटी से बीटैक, एम टैक कम्प्यूटर सांइस से करके, सामाजसेवा के कार्यों में लगा है। उसकी पत्नी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (दिल्ली) से पढ़कर डॉक्टर हैं। उस युवा के श्वसुर 1978 बैच के आईएएस अधिकारी रहे हैं। जिस संस्था के लिए वह युवा कार्य करता है, वह एक अति प्रतिष्ठित संस्था है। जिसकी उपलब्धियों की प्रशंसा स्वयं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री करते हैं। जो भारत सरकार और उ.प्र. सरकार की सलाहकार है। जिसने अपने क्षेत्र में बिना सरकारी व विदेशी आर्थिक मदद के विकास के बड़े-बड़े काम किये हैं।

मुझे जब इस घटना की जानकारी मिली, तो मैंने दोनों पक्षों के बयानों को, अपने हजारों अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों को भेज दिया, यह मूल्यांकन करने के लिए कि वे तय करें कि कौन सही है और कौन गलत। चूंकि उस महिला अधिकारी के आरोपों का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है और पुलिस के बार-बार मांगने पर वह अपने कमरे की वीडियो रिकॉर्डिंग देने को तैयार नहीं है। इसी से सिद्ध हो जाता है कि उसने द्वेष की भावना से यह अपराध किया। वैसे भी उसके आचरण की प्रसिद्धि यही है कि वह महिला अपने 5 साल की नौकरी में हर पोस्टिंग पर इसी तरह के नाहक विवाद खड़ी करती रही है और बार-बार उसके तबादले होते रहे हैं।

यहां रोचक बिंदु यह है कि जहां देशभर के 300 से ज्यादा आईएएस अधिकारियों ने इस महिला के अहमकपन की भत्र्सना की, वहीं उ.प्र. के आईएएस अधिकारियों में से कुछ ने अपने व्हाट्एप्प ग्रुप में यह बात उठाई कि इस तरह तो कोई भी युवक हमें धमका कर चला जायेगा। इसलिए हमें एकजुट होकर अपनी साथी महिला का साथ देना चाहिए। पर उस महिला के दुव्र्यवहार की ख्याति पूरे प्रदेश में फैल चुकी है, इसलिए इस प्रस्ताव पर उ.प्र. के आईएएस अधिकारी सहमत नहीं हुए और मामला ठंडा पड़ गया।

चिंता का विषय यह है कि क्या कोई भी आईएएस अधिकारी ऐसे झूठे आरोप लगाकर, ऐसी पृष्ठभूमि के मेधावी युवक को 4 घंटे तक अवैध रूप से थाने में बिठा सकता है? क्या वे बिना सबूत के किसी भी नागरिक पर सरकारी काम में बाधा पहुंचाने का झूठा आरोप लगा सकते हैं? क्या वे खुद ही शुरू करवाई गई, पुलिस की जांच में सहयोग न करके वीडियो रिकाॅर्डिग जैसे प्रमाण दबा सकते हैं ? क्या ऐसा दुराचरण करने वाली महिला आईएएस अधिकारी के आचरण की बिना जांच किये, उसके साथी, उसकी रक्षा में खड़े होकर नैतिकता का परिचय दे रहे थे? अगर इन प्रश्नों के उत्तर ‘नहीं’ में हैं, तो ऐसे अधिकारी के खिलाफ क्या प्रशासनिक कदम उठाये जा सकते है, जो वह ऐसा अपराध दोबारा न करे?

मुख्य विकास अधिकारी का काम कानून व्यवस्था बनाना नहीं, बल्कि क्षेत्र का विकास करना होता है। मुख्य विकास अधिकारियों के कार्यालयों में प्रायः हर प्रोजेक्ट में, हर स्तर पर जो कमीशन खाया जाता है, उसकी जानकारी प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर जिले के छुटभैये ठेकेदार तक को होती है। उसके बाद भी ऐसी सीनाजोरी?

विकास का कार्य कोई सरकार अकेले नहीं कर सकती। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं और निजी क्षेत्र की भागीदारी जरूरी होती है। पर इस रवैये से तो विकास नहीं किया जा सकता। आज जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार सवा सौ से ज्यादा उच्च अधिकारियों को कामचोरी के आरोप में जबरन सेवानिवृत्त कर चुकी है और बाकी का मूल्यांकन जारी है, तो क्या ये जरूरी नहीं होगा कि भारत सरकार का कार्मिकी विभाग इस हादसे की पूरी निष्पक्षता से जांच या अध्ययन करवाये और इसे आईएएस की ट्रेनिंग में एक केस स्टडी की तरह पढ़ाया जाए? नागरिकों के अधिकारों का हनन कर, समाज की निष्काम सेवा करने वालों को अपमानित कर और दलालो व रिवश्वत देने वालों को महत्व देकर कोई भी सरकार विकास नहीं करवा सकती। योगी जी को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए, जिससे उनकी प्रजा के साथ ऐसी बदसलूकी करने की कोई हिम्मत न करे। आईएएस अधिकारियों को भी आत्म विश्लेषण करना चाहिए की ऐसी परिस्थिति में वे सच का साथ देंगे या झूठ का?

Monday, May 15, 2017

उ.प्र. पुलिस की कायापलट

यूं तो बम्बईया फिल्मों में पुलिस को हमेशा से ‘लेट-लतीफ’ और ‘ढीला-ढाला’ ही दिखाया जाता है। आमतौर पर पुलिस की छवि होती भी ऐसी है कि वो घटनास्थल पर फुर्ती से नहीं पहुंचती और बाद में लकीर पीटती रहती है। तब तक अपराधी नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं। पुलिस के मामले में उ.प्र. पुलिस पर ढीलेपन के अलावा जातिवादी होने का भी आरोप लगता रहा है। कभी अल्पसंख्यक आरोप लगाते हैं कि ‘यूपी पुलिस’ साम्प्रदायिक है, कभी बहनजी के राज में आरोप लगता है कि यूपी पुलिस दलित उत्पीड़न के नाम पर अन्य जातियों को परेशान करती है। तो सपा के शासन में आरोप लगता है कि थाने से पुलिस अधीक्षक तक सब जगह यादव भर दिये जाते हैं। यूपी पुलिस का जो भी इतिहास रहा हो, अब उ.प्र. की पुलिस अपनी छवि बदलने को बैचेन है। इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन ‘यूपी 100’ योजना शुरू होने से आया है। 

इस योजना के तहत आज उ.प्र. के किसी भी कोने से, कोई भी नागरिक, किसी भी समय अगर 100 नम्बर पर फोन करेगा और अपनी समस्या बतायेगा, तो 3 से 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ की गाड़ी में बैठे पुलिसकर्मी उसकी मदद को पहुंच जायेंगे। फिर वो चाहे किसी महिला से छेड़खानी का मामला हो, चोरी या डकैती हो, घरेलू मारपीट हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य कोई भी ऐसी समस्या, जिसे पुलिस हल कर सकती है। यह सरकारी दावा नहीं बल्कि हकीकत है। आप चाहें तो यूपी में इसे कभी भी 24 घंटे आजमाकर देख सकते हैं। पिछले साल नवम्बर में शुरू हुई, यह सेवा आज पूरी दुनिया और शेष भारत के लिए एक मिसाल बन गई है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उ.प्र. के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अनिल अग्रवाल ने अपनी लगन से इसे मात्र एक साल में खड़ा करके दिखा दिया। जोकि लगभग एक असंभव घटना है। अनिल अग्रवाल ने जब यह प्रस्ताव शासन के सम्मुख रखा, तो उनके सहकर्मियों ने इसे मजाक समझा। मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत इस योजना को स्वीकार कर लिया और उस पर तेजी से काम करवाया।

आज इस सेवा में 3200 गाडियां है और 26000 पुलिसकर्मी और सूचना प्रौद्योगिकी के सैकड़ों विशेषज्ञ लगे हैं।
 
जैसे ही आप 100 नम्बर पर फोन करते हैं, आपकी काल सीधे लखनऊ मुख्यालय में सुनी जाती है। सुनने वाला पुलिसकर्मी नहीं बल्कि युवा महिलाऐं हैं। जो आपसे आपका नाम, वारदात की जगह और क्या वारदात हो रही है, यह पूछती है। फिर ये भी पूछती है कि आपके आस पास कोई महत्वर्पूण स्थान, मंदिर, मस्ज्जिद या भवन है और आप अपने निकट के थाने से कितना है दूर हैं। इस सब बातचीत में कुछ सेकंेड लगते हैं और आपका सारा डेटा और आपकी आवाज कम्प्यूटर में रिकार्ड हो जाती है। फिर यह रिकार्डिंग एक दूसरे विभाग को सेकेंडों में ट्रांस्फर हा जाती है। जहां बैठे पुलिसकर्मी फौरन ‘यूपी 100’ की उस गाड़ी को भेज देते हैं, जो उस समय आपके निकटस्थ होती है। क्योंकि उनके पास कम्प्यूटर के पर्दें पर हर गाड़ी की मौजूदगी का चित्र हर वक्त सामने आता रहता है। इस तरह केवल 3 मिनट से लेकर 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ के पुलिकर्मी मौका-ए-वारदात पर पहंच जाते है। 

अब तक का अनुभव यह बताता है कि 80 फीसदी वारदात आपसी झगड़े की होती हैं। जिन्हें पुलिसकर्मी वहीं निपटा देते हैं या फिर उसे निकटस्थ थाने के सुपुर्द कर देते हैं।

ये सेवा इतनी तेजी से लोकप्रिय हो रही है कि अब उ.प्र. के लोग थाना जाने की बजाय सीधे 100 नम्बर पर फोन करते हैं। इसके तीन लाभ हो रहे हैं। एक तो अब कोई थाना ये बहाना नहीं कर सकता कि उसे सूचना नहीं मिली। क्योंकि पुलिस के हाथ में केस पहुंचने से पहले ही मामला लखनऊ मुख्यालय के एक कम्प्यूटर में दर्ज हो जाता है। दूसरा थानों पर काम का दबाव भी इससे बहुत कम हो गया है। तीसरा लाभ ये हुआ कि ‘यूपी 100’ जिला पुलिस अधीक्षक के अधीन न होकर सीधे प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के अधीन है। इस तरह पुलिस फोर्स में ही एक दूसरे पर निगाह रखने की दो ईकाई हो गयी। एक जिला स्तर की पुलिस और एक राज्य स्तर की पुलिस। दोनों में से जो गडबड़ करेगा, वो अफसरों की निगाह में आ जायेगा। 

जब से ये सेवा शुरू हुई है, तब से सड़कों पर लूटपाट की घटनाओं में बहुत तेजी से कमी आई है। आठ महीने में ही 323 लोगों को मौके पर फौरन पहुंचकर आत्महत्या करने से रोका गया है। महिलाओं को छेड़ने वाले मजनुओं की भी इससे शामत आ गयी है। क्योंकि कोई भी लडकी 100 नम्बर पर फोन करके ऐसे मजनुओं के खिलाफ मिनटों में पुलिस बुला सकती है। इसके लिए जरूरत इस बात की है कि उ.प्र. का हर नागरिक अपने मोबाइल फोन पर ‘यूपी 100 एप्प’ को डाउनलोड कर ले और जैसे ही कोई समस्या में फंसे, उस एप्प का बटन दबाये और पुलिस आपकी सेवा में हाजिर हो जायेगी। विदेशी सैलानियों के लिए भी ये रामबाण है। जिन्हें अक्सर ये शिकायत रहती थी कि उ.प्र. की पुलिस उनके साथ जिम्मेदारी से व्यवहार नहीं करती है। इस पूरी व्यवस्था को खड़ी करने के लिए उ.प्र. पुलिस और उसके एडीजी अनिल अग्रवाल की जितनी तारीफ की जाए कम है। जरूरत है इस व्यवस्था को अन्य राज्यों में तेजी से अपनाने की।

Monday, April 24, 2017

क्यों घुसना चाहता है वल्र्ड बैंक हमारे धर्मक्षेत्रों में?

Punjab Kesari 24 April 2017
ईसाईयों के विश्व गुरू पोप जब भारत आए थे, तो भारत सरकार ने उनका भव्य स्वागत किया था। परंतु पोप ने इसका उत्तर शिष्टाचार और कृतज्ञता के भाव से नहीं दिया बल्कि भारत के बहुसंख्यकों का अपमान एवं तिरस्कार करते हुए खुलेआम घोषणा की, कि हम 21वीं सदी में समस्त भारत को ईसाई बना डालेंगे। बहुसंख्यकों के धर्म को नष्ट कर डालने की खुलेआम घोषणा करना हमारी धार्मिक भावनाओं पर खुली चोट करना था, जो कानून की नजर में अपराध है। पर सरकार ने कुछ नहीं किया। सरकार की उस कमजोरी का लाभ उठाकर विश्व बैंक व ऐसी अन्य संस्थाओं के ईसाई पदाधिकारी, पोप की उसी घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं। इसी में से एक है ‘गरीब-परस्त पर्यटन’ (प्रो-पूअर टूरिस्म) के नाम पर हमारे पवित्र तीर्थों जैसे ब्रज या बौद्ध तीर्थ कुशीनगर आदि में पिछले दरवाजे से साजिशन ईसाई हस्तक्षेप। इसी क्रम में ब्रज के कुंडों के जीर्णोंद्धार और श्रीवृंदावन धाम में श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सौंदर्यींकरण के नाम पर एक कार्य योजना बनवाकर विश्व बैंक चार लक्ष्य साधने जा रहा है।

पहलाः विश्व में यह प्रचार करना कि भारत गरीबों का देश है और हम ईसाई लोग उनके भले के लिए काम कर रहे है। इस प्रकार उभरती आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की छवि को खराब करना। दूसराः हिंदूओं को नाकारा बताकर यह प्रचारित करना कि हिंदू अपने धर्मस्थलों की भी देखभाल नहीं कर सकते, उन्हें भी हम ईसाई लोग ही संभाल सकते हैं। जैसे कि भारत को संभालने का दावा करके अंगे्रज हुकुमत ने 190 वर्षों में सोने की चिड़ियां भारत को जमकर लूटा। उसके बावजूद भारत आज भी वैभव में पूरे यूरोप से कई गुना आगे है। जबकि उनके पास तो पेट भरने को अन्न भी नहीं है। यूरोप के कितने ही देश दिवालिया हो चुके है और होते जा रहे हैं। क्योंकि अब उनके पास लूटने को औपनिवेशिक साम्राज्य नहीं हैं। इसलिए ‘वल्र्ड बैंक’ जैसी संस्थाओं को सामने खड़ाकर हमारे मंदिरो और धर्मक्षेत्रों को लूटने के नये-नये हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। तीसराः इस प्रक्रिया में हमारे धर्मक्षेत्रों में अपने गुप्तचरों का जाल बिछाना जिससे वो सारी सूचनाऐं एकत्र की जा सकें, जिनका भविष्य में प्रयोग कर हमारे धर्म को नष्ट किया जा सके। 

एक छोटा उदाहरण काफी होगा। इसाई धर्म में पादरी होता है, पुजारी नहीं। चर्च होता है, मंदिर नहीं। ईसा मसीह प्रभु के पुत्र माने जाते हैं, ईश्वर नहीं। इनके पादरी सदियों से सफेद वस्त्र पहनते हैं, केसरिया नहीं। अब इनकी साजिश देखिएः आप बिहार, झारखंड, उड़ीसा जैसे राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों में ये देखकर हैरान रह जायेंगे कि भोली जनता को मूर्ख बनाने के लिए ईसाई धर्म प्रचारक अब भगवा वस्त्र पहनते हैं। स्वयं को पादरी नहीं, पुजारी कहलवाते हैं। गिरजे को प्रभु यीशु का मंदिर कहते हैं। 2000 वर्षों से जिन ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र बताते आए थे, उन्हें अब भारत में  ईश्वर बताने लगे हैं। क्योंकि हमारे भगवान तो श्रीकृष्ण व श्रीराम हैं। भगवान श्रीराम के पुत्र तो लव और कुश हैं। हिंदू समाज भगवान राम की पूजा करता है, लव और कुश का केवल सम्मान करता है। अगर ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र बतायेंगे तो भारतीय जनता उन्हें लव-कुश के समान समझेगी, भगवान नहीं मानेगी। चौथाः हमारे धर्मक्षेत्रों की गरीबी दूर करने के नाम पर जो कर्ज ये देने जा रहे हैं, उसमें से बड़ी मोटी रकम अर्तंराष्ट्रीय सलाहकारों को फीस के रूप में दिलवा रहे हैं। ऐसे सलाहकार जो ब्रज के विकास की योजनाऐं बनाते समय प्रस्तुति देते हुए कहते हैं कि स्वामी हरिदास जी, तानसेन के शिष्य थे।

ऐसी योजनाऐं बनाने के लिए दी जाने वाली करोड़ों रूपये फीस के पीछे हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को भ्रष्ट करने के लिए मोटा कमीशन देना और उन्हें विदेश घुमाने का खर्चा शामिल होता है। जबकि इस सब खर्चे का भार भी उत्तर प्रदेश की जनता पर कर्ज के रूप में ही डाला जायेगा। पिछले कई वर्षों से अखबारों में आ रहा है कि विश्व बैंक ब्रज की गरीबी दूर करने के लिए बडी-बड़ी योजनाऐं बना रहा है। शुरू में खबर आई कि वृंदावन में 100 करोड़ रूपये खर्च करके एक बगीचा बनाया जायेगा और एक-एक कुंड के जीर्णोद्धार पर 10-10 करोड़ रूपये खर्च करके 9 कुंडों का जीर्णोद्धार किया जायेगा। 2002 से ब्रज को सजाने में व कुंडों के जीर्णोद्धार में जुटी ब्रज फाउंडेशन की टीम को ये बात गले नहीं उतरी। क्योंकि कूड़े के ढेर पडे़, वृंदावन के ब्रह्मकुंड को ब्रज फाउंडेशन ने मात्र 88 लाख रूपये में सजा-संवाकर, सभी का हृदय जीत लिया। गोवर्धन परिक्रमा पर भी इसी तरह दशाब्दियों से मलबे का ढेर बने रूद्र कुंड को मात्र ढाई करोड़ रूपये में इतना सुंदर बना दिया कि उसका उद्घाटन करने आए उ.प्र. के मुख्यमंत्री को सार्वजनिक मंच पर कहना पड़ा कि ‘रूपया तो हमारी सरकार भी बहुत खर्च करती है, पर इतना सुंदर कार्य क्यों नहीं कर पाती, जितना ब्रज फाउंडेशन करती है।’ ब्रज फाउंडेशन ने विरोध किया तो 2015 में विश्व बैंक को ये योजनाऐं निरस्त करनी पड़ीं। अब जो नई योजनाऐं बनाई हैं वे भी इसी तरह बे-सिर पैर की हैं। ‘कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना’।
हमारे मंदिरों, तीर्थस्थलों, लीलास्थलियों और आश्रमों के संरक्षण, संवर्धन या सौदंर्यीकरण का दायित्व हिंदू धर्मावलम्बियों का है। ईसाई या मुसलमान हमारे धर्मक्षेत्रों में कैसे दखल दे सकते हैं? क्या वे हमें अपने वैटिकन या मक्का मदीने में ऐसा हस्तक्षेप करने देंगे? हमारे धर्मक्षेत्रों में क्या हो, इसका निर्णय, हमारे धर्माचार्य और हम सब भक्तगण करेंगे। ब्रज में इस विनाशकारी हस्तक्षेप के विरूद्ध आवाज उठ रही है। देखना है योगी सरकार क्या निर्णय लेगी।